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Sunday, October 26, 2014

सरिता देवी को इंसाफ दो

पूरे देश के खेलप्रेमियों के जेहन में इंचियोन आयोजित एशियाई खेलों के पुरस्कार वितरण समारोह में भारतीय मुक्केबाज सरिता देवी की रोती हुए तस्वीर ताजा है । पुरस्कार अर्पण समारोह के मंच पर गले में मैडल पहनने से इंकार और फिर फफक फफक कर रो रही मुक्केबाज सरिता देवी की तस्वीर पूरी दुनिया ने देखी । बॉक्सिंग रिंग में सरिता के बेहतरीन वार ने उसकी विरोधी के हौसले पस्च कर दिए थे । सबको लग रहा था कि रेफरी सरिता देवी का हाथ उपर कर जीता का एलान करेंगे । लेकिन वैसा नहीं हुआ । रेफरी ने सरिता देवी की बजाएउसकी परास्त विरोधी को विजेता घोषइत कर दिया । अब अपनी सफलता को हाथ से निकलते देख और अपने साथ हुई नाइंसाफी से उसका रोना लाजमी था । लेकिन सरिता के इन आंसुओं के पीछे भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन संघ की उदासीनता भी एक बड़ी वजह थी । सरिता के पास मैच के रेफरी के फैसले के खिलाफ अपील करने के पैसे नहीं थे और भारतीय मिशन के अफसर उसकी पहुंच से बाहर थे । सरिता के साथ खड़े होने की बजाए भारतीय ओलंपिक संघ ने उदासीन रवैया अपना लिया था । अब अंतराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ ने सरिता देवी के अस्थाई रूप से निलंबित कर दिया है । अंतराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ ने सरिता देवी के साथ साथ एशियाई खेलों में भारत के मिशन प्रमुख आदिले सुमारिवाला को भी अस्थाई रूप से निलंबित कर दिया है । इस निलंबन के बाद भारतीय ओलंपिक संघ की नींद टूटी और उसने अंतराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ के इस कदम को देश का अपमान बता दिया । जब तक एक खिलाड़ी का अपमान हो रहा था तबतक इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन को फिक्र नहीं थी, लेकिन जैसे ही उसके अधिकारी पर गाज गिरी तो वो सक्रिय हो गए । भारतीय ओलंपिक परिषद ने अंतराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ के इस कदम के खिलाफ अंतराष्ट्रीय ओलंपिक समिति से शिकायत करने का भी एलान किया । यह सब कागजी कार्रवाई और अपील दर अपील का खेल चलता रहेगा लेकिन हमारे देश की एक खिलाड़ी के मनोबल पर क्या असर पड़ेगा इसकी कल्पना तो खेलसंघ के अधिकारी कर नहीं पा रहे हैं । ना ही उन्हें इसकी फिक्र है । दरअसल हमारे देश के खेल संघ के कर्ताधर्ताओं को खेल के अलावा अन्य सभी चीजों में रुचि है । उन्हें केल के माध्यम से विदेश यात्रा से लेकर अपनी तमाम सुख शुविधाओम का ख्याल रहता है लेकिन खिलाड़ियों और उनकी सुविधाएं उनकी प्राथमिकता में आती ही नहीं है, चिंता की बात तो बहुत दूर है ।
इंचियोन एशियाई खेल में एक तरफ सरिता देवी की आंखों से आंसू निकल रहे थे क्योंकि उनके साथ बेइमानी हुई थी वहीं दूसरी ओर सीमा पुनिया ने जब डिस्कस थ्रो में स्वर्ण पदक जीता तो उसकी आंखों में भी आंसू छलक आए थे । सीमा पुनिया की आंखों का आंसू उस दर्द के थे जब उसपर डोपिंग का आरोप लगा था । दो हजार छह में सीमा पुनिया पर डोपिंग का आरोप लगा और लगातार छह साल तक वो संघर्ष करती रही । उसके संघर्ष का फलक बड़ा था और उसको अपने साथ हुई नाइंसाफी को गलत साबित करना था । उसने किया भी । भारत के खेल संघों और उसके प्रशासकों की उपेक्षा से भी लड़ना था । वो लड़ी भी । लिहाजा जब उसके मजबूत हाथों ने डिस्क को सोने के लिए फेंका तो उसके चेहरे पर एक संतोष था । संतोष अपने साथ हुए अपमान के बदले का । संतोष अपनी प्रतिष्ठा को छह साल बाद हासिल करने का । लेकिन जब वो पुरस्कार लेने पोडियम पर पहुंची तो खुद की भावनाओं पर काबू नहीं रख पाई ।
दरअसल जिस तरह की बेइमानी सीमा पुनिया के साथ आठ साल पहले हुई थी कुछ कुछ वैसा ही दोहराया जा रहा है सरिता देवी के साथ । दो हजार छह के गेम्स में सीमा पर डोपिंग का आरोप लगा था । उस वक्त भी सीमा ने अपनी बेगुनाही की बात चीख चीख कर कही थी । लेकिन तब भी भारतीय खेल संघ के अफसरों के कान पर जूं तक नहीं रेंगी थी । सीमा पूनिया को उस वक्त यह बताकर बाहर कर दिया गा था कि उसने प्रतिबंधित दवाएं ली । वो कहती रही कि उसने ऐसा कुछ नहीं किया है । लेकिन उस वक्त खेल संघ के अधिकारी उसका केस नहीं लड़ पाए । बाद में यह बात सामने आई कि पुनिया का टेस्ट करनेवाला ही गलत था और उसने टेस्ट करने के चंद दिनों बाद ही इस्तीफा दे दिया था । उस वक्त भारतीय अधिकारियों के ढीले और लापरवाह रवैये ने सीमा पुनिया के करियर को सालों पीछे धकेल दिया । यह तो सीमा का हौसला और जज्बा था कि उसने आठसाल बाद इंचियोन एशियाई खेलों में सोने पर कब्जा जमाया । भारतीय खेल संघ के अफसरों का यही रवैया एक बार फिर से सरिता देवी के करियर पर ग्रहण लगाने के लिए तैयार है । एक जांबाज खिलाड़ी अपमान के घूंट पीकर बॉक्सिंग रिंग में उतरने को बेताब है । सरिता देवी के माफी मांग लेने के बावजूद अंतराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ उसपर कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू कर चुका है । इस अस्थाई निलंबन की वजह से सरिता देवी कोरिया के जेजू आईलैंड में तेरह नवंबर से होनेवाली विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप में हिस्सा नहीं ले पाएंगी । देशभर में सरिता देवी के समर्थन में बने माहौल की वजह से अब खेल मंत्रालय ने इस मामले में दखल दी है । खेल सचिव ने कहा है कि सरिता देवी के साथ नाइंसाफी नहीं होने दी जाएगी । खेल मंत्रालय की दखलअंदाजी के बाद इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन भी सरिता देवी के पक्ष में सक्रिय दिखने लगा है । इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन के बयानवीर अफसर कम से कम बयान तो दे रहे हैं लेकिन इन बयानों से हासिल क्या होगा यह देखनेवाली बात होगी ।

यह कहानी सिर्फ सरिता देवी या सीमा पुनिया की ही नहीं है । इन दोनों ने तो अपनी नाराजगी दिखाने का साहस दिखाया वर्ना कई एथलीट तो इन अफसरों के लापरवाह रवैये का शिकार होकर मुंह भी नहीं खोलते हैं और गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाते हैं । यही सबसे बड़ी वजह है कि भारत में खेलों के लिए इतनी प्रतिभा होने के बावजूद अंतराष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं में हमारे देश का नाम पदक तालिका में काफी नीचे रहता है । अब वक्त आ गया है कि सरकार इन खेल संगठनों को सालों से अपनी जागीर समझकर जेबी संगठन की तरह चलाने वाले लोगों से इनको मुक्त करे । खेल के लिए एथलीटों को सुविधा मुहैया करवाने के साथ साथ उन्हें इस बात का भरोसा भी होना चाहिए कि उनके साथ किसी भी अंतराष्ट्रीय मंच पर नाइंसाफी नहीं होगी क्योंकि बारत के खेल संघ मजबूती से उनकी आवाज रख सकेंगे । इस मामले में अन्य खेल संगठनों को भारतीय क्रिकेट बोर्ड से सीखने की जरूरत है । आज भारत के किसी भी क्रिकेट खिलाड़ी के साथ किसी भी अंतराष्ट्रीय मंच पर कोई भी देश नाइंसाफी की बात सोच भी नहीं सकता है । क्रिकेट बोर्ड ने इस दिशा में लंबे समय तक काम किया और पहले खुद के संगठन को मजबूत बनाया । भारत में अन्य खेलों को लेकर जिस तरह से एक माहौल बना है उसको देखते हुए आनेवाले दिनों में इन खेल संगठनों को अपनी कार्य प्रणाली में सुदार करना होगा । फुटबॉल, बैडमिंटन, कबड्डी और हॉकी को लेकर देश में कई बेहतरीन निजी प्रयास शुरू हुए हैं । इन प्रयासों के मद्देनजर भारत में इन खेल संगठनों को खिलाड़ियों के हक में आवाज उटाने के लिए खुद को मजबूत करना होगा । इसके अलावा खेल संगठनों पर सालों से कुंडली जमाकर बैठे खेल के नाम पर कारोबार चलानेवालों की पहचान कर उनसे भीइन संगठनों को मुक्त करवाना होगा । अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर सीमा पुनिया और सरिता देवी जैसे एथलीट अपमानित होकर घुचते रहने पर अभिशप्त होंगे । 

Saturday, October 25, 2014

आया पुरस्कारों का मौसम

दीवाली बीतने के बाद माना जाता है कि त्योहार का मौसम खत्म हो गया है लेकिन यह अजब संयोग है कि दीवाली के बाद हिंदी साहित्य में पुरस्कारों का मौसम शुरू हो जाता है । साहित्य अकादमी समेत कई अहम पुरस्कारों की प्रक्रिया शुरू होती है । साहित्य अकादमी के लिए युवा पुरस्कार के लिए नाम मांगे जा रहे हैं तो केंद्रीय हिंदी संस्थान के पुरस्कारों के आवेदन की तिथि बस अभी अभी गुजरी है । इसके अलावा कई पुरस्कार जो पहले घोषित किए जा चुके हैं उनके अर्पण समारोह आयोजित होने शुरू होंगे । इस मौसम में धवलकेशी साहित्यकारों से लेकर बिल्कुल टटके लेखकों तक को पुरस्कृत किया जा रहा है । अशोक वाजपेयी से लेकर अर्चना राजहंस तक को पुरस्कृत किया जाएगा । पुरस्कारों के इस मौसम में देश के अलावा विदेशों में भी पुरस्कारों की बरसात हो रही है । स्थापित लेखकों को उनकी किताबें छपवाने के लिए अनुदान दिए जा रहे हैं । दरअसल हिंदी में इस वक्त पुरस्कारों की साख पर बड़ा सवालिया निशान है । ऐसे ऐसे लेखक पुरस्कृत हो रहे हैं जिनके लेखन से वृहद हिंदी समुदाय अबतक परिचित भी नहीं है । उनको निराला से लेकर प्रेमचंद तक के नाम पर स्थापित पुरस्कार दिए जा रहे हैं और उन्हें उनती परंपरा का बताया जा रहा है । जिस लेखक को उसके मुहल्ले के लोग नहीं जानते उनको मशहूर लेखक कहा जा रहा है । पुरस्कृत लेखकों की प्रशस्ति में शब्दों का भयानक अवमूल्यन दिखने को मिल रहा है । कोई विचारक हुआ जा रहा है तो कोई चिंतक । इन भारी भरकम विशेषणों के बोझ तले दबे ये हिंदी के पुरस्कार लेखकों के लिए हितकर नहीं हैं । पिछले वर्ष लमही सम्मान के लेकर उठा अनावश्यक विवाद अब भी साहित्य प्रेमियों के जेहन में हैं ।
दरअसल हिंदी में पुरस्कारों की इस दयनीय स्थिति के लिए खुद हिंदी के लेखक औपर उनकी पुरस्कार पिपासा जिम्मेदार हैं । इस वक्त अगर हम देखें तो एक अनुमान के मुताबिक हिंदी में कहानी कविता उपन्यास आदि को मिलाकर तकरीबन पचास छोटे बड़े पुरस्कार दिए जाते हैं । इसके अलावा अनेक राज्य सरकारें भी थोक भाव से पुरस्कार बांटती हैं । कुछ खुदरा पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन मांगते हैं । हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के पुरस्कारों के लिए आवेदन करते हैं । यह एक ऐसी स्थिति है जो पुरस्कार का कारोबार करनेवालों के लिए एक सुनहरा अवसर मुहैया करवाती है । हिंदी में ज्यादातर पुरस्कारों की राशि इक्कीस सौ से लेकर इक्यावन सौ तक है । कइयों में तो सिर्फ शॉल श्रीफल से भी काम चल जा रहा है । हिंदी में कई पुरस्कारों की आड़ में खेल भी होते हैं जो साहित्य जगत के लिए शर्मनाक है । दरअसल हिंदी के लेखकों में प्रसिद्ध होने की हड़बड़ाहट पुरस्कारों के इस कारोबार को खाद पानी मुहैया करवाती है । नई पीढ़ी के लेखकों में एक और प्रवृत्ति रेखांकित की जा सकती है वह है - जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में सारा आकाश छेक लेने की तमन्ना और वह भी किसी कीमत पर । सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास मुझे चांद चाहिए की नायिका सिलबिल की तरह । इस प्रवृत्ति को बांपते हुए पुरस्कारों के कारोबारी अपनी बिसात बिछाते हैं । हिंदी में पुरस्कारों के इस कारोबार पर बड़े लेखकों की चुप्पी साहित्य के लिए अच्छा नहीं है । हिंदी के हित में यह अच्छा होगा कि लेखकगण पुरस्कृत होने की जद्दोजहद में वक्त जाया नहीं करके अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने का काम करें । 

Sunday, October 19, 2014

साधन की पहचान जरूरी

अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब राष्ट्रपति बराक ओबामा को गांधी की गीता भेंट की तो महात्मा गांधी के लेखन को लेकर वैश्विक स्तर पर एक उत्सुकता का वातावरण बना । इसके पहले उन्होंने जापान के प्रधानमंत्री को भी गीता भेंट की थी । वैश्विक स्तर पर गांधी साहित्य को लेकर बने इस उत्सुकता के वातावरण को भांपते हुए ई कामर्स साइट्स पर गांधी के गीता की बिक्री का प्रमोशन शुरू हो गया । गांधी की गीता पर आकर्षक छूट के अलावा कैश ऑन डिलीवरी की सुविधा भी दी गई । इंटरनेट पर भी गांधी के साहित्य की खोज होने लगी। उत्सकुकता के इस वातावरण और तकनीक के साथ आगे बढ़नेवाली नई पीढ़ी तक गांधी साहित्य को पहुंचाने के लिए नवजीन ट्रस्ट ने गांधी के लेखन तो ई फॉर्मेट में सामने लाने का उपक्रम शुरू कर दिया है । नवजीवन ट्रस्ट की योजना के मुताबिक  गांधी की किताबों को ई बुक्स के रूप में पेश किया जाएगा । इस योजना पर काम भी शुरू कर दिया गया है । नवजीवन ट्रस्ट की योजना के मुताबिक महात्मा गांधी की सारी किताबों के अलावा उनपर लिखी गई किताबों को भी ई बुक्स के रूप में लाया जाएगा । इस कड़ी में पहले गांधी की किताबों को ई बुक्स के फॉर्म में तैयार किया जाएगा । उसके बाद उनपर लिखी किताबों का नंबर आएगा । नवजीवन ट्रस्ट महात्मा गांधी और उनसे संबंधित करीब साढे आठ सौ किताबों का प्रकाशन और वितरण करता है । ये किताबें मुख्य रूप से हिंदी, गुजराती और अंग्रेजी में प्रकाशित हैं । महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग अब तक सत्रह भाषाओं में अनुदित हो चुकी है ।गांधी जी अपने जीवनकाल में हमेशा से साधन की महत्ता पर जोर देते थे । सत्रह सितंबर 1933 को अमृत बाजार पत्रिका में गांधी ने लिखा था- ध्येय की सबसे बड़ी स्पष्ट व्याख्या और उसकी कद्रदानी से भी हम उस ध्येय तक नहीं पहुंच सकेंगे, अगर हमें उसे प्राप्त करने के साधन मालूम नहीं होंगे और हम उनका उपयोग नहीं करेंगे । इसलिए मुझे तो मुख्य चिंता साधनों की रक्षा और उनके आधिकारिक उपयोग की है । मैं जानता हूं कि अगर हम साधनों की चिंता रख सके तो ध्येय की प्राप्ति निश्चित है । मैं यह भी अनुभव करता हूं कि ध्येय की ओर हमारी प्रगति ठीक उतनी ही होगी जितने हमारे साधन शुद्ध होंगे । यह तरीका लंबा, शायद हद से ज्यादा लंबा दिखाई दे, परंतु मुझे पक्का विश्वास है कि ये सबसे छोटा है ।“  तो इस तरह से अगर हम देखें तो गांधी लक्ष्य तक पहुंचने के लिए साधन को आवश्यक मानते थे । नवजीवन ने गांधी के सिद्धातों को अपनाते हुए नए पाठकों तक पहुंचने के लिए नए साधन का सहारा लिया है ।
महात्मा गांधी ने विपुल लेखन किया है । गांधी जी की हर मसले पर स्पष्ट राय होती थी जिसे वो बेबाकी के साथ सार्वजनिक करते थे । साहित्य में उठे विवादों पर भी वो अपनी राय प्रकट करते थे । साहित्य में जब समलैंगिकता का विवाद उठा था तो भी गांधी ने हस्तक्षेप किया था । गांधी पर लिखी जानेवाली किताबों की संख्या हजारों में है । दुनियाभर के विद्वान महात्मा गांधी के लेखन और उनके व्यक्तित्व को नए सिरे से उद्घाटित करने के लिए लगातार लेखन कर रहे हैं । ज्यादातर गांधी साहित्य को उनके द्वारा स्थापित नवजीवन ट्रस्ट ने छापा है । कॉपीराइट से मुक्त होने के बाद गांधी की किताबों को नए सिरे से छापने का उपक्रम कई अन्य प्रकाशकों ने भी किया । तकनीक के फैलाव के इस दौर में नवजीवन से छपी गांधी की किताबें वैश्विक मांग को पूरा करने में पिछड़ रही है । छपाई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अक्षर पुराने हैं और उसकी बाइंडिंग वगैरह भी समय के साथ चलने में पिछड़ जा रहे हैं । लेकिन यह भी तथ्य है कि नवजीवन बेहद कम कीमत पर गांधी साहित्य उपलब्ध करवा रहा है ।नवजीवन ट्रस्ट के मुताबिक गांधी साहित्य की करीब डेढ सौ से दो सौ किताबों का ई संस्करण तैयार कर लिया गया है और बाकी बची किताबों को अगले दो साल में पूरा कर लिया जाएगा । गांधी के विचारों को उनके किताबों के माध्यम से पूरी दुनिया की नई पीढ़ी तक पहुंचाने में इस योजना की बड़ी भूमिका हो सकती है । ई प्लेटफॉर्म पर गांधी की किताबें उपलब्ध होने से हमारे देश के नौजवान भी उनके साहित्य के परिचित हो सकेंगे । दुनिया की मशहूर कंपनी प्राइसवाटरहाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि दो हजार अठारह तक दुनिया में ई बुक्स की बिक्री छपी हुई किताबों से ज्यादा हो जाएगी । उनके अनुमान के मुताबिक ई बुक्स के कारोबार में दो सौ पचास फीसदी की बढ़तोरी मुमकिन होगी । एजेंसी की इस रिपोर्ट के मुताबिक दो हजार अठारह तक इंगलैंड के किताबों के आधे बाजार पर ईबुक्स पर कब्जा होगा । दरअसल जैसे जैसे इंटरनेट का घनत्व बढ़ेगा वैसे वैसे डिजीटल फॉर्मेट की मांग बढ़ती जाएगी ।  
गांधी के तमाम सिद्धांत और उनका लेखन आज भी उतना ही मौजूं है जितना वो अपने लिखे जाने के वक्त था । मार्केटिंग गुरुओं के कंज्यूमर इज किंग के जुमले के बहुत पहले गांधी जी ने ग्राहकों की महत्ता पर अपने उद्गार व्यक्त किए थे । ई बुक्स के माध्यम से गांधी के विचार देश विदेश के तमाम मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के छात्रों के लिए भी उपलब्ध होगा और फिर उनके विचारों पर नए सिरे से विचार और शोध संभव होगा । गांधी ने हरिजन पत्रिका में तीस अप्रैल उन्नीस सौ तैंतीस को लिखा था- मेरे लेखों का अध्ययन करनेवालों और उनमें दिलचस्पी लेनेवालों को मैं यह कहना चाहता हूं कि मुझे हमेशा एक ही रूप में दिखाई देने की कोई परवाह नहीं है । सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें मैं सीखा भी हूं । उमर में भले ही मैं बूढा हो गया हूं लेकिन मुझे नहीं लगता कि मेरा आंतरिक विकास होना बंद हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बंद हो जाएगा । गांधी ने साफ तौर पर कहा कि जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसको मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभृत माने । इस तरह साफगोई से बात करनेवाले विचारक कम ही मिलते हैं । दुनिया को सत्य और अहिंसा का सिद्धांत अपनाकर उदाहरण प्रस्तुत करनेवाले गांधी के विचारों को जानने के लिए ई बुक्स का प्लेटफॉर्म बहुत ही बेहतर साबित हो सकता है ।  इस तरह से अगर हम देखें तो गांधी के विचारों को आभासी दुनिया में ले जाने के इस उपक्रम से भारत के इस महान सपूत के विचारों पर पुनर्विचार शुरू हो सकेगा ।

पूरी दुनिया में इंटरनेट के फैलाव और वर्तमान सरकार के डिजीटल इंडिया की योजना से यह साफ हो गया है छपी हुई किताबों को भी इस प्लेटफ़ॉर्म पर आने का प्रयास करना चाहिए । आज की युवा पीढ़ी सबकुछ ऑन द मूव चाहती है । युवाओं की इस रुचि को ध्यान में रखते हुए तमाम मोबाइल फोन बनाने वाली कंपनियां फोन का स्क्रीन बड़ा कर रही हैं । अब तो मशहूर कंपनी एप्पल ने भी अपने प्रोडक्ट का स्क्रीन साइज बढ़ा दिया है । खबरें और खबरों की दुनिया भी मुट्ठी में सिमटती जा रही हैं । तमाम न्यूज संस्थान डिजीटल हो चुके हैं सबके सब इस आबासी दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने या अपनी उपस्थिति मजबूत करने में लगे हैं । इसी पन्ने पर हमने तकरीबन दो साल पहले हमने हिंदी के प्रकाशकों की बुक्स के प्रति उदासीनता को रेखांकित किया था । ई बुक्स के रूप में हिंदी को एक ऐसा प्लेटफॉर्म हासिल हो सकता है जिसकी कल्पना नहीं की गई है । भारत के बाजार की ताकत को भांपते हुए दुनिया के कई देशों के लोग हिंदी सीख रहे हैं । हिंदी का फैलाव हो रहा है । वर्तमान सरकार भी हिंदी के विकास के लिए प्रतिबद्ध दिखाई दे रही है । तो क्या हिंदी का हमारा प्रकाशन जगत अब भी छपे हुए पन्नों के साथ ही चलना पसंद करेगा या छपे हुए पन्नों के साथ साथ ई फॉर्मेट में भी प्रयोग करेगा । वक्त की मांग यही है । अगर हिंदी साहित्य को युवाओं तक पहुंचाना है तो प्रकाशकों को ई फॉर्मेट में जाना ही पड़ेगा । इसी तरह से हिंदी के लेखकों को भी अपने लेखन को विशाल पाठक वर्ग तक पहुंचाने के लिए इंटरनेट का बेहतर इस्तेमाल करना होगा । लेखक और प्रकाशक के संयुक्त प्रयास से ही हिंदी साहित्य को युवाओं से जोड़ने के काम में सफलता मिल सकती है । जरूरत इस बात की होगी कि दोनों के प्रयास वक्त की मांग के अनुरूप हो । गांधी ने कहा ही है कि ध्येय की प्राप्ति के लिए साधन का अधिकाधिक उपयोग आवश्यक है । साधन हिंदी के प्रकाशकों के सामने मौजूद है, आवश्यकता उसके उपयोग को कारोबार की सफलता के लिए करने की है । 

Sunday, October 12, 2014

नोबेल से निकलते संदेश

भारत में बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए लगभग तीन दशक से सक्रिय कैलाश सत्यार्थी को जब शुक्रवार को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार देने का एलान हुआ तो अपनी पहली प्रतिक्रिया में कैलाश सत्यार्थी ने यह सम्मान भारत की सवा सौ करोड़ जनता को समर्पित करते हुए बाल शोषण के खिलाफ अपने जंग को जारी रखने की बात कही । लंबे समय से भारत में अपने संगठन बचपन बचाओ आंदोलन के माध्यम से बाल मजदूरों और बाल श्रमिकों के हितों की रक्षा में जुटे कैलाश सत्यार्थी बारत के दूसरे ऐसे शख्स हैं जिन्हें शांति के लिए विश्व का सबसे बड़ा सम्मान नोबल पुरस्कार से नवाजा जाएगा । इसके पहले ये सम्मान मदर टेरेसा को दिया जा चुका है । कैलाश सत्यार्थी को तालिबान से लोहा लेनेवाली बहादुर पाकिस्तानी लड़की मलाला युसुफजई के साथ साझा पुरस्कार दिया जाएगा । ओस्लो में शांति के लिए जब नोबेल पुरस्कार का एलान किया गया तो स्वीडिश अकादमी ने कैलाश सत्यार्थी के प्रशस्ति में कहा कि कैलाश सत्यार्थी ने महात्मा गांधी की परंपरा को बरकरार रखा और बाल शोषण के खिलाफ अनेक प्रकार के आंदोलनों की अगुवाई की । नोबेल समिति की प्रशस्ति में महात्मा गांधी का नाम लिया जाना कई संदेश छोड़ता है । अपने सौ साल से ज्यादा के इतिहास में नोबले सम्मान ने गांधी जी को सम्मानित नहीं करके जो भूल की है यह उसका एक प्रायश्चित है । महात्मा गांधी को नोबेले नहीं दिए जाने पर अनेकों बार विश्व की कई मशहूर हस्तियों ने सवाल खड़े किए हैं । अब महात्मा गांधी की परंपरा के वाहक को सम्माननित करके स्वीडिश अकादमी ने बापू को पुरस्कार से उपर का दर्जा दे दिया है । कैलाश सत्यार्थी शांति के लिए इस नोबेल पुरस्कार को पाकिस्तान की बहादुर बच्ची मलाला के साथ साझा करेंगे । बच्चों के लिए काम करनेवाला और तालिबान से लोहा लेने वाली एक बच्ची, अद्भुत संयोग लगता है लेकिन नोबेल पुरस्कार समिति ने बहुत सोच समझकर यह चयन किया है । नोबेल समिति के मुताबिक- एक हिंदू और एक मुस्लिम, एक भारतीय और एक पाकिस्तानी के शिक्षा और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को एक साझा संघर्ष मानते हुए इसको अहमित दिए जाने का फैसला हुआ । इस एक वाक्य में नोबेल पुरस्कार समिति की मंशा साफ झलकती है । एक भारतीय और एक पाकिस्तानी कहने तक तो उचित था लेकिन पुरस्कार विजेताओं को उनके धर्म या विश्वास के साथ खड़ा करना उचित नहीं लगता है । कैलाश सत्यार्थी को हिंदू और मलाला को मुसलमान बताने के नोबेल समति के बयान पर सवाल खड़े हो रहे हैं । सवाल तो यह भू पूछा जा रहा है कि क्या इसके पहले के शांति पुरस्कार पानेवालों के धर्म के बारे में नोबेल समिति ने कभी कुछ कहा । इसका दूसरा पक्ष यह है कि भारत और पाकिस्तान में जारी तनातनी के बीच नोबेल पुरस्कार समिति दोनों देशों को एक संदेश देना चाह रही है लेकिन फिर भी इस संदेश के लिए पुरस्कृत लोगों को हिंदू और मुसलमान बताना गलत है । इतना अवश्य है कि नोबेल पुरस्कार ने दोनों देशों को एक अवसर दिया है साझा खुशी का । मलाला युसुफजई ने तो पुरस्कार के बाद अपने संदेश में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपील की है कि वो दोनों पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान मौजूद रहें । अगर यह होता है तो दोनों देशों के बीच के रिश्तों में आई हालिया खटास को कम करने का एक अवसर तो होगा ही ।
इन बहसों से अलग हटकर अगर हम विचार करें तो कैलाश सत्यार्थी को नोबेल भारत के लिए गौरव का क्षण है । 11 जनवरी उन्नीस सौ चौवल को जन्मे कैलाश सत्यार्थी ने अपने आंदोलन के जरिए अबतक लगभग अस्सी हजार बच्चों को बाल मजदूरी से मुक्त करवाकर शिक्षा से जोड़ा है । कैलाश सत्यार्थी ने उन्नीस सौ अस्सी में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की नौकरी छोड़कर बच्चों के अधिकारों के लिए काम करना शुरू किया । उन्नीस सौ चौरानवे में उन्होंने रगमार्क की स्थापना की । यह दक्षिण एशिया में एक तरह का बालश्रम मुक्त का सोशल सर्टिफिकेट है जो अब गुड वेव के रूप में जाना जाता है । कैलाश सत्यार्थी ने जब बाल श्रमिकों को मुक्त करवाने का अभियान छेड़ा था तो वो उन फैक्ट्रियों में छापा मारा करते थे । इस काम में उन्होंने कई बार अपनी जान जोखिम में डाली थी । इस पूरे आंदोलन के दौर में कैलाश सत्यार्थी ने अपने दो साथियों को खोया भी है । उन्हें फैक्ट्री मालिकों और यहां तक कि पुलिसवालों का भी विरोध झेलना पड़ा था । उस दौर में कैलाश सत्यार्थी ने मीडिया को अपना साथी बनाया था । लंबे समय तक कैलाश सत्यार्थी की यह कहकर आलोचना की जाती रही कि वो बच्चों को तो मुक्त करवा देते हैं लेकिन उसके बाद गरीब बच्चों के सामने खाने के लाले पड़ जाते हैं । कैलाश किसी भी तरह की आलोचना से नहीं डिगे और अपने काम को मिशन समझकर उसमें डटे रहे । बनारस के भदोई से लेकर झारखंड के सुदूर आदिवासी कस्बों में कैलाश सत्यार्थी ने बच्चों को मुक्त करवाकर उनके शिक्षा की व्यवस्था की । कैलाश सत्यार्थी मानते हैं कि जिलस काम को उन्होंने विदिशा के एक छोटे से घर से शुरू किया था अब वो विश्व भर में फैल गया है । वो सम्राट अशोक के बच्चों, महेन्द्र और संघमित्रा की तरह पूरे विश्व में शांति का के लिए काम करना चाहते हैं । इसी तरह से सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार जीतनेवाली मलाला ने भी शिक्षा के अधिकार के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी । पाकिस्तानी तालिबानियों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी थी लेकिन वो अपने अधिकारों के लिए संघर्ष से नहीं डिगी । नतीजा यह हुआ कि तालिबानियों ने उनके सर में गोली मार दी । आज जिस मलाला को पाकिस्तान सरकार अपने देश के लिए गौरव करार दे रही है उसके हमलावरों को इतने साल बीत जाने के बाद भी सजा नहीं हो पाई है । कैलाश सत्यार्थी और मलाला को नोबेल के लिए शांति् पुरस्कार देकर स्वीडिश अकादमी ने उपमहाद्वीप में शांति के बीज बोने की कोशिश की है । कितना फलित होता है यह देखनेवाली बात होगी ।
जिस तरह से शांति के लिए नोबेल पुरस्कार अनपेक्षित तौर पर कैलाश सत्यार्थी को मिला उसी तरह से साहित्य के लिए भी इस बार फ्रांस के लेखक पैट्रिक मोदियानो को जब दिया गया तो पूरा साहित्य जगत हैरत में पड़ गया । पुरस्कार के एलान के बाद पैट्रिक मोदियानो ने भीमाना कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं थी कि साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार उनको मिलेगा। हलांकि पिछले कई दिनों से सट्टा बाजार में पैट्रिक मोडियानो का भाव लगातार बढ़ते जा रहा था । इसकी वजह उनके लेखन से वैश्विक पाठकों का कम परिचित होना है । पैट्रिक मोदियानो की ज्यादातर रचनाएं फ्रेंच में हैं । पुरस्कार के एलान के पहले नोबेल पुरस्कार देनेवाली संस्था उनसे संपर्क कायम करने में नाकाम रही थी और उनकी बेटी को इसकी सूचना दी गई थी। पैट्रिक मोदियानो मीडिया से भी काफी दूर रहते हैं । स्वीडिश अकादमी के सचिव पीटर इंगलैंड ने जब पैट्रिक मोदियानो के नाम का एलान किया तो उन्होंने भी ये माना कि हलांकि पैट्रिक मोदियानो की बाल साहित्य समेत करीब बीस किताबें प्रकाशित हैं,जिनमें से कई तो अनुदित हैं । फ्रांस में वो एक जाना-माना नाम हैं जबकि अन्य जगह पर उनकी कोई खास पहचान नहीं है । लेकिन यह भी एक एक तथ्य है कि फ्रांस में पैट्रिक मोदियानो काफी लोकप्रिय हैं । उनकी किताबों का फ्रेंच पाठकों को इंतजार रहता है । इस बार इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के लेखक फिलिप रॉथ को मिलेगा । अमेरिकी आलोचकों को इस बात का मलाल है कि स्वीडिश अकादमी अमेरिका के लेखकों को लेकर पूर्वग्रह से ग्रस्त रहती है । अबतक दिए गए एक सौ ग्यारह पुरस्कारों में से चौदह बार फ्रेंच साहित्यकारों को ये पुरस्कार मिल चुका है ।
पैट्रिक मोदियानो स्कूल ड्रॉप आउट हैं और उन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत पहले लिखना शुरू कर दिया था । उनका जन्म द्वितीय विश्वयुद्द के बाद हुआ लेकिन उनके लेखन मे विश्वयुद्द के दौर की स्मृतियों की छाप किसी ना किसी रूप में मौजूद रहती है । यहूदी इतावली मूल के पिता और बेल्जियन अभिनेत्री मां की संतान पैट्रिक इन दिनों पेरिस के एक उपनगर में रहते हैं और दो हफ्ते पहले ही उनकी नई कृति सो दैट यू डोंट देट लॉस्ट इन द नेबरहुड प्रकाशित हुई है जिसे आत्मकथात्मक उपन्यास कहा जा रहा है । पुरस्कार समिति ने पैट्रिक मोदियानो की प्रशस्ति में उन्हें युद्ध से जुड़ी यादों और उसका लोगों के मन मस्तिश्क पर पड़नेवाले प्रभावों के चित्रण को बेजोड़ करार दियया है । उनहत्तर साल के पैट्रिक मोदियानो का पहला उपन्यास तेईस साल की उम्र में छप गया था । उन्नीस सौ अठहत्तर में पहले ये फ्रेंच में छपा और दो साल बाद उन्नीस सौ अस्सी में मिसिंग पर्सन के नाम से अंग्रेजी में अनुदित हुआ । उनके इस उपन्यास ने खूब शोहरत बटोरी थी । इसके अलावा  ट्रेस ऑफ मलाइस और हनीमून उनकी दो और मशहूर किताबें हैं । उपन्यास और बाल साहित्य के अलावा मोदियानो की फिल्मों में भी गहरी रुचि है । उन्होंने कई फिल्मों की पटकथा लिखी और विश्व प्रसिद्ध कान फिल्म फेस्टिवल की जूरी में रहे । पैट्रिक मोदियानो का ज्यादातर लेखन संस्मरणात्मक है । पैट्रिक मोदियानो ने अपने इस पुरस्कार को अपने नाती को समर्पित किया है जो स्वीडन का ही रहनेवाला है । इससे यह प्रतीत होता है कि मोदियानो बेहद पारिवारिक शख्सियत हैं जिनके लेखन में भी यह झलकता है ।

मोदियानो को साहित्य का नोबेल

मैं पेरिस के बाजार में टहल रहा था जब मेरी बेटी ने फोन पर मुझे सूचना दी कि स्वीडिश अकादमी ने साहित्य के लिए इस साल के नोबेल पुरस्कार से मुझे सम्मानित करने का फैसला लिया है । मैंने कभी नहीं सोचा था कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार मुझे मिलेगा । इस फैसले की जानकारी मिलते ही मैं भावुक हो गया । मैं बेहद खुश हुआ, खुशी इस बात को लेकर और बढ़ गई कि मेरा नाती भी स्वीडिश है और उसी के देश से यह पुरस्कार आया है । मैं यह पुरस्कार उसको समर्पित करता हूं । ये बातें पैट्रिक मोदियानो ने नोबेले पुरस्कार की जानकारी मिलने के बाद नोबेल मीडिया को दिए अपने पहले इंटरव्यू में कही थी । पैट्रिक मोदियानो ने यह सही कहा कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं थी कि इस साल का साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार उनको मिलेगा, उम्मीद तो पूरे साहित्य जगत को भी नहीं थी । इतना अवश्य था सट्टा बाजार में पैट्रिक मोडियानो का भाव लगातार बढ़ते जा रहा था । महीने भर पहले पैट्रिक मोदियानो पर एक के मुकाबले सौ का भाव लग रहा था जो कि पिछले हफ्ते तक आते आते एक के मुकाबले दस तक पहुंच गया था । इसकी वजह उनका भी है । उनके लेखन से वैश्विक पाठकों का परिचय बेहद कम है । उनकी ज्यादातर रचनाएं फ्रेंच में हैं । फ्रांस के बाहर मोदियानो को बेहद कम लोग जानते हैं । साहित्य के लिए जब नोबेल पुरस्कार फ्रांस के लेखक पैट्रिक मोदियानो को देने का एलान किया गया तो नोबेल पुरस्कार देनेवाली संस्था तक उनसे संपर्क कायम करने में नाकाम रही थी और उनकी बेटी को इसकी सूचना दी गई थी। स्वीडिश अकादमी के सचिव पीटर इंगलैंड ने जब पैट्रिक मोदियानो के नाम का एलान किया तो उन्होंने भी ये माना कि हलांकि पैट्रिक मोदियानो की बाल साहित्य समेत करीब बीस किताबें प्रकाशित हैं,जिनमें से कई तो अनुदित हैं । फ्रांस में वो एक जाना-माना नाम हैं जबकि अन्य जगह पर उनकी कोई खास पहचान नहीं है । यह भी तथ्य है कि फ्रांस में पैट्रिक मोदियानो काफी लोकप्रिय हैं । तकरीबन हर दो साल पर उनकी कोई ना कोई कृति आती रहती है । उनके उपन्यासों का फ्रेंच पाठक बेसब्री से इंतजार करते हैं । पैट्रिक मोदियानो की इसी पहचान की वजह से वो इस बार नोबेल की रेस में नहीं थे । इस बार इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के लेखक फिलिप रॉथ को मिलेगा । पूरी अमेरिका मीडिया इस बात को लेकर बेहद उत्साहित थी और अमेरिका के एक अखबार के मुताबिक फिलिप रॉथ के बारे में एक किस्सा काफी मशहूर है । किस तरह से नोबेल पुरस्कार के एलान के पहले वो अपने लिटरेरी एजेंट के न्यूयॉर्क दफ्तर पहुंचते हैं और वहां बैठकर स्वीडिश अकादमी के फोन कॉल का इंतजार करते है । इतना ही नहीं पुरस्कार के एलान के बाद देनेवाले अपने वक्तव्य का मसौदा भी तैयार कर लेते हैं । तैयारी तो इस बात की भी हो जाती है कि पुरस्कार के एलान के बाद रॉथ किस कमरे में मीडिया के लोगों से मुखातिब होंगे । लिहाजा जब इस बार पुरस्कार रॉथ को ना देकर पैट्रिक मोदियानो को देने का एलान हुआ तो अमेरिकी मीडिया में काफी हो हल्ला मचा । रॉथ को अमेरिकी मीडिया ने बिगेस्ट लूजर ऑफ द ईयरका खिताब दे दिया । अमेरिकी आलोचकों ने इस बात को लेकर भी शोरगुल मचाया कि स्वीडिश अकादमी अमेरिका के लेखकों को लेकर पूर्वग्रह से ग्रस्त है । उन्नीस सौ एक से लेकर दो हजार चौदह तक दिए गए एक सै ग्यारह पुरस्कारों में से चौदह बार फ्रेंच साहित्यकार को ये पुरस्कार मिल चुका है ।

यह भी बिडंबना है कि जिस शख्स को साहित्य के लिए दो हजार चौदह का सबसे बड़ा सम्मान देने का फैसला हुआ है वह स्कूल ड्रॉप आउट है । दो हजार ग्यारह में मोदियानो ने माना था कि मेरे पास कोई डिग्री नहीं है, कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है जिसको पाने का प्रयास करूं  । पर यह एक लेखक के लिए बेहद चुनौती और जोखिम भरा काम है कि वो अपने जीवन के बीसवें साल में लिखना शुरू कर दे । मोदियानो ने कहा था कि वो अपनी पुरानी कृतियों को नहीं पढ़ना चहाते हैं । यह इस वजह से नहीं कि मुझे अपनी रचनाएं पसंद नहीं है बल्कि इस वजह से कि मैं अपने उस दौर को याद नहीं करना चाहता हूं । यह उसी तरह से कि जैसे कोई बुढाता हुआ अभिनेता अपनी जवानी की फिल्मों को देखते हुए एक आंतरिक पीड़ा से गुजरता है । पैट्रिक मोदियानो इस तरह की बात इस वजह से करते हैं कि उनका अधिकांश लेखन संस्मरणात्मक है । दिव्तीय विश्वयुद्द के खत्म होने के करीब दो महीने बाद पैदा हुए पैट्रिक मोदियानो के लेखन का मूल स्वर नाजियों के कब्जे के दौरान फ्रांस के समाज पर पड़नेवाला प्रभाव रहता है । उनका जन्म द्वितीय विश्वयुद्द के बाद हुआ लेकिन उनके लेखन मे विश्वयुद्द के दौर की स्मृतियों की छाप किसी ना किसी रूप में मौजूद रहती है । पुरस्कार समिति ने पैट्रिक मोदियानो की प्रशस्ति में कहा कि उन्हें युद्ध से जुड़ी यादों और समाज और लोगों के मन पर पड़नेवाले प्रभावों को बेहतर ढंग से सामने रखने के लिए इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना गया है । उनहत्तर साल के पैट्रिक मोदियानो का पहला उपन्यास तेईस साल की उम्र में छप गया था । उसके बाद उनके कई उपन्यास छपे और कुछ तो काफी मशहूर हुए । उन्नीस सौ अठहत्तर में फ्रेंच में छपा और उन्नीस सौ अस्सी में अंग्रेजी में अनुदित उनके उपन्यास मिसिंग पर्सन ने खूब शोहरत बटोरी थी । इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र एक जासूस है जो अपनी याददाश्त गंवा देता है । अपनी याददाश्त को वापस लाने के लिए प्रयत्न करता हुआ ये जासूस इतिहास में भी आवाजाही करता है । माना जाता है कि उनका यह उपन्यास उनकी श्रेष्ठ कृतियों में से एक है । इसके अलावा  ट्रेस ऑफ मलाइस और हनीमून उनकी दो और मशहूर किताबें हैं । उपन्यास और बाल साहित्य के अलावा मोदियानो की फिल्मों में भी गहरी रुचि रही है । उन्होंने कई फिल्मों की पटकथा भी लिखी । कान फिल्म फेस्टिवल की जूरी में भी वो रह चुके हैं । यहूदी इतावली मूल के पिता और बेल्जियन अभिनेत्री मां की संतान पैट्रिक इन दिनों पेरिस के एक उपनगर में रहते हैं और दो हफ्ते पहले ही उनकी नई कृति सो दैट यू डोंट देट लॉस्ट इन द नेबरहुड प्रकाशित हुई है । माना जाता है कि यह उपन्यास आत्मकथात्मक है । आनेवाले दिनों में ये उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत के पाठकों के लिए भी मोदियानो की किताबें उपलब्ध हो सकेंगी । 

Saturday, October 11, 2014

महाराष्ट्र चुनाव की बिसात

तैंतीस विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों के नतीजों के झटके के बाद बीजेपी का तर्क था कि ये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का पैमाना नहीं है । पार्टी का तर्क था प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहीं भी चुनाव प्रचार नहीं किया था । लेकिन अब महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी धुंआधार चुनाव प्रचार कर रहे हैं । इसलिए इन दोनों राज्यों के चुनाव नतीजों को मोदी की लोकप्रियता की कसौटी के तौर पर देखा जाने लगा है । पार्टी को भी नरेन्द्र मोदी पर ही सबसे ज्यादा भरोसा है और उनकी सभाओं में आनेवाली भीड़ को देखकर उत्साहित भी है । उधर राजनीतिक पंडित तमाम तरह के गुणा भाग में लगे हैं । चुनावी पंडितों और सर्वे के मुताबिक हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर तो उभर रही है लेकिन बहुमत से दूर है  । हलांकि इसी साल मई में जब लोकसभा चुनाव नतीजे आए थे तो मोदी की लोकप्रियता ने तमाम राजनीतिक पंडितों और सर्वे के अनुमान को गलत साबित कर दिया था ।  दरअसल महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों राज्य बीजेपी के लिए इस वजह से अहम हैं वहां कभी भी पार्टी ने अपने बूते पर सरकार नहीं बनाई है । महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बना चुकी है । हरियाणा में भी बीजेपी हमेशा से वहां की किसी पार्टी के साथ गठबंधन में रही है । कभी चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल तो कभी कुलदीप विश्नोई की पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस के सहारे बीजेपी ने राजनीति की है । तब की बात कुछ और थी और इस बार जब लोकसभा चुनाव में पार्टी को जनादेश मिला तो अब हरियाणा और महाराष्ट्र में वो अपनी धमक बरकरार रखना चाहती है । हरियाणा में तो पार्टी ने अकले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। उधर महाराष्ट्र में भी बीजेपी ने शिवसेना के साथ अपना सालों पुराना गठबंधन तोड़ दिया । दो हजार नौ के विधानसभा चुनाव में दो सौ अठासी  सीटों में से शिवसेना को चौवालीस और बीजेपी को पैंतालीस सीटें मिली थी । लेकिन दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में बीजेपी शिवसेना गठबंधन को अड़तालीस में से इकतालीस सीटें हासिल हुई थी । लोकसभा चुनाव की सफलता के बाद शिवसेना को लगने लगा था कि सूबे में उसकी सरकार बन रही है । लिहाजा उद्धव ठाकरे ने अपना नाम मुख्यमंत्री पद के लिए चलवा दिया है । यहीं से दोनों दलों के बीच खटास पैदा हुई ।  आज से करीब बीस साल पहले महाराष्ट्र में एक पार्टी की आखिरी सरकार थी।उन्नीस सौ पचानवे के विधानसभा चुनाव में बीजेपी शिवसेना गठबंधन की जीत के बाद सूबे में गठबंधन सरकार की परंपरा शुरू हुई । इस बार जब केंद्र में बीजेपी ने अपने बूते बहुमत हासिल किया तो विधानसभा चुनाव के लिए उसके हौसले बुलंद हुए । लिहाजा वो अपने सहयोगी शिवसेना से ज्यादा सीटों की मांग करने लगी । नतीजा यह हुआ कि शिवसेना और बीजेपी का पच्चीस साल पुराना गठबंधन टूटा । उधर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी गत से एनसीपी ने भी  आंखे तरेरनी शुरू कर दी । यहां भी सीटों का पेंच फंसा और पिछले पंद्रह साल से सत्ता में रही कांग्रेस और एनसीपी की दोस्ती भी टूट गई । महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव इस लिहाज से इस बार ऐतिहासिक और दिलचस्प हो गया है कि इस बार का चुनाव चारों पार्टियां अपने बलबूते पर लड़ रही हैं । इन सबके अलग अलग चुनाव लड़ने से प्रचार के दौरान अहम मुद्दे गौण होते चले गए । चारो पार्टियां एक दूसरे पर गठबंधन ठोकरे की जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ने में लगी है । मानो गठबंधन का टूटना ही जनता के लिए सबसे बड़ा मुद्दा हो । कुछ समय पहले तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे पृथ्वीराज चौहान ने एनसीपी पर बीजेपी के साथ अंदरखाने हाथ मिलाने का आरोप लगाया है तो अजीत पवार ने पृथ्वीराज चौहान का नकारा मुख्यमंत्री तक कह डाला । उधर शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने दो दशक से ज्यादा तक सहयोगी रहे बीजेपी की तुलना अफजल खान की सेना से कर दी । उद्व के मुताबिक जिस तरह से अदिल शाह की सेना छत्रपति शिवाजी को मारकर महाराष्ट्र पर कब्जा करना चाहती थी उसी तरह से बीजेपी महाराष्ट्र पर कब्जा करना चाहती है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो शिवसेना पर सीधा हमला नहीं करने का एलान किया लेकिन बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष देवेन्द्र फडणवीस ने तो सरेआम शिवसेना पर रंगदारी वसूलने का इल्जाम मढ़ दिया । महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में आरोप प्रत्यारोप के इस कोलाहल में के बीच असल मुद्दे दबते नजर आने लगे हैं । मुद्दों के बजाए आरोपों पर बात होने से विदर्भ के किसानों की बदहाली का मुद्दा गौण हो गया । हजारों किसानों के कर्ज में डूबे होने और वक्त पर उसे नहीं चुका पाने के तनाव में खुदकुशी करने पर कोई राजनीतिक दल बात नहीं कर रहा है । तकरीबन हर चुनाव में विदर्भ के किसानों का मुद्दा उठता रहा है लेकिन सालों बाद पहलीबार ऐसा हो रहा है कि इस विधानसबा चुनाव में इन किसानों की बदतर हालत और खुदकुशी चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है । विदर्भ को अलग राज्य बनाने की मांग भीइस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साफ कर दिया है कि उनके दिल्ली की गद्दी पर होते कोई भी शिवाजी की इस धरती को बांटने के अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाएगा । इस चुनाव में महाराष्ट्र में हुए हजारों करोड़ के सिंचाई घोटाले पर बात नहीं हो रही है । मुंबई को शंघाई बनाने के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वादे के बारे में कोई कांग्रेस से सवाल नहीं पूछ रहा है । महंगाई और भ्रष्टाचार इस ब महाराष्ट्र में चुनावी मुद्दा  नहीं है । लोकसभा चुनाव के दौरान महंगाई और भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाने वाली पार्टी बीजेपी भी अब इन दो मुद्दों से किनारा करती नजर आ रही है । उसके लिए भी महंगाई का मुद्दा उठाना अब आसान नहीं रहा । केंद्र में उनकी ही सरकार है लेकिन महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही है । कांग्रेस का तो इतना बुरा हाल है कि उसको कुछ सूझ ही नहीं रहा है कि वो क्या करे । पार्टी का पूरा चुनावी कैंपेन बुरी तरह से बिखरा बिखरा सा नजर आ रहा है । ऐसा लग रहा है कि पार्टी ने पहले ही हार मान ली है । एनसीपी दस साल तक कांग्रेस के साथ सरकार में रही अब वो अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर चुनावी फायदा उठाने की जुगत में है लेकिन जनता अब इतनी समझदार तो हो ही चुकी है कि वो राजनीतिक दलों के इन खेल को समझ सके । लोकसभा चुनाव में मोदी की लहर पर सवार होकर ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद बीजेपी के हौसले बुलंद थे लेकिन उसके कद्दावर नेता गोपीनाथ मुंडे की सड़क हादसे में मौत के बाद पार्टी को थोड़ा झटका लगा है । गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे ने पिता की मौत के बाद पूरे सूबे में यात्रा की उसको बड़ा जनसमर्थन मिला । पंकजा मुंडे महाराष्ट्र बीजेपी की ऐसी नेता है जिनकी भूमिका आनेवाले दिनों में अहमन हो सकती है । पार्टी के आला नेता लगातार पंकजा को आगे कर रहे हैं । 
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पहली बार महाराष्ट्र में ये लग रहा है कि चुनावी मुकाबला चतुष्कोणीय है लेकिन असलियत में ऐसा है नहीं । अलग अलग इलाके में अलग अलग दल एक दूसरे के सामने हैं और यह कहा जा सकता है कि इलाका विशेष में चुनावी मुकाबला सीधा है । महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मुख्य रूप से विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिमी महाराष्ट्र, उत्तरी महाराष्ट्र और मुंबई ठाणे के पांच रणक्षेत्र में बांट सकते हैं । विदर्भ इलाके में विधानसभा की साठ सीटें हैं । पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान इस इलाके की दस सीटें में से बीजेपी ने 6 और शिवसेना ने 4 सीटें जीती थीं । विदर्भ की सबसे बड़ी समस्य़ा किसानों की खुदकुशी की है और सबसे बड़ी मांग अलग राज्य की है । परंपरागत विश्लेषम यह कहता है कि इस इलाके में मुख्य मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस में होगा । मराठवाड़ा को कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है और इस इलाके से कांग्रेस के कई मुख्यमंत्री हुए । विलासराव देशमुख के निधन और अशोक चौहान के आदर्श घोटाले में आरोपी होने के बाद कांग्रेस इस इलाके में भी कमजोर हुई और लोकसभा में मराठवाड़ा से सिर्फ दो सीटें जीत पाई । मोदी लहर का असर यहां भी दिखा । मराठवाड़ा में कांग्रेस के कमजोर होने के बाद यह माना जा रहा है कि इस इलाके में चारों दलों ने अपनी- अपनी पैठ बनाई है ।
पश्चिमी महाराष्ट्र को एनसीपी नेता शरद पवार का गढ़ माना जाता रहा  है जहां चीनी मिलों के की राजनीति के मार्फत उनका दबदबा रहा है । इस इलाके में विधानसभा की 78 सीटें हैं और इस बार शरद पवार के सामने अपने गढ़ को बचाने की चुनौती भी है । लोकसभा चुनाव के दौरान सात में से चार सीट जीतकर शरद पवार ने अपनी लाज बचाई थी । बदले हुए राजनीतिक हालात में एनसीपी के कई नेता पाला बदलकर बीजेपी में जा चुके हैं । इसका नुकसान एनसीपी को हो सकता है। इसी इलाके में शरद पवार के सालों से पॉलिटिकल राइवल स्वाभिमानी शेतकारी संगठना के राजू शेट्टी भी एनसीपी को नुकसान पहुंचा सकते हैं । तमाम अमुमानों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि इस इलाके में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और एनसीपी में ही होगा । अगर शिवसेना, बीजेपी और शेतकारी संगठना इकट्ठे चुनाव लड़ते तो शरद पवार का दुर्ग ढह सकता था । उत्तरी महाराष्ट्र हमेशा से बीजेपी को समर्थन करता रहा है और मोदी लहर ने उसको और मजबूत ही किया है । मुंबई ठाणे इलाके में शहरी वोटर ज्यादा हैं । 2009 में इस इलाके से कांग्रेस को सफलता मिली थी और करीब आधी विधानसभा सीट पर जीत हासिल हुई थी अनुमान है कि मोदी के करिश्मे की वजह से इस इलाके से इस बार कांग्रेस एनसीपी का सूपड़ा साफ हो सकता है । चार दलों के बीच मचे घमासान में इस बार कोई भी राज ठाकरे और उनकी पार्टी मनसे को याद नहीं कर रहा है क्योंकि गांधी के इस देश में हिंसा और नफरत की राजनीति से पहचान तो मिल सकती है लेकिन लंबा चलने के लिए चोला बदलना ही पड़ता है ।

Thursday, October 9, 2014

जनाकांक्षा बढ़ाते मोदी

लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में शानदार सफलता हासिल की थी तो यह कहा गया कि मोदी सपनों के सौदागर हैं । उन्होंने महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त भारत के मध्यवर्ग के बीच अपनी एक ऐसी छवि पेश की जो कि उनकी समस्याओं का हल कर सकता है । चुनावी नारों से लेकर मोदी की चुनावी रणनीति को इस तरह से डिजायन किया गया कि मोदी की यह छवि जनता के दिलो दिमाग पर छा जाए । अपने चुनावी भाषणों में नरेन्द्र मोदी ने अपनी शानदार वकतृत्व कला के बूते अपनी इस छवि को और गाढा़ किया । आसमान छूती महंगाई और भ्रष्टाचार के घटाटोप अंधेरे की बीच नरेन्द्र मोदी के रणनीतिकारों ने जो चुनावी नारे दिए उसने यह संदेश दिया कि भारत की सभी समस्याओं का अंत तुरंत । चुनाव के वक्त देश का जो माहौल था उसमें महंगाई और भ्रष्टाचार से देश की जनता परेशान थी । मोदी ने अपनी चुनावी रैलियों में महंगाई और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की बात करके जनता का भरोसा जीता था । इसके अलावा चुनाव के दौरान एक मुद्दा पाकिस्तान की तरफ से लगातार होनेवाली फायरिंग और चीन की घुसपैठ भी था । मनमोहन सरकार फैसले नहीं ले पा रही थी लिहाजा पॉलिसी पैरेलैसिस की वजह से फॉरेन इंवेस्टमेंट नहीं आ पा रहा था । इस तरह की परिस्थियों में नरेन्द्र मोदी ने अपना चुनावी कौशल दिखाया और परिस्थियों का लाभ उठाते हुए जनता के सामने विकल्प पेश कर प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करने में कामयाब रहे । पद संभालने के पहले ही मोदी ने अपने पड़ोसी देशों की अहमियत का समझा और अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रण दिया । मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ समेत सभी सार्क देशों के पीएम और प्रेसिडेंट शामिल हुए । मोदी के काम काज संभालने के फौरन बाद ही केंद्र सरकार के कर्मचारियों की कार्यशैली में बदलाव दिखाई देने लगा । मंत्रालयों और दफ्तरों में कर्मचारी सही वक्त पर पहुंचने लगे और तय वक्त तक दफ्तर में मौजूद भी रहने लगे । जनता के सवालों और समस्याओं पर ध्यान देने लगे हैं । प्रधानमंत्री कार्यालय से जनता को उनके पत्रों के जवाब मिलने लगे हैं । यह पूर्ववर्ती यूपीए सरकार से उलट है । यूपीए सरकार के दौरान तो प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों को लिखे आम जनता के खतों को डस्टबिन में डाल दिया जाता था । एक पुरानी कहावत है कि सरकार तो राजा के इकबाल या फिर उसके हनक से चलती है । सो यहां भी मोदी की हनक से सरकार का कामकाज पटरी पर आते दिखने लगा । हनक और इकबाल के अलावा सुशासन का एक और पहलू है वह ये कि सरकार को जनता से संवाद करते दिखना चाहिए । जनता को यह भरोसा होना चाहिए कि सरकार के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति भी उसकी पहुंच में है । उसे यह भी भरोसा होना चाहिए कि अगर वो अपनी कोई समस्या लेकर प्रधानमंत्री तक जाएगा तो उसकी सुनवाई होगी । इन दोनों बातों को मोदी सरकार ने समझा है और उस दिशा में काम शुरू कर दिया है ।
हर समाज को सपनों में जीना अच्छा लगता है । स्वप्नलोक हमेशा से भारतीय समाज को लुभाता रहा है । नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम ने विकास का जो सपना भारतीयों को दिखाया उसके पीछे गुजरात में उनके किए गए कामों का ट्रैक रिकॉर्ड भी था । लिहाजा जनता उनके दावों और वादों को हवा हवाई नहीं मान सकती थी । जनता ने माना भी नहीं । मोदी को अभूतपूर्व समर्थन मिला । सरकार बनने के बाद महंगाई कम नहीं हुई । सीमापार से गोलीबारी कम नहीं हुई । चीनी घुसपैठ में कमी नहीं आई । भारतीय जनता पार्टी के नेता यह कहने लगे कि मोदी के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है जो हर समस्या का फौरन हल कर लें । अब तो अपने सालाना दशहरा भाषण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख ने भी जादू की छड़ीवाली बात दोहरा दी है । इसका अर्थ यह है कि उनकी पार्टी और संघ दोनों प्रधानमंत्री को वक्त दिए जाने के पक्ष में है । जनता ने तो पांचसाल का वक्त दिया ही है ।
अब अगर हम नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद के उनके कार्यकाल का मूल्यांकन करें तो इतना तो साफ तौर पर दिखता है कि जनता का उनमें भरोसा जरा भी कम नहीं हुआ है । यह अलहदा बात है कि लोकसभा चुनाव के बाद हुए उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी की चमक थोड़ी फीकी हुई है लेकिन उपचुनावों के नतीजों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी या मोदी से लोगों का मोहभंग होने लगा है। दो राज्यों के नतीजों से इस बारे में कुछ संकेत मिल सकते हैं । इन सबसे बेफिक्र प्रधानमंत्री मोदी भारत के लोगों की आकांक्षाओं को लगातार पंख लगा रहे हैं । विश्वशक्ति से लेकर स्वच्छ भारत तक का । उनकी यह खासियत है कि वो अपने किसी भी काम का स्केल इतना बड़ा कर देते हैं कि जनता उससे खासा प्रभावित होती है । इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी को संवाद की ताकत का एहसास भी है । अपने किसी भी काम के लिए वो जनता से सीधे संवाद करते हैं । उन्होंने संवाद के सभी आधुनिक तरीकों का बेहतरीन इस्तेमाल किया है । इसका एक फायदा तो यह होता है कि जनता को लगता है कि उनका प्रधानमंत्री उनको हर बड़े कदम में शामिल करता है । देश की जनता ने पिछले दस सालों में एक ऐसा प्रधानमंत्री देखा था जो कि किसी भी मसले पर बोलता ही नहीं था । अब उसी देश में एक मुखर प्रधानमंत्री आया है ।
नरेन्द्र मोदी को अब कांग्रेस के लोग सपनों का सौदागर, मार्केटिंग गुरू और जाने किन विशेषणों से नवाजने लगे हैं । कांग्रेस के नेता नरेन्द्र मोदी पर आरोप लगाने में जल्दबाजी कर रहे हैं । उन्हें अभी इंतजार करना चाहिए वर्ना इस वक्त उनके आरोपों में एक खास किस्म की खिसियाहट दिखाई देती है । इतना अवश्य है कि मोदी भारत की जनता की आकांक्षाओं को लगातार बढ़ाते जा रहे हैं । परंपरागत तरीके से राजनीति का विश्लेषण करनेवालों का मानना है कि चुनाव के पहले किए गए वादों को सरकार में आने के बाद पूरा करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए । उनके पास इस तर्क के समर्थन में विश्व के कई देशों के उदाहरण भी मौजूद होते हैं जहां कि सरकार बनते ही चुनावी वादों पर अमल शुरू हो जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री मोदी को इस परंपरागत राजनीतिक फॉर्मूले में यकीन नहीं है । अगर ऐसा होता तो अबतक सरकार महंगाई को रोकने के लिए लगातार प्रयास कर रही होती । महंगाई को रोकने के लिए एक ही बार कदम उठाए गए । नतीजा सबके सामने है । आज बाजार में आलू तीस से चालीस रुपए के बीच बिक रहा है लेकिन जनता को यह बात अखर नहीं रही है क्योंकि प्रधानमंत्री उनको बेहतर सपने दिखा रहे हैं । वो देश के लिए बड़ा लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं । वो चाहते हैं कि 2022 तक हर देशवासी के सर पर छत हो यानि सबके पास अपना घर हो, वो चाहते हैं कि पूरा भारत साफ रहे. वो चाहते हैं कि भारत से मानव संसाधन का निर्यात हो, वो चाहते हैं कि पूरे विश्व के कल कारखाने भारत में लगे और उनपर मेक इन इंडिया की मोहर हो । सवाल फिर वही कि सपनीली सड़क पर आंकांक्षा की ये दौड़ कहां जाकर खत्म होगी या ये दौड़ सरपट जारी रहेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही बढ़ती हुई जनाकांक्षा ही है जो वो खुद ही बढ़ा रहे हैं । सालभऱ के बाद इन सपनों का हिसाब किताब शुरू होगा तब यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री उसको कैसे हैंडल करते हैं ।

Wednesday, October 8, 2014

अफवाह का अस्त्र !

पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में रावण वध के बाद हुए हादसे में चौंतीस लोगों की मौत हुई । मरनेवालों में ज्यादा संख्या में बच्चे और महिलाएं थी । जांच का एलान हुआ । जांच शुरू हो गई । जांच खत्म भी हो जाएगी । जांच रिपोर्ट भी बन जाएगी । कोई कार्रवाई होगी या नहीं ये विश्वास, के साथ नहीं कहा जा सकता । हादसे के बाद पटना के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक का तबादला हो गया । नए अफसर पदस्थापित हो गए । धीरे धीरे जीवन सामान्य हो भी जाएगा । पर बड़ा सवाल बना रहेगा । क्या इन हादसों से हम कोई सबक लेंगे । क्या हादसे की जांच में हर बिंदु को शामिल कर सूक्ष्मतासे तफ्तीश की जाएगी । शायद नहीं । पटना में दो साल पहले छठ पूजा के वक्त भी भगदड़ मची थी । शाम के वक्त छठ पूजा के पहले अर्घ्य के वक्त अदालतघाट पर मची भगदड़ में चौदह लोगों की मौत हुई थी । उस वक्त छठ पूजा के दौरान मची भगदड़ के बाद मौके पर पहुंचे न्यूज चैनल के संवाददाताओं को प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया था कि दो लड़कों ने अचानक से अस्थायी पुल गिरने की बात शुरू कर दी । साथ ही दोनों लड़कों ने यह भी कहना शुरू किया कि पुल के पहले बिजली का तार गिर गया है और लोगों की करंट से मौत हो गई है । यह अफवाह जंगल के आग की तरह फैली और अर्ध्य देकर लौट रहे लोगों के बीच अफरातफरी मच गई । जान बचाने के लिए लोग भागने लगे । जाहिर सी बात है भगदड़ मच गई और महिलाएं और बच्चे इसके शिकार बने । पटना के गांधी मैदान में रावण वध के बाद हुए हादसे के बाद भी प्रत्यक्षदर्शियों ने यह बताया कि दो लड़के आए और उन्होंने बिजली का तार गिरने की बात की । दोनों लड़कों ने यह भी बताया कि कई लोग करंट की चपेट में आ गए हैं । यहां भी यह अफवाह उसी तरह से फैली जिसकी परिणति भगदड़ और महिलाओं और बच्चों की मौत में हुई । छठ पूजा और रावण दहन के दौरान मची घटनाओं को अगर हम जोड़कर देखते हैं तो एक सूत्र नजर आता है । यह सूत्र है अफवाह की वजह से भगदड़ । दोनों जगह पर बिजली के तार गिरने की अफवाह । हादसे के दोनों स्थानों पर श्रद्धा का सैलाब । दोनों हादसों की जगह पर महिलाओं और बच्चों की ज्यादा संख्या में उपस्थिति । दोनों स्थानों पर लोगों के निकलने का तंग रास्ता । सवाल यही है कि क्या ये हादसा था या इसे एक सोची समझी रणनीति के तहत अंजाम दिया गया ।
जांचकर्ताओं को अफवाह के इस पैटर्न पर खास तवज्जो देनी होगी । इस बात की पड़ताल करनी होगी कि क्या पटना में अफवाह के अस्त्र से गड़बड़ी फैलाने वाला कोई संगठित गिरोह तो सक्रिय नहीं है । गंभीरता से इस बात की भी जांच करनी होगी कि क्या गड़बड़ी फैलानेवाले लोग पहले इस तरह के आयोजनस्थलों की रेकी करते है । जहां हालात उनके अनुकूल होता है वहां अफवाह फैलाई जाती है । दो हजार बारह के छठ पूजा के दौरान मचे भगदड़ के दौरान अगर अफवाह वाली बात की जांच की जाती और साजिश के कोण पर भी जांचकर्ताओं का ध्यान जाता तो शायद पटना के गांधी मैदान में इस बार चौंतीस लोगों की जान नहीं जाती । उस वक्त पुलिस ने ना तो अफवाह फैलाने वालों का स्केच जारी किया और यह भी ज्ञात नहीं हो सका कि उस जांच का क्या नतीजा निकला । लेकिन इतना अवश्य साफ है कि पुलिस की ढिलाई से गड़बड़ी फैलानेवाले अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने में कामयाब हो जाते हैं । मासूमों की जान जाने के बाद हमारी एजेंसियों चेतती अवश्य हैं पर सबक नहीं लेतीं ।

Monday, October 6, 2014

साहित्य की राह संगीत

ऐसा नहीं हैं कि सिर्फ हिंदी साहित्य के सामने पाठकों का संकट है या हिंदी साहित्य को युवा पाठक नहीं मिल रहे हैं । यही संकट भारतीय शास्त्रीय संगीत और गजलों को लेकर भी है । भारत की युवा पीढ़ी शास्त्रीय गायन की गौरवशाली परंपरा से या तो अनजान है या उनकी उस विधा में रुचि विकसित नहीं हो रही है  । नई पी़ढ़ी अपने देश की गायकी और पुराने महान गायकों के काम और नाम दोनों से लगभग अनभिज्ञ है, अनजान है । सात अक्तूबर को मलिका ए-गजल बेगम अख्तर साहिबा की सौंवी सालगिरह है । उनके सौ साल पूरे होने पर जिस तरह का जश्न और जलसा होना चाहिए था वो नदारद है । एक जमाना था जब पूरे देश में ये मोहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया से लेकर मेरे हमनफस मेरे हमनवां जैसे लफ्जों को बेगम अख्तर की आवाज गूंजा करती थी । इन शब्दों को जब बेगम अक्तर की आवाज मिलती थी तो लोग उसमें डूब जाया करते थे । मोहब्बत के अंजाम पर रोनेवाले अब संगीत और गजल के अंजाम पर रोने को मजबूर हैं । बेगम अख्तर जिन्हें मल्लिका ए गजल कहा जाता था, आज उनके सौ साल पूरे होने पर छिटपुट समारोहों के अलावा याद करनेवाला कोई नहीं है । बेगम अख्तर की उपस्थिति संगीत की दुनिया से भी नदारद है । आज से सौ साल पहले उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में अख्तरी बाई का जन्म हुआ था । सात साल की उम्र से ही अख्तरी बाई ने अपनी आवाज की जादू का जलवा बिखेरना शुरू कर दिया था । पहले चंदरबाई फिर पटना के उस्ताद इमदाद खान से संगीत सीखने के बाद अख्तरी बाई ने पटियाला और कोलकाता में संगीत को साधने का काम जारी रखा था । उम्र के बढ़ने के साथ साथ अख्तरी बाई की शोहरत भी बढ़ने लगी थी । बेहतरीन उर्दू शायरी को अपनी आवाज देने की जिद ने उन्हें कड़ी मेहनत और घंटों की रियाज के लिए प्रेरित किया था । नतीजा यह हुआ कि कठिन से कठिन उर्दू शायरी को भी अख्तरी बेगम ने साध लिया । अपनी गायकी में भारतीय शास्त्रीय संगीत के इस्तेमाल से उन्होंने गजल गायकी को एक नई ऊंचाई दी । एक जमाने में जो विशेषता अख्तरी बेगम की गायकी की विशेषता थी वही अब उसकी लोकप्रियता में बाधा बनने लगी है । यह सही है कि वक्त के साथ पसंद और स्टाइल दोनों बदलते हैं । आज की युवा पीढ़ी की रुचि गाने के बोल में कम उसके संगीत में ज्यादा है । इन दिनों अगर हम फिल्मी संगीत को देखें तो धुनों को लेकर ज्यादा बात होती है बोल या गीत पर कम काम हो रहा है । मेरे फोटो को सीने से डाल चिपकाए लें सैंया फेविकोल से और मैं तो कब से हूं रेडी तैयार पटा ले सैंया मिस्ड कॉल से की लोकप्रियता से साफ है कि गाने के बोल की महत्ता कम हुई है । इसी तरह से हम देखें तो फिल्मी गानों में शास्त्रीय संगीत का इस्तेमाल कम होने लगा है । नैन डॉ जइहैं तो मनवां मां कसक होइबे करी जैसा गाना गाने के लिए गायकों को सिद्धहस्त होना पड़ता था और इस तरह के बोल कठिन रियाज की मांग भी करते थे । अब जबकि माहौल में गीत पर संगीत हावी हो गया है तो उच्च कोटि की शायरी में जगल गानेवाली बेगम अख्तर भी धीरे धीरे भुलाई जाने लगी ।
हिंदी साहित्य में पश्चिम की नकल में उत्तर आधुनिकता का नारा भले ही ज्यादा नहीं चल पाया हो लेकिन जादुई यथार्थवाद का डंका तो खूब बजा था । जादुई यथार्थवाद के नाम पर लिखी गई कहानियां पाठकों ने खूब पसंद भी की थी । इसी तरह से पश्चिम से ली गई अवधारणा स्त्री विमर्श और दलित विमर्श भी हिंदी साहित्य में चला । साहित्य की तर्ज पर ही संगीत में भी पश्चिमी संगीत और वहां के साजो समान का प्रभाव पड़ा । पश्चिमी साजो सामान और उपकरणों के इस्तेमाल में अंधानुकरण ने परंपरागत भारतीय संगीत को काफी नुकसान पहुंचाया है । पश्चिमी संगीत की वकालत करनेवालों ने भारतीय गीत-संगीत के बारे में यह बात फैलाई कि भारतीय संगीत बेहद धीमा है । उन्होंने ही ये भ्रम फैलाया कि युवा पीढ़ी रफ्तार चाहती है और चूंकि भारतीय संगीत धीमा है लिहाजा युवाओं के मन को नहीं भा रही है । धीमा संगीत के दुश्प्रचार ने भारतीय शास्त्रीय संगीत का काफी नुकसान किया । बेगम अख्तर के जीवन के सौ साल में ही हमें उनकी गायकी को बचाने और उसे लोकप्रिय बनाने के लिए प्रयास करना पड़ेगा । यह सही है कि एक विधा के तौर पर गजल उतना लोकप्रिय नहीं रहा जितने कि फिल्मी गाने लेकिन फिर भी गजल के प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग हुआ करता था । अस्सी के दशक में पंकज उधास और टी सीरीज की जुगलबंदी ने गजल को खूब लोकप्रिय बनाया । पंकज के गाए गजल हर गली मोहल्ले में बजे । लेकिन वह गजल विधा का निचला सिरा था । गजल गायकी के उस अंदाज को फौरी लोकप्रियता तो हासिल हुई लेकिन फिर उतनी ही तेजी से लोगों ने उसको भुला ही दिया । बेगम अख्तर के सौ साल पूरे होने पर इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि खालिस उर्दू शायरी और गजल की शास्त्रीय विधा को कैसे बचाया जाए । बेगम अख्तर भारतीय गायकी की धरोहर हैं और अपने धरोहरों को लेकर हमें संजीदा होना पड़ेगा । संगीत की दुनिया के लोगों को इस काम में पहल करनी होगी । बेगम अख्तर के नाम पर संगीत समारोह के आयोजनों से लेकर उनके अंदाज में गायकी करनेवालों की पहचना भी करनी होगी । एक बार यह काम हो जाए तो फिर उसको लोकप्रिय बनाने के लिए संघर्ष करना होगा । हमारा यही प्रयास बेगम अख्तर के लिए हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।

Sunday, October 5, 2014

भाषण पर बेवजह विवाद

विजयादशमी के मौके पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख माननीय मोहन भागवत के करीब घंटे भर के भाषण को दूरदर्शन पर दिखाए जाने पर सवाल खड़े होने लगे हैं । विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा कई बुद्धिजीवियों ने भी दूरदर्शन के इस कदम को केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के होने से जोड़कर देखा है । लेफ्ट पार्टियो ने इसको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सरकारी संरक्षण के तौर पर पेश करके दूरदर्शन को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की । मशहूर इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा ने भी ट्वीट कर कहा कि बहुमत के इस नंगा-नाच का विरोध किया जाना चाहिए । गुहा के मुताबिक संघ एक हिंदी सांप्रदायिक संगठन है , अगली बार मस्जिदों के इमाम और चर्च के पादरी भी लाइव प्रसारण की मांग कर सकते हैं । उन्होंने इस बात की भी उम्मीद जताई कि कोई ना कोई शख्स अदालत में इसके खिलाफ जनहित याचिका दाखिल करेगा । संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषण को दूरदर्शन पर लाइव दिखाए जाने की बढ़ती आलोचना के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भागवत के भाषण की महत्ता बताई तो सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर भी दूरदर्शन के बचाव में उतरे। प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि संघ प्रमुख का भाषण खबर थी और खबर की महत्ता के मद्देनजर दूरदर्शन ने इसको लाइव करने का फैसला लिया । फिर क्या था सोशल मीडिया पर दूरदर्शन के इस कदम के पक्ष और विपक्ष में तलवारें खिच गईं । जमकर आरोप प्रत्यारोप का दौर चला । दूरदर्शन के एक एंकर ने तो रामचंद्र गुहा से पूछ लिया कि क्या जब पोप का भाषण लाइव हुआ था तो उन्होंने विरोध जताया था । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख के भाषण से जो सवाल उठ रहे हैं वो इसलिए कि संघ हमेशा से अपने को राजनीति से अलग सांस्कृतिक संगठन मानता और बताता रहा है । संगठन का दावा होता था कि उसके प्रमुख या संगठन की सरकार में ना तो कोई भूमिका होती है और ना ही भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में दखल । लेकिन यह बीते दिनों की बात हो गई है जब इस तरह के तर्क दिए जाते थे । पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सफलता में मोदी के करिश्मे के साथ साथ संघ के कार्यकर्तांओं की भी बड़ी भूमिका थी । संघ प्रमुख के भाषण का विरोध करनेवाले यह भूल गए हैं कि मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के बाद मोहन भागवत का यह पहला दशहरा भाषण था । पूरे देश की नजर इस बात पर लगी हुई थी कि संघ मोदी सरकार और उसकी नीतियों के बारे में क्या राय रखता है । संघ प्रमुख के इस भाषण से ही सरकार और संघ के बीच के संबंध के सूत्र निकलते । जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी में बुजुर्ग नेताओं को ससम्मान मार्गदर्शक मंडल में शामिल कर निर्णय लेने की प्रक्रिया से अलग कर दिया गया वह संघ की मर्जी के बगैर उठाया गया होगा, इस बात में संदेह था । लोग यह जानना चाहते थे कि संघ भारतीय जनता पार्टी और उसके नेतृत्व के बारे में अब क्या सोचता है । इस तरह कि बातें सामने आ रही थी कि उपचुनावों के दौरान संघ ने भारतीय जनता पार्टी को अपने बूते पर चुनाव लड़ने के लिए छोड़ दिया था । नतीजे के बाद यह बात भी फैलाई जा रही थी कि हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में भी संघ के कार्यकर्ता उतने सक्रिय नहीं रहेंगे जितने कि लोकसभा चुनाव के दौरान थे । जिस तरह से अपने दशहरा भाषण में मोहन भागवत ने नरेन्द्र मोदी सरकार की तारीफ की वह यह बताने के लिए काफी था मोदी सरकार को संघ का पूरा समर्थन हासिल है । संघ प्रमुख ने साफ तौर पर कह दिया कि अपनी आशाओं और आकांक्षओं को पूरा करने का वक्त बहुत दिनों बाद आया है । उनका मतलब केंद्र में बहुमत की भारतीय जनता पार्टी सरकार से था । अपनी आशाओं और उम्मीदों को सार्वजनिक करने के बावजूद संघ प्रमुख ने साफ कर दिया था कि केंद्र सरकार के हाथ में कोई जादू की छड़ी नहीं है कि सबकुछ पलक झपकते ही हासिल हो जाए । यह प्रधानमंत्री को संघ की तरफ से उनके कार्यों का समर्थन था । दूरदर्शन की आलोचना करनेवालों को यह सोचना चाहिए था कि क्या ये खबर नहीं है और अगर ये खबर नहीं था तो कई अन्य निजी न्यूज चैनलों ने संघ प्रमुख के भाषण को लाइव क्यों दिखाया । क्या करदाताओं के फैसले से चलनेवाले इस सरकारीन्यूज चैनल को खबरों के बारे में पैसला लेने का हक नहीं है । बिल्कुल है । लेकिन सवाल यही है कि खबरों के बारे में फैसला ये संगठन सरकार को देखकर लेता है । संघ प्रमुख के इस बार के दशहरा भाषण का भी उतना ही महत्व था जितना कि पिछले साल के भाषण का था । पिछले साल भी जब पूरे देश में भ्रष्टाचार का घटाटोप अंधेरा था और महंगाई और सांप्रदायिक उन्माद अपने चरम पर था तब संघ प्रमुख के विचार जानने की जिज्ञासा ज्यादा थी। लेकिन उस वक्त कांग्रेस की सरकार थी और दूरदर्शन हर बड़े फैसले के लिए सरकार का मुंह जोहती रही है । इस बार के फैसले के पीछे भी सरकारी आकाओं को खुश करने की मंशा अधिक खबर दिखाने की मंशा कम थी । रही सही कसर सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने दूरदरर्शन का बचाव करके कर दिया । अगर दूरदर्शन स्वायत्त है और उसपर सरकारी नियंत्रण नहीं है तो फिर सरकार के मंत्री उसके फैसलों का बचाव क्यों कर रहे हैं ।
राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के भाषण के लाइव प्रसारण पर सवाल खड़े करनेवालों को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए । दूरदर्शन के इस हाल के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं वही अब सवाल खड़े कर रहे हैं । दूरदर्शन के सरकारी दुरुपयोग को याद दिलाने के लिए हमें राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में चलना पड़ेगा । राजीव गांधी के वक्त दूरदर्शन को राजीव दर्शन कहा गया था तब कांग्रेस के लोगों को दूरदर्शन बहुत सुहाता था । राजीव गांधी के बाद के दौर की सरकारो ने भी दूरदर्शन को कभी अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने दिया । अंग्रेजी में एक कहावत है कि टू ब्लैक डोंट मेक अ व्हाइट । इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती सरकारों ने जो गलत काम किया उसके आधार पर बाद की सरकारों को उस गलत काम को करने की छूट मिल जाती है । हां इतना अवश्य है कि जिन लोगों ने दूरदर्शन का जमकर बेजा इस्तेमाल किया उनके पास दूसरों की आलोचना का नैतिक आधार नहीं है । वैसे राजनेताओं से नैतिकता की अपेक्षा बेमानी ही है ।
दूरदर्शन और आकाशवाणी के सरकारी दुरुपयोग के खिलाफ लंबे समय से बातें हो रही थी । उन्नीस सौ नब्बे में प्रसार भारती एक्ट बना भी । सरकार ने उस एक्ट को 15 सितंबर उन्नीस सौ सत्तानवे को नोटिफाई किया गया और उसी साल तेइस नवंबर से प्रासर भारती अस्तित्व में आया । माना यह गया कि प्रसार भारती के गठन के बाद दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो सरकारी शिकंजे से मुक्त होकर स्वायत्त हो जाएगा । लेकिन ऐसा हो नहीं सका । सभी सरकारों ने अपने मनमाफिक और अपने में आस्था रखनेवालों को प्रसार भारती की कमान सौंपी । नतीजा यह हुआ कि प्रसार भारती के अस्तित्व में रहते हुए भी दूरदर्शन और आकाशवाणी सरकारी कब्जे से मुक्त नहीं हो पाए । मुझे याद है कि जब राजेन्द्र यादव को प्रसार भारती का सदस्य बनाया गया था तो उन्होंने उसकी स्वायत्ता का सवाल उठाते हुए ही वहां से इस्तीफा दे दिया था। प्रसार भारती के चेयरमैन और उसके सदस्यों और सीईओ के बीच भी विवादों का लंबा इतिहास रहा है । प्रासर भारती में भ्रष्टाचार की भी खबरें आती रही हैं । सरकार या यों कहें कि करदाताओं का इतना पैसा दूरदर्शन पर खर्च होता है लेकिन उसकी जवाबदेही किसी की भी नहीं बनती है । सरकारें आती जाती हैं लेकिन दूरदर्शन का सभी सरकारें अपने हक में इस्तेमाल करती रही हैं । लोकसभा चुनाव के पहले बड़े ही तामझाम से दूरदर्शन में बड़े बड़े एंकरों और पत्रकारों को रखा गया था लेकिन तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री से मतभेद के चलते सारा तामझाम धरा का धरा रह गया था । अब भारतीय जनता पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र में आई है और सरकार के गठन के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दूरदर्शन में ही भरोसा भी जताया है । प्रधानमंत्री ने जनता से संवाद करने के लिए आकाशवाणी को भी चुना है । अपने तमाम कार्यक्रमों और दौरों में वो सिर्फ ऑफिसियल मीडिया यानि दूरदर्शन और आकाशवाणी को ही अपने साथ रखते हैं, विदेशी दौरों में भी । ऐसे में इस बात की अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि दूरदर्शन को स्वायत्ता हासिल होगी । इस बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह भी तय किया है कि अपनी विचारधारा को लेकर बैकफुट पर जाने की जरूरत नहीं है । राष्ट्रवाद की उनकी अवधारणा को जनता के बीच आक्रामकता के साथ पेश करने का फैसला हुआ है । बहुत संभव है कि दूरदर्शन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के भाषण का लाइव प्रसारण इसी आक्रामक योजना का हिस्सा हो । जो भी हो लेकिन दूरदर्शऩ को सरकारी शिकंजे से मुक्त करने के लिए जरूरी है कि उसको प्रोफेशनली चलाया जाए ।