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Saturday, June 29, 2013

पाठकों से दूर होती कहानी

चंद महीने पहले हमारे एक मित्र की कहानी हंस पत्रिका में छपी थी । लंबी कहानी थी और अरसे बाद उनकी कोई कहानी हंस जैसी प्रतिष्ठित साहित्यक पत्रिका में छपी थी लिहाजा वो काफी उत्साहित थे । कहानी छपने के बाद से तकरीबन हर रोज उनके पास देश के कोने कोने से उस पर प्रतिक्रिया आ रही थी । कभी असम से किसी प्रोफेसर का तो कभी पटना और गोरखपुर के किसी बुजुर्ग का । शुरुआती प्रतिक्रियाओं से तो वो उत्साहित रहे लेकिन लगभग एक पखवाड़े बाद ही उनको इस बात का एहसास हुआ कि कहानी पर प्रतिक्रिया देने वाले तकरीबन सभी लोग या तो रिटायर्ड थे या साठ साल की उम्र के आसपास के थे । जब उन्होंने मुझे ये बात बताई तो मैं चौंका ।  मैंने कई कहानीकारों से इस बाबत बात की । पता चला कि उन सबके अनुभव तकरीबन हमारे कहानीकार मित्र जैसे ही थे । सबों के अनुभव में यह एक बात समान रूप से थी कि युवा वर्ग से प्रतिक्रिया नहीं मिलती है । यह स्थिति हिंदी साहित्य के लिए बेहद चिंता की बात है । अगर किसी भी भाषा में उसके साहित्य को युवा वर्ग नहीं पढ़ता है तो इसको लेकर उस भाषा में गंभीर विमर्श के साथ साथ युवाओं तक पहुंचने के प्रयास भी किए जाने चाहिए । हिंदी में इस वक्त कम से कम चार से पांच पीढ़ियों के कथाकार एक साथ सक्रिय हैं । अस्सी पार के कथाकारों से लेकर बिल्कुल टटके कथाकार तक । चार पांच पीढ़ी की एक साथ सक्रियता चौंकानी वाली भी है लेकिन उससे भी ज्यादा चौंकाने वाली है कहानियों को लेकर युवा पीढ़ी की उदासीनता ।
सात नवंबर 1987 को राजस्थान के श्रीडूंगरगढ़ में राजस्थान युवा लेखक शिविर में बोलते हुए मशहूर कथाकार राजेन्द्र यादव ने कहा था- होता क्या है कि हर समय के लेखन की कुछ रूढियां बन जाती है । दुर्भाग्य से कहानी में इस समय कुछ कथा रूढ़ियां बन गई हैं । वे रूढ़ियां जिस तरह की कहानी हमारे सामने लाती हैं, वे एक खास फॉर्मूले के तहतत लिखी हुई होती हैं । वे अनुभव, ऑब्वजर्वेशन, पार्टिसिपेशन, शेयरिंग से आई हुई कहानियां नहीं हैं । चूंकि इस तरह की कहानियां चल रही हैं , इसलिए हैं, एक गरीब मजदूर है, उस पर अत्याचार है और अगर औरत है तो उसपर बलात्कार है , वगैरह वगैरह ।राजेन्द्र यादव चूंकि विचारधारा और प्रतिबद्धता की जंजीर से बंधे हैं इसलिए खुलकर कह नहीं पाए । लेकिन उनका इशारा साफ था कि एक खास विचारधारा और फॉर्मूले में बंधकर हिंदी कहानी पतनोन्मुख हो रही है । आज से तकरीबन छब्बीस साल पहले यह बात कही गई थी लेकिन इतने लंबे कालखंड में भी ना तो रूढियां टूटी और ना ही उसमें कुछ ज्यादा बदलाव आया । इतना अवश्य हुआ कि आंदोलनों के नाम पर कहानी में नारेबाजी बढ़ती चली गई । पहले दलितों के नाम पर उनके भोगे और झेले यथार्थ का चित्रण शुरु हुआ । बाद में स्त्री विमर्श के नाम पर कहानियों में पुरुषों के खिलाफ जमकर गोलियां चली । दोनों आंदोलनों ने फॉर्मूलाबद्ध होकर अपनी चिता खुद सजा ली । दलित लेखन में तो इस कदर फॉर्मूला लेखन हुआ कि हर कहानी में एक उच्च तबके का दबंग होता था जो दलित महिलाओं की अस्मत लूटता था । उसके बाद पीड़ित महिला का लड़का, भाई, चाचा आदि आदि में से कोई एक उच्च वर्ग खासकर ब्राह्मण लड़की से प्यार करता था और उसके साथ के अंतरंग क्षणों में उसके अंदर बदला लेने की खुशी हिलोरें मारती थी । यह प्लॉट सैकडो़ं कहानियों में दोहराया गया । यही हश्र स्त्री विमर्श के नाम पर कलम की बजाए एके सैंतालीस लेकर घूमनेवाली लेखिकाओं ने भी अपनी कहानियों का किया । पहले तो कहानियों में पति का ऐसा चित्रण हुआ जिसने पाठकों को जबरदस्त शॉक दिया लेकिन बाद में जब वही वही बातें दुहराई जाने लगी तो पाठकों में स्वाभाविक तौर पर एक उब आ गई । स्त्री विमर्श के नाम पर चला लेखन रूपी आंदोलन भी दम तोड़ गया और नए पाठकों को जोड़ने में बुरी तरह से विफल रहा ।
अगर हम देखें तो राजेन्द्र यादव ने अपने राजस्थान युवा लेखक शिविर के भाषण में चार चीजों के बारे में ध्यान दिलाया । अनुभव, ऑब्वजर्वेशन, पार्टिसिपेशन और शेयरिंग । इसमें मैं एक और चीज जोड़ना चाहता हूं वो है रिसर्च । इक्कीसवीं शदी के आगाज के साथ उभरे कहानीकारों ने हवा हवाई और फैशन की कहानियां लिखनी शुरू कर दी । कहानीकारों का अनुभव संसार छोटा होता चला गया, सामाजिक सरोकार खत्म होते चले गए । रूस के विघटन के बाद भी हिंदी साहित्य अबतक मार्क्सवाद के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया है । विचारधारा की जड़े हमारे यहां के सृजनात्मक लेखन में इतनी गहरे तक है कि उसको हिलाना मुश्किल है । आज भी साहित्य की किसी भी विधा में बगैर मार्क्स बाबा के नाम के टैग के आपको गंभीरता से नहीं लिया जाता । यह टैग हिंदी साहित्य के विकास और उसके समय के साथ चलने में सबसे बड़ी बाधा है । विचारधारा के प्रभाव में हुए कहानी लेखन ने पाठकों को एक तरह से उबा दिया क्योंकि हर दूसरी कहानी में एक खास तरह के प्लॉट होते थे और उसका अंत भी तकरीबन वही होता था । शैली में कोई खास फर्क नहीं होता था । विचारधारा के प्रभाव में हुए लेखन से कहानियों से किस्सागोई गायब होती चली गई और उसकी जगह नारेबाजी ने ले ली । हिंदी की काहनियों में यातना, संघर्ष, यथार्थ का बोलबाला हो गया नतीजा क्या हुआ कि कहानियों से पठनीयता गायब होती चली हई । प्रेमचंद पर लिखते हुए आलोचक डॉ रामविलास शर्मा ने कहा था- कथा के आनंद को प्रेमचंद अधूरा नहीं रखते । लेकिन हमारे कहानीकारों ने कथा के आनंद की महत्ता को या तो समझा नहीं या जानबूझकर दरकिनार कर दिया ।
इक्कीसवीं सदी में हमारे समाज में कई बदलाव होने शुरु हुए जो लगातार जारी हैं । आप उसे बाजारवाद का प्रभाव कहें । वैश्विकरण का नतीजा कहें जो चाहे नाम दे लें लेकिन समाज के साथ साथ लोगों की मानसिकता भी बदली । आज की युवा पीढ़ी इतनी स्मार्ट है कि उसे किसी तरह से भी बरगलाया नहीं जा सकता ।  हिंदी के हमारे ज्यादातर कहानीकार समय के साथ कदमताल नहीं कर पाए और लगातार पिछड़ते चले गए । इंटरनेट के युग की भाषा अलग है, उसकी मानसिकता अलग है, प्राथमिकताएं अलग हैं । इंटरनेट के जमाने में जहां प्यार तक के मायने बदल गए, देह को लेकर वर्जनाएं खत्म हो गई, अपनी जिंदगी के फैसले युवा खुद लेने लगे वहां हमारे कहानीकारों की मानसिकता में कोई खास बदलाव नहीं हो पाया । । आज हिंदी के कहानीकारों को उसको समझने की जरूरत है । आज अगर कहानी युवाओं से दूर जा रही है तो उसकी वजह यही सब है । हिंदी के कुछ उत्साही कथाकारों ने इस तरह की भाषा में लिखने की कोशिश की लेकिन वो अतिरेक के शिकार हो गए और संतुलन नहीं बना पाने की वजह से उनका लेखन फूहड़ होता चला गया । हमें इस बात पर गंभीर चिंतन करने की जरूरत है कि आज हिंदी में हमारे पास कोई चेतन भगत या अनुजा चौहान या अद्वैत काला जैसा किस्सागो क्यों नहीं है । हिंदी कहानी में युवा लेखकों की इस वक्त एक बड़ी फौज है लेकिन युवाओं को अपना पाठक बना पाने में सफलता नहीं मिल पा रही है ।
हिंदी कहानी के पाठकों से दूर जाने की एक और वजह है कि हिंदी कहानी यथार्थ और संघर्ष से इतनी ऑबसेस्ड हो गई कि उससे प्रेम गायब सा ही हो गया । सिर्फ युवा ही क्यों हर उम्र के पाठकों को प्रेम कहानी अपनी ओर खींचती है लेकिन लंबे अरसे से हिंदी में कोई बेहतरीन प्रेम कहानी नहीं लिखी गई । सिनेमा ने तो अपने आपको बदल लिया वहां प्रेम की वापसी हुई लेकिन हिंदी कथा साहित्य अब भी एक अदद अच्छी प्रेम कहानी के लिए तरस रहा है । कहानी के पाठकों से दूर जाने की एक और वजह है किताबों के शीर्षक । चाहे वो किसी भी पीढ़ी के कथाकार हों उनकी कहानी संग्रहों के नाम बेहद ही अनाकर्षक होते हैं । अभी अभी लंदन के कथा यूके सम्मान का ऐलान हुआ है वो जिस कहानी संग्रह को मिला है उसका नाम है महुआ घटवारिन तथा अन्य कहानियां । अब आज के युवाओं के लिए घटवारिन शब्द इतना कठिन और अबूझ सा है कि वो इस संग्रह को खरीदने के पहले सौ बार सोचेगा । जरूरत इस बात की है कि युवाओं को अगर साहित्य से जोड़ना है तो हमें उनके मिजाज के हिसाब से लुभावने शीर्षक देने ही होंगे । कहानियों के चरित्र को आधुनिक बनाना ही होगा । कुछ महिला कथाकारों ने इस दिशा में लेखन शुरु किया है लेकिन उनको पाठकों तक पहुंचाने में काफी श्रम करना होगा । कुछ संपादकों ने कहानीकारों को कंधे पर बिठाकर प्रसिद्ध बनाने की कोशिश की, फौरी प्रसिद्धि दिलाने में सफल भी हो गए लेकिन उनको भी लोकप्रियता हासिल नहीं हो पाई । अगर युवा पाठकों को हिंदी कहानी से जोड़ना है तो विचारधारा से मुक्त होकर समय के मिजाज के हिसाब से लेखन करना होगा बरना वो दिन दूर नहीं जब कहानी के पाठकों की तलाश में हमें भटकना पड़े ।

Wednesday, June 26, 2013

रणनीतियों के खतरे

लियो टालस्टॉय के मशहूर उपन्यास वॉर एंड पीस में एक बेहद दिलचस्प प्रसंग है नेपोलियन और रूस की सेनाओं के युद्ध की रणनीति तय करने का वर्णन है । उसी प्रसंग में टालस्टॉय यह कहते हैं कि दोनों की सेना वही काम कर रही थी जिससे उनका खुद का नुकसान हो रहा था, लेकिन दोनों को यह बात समझ में नहीं आ रही थी । नेपोलियन चाहता था कि उसकी सेना सीधे मॉस्को पर कब्जा कर विजय पताका फहराए और वो इसी के मद्देनजर अपनी सारी रणनीति बना रहा था । सारी ताकत इसको हासिल करने में हीं झोंक रहा था । उधर रूस की सेना नेपोलियन को मॉस्को पर कब्जा करने से रोकने में प्राणपन से जुटी थी । सारा फोकस नेपोलियन को मास्को आने से रोकने पर था । दोनों की रणनीति से दोनों का ही नुकसान हुआ था जो बाद में साबित भी हुआ । अगर नेपोलियन रूस की परिधि के क्षेत्रों पर कब्जा कर आगे बढ़ते तो उसकी विजय का अर्थ होता और वो लंबे समय तक कायम रह सकता था । उनका नुकसान नहीं होता । मॉस्को फतह के बाद से ही उसके पतन की कहानी शुरू होती है । जब नेपोलियन की सेना वहां से लौटने लगी तो रास्ते में रूस के मामूली किसानों ने उनका खात्मा कर दिया । क्योंकि नेपोलियन ने मास्को के अलावा कहीं ध्यान ही नहीं दिया था और उसकी सेना मास्को विजय के उपरान्त विजय के मद में इतनी चूर थी कि वो आलसी हो गई थी । उधर रूस की सेना ये आकलन कर पाने में नाकाम रही कि मास्को पर कब्जे से नेपोलियन का नुकसान होगा लिहाजा उसने अपनी पूरी ताकत मास्को को बचाने में लगा दी थी । नतीजा यह हुआ कि पूरी सेना तबाह हो गई । कुछ इसी तरह की ही स्थिति इस वक्त कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की बन रही है । दोनों पार्टियां ऐसी राजनीतिक रणनीतियां बना रही हैं जिनसे दोनों का ही नुकसान हो रहा है । कांग्रेस मोदी को रोकने की रणनीति बनाकर उसके ट्रैप में पड़ गई है उधर भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों को रिझाने की रणनीति बनाने में जुटकर अपनी असल ताकत को खोने का खतरा उठा रही है ।  
दरअसल नरेन्द्र मोदी के भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में आने से देश की सियासत में जबरदस्त ध्रुवीकरण होना लगभग तय हो गया है । नकेन्द्र मोदी की छवि एक ऐसे कट्टर हिंदूवादी नेता की है जो मुसलमानों से सम्मान की टोपी भी नहीं लेता है इस ध्रुवीकरण का असर आगामी चुनावों पर साफ तौर पर देखने को मिलेगा । इस ध्रुवीकरण को और मजबूती देगा 2002 के गुजरात दंगों का दाग । दंगों के ग्यारह साल बाद अबतक मोदी ने एक बार भी उसपर अफसोस तक नहीं जताया है, माफी की बात तो दूर । मोदी इसे अपनी ताकत समझते हैं लेकिन अब जबकि वो गुजरात के बाहर की राजनीति करेंगे तो यह उनकी कमजोरी बन सकती है । पार्टी के रणनीतिकारों और खुद मोदी अपनी इस कमजोरी से निजात पाने की कोशिश में जुट गए हैं । अभी हाल ही में सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जयपुर में अल्पसंख्यकों के समक्ष चुनौतियां विषय पर आयोजित एक सम्मेलन में परोक्ष रूप से मुसलमानों से दो हजार दो के गुजरात दंगों को भूलकर आगे बढ़ने की अपील की । राजनाथ सिंह ने इस मौके का इस्तेमाल मुसलमानों को रिझाने के लिए भी किया । उन्होंने साफ तौर पर कहा कि मुल्क की तरक्की के लिए मुलमानों का साथ चाहिए । राजनाथ ने दावा किया कि जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है वहां सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए । आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर राजनाथ सिंह ने मुसलमानों को भारतीय जनता पार्टी पर भरोसा करने का दावत दिया और जोर देकर कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान मुसलमानों के विकास के जितने काम हुए उतने कांग्रेस के साठ सालों के शासन के दौरान नहीं हुए। राजनाथ सिंह के इन बयान के बाद भारतीय जनता पार्टी की चुनाव प्रचार कमेटी की कमान संभालने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक सभा में कुछ इसी तरह के संकेत देते नजर आए । मोदी ने कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति पर प्रहार करते हुए कांग्रेस पर जोरदार हमला बोला लेकिन साथ ही उन्होंने दिलों को जोड़ने की बात भी कही । मोदी के इस भाषण में अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि को बदलने की बेचैनी और बेकरारी साफ दिख रही थी । देश के मुसलमानों के लिए साफ साफ संकेत दिया जा रहा था कि मोदी बदल रहे हैं । दरअसल नरेन्द्र मोदी अब अटल बिहारी वाजपेयी जैसा उदारवादी मुखौटा लगाना चाहते हैं । मोदी को लगने लगा है कि मुस्लिम विरोध की राजनीति लंबे समय तक नहीं चल सकती है । मोदी ने चुनाव प्रचार समिति की कमान संभालने के बाद से ही मुसलमानों को अपने साथ लाने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है । उनके खास सिपहसालार और पार्टी के महासचिव ने उत्तर प्रदेश का प्रभार संभालते ही अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ की बैठक की और मुसलमानों को पार्टी के पाले में लाने की रणनीति पर मंथन किया । अमित शाह ने प्रकोष्ठ के नेताओ से अपने समुदाय में मोदी को लेकर जारी दुश्प्रचार का जोरदार प्रतिकार करने का हुक्म दिया । एक अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश में तकरीबन उन्नीस फीसदी मुसलमान हैं जो तकरीबन दो दर्जन लोकसभा सीटों का भविष्य तय करते हैं । मोदी और उनके कारिंदे इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं कि उन्हें दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा सीटों का फायदा मिल सकता है । लिहाजा मुसलमानों को रिझाने की रणनीति पर काम शुरू हो गया है ।  
अब भारतीय जनता पार्टी ने मुसलमानों को लेकर एक विजन डॉक्यूमेंट बनाने का ऐलान किया है । इसके लिए पार्टी के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी की अध्यक्षता में बकायदा एक कमेटी बना दी गई है माना जा रहा है कि ये पहल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के आशीर्वाद के बाद शुरु हुई है इस विजन डॉक्यूमेंट में मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक पिछड़ेपन की वजहों और उसको दूर करने के उपायों को बारे में विचार किया जाना है भारतीय जनता पार्टी इस विजन डॉक्यूमेंट को सभी राज्य मुख्यालयों में गाजे बाजे के साथ पेश करने की तैयारी में है । मंशा यह है कि अल्पसंख्यकों के मन में नरेन्द्र मोदी को लेकर जो संशय है उसको दूर किया जाए । इसके अलावा मोदी की छवि को लेकर एनडीए के सहयोगी भी खुद को असहज महसूस करने लगे हैं । नीतीश कुमार तो मोदी की कट्टरवादी छवि को लेकर ही एनडीए से बाहर हो गए। सहयोगियों के छिटकने के बाद से पार्टी की देश में भौगोलिक उपस्थिति भी कांग्रेस की तुलना में काफी कम है । लोकसभा सीटों के आधार पर आंध्र प्रदेश ,पश्चिम बंगाल ,तमिलनाडु, उड़ीसा, केरल, हरियाणा की कुल 174 सीटों में से बीजेपी की उपस्थिति शून्य है । पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों को जोड़ दें तो यह आंकड़ा और उपर जाता है । अगर नरेन्द्र मोदी दो हजार चौदह का रण जीतना चाहते हैं तो उन्हें अपनी स्वीकार्यता के साथ साथ  भौगोलिक उपस्थिति बढ़ानी होगी । इसको ही ध्यान में रखते हुए और नए साथियों की तलाश में मुसलमानों को लेकर पार्टी अपनी रणनीति बदल रही है । लेकिन भारतीय जनता पार्टी जिस विचारधारा में दीक्षित है उसकी सोच मुसलमानों को लेकर बिल्कुल साफ है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बुनियाद ही मुस्लिम विरोध को लेकर है । ऐेसे में सवाल यह उठता है कि भारतीय जनता पार्टी की इस नई चाल पर मुसलमान कितना भरोसा कर पाते हैं । लेकिन मुसलमानों को रिझाने की ज्यादा कोशिश पार्टी को कट्टर हिंदू वोटों से अवश्य दूर ले जा सकती है ।

Saturday, June 22, 2013

हिंदी प्रकाशन को चुनौती ?

आज हिंदी में साहित्यक पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर बहुत उत्साहजनक माहौल नहीं है खासकर फिक्शन और कविता के प्रकाशन को लेकर । प्रकाशन कारोबार से जुड़े लोग कविता कहानी और आलोचना से दूर साहित्येत्तर विधाओं की किताबों को छापने की जुगत में लगे हुए हैं । व्यक्तित्व विकास से लेकर सफलता की घुट्टी पिलाने वाली किताबों की हिंदी मां बाढ़ आई हुई है । आज की युवा पीढ़ी के पाठक इन किताबों को बेहद सहजता से खरीद रहे हैं । अगर हम इसकी वजहों पर गौर करें और प्रकाशकों से बात करें तो उनका दावा है कि साहित्य बिकता नहीं है, नई पीढ़ी कविता और कहानी को लेकर उत्सुक नहीं है । उनका दावा है कि साहित्यक कृतियों के तीन से लेकर पांच सौ तक के संस्करण को बिकने में सालों लग जाते हैं । उधर लेखकों का आदिकाल से आरोप है कि हिंदी के ज्यादातर प्रकाशक घपला करते हैं और वो बिक्री के सही आंकड़े नहीं देते हैं । कई लेखकों का तो दावा है कि सालों से उनको किताबों की बिक्री का लेखा-जोखा भी नहीं भेजा गया है ताकि पता लग सके कि कितनी किताबें बिकी हैं । लेकिन वैश्वीकरण और उदारीकरण की राह पर चलने के बाद से हिंदी का बाजार इतना ज्यादा व्यापक हुआ है कि उसने विदेशी प्रकाशकों को हिंदी के बाजार में उतरने को मजबूर कर दिया। आज पेंग्विन बुक्स से लेकर हार्पर कॉलिंस तक हिंदी में साहित्यक किताबें छाप रहे हैं । यह अलहदा मुद्दा है कि जो विदेशी प्रकाशक हिंदी की साहित्यक किताबें छाप रहे हैं वो कितने स्तरीय हैं । उनके चयन पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं । लेकिन इतना तो तय है कि इन विदेशी प्रकाशकों को हिंदी के बाजार में मुनाफे की अपार संभावनाएं दिखाई दी, उसके बाद ही वो इस बाजार में उतरे । उधर हिंदी में एक और प्रकाशकों का  वर्ग है जो सस्ती किताबें छापता और बेचता है । उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ से निकलनेवाले तमाम उपन्यास मरे गिरे हालत में भी जमकर मुनाफा कमा रहे हैं । लेकिन हिंदी साहित्य के कर्ता-धर्ता उसको लुगदी साहित्य कहकर खारिज करते रहे हैं, अब भी कर रहे हैं । अब इसी लुगदी साहित्य का अंग्रेजी अनुवाद शुरू हो चुका है । बहुत संभव है कि हिंदीवालों ने जिसे लुगदी साहित्य कहकर खारिज कर दिया है वो अंग्रेजी में हिट हो जाए । पाठकों के बीच उसकी स्वकार्यता की प्रतीक्षा है ।  
मैं पहले भी कई बार इस बात की ओर इशारा कर चुका हूं कि हिंदी के प्रकाशकों, एक दो लोगों को छोड़कर, विदेशी साहित्य छापने की इच्छाशक्ति का आभाव दिखता है । उन्हें लगता है कि वो इस पचड़े में क्यों पड़ें । क्यों कर कॉपीराइट और रॉयल्टी के मामले में उलझें । उनका तर्क है कि विदेशी लेखकों के लिटरेरी एजेंट हिंदी पाठकों की संख्या के आधार पर एकमुश्त रॉयल्टी मांगते हैं जो उनकी पहुंच से कहीं ज्यादा है । उनका तर्क यह भी होता है कि ज्यादा पैसे देकर विदेशी किताबों के अधिकार खरीदना कारोबारी तौर पर घाटे का सौदा होता है ।  लेकिन बहुत संभव है कि हिंदी के प्रकाशकों को अब अपनी रणनीति और प्रकाशन नीति में बदलाव करना पड़े । अंग्रेजी के एक बड़े प्रकाशन गृह ने यूरोप और अमेरिका के अलावा भारत समेत कई एशियाई देशों में मिल्स एंड बून सीरीज की किताबें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में छापकर बेचने का फैसला किया है । मिल्स और बून सीरीज के प्रकाशक ने हिंदी में इस सीरीज की दो किताबें- रास्ते प्यार के और पुनर्मिलन छाप कर पाठकों के सामने पेश करने का फैसला लिया है । मिल्स और बून के प्रकाशक का मानना है कि भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में किताबों की मांग बढ़ रही है । उनके तर्क का आधार भारत की साक्षरता दर में बढ़ोतरी और गैर शहरी इलाकों के पाठकों की क्रयशक्ति में बढ़ोतरी है । उनका यह भी मानना है कि साक्षरता दर में बढ़ोतरी के बाद लोग अपनी भाषा का साहित्य तो पढ़ना चाहते ही हैं, उनकी रुचि अन्य भाषा के साहित्य में भी बढ़ी है। इसी रुचि को ध्यान में रखकर दो किताबें छापने का फैसला हुआ है ।    
मिल्स और बून सीरीज संभवत विश्व का सबसे लंबा चलने वाला रोमांटिक सीरीज है जिसको पूरे विश्व के लगभग पंद्रह सौ लेखक लिखते रहे हैं और विश्व की इक्तीस भाषाओं में इसका प्रकाशन होता है । एक अनुमान के मुताबिक मिल्स और बून सीरीज की करीब तेरह करोड़ किताबें वैश्विक बाजार में हर साल बिकती हैं । मिल्स और बून सीरीज का तकरीबन सौ सालों का इतिहास रहा है । ब्रिटेन में 1908 में गेराल्ड मिल्स और चार्ल्स बून ने एक प्रकाशन गृह की शुरुआत की थी । कई सालों बाद दोनों ने हल्के फुल्के रोमांटिक उपन्यासों की शुरुआत की । इन उपन्यासों की सफलता का श्रेय बहुत हद तक इसकी कहानी, लिखने की शैली और कम मूल्य पर उपलब्धता थी । प्रकाशन गृह ने इसकी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कम मूल्य के सिद्धांत और ग्राहकों तक पहुंचने की एक योजना बनाई । इसके तहत अगर किसी महीने में इस सीरीज की आठ किताबें छपती थी तो छह को खुदरा बाजार में बिक्री के लिए जारी किया जाता था और आठ वो अपने उन ग्राहकों को बेचते थे जो सीधे कंपनी से किताबें खरीदते थे । नतीजा यह हुआ कि ज्यादा पाठक सीधे प्रकाशन संस्थान से उपन्यासों का पूरा सेट खरीदने लगे । इसके अलावा प्रकाशन गृह ने ने पाठकों के बीच उत्सुकता पैदा करने के लिए एक और तकनीक का सहारा लिया । कोई भी नई सीरीज एक तय वक्त के लिए बाजार में उपलब्ध हुआ करती थी । मसलन जैसे कोई भी नई सीरीज आती थी तो वो नब्बे दिनों तक ही बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध होती थी । उसके बाद कंपनी खुद से अनबिकी प्रतियां बाजार से वापस मंगा लेती थी और उसे रद्दी बना देती थी । इस मार्केंटिंग तकनीक के सहारे कंपनी ने बाजार में इसको लेकर एक जबरदस्त मांग पैदाकर सफलता पाई । साठ और सत्तर के दशक में तो आलम यह था कि इस सीरीज की किताबों की जबरदस्त अग्रिम बुकिंग हुआ करती थी । एक जमाने में तो मिल्स और बून सीरीज के चालीस लाख नियमित वार्षिक ग्राहक तो सिर्फ ग्रेट ब्रिटेन में हुआ करते थे ।
अब मिल्स और बून की ये रोमांटिक उपन्यास हिंदी में मिला करेंगे, प्रकाशन जगत के जानकारों का मानना है कि प्रकाशक ने इन उपन्यासों की कीमत पचहत्तर रुपए रखी है । हिंदी के पाठकों को रोमांस की ये दुनिया लुभा सकती है । पहले भी लुभाती रही है । धर्मवीर भारती का उपन्यास- गुनाहों का देवता और मनोहर श्याम जोशी के कसप की नजीर हमारे सामने है । गुनाहों का देवता तो अब भी किशोर और युवा होते पाठकों को अपनी ओर खींचता है । मिल्स और बून पर हल्का-फुल्का पोर्न छापने का भी आरोप लगता रहा है । रोमांस और सॉफ्ट पोर्न का कॉकटेल भारतीय युवा और किशोर पाठकों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकता है । अगर अमेरिका और यूरोप के पाठकों की तरह भारत के पाठकों ने भी मिल्स और बून के उपन्यासों को हाथों हाथ लिया तो ये प्रकाशन जगत में एक क्रांति की तरह होगी । इसके अलावा अमेरिका और यूरोप में धूम मचाने वाला ई एल जेम्स का उपन्यास फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे और उस उपन्यास त्रयी के दो अन्य उपन्यासों का भी हिंदी में प्रकाशन हुआ है । इस उपन्यास की कीमत भी सिर्फ एक सौ पचहत्तर रुपए रखी गई है । यूरोप और अमेरिका में फिफ्टी शेड्स ने अपनी सफलता का परचम लहराया हुआ है और अबतक उस उपन्यास की अस्सी लाख प्रतियां बिक चुकी हैं । तकरीबन इकतालीस हफ्तों तक यह उपन्यास बेस्ट सेलर की सूची में शीर्ष पर रहा है । इस उपन्यास पर भी ममी पॉर्न होने का आरोप लगा । विवाद भी हुआ । लेकिन विवादों ने इसकी बिक्री को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया । अब यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि हिंदी में मिल्स और बून कितना सफल हो पाता है । इसके अलावा ई एल जेम्स और फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे की बिक्री पर भी प्रकाशन जगत की नजर होगी । अगर यह दोनों प्रयोग हिंदी में सफल हो जाते हैं तो हिंदी के प्रकाशकों के लिए खतरे की घंटी होगी क्योंकि सरकारी खरीद के भरोसे लंबा नहीं चला जा सकता है । इन दोनों किताबों का रेस्पांस दो तीन महीने में सबके सामने होगा । इन दोनों उपन्यासों की सफलता हिंदी साहित्य के लेखकों के लिए भी एक चुनौती हो सकती है।उन्हें भी लिखने की अपनी शैली और विषय के चुनाव में आमूल चूल बदलाव करना पड़ सकता है । यथार्थ के नाम पर विचारधारा परोसने के लेखन से दूर जाकर कुछ ऐसा लिखना होगा जो भारत के युवा पाठकों को अपनी ओर खींच सके । अगर ऐसा नहीं होगा तो प्रकाशकों की जो बेरुखी हिंदी साहित्य को लेकर बढ़ रही है उसे और बल मिलेगा जो साहित्य और साहित्यकार दोनों के लिए शुभ नहीं होगा ।
 

Thursday, June 20, 2013

अलविदा ! इंजीनियर

एक बार कुछ लोग मोहम्मद साहब के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि हुजूर आपके बाद अगर इस्लाम के नाम पर उसकी अनर्गल व्याख्या की जाने लगे तो उसको कैसे परखा जाए कि वो सही है या गलत । मोहम्मद साहब ने कुछ देर सोचने के बाद जबाव दिया कि इस्लाम की किसी भी तरह की व्याख्या को पवित्र कुरआन की कसौटी पर कसना और अगर कोई भी व्याख्या, चाहे वो कितने भी विद्वान की क्यों ना हो,कुरआन की कसौटी पर खरा ना उतरे तो उसको उठाकर दीवार पर मारना । मोहम्मद साहब के इस कथन को कई व्याख्याकारों ने भुला दिया या फिर ये कह सकते हैं कि उसे दरकिनार कर दिया । नतीजा यह हुआ कि इस्लाम में कट्टरपंथ को लागातर बढावा मिलता रहा । लेकिन यह कहना भी गलत होगा कि सभी इस्लामी विद्वानों ने इस्लाम की व्याख्या में गलती की । वहां भी कई तरक्कीपसंद और प्रगतिशील विचारधारा के स्कॉलर हुए जिन्होंने इस्लाम में फैली कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई । अस्सी के दशक में भारत में एक ऐसा ही चिंतक और विचारक सामने आया जिसने इस्लाम और उसकी व्याख्या को तर्कों की कसौटी पर कसना शुरू किया । इस शख्स का नाम था असगर अली इंजीनियर । अस्सी के दशक में ही असगर अली इंजीनियर साहब ने इस्लाम और भारत में सांप्रदायिक हिंसा के नाम के नाम पर किताबों की एक पूरी श्रृंखला प्रकाशित की । असगर अली इंजीनियर के तर्कों ने कट्टरपंथियों को बेचैन कर दिया । उन्हें लगा कि अगर इस शख्स को नहीं रोका गया तो उनकी दुकानदारी बंद हो सकती है । धर्म की गलत-सलत व्याख्या कर अपनी दुकान चमकानेवालो ने असगर अली इंजीनियर पर एक नहीं, दो नहीं बल्कि आधा दर्ज बार जानलेवा हमला करवाया । लेकिन असगर अली इंजीनियर अरने पथ से डिगे नहीं और अपनी कलम के जोर पर कुरीतियों के खिलाफ जंग को जारी रखा ।
असगर अली का जन्म राजस्थान के दाउदी वोहरा समाज के आमिल परविार में हुआ 10 मार्च 1939 को हुआ था । उनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई जहां उन्हें कुरान, हदीस और अरबी की तालीम दी गई । लेकिन असगर अली का दिल कहीं और लग रहा था । अपने मेहनत के बल पर उन्होंने इंदौर के इंजीनियर कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और नौकरी के लिए मुंबई जा पहुंचे । असगर अली साहब ने तकरीबन दो दशक तक मुंबई महानगर पालिका में इंजीनियर की नौकरी की और यहीं से उनके नाम के साथ इंजीनियर जुड़ गया । जब पूरा देश इमरजेंसी के सदमे और खौफ में था उस वक्त असगर अली साहब ने तय किया कि वो नौकरी नहीं करेंगे । नौकरी छोड़ने के बाद असगर अली साहब ने दाऊदी बोहरा समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी । 1977 में वो सेंट्रल बोर्ड ऑफ दाऊदी बोहरा कमेटी के महासचिव बने । इस पद पर पहुंचते ही उन्होंने इस समाज में जारी कठमुल्लेपन पर अपनी लेखनी और कार्यों के जरिए हल्ला बोल दिया । असगर अली साहब ने इस्लाम और इस्लामिक न्याय शास्त्र का तार्किक विवेचन शुरू कर दिया ।  नतीजा यह हुआ कि बोहरा समाज के धर्मगुरू ने उनको समाज से बाहर करने का फरमान जारी कर दिया । समाज बदर के फरमान के बाद उनके दफ्तरों पर हमले हुए लेकिन कोई भी इस्लामी संगठन उनके बचाव के लिए आगे नहीं आाया । इस वक्त असगर अली इंजीनियर बेहद जांबाजी के साथ कठमुल्लों से लोहा लेते रहे और यह साबित किया कि क्रांति के लिए हथियार उठाना जरूरी नहीं बल्कि कलम के जोर पर भी समाज में बदलाव के बीज बोए जा सकते हैं ।  उनके इस काम में हिंदी की उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिका सारिका और उसके तत्कालीन संपादक कमलेश्वर ने साथ दिया । असगर अली इंजीनियर के कई लेख उस दौर में सारिका में छपे जिसके बाद गैर उर्दू पाठकों के बीच भी असगर अली इंजीनियर साहब की एक छवि निर्मित हुई । इस्लाम की व्याख्या का असगर अली इंजीनियर का अपना एक अलहदा तरीका था । असगर अली मानते थे कि इस्लाम में जिनकी आस्था नहीं है वो भी इ्स्लामिक नागरिकों की तरह के ही इंसान हैं । जोर जबरदस्ती से धर्म के प्रचार के वो खिलाफ थे, उनकी यही बातें कठमुल्लों को रास नहीं आती थी ।
आज के मौजूदा हालात में भारत के अलावा विश्व के कई देशों में इस्लाम को लेकर बहुत भ्रांतियां व्याप्त हैं । अलग अलग तरह की टीकाओं और व्याख्याओं के चलते इस्लाम की छवि एक कट्टरपंथी धर्म के रूप में दिनों दिन मजबूत होती जा रही है । इस्लाम की सही व्याख्या करती हुई किताबें भी भारत में लगभग नहीं के बराबर मौजूद हैं । असगर अली इंजीनियर ने अपने लेखन से भरसक इस कमी को दूर करने की कोशिश की । उनकी कई किताबें- इस्लाम एंड इट्स रेलिवेंस टू ऑवर एज, इस्लाम एंड रिवोल्यूशन, इस्लाम एंड मुस्लिम्स जैसी किताबों ने धर्म पर छाए धुंध को हटाने का काम किया । भारत में दंगों पर भी असगर अली इंजीनियर साहब ने काफी काम किया । दंगा पीड़ित इलाकों का भ्रमण करने के बाद वहां के लोगों को मनोविज्ञान पर भी उन्होंने किताबें लिखी । इस विषय पर लिखी उनकी दो किताबें- कम्युनिल्ज्म और कॉमिन्यूल वॉयलेंस इन इंडिया और कम्युनल रॉयट्स इन पोस्ट इंडिपेंडेंस इंडिया- बेहतरीन हैं । भारत के सामाजिक तानेबाने को समझने के लिए इन दो किताबों को पढ़ना मुझे जरूरी सा लगता है ।
असगर अली इंजीनियर साहब इस्लाम में स्त्रियों की स्थिति को लेकर खासे चिंतत रहा करते थे । उनका मानना था कि कुरआन में स्त्रियों को जो जगह दी गई है वो अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाई हैं । असगर अली साहब कहते थे कि मुसलमानों में जिस तरह का पितृसत्तात्मक समाज है वहां महिलाओं का अभी तक बराबरी का हक नहीं दिया जा सका है । वो ताउम्र मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ते रहे । असगर साहब का मानना था कि आधुनिक जमाने की महिलाएं ज्यादा पढ़ी लिखी और संवेदनशील हैं लिहाजा उन्हें यह गंवारा नहीं है कि वो अपने पति का प्यार अपनी सौतन के साथ बांटे । उनका मानना था कि स्त्रियों को बराबरी का हक देने की वकालत नहीं करनेवाले लोग धार्मिक नहीं हो सकते । असगर अली के आलोचक इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते थे । उनके विरोधियों का तर्क है कि असगर अली ने कुरआन की व्याख्या बेहद आधुनिक तरीके से की है । जिस वक्त कुरआन अस्तित्व में आया था उलस वक्त के हालात अलग थे । लेकिन असगर अली इंजीनियर अपनी बातों पर अडिग रहे । असगर अली इंजीनियर साहब ने पचास से ज्यादा किताबें लिखी ।अभी कुल सालों पहले ही उनकी आत्मकथा भी आई थी।
14 मई को असगर अली इंजीनियर साहब ने मुंबई में अंतिम सांसे ली । उन्हें उनकी आखिरी इच्छा के मुताबिक दाऊदी बोहरा संप्रदाय के कब्रिस्तान में नहीं दफनाकर सांताक्रूज के मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाया गया जहां उनके दोस्त मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी दफ्न हैं । उन्हें उनके बेटे इरफान के साथ उनके निकट सहयोगी राम पुनियानी ने कब्र में उतारा । एक मुसलमान स्कॉलर को एक हिंदू ने कब्र में उतारा, इसका एक बड़ा संदेश है जो अली असगर इंजीनियर साहब देना चाहते थे । असगर अली इंजीनियर साहब को श्रद्धांजलि
हजारो साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा 

Monday, June 17, 2013

सियासी बाजीगर

तेरह दिसंबर दो हजार तीन को गुजरात के कच्छ जिले के आदीपुर में बतौर रेल मंत्री बोलते हुए नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी की तारीफों के पुल बांधे थे । उस वक्त नीतीश ने कहा था- मुझे पूरी उम्मीद है कि बहुत दिन गुजरात के दायरे में सिमट कर नरेन्द्र भाई नहीं रहेंगे और देश को उनकी सेवा मिलेगी । यह बयान उस वक्त आया था जबकि गुजरात में भयानक दंगे हो चुके थे और मोदी को उन दंगों पर समय रहते काबू नहीं कर पाने के लिए कठघरे में खड़ा किया जा रहा था । उनपर दंगों को रोकने में असफल रहने के लिए उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजधर्म का पालन ना कर पाने का सार्वजनिक बयान दिया था । लेकिन नीतीश कुमार उनकी शान में कसीदे गढ़ रहे थे । अपने उस बयान के करीब दस साल बाद जब नीतीश को अपनी उम्मीद सही साबित होती दिखने लगी, यानि कि नरेन्द्र मोदी गुजरात के दायरे से बाहर निकलकर देश की ओर बढ़े, तो वो मोदी के नाम पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हो गए । दोष बीजेपी पर मढ़ा कि उसने हालात ऐसे पैदा कर दिए कि गठबंधन में रहना संभव नहीं हो पाया । लेकिन इन दस सालों में गुजरात की नर्मदा नदी और बिहार से होकर जानेवाली गंगा में भी काफी पानी बह गया । नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में लगातार तीन विधानसभा चुनावों में बीजेपी को जीत दिलाकर पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी दावेदारी को मजबूती प्रदान की । उधर नीतीश कुमार ने रसातल में जा चुके बिहार को विकास की पटरी पर लाकर पूरे राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचा था । बिहार का विकास दर गुजरात से ज्यादा पहुंचा दिया । नतीजा यह हुआ कि दोनों नेताओं की महात्वाकांक्षा सातवें आसमान पर पहुंचने लगी । मोदी ने अपने राजनीतिक कौशल से पार्टी में अपने आपको सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता के तौर पर स्थापित कर लिया था । राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का भी एक बड़ा धड़ा मोदी में हिंदुत्व का नायक देखने लगा था । यह बात गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और बाद में आडवाणी के इस्तीफे और उसे वापस लेने के ड्रामे के बाद और साफ हो गई थी । उधर नीतीश कुमार को फेडरल फ्रंट के सपने आने लगे थे । बीजेपी में आंतरिक कलह और कांग्रेस की अलोकप्रियता में नीतीश अपनी संभावनाएं तलाशने लगे थे । नीतीश की इस महात्वाकांक्षा को भांपते हुए कांग्रेस ने उसको हवा दे दी । इसी संभावना की तलाश में नीतीश को लगा कि मोदी का खुला विरोध करके वो सेक्युलरवाद के सबसे बड़े झंडाबरदार बनकर उभर सकते हैं । लिहाजा उन्होंने मोदी का बैगर नाम लिए खुला विरोध शुरू कर दिया । नीतीश कुमार ने दिल्ली की अपनी अधिकार रैली में साफ कर दिया था कि उन्हें नरेन्द्र मोदी कतई मंजूर नहीं हैं । नरेन्द्र मोदी की काट के लिए नीतीश ने आडवाणी का नाम आगे बढाया लेकिन इस आकलन में नीतीश से चूक हो गई । बीजेपी में आडवाणी अब लगभग इतिहास हो चुके हैं, उनका युग और दौर दोनों खत्म हो चुका है ।
नीतीश कुमार आज नरेन्द्र मोदी को सांप्रदायिक बताते हुए अटल-आडवाणी के गुणगान में लगे हैं । परोक्ष रूप से उन्होंने यह भी संकेत दिया कि अगर आडवाणी को बीजेपी अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे तो उन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में बने रहने में कोई परहेज नहीं है । यह तो वही बात हुई कि गुड़ खाए लेकिन गुलगुल्ले से परहेज । आज नीतीश की नजर में आडवाणी सेक्युलर हो गए हैं । अपनी सुविधाजनक सियासत के हिसाब से नीतीश यह भूल गए कि अयोध्या के बाबरी मस्जिद के विध्वंस में आडवाणी की कितनी बड़ी और अहम भूमिका थी । आडवाणी की रथयात्रा से देश में कितना वैमनस्य फैला था । नीतीश यह भी भूल गए कि आडवाणी का रथ जिन इलाकों से गुजरा था वहां कितने दंगे हुए थे । नीतीश यह भी भूल गए कि आडवाणी ने संघ की कट्टर और उग्र हिंदूवादी धारा को ना केवल प्रश्रय दिया बल्कि उसको देशभर में फैलाने और मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी । दरअसल नीतीश कुमार की अपनी मौकापरस्ती की राजनीति है । उन्हें जहां फायदा दिखता है उसके साथ हो लेते हैं औ सुविधानुसार तर्क गढ़ लेते हैं । नीतीश कुमार राजनीति में सही टाइमिंग के लिए जाने जाते हैं और सही समय पर सही पाले में रहकर उन्होंने सियासत में अपनी एक मजबूत जमीन तैयार की है । नब्बे के दशक में जब उनको लालू की पार्टी में भविष्य नहीं दिखा तो जॉर्ज की उंगली पकड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया ।
बदले हालात में अब नीतीश कुमार को लगने लगा कि मोदी के आगे आने से बिहार में अकलियत का वोट उनसे अलग हो सकता है । बिहार में मुसलमानों की संख्या लगभग सत्रह फीसदी है । माना जाता है कि नीतीश कुमार अपना दोस्त और दुश्मन दोनों बहुत सोच समझकर चुनते हैं । नीतीश का आकलन था कि अगर मोदी का दामन नहीं छोड़ा तो बिहार के सत्रह फीसदी वोटर उनसे छिटककर लालू यादव के पाले में जा सकते हैं । महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में इस बात के भी संकेत मिले थे कि बिहार की मजबूत और दबंग मानी जानेवाली भूमिहार जाति उनसे दूर जा रही है । नीतीश ने बिहार में महादलितों और पासमंदा मुसलमान को अपने पाले में लाने और बनाए रखने के लिए पिछले आठ सालों में काफी मेहनत की थी । लेकिन बदले माहौल में मुसलमानों को अपने पाले में बनाए रखना मुमकिन नहीं था । मोदी और मुसलमान दोनों एक साथ आ नहीं सकते । लिहाजा नीतीश के सामने अपने आप को सेक्यूलरिज्म का चैंपियन घोषित करने के अलावा और कोई चारा नहीं था और इसके लिए मोदी का विरोध जरूरी था । बीजेपी से अलग होकर नीतीश कुमार ने अपने सियासी करियर का सबसे बड़ा दांव चल दिया है । फिलहाल उनके पास कामचलाऊ बहुमत है और बिहार में उनकी सरकार पर कोई खतरा भी नहीं नजर आता । पिछले सत्रह सालों से दोनों पार्टियां मिलकर बिहार में चुनाव लड़ रही थी और नीतीश कुमार को बीजेपी के संगठन का लाभ मिलता रहा है । लेकिन अब बीजेपी से अलग होने के बाद उनके सामने संगठन सबसे बड़ी चुनौती होगी ।
ऐसा नहीं है कि गठबंधन के टूटने से सिर्फ नीतीश के सामने ही मुश्किलें बढ़ी हैं दिल्ली की गद्दी पर बैठने का ख्बाव देख रहे नरेन्द्र मोदी के लिए भी नीतीश जैसे सहयोगी के चले जाने की भारपाई करना आसान नहीं होगा । आगामी लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है । इन हालात में सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन के तौर पर उभरना बेहद जरूरी है । बीजेपी के साथ अब ले देकर शिवसेना और अकाली दल बचे हैं । शिवसेना भी मोदी को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं दिखती है क्योंकि बाला साहब ठाकरे ने अपनी मौत के पहले प्रधानमंत्री पद के लिए सुषमा स्वराज की वकालत की थी । हां अकाली दल बेहद मजबूती के साथ बीजेपी के साथ खड़ा है । लोकसभा चुनाव की तैयारियों और रणनीतियों के लिए ग्यारह महीने का वक्त बहुत कम होता है । खासकर तब जबकि देश लगभग आधे हिस्से में आपका जनाधार नहीं हो और आपके सहयोगी आपसे छिटक रहे हों । जहां एक एक सीट के लिए मारामारी मचनेवाली हो वहां इक्कीस लोकसभा सीट जीतनेवाली सहयोगी पार्टी के अलग होने से मोदी के सपनों पर ग्रहण लगने का खतरा बढ़ जाता है । ऐसे में मोदी के सामने अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की बड़ी चुनौती है । इसके अलावा मोदी को नए सहयोगियों की तलाश भी करनी होगी । अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो देश में फिर से अस्थिर सरकारों का दौर शुरू हो सकता है जो ना तो देश के हित में होगा और ना ही जनता के ।

Sunday, June 16, 2013

बीजेपी की सियासी बीमारी

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को पहले बीजेपी संसदीय बोर्ड में लाया गया ।  उसके बाद गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उनको चुनाव प्रचार कमेटी की कमान सौंप कर पार्टी ने साफ कर दिया कि आगामी लोकसभा चुनाव में वही पार्टी के चेहरा होंगे । उनके इस ऐलान के पहले ही कई नेता सियासी बीमारी के शिकार हो गए । यशवंत सिन्हा ने तो खुलकर कह दिया कि उनको नमोनिया नहीं हुआ है, लेकिन वो अन्य वजहों से गोवा नहीं गए । नेताओं के बीमारी के बावजूद मोदी को कमान सौंपी गई लेकिन ब्रम्हास्त्र तो चला लालकृष्ण आडवाणी ने । आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा सौंपा और एक बेहद कड़ा पत्र अध्यक्ष राजनाथ सिंह को लिखा । आडवाणी के इस्तीफे के बाद भी पार्टी में कोई हलचल नहीं हुई । दिखाने के लिए मानमनौव्वल का दौर चला, लेकिन उनको मनाने के लिए मोदी खेमा का कोई नेता सक्रिय नहीं हुआ । अगर हम सियासत के महीन सूत्र को पकड़ते हैं तो पाते हैं कि आडवाणी को मनाने में उनके ही खेमे की सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, बलबीर पुंज और वैंकैया नायडू लगे रहे । दिल्ली में होते हुए राजनाथ सिंह उनसे मिलने तक उनके घर नहीं गए । दिल्ली में मोदी के नए नए सिपहसालार अमित शाह तो राजनाथ सिंह और अन्य लोगों से मिलते रहे लेकिन आडवाणी को मनाने तो दूर उनसे बात तक नहीं की । संसदीय बोर्ड में आडवाणी के इस्तीफे को अस्वीकार करने की औपचाकिता निभाई गई और फिर पार्टी में सबकुछ सामान्य हो गया । सब अपने अपने काम में लग गए । आडवाणी को भी अपनी स्थिति का एहसास हुआ और संघ प्रमुख मोहन भागवत के फोन के बाद मान जाने का ऐलान हुआ ।
दरअसल इस पूरे मामले में आडवाणी से हालात और मोदी के प्रभामंडल के आकलन में चूक हो गई । मोदी ने पार्टी में ऐसी घेरेबंदी कर ली है और अपने प्रचार तंत्र की बिनाह पर कार्यकर्ताओं के बीच अपनी छवि एक ऐसे नायक की बना ली है जो हर समस्या का अंत कर सकता है । लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने अपने पत्र में जो गंभीर सवाल उठाए उसका जवाब नहीं मिल पाया । हलांकि राजनाथ सिंह ने इस बात का भरोसा दिया कि वो आडवाणी के उठाए मुद्दों पर गौर करेंगे । अपने पत्र में आडवाणी ने कहा था कि पार्टी के ज्यादातर नेता अपने व्यक्तिगत हित को आगे बढ़ाने में लगे हैं । उनका सीधा इशारा मोदी की ताजपोशी के दौरान के घटनाक्रम की ओर था और यही उनकी नाराजगी की वजह भी । उन्होंने संघ से जुड़े नेताओं के दुहाई भी दी थी लेकिन पार्टी ने उनपर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा । राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी को यह लगने लगा है कि मनमोहन सरकार की नाकामियों और बदनामियों की वजह से वो सत्ता हासिल करने के बिल्कुल करीब है । बहुत संभव है कि यह मुमकिन भी हो । देश की जनता इस वक्त महंगाई और भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही है । लेकिन जिस तरह से मोदी और पार्टी में उनके कारिंदे अपनी चालें चल रहे हैं वो पार्टी और संघ के सिद्धांतों के एकदम उलट है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सार्वजनिक जीवन में शुचिता की एक परंपरा रही है । और संघ से दीक्षित बीजेपी नेता उस परंपरा का निर्वाह करते रहे हैं । बीजेपी भी अपने को पार्टी विद अ डिफरेंस होने का दावा करती रही है । राजनीति में अपने चाल चरित्र और चेहरे के अलग होने का भी ।
हाल के सालों में जिस तरह से बीजेपी में येनकेन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए सिद्धांतों की जिस तरह से  तिलांजलि पार्टी ने दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में जता दी थी अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में गए हैं राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है पंडित जी ने जब ये बातें 1965  में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी
बीजेपी की लाख आलोचना करनेवाले राजनीतिक टिप्पणीकार यह मानते रहे हैं कि वहां आंतरिक लोकतंत्र है और पार्टी सामूहिक निर्णय से चलती है । लेकिन पार्टी में मोदी युग के प्रादुर्भाव के बाद जिस तरह से पार्टी एक वयक्ति के इर्द गिर्द सिमटने लगी है वह पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है । संघ में हमेशा से यह माना जाता रहा है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वो कितना भी बड़ा क्यों ना हो , संगठन से बड़ा नहीं होता । लेकिन जिस तरह से पार्टी आजकल नमो नमो का जाप कर रही है उससे तो यही लगता है कि वयक्तिवाद की राजनीति बीजेपी पर हावी होने लगी है । संघ ने जिस तरह से आडवाणी के विद्रोह पर लगाम लगाई उसी तरह से उसको व्यक्तिवादी राजनीति पर भी लगाम लगाने की जरूरत है, ताकि देशभर के स्वयंसेवकों का संगठन पर भरोसा कायम रह सके और पार्टी में कांग्रेस की तरह से व्यक्ति पूजा ना हो । राजनीतिज्ञों का अंतिम लक्ष्य सत्ता होता है लेकिन स्वंयसेवकों के लिए यह रास्ता तय नहीं किया गया था ।