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Tuesday, September 29, 2015

सोशल मीडिया पर हिंदी का दबदबा

सोशल मीडिया और हिंदी । यह बात चंद सालों पहले तक सुनने में बहुत अजीब लगती थी । हिंदी के लोग सोशल मीडिया को अंग्रेजी और अंग्रेजीवालों का एक ऐसा औजार समझते थे जिसमें वो संवाद करते थे । हिंदी के लोगों को लगता का तर्क होता था कि फोन उठाकर या आमने सामने संवाद की स्थिति को छोड़ सोशल मीडिया को अपनाना अंतरवैयक्तिक संबंधों में बड़ी बाधा है । हिंदी के चंद उत्साही लोग तो इसको सामाजिक तानेबाने पर बाजारवाद का बड़ा हमला मानते थे । सोशल मीडिया को आपसी भड़ास निकालने का मंच माननेवालों की तादाद भी हिंदी में कम नहीं थी, अब भी कुछ लोग हैं  । दरअसल शुरुआत में सोशल मीडिया पर अंग्रेजी का बर्चस्व था । फेसबुक से लेकर ट्वीटर तक । इस बात को लेकर हिंदी के लोग सशंकित रहते थे । उनको लगता था कि यह माध्यम अंग्रेजीवालों के चोंचले हैं । लेकिन हमारे यहां कहते हैं ना कि मनुष बली नहीं होत है समय होत बलवान । तो वक्त बदला और सारी स्थितियां भी बदलती चली गईं । पिछले एक दशक में देश में तकनीक का फैलाव काफी तेजी से हुआ है । हर हाथ को काम मिले ना मिले हर हाथ को मोबाइल फोन जरूर मिल गया है । घर में काम करनेवाली मेड से लेकर रिक्शा चलानेवाले तक अब मोबाइल पर उपलब्ध हैं । किसी भी देश के लिए यह एक बेहतर स्थिति है जहां समाज के सबसे निचले पायदान पर रहनेवालों को भी तकनीक का फायदा मिल रहा है । तकनीक के इस विस्तार से उनकी हालात में तो सुधार हुआ ही उसका उपयोग करनेवाले बड़ी संख्या में अपनी भाषा में संवाद करने को आतुर दिखाई देने लगे । कुछ दिनों पहले एक कार्यक्रम के दौरान हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और महिला अधिकारों को लेकर अपने लेखन में बेहद सजग मैत्रेयी पुष्पा ने तकनीक की ताकत के बारे में बताया था । मैत्रेयी ने तब कहा था कि आज गांव घर की बहुओं की ज्यादातर समस्याएं मोबाइल फोन ने हल कर दी हैं । उन्होंने कहा कि आज बहुएं घूंघट के नीचे से फोन पर अपनी समस्याओं के बारे में अपने मां बाप को या फिर शुभचिंतकों को संकट के सामय अपनी व्यथा बता सकती हैं । इसमें यह जोड़ा जा सकता है कि सोशल मीडिया ने उनको और ज्यादा ताकत दी । मोबाइल फोन की क्रांति के बाद जो विकास हुआ वह था इंटरनेट का फैलाव । तकनीक के विकास ने आज लोगों के हाथ में इंटरनेट का एक ऐसा अस्त्र पकड़ा दिया है जो उनको अपने आपको अभिव्यक्त करने के लिए एक बड़ा प्लेटफॉर्म प्रदान करता है । स्मार्ट फोन के बाजार में आने और उसकी कीमत मध्यवर्ग के दायरे में आने और थ्री जी जैसे इंटरनेट तकनीक के लागू होने से यह और भी आसान हो गया है । हाथ में इंटरनेट के इस औजार ने सोशल मीडिया पर लोगों की सक्रियता बेहद बढ़ा दी है । पहले तो ऑरकुट हुआ करता था जो नेट यूजर्स के बीच खासा लोकप्रिय था । बाद में सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक ने जोर पकड़ा और हर वर्ग के लोगों के बीच फेसबुक पर होने की होड़ लग गई । सोशल नेटवर्किंग साइट सोशल स्टेटस साइट में तब्दील हो गया । महानगरों के अलावा छोटे शहरों में फेसबुक पर होना अनिवार्य माना जाने लगा । जो लोग यह कहकर फेसबुक की खिल्ली उड़ाते थे कि फोन पर बात नहीं कर सकते वो वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर बात करेंगे वो लोग भी अब फेसबुक पर घंटों गुजारते हैं । दरअसल यह होता है कि किसी भी तरह की नई तकनीक का पहले तो विरोध होता है और बाद में वह लोगों की आदतों में शुमार हो जाता है । आपको याद हो कि जब अस्सी के दशक में कंप्यूटर आया था तो उसका जमकर विरोध हुआ था । तब इस बात को लेकर खासा बवाल मचा था कि कंप्यूटर से बेरोजगारी बढ़ेगी । लोगों के हाथों से काम छिन जाएगा आदि आदि । लेकिन बाद में वो सारे तर्क धरे रह गए । कंप्यूटर ने भारत के लोगों के लिए संभावनाओं के नए क्षितिज खोले । सॉफ्टवेयर में भारत आज एक सुपर पॉवर है । दुनिया के हर कोने में भारत के लोग सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में बेहतर काम कर रहे हैं । तकनीक का विरोध या यो कहें कि यथास्थिति का विरोध हमेशा से समाज में होता रहा है । जो चल रहा है वैसा ही चलने दो की मनस्थिति चलती रहती है । बहुधा लोग यथास्थितिवाद के खूंटे से बंधे रहना चाहते हैं लेकिन होता यह है कि तकनीक का विकास उनको खूंटे से आजाद करने के लिए बेताव रहता है । यही जो संघर्ष होता है उसका परिणाम विरोध के तौर पर सामने आता है ।  
हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर हिंदी का प्रभाव काफी बढ़ा है इसकी वजह है उसके उपभोक्ता । दरअसल हुआ यह है कि सोशल मीडिया ने राजनीति से लेकर पत्रकारिता के स्वरूप को बदला है । अब अगर हम खबरों की ही बात करें तो सोशल मीडिया पर भाषाई बदलाव के बाद पाठकों या दर्शकों में भी बड़ा बदलाव लक्षित किया जा सकता है । अगर हम खबर के पाठकों या दर्शकों की बात करें तो यह साफ तौर पर दिखाई देता है । पहले पाठकों को एक सेट ऑफ न्यूज मिलता था लेकिन सोशल मीडिया के फैलाव के बाद स्थिति बदल गई है । सोशल मीडिया ने उसको उल्टा कर दिया है । अब खबरों के इतने स्त्रोत और इतनी वेरायटी मौजूद है कि एक ही तरह के खबरों से पाठकों को आजादी मिली । ट्विटर न्यूजरूम का एजेंडा सेट करने लगा है । सोशल मीडिया पर जो ट्रेंड करता है वह न्यूजरूम का एजेंडा तय करता है । पहले पाठकों को क्या मिलेगा ये संपादक तय करता था और हिंदी में कई संपादक ये कहा करते थे कि खबर वही है जो उनका अखबार छापता है । उस वक्त संपादक इस दंभ में रहा करते थे कि खबर वही जो संपादक चाहे । दरअसल उस दौर में पाठकों से संवाद बिल्कुल नहीं होता था या उनकी रचियों को लेकर कभी कभार सर्वे आदि हो जाते थे । सोशल मीडिया ने यहां भी स्थिति उलट कर रख दी । अब सोशल मीडिया की वजह से पाठकों से बेहतर  संवाद हो रहा है । पाठक अपनी राय पोस्ट कर रहे हैं और उनको अहमियत भी मिल रही है । सोशल मीडिया ने एक और बदलाव किया । सोशल मीडिया ने पत्रकारों को ब्रांड बनाया जो कि ट्रांसफरेबल एसेट होते चले गए । या कह सकते हैं कि ट्रेडेबल असेट हो गए । ट्विटर पर बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई के करीब बीस-बाइस लाख से ज्यादा फ़ॉलोअर है । वो जहां जाएंगे वो साथ जाएंगे । इसका मतलब यह हुआ कि भाषा भी उनके साथ जाएगी । पहले यह अमेरिका में हो रहा था लेकिन इंटरनेट के फैलाव ने इसको भारत में भी संभव बना दिया । इन दोनों के अलावा कई हिंदी के पत्रकारों के भी फॉलोवर लाख से ज्यादा हैं तो यह जो उनके फॉलोवर हैं एक तरीके से उनको पाठक भी हैं । ये पाठक किसी एक भाषा के नहीं हैं लेकिन जब राजदीप सरदेसाई हर रात एक हिंदी फिल्म का गाना ट्वीट करते हैं तो उसके बारे में जानने की इच्छा गैर हिंदी भाषी फॉलोवर को भी होती होगी । तीसरा जो अहम बदलाव देखने को मिल रहा है वह यह है कि अब यह उपभोक्ता तय कर रहा है कि वो किस प्लेटफॉर्म पर या किस भाषा में खबर या अन्य चीजें पढ़े । स्मार्ट फोन के बढ़ते चलन से अब पाठकों को चलते फिरते पढ़ने की आदत बढ़ती जा रही है । बाजार की भाषा में कहते हैं कि उपभोक्ता आन द मूव पढ़ना, देखना चाहता है । अब एक जगह बैठकर पढ़ना या टीवी देखना यूजर के मूड पर है । सहूलियत पर है । अब टीवी या अखबार की बाध्यता नहीं रही । टीवी खराब हो गया या अखबार नहीं आया तो पाठक अब सर्च इंजन के माध्यम से या फिर सोशल मीडिया पर देशदुनिया की हलचलों से अपडेट रहता है । मोबाइल पर हर तरह के ऐप मौजूद हैं जहां पाठक अपनी रुचि की चीजें अपनी पसंदीदा भाषा में देख पढ़ सकता है ।  चंद सालों पहले सोशल मीडिया के बढ़ते कदम के मद्देनजर मोबाइल फर्स्ट का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया था लेकिन अब तो वो आगे बढ़कर मोबाइल ओनली तक पहुंच गया है । यही वजह है कि - अब सभी स्मार्टफोन में स्क्रीन साइज बढ़ा रहे हैं । एप्पल जैसा ब्रांड भी स्क्रीन साइज बढ़ाने को मजबूर हो गया । इसी तरह सोशल मीडिया में सक्रिय कंपनियों को हिंदी में अपार संभावनाएं नजर आईं । धीरे-धीरे सबने हिंदी को अपनाना शुरू किया । अभी हाल ही में ट्विटर ने हैशटैग के लिए भी हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं को अपने प्लेटफॉर्म पर शामिल किया । अब हिंदी में किए गए ट्वीट ट्रेंड कर सकते हैं, करने लगे भी है । अगर आप फेसबुक पर देखें तो भाषा के तौर पर हिंदी को लेकर कई तरह की सहूलियतें दी गई हैं । पांच साल पहले जिस तरह से सोशल मीडिया साइट्स पर लोग रोमन में लिख रहे थे उसमें से ज्यादातर अब नागरी में लिखने लगे हैं ।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि सरकार का धर्म है कि वह काल की गति को पहचाने और युगधर्म की पुकार का बढ़कर आदर करे । दिनकर ने यह बात साठ के दशक में संसद में भाषा संबंधी बहस के दौरान कही थी । अपने उसी भाषण में दिनकर ने एक और अहम बात कही थी जो आज के संदर्भ में भी एकदम सटीक है । दिनकर ने कहा था कि हिंदी को देश में उसी तरह से लाया जाना चाहिए जिस तरह से अहिन्दी भाषी भारत के लोग उसको लाना चाहें । यही एक वाक्य हमारे देश में हिंदी के प्रसार की नीति का आधार है भी और भविष्य में भी होना चाहिए । पिछले साल गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग ने अपने सर्कुलर में कहा था कि सरकारी विभागों के आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट में हिंदी अथवा अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जाना चाहिए । अगर अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जा रहा है तो हिंदी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए । इस सर्कुलर में यह बात साफ तौर पर कही गई है कि अंग्रेजी पर हिंदी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए । हमारा देश फ्रांस या इंगलैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है । विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं लिहाजा यहां एक भाषा का सिद्धांत लागू नहीं हो सकता है । इतना अवश्य है कि राजकाज की एक भाषा होनी चाहिए । इस बात को भी हमारे देश में सक्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने समझा और हिदी को प्रमुखता मिलनी शुरू हो गई । इसके अलावा हिंदी में उनको कारोबारी संभावनाएं नजर आईं, लिहाजा उन्होंने इस भाषा को बढ़ाना शुरू कर दिया । कहने का तात्पर्य यह है कि बाजार ने हिंदी को अपनाया ।

अब अगर साहित्य के लिहाज से देखें तो सोशल मीडिया का श्वेत और श्याम पक्ष दोनों हैं । इसकी तात्कालिकता और सतहीपन इसकी खास कमियां हैं । मनगढंत और काल्पनिक भ्रम, अफवाह, विकृति और विद्रूपता फैलाने में भी इसकी नकारात्मक भूमिका बहुधा उजागर होती है । सोशल मीडिया खासकर फेसबुक ने दो काम किए हैं । एक तो इसने तमाम हिंदी जाननेवालों को रचनाकार बना दिया है । जिसे भी थोड़ी बहुत साहित्य में रुचि है वो लिख कर पोस्ट कर दे रहा है । उनके दोस्त बहुधा उसको लाइक भी कर देते हैं, कई बार पढ़कर कई बार बिना पढ़े । उनकी रचना पर मिली तारीफ उनको भ्रमित भी करती हैं । सोशल मीडिया के लिए यह अच्छा भी है और बुरा भी । अच्छा इसलिए को रचने वाले को मंच मिला । बुरा इस वजह से कि अच्छे बुरे लेखन का भेद मिटता जा रहा है । कई लेखकों को सोशल साइट्स खास कर फेसबुक पर निराशाजनक माहौल दिखाई देता है । उनको लगता है कि इस आभासी माध्यम ने कागज और कलम की भूमिका खत्म कर दी है । वहां स्तरीयता को जांचने का कोई पैमाना नहीं है जिसने भी जो लिखा उसको फौरन पोस्ट कर दिया । उनका मानना है कि इस सुविधा से रचनाशीलता के विकास में बाधा पहुंचती है । इस तर्क के समर्थन में पहल, धर्मयुग आदि पत्रिकाओं का उदाहरण दिया जाता है जहां छपने के लिए लेखक मेहनत करते थे । फेसबुक आदि पर तो यह संभव नहीं है । इस तरह की बात करनेवालों का मानना है कि फेसबुक स्तरहीन रचनाओं के प्रति सहमति बनाने का एक मंच बन गया है । सोशल मीडिया पर इतना ज्यादा बुरा लिखा जा रहा है कि अच्छा दिखता ही नहीं है । उसके लिए हंस जैसी नजर होनी चाहिए जो दूध पी ले और पानी छोड़ दे । सोशल मीडिया पर जिस तरह से वाहवाही का दौर चलता है उससे रचनाओं पर विमर्श नहीं हो पाता है । अच्छा, बहुत अच्छा, कमाल, वाह, शानदार, छा गए जैसी टिप्पणियां लगातार देखने को मिलती हैं । लेखकों को सोशल मीडिया पर अपनी तारीफ सुनने के व्यामोह से उबरना होगा । इसके अलावा सोशल मीडिया पर आत्मानुशासन की सख्त आवश्यकता है । लेखक को टिप्पणी करने के पहले यह सोचना चाहिए कि वो क्या लिख रहा है और उसके क्या निहितार्थ हैं
इससे इतर हिंदी में एक और वर्ग है जो सोशल मीडिया को अभिव्यक्ति का बेहतर माध्यम मानता है । उनका मानना है कि सोशल मीडिया अपने आप को उद्घाटित करने का बेहतर मंच है और वो हिंदी के फैलाव के हित में है । सोशल मीडिया की वजह से हिंदी तो वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुंच ही रही है , साहित्य भी लगातार लोगों तक पहुंचकर स्वीकृति पा रहा है । इस वक्त कई ब्लॉग चल रहे हैं जहां गंभीर साहित्य सृजन हो रहा है । फेसबुक और इंटरनेट के फैलाव का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जहां आपको कबीर सूर से लेकर अब के एकदम नए रचनाकारों की कृतियां एक साथ पढ़ने को उपलब्ध हैं । सोशल साइट्स के फैलाव से साहित्य लिखना आसान हुआ है  । अगर किसी कवि या कहानीकार की रचना किसी कारणवश नहीं छप सकती है तो उसके पास अपने पाठकों तक पहुंचने का एक वैकल्पिक मंच है । सोशल मीडिया भविष्य का माध्यम हैं । दरअसल जो लोग सोशल मीडिया को लेकर सशंकित हैं उनको समझना होगा कि कोई भी चीज पक्का होने के पहले कच्चा ही होता है । इसी तरह से सोशल मीडिया पर साहित्य इस वक्त अपने कच्चेपन के साथ मौजूद है । लेकिन तकनीक का इस्तेमाल हमेशा से भाषा के हित में रहा है । अब अगर हम सोशल मीडिया के एक और उजले पक्ष को देखें तो वह विमर्श और संवाद का एक बेहतरीन मंच है । जिस तरह से हिंदी पट्टी में कॉफी हाउस संस्कृति खत्म हो गई, साहित्यक रुति वाली पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन धीरे-धीरे बंद होता गया ऐसे में फेसबुक ने हिंदी के गंभीर मुद्दों को बहस के लिए एक मंच दिया है । वहां हर तरह के विषय पर बहस होती है । कई बार निष्कर्ष भी निकलता है । वहां हिंदी के सवालों पर टकराहट भी होती है जिसकी गूंज इंटरनेटसे बाहर भी सुनाई देती है । कुल मिलाकर अगर हम देखें तो सोशल मीडिया के फैलाव से हिंदी का हित ही हो रहा है । जरूरत इस बात की है कि हिंदी के लोग इस माध्यम को अपनाएं और वहां अपनी भाषा को लेकर आगे बढ़ें ।


Sunday, September 27, 2015

मुक्तिबोध संचयन

वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने एक बार हिंदी कविता को लेकर बेहद दिलचस्प बात की । उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध की कविताओं के सामने आने के पहले हिंदी कविता के ज्यादातर महत्वूपूर्ण कवि उत्तरप्रदेश से होते थे । उनकी स्थापना के मुताबिक जब मुक्तिबोध की कविताओं ने हिंदी कविता में अपने को मजबूती से स्थापित किया तो उसके बाद से हिंदी कविता में मध्यप्रदेश के कवियों का दबदबा बढने लगा । अपने तर्क के समर्थन में नरेश जी ने उन्होंने अशोक वाजपेयी से लेकर राजेश जोशी और भगवत रावत तक के नाम गिनाए । इस बारे में मुक्तिबोध के एक और मित्र अशोक वाजपेयी से जब मैंने सवाल किया तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि ये बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन कौड़ी है अच्छी । अशोक वाजपेयी ने नरेश सक्सेना की बात को अपने अंदाज में लगभग स्वीकार कर किया । मुक्तिबोध को लेकर हिंदी कविता में लंबे समय से बहस चल रही है । उनकी कविताओं को अनेक तरह से व्याख्यायित किया जा रहा है । उनके निधन के बाद से लगातार उनकी कविताओं को लेकर आलोचकों के बीच विमर्श होता रहा है । डॉ रामविलास शर्मा ने उन्नीस सौ अठहत्तर में प्रकाशित अपनी किताब- नई कविता और अस्तित्ववाद में मुक्तिबोध की कविताओं का विस्तार से मूल्यांकन किया था । अपनी किताब में रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध की कविताओं को अस्तित्ववाद और रहस्यवाद से प्रभावित साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । डॉ शर्मा ने तो मुक्तिबोध को सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी से ग्रस्त बताकर एक धुंध का वातावरण बना दिया । बाद में नामवर सिंह ने डॉ रामविलास शर्मा की मुक्तिबोध को लेकर स्थापना का जबरदस्त विरोध किया । इन दो आलोचकों के बीच इस बात को लेकर लंबे समय तक बहस हुई कि कि मुक्तिबोध की रचनाओं में संघर्ष दिखाई देता है वह उनका अपना संघर्ष है या फिर पूरे मध्यवर्ग का संघर्ष है । कालांतर में अन्य आलोचकों ने रामविलास शर्मा की स्थापनाओं पर सवाल उठाए । मुक्तिबोध पर रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को आलोचक नंदकिशोर नवल उनके संकीर्णतावादी मार्क्सवादी होने का परिणाम करार देते हैं और कहते हैं कि मुक्तिबोध ना केवल मानसिक रोगी नहीं थे बल्कि अपने युग के सर्वाधिक सुगठित व्यक्तित्ववाले रचनाकार थे । यह मुक्तिबोध की कविताओं की ताकत है कि वो अब तक आलोचकों को चुनौती दे रही है । सितंबर उन्नीस सौ पैंसठ के ज्ञानोदय में कवि श्रीकांत वर्मा का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने कहा था अप्रिय सत्य की रक्षा का काव्य रचनेवाले कवि मुक्तिबोध को अपने जीवन में कोई लोकप्रियता नहीं मिली और आगे भी, कभी भी, शायद नहीं मिलेगी । श्रीकांत वर्मा ने अपने उसी लेख में आगे मुक्तिबोध के कवित्व के वैशिष्ट्य को व्याखायित भी किया था । कालांतर में श्रीकांत वर्मा की आशंका गलत साबित हुई और मुक्तिबोध को उनकी मृत्यु के बाद पर्याप्त ख्याति मिली ।  अब भीमिल रही है । पिछले साल उनकी जन्म शताब्दी के मौके पर हफ्ते भर का कार्यक्रम आदि हुए ।
अभी हाल ही में कवि राजेश जोशी ने मुक्तिबोध संचयन का संपादन किया है । इस संचयन में मुक्तिबोध की कविताओं के अलावा उनकी कहानियां और उनका एक उपन्यास विपात्र संकलित है । इस किताब को देखने के बाद यह लगा कि हिंदी में संचयन के प्रकाशन की परंपरा का पूर्णत विकास होना शेष है । संचयन हिंदी में अंग्रेजी के रास्ते आया है जहां सलेक्टेड वर्क्स की लंबी और समृद्धशाली परंपरा रही है । हिंदी में संचयन को बहुत कैजुअली लिया जाता है । अब अगर हम समीक्ष्य संचयन को ही देखें तो इसमें मुक्तिबोध की एक साहित्यक की डायरी से कुछ भी नहीं लिया गया है जबकि मुक्तिबोध के संचयन की कल्पना उन लेखों के बगैर कैसे की जा सकती है । इस किताब में राजेश जोशी ने दस पन्नों की छोटी से भूमिका लिखी है जिसमें मुक्तिबोध से जुड़े प्रसंगों को ज्यादातर अन्य लेखकों के हवाले से कहा गया है । साहित्यक कृतियों के अलावा उनके व्यक्तिगत प्रसंगों की चर्चा है । मुक्तिबोध का चाय प्रेम और गिरे हुए घर से उबलते हुए चाय को उठा लाना दिलचस्प प्रसंग है । इसी तरह शादी के दौरान चाय पीने के लिए उतर जाना और बारात का उनको छोड़कर आगे बढ़ जाना जैसा प्रसंग पाठकों के लिए रुचिकर है । लेकिन ये सब ऐसे प्रसंग है जो पहले ही विस्तार से लिखे जा चुके हैं ।  
संचयन के संपादक राजेश जोशी का आग्रह है कि मुक्तिबोध की कविताओं को उनकी अन्य रचनाओं के साथ मिलाकर पढ़ा जाना चाहिए । जैसे अपनी भूमिका की शुरुआत में ही राजेश जोशी ने एक कविता उद्धृत की है अगर मेरी कविताएं पसंद नहीं/उन्हें जला दो/ अगर उनका लोहा पसंद नहीं/उसे गला दो/अगर उसकी आग बुरी लगती है/दबा डालो/इस तरह बला टालो !/  । राजेश जोशी का आग्रह है कि इस कविता के के साथ आत्म वक्तव्य शीर्षक कविता को मिलाकर पढ़ा जाए तो मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया  और कविता के साथ उनके सरोकारों को समझा जा सकता है । उनकी बेचैनी, उऩके तनाव, उनकी कविता के बार-बार बनते बदलते, कई कई प्रारूप और उलके लंबे होते जाने को कुछ हद तक समझा जा सकता है । लेकिन इस संचयन के संपादक राजेश जोशी ने इस किताब में मुक्तिबोध की कविता- एक टीले और डाकू की कहानी को नहीं रखा । माना जाता है कि इस कविता में पहली बार आत्मसंघर्ष पहलीबार बहुत तीखे रूप में सामने आया था । दरअसल इस पूरी भूमिका में राजेश जोशी बहुधा एक पंक्ति लिखकर पूर्ववर्ती लेखको के मुक्तिबोध पर लिखे को कोट करते हैं । पाठकों की यह जिज्ञासा ये जानने में हो सकती है कि राजेश जोशी मुक्तिबोध के बारे में क्या सोचते हैं । एक कवि अपने पूर्ववर्ती कवि के बारे में क्या सोचता है । लेकिन ऐसा हो नहीं सका । मुक्तिबोध की राजनीतिक कविता के बारे में राजेश जोशी क्या सोचते हैं । इस बात पर प्रकाश डाला जाना चाहिए था कि मार्क्सवादी आलोचना से मुक्तिबोध की क्या शिकायत थी । यह जानना भी दिलचस्प होता कि राजेश जोशी इस बारे में क्या सोचते हैं । इस पूरे संचयन को देखने के बाद यह लगता है कि संपादक ने मुक्तिबोध की रचनाओं का चयन कर पाठकों के सामने पेश कर दिया । अच्छा होता अगर राजेश जोशी अपने इस चयन के आधार को विस्तार से सामने रखते । दरअसल येसंचयन ना होकर मुक्तिबोध की कहानियों, कविताओं और एक उपन्यास का संग्रह कहा जा सकता है जो लगभग साढे पांच सौ पन्नों का है । 

अभिव्यक्ति की आजादी की राजनीति

कन्नड़ के साहित्यकार प्रोफसेर कालबुर्गी की हत्या के बाद दक्षिण भारत खासकर कर्नाटक में साहित्यक विवाद लगातार गहराता जा रहा है । हिंदी जगत में भी जादुई यथार्थवादी कथाकार उदय प्रकाश ने भी इसको एक अवसर की तरह देखते हुए अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर, गर्माने की कोशिश की । साहित्य से जुड़े कुछ लोगों का कहना है कि गर्माने की नहीं भुनाने की कोशिश की । इसी तरह से जनवादी लेखक संघ और चंद लेखकों ने भी इसपर एतराज जताते हुए आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन खास विचारधारा के इन लेखकों की साख इतनी नहीं है कि हिंदी जगह आंदोलित हो सके । खैर ये मुद्दा नहीं है । मुद्दा ये है कि कालबुर्गी की हत्या के बाद कर्नाटक के जो तमाम छुटभैये संगठन हैं, जो हिंदुत्व के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं, उन्होंने भी इसको एक अवसर की तरह देखा और प्रचार पिपासा ने उनको आक्रामक कर दिया । ताजा मामला है कथित तौर पर बजरंग दल से जुड़े एक कार्यकर्ता की धमकी से । बजरंग दल से जुड़े होने का दावा करनेवाले एक शख्स ने कर्नाटक के रैशनलिस्ट माने जाने वाले लेखक के एस भगवान को जान से मारने की धमकी देते हुए एक ट्वीट किया है । खबर के आम होने के बाद पुलिस ने के एस भगवान को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करवा दी । हिंदी जगत के कई उत्साही लेखकों ने इसको फासीवाद के आसन्न खतरे की तरह देखा और इसको केंद्र की सरकार से जोड़कर छाती कूटने लगे । फासीवाद का राग बहुत लंबे समय से भारत में बजाया जा रहा है लेकिन अब तक फासीवाद आ नहीं पाया है । दरअसल फासीवाद-फासीवाद चिल्लाने वाले लोगों को भारतीय लोकतंत्र में आस्था और उसकी ताकत में भरोसा नहीं है । भारतीय लोकतंत्र अब इतना मजबूत हो चुका है कि उसको किसी भी तरह से भटकाना या भरमाना बहुत मुश्किल है । इंदिरा गांधी ने उन्नीस सौ पचहत्तर में एक कोशिश की थी लेकिन देश की जनता ने दो साल में ही उनको सबक सिखा दिया था । अब शायद ही कोई ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाए ।
कर्नाटक या यों कहें कि पूरे दक्षिण भारत में साहित्यिक कृतियों के खिलाफ इस तरह की घटनाएं पहले भी घटती रही हैं । धमकियां आदि भी दी जाती रही हैं लेकिन प्रोफेसर कालबुर्गी की हत्या के बाद खतरा अवश्य बढ़ गया है । एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते यहां हर किसी को अपनी बात कहने का जितना हक है उतना ही उसपर विरोध जताने का हक भी है, लेकिन हत्या करना या कानून को अपने हाथ में लेना बेहद आपत्तिजनक और घोर निंदनीय है । अब अगर हम दक्षिण भारत में इस तरह की बढ़ती घटनाओं की वजहों की तह में जाएं तो लगता है कि वहां की सामाजिक संरचना और कुरीतियां बहुत हद तक जिम्मेदार हैं । वहां के कई लेखकों ने इस सामाजिक विषमता के मद्देनजर अपनी लेखनी से उसपर जोरदार प्रहार किया । लेखकों ने समाज में व्याप्त इन विसंगतियों के लिए धर्म को जिम्मेदार मानते हुए विरोध की ध्वजा थामी । संभव है कि उनको ये बेहतर आधार लगा हो । धर्म के इस विरोध में कई बार तो लेखन की मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार हो गई ।  जैसे अगर हम के एस भगवान की ही बात करें तो उन्होंने 1985 में एक किताब लिखी थी शंकराचार्य एंड रिएक्शनरी फिलॉसफी । इस किताब में उन्होंने शंकराचार्य को जातिवाद की वकालत करनेवाला साबित करने की कोशिश की थी । संस्कृत के श्लोकों के आधार पर उन्होंने प्रतिपादित किया था कि शंकराचार्य दलितों और स्त्रियों के खिलाफ थे । के एस भगवान का कहना था कि शंकराचार्य दलितों और स्त्रियों की शिक्षा के खिलाफ थे । उस वक्त जब उनकी किताब आई थी तब भी उनका विरोध हुआ था । धरने प्रदर्शन हुए थे । उसके बाद भी प्रोफेसर भगवान अपने स्टैंड पर कायम रहे थे और यह सही भी था । हाल ही में उन्होंने फरवरी में एक सेमिनार में कहा कि भगवद गीता के नवें अध्याय को जला दिया जाना चाहिए, क्योंकि उसमें स्त्री, वैश्य, शूद्र को पापी कहा गया है । आरोप है कि अभी हाल ही में सितंबर में एक सेमिनार में भी प्रोफेसर भगवान ने एक सेमिनार में कथित तौर पर कहा कि भगवत गीता पढ़नेवाला आतंकवादी बन सकता है । उनके खिलाफ केस करनेवालों का इल्जाम है कि एक सेमिनार में प्रोफेसर भगवान ने राम और कृष्ण के बारे में भी आपत्तिजनक टिप्पणी की और कहा कि वो अपने जैविक पिता की संतान नहीं थे । इस तरह के वक्तव्य के बाद उनको विरोध हुआ और उनके खिलाफ धार्मिक भावनाएं भड़काने का केस भी दर्ज किया गया । भारत के संविधान में हर किसी को अपनी बात कहने का हक मिला है लेकिन उसी संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा भी तय की गई है । दोनों के बीच एक बहुत ही बारीक सी रेखा है जिसे बहुधा, जोश में लोग लांघा जाता है । इसका परिणाम यह होता है कि परिधि पर बैठे लोगों को केंद्र में आने का मौका मिल जाता है और वो उग्र और हिंसक होने लगते हैं जो कानून सम्मत नहीं है और जिसकी सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है । विचारों की लड़ाई विचार से लड़ी जा सकती है बंदूक से नहीं । बंदूक से विचार को मानने के लिए बाध्य करने का सोवियत रूस और चीन का लंबा इतिहास रहा है जो कि भारत के लिए मुफीद नहीं है । भारत की जनता बार बार इसको ठुकरा भी चुकी है ।
विचारों की लड़ाई का एक उदाहरण गांधी जी के हवाले से समझा जा सकता है । उन्नीस सौ सत्ताइस में एक अमेरिकी लेखिका कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया के नाम से एक किताब लिखी थी जिसमें भारत के बारे में बहुत ही गलत बातें लिखी गई थी । उस किताब के प्रकाशन के बाद विंस्टन चर्चिल बेहद खुश हुए थे और उन्होंने अपनी खुशी का सार्वजनिक इजहार भी किया था। तब महात्मा गांधी ने उस किताब की समीक्षा लिखकर अपना तगड़ा एतराज जताया था । महात्मा गांधी ने तब लिखा था- अगर मिस मेयो भारत में सिर्फ यहां की खुली नालियां और गंदगी देखने के नजरिए से आई थी तो उनकी इस किताब के बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ होगा । पर अगर वो अपने घृणित और बेहद आपत्तिजनक गलत निष्कर्षों को अपनी जीत और महान खोज की तरह देखती हैं तो लेखिका की मंशा जानने के बाद कुछ कहने को शेष नहीं रहता। इस तरह से उन्होंने उस किताब को दो तीन वाक्यों में खारिज कर दिया था और विंस्टन चर्चिल को भी जवाब दे दिया था । विचारों से लड़ने का यह तरीका ही सबसे अच्छा है । तर्कों को तर्कों से काटा जाए । तर्कों अपने विचारों से खारिज किया जाए ।

आज जो लोग अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बीजेपी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को घेरने की कोशिश करते हैं और उनको आजादी के लिए खतरा बताते हैं उनको एक और संदर्भ याद रखना चाहिए । संविधान में पहले संशोधन को लेकर बहुत जोरदार बहस हो रही थी मसला कुछ मौलिक अधिकारों को लेकर संशोधन का था । कई मसलों के अलावा संविधान के अनुच्छेद 19 में जो अभिव्यक्ति की आजादी का प्रावधान है उस पर कुछ अंकुश लगाए जाने की बात हो रही थी । संविधान इसमें जवाहरलाल नेहरू, सी राजगोपालाचारी, अंबेडकर समेत कई नेता इस पक्ष में थे कि अभिव्यक्ति की आजादी पूर्ण नहीं होनी चाहिए । बहस के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि आजाद प्रेस युवाओं के दिमाग में जहर भर रहा है । तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी अकेले ऐसे शख्स थे जिन्होंने इस लड़ाई को लड़ा था और कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी तरह का अंकुश जायज नहीं होगा । कालंतर में इस तथ्य को बेहद चालाकी से दबा दिया गया। दरअसल इसके पीछे की पृष्ठभूमि ये थी कि उन्नीस सौ पचास में क्रास रोड नामक पत्रिका में नेहरू की नीतियों की जमकर आलोचना हुई थी और नेहरू इससे खफा होकर प्रेस पर अंकुश लगाना चाहते थे । उस वक्त की मद्रास सरकार ने क्रास रोड पर पाबंदी लगाई थी । आजाद भारत में ये पहली पाबंदी थी । क्रास रोड इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई थी और यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रोमेश थापर का केस अब भी कई मामलों में नजीर बनता है । अब वक्त आ गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर एक बार फिर से राष्ट्रव्यापी बहस हो जिसमें तथ्यों को समग्रता में रखकर बहस हो और देश किसी ठोस नतीजे पर पहुंचे तभी विचारों की लड़ाई में खून खराबा नहीं होगा ।   

Sunday, September 20, 2015

पर्दे पर 'गुनाहों का देवता'

हिंदी साहित्य की दुनिया में कदम रखनेवालों को या हिंदी साहित्य को पढ़ने की शुरुआत करनेवालों को एक किताब खास तौर पर लुभाती है । ये किताब है गुनाहों का देवता जिसके लेखक हैं धर्मवीर भारती । गुनाहों का देवता एक ऐसा उपन्यास है जिसको हिंदी में सही अर्थों में बेस्टसेलर कहा जा सकता है । उन्नीस सौ उनचास में प्रकाशित इस उपन्यास को अबतक अस्सी या उससे ज्यादा संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । किसी भी पुस्तक मेले में धर्मवीर भारती का ये उपन्यास अच्छी खासी संख्या में बिकता रहा है । सुधा और चंदर की प्रेम कहानी में युवा पाठक अपना अक्श ढूंढता है और उसके पात्रों में अपने को पाता है, यही इस उपन्यास की सफलता की वजह है । हिंदी के इस बेहद लोकप्रिय उपन्यास पर अब एक निजी मनोरंजन चैनल पर धारावाहिक की शुरुआत हो रही है जिसका नाम है एक था चंदर और एक थी सुधा । सुधा और चंदर धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता के मुख्य किरदार हैं और उनकी ही प्रेम कहानी के इर्द गिर्द ये उपन्यास शुरू होकर खत्म होता है । पहले भी साहित्यक कृतियों पर धारावाहिक और फिल्में बनती रही हैं लेकिन गुनाहों का देवता को लेकर हिंदी पट्टी के दर्शकों में खासी उत्सकुकता है । सोशल मीडिया पर भी इसको लेकर खूब चर्चा हो रही है । हिंदी के पाठकों के अलावा आलोचकों में भी इस सीरियल को लेकर उत्सुकता बनी हुई है । फिल्म समीक्षा के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित विनोद अनुपम ने लिखा है कि- गुदगुदी सी हो रही है, अचानक दिखा कि धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता पर धारावाहिक प्रसारण को तैयार है, मन से हट ही नहीं रहा है कि कैसे दिखेंगे सुधा और चंदर । विनोद अनुपम ने हिंदी के उन लाखों पाठकों की आकांक्षा को वाणी दी है जो गुनाहों के देवता के नायक और नायिका सुधा और चंदर की कल्पना करते हुए जवान और प्रौढ हो गए हैं । सुधा और चंदर की रूमानी कहानी को पर्दे पर उतारना एक बड़ी चुनौती है । पिछले पैंसठ साल में इस उपन्यास पर फिल्म बनाने की कई लोगों ने कोशिश की लेकिन सुधा और चंदर के उलझे हुए प्रेम संबंधों को पर्दे पर उतारने की चुनौती किसी निर्देशक ने स्वीकार नहीं की । जहां तक मुझे याद है कि एक बार किसी निर्देशक ने अमिताभ बच्चन और जया बच्चन को लेकर एक थी सुधा और एक था चंदर- फिल्म बनाने का एलान किया था लेकिन वो सिर्फ घोषणा ही रह गई ।
दरअसल धर्मवीर भारती के इस उपन्यास गुनाहों का देवता भावप्रधान है । हलांकि आलोचक गोपाल राय कहते हैं कि गुनाहों का देवता कैशोर भावुकता से भरा उपन्यास है जिसमें प्रेम की उत्कटता भावुकता के स्तर पर दम तोड़ देती है । लिहाजा यह कहा जा सकता है कि इस उपन्यास के भावों और भावुकता को पर्द पर उतारना बहुत मुश्किल काम है । भाव को लिखा जा सकता है, भाव को महसूस किया जा सकता है लेकिन भाव को दृश्यों में उतारकर पेश करना बेहद चुनौती भरा काम है । मुझे लगता है कि इसी कठिन चुनौती को ध्यान में रखते हुए अबतक इस उपन्यास पर कोई फिल्म नहीं बन सकी । हिंदी जगत की उत्सकुता की वजह भी यही है कि धारावाहिक निर्माता ने सुधा और चंदर के भावों को किस तरह से सामने रखा । इलाहाबाद की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस उपन्यास की कहानी बेहद साधारण है लेकिन सुधा औप चंदर के मनोभावों को जिस तरह से धर्मवीर भारती ने पेश किया था वह अद्वितीय है । 

आचार्य पर अद्भुत ग्रंथ

हिंदी की बहुत सारी ऐसी महत्वपूर्ण किताबें हैं जो अब लगभग अप्राप्य हैं, जिसकी वजह से नए जमाने के पाठकों का उनसे और उसके लेखक से परिचय नहीं है । ये ऐसे ग्रंथ हैं जिनके पुनर्प्रकाशन से हिंदी को आगे बढ़ाने में मदद मिलती या फिर हिंदी के पाठकों को समृद्ध करने में मदद मिलती । एक जमाने में काशी नागरी प्रचारिणी, नागिरी प्रचारणी सभा,खडगविलास प्रेस, नवल किशोर प्रेस आदि से इतनी महच्वपूर्ण किताबें छपी थी जो कि इस वक्त लगभग अप्राप्य हैं । पिछले दिनों पं किशोरीदास वाजपेयी की किताब हिंदी शब्दानुसान पढ़ने की जरूरत महसूस हुई । इस किताब को खोजने का प्रयास शुरू हुआ, दिल्ली से लेकर वाराणसी तक के अपने संपर्कों को खटखटाया लेकिन किताब उपलब्ध नहीं हो सकी । बाद में मित्र अरुण माहेश्वरी ने वो पुस्तक उपलब्ध करवाई । हिंदी लिखनेवालों के लिए पंडित किशोरी दास वाजपेयी की यह किताब उतनी ही आवश्यक है जितनी जिंदगी को चलाने के लिए खाना या पानी । हो सकता है मेरी यह तुलना कुछ लोगों को अतिशयोक्ति लगे लेकिन जिस तरह से किशोरीदास वाजपेयी ने हिंदी और अन्य भाषा को जोड़कर शब्दों के उपयोग को सिखाया है वह अद्भुत है । अफसोस कि यह किताब लगभग अनुपलब्ध है । अब संभवत वाणी प्रकाशन से इसके छापने की योजना बन रही है । इसी तरह से कई किताबें हैं जिसका फिर से अगर प्रकाशन किया जाना चाहिए । दूसरी बड़ी समस्या है कि जिन किताबों का फिर से प्रकाशन हुआ उसमें धीरे-धीरे खुद ही बदलाव होते चले गए । जैसे प्रेमचंद का मशहूर उपन्यास गो-दान से गोदान हो गया । जब दस जून उन्नीस सौ छत्तीस में प्रेमचंद का उपन्यास गो-दान छपा था तब गो और दान के बीच हाइफन था । इसके आवरण पृष्ठ पर यह शीर्षक अंकित है. साथ ही नीचे सरस्वती प्रेस, बनारस और हिंदी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई छपा हुआ है । अभी प्रेमचंद साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान कमल किशोर गोयनका के संपादन में प्रकाशित हुई गो-दान में कई दिलचस्प बातें हैं । जैसे कमल किशोर गोयनका ने जनार्दन प्रसाद झा द्विज को उद्धृत करते हुए लिखा है जनार्दन प्रसाद झा द्विज ने अपनी पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास कला में लिखा है कि प्रेमचंद ने इसका नाम गौ-दान रखा था, परंतु मेरे कहने से गौ के स्थान पर गो अर्थात गो-दान कर दिया । अब ये सब हिंदी के पाठकों के लिए दिलचस्प प्रसंग हैं । हलांकि इस प्रसंग में तो विस्तृत शोध की आवश्यकता है कि क्योंकर और कैसे गो-दान से गोदान हो गया । अपनी इस किताब में कमल किशोर गोयनका ने इस बात के पर्याप्त संकेत किए हैं कि प्रेमचंद के इस उपन्यस के मूल पाठ में भी बदलाव हुआ है । यह विषय एक अलग लेख का है, ज्सपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
अभी हाल ही में हिंदी के एक और पुराने  और दुर्लभ ग्रंथ का पुनर्मुद्रण हुआ है । यह है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ । यह किताब आज से करीब बयासी साल पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सत्तरवें वर्ष में प्रवेश के मौके पर उन्नीस सौ तैंतीस में छपा था । दरअसल इस ग्रंथ के छपने के पीछे की भी एक दिलचस्प कहानी है । बात 1932 की है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एक दिन के लिए काशी पधारे थे । उस वक्त काशीनागिरी प्रचारिणी सभा की ओर से उनको एक अभिनंदन पत्र दिया गया था । बात आई गई हो गई थी । कई दिनों बाद शिवपूजन सहाय ने काशी नागिरी प्रचारिणी सभा के मंत्री से चर्चा की कि सभा को केवल मानपत्र देकर ही नहीं रह जाना चाहिए, आचार्य के अभिनंदन के लिए एक सुंदर ग्रंथ का भी प्रकाशन होना चाहिए । सभा ने आचार्य शिवपूजन सहाय के इस प्रस्ताव पर सहमति दे दी और किताब छपने का काम शुरू कर दिया गया । आर्थिक संकट से निबटने के अलावा देश दुनिया के विद्वानों की आचार्यमहावीर प्रसाद द्विवेदी के बारे में राय मंगवाने की भी बड़ी चुनौती थी । काम शुरू हुआ तो आगे चलता चला गया । आचार्य अभिनंदन ग्रंथ के प्रकाशन के लिए इसके कर्ताधर्ताओं ने बेहद बारीकी से योजना बनाई थी । उस वक्त के अखबारों में इस योजना की चर्चा शुरू की गई ताकि इस किताब के बारे में उत्सकुता का एक वातावरण तैयार हो सके । यह योजना काम कर गई थी और हिंदी पट्टी में आचार्य के उपर प्रस्तावित ग्रंथ की चर्चा शुरू हो गई थी । एक समय तो ऐसा आया था कि लगा कि अब इस किताब के प्रकाशन की योजना पर ग्रहण लग जाएगा । जब इस किताब को छापने के लिए सभा के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ तो वो उस वक्त देश के तमाम बड़े और धनवान लोगों के पास आर्थिक सहायता के लिए पत्र भेजा गया लेकिन बड़े-बड़े लोगों ने कोई मदद नहीं की । सबने योजना को अच्छा बताते हुए उसकी तारीफ की लेकिन आर्थिक मदद करने में असमर्थता जाहिर कर दी थी । इसके बाद राजाओं के पास संदेश भेजा गया । अखबारों में चर्चा का एक लाभ यह हुआ कि राजाओं के पास इस योजना की जानकारी पहुंच चुकी थी । उस वक्त के कई राजाओं ने इस किताब को छापने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की । सीतामऊ के राजपरिवार ने ना केवल सौ रुपए की आर्थिक मदद की बल्कि देश भर के राजघरानों से आर्थिक मदद दिलाने में सभा की  सहायता की । उस ग्रंथ की भूमिका में भी इस बात का उल्लेख मिलता है विषम आर्थिक परिस्थिति के कारण हमें आर्थिक सहायता प्राप्त करने में बड़ी अड़चन पड़ी । हमारे उद्देश्यों से सहानुभूति रखते हुए भी बड़े-बड़े श्रीमानों तक ने हमें कोरा उत्तर दे दिया । यदि सीतामऊ के राजकुल ने हमारा हाथ ना पकड़ा होता तो संभवत: हमें यह प्रस्ताव स्थगित कर देना पड़ता । हमारी प्रार्थना पहुंचते ही वहां के विद्या रसिक महाराज महोदय ने सौ रुपए का दान देकर हमें प्रोत्साहित किया । इसके अनंतर वहां के विद्वान राजकुमार ने, जिन्होंने हिंन्दी सेवा का व्रत धारण किया है और जो हिंदी के एक श्रेष्ठ उदयीमान लेखक हैं, अपने कई इष्ट मित्र नरपतियों से हमें सहायता दिलवाई ।अब इस तरह के वाकयों से हिंदी जगत लगभग अपरिचित है । इस तरह के ऐतिहासिक महत्व की किताबों को छापने का काम साहित्य अकादमी या नेशनल बुक ट्रस्ट को करना चाहिए ।

अभी हाल ही में नेशनल बुक ट्रस्ट ने आचार्य द्विवेदी के जन्मस्थान दौलतपुर में सक्रिय संस्था आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति के सौजन्य से हासिल इस दुर्लभ ग्रंथ को फिर से छापा है । दरअसल आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के एक सौ पचासवीं वर्षगांठ पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति, रायबरेली ने इस दुर्लभ ग्रंथ को फिर से छपवाने का बीड़ा उठाया था । जिस तरह से पहली बार इस ग्रंथ को छपने में बाधा आई थी उसी तरह से कई कठिनाइयों का सामना इसके पुनर्प्रकाशन में भी करना पड़ा । साहित्यप्रेमी और पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने भी इसमें पहल की और नेशनल बुक ट्रस्ट इसको छापने के लिए तैयार हुआ । पुनर्प्रकाशित इस ग्रंथ के महत्व को रेखांकित करते हुए आलोचक मैनेजर पांडे ने विस्तार से एक लेख लिखा है । मैनेजर पांडे ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को युगद्रस्टा और युगस्रस्टा करार दिया है । मैनेजर पांडे ने साफ तौर पर कहा है कि आचार्य जी की साहित्य की धारणा बहुत ही व्यापक थी । वे केवल कविता, कहानी, उपन्यास नाटक, और आलोचना को ही साहित्य नहीं मानते थे । उनके अनुसार किसी भी भाषा में मौजूद ज्ञानराशि साहित्य है । द्विवेदी जी की यही धारणा उनके लेखन में भी दिखाई देती है जब वो उस वक्त के लगभग हर विषय पर अपनी लेखनी चलाते नजर आते हैं । उनकी किताब संपत्तिशास्त्र इसका बेहतरीन नमूना है । कहा जाता है कि हिंदी में इस किताब की टक्कर की दूसरी किताब नहीं है । आचार्य अभिनंदन ग्रंथ को देखकर इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि उनके समकालीन उनके बारे में क्या सोचते थे । ये अभिनंदन ग्रंथ हाल के दिनों में छप रहे अभिनंदन ग्रंथ की तरह नहीं है बल्कि यह कहा जा सकता है कि इसमें जिन लोगों की राय है उससे आचार्य की एक लेखक के तौर पर और एक व्यक्ति के तौर पर छवि का निर्माण होता है । इस किताब में मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, वासुदेव शरण अग्रवाल, मौलाना सैयद हुसैन शिबली, संत निहाल सिंह, जार्ज ग्रियर्सन से लेकर महादेवी वर्मा, प्रेमचंद के अलावा महात्मा गांधी की राय भी है । पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने हनुमान प्रसाद पोद्दार के पत्रों को संग्रहित संपादित किया था पत्रों में समय संस्कृति । इसके बाद अब आचार्य अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन हिंदी के लिए एक शुभ संकेत है । हलांकि ये आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति के गौरव द्विवेदी और पत्रकार अरविंद सिंह की पहल पर हुआ है, लेकिन नेशनल बुक ट्रस्ट को इस दिशा स्वतंत्र रूप से खोजबीन कर दुर्लभ ग्रंथों के प्रकाशन की पहल करनी होगी ताकि हिंदी के नए पाठकों को अपने गौरवशाली अतीत से परिचय हो सके ।  

Saturday, September 12, 2015

हास्यास्पद विरोध, लचर दलील

भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन खत्म हो गया । इस तरह के सम्मेलनों की सार्थकता को लेकर पिछले हफ्ते भर से सवाल खड़े किए जा रहे हैं । एक खास वर्ग और खास विचारधारा के लेखकों के द्वारा । इन सवालों को विदेश राज्य मंत्री वी के सिंह के कथित बयान ने और हवा दे दी । खबरों के मुताबिक वी के सिंह ने कहा था कि इस बार का सम्मेलन पूर्व के सम्मेलनों से जुदा है । पहले साहित्यकार लोग आते थे, खाते-पीते थे और पर्चा पढ़कर चले जाते थे । उनके मुताबिक इस बार भाषा पर बात होनी थी साहित्य और साहित्यकारों पर कम, लिहाजा उनको नहीं बुलाया गया । बाद में उन्होंने अपने इस बयान का खंडन करते हुएमीडिया पर उसको तोड़-मरोड़कर पेश करने का आरोप जड़ दिया । खैर चाहे जो भी हो लेकिन जनरल वी के सिंह के उक्त बयान के बाद विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर विरोध तेज हो गया था, खासकर सोशल मीडिया आदि पर सक्रिय लेखकों ने छाती कूटनी आरंभ कर दी थी । विरोध में मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ दी गई, इस तरह की शब्दावलियों का प्रयोग किया जैसी शब्दावलियां इस्तेमाल करने के पहले जाहिलों और अनपढ़ों को भी हिचक होती है । फेसबुक पर भक्तों से भाषा की मर्यादा की अपेक्षा करनेवालों ने मर्यादा तार-तार कर दी । दरअसल यह एक पुरानी कहावत है कि अगर किसी का चौबीसों घंटे विरोध करोगे तो उसके बहुत सारे गुण-अवगुण तुम्हारे अंदर भी आ जाएंगे । भक्तों के विरोधियों के साथ भी यही हुआ । वो वैसी ही भाषा बोलने-लिखने लग गए । इस बार अगर सरकार ने तय किया था कि विश्व हिंदी सम्मेलन में साहित्य पर कम भाषा पर ज्यादा बात होगी तो इसमें गलत क्या था । भाषा के प्रचार प्रसार के लिए तकनीक से जुड़ने पर विमर्श होने में बुराई क्या है । दरअसल ललबबुआओं को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उद्धाटन सत्र को संबोधित करने से दिक्कत थी । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निजी हमले हुए । उनकी कविताओं को लेकर तंज कसे गए । यह सब सही है लेकिन यहां पर आग्रह सिर्फ इतना है कि किसी भी विरोध के पहले इतिहास बोध का ज्ञान होना आवश्यक है,अन्यथा विरोध खोखला लगता है या फिर वो व्यक्तिगत कुंठा की अभिव्यक्ति मात्र होकर रह जाती है । विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन को लेकर हो हल्ला मचानेवालों को यह याद दिलाना जरूरी है कि जब पहला विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर में हुआ था तब उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी सम्मेलन के उद्धाटन सत्र को 10 जनवरी 1975 को संबोधित किया था । इस बात का या तो मोदी का विरोध करनेवालों को ज्ञान नहीं है या फिर वो सुविधानुसार भुला देने का खेल खेल रहे हैं । दोनों ही स्थिति चिंताजनक है । अज्ञानता तो फिर भी कम खतरनाक है लेकिन अगर जानबूझकर लोगों को भरमाने के लिए तथ्य छिपाए जा रहे हैं तो यह अपेक्षाकृत ज्यादा खतरनाक है । दरअसल एक खास विचारधारा के लोगों कि यह खूबी है जिसमें वो तथ्यों को छिपाकर विरोध का खेल खेलते हैं । अश्वत्थामा हतो नरो के बाद शंख बजाकर द्रोणाचार्य पर हमला करने की नीति का अनुसरण करते हैं । उन्हें यह याद रखना चाहिए कि धर्मराज युधिष्ठिर के दामन पर सिर्फ वही एक दाग है ।
विश्व हिंदी सम्मेलन के विरोधियों के पेट में इस बात को लेकर भी दर्द हो रहा है कि अमिताभ बच्चन को क्यों बुलाया गया । ये तो अच्छा हुआ कि अमिताभ बच्चन के दांत दर्द ने उनके विरोधियों के पेट दर्द को ठीक कर दिया । अमिताभ बच्चन को विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन में एक सत्र में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था । अंतिम समय में उनकी तबीयत खराब होने की वजह से वो नहीं आ पाए । तबतक उनपर आरोपों की बौछार शुरू हो गई थी ।  ये कहा गया कि उनका हिंदी से क्या लेना देना । पिता की कविताओं को महफिलों में पढ़कर पैसे कमाने से लेकर भांड आदि तक कहा गया । सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय एक अध्यापक-लेखक ने कहा कि- हिंदी साहित्य में अभिनेता अमिताभ बच्चन के योगदान के बारे में गूगल से लेकर राष्ट्रीय पुस्तकालय तक पर कहीं कोई रचना नहीं मिलेगी । इसके बावजूद उनको मोदी सरकार ने दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन सत्र में आमंत्रित किया है । यह संकेत है कि मोदी जी की निष्ठा साहित्य में नहीं मुंबईया सिनेमा में है । अब इतने विद्वान लेखक को क्या बताया जाए कि ये विश्व हिंदी साहित्य सम्मेलन नहीं था । मैं यह मानकर चलता हूं कि उनको इतना तो ज्ञान होगा ही कि साहित्य और भाषा में थोड़ा फर्क तो है । रही बात अमिताभ बच्चन के हिंदी साहित्य में योगदान की । ना तो अमिताभ बच्चन ने और ना ही इस वक्त की सरकार ने कभी ये दावा कि बच्चन साहब बड़े साहित्यकार हैं । पर हिंदी के प्रचार प्रसार को लेकर अमिताभ के प्रयास सराहनीय है । अमिताभ बच्चन का विरोध करनेवालों को मालूम होना चाहिए कि अमिताभ बच्चन अब भी देवनागरी में ही फिल्मों की स्क्रिप्ट पढ़ते हैं, जिसका चलन बॉलीवुड में अब खत्म हो गया है । सारी हिंदी फिल्मों के डॉयलॉग रोमन में लिखे जाते हैं और अभिनेता और अभिनेत्री उसको ही पढ़ते हैं । ऐसे माहौल में अमिताभ बच्चन का देवनागरी को अहमियत देना काबिले तारीफ है । दरअसल अमिताभ बच्चन को जिस सत्र में बोलना था उसका विषय था- अच्छी हिंदी कैसे बोलें । आज अमिताभ बच्चन के उच्चारण और कठिन से कठिन हिंदी शब्दों को सहजता के साथ बोलकर लोकप्रिय बना देने की कला का सानी नहीं है । कौन बनेगा करोड़पति में उन्होंने हिंदी के उन लुप्तप्राय शब्दों को संजीवनी दे दी जिसका प्रयोग तो अब हिंदी के साहित्यकार भी नहीं करते हैं । पंचकोटि जैसा शब्द एक बार फिर से चलन में आ गया । अमिताभ बच्चन के विरोध को देखकर जोहानिसबर्ग में हुए नवें विश्व हिंदी सम्मेलन में मॉरीशस के कला और संस्कृति मंत्री मुकेश्वर चुन्नी का भाषण याद आ गया । मॉरीशस के कला और संस्कृति मंत्री मुकेश्वर चुन्नी ने ये माना था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में बॉलीवुड फिल्में और टीवी पर चलनेवाले सीरियल्स का बहुत बड़ा योगदान है उन्होंने इस बात को स्वीकार किया था कि उनकी जो भी हिंदी है वो सिर्फ हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स की बदौलत है जब वो हिंदी में बोल रहे थे तो उनका सेंस ऑफ ह्यूमर भी जबरदस्त था , भारतीय राजनेताओं की तरह जबरदस्ती ओढे हुए गंभीरता के आवरण से एकदम अलग चुन्नी ने अपने भाषण में कहा कि वो किसी और कार्यक्रम के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर थे और उन्हें विश्व हिंदी सम्मेलन में आना पड़ा इस वजह से उनके अधिकारियों को उनका भाषण तैयार करने का मौका नहीं मिला पाया, लिहाजा वो हिंदी में बगैर किसी नोट्स के बोले थे चुन्नी ने  फिल्मों और टेलीवीजन सीरियल्स के जमकर तारीफ की और कहा कि हिंदी के फैलाव में सबसे ज्यादा योगदान उनका ही है जोहानिसबर्ग में तीन दिन तक कई अहिंदी भाषी लोगों से बातचीत के बाद मुझे भी यह लगा था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में फिल्मों का बहुत योगदान है । दरअसल फिल्मी कलाकारों को लेकर हिंदी के वामपंथी लेखक कभी संजीदा नहीं रहे । फिल्म वालों को बुर्जुआ संस्कृति को सोषक मानकर उनकी लगातार उपेक्षा की जाती रही । हिंदी फिल्मों के बड़े से बड़े गीतकार को हिंदी का कवि नहीं माना गया जबकि विचारधारा का झंडा उठाकर घूमनेवाले औसत कवियों को महान घोषित कर दिया गया । ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान समारोह में भी अमिताभ बच्चन को बुलाने को लेकर विरोध हुआ था लेकिन तब भी हिंदी समाज ने चंद लेखकों के विरोध को खापिज कर दिया था, अहमियत नहीं दी थी ।
विश्व हिंदी सम्मेलन का विरोध करनेवाले इन्हीं छोटी चीजों में उलझकर रह गए । इस बात पर सवाल खड़े होने चाहिए कि सत्रों के वक्ताओं का चयन किस आधार पर हुआ । उन वक्ताओं की क्या विशेषता रही है । सवाल इस बात पर खड़े किए जाने चाहिए कि पिछले नौ सम्मेलनों में जो प्रस्ताव पारित किए गए थे उनका क्या हुआ । हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए सरकार की तरफ से क्या प्रयास किए जा रहे हैं । हिंदी के युनिवर्सल फांट आदि को लेकर सरकार क्या कर रही है । दरअसल तथ्यों के आधार पर विरोध करने के लिए मेहनत की आवश्यकता है, गंभीर सवालों से मुठभेड़ के लिए गंभीरता से अध्ययन की भीआवश्यकता होती है  । फेसबुक आदि पर जिस तरह से अभिव्यक्ति की आजादी की अराजकता है उसमें तो बगैर तथ्यों के सिर्फ हवाबाजी के आधर पर विरोध होता है जिसका कोई अर्थ नहीं होता है बल्कि उस तरह का विरोध हास्यास्पद हो जाता है । और विरोध जब हास्यास्पद होते हैं तो विरोध करनेवाले हास्य के पात्र बन जाते हैं । आग्रह यही है कि खुद को हास्यास्पद ना बनाएं ।