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Monday, May 25, 2015

संस्कृति पर बहस हो

रामधारी सिंह दिनकर ने साफ तौर पर लिखा है साहित्य के क्षेत्र में हम न तो किसी गोयबेल्स की सत्ता मानने को तैयार हैं, जो हमसे नाजीवाद का समर्थन लिखवाए और न ही किसी स्टालिन की ही, जो हमें साम्यवाद से तटस्थ रहकर फूलने-फूलने नहीं दे सकता । हमारे लिए फरमान ना तो क्रेमलिन से आ सकता है और न आनन्द भवन से ही । अपने क्षेत्र में तो हम उन्हीं नियंत्रणों को स्वीकार करेंगे जिन्हें साहित्य की कला अनंत काल से मानती चली आ रही है ।‘  ये था दिनकर का साहस और ये थी उनकी साफगोई । ये बातें दिनकर उस वक्त कह रहे थे जब पूरा देश वामपंथ और नेहरू के रोमांटिसिज्म के प्रभाव में था ।आजादी के बाद भारतीयता और राष्ट्रवाद की बात हो रही थी तो उस वक्त दिनकर ने एक किताब संस्कृति के चार अध्याय लिखी । पहले संस्करण पर उनकी भूमिका में 5 जनवरी 1956 की तारीख हैं । इस किताब के प्रकाशन के अगले वर्ष साठ साल पूरे हो रहे हैं । इस किताब के प्रकाशन के साठ साल पूरे होने के मौके पर देशभर में साल भर तक दिनकर पर केंद्रित कार्यक्रमों की शुरुआत हो रही है । यह पहल की है पूर्व केंद्रीय मंत्री सी पी ठाकुर ने । सालभर चलनेवाले इस कार्यक्रम की शुरुआत दिल्ली के विज्ञान भवन हुई जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसका आगाज किया । रामधारी सिंह दिनकर आधुनिक हिंदी कविता के उत्तर छायावादी दौर के बेहतरीन कवि थे । उनकी कविता की खास बात यह थी कि उसका रेंज बहुत व्यापक है और एक कवि के रूप में दिनकर ने लगातार अपने आपको परिमार्जित किया । कवि के अलावा दिवकर ने गद्यलेखन भी किया । दरअसल अगर हम देखें तो नई कविता के दौर में और उसके बाद भी दिनकर जी की कविताओं को वो प्रतिष्ठा नहीं मिली जिसके वो हकदार थे । साजिशन उनको सरकारी कवि के तौर पर पेश करके उनकी अनदेखी की जाती रही, खासतौर पर जब प्रगतिशीलता के बोलबाला का दौर था । लेकिन कहते हैं कि प्रतिभा और श्रेष्ठ रचना को कोई रोक नहीं सकता । बाद के दिनों में नामवर सिंह भी ये कहने को मजबूर हो गए कि कुल मिलाकार दिनकर जी का रचनात्मक व्यक्तित्व निराला की तरह है । राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर हिंदी साहित्य के उन विरल रचनाकारों में से हैं जिनकी कविताओं में एक साथ राष्ट्रीयता, देशभक्ति, सामाजिकता, प्रेम, अध्यात्म सभी मौजूद है । दिनकर जी ने विपुल लेखन किया । किसी खास विचारधारा को नहीं मानने की वजह से उनके लेखन का उचित मूल्यांकन नहीं हो सका ।
दिनकर की ये किताब संस्कृति के चार अध्याय दरअसल एक बार फिर से बहस की मांग करती है । दिनकर ने अपनी इस किताब में भारत में चार क्रांतियों का जिक्र किया है । उनका मानना है देश की सांस्कृतिक क्रांति का इतिहास उन्हीं चार सांस्कृतिक क्रांतियों का इतिहास है । दिनकर के मुताबिक पहली क्रांति जब हुई जब आर्य भारत आए और उनका संपर्क आर्येतर जातियों से हुआ । दूसरी क्रांति तब हुई जब महावीर और बुद्ध ने स्थापित धर्मों के विरुद्ध विद्रोह किया और उपनिषदों की चिंताधारा को खींचकर वो अपनी दिशा में ले गए । संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने कहा है कि चौथी क्रांति तब हुई जब इस्लाम, विजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और हिंदुत्व से उसका संपर्क हुआ । चौथी क्रांति तब हुई जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ । संस्कृति के चार अध्याय में जिस तरह से सांस्कृतिक इतिहास को कालखंडों में विभाजित कर उसको दिनकर ने लिखा है वह इतिहासकारों के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में अपने प्रकाशन के साठ साल बाद भी खड़ा है । दरअसल दिनकर जब हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृति एकता और समान संस्कृति ती बात करते हैं तो यह कथित प्रगतिशील इतिहासकारों को नागवार गुजरता है लिहाजा उन्होंने इसको गंभीरता से नहीं लिया । इस किताब के प्रकाशन के छह साल के अंदर जब इसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ तो उसकी भूमिका में दिनकर ने लिखा- घटनाओं को स्थूल रूप से कोई भी देख सकता है, लेकिन, उनका अर्थ वही पकड़ता है, जिसकी कल्पना सजीव हो । इसलिए, इतिहासकार का सत्य नए अनुसंधानों से खंडित हो जाता है, लेकिन कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी खंडित नहीं होते । दिनकर जी खुद को इतिहासकार नहीं मानते थे बल्कि संस्कृति के चार अध्याय के बारे में तो उन्होंने लिखा- यह महल साहित्य और दर्शन का है । इतिहास की हैसियत यहां किराएदार की है । किरायेदार का आदर तो मैं करता हूं पर महल पर उसे कब्जा देने की बात मैं सोच भी नहीं सकता हूं ।दिनकर जी साफ किया है कि संस्कृति के चार अध्याय इतहास नहीं है लेकिन जिस तरह से उन्होंने राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक क्रांतियों को परखा है वो पुनर्पाठ के लिए पुख्ता जमीन तैयार करती है । अपनी इस किताब में दिनकर ने भारत में हिंदू मुसलमान संबंधों को बहुत गहनता से परखा है । दिनकर ने लिखा है भारत में एक विशेषता रही है कि वह अनेक जातियों को घोंटकर एक जाति बना देता है, अनेक धर्मों को मिलाकर एक धर्म तैयार कर देता है और अनेक संस्कृतियों के मिश्रण से एक संस्कृति पैदा कर देता है । नीग्रो, औष्ट्रिक, द्रविड़ और आर्य, कम से कम ये चार जातियां थीं, जिनके परस्पर मिश्रण और मिलन से एक महाजाति पैदा हुई जिन्हें हम हिंदू जाति कहते हैं । हिंदू कहलानेवाली संस्कृति इन चारों जातियों की संस्कृतियों के मिलन से पैदा हुईं, ... । यह समन्वित संस्कृति जब उपनिषधों के धरातल पर पहुंची तब वहां से धर्म और विचार अनेक धाराएं फूट पड़ीं, जिनमें कुछ आस्तिक थीं. कुछ नास्तिक, कुछ वेद को मानने वाली कुछ वेद को नहीं माननेवाली । यह ओक तरह की बौद्धिक अराजकता थी, एक तरह का चिंतन का कोलाहल था, जिसे बांधकर एक ओर ले चलना आसान नहीं था । इसलिए एक ही काल में आस्तिक और नास्तिक दर्शन की रचना होने लगी और सारा देश चिंतकों के तरह-तरह के विचारों से जगमगा उठा । दिनकर की इस अवधारणा के प्रकाशन के साठ साल बैद तक इसपर यथोचित ध्यान नहीं दिया गया । बजाए दिनतर की रचनाओं और अवधारणाओं पर बात करने के एक बार फिर से दिनकर को एक जाति विशेष से जो़ड़कर देखने की कोशिशें शुरू हो गई है । दिनकर के साहित्य को बगैर पढ़े लोगों ने साल भर चलनेवाले कार्यक्रमों को बिहार चुनाव से जोड़कर भूमिहार जाति को रिझाने की बीजेपी की कोशिश के तौर पर देखना और प्रचारित करना शुरू कर दिया है ।  
सवाल यही उठता है कि हमारा कथित प्रगतिशील बौद्धिक समाजज हर चीज को किसी ना किसी चश्मे से देखना शुरू कर देता है । हमारे यहां के बौद्धिक प्रगतिशीलता का आधार ही यही रहा है कि जो आपकी विचारधारा के साथ ना चले या जो आपकी विचारधारा का अनुयायी ना हो उसको बदनाम करना शुरू कर दो । बदनाम भी इस हद तक उसको साहित्य की दुनिया में अस्पृश्य कर दो । संवाद खत्म कर दो । यह इतनी बड़ी साजिश होती है कि किसी भी रचनाकार पर संवाद की प्रक्रिया ही बाधित या बंद कर दो । नतीजा यह होगा कि ना उसकी रचना पर संवाद होगा और उसकी रचनाओं की आलोचना होगी । यह खेल लंबे समय तक चला । दिनकर जी को वामपंथियों के इस खेल का भली भांति अहसास था तभी तो वो बहुधा उनपर चोट भी करते चलते थे । दिनकर ने कहा था- किसी भी कृति को मार्क्सवादी सिद्धांतों की कसौटी पर कसकर उसे क्रांतिकारी अथवा श्रेष्ठ करने की चेष्टा अयुक्तियुक्त औप अन्यायपूर्ण है । दिनकर हमेशा से समालोचना को कवित्व के बराबर मानते हैं जब वो कहते हैं कि जो लोग यह समझते हैं कि समालोचना सीखने की चीज है वे गलती करते हैं । यह भी उसी प्रकार का जन्मजात है जैसे कवित्व । तभी को डॉ नागेन्द्र ने कहा था- यह उनके व्यक्तित्व की सजीवता का प्रमाण है कि उन्होंने किसी एक विचार पद्धति को नतशिर होकर स्वीकार नहीं कर लिया । दिनकर की साहित्य में उपेक्षा की यह बड़ी वजह है ।  

दिनकर की दो कृतियों पर हुए समारोह के बहाने से उनकी रचनाओं पर बात हो सिर्फ सरकारी समारोह की तरह रस्म अदायगी ना हो तो यह दिनकर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी । जिस तरह से दिल्ली के विज्ञान भवन में समारोह हुआ जहां प्रधानमंत्री के अलावा किसी ने भी दिनकर की रचनाओं पर बात नहीं हुई । प्रसून जोशी ने अवश्य उनकी कविताओं का सस्वर पाठ किया लेकिन उसके पहले अपनी एक कविता चिपका दी । मंच पर डॉ बिंदेश्वर पाठक और उषाकिरण खान की मौजूदगी की वजह समझ से परे हैं । मंच पर बैठे प्रधानमंत्री कई बार असहज महसूस कर रहे थे जब उनके व्यक्तित्व की तुलना दिनकर की कविता की मजबूती से की जा रही थी । धन्यवाद ज्ञापन में उनके लिए प्रयुक्त विशेषण उनको असहज कर गए । ना तो मंचासीन साहित्यकार ने संस्कृति के चार अध्याय पर कुछ कहा और ना ही परशुराम की प्रतीक्षा पर । हैरत तो साठ साल पूरे होने को स्वर्णजयंती कहने पर भी हुई । इन्हीं वजहों ने आलोचकों को अवसर दिया । आयोजकों को विचार करना चाहिए ।  

Sunday, May 24, 2015

क्रांतिवीर मार्क्सवादियों की हकीकत ?

कार्ल मार्क्स । मार्क्सवाद । ये दो शब्द हैं ऐसे हैं जो भारत में बुद्धिजीवियों के एक बड़े तबके को बहुत लुभाते हैं । इन दो शब्दों के रोमांटिसिज्म में वो इसके आंकलन में वस्तुनिष्ठ नहीं हो पाते हैं । तमाम धाराओं को इन दो शब्दों की धारा में बहाने का दुराग्रह करते चलते हैं । आलोचना से लेकर रचना तक की कसौटी का मूल आधार यही दो शब्द रहते हैं । अभी हाल ही में कार्ल मार्क्स की एक सौ सत्तानवीं जयंती बीती है । इस मौके पर एक बार फिर से उनकी महानता का गुणगान करते हुए लेख छपे । भाषण दिए गए । सोशल मीडिया पर इस विचारधारा के अनुयायियों ने जमकर अपनी ऊर्जा का प्रदर्शन किया । मार्क्सवाद एक अवधारणा के तौर पर, एक आदर्शवादी सिद्धांत के तौर पर बहुत अच्छा कहा या माना जा सकता है लेकिन शुरुआत से लेकर अबतक मार्क्सवाद की जो व्यावहारिकता सामने आई है उसपर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया । मार्क्सवाद की जो अवधारणा है उसमें धर्म को अफीम कहा गया है । यह लाइन इसके अनुयायियों को बहुत भाती है । वो लगातार इसका प्रचार करते हैं और इस लाइन के आधार पर धर्म को भला बुरा कहते चलते हैं । धर्म को अफीम मानने वाले यह भूल जाते हैं कि धर्म लोगों को एक मर्यादा में रहना भी सिखाता है । मार्क्सवाद की जो अवधारणा है वो पूंजीवाद का निषेध करता है लेकिन परोक्षरूप से पूरी तौर पर भौतिकतावाद की वकालत करता है । वहां परिवार या सामाजिक बंधन या मान्यता नाम की चीजें अमान्य हैं । सोवियत रूस में जब उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हुई तो यह मान्यता प्रचारित की गई कि शादी विवाह आदि का कोई अर्थ नहीं है । जब जिसका मन करे वो किसी से भी संबंध बनाए । यह भौतिकतावाद की ही एक मिसाल है । लगभग बीस सालों तक सोवियत रूस में यह बात चलती रही । आपको यह याद दिला दें कि उन्नीस सौ सत्रह से लेकर उन्नीस सौ तीस तक सोवियत रूस में एक ग्लास पानी मुहावरा काफी प्रचलित था । यह उस बात के लिए कहा जाता था कि जब प्यास लगे तो पानी पी लो और जब शरीर की मांग हो तो उसको किसी के भी साथ पूरा कर लो । करीब बीस साल तक रूस में ये चलता रहा और फिर धीरे धीरे इस अवधारणा को बगैर किसी शोर शराबे के दफन कर दिया गया ।
मार्क्स के दो बड़े भारी अनुयायी हुए । एक तो चीन के माआत्सेतुंग और दूसरे क्यूबा के सर्वेसर्वा फिडेल कास्ट्रो । फिडेल हलांकि पहले मार्क्सवादी नहीं थे लेकिन बाद में सोवियत रूस से लेकर तमाम वामपंथी देशों ने सहयोग आदि देकर उनको अपने पाले में ले लिया । कालांतर में वो और उनका देश दोनों कम्युनिस्ट बन गया और वो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ क्यूबा के 1961 से लेकर 2011 तक महासचिव रहे । इन दोनों के बारे में वामपंथी बहुत उच्च विचार रखते हैं । एक समय में तो हमारे देश में चेयरमैन माओ के समर्थन में नारे लगानेवाले भी खुलेआम मिल जाया करते थे । फिडेल कास्ट्रो में भी वामपंथी लगभग मूर्तिपूजा की हद तक आस्था रखते हैं । सवाल यही है कि किसी के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन क्या भक्तिभाव के साथ किया जा सकता है । क्या किसी को आलोचना से ऊपर मानकर उसका मूल्यांकन किया जा सकता है । नहीं । भारत में हमारे वामपंथी बौद्धिकों ने माओ से लेकर कास्ट्रो तक का मूल्यांकन भक्ति भाव के साथ किया, लिहाजा उन्हें उनके व्यक्तित्व में कोई खामी, उनके कार्यों में कोई कमी, उनके चरित्र में कोई खोट आदि दिखाई ही नहीं दिया । इस तरह की हर बात को षडयंत्रपूर्वक दबा दिया गया । धर्म को अफीम मानने वाले लोगों की अपने वैचारिक गुरुओं में इस तरह की आस्था उनको बौद्धिक रूप से लगातार बेईमान बनाती रही । भारत में इस तरह की बौद्धिक बेईमानी का खेल दशकों तक चलता रहा । कम्युनिस्टों को या वामपंथ में आस्था रखनेवाले साहित्यकारों, लेखकों को साहित्य में बहुत ऊपर का दर्जा दिया गया जबकि वामपंथ की परिधि से बाहर लेखन करनेवालों को, भारतीय परंपरा और धर्म, पौराणिक कथाओं और मिथकों पर लिखनेवालों को लगातार हाशिए पर रखा गया । ये सब एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया, साहित्य में इस तरह की राजनीति करनेवालों की पहचान करना आवश्यक है । खैर हम वापस मार्क्सवाद के दो पुरोधा की ओर लौटते हैं । माओ और फिडेल कास्ट्रो ।
अभी हाल ही में मैनें इन दोनों पर कई किताबें और किताबों के अंश पढ़े । जैसे माओ पर लिखी जंग चांग की किताब- द अननोन स्टोरी ऑफ माओ और फिडेल पर लिखी ब्रायन लैटल की किताब- कास्ट्रोज सीक्रेट, द सीआईए एंड क्यूबाज इंटेलिजेंस मशीन । इन दो किताबों के अलावा उन्नीस सौ अठानवे में वेंडी गिंबेल की एक किताब आई थी हवाना ड्रीम्स, उसमें भी कास्ट्रो पर लिखा गया है । अभी हाल ही में एक किताब आई है - द डबल लाइफ ऑफ फिडेल कास्ट्रो । इस किताब के लेखक हैं सत्रह सालों तक उनके अंगरक्षक रहे जुआन रियेनाल्डो सांचेज । इन किताबों के लेखक अलग अलग विचारधारा और पृष्ठभूमि के हैं । इन सारी किताबों या उनके अंशों को पढ़ने का बाद एक साझा सूत्र जो इन दोनों मार्क्स के अनुयायियों को जोड़ती है वह यह है कि दोनों लगभग तानाशाह थे । दोनों अपने विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे । दोनों को अपने विरोधियों को निबटाने के लिए हिंसा का सहारा लेने में कोई गुरेज नहीं था । दोनों की सेक्सुअल लाइफ बेहद रहस्यमयी थी । दोनों अपने लिए बेशुमार दौलत इकट्ठा करना चाहते थे ।
अब एक प्रसंग माओ के बारे में देखिए । जब अक्तूबर उन्नीस सौ इकतालीस में वांग मिंग ने माओ को लेख लिखकर चुनौती दी तो माओ भन्ना गए । उन्होंने उनके लेखों को छपने से रोक दिया । मिंग ने अपने विचारों को पोस्टर के तौर पर प्रचारित किया । यह बात माओ के गले नहीं उतर रही थी वो रात में बाहर निकलकर उन पोस्टरों को पढ़नेवालों की संख्या को देखने निकलते थे । पोस्टरों की बढ़ी लोकप्रियता से घबराकर उन्होंने मिंग को निबटाने की योजना बनाई । एक दिन अचानक मिंग बीमार पड़ते हैं और अस्पताल में भर्ती होते हैं । माओ ने अपने पॉयजनिंग यूनिट के डॉक्टर जिन म्याओ को वांग मिंग के इलाज के लिए नियुक्त किया । उन्होंने मिंग के लिए कई ऑपरेशन सुझाए लेकिन वो खतरनाक होने की वजह से नहीं हो पाए । जब मिंग को अस्पताल से छुट्टी दी जानी थी तब डॉ जिन ने उनको गोली खिलाई जिसके बाद वो बीमार पड़ गए । बाद में जांच में पता चला कि ये मरकरी पॉयजनिंग का केस था । परिदृश्य पर रूस के एक डॉक्टर के आने के बाद यह बात खुली । इसी तरह से माओ ने सांस्कृतिक क्रांति के दौर में सिनेमा पर प्रतिबंध लगा दिया। उन्नीस सौ पचास में वहां उनतालीस फीचर फिल्में बनी तो दो साल बाद इसकी संख्या घटकर सिर्फ दो रह गई । सांस्कृति स्वतंत्रता की वकालत करनेवाले इन माओ के समर्थकों ने इतिहासबोध को खूंटी पर टांग दिया है, लगता है ।    

इसी तरह से अगर हम देखें तो फिडेल कास्ट्रो के चेहरे से भी क्रांतिकारी नायक का नकाब लगातार उतरता चला जाता है । फिडेल कास्ट्रो ने शादी शुदा होते हुए एक शादी शुदा महिला से ना केवल संबंध बनाए बल्कि उनके एक बच्चे के पिता भी बने । नटालिया नाम की इस महिला और कास्ट्रो के बीच के प्रेम पत्रों के सार्वजनिक होने के बाद इस विवाहेत्तर संबंध का खुलासा हुआ । अब से चंद महीने पहले नटालिया की मौत हुई और उन्हें इस बात का मलाल था कि जिस शख्स ने 1953 में आक्रमण की रणनीति उनके घर पर रहकर बनाई वही शख्स जब दो साल बाद क्यूबा की सत्ता पर काबिज होते है तो उसको भूल जाता है । भूल तो वो अपनी बेटी को भी जाता है । यह मार्क्सवाद की एक गिलास पानी की अवधारणा का निकृष्टतम रूप है । अब उससे भी एक खतरनाक बात सामने आई है । सत्रह साल तक क्यूबा के राष्ट्रपति फिडेल कास्ट्रो के अंगरक्षक रहे जुआन रियेनाल्डो सांचेज की ताजा किताब- द डबल लाइफ ऑफ फिडेल कास्ट्रो -  से यह खुलासा किया है कि किस तरह से कास्ट्रो ने एक ड्रग्स कारोबारी को पचहत्तर हजार डॉलर के एवज में क्यूबा में ऐश करने की अनुमति दी । इस किताब में इस बात के पर्याप्त सबूत दिए गए हैं कि किस तरह से फिडेल कास्ट्रो अपने सीक्रेट रूम में बैठकर कोकीन कारोबारी के बारे में सौदेबाजी कर रहे थे । इस किताब के लेखक ने इस बात का भी खुलासा किया है कि कास्ट्रो के हवाना में बीस आलीशान कोठियां हैं, वो एक कैरेबियन द्वीप के भी मालिक हैं । इस तरह के खुलासों से साफ है कि मार्क्सवाद की आड़ में उनके रहनुमा रहस्यमयी सेक्सुअल लाइफ से लेकर तमाम तरह के भौतिकवादी प्रवृत्तियों को अपनाते हैं और विचारधारा की आड़ में व्यवस्था बदलने का सपना दिखाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं । 

Tuesday, May 19, 2015

कविता में अभियान, गद्य में शासन

केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार के एक साल पूरे होनेवाले हैं । सरकार के सालभर के कामकाज का आंकलन हो रहा है । तमाम तरह के सर्वे सामने आ रहे हैं जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को मापा जा रहा है । नतीजे कहीं कम तो कहीं ज्यादा तो कहीं स्थिर नजर आ रहे हैं । सरकार की नीतियों को कसौटी पर कसा जा रहा है और उसके नतीजों पर बहस हो रही है सरकार ने भी अपनी सालभर की उपलब्धियों को लेकर जनता के सामने जाने की रणनीति का खुलासा कर दिया है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मथुरा रैली से उसका आगाज होगा । देशभर में हर जिला मुख्यालय पर पार्टी के प्रवक्ता प्रेस कांफ्रेंस करेंगे । यह मोदी का अपना स्टाइल है जिसे विराट या भव्यता कहा जा सकता है । अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के पूरा होने और ना होने के इस कोलाहल के बीच एक चीज जो नरेन्द्र मोदी को लेकर कायम है वह है उनपर लिखी जानी वाली किताबें । चुनाव पूर्व शुरू हुआ यह सिलसिला अब भी कायम है और नियमित अंतराल पर नरेन्द्र मोदी को केंद्र में रखकर किताबें लिखी जा रही है । पहले लोकसभा चुनाव को लेकर कई किताबें आईं परंतु उन सबके केंद्र में नरेन्द्र मोदी ही थे, परिधि पर राहुल गांधी और अन्य दलों के नेता । नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कई लेखकों ने उनके व्यक्तित्व को अपनी लेखनी के माध्यम से खोलने का प्रयास किया । कई गंभीर कोशिशें हुईं तो कुछ स्वंयभू लेखकों ने इसको अवसर की तरह भुनाने के लिए किताबें लिखीं जिसका कोई स्थायी महत्व नहीं है । पाठकों को याद होगा कि जब नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों में लालू यादव अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे तो लालू चालीसा से से लेकर ग्रंथावलियां तक लिखी गईं । चालीसा लिखनेवाले एक सज्जन तो राज्यसभा तक पहुंच गए । मोदी पर लिखनेवाले कई लेखकों की मंशा भी वहीं पहुंचने की है, लिहाजा वो भक्तिभाव से लेखन कर रहे हैं । हो सकता है कि इस तरह के लेखन से उनको लाभ मिल जाए लेकिन साहित्य या राजनीतिशास्त्र को वो कोई स्थायी महत्व की पुस्तक नहीं दे पाएंगे । किताबों की इस भीड़ के बीच लंबे समय तक पत्रकार रहे लेंस प्राइस की किताब- द मोदी इफेक्ट, इनसाइड नरेन्द्र मोदीज़ कैंपेन टू ट्रांसफॉर्म इंडिया प्रकाशित हुई । लेंस प्राइस का लंबा अंतराल बीबीसी में राजनीतिक संवाददाता के तौर पर गुजरा । बाद में उन्होंने ब्रिटेन की लेबर पार्टी के कम्युनिकेशन विभाग को संभाला और लगभग साल डेढ साल उसके प्रमुख भी रहे । ब्रिटेन के 10 डाउनिंग स्ट्रीट में भी उन्होंने दो साल बिताए । इसके पहले भी लेंस प्राइस की किताब- स्पिन डॉक्टर्स डायरी और टाइम एंड फेट खासी चर्चित रही है । अपनी इस किताब द मोदी इफेक्ट में लेंस प्राइस ने पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की रणनीतियों को उनके करीबियों के माध्यम से परखने की कोशिश की है । इस किताब में लेंस प्राइस ने नरेन्द्र मोदी से लंबी बातचीत की और उनके मन मिजाज और व्यक्तित्व को समझा है । इस किताब में चुनावी रणनीति पर मोदी के अलावा उनकी टीम के सदस्यों से बात की गई । मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी दिनचर्या से लेकर लाल किला पर उनके भाषण को सुनने और उसको अनुभव करने के लिए लेखक अपने अनुवादक के साथ मौजूद थे । इस पूरी किताब में लेंस प्राइस वस्तुनिष्ठ होकर उनका मूलायांकन करते हैं । हाल के दिनों में जिन भारतीय पत्रकार या लेखकों ने नरेन्द्र मोदी या उनकी रणनीति पर लिखा, उनमें से कुछ अपवादों को छोड़कर, सबने भक्तिभाव से लिखा । इस मायने में लेंस प्राइस की किताब थोड़ी अलग है ।
लेंस प्राइस ने अपनी इस किताब में पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त नरेन्द्र मोदी की रणनीत के रेशों को उघाड़ने की बहुत हद तक कामयाब कोशिश की है । किस तरह से नरेन्द्र मोदी ने सोशल मीडिया से लेकर मीडिया का चुनावी इस्तेमाल कर ऐतिहासिक कामयाबी हासिल की । नरेन्द्र मोदी से अपनी पहली मुलाकात में लेखक शुरू में यह दंभ भरता है कि वो किसी के भी प्रभाव में नहीं आता है । इस क्रम में वो अपने लंदन के प्रधानमंत्री कार्यलय में काम करने और विश्व के बड़े नेताओं से मिलने का जिक्र कर अपने तर्कों को मजबूत भी करने की कोशिश करते हैं । बड़ी शख्सियतों पर किताब लिखने में एक तकनीक का इस्तेमाल बहुधा लेखक करते हैं जिसे नेम ड्रापिंग कहते हैं । लेंस प्राइस ने भी अपनी इस पूरी किताब में 10 डाउनिंग स्ट्रीट के अपने कार्यकाल में मिले नेताओं का जमकर नेम ड्रापिंग किया है । जैसे मोदी से हुई अपनी पहलीमुलाकात का जिक्र करते हुए लेंस प्राइस दक्षिण अफ्रीका के करिश्माई नेता नेल्सन मंडेला के साथ अपनी दस मिनट की मुलाकात का जिक्र करते हैं । मोदी के व्यक्तित्व के बारे में लिखते हुए लेंस प्राइस ने कहा है कि वो हर स्थिति को अपने कंट्रोल में रखते हैं चाहे कोई मुलाकात ही क्यों ना हो । लेंस कहते हैं कि मोदी इंपोजिंग भी है और उनकी आंखें सामने वाले को अंदर तक भेदने की क्षमता रखती है । लेंस प्राइस ने उनके चुनावी जुमलों को भी अपनी इस किताब में सफलता और असफलता के नजरिए से देखने की कोशिश की है । जैसे छप्पन इंच की छाती पर लिखते हुए वो मोदी की लंबाई, उनकी चौडाई आदि का वर्णन करते हैं । यहां वो यह कहते हैं कि मोदी का सीना भले ही छप्पन इंच का ना हो लेकिन उन्होंने अपने व्यक्तित्व के साथ इस भारतीय मुहावरे को मिलाकर इस तरह से पेश किया ताकि एक मजबूत और दमदार नेता की छवि को बढ़ावा मिल सके । लेखक लेंस प्राइस नरेन्द्र मोदी के अपने व्यक्तित्व को सहेज संवार कर रखने की क्षमता से भी प्रभावित हैं । लेंस प्राइस की पहले यह धारणा थी कि मोदी अपने बारे में मनपसंद तरीके से लिखी चीचें पढ़ते हैं । पहली मुलाकात में नरेन्द्र मोदी लेखक से यह कहते हैं कि वो जितनी चाहें आलोचना कर सकते हैं तो वो चकित रह जाते हैं ।

लेंस प्राइस ने लिखा है कि मोदी का भाग्य और भगवान में काफी यकीन है । एक विदेशी लेखक के लिए यह अचंभा हो सकता है या फिर उसको यह बात उल्लेखनीय लग सकती है । लेंस प्राइस का दावा है कि मोदी के बारे में उन्होंने इस किताब को लिखने के पहले काफी शोध किया था लेकिन जब वो उनके धार्मिक होने का उल्लेख प्रमुखता से करते हैं तो उनके उक्त दावे में संदेह भी होता है । लेंस प्राइस लिखते हैं कि मोदी ने उनसे कहा कि हम अपने धर्म में विश्वास रखते हैं, भाग्य पर यकीन करते हैं । मारो भाग्य विधाता जैसे शब्द लेखक को मोदी ने कहा । मोदी ने लेखक से कहा कि उनका भाग्य पर यकीन है इस वजह से आज तक उन्होंने बुलेट प्रूफ जैकेट नहीं पहना । लेखक ने मोदी के टेक सैवी होने को भी बहुत प्रमुखता दी है । इसी तरह से एक बातचीत में मोदी ने एक नेता तो परिभाषित करते हुए कहा कि अच्छा नेता वो होता है जिसमें सबको साथ लेकर चलने की क्षमता होती है । एक नेता के तौर पर मेरा मानना है कि आपको हर किसी से एक इंसान के तौर पर हाथ मिलाने के लिए उपलब्ध रहना चाहिए । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि एक नेता को सबको खुश रखना चाहिए । इतना अवश्य होना चाहिए कि नेता को खुद में खुद के कर्मों में भरोसा होना चाहिए । उस तरह की कई बातें इस किताब में हैं जो मोदी के दर्शन के समझने में मददगार साबित होती है । लेंस प्राइस ने मोदी की इस बात के लिए भी तारीफ की है कि है लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने कांग्रेस के हर हमले को एक संभावना के तौर पर लिया और उसको इस तरह से आगे बढ़ाया कि उसका फायदा मिल सके । जैसे कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर के चायवाला की टिप्पणी को मोदी ने अपने चुनावी नारे की तरह इस्तेमाल कर लिया । चाय पर चर्चा का कार्यक्रम की शुरुआत हुई । यह अलहदा बात है कि चाय पर चर्चा कार्यक्रम तकनीकी दिक्कतों की वजह से तीन बार ही संभव हो पाया लेकिन उसके बाद थ्री डी और होलोग्राम तकनीक का इस्तेमाल कर उसको और व्यापक फलक प्रदान किया गया । कुल मिलाकर अगर हम लेंस प्राइस की इस किताब का अगर मूल्यांकन करें तो यह पाते हैं कि यह पढ़ने में आनंद देती है, उस दौर की कई घटनाओं को एक नई दृष्ठि से समझने का आधार भी देती है । मोदी का व्यक्तित्व या फिर उनकी लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व सफलता को समझने के लिए यह किताब संकेत तो करती है लेकिन यह इतना बड़ा विषय है कि इसको साढे तीन सौ पन्नों में समेटना मुमकिन नहीं है । मोदी सरकार के साल भर पूरे होने के मौके पर उनके व्यक्तित्व और उनके काम काज करने के तरीके को समझने के लिए लेंस प्राइस ने एक अच्छा आधार दिया है । 

Sunday, May 17, 2015

सांस्कृतिक इतिहास लेखन पर हो बहस

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर । हिंदी साहित्य का एक ऐसा सितारा है जिसने विपुल लेखन किया । उन्हें ज्ञानपीठ समेत कई पुरस्कार मिले लेकिन किसी खास विचारधारा को नहीं मानने की वजह से उनके लेखन का उचित मूल्यांकन नहीं हो सका । दिनकर जी भारत के उन विरले साहित्यकारों में से हैं जो एक साथ गद्य और पद्य में समान अधिकार और विशिष्टता से लिखते हैं । दिनकर बहुत बेबाकी से अपनी बातें कहते थे । रामधारी सिंह दिनकर ने साफ तौर पर लिखा है साहित्य के क्षेत्र में हम न तो किसी गोयबेल्स की सत्ता मानने को तैयार हैं, जो हमसे नाजीवाद का समर्थन लिखवाए और न ही किसी स्टालिन की ही, जो हमें साम्यवाद से तटस्थ रहकर फूलने-फूलने नहीं दे सकता । हमारे लिए फरमान ना तो क्रेमलिन से आ सकता है और न आनन्द भवन से ही । अपने क्षेत्र में तो हम उन्हीं नियंत्रणों को स्वीकार करेंगे जिन्हें साहित्य की कला अनंत काल से मानती चली आ रही है ।‘  ये था दिनकर का साहस और ये थी उनकी साफगोई । ये बातें दिनकर उस वक्त कह रहे थे जब पूरा देश वामपंथ और नेहरू के रोमांटिसिज्म के प्रभाव में था । अगले साल दिनकर की किताब संस्कृति के चार अध्याय के प्रकाशन के साठ साल पूरे हो रहे हैं । पहले संस्करण पर उनकी भूमिका में 5 जनवरी 1956 की तारीख हैं । इस किताब के प्रकाशन के साठ साल पूरे होने के मौके पर देशभर में सालभर तक दिनकर पर केंद्रित कार्यक्रमों की शुरुआत हो रही है । यह पहल की है पूर्व केंद्रीय मंत्री सी पी ठाकुर ने । सालभर चलनेवाले इस कार्यक्रम की शुरुआत दिल्ली के विज्ञान भवन में होगी जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसका आगाज करेंगे ।

दिनकर की ये किताब संस्कृति के चार अध्याय दरअसल एक बार फिर से बहस की मांग करती है । दिनकर ने अपनी इस किताब में भारत में चार क्रांतियों का जिक्र किया है । उनका मानना है देश की सांस्कृतिक क्रांति का इतिहास उन्हीं चार सांस्कृतिक क्रांतियों का इतिहास है । दिनकर के मुताबिक पहली क्रांति जब हुई जब आर्य भारत आए और उनका संपर्क आर्येतर जातियों से हुआ । दूसरी क्रांति तब हुई जब महावीर और बुद्ध ने स्थापित धर्मों के विरुद्ध विद्रोह किया और उपनिषदों की चिंताधारा को खींचकर वो अपनी दिशा में ले गए । संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने कहा है कि चौथी क्रांति तब हुई जब इस्लाम, विजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और हिंदुत्व से उसका संपर्क हुआ । चौथी क्रांति तब हुई जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ । संस्कृति के चार अध्याय में जिस तरह से सांस्कृतिक इतिहास को कालखंडों में विभाजित कर उसको दिनकर ने लिखा है वह इतिहासकारों के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में अपने प्रकाशन के साठ साल बाद भी खड़ा है । दरअसल दिनकर जब हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृति एकता और समान संस्कृति ती बात करते हैं तो यह कथित प्रगतिशील इतिहासकारों को नागवार गुजरता है लिहाजा उन्होंने इसको गंभीरता से नहीं लिया । एक रणनीति के तहत दिनकर की प्रतिभा को वामपंथी लेखकों ने नजरअंदाज किया । इस किताब के प्रकाशन के छह साल के अंदर जब इसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ तो उसकी भूमिका में दिनकर ने लिखा- घटनाओं को स्थूल रूप से कोई भी देख सकता है, लेकिन, उनका अर्थ वही पकड़ता है, जिसकी कल्पना सजीव हो । इसलिए, इतिहासकार का सत्य नए अनुसंधानों से खंडित हो जाता है, लेकिन कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी खंडित नहीं होते । अब वक्त आ गया है कि दिनकर की रचनाओं की ओर आलोचकों का ध्यान जाए और गहराई से उसका विश्लेषण और मूल्यांकन किया जाए ।       

दूरगामी असर का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आजादी पर अपने ताजा ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि किसी भी व्यक्ति को इस मसले पर पूर्ण आजादी नहीं है । अदालत के मुताबिक संविधान ने इस आजादी के साथ कुछ सीमाएं भी निर्धारित की हैं । अदालत के मुताबिक धारा 19(1) और 19(2) को एक साथ मिलाकर देखने पर स्थिति साफ होती है । सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में कहा कि कलात्मक अजादी के नाम पर लेखकों और कलाकारों को भी अपने माहापुरुषों के बारे में अभद्र और अश्लील टिप्पणी की छूट नहीं मिल सकती । लेखकों को भी शालीनता के समसामयिक सामुदायिक मापदंडों की सीमा लांघने की अनुमति नहीं दी जा सकती । दरअसल ये पूरा मामला 1994 में महात्मा गांधी पर छपी एक कविता को लेकर उठे विवाद पर दिया गया है । सुप्रीम कोर्ट के महात्मा गांधी पर लिखी एक कविता के ताजा फैसले के संदर्भ में मराठी के मशहूर लेखक श्रीपाद जोशी की आत्मकथा का 1939 का एक प्रसंग याद आ रहा है । एक अक्तूबर 1939 को महात्मा गांधी ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस से वर्धा से दिल्ली जा रहे थे । उनके डिब्बे में अचानक एक युवक पहुंचता है  जिसके हाथ में गोविंद दास कौंसुल की अंग्रेजी में लिखी एक किताब महात्मा गांधी, द ग्रेट रोग ( Rogue) ऑफ इंडिया थी । वो गांधी जी से अपने गुरू कौंसुल की किताब पर प्रतिक्रिया लेना चाहता था । गांधी के साथ बैठे महादेव देसाई ने जब किताब का शीर्ष देखा तो गुस्सा हो गए और उसे भगाने लगे । शोरगुल होता देख बापू ने उस युवक को अपने पा बुलाया और उसके हाथ से वो किताब ले ली और पूथा कि आप क्या चाहते हैं । युवक ने गांधी जी को बताया कि वो इस किताब पर उनका अभिप्राय लेना चाहता है । गांधी जी ने कुछ देर तक उस किताब को उलटा पुलटा और फिर उसपर लिखा- मैंने इस किताब को पांच मिनट उलट पुलटा है, अभी इस किताब पर निश्चित रूप से पर कुछ पाना संभव नहीं है । लेकिन आपको अपनी बात अपने तरीके से कहने का पूरा हक है । उसके बाद उन्होंने किताब पर दस्तखत किया और उसको वापस कर दिया। ठीक इसी तरह से जब 1927 में अमेरिकन लेखक कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया लिखी और उसमें भारत के बारे में बेहद अपमानजनक टिप्पणी की तब भी गांधी जी ने उस किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग का समर्थन नहीं किया था । गांधी जी ने उस किताब की विस्तृत समीक्षा लिखकर मेयो के तर्कों को खारिज किया था और अपना विरोध जताया था । उसी वर्ष अंग्रेजों ने भारतीय दंड संहिता में सेक्शन 295 ए जोड़ा तो उसको अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात के तौर पर देखा गया था और उसका जमकर विरोध हुआ था । लाला लाजपत राय ने पुरजोर तरीके से इसका विरोध करते हुए कहा था कि यह धारा आगे चलकर अकादमिक कार्यों में बाधा बनेगी और सरकारें इसका दुरुपयोग कर सकती हैं ।
दरअसल अगर हम देखें तो लाला लाजपत राय की बातें आगे चलकर सही साबित हुईं । संविधान के पहले संशोधन, जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी के दुरुपयोग की बात जोड़ी गई, के वक्त उसको लेकर जोरदार बहस हुई थी । तमाम बुद्धिजीवियों के विरोध के बावजूद उस वक्त वो संशोधन पास हो गया था । अब हालात यह हो गई है कि संविधान के पहले संशोधन और 295 ए मिलकर अभिव्यक्ति की आजादी की राह में एक बड़ी बाधा बन गई है । इन दोनों को मिलाकर किसी भी किताब या रचना पर पाबंदी लगाने का चलन ही चल पड़ा है । हमारे यहां लोगों की भावनाएं इस कदर आहत होने लगीं कि हम रिपब्लिग ऑफ हर्ट सेंटिमेंट की तरफ कदम बढ़ाते दिखने लगे । अब सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से देश के महापुरुषों को लेकर टिप्पणी करने को गलत ठहराया है उससे और बड़ी समस्या खड़ी होनेवाली है । एक पूरा वर्ग अब इस फैसले की आड़ में मिथकीय चरित्रों या देवी देवताओं पर टिप्पणी, उनके चरित्रों के काल्पनिक विश्लेषण की लेखकीय आजादी पर हमलावर हो सकता है । संविधान सभा की बहस के दौरान बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि उदारतावादी गणतंत्र बनाने के सपने के अपने खतरे हैं । उन्होंने उस वक्त कहा था कि अगर हम इस तरह का गणतंत्र चाहते हैं तो सामाजिक पूर्वग्रहों के उपर हमें संवैधानिक मूल्यों को तरजीह देनी होगी । सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले के बाद एक बार फिर से सवाल खड़ा हो गया है कि क्या संविधान की व्याख्या करते वक्त सामाजिक मानदंडों का ध्यान रखना जरूरी है ।


Monday, May 11, 2015

साहित्यक चोरी से स्थापित होने की ललक

हाल के दिनों में लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी सामने आई है जो साहित्य को सीढ़ी बनाकर प्रसिद्धि हासिल करना चाहती है । अब से लगभग दो दशक पहले इस तरह का साहित्यक प्रेम अफसरों में देखा जाता था । कई प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों ने अपने को साहित्यक क्षेत्र में स्थापित करने के लिए बहुत जतन किए थे । हमें याद है कि नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में आयकर विभाग के आला अफसर की किताबों के सेट का विमोचन हुआ था । शानदार चमचमाते कार्यक्रम में हिंदी के नामवर दिग्गज मौजूद थे । कमिश्नर साहब की करीब आधा दर्जन पुस्तकों का एक साथ विमोचन हुआ । पांस सितारा होटल की ठंडी हवा में हिंदी के दिग्गजों ने उनको कई तरह के विशेषणों से नवाजा और एक लेखक के तौर पर उनको मान्यता का सर्टिफिकेट भी जारी कर दिया । हिंदी के नामचीन दिग्गजों के साथ मंच पर बैठकर उस आला अफसर के चेहरे पर संतोष का भाव था । समारोह में आने वाले सभी साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों के लिए उनके विभाग के कनिष्ठ अफसर हाथ बांधे खड़े थे । जब उनको बेहतरीन लेखक होने का सर्टिफिकेट दे दिया गया तब वहां मौजूद लोगों ने जमकर रसरंजन किया और पांच सितारा होटल के खाने का लुत्फ उठाया । अब बारी विदा होने की थी । वहां मौजूद लोग जब निकलने लगे तो उनके लिए उपहार का डब्बा तैयार था । छह किताबों का सेट और पार्कर कलम का सेट । उन दिनों पार्कर पेन सेट को बेहतरीन तोहफा माना जाता था । खैर यह पूरा प्रसंग बतलाने का मकसद सिर्फ इतना है कि साहित्य को कई लोग सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर अपना कद बढ़ाना चाहते हैं । लेकिन यहां यह भी बताते चलें कि हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों में से एक से प्रकाशित कमिश्नर साहब की किताबों का अब कोई नाम लेनेवाला भी नहीं है । इन दिनों साहित्य में कुछ ऐसे लोग आ गए हैं जो साहित्य के मार्फत समाज में अपने को बौद्धिक साबित करना चाहते हैं । इनमें से ज्यादातर कवयित्रियां हैं जो पुराने कवियों की कविताओं की नकल करते हुए शब्द बदलकर लोकप्रिय होना चाहती हैं । हिंदी साहित्य जगत में हमेशा से ऐसे लोग रहे हैं जो इस तरह की प्रतिभाहीन लेखिकाओं की पहचान कर उनकी महात्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाते हैं । इसके कई फायदे होते हैं । उन फायदों की फेहरिश्त यहां गिनाने का कोई अर्थ नहीं है । हम तो यहां साहित्य के बड़े सवालों से मुठभेड़ करने कि कोशिश कर रहे हैं । बड़ा सवाल यह है कि इन दिनों कविता में साहित्यक चोरी धड़ल्ले से चल रही है और कुछ साहित्यक लोग और चंद साहित्यक संस्थाएं इन साहित्यक चोरी को वैधता प्रदान करने में जुटे हैं ।
हिंदी में एक कवयित्री ने रघुवीर सहाय की कविता को आधार बनाकर उनकी लाइनें उड़ाकर एक कविता लिख डाली । रघुवीर सहाय को जिन लोगों ने नहीं पढ़ा था या जिनकी स्मृति में रघुबीर सहाय की कविता नहीं थी उनको युवा कवयित्री की इस कविता में चमत्कार दिखाई दिया । उक्त कविता की जमकर चर्चा हुई । उसी कविता के आधार पर लेखिका को पुरस्कार भी दे दिए गए । उसी कवयित्री ने पवन करण की कविता के आधार पर भी एक कविता लिखकर खूब वाहवाही बटोरी । इसी तरह एक शायर ने भी अपने पूर्ववर्ती शायर की शायरी के शब्दों में हेरफेर कर उसको छपवा लिया । वो भी चर्चित हो गए । लेकिन साहित्य की दुनिया इतनी विस्तृत है और इसमें इतने सजग पाठक हैं कि इस तरह की साहित्यक चोरी करके कोई बचकर निकल नहीं सकता है ।  कवयित्री और शायर साहब दोनों को पाठकों ने एक्सपोज कर दिया । जब उनकी साहित्यक चोरी पकड़ी गई तो उनसे जवाब देते नहीं बन पड़ रहा था । कवयित्री तो खामोशी के साथ किनारा कर गईं लेकिन शायर महोदय ने एक ही जमीन की शायरी बताकर अपनी कविता का बचाव करने का प्रयास किया ।

सवाल यह नहीं है कि एक कवयित्री या एक शायर ऐसा कर रहे हैं । यह प्रवृत्ति इन दिनों जोर पकड़ रही है । फेसबुक और सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने इस तरह की साहित्यक चोरी को बढ़ावा दिया है । फेसबुक पर कुछ मीडियाकर किस्म के कथित साहित्यकारों का एक गैंग ऑपरेट करता है जो अपने गैंग के सदस्यों की रचनओं को लेकर उड़ जाता है । उसपर इतने लाइक्स और कमेंट होने लगते हैं कि आम और तटस्थ पाठकों को लगता है कि कोई बहुत ही क्रांतिकारी चीज सामने आई है । लेकिन फेसबुकिया माफिया ये भूल जाते हैं कि ये आभासी दुनिया है और इसका फैलाव अनंत है । इसके दायरे में जो भी चीज आ जाती है वो बहुत दूर तक जाती है । सुदूर बैठा पाठक जो साहित्य के समीकरणों को नहीं समझता है और जो गंभीरता से साहित्य को घोंटता है वह जब इस तरह की साहित्यक चोरी को देखता है तो प्रमाण के साथ उजागर कर देता है । संभव है कि इस तरह की साहित्यक चोरी से फौरी तौर पर प्रशंसा मिल जाए लेकिन नकल के आधार पर कोई साहित्य में स्थापित ना तो हो पाया है और ना ही आगे हो पाएगा । 

Sunday, May 3, 2015

राष्ट्रीय पुस्तक नीति बने

मराठी लेखक भालचंद्र नेमाडे को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करने के मौके पर हुए जलसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किताबों को लेकर गंभीर चिंता जताई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि जब आर्किटेक्ट घर का डिजायन बनाता है तो वो बेडरूम से लेकर घर में रहनेवाले की हर जरूरतों को ध्यान में रखकर जियाजन चैयार करता है । यहां तक कि वो जूते रखने तक के लिए भी स्थान निर्धारित करता है लेकिन किताबों के लिए ना तो उसके जेहन में कोई जगह आती है और ना ही मकान बनवाने की प्राथमिकता में यह होता है । प्रधानमंत्री के शब्दों में थोड़ा बदलाव संभव है लेकिन भावर्थ पूरा यही था ।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि हर घर में पूजा घर की तरह किताबों के लिए भी एक अलग कमरा होना चाहिए । उन्होंने ये भी कहा कि आज की पीढ़ी गूगल गुरू से ज्ञान प्राप्त करती है जबकि अध्ययन के लिए किताबों की जरूरत होती है । यह बिल्कुल सच बात है कि हमारे देश में खासकर हिंदी में किताब खरीदने और पढ़ने की आदत खत्म सी होती जा रही है । इसकी कई वजहें हैं । किताबों की खरीद की आदत खत्म होते जाने की सबसे बड़ी वजह है उसकी अनुपल्बधता । दिल्ली समेत पूरी हिंदी पट्टी की अगर हम बात करें तो साहित्यक किताबों की दुकान मिलती ही नहीं है । देश की राजधानी दिल्ली में हिंदी साहित्य बेचनेवाली दुकानें धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं । काफी पहले दिल्ली के श्रीराम सेंटर में एक किताब की दुकान होती थी जहां साहित्यक किताबों के अलावा पत्र-पत्रिकाएं भी मिल जाया करती थीं । उसके बंद होने के बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय या फिर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में मिलती हैं लेकिन वहां भी स्टॉक बहुत सीमित होता है । यही हाल लखनऊ, पटना, चंडीगढ़, शिमला आदि का भी है । अब अगर दिल्ली में किसी को कोई खास किताब खरीदनी हो तो उसके लिए पूरा दिन खर्च करना होगा । इससे बचने के चक्कर में किताब खरीदने की आदत खत्म सी होने लगी है । अवचेतन मन में यह चलता रहता है कि अगर ख्वाहिश हो तो भी खरीज नहीं सकते लिहाजा उधर ध्यान जाना बंद हो गया है ।

जिन प़ॉश इलाकों में किताबों की दुकानें हैं वहां अंग्रेजी की ज्यादा किताबें मिलती हैं, हिंदी की किताबें वहां हाशिए पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाती दिखाई देती हैं । वो भी कहीं कहीं ही । दरअसल जब प्रधानमंत्री किताबों के बारे में उत्साह दिखाते हैं तो उनसे अपेक्षा बढ़ जाती है । हमारे देश में किताबों को लेकर ना तो कोई ठोस नीति है और ना ही कभी उस दिशा में गंभीरता से विचार किया गया । जिस तरह से देश में स्वास्थ्य नीति, शिक्षा नीति आदि पर बातें होती हैं, मंथन होता है और फिर वो एक स्वरूप में सामने आता है, उसी तरह से राष्ट्रीय पुस्तक नीति के बारे में विचार कियाजाना चाहिए । क्या हम उस आदर्श स्थिति की कल्पना कर सकते हैं जब हमारे शहरों में किताबों की दुकानें हो जहां उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध हों । क्या हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वो संबंधित मंत्रालय को राष्ट्रीय पुस्तक नीति बनाने और उसपर देशव्यापी चर्चा के लिए आदेश देंगे । यह एक आवश्यक काम है जिसमें प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत रुचि लेकर ठोस कदम उठाने होंगे । यह पीढ़ियों को संस्कारित करने का कार्य होगा । अगर सरकार इस दिशा में कोई पहल करती है तो हिंदी के प्रकाशकों को भी आगे बढ़कर इसमें हिस्सा लेना चाहिए । यह उनके मुनाफे का सौदा तो होगी ही साथ ही उनके सामाजिक दायित्व को निभाने की तरफ उठा एक कदम भी होगा । 

कट्टरता को सींचती प्रगतिशीलता

इस्लाम धर्म को बहुत वैज्ञानिक धर्म माना जाता रहा है । कुरान के आधार पर संचालित होनेवाले इस धर्म में कट्टरता की कोई गुंजाइश इसके शुरुआत में नहीं थी लेकिन कांलांतर में कुरान की व्याख्या करनेवाले मौलवियों ने इस धर्म को कट्टरता के गड्ढे में धकेल दिया। आज सही या गलत लेकिन इस्लाम को लेकर पूरे विश्व में यह धारणा बन गई है कि यह बेहद कट्टर धर्म है और इसमें ना तो सहिष्णुता है और ना ही सहनशीलता । यह बहुत ही खतरनाक बात है, प्रवृत्ति भी । मशहूर इस्लामिक चिंतक असगर अली इंजीनियर ने अपनी किताब- इस्लाम का जन्म और विकास- में लिखा था कि दुनियाभर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने आधुनिक समाजविज्ञानों की रौशनी में आरंभिक इस्लाम के विश्लेषण के आवश्यक मगर कठिन कार्य को अनदेखा किया । असगर अली इंजीनियर की बात में यह भी जोड़ा जा सकता है कि जब चंद कठमुल्ले कुरान की गलत व्याख्या कर रहे थे तो प्रगतिशील सोच के मुसलमान उनके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाए । उनकी खामोशी से इस्लामिक कट्टकपंथ को बढ़ावा मिला । हौसले तो बुलंद उनके उन मौलवियों ने भी किए जो फतवा के नाम पर कुरान की आयतों की गलत व्याख्या करते रहे । फतवे की इस राजनीति ने सबसे ज्यादा नुकसान इस्लाम की छवि को पहुंचाया । मुस्लिम प्रगतिशील तबकों के अलावा अपनी प्रगतिशीलता का तमगा गले में लटकाए घूमने वाले और बात बात पर धर्मनिरपेक्षता की दुंदुभि बजानेवाले लोग भी इस्लाम में बढ़ते कट्टरवाद पर खामोश रहे । हिंदू कट्टरतावाद, अव्वल यह शब्द ही गलत प्रचलित किया गया, के खिलाफ जो बयानवीर सामने आते थे वो ऊलजलूल के फतवों के खिलाफ खामोशी ओढ़ लेते थे । इसकी सबसे बड़ी मिसाल तस्लीमा नसरीन हैं । उन्हें पश्चिम बंगाल की प्रगतिशील सरकार ने ही सूबे से बाहर किया था। उस वक्त भी प्रगतिशील लेखकों ने आश्चर्यजनक चुप्पी साध ली थी । जबकि होना यह चाहिए था कि धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार हर धर्म की बुराइयों पर समान रूप से विरोध जताते । चुनिंदा विरोध की वजह से धीरे धीरे उनकी विश्वसनीयता खत्म होती चली गई । इस तरह से अगर हम देखें तो प्रगतिशील जमात ने ही धर्मनिरपेक्षता का सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया ।
एक साथ लगभग एक ही तरह की दो बातें सामने आईं हैं । एक तरफ तो भारत सरकार ने वैवाहिक बलात्कार को कानूनी जामा पहनाने से इंकार कर दिया । भारत सरकार का तर्क है कि भारत में विवाह एक पवित्र संस्था है लिहाजा वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा यहां लागू नहीं हो सकती है । राज्यसभा में भारत सरकार की तरफ से गृह राज्य मंत्री ने अपने लिखित बयान में बताया कि- वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा जैसा कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर समझा जाता है अनेक कारणों से भारतीय परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त रूप से लागू नहीं की जा सकती। इन कारणों में शिक्षा-निरक्षरता का स्तर, अनेक रीति रिवाज और मूल्य, धार्मिक आस्थाएं, विवाह को संस्कार मानने की समाज की सोच आदि हैं । भारत सरकार के संसद में दिए गए इस बयान पर पूरा का पूरा तथाकथित प्रगतिशील खेमा तलबारबाजी में जुट गया । दुनिया के तमाम देशों में लागू वैवाहिक बलात्कार के कानून की दुहाई दी जाने लगी । स्त्रियों के अधिकारों की बात पर कोलाहल होने लगा, स्त्री देह की स्वतंत्रता की दुहाई दी जाने लगी, आदि आदि । ऐसा लगा कि आसमान सर पर उठा लिया गया हो । भारत सरकार को दकियानूसी सोच वाली से लेकर उनके इस जवाब को पुरातनपंथी तक करार दे दिया गया । कथित बुद्धिजीवियों में इस बात को लेकर होड़ मच गई कि कौन भारत सरकार की ज्यादा से ज्यादा लानत मलामत कर सकता है ।  संभव है कि उनके तर्क ठीक हों । यह भी संभव है कि देश को अब इस तरह के कानून की जरूरत हो । इस लेख का विषय इस कानून की जरूरत और उसकी बारीकियों के बारे में बात करना नहीं है, बल्कि उन बुद्धिजीवियों को आईना दिखाना है जो विरोध के लिए धर्म विशेष का चुनाव करते हैं । अब एक दूसरा वाकया देखिए जो लगभग इसी तरह का है । मलेशिया के एक मौलवी ने फतवा जारी कर कहा कि औरतें अपने पति को शारीरिक संबंध बनाने के लिए कभी भी मना नहीं कर सकती हैं चाहे वो ऊंट पर ही क्यों ना बैठी हों । उन्होंने भी वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा को यूरोपियन अवधारणा करार दिया । यह फतवा धर्म की आड़ में जारी करते हुए कहा गया कि महिला शारीरिक संबंध से सिर्फ तब इंकार कर सकती है जब वो रजस्वला हो, बहुत बीमार हो । मलेशिया के पेराक मुफ्ती जकारिया ने साफ शब्दों में कहा कि मुस्लिम महिला शारीरिक संबंध बनाने के लिए इंकार का अधिकार उस वक्त ही खो देती है जब उसका पिता उसको उसके पति के हाथों सौंप देता है । उन्होंने साफ किया कि मुस्लिम महिलाओं के पास पति को मना करने का हक ही नहीं है । अपने इस फतवे के समर्थन में वो धर्म के सबसे बड़े ढाल का इस्तेमाल करते हैं । अन्य मुस्लिम विद्वानों का कहना है कि इस्लाम में बलात्कार की अवधारणा शादी से बाहर की है, बल्कि वो तो यह तक कहते हैं कि बलात्कार कुंवारी लड़कियों पर ही लागू होता है । उनका कहना है कि इस्लाम में अगर शारीरिक संबंध बनाने के पहले पत्नी की सहमति नहीं ली गई तो यह बलात्कार नहीं है बल्कि इसे बेरदब कहा जाता है जिसका मतलब होता है असभ्य। इसको हराम नहीं माना जाता है बल्कि इसको मकरूह कहा जाता है जिसका अर्थ होता है ऐसा कार्य जिसको नहीं किया जाना चाहिए था । इस फतवे के खिलाफ कहीं से कोई आवाज नहीं उठी । इसमें किसी को स्त्री स्वातंत्र्य का हनन नजर नहीं आया । किसी भी कथित प्रगतिशील बौद्धिक ने इसपर सार्वजनिक एतराज नहीं जताया । जबति भारत सरकार के तर्क में सामाजिक स्थितियों से लेकर शिक्षा के स्तर तक की दुहाई दी गई थी वहीं फतवे में तो फैसला सुनाया गया था । पिता के द्वारा पति तो सौंपे जाने की बात भी थी । इस वक्तव्य में किसी को भी महिला उपभोग की वस्तु नजर नहीं आती है । कोई हाय तौबा नहीं मचती है । अब इन लगभग समान दो स्थितियों पर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं इन कथित प्रगतिशीलों को कठघरे में खड़ाकर देती है । उनकी मंशा पर संदेह करने का पुख्ता आधार प्रदान करती है ।
दरअसल इस्लाम में कट्टरपंथियों के बोलबाला बढ़ते चले जाने की बड़ी वजह यही है कि हम उसपर सख्त रूप से अपनी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं । हाल में तो प्रतिक्रिया देनेवालों को मौत की नींद सुला देने की वारदातें ज्यादा होने लगी हैं । बांग्लादेश में ब्लॉगर की नृशंस हत्या, फिर पाकिस्तान में भी मानवाधिकार कार्यकर्ता सबीन का कत्ल आदि जैसी वारदातें धर्म की आड़ में ही की जा रही हैं । दरअसल इस्लाम धर्म के नाम पर इस तरह के दहशत का खेल पूरी दुनिया में खेला जा रहा है । अभी हाल ही में दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में एक प्रोफेसर पर जानलेवा हमला हुआ क्योंकि उसने सलमान रश्दी के पक्ष में लेक्चर दे दिया था । कुछ दिनों से श्रीलंका की तमिल लेखिका शर्मिला सईद निर्वासित जीवन बिताने को मजबूर हैं क्योंकि उन्होंने तमिल में चलनेवाले एक रेडियो पर दो हजार बारह में उन्होंने इस बात की वकालत की थी कि श्रीलंका में वेश्यावृत्ति को कानूनी कर दिया जाए । उनके इस बयान को इस्लाम की कसौटी पर कसा गया और वहां उसको पाप की श्रेणी में पाया गया क्योंकि इस्लाम में वेश्यावृत्ति को गुनाह माना गया है । उसके बाद शर्मिला सईद और उसके परिवारवालों को धमकियां मिलनी शुरू होने लगी । फेसबुक पर उनके नाम से प्रोफाइल बनाकर अश्लील और भद्दे कमेंट लिखे जाने लगे । ये प्रोफाइल रक्तबीज की तरह बढ़ते थे । शर्मिला और उसके पिता फेसबुक से कहकर एक को हटवाते थे तो सौ और प्रोफाइल बन जाते थे । हर जगह यही तर्क दिए जाने लगे कि एक मुस्लिम महिला कैसे वेश्यावृत्ति की वकालत कर सकती है । शर्मिला के माफी मांगने के बाद भी मामला खत्म नहीं हुआ क्योंकि कठमुल्ले उनसे बगैर शर्त माफी की मांग कर रहे थे जबकि शर्मीला इसके लिए राजी नहीं थी । यहां भी शर्मिला के समर्थन में इक्का दुक्का बुद्धिजीवी ही आए और अपील जारी करने की औपचारिकता निभा गए ।

अब अगर हम गहराई से इस पूरे परिदृश्य पर विचार करें तो बहुत अंधेरा नजर आता है । आलोचना पर हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति भारतीय मुस्लिम समाज पर भी हावी होने के लिए सर पर तैयार खड़ी है । भारत में इस कट्टरपंथ को रोकने के लिए मुस्लिम बुद्धि्जीवियों को तो आगे आना ही होगा साथ ही समाज के हर तबके के बुद्धिजीवियों को समान भाव से कट्टर पंथ पर हल्ला बोलना होगा । अगर हमारे प्रगतिशीलों ने चुनिंदा विरोध की आदत से तौबा नहीं किया तो संभव है कि कट्टरपंथ और हिंसक हो जाए । वह स्थिति हमारे लोकतंत्र के साथ साथ देश को भीकमजोर करेगी ।