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Saturday, July 28, 2018

भाषाओं के साहचर्य से राष्ट्रीय एकता


राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 23 मई 1954 को गुजरात-सौराष्ट्र-कच्छ-प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन के भावनगर में आयोजित सत्र में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि वेद, उपनिषद्, रामायण और महाभारत- ये ही वे घाट हैं जहां पर हमारी सारी भाषाएं पानी पी हैं। भाषा मूक भी होती है। भाषा संकेत को भी कहते हैं। और भाषा के इन रूपों को सभी लोग एक समान समझ भी लेते हैं। अतएव मुख्य वस्तु भाषा नहीं भाव है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कहा-भाव अनूठो चाहिए, भाषा कोऊ होय। सो भाव की एकता को ही लेकर ये सारा देश एक रहा है और विभिन्न भाषाओं के भीतर से हम विभिन्न भावों की इसी एकता की अनुभूति करते हैं। भारत की भारती एक है। उसकी वीणा में दितने भी तार हैं उनसे एक ही गान मुखरित होता है। असल में ज्ञान की गाय हमारी हमारी एक ही है, ये सारी भाषाएं उसकी अलग अलग थन हैं जिनसे मुंह लगाकर भारत की समस्त जनता एक ही क्षीर का पान कर रही है। भारत की संस्कृति एक है, विभिन्न भाषाएं उसी संस्कृति से प्रेरणा लेकर अपने-अपने क्षेत्र में साहित्य रचती हैं और इन सभी साहित्यों से, अन्तत: उसी संस्कृति की सेवा होती है, उसी संस्कृति का रूप निखरता है जो सभी भारतवासियों का सम्मिलित उत्तराधिकार है।दिनकर के इस कथन से भारतीय भाषाओं के बीच के प्रगाढ संबंधों का पता चलता है। लेकिन आजादी के बाद भारतीय भाषाओं के बीच द्वेष बढ़ाने का काम लगातार किया जाता रहा। हिंदी के खिलाफ अन्य भारतीय भाषाओं को खड़ा किया गया। भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी को तरजीह दी जाती रही। अब भी दी जा रही है। माहौल कुछ ऐसा बना कि हीं समेत अन्य भारतीय भाषाओं में शोध को हेय दृष्टि से देखा गया। अंग्रेजी में शोध की बाध्यता ने हिंदी समेत भारतीय भाषाओं में मौलिक चिंतन बाधित हुआ।
आजादी के सत्तर साल बाद भी अबतक भारतीय भाषाओं को अकादमिक तौर पर साथ लेकर चलने की ठोस कवायद नहीं हुई। अलग अलग भारतीय भाषाओं को लेकर विश्वविद्लायों की स्थापना हुई लेकिन एक ऐसे परिसर की कल्पना नहीं की गई जिसमें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल बाइस भाषाएं एक ही परिसर में पल्लवित हों। आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में द्रविड़ भाषाओं को प्रोत्साहन देते हुए, उसमें पढ़ाई, शोध और सामंज्स्य हेतु द्रविडियन युनिवर्सिटी की 1997 में स्थापना की गई। इस विश्वविद्यालय को आंध्र प्रदेश सरकार ने तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक सरकार के सहयोग से स्थापित किया जहां तमिल, तेलुगु, मलयाली और कन्नड की पढ़ाई होती है। इसी तरह हिंदी और उर्दू को लेकर अलग अलग विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। अन्य भाषाओं के नाम पर भी संस्थान होंगे। मैसूर में भारतीय भाषा संस्थान हैं लेकिन वहां अलग तरह का कार्य होता है। वहां भी निदेशक की नियुक्ति में लंबा अंतराल होने की वजह से, संस्थान में प्रोफेसर के पद पर नियुक्तियां नहीं होने से काम बहुत धीमी गति से हो रहा है। इस देश की संसद ने द इंगलिश एंड फॉरेन लैंग्वेजेज युनिवर्सिटी के नाम से केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाया लेकिन कभी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के नाम पर विश्वविद्यालय की स्थापना के बारे में विचार नहीं किया गया। इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया या जानबूझकर भारतीय भाषाओं को नजरअंदाज किया गया, इसपर भी विचार करने की जरूरत है।  
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के निदेशक प्रोफेसर नंदकिशोर पांडे ने इस बावत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को 28 मई 2018 को एक प्रस्ताव भेजा है। उन्होंने हिंदी तथा भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना का सुझाव दिया है। उनका भी तर्क है कि विदेशी भाषाओं के अध्ययन अध्यापन के लिए यह कार्य भारत सरकार ने बहुत पहले कर दिया था। लेकिन ऐसा भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए नहीं किया गया। इस विश्वविद्लाय की एक बड़ी भूमिका प्रत्येक भाषा भाषी क्षेत्र में बिखरी हुई वाचिक परंपरा की सामग्री के संग्रह और लिपिबद्ध करने की होगी। जो कुछ भी संगृहीत हुआ है उसका सघन सर्वेक्षण तथा भाषिक और व्याकरणिक अध्ययन उसमें छिपे हुए भारतीयता के तत्वों के साथ ही ज्ञान-विज्ञान की वाचिक परंपरा का अन्वेषण करेगा। इस ज्ञान परंपरा को शीघ्र नई तकनीक से जोड़कर संरक्षित करना आवश्यक हो गया है। विलंब होते ही आधुनिकता के प्रहार से यह सब कुछ क्षत विक्षत होनेवाला है। तब एक बड़ी लोक सांस्कृतिक संपदा से यह देश वंचित हो जाएगा। प्रोफेसर पांडे का यह सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसपर त्वरित गति से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को कार्यवाही करके मंत्रालय को भेजना चाहिए। नंद किशोर पांडे के सुझाव को दो महीने हो गए, उनके इस प्रस्ताव के समर्थन में भी कई भाषाविदों ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को पत्र लिखा है। अगर भारत सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर गंभीर है तो इस प्रस्ताव के मिलते ही संसद के आगामी सत्र में बिल बनाकर पेश कर पास कराया जाना चाहिए।
अगर यह विश्वविद्लाय बन जाता है तो यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने और मजबूत करने में भी महती योगदान दे सकता है। कल्पना कीजिए कि एक ही परिसर में सभी भाषा के विद्वान और छात्र अध्ययन करते हों, एक दूसरे बीच विचारों का आदान प्रदान करते हों, एक दूसरे की समस्याओं पर, भाषाई प्रवृत्तियों पर विचार विमर्श होगा। भाषाओं के बीच गलतफहमियां दूर होंगी। जब भाषाई आवाजाही शुरू होगी को संवाद भी बढ़ेगा और जब संवाद बढ़ता है तो कई तरह की समस्याएं तो बगैर किसी प्रयास के हल हो जाती हैं, भ्रांतियां भी दूर हो जाती हैं। हिंदी को लेकर जिस तरह का भय का वातावरण अन्य भारतीय भाषाओं में पैदा किया जा रहा है वह भी दूर होगा।
प्रोफेसर पांडे ने अपने प्रस्ताव में कहा है कि इस विश्वविद्यालय में बाइस मान्य भाषाओं के अलाव जितनी भी उपभाषाएं या बोलियां हैं उनके भी मानक व्याकरण और इतिहास लेखन पर काम किया जाएगा। इसके अलावा उन्होंने उन प्राचीन भारतीय भाषाओं को भी रेखांकित किया है जिनमें प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है लेकिन वो अब प्रचलन में नहीं है। उनके सामने खत्म हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। इसके अलावा इस विश्वविद्यालय के स्थापित होने से एक और काम हो सकता है जिसकी ओर भी प्रस्ताव में ध्यान आकृष्ट किया गया है वो यह कि भारतीय साहित्य का एक अनुशासन बने ताकि वैश्विक साहित्यक परिदृश्य में हमारी उत्कृष्ट रचनाओं को प्रचारित किया जा सके। इसका लाभ यह होगा कि नोबेल पुरस्कार जैसी प्रतिष्ठित पुरस्कारों में भारतीय भाषाओं की भागीदारी बढ़ेगी।
इस विश्वविद्लाय के स्थापित होने का एक लाभ यह भी होगा कि इससे भारत में मौलिक चिंतन की अवरुद्ध हुई धारा का विकास संभव हो सकेगा। आयातित विचारधारा और आयातित भाषा ने हमारी ज्ञान परंपरा का नुकसान किया, उस नुकसान की भारपाई के लिए भी इस बात की आवश्यकता है कि सभी भारतीय भाषाएं कंधे से कंधा मिलाकर चलें। जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपनी मशहूर किताब लिंगविस्टक सर्वे में लिखा है कि जिन बोलियों से हिंदी की उत्तपत्ति हुई है उनमें ऐसी विलक्षण शक्ति है वे किसी भी विचार को पूरी सफाई के साथ अभिव्यक्त कर सकती है। हिंदी के पास देसी शब्दों का अपार भंडार है और सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों को सम्यक रूप से अभिव्यक्त करने के उसके साधन भी अपार हैं। हिंदी का शब्द भंडार इतना विशाल और उसकी अभिव्यंजना शक्ति ऐसी है जो अंग्रेजी से,शायद ही, हीन कही जा सके। लेकिन आज ऐसी स्थिति है कि हम हिंदी को विपन्न मानने लगे हैं, अपनी अज्ञानता में हिंदी में शब्दों की कमी का रोना रोते हैं और अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करने लगे हैं। अगर हिंदी में कोई शब्द नहीं है या अन्य भारतीय भाषा में कोई शब्द नहीं है तो बजाए अंग्रेजी की देहरी पर जाने के हम अपनी सहोदर भाषाओं के पास जाएं और उनके शब्द का इस्तेमाल शुरू करें। अगर भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का स्वप्न मूर्त रूप ले पाता है तो यह कार्य भी संभव हो पाएगा। भारतीय भाषाओं के शब्द एक दूसरे की भाषा में प्रयुक्त होकर अपनी अपनी भाषा को समृद्ध करेंगे। महात्मा गांधी ने भारतीय भाषाओं को लेकर विस्तार से लिखा है जो संपूर्ण गांधी वांग्मय के खंड 13 और 14 में संकलित है। भारत सरकार अभी गांधी जी के डेढ सौवीं जन्मदिवस को समारोह पूर्व मनाने की योना पर काम कर ही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद गांधी जी की डेढसौवीं जन्म जयंती समारोह में व्यक्तिगत रुचि ले रहे हैं। इस मौके पर अगर भारतीय भाषाओं के साहचर्य के उपरोक्त प्रस्ताव को मंजूरी मिलती है तो गांधी का भारतीय भाषाओं के माध्यम से देश की एकता की मजबूती का स्वप्न पूरा होगा।

Saturday, July 21, 2018

यथास्थितिवाद के भंवर में शिक्षा-संस्कृति


मई 2014 में जब नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी तो उसके बाद शुरूआत के दो साल तक शिक्षा, भाषा और संस्कृति पर जमकर बात होती रही। सरकार भी इस दिशा में काम करती दिख रही थी, नई शिक्षा नीति का मसौदा पेश किया गया था, भाषा, कला, साहित्य और सांस्कृतिक संगठनों में बदलाव देखने को मिल रहे थे। बदलाव की इस बयार का विरोध भी हो रहा था, छोटे छोटे मसलों को तूल देकर बड़ा विवाद खड़ा करने की कोशिशें की गईं, जेएनयू से लेकर रोहित वेमुला की आत्महत्या तक को विवाद की ज्वाला में होम कर उसकी लपटें तेज की गईं ताकि पूरा देश उसकी आंच महसूस कर सके। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी का खेल भी खेला गया। पुरस्कार वापसी के इस खेल को कई लेखकों ने भुनाने की भी कोशिश की। पुरस्कार वापसी के बाद ऐसा प्रतीत होने लगा कि भाषा, कला, शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में केंद्र सरकार ने यथास्थितिवाद को झकझोरना कम कर दिया। जो तेजी शुरूआत में दिखाई दे रही थी वो धीमी होती चली गई। नतीजा यह हुआ कि एक एक करके इन क्षेत्रों में काम करनेवाली सरकारी, और स्वायत्त संस्थाओं में इसके कर्ताधर्ताओं की नियुक्तियां ठंडे बस्ते में चली गई। इस स्तंभ में इस बात पर विस्तार से चर्चा हो चुकी है कि इनसे जुड़ी संस्थानों में रिक्तियां हैं और सरकार उसको भर नहीं पा रही है या भरने में देरी हो रही है। नई शिक्षा नीति अब मोदी सरकार अपने वर्तमान कार्यकाल में लागू कर पाएगी इसमें संदेह है क्योंकि अब आम चुनाव में वक्त बहुत कम रह गया है।
इस वर्ष मार्च में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में एकमात्र प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमे भारतीय भाषाओं के संवर्धन और संरक्षण की बात कही गई थी। उस प्रस्ताव में सात बिंदुओं पर जोर दिया गया था। प्रस्ताव के सातवें बिंदु में केन्द्र व राज्य सरकारों से सभी भारतीय भाषाओं, बोलियों तथा लिपियों के संरक्षण और संवर्द्धन हेतु प्रभावी प्रयास करने की सलाह दी गई थी या दूसरे शब्दों में कहें तो अपेक्षा की गई थी। तीन महीने बीत जाने के बाद भी इस दिशा में कोई ठोस पहल केंद्र सरकार की तरफ से नजर नहीं आ रही है। भाषाओं के संवर्धन और संरक्षण के लिए बनाई गई संस्थाएं क्या कर रही हैं ज्ञात नहीं हो सका है। आगरा के केंद्रीय संस्थान में काम हो रहा है तो इस वजह से कि वहां उपाध्यक्ष और निदेशक मजबूती से डटे हैं। उनके कार्यकाल तय हैं। खत्म होने के पहले उनपर फैसला हो गया और उनको सेवा विस्तार दे दिया गया। इस वजह से अनिश्चिता का माहौल नहीं है और ठीक तरीके से काम हो रहा है। लेकिन केंद्रीय हिंदी निदेशालाय जैसी संस्थाएं अनाथ हैं, पिछले दस सालों से वहां पूर्णकालिक निदेशक नहीं है। यूपीए सरकार को तो कोई योग्य व्यक्ति नहीं मिला लेकिन मौजूदा सरकार भी चार साल से अधिक समय से इस पद के योग्य व्यक्ति नहीं ढूंढ पाई। इसके अलावा एक और पक्ष है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है। वह है इस तरह की संस्थाओं में आपसी तालमेल की कमी। एक ही तरह के कार्यक्रम अलग अलग संस्थाओं में हो रहे हैं। ललित कला से संबंधित कार्यक्रम कई संस्थाएं कर रही हैं । भाषा को लेकर भी अलग अलग संस्थाएं अलग अलग आयोजन कर रही हैं। कार्यक्रम की प्रकृति एक है लेकिन आयोजक अलग अलग हैं। संगीत नाटक अकादमी के रहते हुए भी भारत सरकार की अन्य संस्थाएं भी वही आयोजन कर रही हैं जिसका मैंडेट संगीत नाटक अकादमी को है। समन्वय के आभाव में ये घटित हो रहा है।
समन्वय की इस कमी को दूर करने के लिए और इन संस्थाओं को एक समान उद्देश्य को लेकर समेकित प्रयास को गति देने की योजना पर काम करने के लिए इस वर्ष 22 अप्रैल को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में एक बेहद महत्वपूर्ण बैठक हुई। सरकार से संबद्ध और भाषा, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही संस्थाओं के अध्यक्षों, निदेशकों की एक बैठक हुई थी।यह आयोजन इस वजह से भी अहम माना जा सकता है कि रविवार को ये बैठक रखी गई। बैठक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो सह सरकार्यवाह, संस्कार भारती के बड़े अधिकारी, शिक्षकों की राष्ट्रवादी संस्था, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, एकात्म मानववाद विकास संस्थान आदि के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल हुए। इसके अलावा संघ से जुड़े विचारक, शिक्षाविद और अन्य अनुषांगिक  संगठनों के दिग्गज भी शामिल हुए। इस बैठक में राष्ट्रीय शैक्षिक और अनुसंधान परिषद(एनसीईआरटी),विश्वविद्लाय अनुदान आयोग(यूजीसी),सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंड्री एजुकेशन( सीबीएसई),भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद( आईसीएसएसआर) ,इंडियन काउंसिल ऑफ फिलॉसफिकल रिसर्च(आईसीपीआर), राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान(एनआईओएस),भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद(आईसीएचआऱ), अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद(एआईसीटीई), प्रसार भारती, भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी), भारतीय सांस्कृति संबंध परिषद जैसी लगभग सभी संस्थाओं के आला अफसर मौजूद थे। इस बैठक की गंभीरता का पता इससे भी चलता है कि इसमें भारत सरकार के प्रधान आर्थिक सलाहकार भी कुछ घंटों के लिए इसमें मौजूद थे। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के चेयरमैन और सदस्य सचिव तो थे ही। शिक्षा, कला, संस्कृति, प्रसार आदि क्षेत्रों के दिग्गजों ने दिनभर चले इस ब्रेन स्टार्मिंग सेशन में समन्वय पर माथापच्ची की। इसका निष्कर्ष क्या निकला या यहां क्या कार्ययोजना बनी इसका पता तो बाद में चल पाएगा। इस तरह की ब्रेन स्टार्मिंग सेशन होते रहने चाहिए लेकिन इसके उद्देश्यों की पूर्ति तब होती है जब उसके नतीजे जमीन पर दिखाई देते हैं। जिसका अभी इंतजार है। वैसे भी सरकार के कार्यकाल के चार साल बीत जाने के बाद जब वो चुनावी वर्ष में प्रवेश कर रही हो तो बहुत ठोस काम होने की उम्मीद कम होती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा भी था कि चार साल काम और एक साल राजनीति। अगर उनके इस वाक्य के आलोक में इस बैठक को देखें तो यह अपेक्षा करना बेमानी होगी कि बैठक के नतीजों पर कोई ठोस काम हो पाएगा।
मैनेजमेंट में इन दिनों एक शब्द बहुत गंभीरता से लिया जाता है और मैनजमेंट गुरू इस सिद्धांत को लेकर लगातार बातें कर रहे हैं। वो शब्द है डिसरप्शन। हिंदी शब्दकोश में इसके अनेक मायने हैं लेकिन मैनेजमेंट के संदर्भ में माना जाता है कि आप यथास्थितिवाद में तोड़फोड़ करें, उसको चुनौती दें और फिर उस तोड़ फोड़ को अपने हक में इस्तेमाल करें। फेसबुक से लेकर जियो मोबाइल तक ने इसी सिद्धांत को अपनाया और सफलता प्राप्त की। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने अपने कार्यकाल के शुरूआती वर्षों में शिक्षा, संस्कृति, कला के क्षेत्रों में डिसरप्शन किया और उसके नतीजे भी मिलने लगे थे। उसके बाद वामपंथियों की आक्रामकता और उनके प्रहारों से विचलित होकर सरकार के कर्ताधर्ताओं ने इन क्षेत्रों में यथास्थितिवाद को गले लगा लिया। अपनी नियुक्तियों को खेदपूर्ण मानने लगे, और फिर जो जैसा चल रहा है चलने दो के सिद्धांत को अपना लिया गया। नतीजा यह हुआ कि सरकार की विचारधारा के करीबी लोगों के कार्यकाल खत्म होते गए और वो संस्थानों से बाहर होते चले गए या उनको थोड़े थोड़े समय के लिए सेवा विस्तार दिया गया। महीनों में दिए जानेवाले छोटे सेवा विस्तार का नुकसान हमेशा होता है। यहां भी हुआ। तो क्या ये मान लिया जाए कि जो सरकार पर संस्कृति और भाषा को लेकर अपनी अलग पहचान के साथ आई थी उसने ये अवसर गंवा दिया? ज्यादा नहीं पर अब भी कुछ वक्त है कि सरकार इस दिशा में ठोस काम करे, भाषा को लेकर जो संस्थाएं हैं उसको गतिमान करे, नई शिक्षा नीति के मसौदे को जल्द से पेश करे ताकि उसको चुनाव के पहले लागू किया जा सके। समन्वय बैठक में अगर कोई फैसला हुआ हो या किसी कार्ययोजना पर सहमति बनी हो तो उसको भी तेज गति से लागू करने की आवश्यकता है। अन्यथा होगा कि इन संस्थाओं में सालों से जमे अफसर अपनी मनमानी करते रहेंगे, पुरानी व्यवस्था को लागू करते रहेंगे क्योंकि अफसर और बाबू ही यथास्थिवाद से सबसे बड़े पोषक होते हैं। कला, संस्कृति, भाषा और शिक्षा के क्षेत्र में इस सरकार से जनता को काफी उम्मीदें हैं, और अगर जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरना है तो सिर्फ परपंराओं की बात करने से बात नहीं बनेगी भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने और उसको कुछ ठोस करना होगा। ये तभी संभव होगा जब आयातित विचारधारा के आधार पर बनी व्यवस्था को छिन्न भिन्न किया जा सके। समन्वय के साथ यथास्थितिवाद को चुनौती, भारतीय ज्ञान परंपरा को पुर्नस्थापित करने की प्रविधि यही हो सकती है।


Saturday, July 14, 2018

'सेक्रेड गेम्स' पर शांति का षडयंत्र


इन दिनों भारतीय वेब-टेलीविजन सीरीज सेक्रेड गेम्स की चारों ओर चर्चा हो रही है, देश-विदेश के अखबारों में इस क्राइम थ्रिलर पर लेख लिखे जा रहे हैं, इसकी समीक्षा हो रही है। सोशल मीडिया पर भी इसको लेकर बहुत चर्चा हो रही है। इस सीरीज में राजीव गांधी को लेकर की गई टिप्पणी पर विवाद भी हो गया है। मामला कोर्ट तक जा पहुंचा है। असहिष्णुता का शोर मचानेवाले लोग खामोश हैं। हाथों में प्लाकार्ड थामे अभिनेत्रियों के बयान नहीं आ रहे हैं। देश छोड़ने की बात करनेवाले भी शांत हैं।अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बुक्का फाड़कर चिल्लानेवाले लोग खामोश हो गए हैं। इन सारे लोगों भी सवाल उठाए जा सकते हैं और पूछा जा सकता है कि शांति का षडयंत्र क्यों?  सेक्रेड गेम्स नाम के इस सीरीज के निर्देशक अनुराग कश्यप ने 2016 में अपने एक फेसबुक पोस्ट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से ये अपेक्षा की थी कि वो धौंस देनेवाले अपने समर्थकों पर लगाम लगाएं। वो अनुराग कश्यप भी खामोश हैं जबकि कांग्रेस पार्टी के लोग सेक्रेड गेम्स को लेकर हमलावर हो रहे हैं। उनकी राहुल गांधी से अपेक्षा करते हुए कोई फेसबुक पोस्ट या ट्वीट दिखाई नहीं दे रही है। अगर मुक्तिबोध की कविता पंक्ति उधार लेकर कहें तो कह सकते हैं कि सब सरदार हैं खामोश’, क्योंकि मामला अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर चुनिंदा अवसरवाद का है। किसी लेखक संगठन ने राजीव गांधी को लेकर सेक्रेड गेम्स पर पाबंदी लागने के लिए कोर्ट जाने पर कांग्रेस के नेता को कठघरे में खड़ा नहीं किया। किसी ने इस बाबत राहुल गांधी से भी प्रश्न नहीं पूछा। अगर यही काम किसी बीजेपी के छोटे से नेता ने भी किया होता तो अवॉर्ड वापसी ब्रिगेड से लेकर असहिष्णुता की बात करनेवाले लोग बिलबिलाकर प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा कर चुके होते और उनसे इस मसले पर हस्तक्षेप की अपेक्षा भी करते। कई अवसरों पर इस तरह की चुनिंदा प्रतिक्रिया देखने को मिली है। खैर ये अलहदा मुद्दा है और इस पर विस्तार से कभी और चर्चा।  
फिलहाल हम बात कर रह हैं नेटफ्लिक्स पर आठ एपिसोड में प्रसारित इस धारावाहिक सेक्रेड गेम्स की। दरअसल ये 2006 में प्रकाशित विक्रम चंद्रा के इसी नाम के उपन्यास पर बनाया गया धारावाहिक है जिसको अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवाणी ने निर्देशित किया है। नेटफ्लिक्स ने भारतीय बाजार में मजबूती हासिल करने के लिए स्थानीय कटेंट को बढ़ावा देने का फैसला किया है। इसी के तहत पहले लस्ट स्टोरीज और अब सेक्रेड गेम्स को प्रस्तुत किया गया है। भारतीय बाजार में सफलता के लिए कुछ तय फॉर्मूला है जिसपर चलने से कामयाबी मिल ही जाती है। ये फॉर्मूले हैं धर्म, हिंसा, सेक्स और अनसेंसर्ड सामग्री दिखाना। नेटफ्लिक्स ने लस्ट स्टोरीज में भी और अब सेक्रेड गेम्स में भी इन फॉर्मूलों का जमकर इस्तेमाल किया है। लस्ट स्टोरीज के अलग अलग एपिसोड को अलग-अलग निर्देशकों ने डायरेक्ट किया था। इन निर्देशकों में भी अनुराग कश्यप थे और उनके अलावा जोया अख्तर, दिवाकर बनर्जी और करण जौहर थे। लस्ट स्टोरीज में भी सेक्स प्रसंगों को भुनाने की मंशा दिखती है। अनुराग कश्यप अपनी फिल्मों में गाली-गलौच वाली भाषा के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने यही काम इस सीरीज में भी किया है, आठ एपिसोड में जमकर गाली गलौच है। गाली गलौच के बचाव में ये तर्क दिया जा रहा है कि मुंबई के जिस भौगोलिक इलाके और परिवेश की कहानी है उसमें हर शब्द के आगे और पीछे गाली होती है। अब सवाल यही उठता है कि जीवन और फिल्म या धारावाहिक या साहित्य में क्या फर्क है। फिल्म, धारावाहिक या साहित्य तो जीवन जैसी कोई चीज है जीवन तो नहीं है। अगर हम धारावाहिक या फिल्म में जीवन को सीधे-सीधे उठाकर रख देते हैं तो यह उचित नहीं होता है। जीवन को जस का तस कैमरे में कैद करना ना तो फिल्म है ना ही धारावाहिक। जिस भी फिल्म में इस तरह का फोटोग्राफिक यथार्थ दिखता है वो कलात्मक दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं माना जाता है। अनुराग कश्यप बहुधा इस दोष के शिकार होते नजर आते हैं, यहां भी हुए हैं।
इसके अलावा सेक्रेड गेम्स में सेक्स प्रसंगों की भरमार है, अप्राकृतिक यौनाचार के भी दृश्य हैं, नायिका को टॉपलेस भी दिखाया गया है। हमारे देश में इंटरनेट पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर पूर्व प्रमाणन जैसी कोई व्यवस्था नहीं है लिहाजा इस तरह के सेक्स प्रसंगों को कहानी में ठूंसने की छूट है जिसका लाभ उठाया गया है। लगभग हर एपिसोड में इस तरह से दृश्य हैं और ये सबसे सस्ता तरीका है दर्शकों को अपनी ओर खींचने का। नवाजुद्दीन सिद्दिकि ने गैंगस्टर गायतोंडे की भूमिका निभाई है लेकिन उसके चरित्र का चित्रण लगभग सेक्स मैनियाक की तरह किया गया है। यह वही गायतोंडे है जो अपनी मां के विवाहेत्तर सेक्स संबंध को जानने के बाद इतना उत्तेजित हो जाता है कि बचपन में ही मां के प्रेमी की हत्या कर घर से भाग जाता है। आठ एपिसोड के इस धारावाहिक में धर्म का तड़का भी लगाया गया है। धर्म-राजनीति-पुलिस-माफिया का गठजोड़ तो दिखता ही है, देश के खिलाफ एक बड़ी साजिश भी है।
अगर हम नेटफ्लिक्स के इस तरह के कंटेंट की तरफ बढ़ने की वजह तलाशते हैं तो इसके कारोबारी पक्ष को देखना होगा। सक्रिय मासिक उपभोक्ता के आधार पर नेटफ्लिक्स हमारे देश का एक बड़ा और लोकप्रिय वीडियो एप है। एक सर्वे के मुताबिक इस एप पर उभोक्ताओं द्वारा बितानेवाले समय को आधार मानते हैं तो नेटफ्लिक्स सातवें स्थान पर है और डाउनलोड को आधार बनाते हैं तो वो चौदहवें स्थान पर चला जाता है। भारतीय वीडियो बाजार में नेटफ्लिक्स का मुकाबला अमेजन प्राइम वीडियो और हॉटस्टार से है। ये दोनों प्लेटफॉर्म वीडियो के साथ साथ कुछ अतिरिक्त भी ऑफर करते हैं। अमेजन प्राइम वीडियो के उपभोक्ताओं को उसके ई-कामर्स प्लेटफॉर्म पर सहूलियतें मिलती हैं तो हॉटस्टार पर आईपीएल देखने को मिलता है। इस बीच जियो ने भी अपने आप को इस बाजार में मजबूत किया है। सक्रिय मासिक उपभोक्ताओं की संख्या के आधार पर जियो टीवी तीसरे नंबर पर है, यूट्यूब और हॉटस्टार के बाद। ऐसे में नेटफ्लिक्स सेक्रेड गेम्स के जरिए भारतीय बाजार में खुद को मजबूत करने की कोशिशों में जुटा है। जिस तरह से इंटरनेट पर इस प्रोग्राम को प्रमोट किया गया है या महानगरों में होर्डिंग आदि लगे हैं उससे साफ है कि नेटफ्लिक्स की मंशा क्या है। नेटफ्लिक्स के एक अधिकारी ने कहा भी है कि स्थानीय कटेंट के अलावा तकनीकी दिक्कतों को दूर करना उनकी प्राथमिकता है। कमजोर इंटरनेट कनेक्टिविटी के बावजूद नेटफ्लिक्स पर अबाधित वीडियो देखा जा सकता है।
सेक्रेड गेम्स में अनुराग कश्यप अपनी विचारधारा के साथ उपस्थित हैं, कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष रूप से। इस एपिसोड में यह दिखाया गया है कि कैसे एक निर्दोष मुस्लिम लड़को का पुलिस एनकाउंटर कर देती है। और परोक्ष रूप से राजनीतिक स्टेटमेंट तब देते हैं जब उस मुस्लिम लड़के का परिवार धरने पर बैठा होता है और उसकी कोई सुध लेनवाला नहीं होता है। सिस्टम को निशाने पर तो लेते हैं लेकिन उसके पीछे की मंशा कुछ और होती है। एक एपिसोड में तो बाबारी विध्वंस के फुटेज को लंबे समय तक दिखाया जाता है और फिर बैकग्राउंड से उसपर राजनीतिक टिप्पणी आती है। इसी तरह से मुंबई बम धमाकों के फुटेज को दिखाकर बैंकग्राउंड से टिप्पणियां आती हैं जो सीरियल निर्माता की सोच को उजागर करती है। इससके अलावा भी अनुराग कश्यप को जहां मौका मिलता है वो राजनीतिक टिप्पणी करने और मौजूदा सरकार और उसकी विचारधारा को कठघरे में खड़ा करने में नहीं चूकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वैचारिक आग्रहों का प्रतिपादन उचित है लेकिन फिक्शन के नाम पर जब ये किया जाए तो उसका रेखांकन भी करना जरूरी है। सेक्रेड गेम्स में जिस तरह से लंबे लंबे सेक्स प्रसंगों या टॉपलेस नायिका को दिखाया गया है उसपर भी ध्यान देने की जरूरत है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या अश्लीलता या पोर्न परोसने की छूट दी जा सकती है? अपनी कुंठा के सार्वजनिक प्रदर्शन किस हद तक किया जा सकता है?  इसपर विचार करने की जरूरत है। यह तर्क दिया जा सकता है कि जो भी इस तरह के प्लेटफॉर्म पर जाते हैं उनको मालूम होता है कि वहां किस तरह की सामग्री मिल सकती है। बावजूद इसके हमारे सामाजिक मार्यादा या लोकाचार का ध्यान तो रखना ही चाहिए। लोकप्रियता हासिल करने के लिए परोसी जानेवाली अश्लीलता पर विचार होना चाहिए। बेहतर तो यही होता कि फिल्मकार आत्म नियंत्रण करते और कलात्मकता के नाम पर अश्लीलता परोसने से बचते। इसका एक फायदा यह भी होता कि सरकारी हस्तक्षेप का अवसर नहीं मिल पाता।  

Saturday, July 7, 2018

मुजरिम का महिमामंडन करती फिल्म


हिंदी फिल्मों में पिछले दिन जितने भी बॉयोपिक बने लगभग सभी सफल रहे, कुछ बेहद सफल तो कुछ ने औसत कमाई की। क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धौनी, मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर, बॉक्सर मैरी कॉम, धावक मिल्खा सिंह आदि पर बनी फिल्मों ने अच्छा बिजनेस किया। लेकिन इन बायोपिक्स में अगर मिल्खा सिंह को छोड़ दिया जाए तो सभी उन शख्सियतों को केंद्र में रखकर बनाई गई जो अपने अपने क्षेत्र में अब भी सक्रिय हैं। संभव है फिल्मकारों के मन में इन शख्सियतों की सफलता की कहानी को दर्शकों के सामने पेश करने की मंशा रही हो लेकिन इन फिल्मों से बॉयोपिक पूरा नहीं हो रहा क्योंकि इनकी जिंदगी अभी शेष है। धौनी अब भी क्रीज पर हैं तो मैरी कॉम बॉक्सिंग रिंग में। इसी तरह से हालिया रिलीज फिल्म संजू भी अभिनेता संजय दत्त की जिंदगी पर बनी है, लेकिन संजय दत्त की जिंदगी अभी काफी बाकी है। बावजूद इसके फिल्म संजू भी अन्य बॉयोपिक्स की तरह बॉक्स ऑफिस पर हिट रही है और दूसरे ही हफ्त में उसने दो सौ करोड़ का विजनेस पार कर लिया है। इस फिल्म को लेकर पहले दो हफ्ते में जिस तरह का मौहाल बना उसके आलोक में इस फिल्म को कसौटी पर कसना आवश्यक है। राजकुमार हिरानी की छवि अच्छी फिल्मों के निर्माता के तौर पर है, उनके कहानी कहने का अंदाज बेहद निराला और दर्शकों को बांधनेवाला होता है। उनकी पिछली फिल्में मुन्ना भाई एमबीबीएस, लगे रहे मुन्नाभाई, थ्री ईडियट्स और पी के जैसी फिल्मों ने इस छवि को ठोस किया था। उनकी गुनती बॉलीवुड के उन निर्देशकों में होती है जिनकी हर फिल्म बॉक्स आफिस पर सफल होती है। फिल्म संजू में राजकुमार हिरानी ने कथा का जो वितान रचा है वो फिल्म को सफल तो बनाता है लेकिन उनकी मंशा को सवालों के घेरे में लेकर भी आता है। पूरी फिल्म को इस तरह से बुना गया है कि इसमें संजय दत्त की छवि पीड़ित की बनकर उभरे। इसमें राजकुमार हिरानी ने बेहद सफाई से संजय दत्त के अलावा अमूमन सभी को गलत दिखाया है चाहे वो सिस्टम हो, नेता हो, मंत्री हो, पुलिस हो, वकील हो, दोस्त हो या फिर समाज। इसका एक फायदा यह होता है कि अगर किसी अपराधी के आसपास की सभी चीजें गलत दिखाई जाएं तो अपराधी का अपराध छोटा दिखाई देने लगता है या फिर उससे सहानुभूति होने लगती है। संजू में राजकुमार हिरानी ने यही किया है। संजय के लिए सहानुभूति बटोरने के चक्कर में राजकुमार हिरानी मुंबई बम धमाकों के गुनहगार टाइगर मेमन के लिए भी सहानुभूति बटोरते नजर आते हैं जब फिल्म में कहा जाता है कि 1992 के मुंबई दंगों में टाइगर मेमन का दफ्तर जला दिया गया था इसलिए उसने 1993 के मुंबई बम धमाकों को अंजाम दिया। इस संवाद के जरिए फिल्मकार क्या साबित करना चाहते हैं? अगर फिल्मकार को ये याद रहता कि मुंबई बम धमाकों में 257 लोगों की जान गई थी और सात सौ से अधिक लोग जख्मी हुए थे तो शायद ये संवाद नहीं होता। इस संवाद से यही संदेश जाता है कि मुंबई बम धमाके एक क्रिया की प्रतिक्रया थी। एक पंक्ति के संवाद से फिल्मकार कई बार बड़ा संदेश दे देते हैं और अपनी सोच को भी सार्वजनिक कर देते हैं। फिल्म मुक्काबाज में अनुराग कश्यप भी एक पंक्ति के डॉयलॉग से अपनी सोच को उजागर करते हैं जब किरदार कहता है कि वो आएंगें और भारत माता की जय बोलकर मार डालेंगे।  
दर्शकों की संवेदना को भुनाने के लिए फिल्म संजू में संजय दत्त के पूर्व में की गई दो शादी और पहली शादी से पैदा हुई उनकी बेटी त्रिशाला का कहीं जिक्र नहीं है लेकिन तीसरी शादी से उनके दो छोटे बच्चों को बार बार दिखाया जाता है। छोटे बच्चों को इस वजह से कि वो अपेक्षाकृत अधिक संवेदना बटोर सकते हैं। हाय! छोटे बच्चों पर क्या असर होगा, छोटे बच्चे जब स्कूल जाएंगें तो उसके साथी क्या कहेंगे आदि आदि। त्रिशाला का जिक्र नहीं होना, ऋचा शर्मा का ब्रेन ट्यूमर से से जंग और उस दौरान संजय दत्त के व्यवहार को नहीं दिखाना इसी संवेदनात्मक खेल का हिस्सा प्रतीत होता है। जब ऋचा शर्मा अमेरिका में मौत से जंग लड़ रही थी तब संजय दत्त मुंबई में इश्क कर रहे थे। संवेदनहीनता की इंतहां। बावजूद इसके फिल्मकार इस अप्रिय प्रसंग को नहीं छूते हैं। अपनी पत्नी की मौत के बाद बेटी की कस्टडी को लेकर अदालती कार्यवाही का संकेत तक फिल्म में नहीं है। अगर उस दौर के संजय के व्यवहार को दिखाया जाता तो शायद ये फिल्म दर्शकों की इतनी सहानुभूति नहीं बटोर पाती। इसी तरह से रेहा पिल्लई के साथ संजय दत्त की शादी सात साल चली, इसके बाद उनसे तलाक हो गया लेकिन इसका भी जिक्र हिरानी ने अपनी फिल्म में नहीं किया। संजय दत्त के बुरे समय में उनकी बहन नम्रता और प्रिया दत्त उनके साथ, सुनील दत्त के साथ मजबूती से खड़ी रहीं लेकिन उस रिश्ते को फिल्म में कहीं भी रेखांकित नहीं किया गया। बहन की मौन उपस्थिति फिल्म में है।     
इस फिल्म में कई आपत्तिजनक बातें भी हैं। मसलन संजय दत्त तीन सौ से अधिक महिलाओं के साथ हम बिस्तर होने की बात कहते हैं लेकिन उसको भी इस तरह से पेश किया गया है जैसे वो फख्र की बात हो, चरित्रहीनता की नहीं। अपने सबसे अच्छे दोस्त की गर्लफ्रेंड के साथ शारीरिक संबंध बनाकर भी उसको कोई ग्लानि नहीं होती। अपनी पत्नी के सामने लेखिका का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री अनुष्का शर्मा से फ्लर्ट करता है। बात बात पर स्त्री अस्मिता का डंडा-झंडा लेकर खडी होनेवाली स्त्री विमर्शकारों का भी इसपर आपत्ति नहीं जताना भी हैरान करनेवाला है। दरअसल इस फिल्म में संजय दत्त को इस तरह से पेश किया गया है कि दर्शक उसको मुजरिम ना समझें । 1982 में संजय दत्त के नशे में अपने घर के बाहर फायरिंग करने का जिक्र उस दौर की पत्रिकाओं से लेकर उनपर प्रकाशित पुस्तकों में है लेकिन इस फायरिंग का जिक्र भी फिल्म में नहीं है। उस वक्त उनके पिता पर तो कोई खतरा नहीं था। उनको किसी तरह की कोई धमकी नहीं मिली थी। बाद में ये कहा गया है कि वो अपने पिता की रक्षा के लिए एके 56 खरीदता है, चलिए इस तर्क को क्षण भर के लिए मान भी लिया जाए तो जब वो जमानत पर पर जेल से बाहर आता है, उसके बाद अंडरवर्ल्ड के संपर्क में किस कारण से रहता है । नासिक के एक होटल से आतंकवादी छोटा शकील से बात करता है। क्यों। इस मसले पर राजकुमार हिरानी की ये फिल्म लगभग खामोश है। जबकि ये बातचीत एजेंसियों ने रिकॉर्ड की थी और उसको अदालत में पेश भी किया गया था। इसके अलावा भी इस फिल्म में तमाम राजनीतिक घटनाक्रम को दरकिनार कर दिया गया है जिसकी संजय दत्त की जिंदगी में अहमियत है। सुनील दत्त जब बेहद परेशान हो गए थे और अपनी पार्टी कांग्रेस के नेताओं ने उनसे कन्नी काटनी शुरू कर दी थी तब वो बाल ठाकरे से मिले थे। ठाकरे ने उनकी मदद का भरोसा दिया था लेकिन एक वचन लिया था कि वो मुंबई उत्तर पश्चिम से लोकसभा चुनाव नहीं लडेंगे। दत्त साहब ने वहां से 1996 और 1998 का चुनाव नहीं लड़ा था। इसी तरह से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भी बाल ठाकरे को फोन कर सुनील दत्त की मदद करने को कहा था। एक बातचीत में चंद्रशेखर जी ने मेरे सामने इस वाकए का जिक्र किया था। संजय दत्त के केस में शरद पवार की क्या और कैसी भूमिका थी फिल्म इसपर भी खामोश है। कयों शरद पवार के कांग्रेस से बाहर होने के बाद सुनील दत्त कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे।
संजय दत्त को पीड़ित दिखाने के चक्कर में राजकुमार हिरानी ने मीडिया के कंधे का भी बखूबी इस्तेमाल किया है। कहीं का ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़कर हिरानी भानुमति का कुनबा बनाने की कोशिश करते हुए सामान्यीकरण के दोष का शिकार हो जाते हैं। वो हर दिन घर में आनेवाले समाचारपत्र की अपने पात्र के माध्यम से ड्रग्स से तुलना करवाते हैं। संजय दत्त को बचाने के चक्कर में हिरानी ने मीडिया को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है जो कई बार बचकानी लगती है। राजकुमार हिरानी ये अपेक्षा करते हैं कि कोई सेलिब्रिटी छोटा शकील या दाऊद से बात करे और मीडिया उसको प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ ना छापे, अदालत की तरह फैसले देते हुए खबर लिखी जाए। प्रश्नवाचक चिन्ह को इतनी अहमियत दी गई है जैसे कि पत्रकारिता बस उसी चिन्ह तक सिमटकर रह गई है। कुल मिलाकर देखें तो इस बयोपिक के माध्यम से हिरानी ने संजय दत्त को परिस्थितियों का शिकार दिखाने की कोशिश की है।

Friday, July 6, 2018

दिल्ली में बसता है मेरा दिल

फिल्म 'मुक्काबाज' में अपने लाजबाव अभिनय से दर्शकों का दिल जीतने वाली अभिनेत्री जोया हुसैन दिल्ली में पली बढ़ी हैं। इस फिल्म में गूंगी लड़की का बेहद मुश्किल अभिनय निभाकर जोया ने पहली ही फिल्म में अपने अभिनय का लोहा मनवा लिया था। जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान मैंने उनसे बातचीत की। जोया ने कहा   
मैं दिल्ली में काफी समय रही हूं। ग्रेजुएशन के लिए मैंने लेडीश्रीराम कॉलेज में एडमिशन लिया था। मैं पत्रकार बनना चाहती थी इस वजह से पत्रकारिता का कोर्स चुना था। थोड़े दिनों की पढ़ाई के बाद मुझे लगा कि ये मेरे वश का नहीं है। मैं थिएटर में काम करती थी, प्रैक्टिस और शोज की वजह से मैं कॉलेज कम जा पाती थी। एलएसआर में अटेंडेंस को लेकर बहुत सख्ती भी थी। जहां तक मुझे याद है कि अस्सी फीसदी अटेंडेंस होने की वजह से एक दो महीने में ही मैंने वहां से किसी और कॉलेज में जाने का फैसला कर लिया था। मैंने वेंकटेश्वर कॉलेज में माइग्रेशन करवा लिया। वहां उस वक्त अटेंडेंस को लेकर उतनी सख्ती नहीं थी और मेरा थिएटर ग्रुप यात्रिक सैदुलाजाब इलाके में है तो कॉलेज से निकल कर वहां पहुंच जाती थी या जब वहां से मौका मिलता था तो निकलकर कॉलेज चली जाती थी। थिएटर में व्यस्ततता की वजह से कॉलेज कम जा पाती थी और किसी तरह से मैनेज करती थी। मैं दिल्ली के कई इलाकों में रही हूं लेकिन साउथ दिल्ली के मोमोज मुझे बेहद पसंद हैं। मैं मोमोज को लेकर क्रेजी हूं जहां भी जाती हूं वहां मोमोज जरूर खाती हूं। वेंकी कॉलेज से लेकर धौलाकुँआ तक खाने के इतने ज्वाइंट्स हैं जहां जाना मुझे बेहद पसंद था, दोस्तों के साथ वहा जाकर खाकर आती थी। मुझे हर तरह का खाना बहुत पसंद हैं। खान मार्केट के कई रेस्तरां में हामरी महफिल नियमित रूप से जमा करती थी। खान मार्केट के बाद हमारी पसंदीदा जगह पंडारा रोड मार्केट हुआ करी जहां हम इंडियन और चाइनीज फूड का आनंद उठाया करते थे। पंडारा रोड मार्केट में भी बेहतरीन मोमोज मिलते हैं। मेरे मोमोज को खाने की दीवानगी अबतक बरकरार है। दिल्ली से मुझे अब भी जुड़ाव और प्यार है क्योंकि ये मेरा प्यारा शहर है जहां मैंने अपनी जिंदगी के कई बेहतरीन साल बिताए हैं।