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Saturday, May 30, 2020

सेलिब्रिटी जोड़ियों का सियासी खेल

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के संस्मरणों की पुस्तक का विमोचन का समारोह था। अन्य वक्ताओं के साथ नामवर सिंह भी मंच पर थे। जब उनकी बारी आई तो उन्होंने संस्मरण विधा के बहाने से समाज पर भी एक टिप्पणी कर दी थी जो अब भी समीचीन प्रतीत होती है। उनकी कही वो बात अब-तक याद है। नामवर सिंह ने विमोचन समारोह में कहा था कि ‘इस भाग दौड़ के युग में हमलोग, यह पूरा देश और खासकर जब से यह हाईटेक और फास्टफूड वाली संस्कृति चल रही है, तब से हमलोग स्मृति-भ्रंश का शिकार हो गए हैं। यह देश आज और अब को याद करने में इतना बंधा हुआ है कि अतीत को याद करना पलायन माना जाता है।‘ नामवर सिंह ने तब भगवद्गीता को भी उद्धृत किया था, ‘जिस जाति, जिस समाज और जिस देश का स्मृति-भ्रंश हो जाए उसका विनाश निश्चित है।‘ उस समारोह में नामवर सिंह संस्मरण लेखन के संदर्भ में ये बात कह रहे थे और उनका जोर इस बात पर था कि संस्मरण लेखन स्मृति-भ्रंश के खिलाफ प्रतिरोध है। इस लेख में भी हम बात करेंगे स्मृति-भ्रंश की उस पृष्ठभूमि की जो फास्टफूड वाली संस्कृति के दौर में अपनी सुविधा के लिए आम जनता को भ्रमित करने के लिए तैयार की जाती है। पिछले सप्ताह इस स्तंभ में वेब सीरीज पाताल-लोक की चर्चा की गई थी जिसकी प्रोड्यूसर फिल्म अभिनेत्री अनुष्का शर्मा हैं। वेब सीरीज पाताल-लोक में हिंदू धर्म के प्रतीकों को अपराध और अपराधियों से जोड़ने की एक सायास कोशिश दिखाई देती है। इसके अलावा भारतीय और भारतीयता की बात करनेवाली विचारधारा को कमतर और मॉब लिंचिंग आदि से जोड़कर दिखाने का उपक्रम भी है। इस बात को लेकर अनुष्का शर्मा लगातार कई दिनों से सवालों के घेरे में है। अब जरा इसके दूसरे पहलू पर विचार करते हैं यानि कि अनुष्का के पति और क्रिकेटर विराट कोहली की। अनुष्का जहां एक ओर अपने वेब सीरीज के माध्यम से हिंदू धर्म प्रतीकों और हिंदुओं की राजनीति करनेवालों पर करारा प्रहार कर रही है वहीं उनके पति विराट कोहली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तारीफों के पुल बांधते रहते हैं। अभी हाल ही में उन्होंने कोरोना संकट के दौरान संघ से जुड़े संगठन सेवा भारती के कामों की प्रशंसा करते हुए एक वीडियो जारी किया था जो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ था।कहना न होगा कि पति पत्नी अलग अलग विचारों को लेकर समाज के सामने आ रहे हैं। पति पत्नी के इस तरह के कृत्यों से भी स्मृति-भ्रंश की पृष्ठभूमि तैयार होती है। जनता यह भूल जाती है कि किसने क्या किया था। 
बॉलीवुड में देखें तो विराट कोहली और अनुष्का शर्मा ही सिर्फ ऐसे नहीं हैं जहां पति अलग विचारधारा का समर्थन और प्रचार करता है और पत्नी अलग विचारधारा के फैलाव के लिए प्रयत्नशील रहती है। ऐसी ही एक सुपरस्टार जोड़ी है रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की। दीपिका पादुकोण मौजूदा सरकार के खिलाफ नजर आती है, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले भी कांग्रेस के पक्ष में साक्षात्कार आदि दे चुकी है। पिछले दिनों भी जब उनकी फिल्म ‘छपाक’ रिलीज होनेवाली थी तो वो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के बीच जाकर मौन समर्थन दे आई थीं। भले ही तब वो अपनी फिल्म को हिट कराने का एक स्टंट था लेकिन सरकार विरोधियों के साथ खड़े होकर उन्होंने अपनी छवि और स्पष्ट कर दी थी। इसके अलावा भी दीपिका पादुकोण यदा-कदा ही सही लेकिन अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता स्पष्ट करती रही हैं। दूसरी तरफ उनके पति रणवीर सिंह भारतीय जनता पार्टी और उसके सर्वोच्च नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति अपना प्रेम प्रकट करने से कभी नहीं चूकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ झप्पी लेते हुए तस्वीर अपने इंस्टाग्राम पर साझा करते हुए लिखते हैं, ‘जादू की झप्पी, अपने महान देश के माननीय प्रधानमंत्री से मिलने की खुशी।‘ तब रणवीर सिंह के उस फोटो को इकतीस लाख से अधिक लाइक्स मिले थे। इसके अलावा भी रणवीर सिंह मोदी को लेकर अपने प्रेम को सार्वजनिक करने में नहीं हिचकते हैं। इस तरह से अगर देखें तो पत्नी भारतीय जनता पार्टी के विरोध में और पति भारतीय जनता पार्टी के साथ। अजब राजनीति की गजब कहानी। पति पत्नी के अलग अलग राजनीतिक विचारधारा के समर्थन करने की कहानी इन्हीं दोनों पर आकर खत्म नहीं होती है। और भी कई सुपर स्टार हैं जो अलग-अलग समय पर अलग-अलग राजनीतिक दलों के साथ रहे हैं। अब अगर हम अपने एक और सुपर स्टार को देखें तो स्थिति और स्पष्ट होती है ये हैं अक्षय कुमार। अक्षय कुमार के बारे में ये साफ है कि वो भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं, वो नरेन्द्र मोदी के प्रशंसक ही नहीं उनके समर्थक भी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी भी उनको पसंद करते हैं। चुनाव के पहले अगर नरेन्द्र मोदी का इंटरव्यू करना होता है तो अक्षय कुमार का ही चयन किया जाता है। कोरोना के संकट में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पीएम केयर फंड की स्थापना करते हैं तो अक्षय कुमार सबसे पहले पच्चीस करोड़ रुपए उस फंड में दान करते हैं। इसके अलावा भी वो हमेशा मोदी के पक्ष में खड़े रहते हैं। दूसरी तरफ उनकी पत्नी हैं ट्विकंल खन्ना। ट्विंकल खन्ना हमेशा से भारतीय जनता पार्टी या नरेन्द्र मोदी पर तंज कसने से लेकर विरोध में टिप्पणियां करती रही हैं। पिछले साल अप्रैल में जब अक्षय कुमार ने नरेन्द्र मोदी का बहुचर्चित इंटरव्यू किया था उसमें मोदी ने ट्विकंल के विरोध को रेखांकित भी किया था। मोदी ने तब मजाक में अक्षय कुमार से कहा भी था कि ‘जब मैं ट्विकंल खन्ना के ट्वीट्स देखता हूं तो कभी-कभी मुझे लगता है कि वो जिस प्रकार से अपना गुस्सा मुझ पर निकालती हैं उससे आपके पारिवारिक जीवन में बहुत शांति रहती होगी। उनका गुस्सा मुझपर निकल जाता है और आप सुकून से रह पाते हैं, मैं आपके किसी काम आ सका’। मोदी ने भले ही मजाक में ये बात कही थी लेकिन उन्होंने पूरी दुनिया को ये तो बता ही दिया था कि ट्विकंल खन्ना मोदी को लेकर विरोधी टिप्पणियां करती रहती हैं और अपना गुस्सा भी निकालती हैं। 
अगर हम सदी के महानायक और मेगास्टार अमिताभ बच्चन की बात करें तो वहां भी पति-पत्नी के बीच अलग-अलग विचार पलते हैं। अमिताभ बच्चन जब कांग्रेस के टिकट पर 1984 में प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) से चुनाव लड़े थे तब जया बच्चन ने उनके लिए चुनाव प्रचार किया था। जाहिर सी बात है कि तब उनको कांग्रेस के लिए प्रचार करना पड़ा था लेकिन जब बच्चन साहब का कांग्रेस से मोहभंग हुआ तो अमिताभ बच्चन, नरेन्द्र मोदी की ओर आकर्षित हुए।अमिताभ बच्चन ने मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए ही उनको समर्थन देना शुरू कर दिया था परोक्ष भी और प्रत्यक्ष भी। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो दोनों के बीच की नजदीकियों को पूरी दुनिया ने देखा। लेकिन जया बच्चन ने अमिताभ बच्चन के साथ भारतीय जनता पार्टी की ओर जाने से बेहतर समझा कि समाजवादी पार्टी की ओर रुख कर लिया जाए और वो मुलायम सिंह के साथ हो लीं। समाजवादी पार्टी ने भी उनको इज्जत बख्शी और वो 2004 से लगातार समाजवादी पार्टी के नुमाइंदे के तौर पर राज्यसभा की सदस्य हैं। बॉलीवुड का ये नया ट्रेंड चौंकाता तो है लेकिन साथ ही उनकी बदलती मानसिकता की ओर भी संकेत करता है। संकेतों को पकड़ा जाता है उसको व्याख्यित नहीं किया जा सकता है।       

Saturday, May 23, 2020

पाताल लोक में पक्षपात का समुच्चय

वेब सीरीज की स्वच्छंद दुनिया में एक नए सीरियल का पदार्पण हुआ है नाम है पाताल लोक। ये वेब सीरीज जिस प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाते हैं वो प्लेटफॉर्म ही स्वच्छंद हैं तो जाहिर ही बात है इन वेब सीरीज में स्वच्छंदता होगी ही। जब कहीं से किसी प्रकार का बंधन नहीं होता और किसी प्रकार का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता तो बहुधा ये स्वच्छंदता अराजकता में बदल जाती है। वेब सीरीज की दुनिया को देखने के बाद ये लग रहा है कि ये दुनिया स्वच्छंदता से स्वायत्ता की ओर न बढ़कर स्वच्छंदता से अकाजकता की ओर बढ़ने के लिए व्यग्र है। वेब सीरीज पर दिखाए जानेवाले कंटेंट को लेकर कई बार चर्चा हो चुकी है। इस स्तंभ में ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) पर दिखाए जाने वाले कई बेव सीरीज में दिखाए गए भयंकर हिंसा, जुगुप्साजनक यौनिक प्रसंग के अलावा समाज को बांटनेवाले कंटेंट को रेखांकित किया जा चुका है। अमेजन प्राइम पर वेब सीरीज पाताल लोक इन दिनों काफी चर्चित हो रहा है। इस वेब सीरीज की प्रोड्यूसर फिल्म अभिनेत्री अनुष्का शर्मा हैं और कहानी लिखी है सुदीप शर्मा और तीन अन्य लेखकों ने मिलकर। इस वेब सीरीज के कंटेंट पर बाद में आते हैं पहले बात कर लेते हैं कहानी की। इस वेब सीरीज की जो कहानी है वो पत्रकार तरुण तेजपाल के उपन्यास ‘द स्टोरी ऑफ माई एसेसिन्स’ पर बनाई गई प्रतीत होती है क्योंकि कहानी के प्लॉट से लेकर कुछ पात्रों के नाम और काम दोनों में समानता दिखाई देती है। अगर ऐसा है तो अबतक तरुण तेजपाल को इस वेब सीरीज पर अपनी साहित्यिक कृति की चोरी का आरोप लगा देना चाहिए था क्योंकु उनको कहीं क्रेडिट नहीं दिया गया है। साहित्यिक हलके में ऐसी चर्चा है कि तरुण तेजपाल की मर्जी से ऐसा हुआ है। सचाई या तो तरुण तेजपाल बता सकते हैं या फिर सुदीप शर्मा। एक स्टिंग ऑपरेशन के बाद तरुण तेजपाल की हत्या की साजिश की बात सामने आई थी और दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में बिहार के एक बाहुबली राजनेता का नाम भी आया था। इस बात की पर्याप्त चर्चा हुई थी कि दुबई में बैठे एक माफिया डॉन ने तरुण तेजपाल की सुपारी दी थी। उस वक्त की चर्चा में दोनों चरित्र मुसलमान थे लेकिन अगर कहानी तरुण तेजपाल के उपन्यास से प्रेरित है तो वेब सीरीज में दोनों को बदल दिया गया है, न तो सुपारी लेनेवाला और न ही देनेवाला मुसलमान है। ये कलात्मक सृजनात्मक की कैसी स्वतंत्रता है इसपर देशव्यापी बहस की आवश्यकता है।  
अब जब पाताल लोक रिलीज हुई तो एक बार फिर से इन बातों की चर्चा शुरू हो जाना स्वाभाविक है। कहानी चाहे तरुण के उपन्यास की हो, उससे प्रेरित हो या फिर सुदीप ने खुद लिखी हो इतना तो तय है कि इस कहानी के पीछे मंशा उस नैरेटिव को मजबूती देने की है जिसमें भगवा झंडा लेकर चलनेवाले मॉब लिंचिंग करते हैं। अपराधी अपराध करने के बाद मंदिर में जाकर शरण लेते हैं, आदि आदि। ये कहानी एक टेलीविजन संपादक की असफल हत्या के प्रयास की कहानी और हत्यारों की गिरफ्तारी को लेकर शुरू होती है। कहानी दिल्ली की जमीन पर चलती है। जिस न्यूज चैनल संपादक की हत्या का प्लॉट दिखाया गया है वो बेहद लोकप्रिय है। न्यूज चैनल के संपादक का उसके सहकर्मी के साथ इश्क और शारीरिक संबंध दोनों दिखाए गए हैं। परोक्ष रूप से किसी लड़की की अपने देह का उपयोग कर अपने करियर में आगे बढ़ने की बात को बल देने की हद तक। यहां तो संपादक और उसकी सहयोगी के बीच चलनेवाले संबंध बेहद सहजता के साथ दिखा दिए गए हैं लेकिन तरुण तेजपाल की असल जिंदगी में तो उनपर उनके साथ काम करनेवाली एक लड़की ने बेहद गंभीर आरोप लगाए थे जिसके बाद वो गिरफ्तार भी हुए थे और जेल में लंबे समय तक रहना भी पड़ा था। पूरी कहानी में टेलीविजन चैनल को लेकर जो कहानी बुनी गई है वो बहुत हद तक कमजोर सी लगती है और ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक और निर्देशक को न्यूज चैनलों के कामकाज करने के तरीके को लेकर और काम करने की जरूरत है। न्यूज रूम की वर्किंग भी वास्तविकता से थोड़ी दूर है। 
अब हम आते हैं पाताल लोक की उस कहानी पर या उन संवादों या दृष्यों पर जिसको लेकर ये धारणा बनती है कि इस वेब सीरीज का मकसद एक धर्म विशेष को बदनाम करना भी है। कला की सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर समाज को बांटने की छूट न तो लेनी चाहिए और ना ही दी जानी चाहिए। अब इस वेब सीरीज में साफ तौर पर पुलिस और सीबीआई दोनों को मुसलमानों के प्रति पूर्वग्रह से ग्रसित दिखाया गया। थाने में मौजूद हिंदू पुलिसवालों के बीच की बातचीत में मुसलमानों को लेकर जिस तरह के विशेषणों का उपयोग किया जाता है उससे ये लगता है कि पुलिस फोर्स सांप्रदायिक है। इसी तरह से जब इस वेब सीरीज में न्यूज चैनल के संपादक की हत्या की साजिश की जांच दिल्ली पुलिस से लेकर सीबीआई को सौंपी जाती है, और जब सीबीआई इस केस को हल करने का दावा करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करती है तो वहां तक उसको मुसलमानों के खिलाफ ही दिखाया गया है। मुसलमान हैं तो आईएसआई से जुड़े होंगे, नाम में एम लगा है तो उसका मतलब मुसलमान ही होगा आदि आदि। संवाद में भी इस तरह के वाक्यों का ही प्रयोग किया गया है ताकि इस नेरेटिव को मजबूती मिल सके। और अंत में ऐसा होता ही है कि सीबीआई मुस्लिम संदिग्ध को पाकिस्तान से और आईएसआई से जोड़कर उसे अपराधी साबित कर देती है। कथा इस तरह से चलती है कि जांच में क्या होना है ये पहले से तय है, बस उसको फ्रेम करके जनता के सामने पेश कर देना है। अगर किसी चरित्र को सांप्रदायिक दिखाया जाता तो कोई आपत्ति नहीं होती, आपत्तिजनक होता है पूरे सिस्टम को सांप्रदायिक दिखाना जो समाज को बांटने के लिए उत्प्रेरक का काम करती है। बात यहीं तक नहीं रुकती है, इस वेब सीरीज में तमाम तरह के क्राइम को हिंदू धर्म के प्रतीकों से जोड़कर दिखाया गया है। 
ये पहला मौका नहीं है जब कोई वेब सीरीज इस तरह से हिंदू धर्म और प्रतीकों के खिलाफ माहौल बनाने में जुटा है। नेटफ्लिक्स पर एक वेब सीरीज आई थी लैला, ये सीरीज प्रयाग अकबर के उपन्यास पर आधारित थी। इसको देखने के बाद ये बात साफ तौर पर उभर कर आई थी कि ये हिंदुओं के धर्म और उनकी संस्कृति की कथित भयावहता को दिखाने के उद्देश्य से बनाई गई है। लैला का निर्देशन दीपा मेहता ने किया था। अभी चंद दिनों पहले दैनिक जागरण के एक कार्यक्रम में सूचना और प्रसारण मंत्री ने जोरदार तरीके से वेब सीरीज के स्वनियमन पर बल दिया था। ये तो सरकार का काम है जब चाहे करे लेकिन वेब सीरीज के माध्यम से खड़ा किए जा रहे फेक नैरेटिव का रचनात्मक प्रतिकार जरूरी है। समय और समाज का सही चित्रण करें और यहां इस काम में सरकार पहल कर सकती हैं। उनके पास नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन है। उसका उपयोग किया जा सकता है। अगर ‘पाताल लोक’ या ‘लैला’ के माध्यम से हिंदू धर्म का काल्पनिक चित्रण हो रहा है तो किसी और वेब सीरीज के माध्यम से उसका यथार्थ चित्रण भी होना चाहिए जिसमें महिमामंडन की बजाए उन सकारात्मक पक्षों की बात हो जो लोक-कल्याणकारी है। 

Saturday, May 16, 2020

पुरस्कारों को लेकर उदासीनता का भाव


पिछले दिनों भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कृत लेखकों के उन वक्तव्यों को पढ़ रहा था जो उन्होंने सम्मान समारोह में दिए थे। इसी क्रम में 27 जनवरी 2001 को निर्मल वर्मा का वक्तव्य पढ़ रहा था। उसमें एक जगह वो कहते हैं कि ‘आज अगर साहित्य के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए खड़ा हूं तो सिर्फ इसलिए नहीं कि उसने जीने के मरुस्थल को थोड़ा बहुत सहनीय बनाया है बल्कि इसलिए भी कि उसने उन सब मरीचिकाओं के सम्मोहन को तोड़ने का दुस्साहस किया है जिन्होंने इस सदी के मनुष्य को इतना आहत, इतना दिग्भ्रमित किया था।‘ उनके इस वाक्य से साहित्य की महत्ता तो समझ आती ही है परोक्ष रूप से किसी पुरस्कार की अहमियत भी समझी जा सकती है। इस तरह के स्वर ज्ञानपीठ से पुरस्कृत लेखकों के वकतव्यों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सुनाई देते हैं। वो किसी भी भाषा का लेखक हो उसके मन में ये आकांक्षा रहती है कि उसका काम रेखांकित किया जा सके। काम को पहचान मिले। इस पहचान को रेखांकित करने के लिए भारत सरकार की संस्थाएं और भारत सरकार सं संबद्ध संस्थाएं पुरस्कार देती रही हैं। साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, भारतीय प्रेस परिषद, केंद्रीय हिंदी संस्थान के अलावा कई मंत्रालय भी लेखकों-पत्रकारों को पुरस्कार देती रही हैं। इससे लेखकों-पत्रकारों के ‘जीने के मरुस्थल को थोड़ा सहनीय बनाने में मदद मिलती है’। सराकरी पुरस्कारों के अलावा निजी क्षेत्र में भी कई पुरस्कार दिए जाते हैं। इनमें से कई पुरस्कार तो बेहद प्रतिष्ठित भी हैं।

अब जरा इनमें से कुछ सरकारी पुरस्कारों पर नजर डाल लेते हैं। सबसे पहले विचार करते हैं सूचना और प्रसारण मंत्रालय के भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार पर। वेबसाइट्स पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक ये पुरस्कार हिंदी के पितामह भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाम पर 1983 में शुरू किया गया था। प्रतिवर्ष ये पुरस्कार कई श्रेणियों में दिया जाता था जिनमें पत्रकारिता और जनसंचार, महिलाओं के मुद्दों पर लेखन,और बच्चों पर लिखने के लिए दिया जाता था। आपको ये लग सकता है कि दिया जाता था क्यों लिखा। इसकी वजह ये है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय का ये पुरस्कार समारोह 2014 के बाद आयोजित नहीं किया जा सका है। 2014 में भी वर्ष 2011 और 2012 के लिए ये पुरस्कार दिया गया था। उस वक्त भी सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ही थे और संयोग से इस वक्त भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी प्रकाश जी के कंधों पर ही है। इस बीच अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, स्मृति इरानी और राज्यवर्धन राठौर सूचना और प्रसारण मंत्री बने। स्मृति इरानी के कार्यकाल में इस बात की चर्चा हुई थी कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार दिए जाएंगें लेकिन उनका कार्यकाल छोटा रहा और पुरस्कार पर काम नहीं हो सका। कार्यकाल तो वेंकैया जी का भी छोटा रहा था। सूचना और प्रसारण मंत्रालय का ये पुरस्कार पिछले छह साल से आयोजित नहीं हुआ है और अभी किसी प्रकार का कोई संकेत भी नहीं मिल रहा है कि इस वर्ष शुरू हो पाएगा या नहीं। 2014 में आयोजित भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार समारोह की बारे में प्रकाशित खबरों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि प्रकाश जावड़ेकर ने तब ये घोषणा की थी ये पुरस्कार नियमित रूप से दिया ही नहीं जाएगा बल्कि हर वर्ष 9 सितंबर को भारतेन्दु के जन्मदिन पर पुरस्कार समारोह आयोजित किया जाएगा। पर ऐसा हो नहीं सका। 2014 के बाद न तो पुरस्कार दिए गए न ही समारोह आयोजित हुआ। पुरस्कार नहीं दिए जाने की कोई वजह भी सामने नहीं आ पाई है, क्या ये पुरस्कार लालफीताशाही की भेंट चढ़ गया? या इस पुरस्कार को किसी नीति के तहत बंद कर दिया गया या फिर अफसरशाही की लापरवाही के चलते ये प्रतिष्ठित पुरस्कार लंबे समय से स्थगित है। बंद होने की घोषणा नहीं हुई है इस वजह से स्थगित लिखा। इस वर्ष भारतेन्दु के जन्मदिन आने में करीब चार महीने हैं। अगर मंत्रालय पहल करे तो इस वर्ष ये पुरस्कार भारतेन्दु के जन्मदिवस पर दिए जा सकते हैं। जरूरत इस बात की है कि मंत्रालय में बैठे ‘यथास्थितिवाद के देवताओं’ को सक्रिय होना पड़ेगा। हो सकता है कि कोरोना की वजह से उत्पन्न हालात में इसपर विचार नहीं हो लेकिन अगर हमें कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी है तो इसपर भी विचार तो किया ही जाना चाहिए।

पत्रकारों और लेखकों को एक और संस्था पुरस्कार देती है, वो है आगरा का केंद्रीय हिंदी संस्थान। ये संस्थान मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत आता है। केंद्रीय हिंदी संस्थान बारह श्रेणियों में  देश विदेश के अलग अलग क्षेत्रों में कार्यरत हिंदी सेवियों को सम्मानित करता रहा है। अभी इस संस्थान ने 2017 के पुरस्कारों की घोषणा की है। जब 2017 के पुरस्कारों की घोषणा तो कर दी गई लेकिन 2016 में घोषित किए गए पुरस्कारों का वितरण नहीं हो पाया है। 2016 के पुरस्कारों का वितरण नहीं हो पाने की एक बेहद दिलचस्प वजह है। मसला ये है कि केंद्रीय हिंदी संस्थान जिन हिंदी सेवियों को पुरस्कार के लिए चयनित करता है उनको राष्ट्रपति के हाथों से ये सम्मान मिलता रहा है। पुरस्कारों की घोषणा की गई तो तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 26 जून 2018 को अपने पत्र संख्या अ.शा.पत्र सं 2-1/हि.से.स/2018 के माध्यम से राष्ट्रपति से समय मांगा। इसके बाद 9 जुलाई 2019 को नए मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने भी राष्ट्रपति महोदय से पुरस्कार समारोह के लिए समय देने का अनुरोध किया। इस बीच मानव संसाधन वितास मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने राष्ट्रपति के निजी सचिव को 15 मार्च 2019 को पत्र लिखकर मंत्री के अनुरोध पत्र का हवाला देते हुए समय की मांग की थी। पता चला है कि कुछ दिनों पहले राष्ट्रपति भवन से मंत्रालय को ये सलाह दी गई है कि उपराष्ट्रपति से अनुरोध कर उनके कर कमलों से पुरस्कार वितरण करवा लें। ये सलाह देने में काफी समय लग गया और इस वजह से 2017 के पुरस्कारों की घोषणा टलती रही। पता नहीं किन कारणों से राष्ट्रपति पुरस्कार देने से बचने लगे हैं। पिछले वर्ष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी उपराष्ट्रपति के हाथों दिया गया। इतनी पुरानी परंपरा को किस आधार पर परिवर्तित किया गया इसकी जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए। हर लेखक, कलाकार की इच्छा होती है कि राष्ट्रपति के हाथों उसका सम्मान हो। कलाम साहब तो पुरस्कार समारोह में कई घंटे रुका करते थे, इस परंपरा का निर्वाह प्रणब मुखर्जी तक हुआ। खैर ये अलग विषय है जिसपर कभी विस्तार से चर्चा होगी।
ये सिर्फ केंद्रीय हिंदी संस्थान या सूचना और प्रसारण मंत्रालय का हाल नहीं है। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संगीत नाटक अकादमी के 2018 के पुरस्कारों की घोषणा भी पिछले साल जुलाई में हुई थी और परंपरा के मुताबिक दिसंबर तक पुरस्कार वितरण समारोह हो जाना चाहिए था पर वो हो न सका। अब मार्च से तो कोरोना संकट ही हम सबके सामने खड़ा है और अब तो ये अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है कि सम्मान समारोह आयोजित किए जाएं। लेकिन कोरोना संकट शुरू होने के पहले की स्थितियों को देखते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का भीष्म पितामह पर लिखा एक वाक्य याद आता है, ‘जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे’। पुरस्कारों के मामले में मंत्रियों को अपने मंत्रालयों में बैठे उन भीष्म पितामहों की पहचान करनी चाहिए जो उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पा रहे हैं।

Thursday, May 14, 2020

बेहतर मंजिल की आस


कोरोना की वजह से सभी सिनेमा हॉल बंद हैं, नई फिल्मों की शूटिंग नहीं हो पा रही है, जिन फिल्मों की शूटिंग पूरी हो गई हैं उनकी एडिटिंग और डबिंग आदि नहीं हो पा रही हैं। सिनेमा हॉल्स के बंद होने की वजह से फिल्मों की रिलीज लगातार टलती जा रही है। फिल्मों में पैसे निवेश कर घर बैठे प्रोड्यूसर्स के लिए संकट बढ़ता जा रहा है। लेकिन संकट के इस समय अब एक नया रास्ता निकल कर सामने आया है। निर्देशक शूजित सरकार की फिल्म गुलाबो सिताबो अब ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो पर 12 जून को रिलीज होने जा रही है। भारतीय फिल्मों के इतिहास में इस घटना को एक अहम मोड़ के तौर पर देखा जा सकता है। अभी तक के फिल्मों के व्याकरण में सिनेमा हॉल या मल्टीप्लैक्स की बड़ी भूमिका होती थी। फिल्मों की रिलीज के समय इस बात को लेकर रणनीति बनती थी कि किस फिल्म को देशभर में कितने स्क्रीन मिलेंगे? सौ करोड़ और दो सौ करोड़ के फिल्मों के अर्थतंत्र में स्क्रीन की संख्या की अहमियत बहुत ज्यादा होती थी। निर्माता निर्देशक से लेकर अभिनेता और अभिनेत्री सभी इस बात को लेकर सतर्क ही नहीं बल्कि प्रयासरत रहते थे कि उनकी फिल्म को ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन मिले, मतलब ये कि उनकी फिल्में ज्यादा से ज्यादा स्थान पर और आवृत्ति में दर्शकों के लिए उपलब्ध हों। फिल्म गुलाबो सिताबो के अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज करने के फैसले के बाद अब फिल्मों के रिलीज होने का ट्रेंड बदल सकता है। अमेजन के प्लेटफॉर्म पर सीधे फिल्मों की स्ट्रीमिंग कर देने से अब दर्शकों को अपनी सुविधानुसार समय पर फिल्म देखने की सहूलियत भी मिलेगी।
इसका एक दूसरा असर थिएटर मालिकों और फिल्म प्रोड्यूसर्स के बीच के संबंधों पर भी पड़ सकता है। अमेरिका में इस तरह की एक घटना हो चुकी है जब एएमसी थिएटर्स ने यूनिवर्स पिक्चर्स को इस वजह से बैन कर दिया क्योंकि वो पहले ओटीटी प्लेटऑर्म पर चले गए थे। पिछले दिनों तमिलनाडू थिएटर और मल्टीप्लैक्स एसोसिएशन ने उन प्रोड्यूसर्स को धमकी दी थी कि जो थिएटर को छोड़कर दूसरे माध्यमों पर अपनी फिल्म रिलीज करने की सोच रहे हैं या रिलीज करने जा रहे हैं। दरअसल अब इस तरह की कई खबरें आने लगी हैं कि फिल्म प्रोड्यूसर्स अपनी फिल्मों के रिलीज के लिए वैकल्पिक माध्यम तलाश कर रहे हैं। पिछले दिनों ये खबर आई थी कि अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म लक्ष्मी बॉंब को डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज करने की बात हो रही है। इसी तरह से एक खबर ये भी आई थी कि नेटफ्लिक्स भी टी सीरीज से उनकी फिल्मों को अपने प्लेटफॉर्म पर रिलीज करने को लेकर बातचीत कर रही है। अब जब गुलाबो सिताबो के अमेजन पर रिलीज होने की डेट आ गई है तो इन चर्चाओं को एक बार फिर से बल मिलेगा। गुलाबो सिताबो के रिलीज का जो पोस्टर अमेजन प्राइम वीडियो ने जारी किया है उसमें सोनी टीवी का लोगो भी लगा है। क्या ये इस बात का संकेत है कि प्राइम पर फिल्म के रिलीज होने के बाद ये फिल्म सोनी पर भी रिलीज होगी।आनेवाले दिनों में स्थितियां साफ होंगी। लेकिन इस घटना से इतना तो साफ है कि जब भई किसी तरह का संकट आता है तो उससे ही रास्ता भी निकलता है और नया रास्ता बहुधा बेहतर मंजिल तक पहुंचाता है।    

Saturday, May 9, 2020

पुरानी कविता आज भी प्रासंगिक


कोरोना संकट के इस दौर में जब पूरे देश में लॉकडाउन चल रहा है तो लोगों का समय इंटरनेट पर अपेक्षाकृत ज्यादा बीतने लगा है। इंटरनेट पर इन दिनों एक कविता लोकप्रिय हो रही है। ये कविता लिखी है हरिवंश राय बच्चन ने और उसका पाठ किया है अमिताभ बच्चन ने। कविता का प्रकाशन काल ज्ञात नहीं है लेकिन उसको पढ़ने के बाद ये लगता है कि इसकी रचना 1957 के बाद की गई। 1957 इस वजह से क्योंकि कविता के केंद्र में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास है जिसका गठन 1957 में किया गया। अब जरा हरिवंश राय बच्चन की लिखी इस कविता पर गौर कर लेते हैं, ‘राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने/ एक बड़ा दफ्तर कायम कर/टेबल, कुर्सी, मेज, फाइलों, टेलीफोनों/ टाइप की दस-बीस मशीनों की प्रदर्शनी लगवा करके/ चपरासी से महासचिव तक/ कर्मचारियों की पूरी पलटन बिठला कर के/ सालों पत्राचार कराकर/ लिक्खाड़ों की मीटिंग पर मीटिंग बुलाकर/ सफर खर्च दैनिक भत्ते का बिल भुगतान कर/ अग्रिम रायल्टी की मोटी रकम चुकाकर/ भारत के सांपों के ऊपर पुस्तक एक प्रकाशित की है/ केंचुल से चिकने कागज पर कई तिरंगी तस्वीरों की/ जिल्द बंधी, जाहिर है महंगी/ और बहुत से लोग खफा हैं/ भारत की गरीब जनता तक कैसे ये पुस्तक पहुंचेगी/ भारत की नंगी, भूखी जनता के आगे/ खड़ी समस्यायें जितनी हैं उनमें क्यों दें/ प्राथमिकता इसको कि वो सांपों का ज्ञान बढ़ाएं/ सहमत उनसे किंतु नहीं मैं/भारत के इतिहास, धर्म, संस्कृति के पीछे/ सांपों ने भूमिका अदा की जो/ वो किससे छुपी हुई है/ टिकी हुई है भूमि सांप ही के फन पर तो/ ज्ञान मिले सांपों का कितनी ही कीमत पर/ वो सस्ता है/ अ से ज्ञ तक, मैंने पूरी पुस्तक पढ़ ली/ और मेरी और ही शिकायत/ कहने का अधिकार आपको सही गलत है/ पुस्तक भर में भारत के जहरीले सांपों का/ कोई जिक्र नहीं है।‘  

हरिवंश राय बच्चन अपनी कविता में उस संस्था के बारे में टिप्पणी कर रहे थे या उसकी कार्यशाली पर व्यंग्य कर रहे थे जिसकी स्थापना भारत में पुस्तक संस्कृति के विकास और उसको मजबूत करने के लिए की गई थी। ये संस्था केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है। इस संस्था का उद्देश्य हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च कोटि की पुस्तकों का प्रकाशन और पाठकों तक उचित मूल्य पर पहुंचाना है। इसके अलावा इस संस्थान का दायित्व पुस्तक पढ़ने की प्रवृति को बढ़ावा देना भी है जिसके लिए ये पुस्तक मेलों का आयोजन आदि करती है। दिल्ली में प्रतिवर्ष आयोजित होनेवाला विश्व पुस्तक मेला इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। लेखकों और संस्थाओं को आर्थिक अनुदान भी देती है। बच्चन जी की ये कविता तब लिखी गई थी जब इसकी स्थापना को ज्यादा समय नहीं बीता था। अब इस संस्था की स्थापना के साठ साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन क्या ये संस्था बच्चन जी की कविता से आगे बढ़ पाई है इसपर विचार करने की जरूरत है। कांग्रेस के शासन काल में इस संस्था को चलाने के लिए जिन लोगों को जिम्मेदारी दी गई थी उन्होंने एक विचारधारा विशेष की पुस्तकों का प्रकाशन और उसका वितरण किया। अगर हम इतिहास में न भी जाएं और वर्तमान में इस संस्था के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो भी बच्चन जी कविता लगभग सटीक ही प्रतीत होती है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संचालन की जिम्मेदारी बोर्ड ऑफ ट्रस्टी के अलावा चेयरमैन और निदेशक की होती है। वर्तमान नियम के मुताबिक चेयरमैन ट्रस्ट का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है और नियमित कार्य करने/करवाने की जिम्मेदारी उसकी ही होती है। इस वक्त न्यास के चेयरमैन 81 वर्ष के प्रोफेसर गोविंद प्रसाद शर्मा हैं। यहां नियुक्त होने के पहले पहले गोविंद शर्मा मध्यप्रदेश के एक कॉलेज में प्राचार्य रहने के अलावा मध्य प्रदेश ग्रंथ अकादमी के निदेशक रह चुके हैं। प्रोफेसर गोविंद शर्मा नियमित रूप से न्यास आते नहीं है और ज्यादातर समय मध्य प्रदेश के अपने घर पर ही बिताते हैं। लिहाजा रोजमर्रा के कामों का जिम्मा निदेशक पर आ जाता है। निदेशक भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल हैं और प्रतिनियुक्ति पर न्यास में आए हैं। हाल ही में उनकी नियुक्ति हुई है और पुस्तक संस्कृति के बारे में, पुस्तकों के बारे में उनका अनुभव कितना है इस बारे में न्यास की बेवसाइट पर प्रकाशित उनकी प्रोफाइल में कुछ नहीं लिखा है। बताया गया है कि वो रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, जम्मू कश्मीर के राज्यपाल के कार्यालय, संयुक्त राष्ट्र के अफ्रीका मिशन में प्रशासनिक दायित्वों को निभा चुके हैं। अब पुस्तक संस्कृति के निर्माण की जिम्मेदारी दी गई है। उनके लिए ये बड़ी चुनौती है।
अब अगर न्यास के इस वर्ष के कामकाज पर नजर डालें तो कोई उत्साहवर्धक पहल दिखाई नहीं देती है। पुस्तकों के प्रकाशन में भी वर्षों लग रहे हैं, नई पुस्तकों के प्रकाशन के लिए विचार विमर्श के लिए हर भाषा की एक सलाहकार समिति बनाई गई थी लेकिन उसकी बैठक दो साल से अधिक समय से नहीं हुई है। 2018 में हुई बैठक में इस तरह का सुझाव भी दिया गया था कि इस सलाहकार समिति की बैठक साल में एक की जगह दो बार की जाए ताकि पुस्तकों के विषयों पर सार्थक चर्चा हो सके, सुझाव आ सकें। लेकिन उस सुझाव पर तो अमल हुआ नहीं बल्कि बैठक ही बंद हो गई। निजी प्रकाशकों के साथ भी न्यास का संवाद लगभग समाप्त ही हो गया है। ऐसे माहौल में पुस्तक संस्कृति के निर्माण को कैसे मजबूती मिलेगी। पहले निजी प्रकाशकों के साथ ना केवल संवाद होता था बल्कि उनके साथ कारोबार भी होता था। अब वो बंद हो गया है और ट्रस्ट अपना सभी काम प्रिंटरों के साथ करने लगा है।
न्यास की एक काम में और रुचि है वो विदेशों में आयोजित पुस्तक मेलों में भाग लेने में। पेरिस, लंदन, फ्रैंकफर्ट, मैक्सिको से लेकर अबू धाबी तक के पुस्तक मेलों में न्यास के अधिकारी और कर्मचारी भाग लेते रहे हैं। इस वर्ष तो कोरोना की वजह से ये मेले स्थगित हो गए और करदाताओं के पैसे बच गए। इन पुस्तक मेलों में सार्थक कुछ होता नहीं है। जिन मेलों में पुस्तकों की बिक्री होती है वहां कितनी पुस्तकें बिकती हैं इसका हिसाब कभी सार्वजनिक नहीं होता और उन मेलों में जहां सिर्फ कारोबार होता है, दूसरे देशों के साथ प्रकाशन करार होते हैं वहां भी अब तक क्या और कैसे करार हुए इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। ये जानना दिलचस्प होगा कि पिछले सालों में इन पुस्तक मेलों पर न्यास ने कितना व्यय किया और कितना ठोस काम हो सका। दूसरे देशों के प्रकाशकों के साथ कितने करार हो सके और उसके हिसाब से कितनी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। दिल्ली के साहित्यिक हलकों में तो ये चर्चा होती है कि इन मेलों में सरकारी खर्चे पर मौज मस्ती होती है। इस स्तंभ में मैक्सिको में आयोजित मेले को लेकर सवाल खड़े किए गए थे। सवाल तो ये भी उठता है कि विदेशों में आयोजिक होनेवाले मेलों में जानेवालों का चयन कौन करता है, क्या चयन में इस बात का ख्याल रखा जाता है कि जो लेखक जा रहे हैं वो उस देश की भाषा या कम से कम अंग्रेजी में संवाद कर सकते हैं या नहीं।
आज देश भर में पुस्तकों की अनुपलब्धता एक गंभीर समस्या है, अब वक्त आ गया है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को देशभर में पुस्तकों की उपलब्धता के बारे में एक ठोस नीति बनाकर उसपर काम करना होगा ताकि पुस्तक संस्कृति को मजबूती मिल सके। 

Saturday, May 2, 2020

उदार या उधार की भाषा उर्दू


पिछले दिनों गीतकार जावेद अख्तर और कनाडा में रहनेवाले पाकिस्तानी मूल के विद्वान तारेक फतेह के बीच पहले ट्वीटर और बाद में न्यूज चैनल पर हुई बहस के बाद हिंदी-उर्दू को लेकर एक बार फिर से चर्चा आरंभ हो गई है। दरअसल जावेद अख्तर का उर्दू प्रेम पुराना है। प्रेम करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन जब आप अपने प्रेम को ही सर्वश्रेष्ठ बताने लगते हैं तो फिर विवाद उत्पन्न होता है। जावेद अख्तर के साथ यही कठिनाई है कि वो उर्दू को सभी भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ मानते हैं, उस भाषा से भी जिसने उसे जन्म दिया। जावेद अख्तर के पिता जां निसार अख्तर ने 1973 में दो खंडों में उर्दू की राष्ट्रवादी कविताओं का संकलन ‘हिन्दोस्तां हमारा’ के नाम से किया था जिसका प्रकाशन हिन्दुस्तानी बुक ट्रस्ट, बंबई (अब मुंबई) ने किया था। जब 2006 में इस पुस्तक का पुर्नप्रकाशन हुआ तो जावेद अख्तर ने इसकी प्रस्तावना लिखी. उसकी पहली पंक्ति है,’अपनी प्रकृति से ही उर्दू तमाम भारतीय भाषाओं में सबसे अधिक तरक्कीपसंद, उदार और धर्मनिरपेक्ष भाषा है।‘ अब विवाद इस तरह के वाक्यों को लेकर ही शुरू होता है। जैसे ही आप किसी को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं तो इसे ये ध्वनित होता है कि आप दूसरों को कमतर कहने का प्रयास कर रहे हैं। जावेद अख्तर के इस वाक्य से भी इस तरह के अहंकार या कहें कि श्रेष्ठता का बोध होता है। उर्दू, भारतीय भाषाओं में सबसे तरक्कीपसंद कैसे है ? इस बात को लेकर जावेद अख्तर को कुछ तथ्य, कुछ तर्क पेश करने चाहिए थे। किसी भी भाषा के तरक्कीपसंद होने का अर्थ क्या होता है? क्या हिंदी या तमिल या तेलुगू या बंगाली या मराठी तरक्कीपसंद नहीं हैं या उर्दू से कम तरक्कीपसंद हैं? जावेद अख्तर को अपने कहे को पुष्ट करना चाहिए था पर अफसोस वो तो फतवेबाजी करके निकल गए। फिल्मी संवाद लिखते लिखते ये उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया लगता है कि अपनी बात कहो और निकल लो।

अब उर्दू के लिए दिए उनके दूसरे विशेषण पर विचार करते हैं जहां उन्होंने उर्दू को सबसे अधिक उदार कहा है। ‘हिन्दोस्तां हमारा’ की प्रस्तावना में जावेद अख्तर लिखते हैं ‘वाक्य विन्यास के नजरिए से इसकी (उर्दू) जड़ें खड़ी बोली की जमीन में गहराई तक डूबी है जबकि इसकी शब्दावली हिंदी और संस्कृत के अलावा फारसी, अरबी, टर्की, अंग्रेजी फ्रेंच, पुर्तगाली और उन तमाम भाषाओं के शब्दों को समाहित किए हुए है जो अविभाजित भारत में प्रचलित थीं। यह सब मिलकर उर्दू की जबान और अदब को शक्ल देते हैं’. जावेद अख्तर विद्वान आदमी हैं, उनको शब्दों की महत्ता का पता है लेकिन उनके उपर्युक्त वाक्य से तो यही ध्वनित होता है कि उर्दू उदार भाषा नहीं बल्कि उधार की भाषा है। इसने वाक्य विन्यास खड़ी बोली से लिय़ा और शब्द हिंदी और संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओं से लिया। उदार और उधार का अंतर समझना होगा जावेद अख्तर जी। आपको अपने पिताश्री का उसी पुस्तक का अंश भी याद रखना चाहिए जिसकी प्रस्तावना आपने लिखी। उसी पुस्तक की भूमिका में जां निसार अख्तर लिखते हैं ‘मुसलमान सूफियों ने अपने विचार के प्रसार के लिए जो रास्ता निकाला वो स्थानीय बोलियों में तुर्की, अरबी और फारसी के शब्दों के मिलावट का था। वैसे तो ये मिलावट सिंध के जमाने से ही शुरू हो चुकी थी, सूफियों की कोशिश से इसे और बढ़ावा मिला। उस समय ये मिली जुली जुबान रेख्ता कहलाई।अमीर खुसरो के कलाम में इस रेख्ते का स्पष्ट रूप हमारे सामने आता है। यह रेख्ता खड़ी बोली में फारसी के शब्दों की मिलावट है जिसमें उन्होंने जिसमें उन्होंने गीत पहेलियां और मुकरनियां लिखीं।‘  अगर जां निसार अख्तर की बातों को सही मानें तो जावेद अख्तर जिस भाषा को उदार कह रहे हैं वो एक बार फिर से उधार पर आधारित भाषा प्रतीत होती है। उर्दू पर फिराक साहब ने जो कहा था उसको भी इसी आलोक में देखने और समझने की आवश्यकता है, ‘हमारी उर्दू जबान में कितनी विशालता और कितनी बड़ी संभावनाएं पैदा हो जाएंगी अगर उर्दू शब्दकोश में दो-ढाई हजार संस्कृत के शब्द भी शामिल कर लिए जाएं।‘ आगे भी फिराक साहब ने इसको उर्दू साहित्य के लिए बेहतर बताया है। कहने का अभिप्राय सिर्फ इतना है कि अगर जावेद अख्तर जैसे वरिष्ठ और विद्वान लोग उर्दू को लेकर अहंकारी वक्तव्य देंगे या उस भाषा की श्रेष्ठता साबित करना चाहेंगे तो फिर इस तरह की बातें भी सामने आएंगी ही कि उधार के शब्दों और वाक्य विन्यास से कोई भाषा सबसे अधिक उदार नहीं बन सकती।
तीसरा शब्द उन्होंने उर्दू के लिए उपयोग किया है वो ये कि ये सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष भाषा है। यहां भी वही समस्या है कि जब आप किसी भाषा को सबसे अधिक सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष कहते हैं तो तत्काल ये सवाल मन में कौंधता है कि बाकी भाषाएं या तो अपेक्षाकृत कम धर्मनिरपेक्ष हैं या फिर सांप्रदायिक हैं। अब यहां भी जावेद अख्तर को अपनी पिता की किताब से सहायता मिल सकती थी लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इस पुस्तक को नहीं देखा, उसमें लिखा है ‘यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि जहां मुसलमान शाइरों ने हिंदुओं के त्योहार होली, दीवाली, वसंत वगैरा पर नज्में लिखीं वहां हिंदी और सिख शाइरों ने इस्लामी त्योहारों पर नज्में लिखीं। यह दरअसल उस मिली जुली सभ्यता का चमत्कार था जो हिंदू, मुसलमान, सिख सभी को प्यारी रही है‘। अब अगर ऐसा रहा है तो फिर जावेद अख्तर उर्दू को सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष कैसे घोषित कर रहे हैं। जावेद अख्तर की छवि एक तरक्कीपसंद व्यक्ति की है लेकिन जब वो उर्दू को लेकर इस तरह की बातें करते हैं तो परोक्ष रूप से उर्दू को लेकर दूसरी भाषा के लोगों के मन में चाहे अनचाहे उपेक्षा का भाव पैदा करते हैं।
एक और बयानवीर हैं मार्कण्डेय काटजू। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश हैं, उन्होंने भी जनवरी में उर्दू के पक्ष में एक लेख लिखा था। उस लेख में वो जावेद अख्तर से आगे चले गए और हिंदी और उर्दू की तुलना कर डाली। इस तुलना में वो इतने उत्साहित हो गए कि उन्होंने हिंदी साहित्य और साहित्यकारों को उर्दू साहित्य और उसके लेखकों की तुलना में कमतर करार दे दिया। उर्दू को बेहतर साबित करने के लिए उनको जो नाम याद आए वो हैं फैज और बिस्मिल। उनका एक मनोरंजक तर्क ये भी है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उर्दू कवियों के ही तराने गाए गए थे, हिंदी वालों के नहीं। टिप्पणी करने के क्रम में वो महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत का उदाहरण दे बैठे। अब काटजू साहब को कौन बताए कि महादेवी जी और पंत जी की कविताओं का उदाहरण देकर वो अलग-अलग धरातल के रचनाकारों की तुलना कर रहे हैं। काटजू साहब अगर महादेवी और पंत की कविताओं में ओज खोज रहे हैं तो ये हिंदी कविता और कवियों को लेकर उऩका अज्ञान है जिसका वो सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं। वो उर्दू की रचनाओं का हिंदी अनुवाद करते हुए भाषा के उपहास का प्रयास करने की कोशिश करते हैं लेकिन इस कोशिश में वो खुद का ही उपहास कर बैठते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मार्कण्डेय काटजू ने हिंदी की कुछ प्रवृत्तियों का नाम भर सुना है और उसके नामोल्लेख करने भर जानकारी उनको है। वीर रस के कवियों में उनको या तो भूषण का नाम पता है, जबकि हिंदी में वीर रस के कवियों की एक लंबी परंपरा है। स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदी के कवियों के गीतों को लोकप्रिय नहीं होने का हवाला देकर भी काटजू अपने अज्ञान का ही परिचय देते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदी के ज्यादातर कवियों ने स्वतंत्रता के गीत लिखे, जो गाए भी गए। नाम गिनाने का कोई अर्थ नहीं है।  दरअसल जब आप मोह में पड़ जाते हैं तो आपको सत्य दिखाई नहीं देता है और काटजू के साथ भी यही हुआ है। वो उर्दू के मोह में इतने ग्रसित हों गए हैं कि उनको अन्य भाषा की रचनाएं दिखाई नहीं दे रही हैं। मार्कण्डेय काटजू और जावेद अख्तर जैसे लोग ही भाषाई खाई पैदा करते हैं।