Translate

Sunday, May 27, 2012

इंदिरा गांधी के बहाने

भारतीय राजनेताओं में महात्मा गांधी के बाद इंदिरा गांधी लेखकों और राजनीति टिप्पणीकारों की पसंद हैं । उनपर प्रचुर मात्रा में लिखा गया और अब भी लिखा जा रहा है । महात्मा गांधी अपने विचारों को लेकर लेखकों को चुनौती देते हैं वहीं इंदिरा गांधी अपनी राजनीति और अपने निर्णयों और उसके पीछे की वजह सें लेखकों के लिए अब भी चुनौती बनी हुई है । इंदिरा गांधी पर एक अनुमान के मुताबिक सौ के करीब किताबें लिखी जा चुकी हैं जिनमें कैथरीन फ्रैंक, इंदर मल्होत्रा और पुपुल जयकर आदि प्रमुख हैं । मशहूर पत्रकार और लंबे समय तक न्यूजवीक और न्यूयॉर्क टाइम से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रणय गुप्ते ने इंदिरा गांधी की राजनीतिक जीवनी लिखी है- मदर इंडिया, अ पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ इंदिरा गांधी । तकरीबन छह सौ पन्नों में लिखी गई इस किताब में आजाद भारत की सबसे जटिल राजनीतिक शख्सियत इंदिरा गांधी के दर्द गिर्द भारतीय राजनीति का भी द्स्तावेजीकरण किया गया है । इंदिरा गांधी की इस किताब के बारे में लेखक का मानना है कि यह सामान्य पाठकों के लिए है खासकर उन विदेशी फाठकों के बारे में जो समकालीन भारतीय इतिहास में रुचि रखते हैं । इसमें इंदिरा गांधी का जीवन तो है ही साथ ही साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन और बढ़ती जनसंख्या जैसी समस्या पर भी लेखक ने विस्तार से लिखा गया है । ये दोनों विषय़ इंदिरा गांधी के लिए बेहद अगम थे । जब पूरे विश्व में शीत युद्ध चल रहा था तो उस वक्त इंदिरा गांधी ने बेहद संतुलन और राजनैतिक कौशल के साथ अमेरिका और रूस के खेमों से अलग हटकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन को मजबूती देकर विश्व नेता के तौर पर अपनी छवि मजबूत की । इस किताब में जनसंख्या नियंत्रण पर इंदिरा गांधी की नीतियों को प्रणय ने कसौटी पर कसा है और बहुधा आलोचनात्मक दृष्ठि के साथ ।

इमरजेंसी इंदिरा गांधी के जीवन का काला दाग है । 1975 में जब इंदिरागांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के बाद देश में लोकतंत्र को खत्म करने की ठानी तो पूरा देश उनके खिलाफ एक जुट हो गया । ट्रांसफॉरमिंग डेमेक्रेसी नाम के अध्याय में प्रणय गुप्ते ने मिनट दर मिनट का हवाला देते हुए पूरे घटनाक्रम को परखा है । इंदिरा गांधी ने किन परिस्थितियों में इमरजेंसी लगाने का फैसला लिया और कौन कौन से सलाहकार थे जिनकी सलाह पर लोकतंत्र पर हमले की साजिश रची गई । इमरजेंसी में हुए ज्यादतियों के अलावा उस दौर में किस तरह से जयप्रकाश नारायण ने संघर्ष का ताना बाना बुना, उसका भी दस्तावेजीकरण है इस किताब में । 1936 में जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस की नीतियों से मतभेद होने के बाद पार्टी से इस्तीफा दे दिया था लेकिन करीब 40 साल के बाद फिर जब जयप्रकाश नारायण को लगा कि देश का लोकतंत्र खतरे में है  तो उन्होने मोरारजी देसाई के साथ मिलकर जनता मोर्चा बनाया और संघर्ष का बिगुल फूंक दिया। इस किताब में प्रणय गुप्ते ने बेहद बारीकी से उस दौर की राजनीति को पकड़ते हुए उसका विश्लेषण किया है ।

इस किताब में इंदिरा गांधी के विचारों को उनके दोस्तों के हवाले से, उनको लिखे पत्रों के हवाले से और उपलब्ध सामग्री के आधार सामने रखा गया है । लेखक खुद मानते हैं कि यह किताब दूसरों के शोध पर आधारित है । लेकिन उन्नीस सौ चौरासी में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में जो वातावरण बना था उसके गवाह लेखक खुद बने हैं । उस वक्त उन्होंने देशभर में दौरा किया, पंजाब में लंबा वक्त बिताया और सिखों के मनोविज्ञान को समझा और फिर उन अनुभवों के आधार पर संकट के उन क्षणों को याद किया है । मोटो तौर पर लेखक ने इंदिरा गांधी की इस जीवनी को पांच भागों में बांटा है । शुरुआत उनकी हत्या और बाद के हालातों से की गई है । दूसरे भाग में उनके किशोरावस्था से लेकर फिरोज गांधी से उनके प्रेम विवाह और फिर उनसे अलगाव की गाथा है । तीसरे भाग में इंदिरा गांधी की राजनीति शिक्षा से लेकर पार्टी में उनके ताकतवर होकर उभरने के कालखंड को परखा गया है । इन अध्यायों में प्रणय गुप्ते ने इस दौर के नेताओं के बयानों और बाद के लेखकों को उद्धृत करके इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व को सामने लाया है । चौथे भाग में इंदिरा गांधी के शक्तिशाली नेताओं से टकराव और उनकी जीत के बाद खुद को देश की राजनीति की केंद्रीय धुरी बनने की कहानी है । इसी अध्याय में इंदिरा गांधी की राजनीति के काले चेहरे इमरजेंसी के बारे में विस्तार से वर्णन है कि किन परिस्थितियों में वो इमरजेंसी तोपने पर मजबूर हुई और फिर किन हालातों में उनको लोकतंत्र के सामने मजबूर होकर हथियार डालना पड़ा ।

प्रणय गुप्ते की इस किताब में इंदिरा गांधी के बारे में नया कुछ भी नहीं है लेकिन जिस तरह से इंदर मल्होत्रा से अपनी किताब में तथ्यों को प्रधानता दी है और कैथरीन फ्रैंक ने अपनी किताब को सनसनीखेज बनाया था उससे अलग हटकर प्रणय गुप्ते ने वस्तुनिष्ठता के साथ घटनाओं, तथ्यों और उपल्बध सामग्री को एक जगह इकट्ठा कर अपने सामान्य पाठकों के लिए किताब के लिखने के उद्देश्य में सफलता पाई है । इस किताब में घटनाओं औप प्रसंगों के दुहराव को रोकने के लिए सख्त संपादन की जरूरत है ।

Thursday, May 24, 2012

दक्षिण में कमजोर होती कांग्रेस

कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में यूपीए ने लगातार आठ साल पूरे कर लिए । लेकिन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की हालत अच्छी नहीं है । गिनती के चंद राज्यों में कांग्रेस की सरकार है । हालिया विधानसभा चुनावों में पार्टी की उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा विधानसभा चुनावों में करारी हार हुई । हार के बाद एंटनी कमेटी ने उसके वजहों पर माथापच्ची की और पार्टी अध्यक्ष अपनी रिपोर्ट सौंप दी । रिपोर्ट में नेताओं के बेतुके बयानबाजी, बड़बोलापन को उत्तर प्रदेश में हार के लिए जिम्मेदार माना गया है लेकिन जो एक वजह तीनों जगह हार की बनी वो है गलत उम्मीदवारों को टिकट दिया जाना । दूसरी तरफ दिल्ली के नगर निकाय चुनाव में भी कांग्रेस का एक तरह से सफाया हो गया । लेकिन उस हार के लिए बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस खुद जिम्मेदार है । पार्टी में उस हार के बाद से सर फुटौव्वल जारी है । लेकिन उत्तर भारत के इन राज्यों में चुनावी हार के शोरगुल के बीच कांग्रेस को दक्षिणी राज्यों में पार्टी की लगातार होती बुरी गत की चिंता है, इसके संकेत भी नहीं मिल रहे हैं । कुछ मौकों को छोड़कर दक्षिण हमेशा से परंपरागत रूप से  कांग्रेस के पक्ष वाले राज्य रहे हैं । इंदिरा गांधी भी अपने सबसे बुरे दौर में आंध्र प्रदेश के मेढक से चुनाव लड़ी थी । उसी तरह सोनिया गांधी ने भी उत्तर प्रदेश के अलावा कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ा था । लेकिन अगर राज्यवार विश्लेषण करें तो दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है । दक्षिणी राज्यों से कांग्रेस के पास चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, के कामराज और जी के मूपनार जैसे मजबूत नेता हुए । लेकिन तमिलनाडू (उस वक्त के मद्रास)में भाषाई आधार पर 1962 के हिंसक आंदोलन के बाद से सूबे में कांग्रेस लगभग खत्म सी हो गई है । कभी करुणानिधि के डीएमके तो कभी जयललिता के एआईएडीएमके की उंगली पकड़कर कुछ सीटें हासिल कर लेती है । कांग्रेस पार्टी ने तमिलनाडू में अपनी स्थिति सुधारने की कोई कोशिश की हो ऐसा सतह पर तो दिखाई देता नहीं है । मूपनार तमिलनाडू से आखिरी मजबूत कांग्रेंसी नेता थे । उनको भी पार्टी संभाल नहीं पाई और अब चिंदबरम जैसे नेता तो हैं लेकिन कोई जमीनी नेता नहीं दिखता जो जयललिता या करुणानिधि को टक्कर दे सके । पांडिचेरी में भी पार्टी की हालत कमोबेश एक जैसी है ।

आंध्र प्रदेश में दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया और बयालीस में से तैंतीस सीटें जीती । आंध्र प्रदेश में वाई एस राजशेखर रेड्डी कांग्रेस के खेवनहार बने। राजशेखर रेड्डी के मुख्यमंत्री रहते उनके बेटे जगन रेड्डी पर अकूत दौलत कमाने का आरोप लगा । सीबीआई इसकी जांच कर रही है, हो सकता है जगम मोहन रेड्डी गिरफ्तार भी हो जाएं । राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद आंध्रप्रदेश में कांग्रेस बिखर गई । पार्टी आलाकमान उनके बेटे जगन रेड्डी की महात्वाकांक्षाओं को समझने में गलती कर बैठी और उसके खिलाफ मोर्चा खोलकर पार्टी के लिए मुसीबत मोल ले ली । आज की तारीख में आंध्र प्रदेश की राजनीति में जगन एक मजबूत प्लेयर है । हो सकता है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले चंद सीटों के लिए कांग्रेस जगन से समझौता कर लेकिन उस संभावित समझौते से जगन की ही ताकत बढ़ेगी, कांग्रेस पार्टी और आलाकमान की तो कम होगी । आंध्र के हालात को समझने में सिर्फ जगन ही नहीं बल्कि चिरंजीव और तेलंगाना के मुद्दे पर भी कांग्रेस आलाकमान बुरी तरह से असफल रहा । केंद्रीय नेतृत्व चिरंजीव को तो साथ ले आए लेकिन बुरी तरह से बेइज्जत करने के बाद उनको राज्यसभा में लेकर आए । उसी तरह तेलंगाना के मुद्दे को चिदंबरम ने एक बयान में लगभग नए राज्य के गठन की बात मान ली थी । बाद में उससे पलटने से पार्टी की खासी किरकिरी हुई । यह सब इस वजह से हो रहा है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कड़े फैसले नहीं ले रहा या फिर उनके फैसलों पर अमल नहीं हो पा रहा । इंदिरा गांधी पर तानाशाह होने का आरोप लगता है लेकिन उनके वक्त किसी भी पार्टी क्षत्रप की औकात नहीं थी कि केंद्रीय नेतृत्व के फैसले को हल्के में ले ले । जब तेलंगाना में जबरदस्त हिंसा हो रही थी तो केंद्र की ओर से बातचीत की पहल हो रही थी लेकिन कोई भी केंद्रीय नेता आंदोलनकारियों के बीच जाने की हिम्मत नहीं कर पाया था । इस मामले में इंदिरा गांधी के साहस और दूरदर्शिता की कमी खलती है । 1965 की बात है जब 26 जनवरी को अंग्रेजी की जगह हिंदी को राष्ट्र भाषा का स्थान लेना था । उलके विरोध में तमिलनाडू में जबरदस्त हिंसा शुरू हो गई थी । उस वक्त के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को ये भरोसा था कि वक्त के साथ आंदोलन थम जाएगा । हिंसा और कांग्रेस विरोध इतना था कि कामराज जैसा बड़ा कांग्रेसी नेता भी वहां जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे और दिल्ली में बैठे थे । उसी वक्त इंदिरा गांधी ने तय किया और प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को बिना बताए मद्रास पहुंच गई । वहां जाकर उन्होंने स्थानीय नेताओं से बात की और उन्हें ये भरोसा दिलाने में कामयाब हो गई कि केंद्र सरकार तमिलनाडू की जनता को विश्वास में लिए बगैर कोई कदम नहीं उठाएगी । इंदिरा गांधी के वहां पहुंचते और स्थानीय नेताओं से बातचीत के फौरन बाद हिंसा रुक गई । देश-विदेश में इंदिरा के इस कदम की तारीफ हुई थी । लेकिन जब तेलंगाना जल रहा था तो कांग्रेस के किसी नेता में यह साहस नहीं था कि वो आंदोलनकारियों के बीच जाकर उनसे बात कर उनका भरोसा जीतें । लिहाजा आंध्र प्रदेश के तेलांगना इलाके में पार्टी बेहद कमजोर हो गई है । रही सही कसर आंध्र के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी ने पूरी कर दी है । उन्हें तो क्लू लेस चीफ मिनिस्टर तक कहा जाने लगा है ।

यही हालत कर्नाटक की भी है । वहां बीजेपी में घमासान मचा है और पार्टी नेताओं पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे है उस स्थित में वहां कांग्रेस आसानी से कम मेहनत से सत्ता में वापस आ सकती है । लेकिन कांग्रेस के नेता हालात से फायदा उठाने की बजाए एक दूसरे की जड़ें काटने में लगे हैं । वहां भी आलाकमान जमीन से जुड़े नेताओं को तवज्जो ना देकर डी के शिवकुमार और बी के हरिप्रसाद जैसे हवाई नेताओं की सलाह पर फैसले कर रहा है । कुछ दिनों पहले इस तरह की खबरें आई थी क बार फिर से विदेश मंत्री एस एम कृष्णा को कर्नाटक की कमान सौंपी जाएगी। अगर ऐसा होता है तो सिद्धरमैया, बी एल शंकर, कृष्णा बायरे गौड़ा और शरण प्रकाश जैसे जमीनी नेताओं से पार्टी को सहयोग मिल पाएगा इसकी उम्मीद कम ही है । आज वहां जरूरत इस बात की है कि कृष्णा जैसे बुढाते नेताओं की बजाए शंकर और बायरे गौड़ा जैसे नेताओं को आलाकमान मजबूती से आगे बढ़ाए । नहीं तो येदुरप्पा की सत्ता वापसी की तड़प और बेल्लारी बंधुओं की बेहिसाब दौलत फिर से भारतीय जनता पार्टी को सूबे में सत्तारूढ कर सकती है ।

केरल के पिछले विधानसभा चुनाव में बमुश्किल कांग्रेस की सरकार बन पाई थी । इसी के आधार पर कांग्रेस को लोकसभा चुनाव की तैयारी करनी चाहिए । हलांकि पार्टी के नेता ओमान चांडी की क्षमताओं पर कोई शक नहीं है लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने मुस्लिम लीग के सामने जो समझौतावादी चेहरा दिखाया है वह अच्छा संकेत नहीं है । मुस्लिम लीग को एक मंत्रिपद देने के उनके फैसले पर पार्टी के अंदर गहरा असंतोष है । अब वक्त आ गया है कि सोनिया गांधी पार्टी को लेकर कुछ कड़े फैसले लें और असंतुष्ट नेताओं के मामलों में इंदिरा गांधी की तरह कड़ा रुख अख्तियार करे वर्ना उत्तर भारत में जो हश्र पार्टी का हुआ वही दक्षिण भारत में दुहराया जा सकता है । तीन साल पूरे होने के मौके पर सोनिया ने इस बात के संकेत अवश्य दिए हैं ।


  

Saturday, May 19, 2012

रिश्तों की गर्माहट का संग्रह

चौथी दुनिया में लगभग तीन साल से ज्यादा से लिख रहे अपने स्तंभ में कविता और कविता संग्रह पर बहुत कम लिखा । साहित्य से जुड़े कई लोगों ने शिकायती लहजे में इस बात के लिए मुझे उलाहना भी दिया । कईयों ने कविता की मेरी समझ पर भी सवाल खड़े किए । दोनों चीजें जायज हैं । शिकायत भी लाजिमी है क्योंकि इतने लंबे समय से हर हफ्ते लिखे जाने वाले स्तंभ में मैंने दो या तीन बार कविता पुस्तकों की चर्चा की । जहां तक समझ की बात है वो भी बहुत हद तक सही ही है । मेरी कविता में इस वजह से रुचि नहीं है या फिर समझविकसित नहीं हो पाई कि क्योंकि जिस तरह की ज्यादातर कविताएं पिछले तीन-चार दशकों में लिखी गई वो या तो बहुत दुरुह हैं या फिर उसमें बेहद सपाट बयानी है । दोनों हालत में कविता का जो रस होता है वह गायब है, लिहाजा उसको समझना कम से कम मेरे लिए आसान नहीं है । उस तरह की कविताओं में क्रांति की, यथार्थ का, सामाजिक विषमताओं का इतना ओवरडोज है कि वह आम हिंदी पाठकों से दूर होती चल गई । यह अनायास नहीं है कि आज कविता के पाठक क्यों कर कम होते जा रहे हैं । क्यों कवि सम्मेलनों का आयोजन सिमटता चला जा रहा है । जो हो भी रहे हैं वो दस बीस कवियों के बीच बैठकर एक दूसरे की कविताओं को सुन लेने भर जैसा आयोजन होता है । पाठकों और कविता प्रेमियों से कविता दूर होती चली जा रही है । मुझे जो वजह समझ में आती है वह यही है कि कविता में जो रस तत्व होता था या जिसको सुनना अच्छा लगता था वह यथार्थ की बंजर जमीन पर सूख गया । लिहाजा कविता में एक रूखापन सा आ गया । कविताएं नारेबाजी में तब्दील हो गई । कविताएं क्रांति करवाने में जुट गई । मेरे तर्कों को कविता प्रेमी यह कह कर खारिज करने की कोशिश करेंगे कि यह बहुत पुरना तर्क है  और तुकांत और अतुकांत कविताओं को लेकर उठे विवाद में ये तर्क लंबे समय से दिए जाते रहे हैं । चलिए अगर एक बारगी यह मान भी लिया जाए तो कि तर्क पुराने हैं और उसकी बिनाह पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है तो फिर उन आलोचकों को मैं चुनौती देता हूं कि वो इस बात की खोज करें और हिंदी साहित्य को यह बताएं कि कविता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है । मैं यहां जानबूझकर लोकप्रियता शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि जन और लोक की बात करनेवाले कवियों और आलोचकों ने ही कविता को लोकप्रिय होने से रोक दिया है । कविता को शोध आधारित कथ्य और अति बौद्धिक बनाने के चक्कर में यथार्थ से भर दिया गया । इसी अति बौद्धिकता और भोगे हुए यथार्थ ने कविता को लोक और जन से दूर कर दिया और उसको किताबों में या फिर आलोचकों के लेखों का विषय बना दिया । अंग्रेजी के कवि विलियम वर्ड्सवर्थ का भी मानना था कि पॉएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरपुल फीलिंग्स रीकलेक्टेड उन ट्रैंक्विलिटीज ।
काफी दिनों पहले मुझे कवि मित्र तजेन्दर लूथरा के घर पर आयोजित छोटी से कवि गोष्ठी में जाने का अवसर मिला था । जिसमें विष्णु नागर, मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई, पंकज सिंह, सविता सिंह, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, राजेन्द्र शर्मा समेत कई दिग्गज कवियों को सुनने का अवसर मिला था। उस कवि गोष्ठी में कुछ कवियों को छोड़कर वैसी ही दुरूह कविताएं सुनने को मिली । मैं उन कवियों का नाम लेकर नाहक विवाद खड़ा नहीं करना चाहता लेकिन कई कवियों की कविताएं तो मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आई थी । मैं उनकी कविताओं को नहीं बल्कि अपनी समझ को इसके लिए जिम्मेदार मानता हूं । हां उस कवि गोष्ठी में ही कई कवियों की कविताएं बेहतरीन थी और समझ में आनेवाली भी थी । मैं उन कवियों का भी नाम नहीं ले रहा हूं क्योंकि इससे भी एक अलग तरह का खतरा है । हिंदी साहित्य की राजनीति को जाननेवालों के लिए उस खतरे को समझना आसान है । मैं यहां सिर्फ एक कवयित्री का नाम ले रहा हूं जिनकी कविताएं मुझे पसंद आई थी- उनका नाम है ममता किरण । मैं उनकी कविताओं का जिक्र चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में पहले भी कर भी चुका हूं । ममता किरण का नाम मैंने जरूर सुना था लेकिन कविता की राजनीति और उसका भविष्य तय करनेवालों की सूची में कभी उनका नाम देखा-पढ़ा नहीं था । अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो पहली कवि गोष्ठी में उन्होंने स्त्री और नदी नाम की कविता का पाठ किया था । कविता मुझे पसंद आई । गोष्ठी खत्म होने के बाद मैं उनको बधाई देना चाहता था लेकिन किन्हीं वजहों से वह संभव नहीं हो पाया । छह आठ महीने बाद एक बार फिर से तजेन्दर जी के यहां ही गोष्ठी हुई । फिर से अन्य कवियों के अलावा ममता किरण ने अपनी कविताएं सुनाकर वहां मौजूद लोगों की प्रशंसा बटोरी । दूसरी गोष्ठी के बाद मैंने उनको उनकी कविताओं के लिए बधाई दी । स्त्री और नदी कविता के लिए भी ।
अभी हाल ही में जब मुझे डाक से ममता किरण का नया कविता संग्रह- वृक्ष था हरा भरा (किताबघर प्रकाशन, अंसारी रोड, नई दिल्ली) मिला तो मैंने संग्रह की 56 कविताएं एक झटके में पढ़ ली। कविताओं से गुजरते हुए मुझे अच्छा लगा । कवयित्री का रेंज बहुत व्यापक है । उनकी कविताओं में परिवार प्रमुखता से आता है वहां मां है, मां का हठ है , बेटी है , बड़े भैया हैं । मां पर लिखते हुए कवयित्री परोक्ष रूप से बेटे के नौकरी या फिर कारोबार(जो भी कवयित्री ने सोचा हो ) करने को लेकर बाहर चले जाने के बाद मां के दर्द को समेटा है । मां अपने बेटे को खत लिखवाती हैं जिसमें होता है अब जरूरत नहीं/तुम्हारे भेजे/पैसे और दवाओं की/सिर्फ तुम आ जाओ/बैठो मेरे पास/तुम्हारे बचपन की स्मृतियों में/ तलाशूं /अपना अतीत/अपने जीवन की संतुष्टि । इस एक छोटी सी कविता में गांव से लेकर महानगर तक की मां का दर्द है । जिस बच्चे को पढ़ा लिखाकर अपने सीने से लगाकर पाला पोसा बड़ा किया वह उसे छोड़कर चला गया है । उसका ख्याल भी रखता है । उम्र के उस पड़ाव पर जब देखभाल से ज्यादा जरूरत होती है इमोशनल सपोर्ट की तब मां को अकेलेपन का दंश झेलना पड़ता है । ठीक उसी तरह बड़े भैया कविता में भी कवयित्री ने एक पूरी पीढ़ी के ट्रांसफॉर्मेशन को अपनी कविकता के माध्यम से कहा है । एक लड़का जब पिता बनता है तो उसमें अपने मां की वही सारी आदतें आ जाती है जिसका वो जवानी में मजाक उड़ाया करता था । उम्र के साथ संतान मोह में किस तरह से लोगों की मानसिकता बदलती है उसका चित्रण है इस कविता में । इस संग्रह में एक कविता है संबोधन- कंक्रीट के इस जंगल में/एकदमन अप्रत्याशित/एक बुजुर्ग से अपने लिए/बहूरानी संबोधन सुनकर/जिस तरह मैं चौंकी/उसी तरह अनायास/श्रद्धा से झुक भी गई/बहूरानी कहनेवाले के सामने । इस कविता के बारे में संग्रह के ब्लर्ब पर कवि केदारनाथ सिंह लिखते हैं- इस संग्रह में जहां जाकर मैं रुका वह संबोधन शीर्षक कविता थी । इन पंक्तियों में एक मानवीय संस्पर्श है जो अच्छा लगता है । कहीं कहीं शुभाकांक्षा की प्रतिध्वनि भी सुनाई पड़ती है कुछ पंक्तियों में और शायद इस रचनाकर्मी की कविता का मूल स्वर भी यही है । केदार जी को इस बात का संशय क्यों है कि शुभाकांक्षा की प्रतिध्वनि ममता किरण की कविताओं का मूल स्वर है । मूल ना भी कहें तो अनेक स्वरों में से एक स्वर यह भी है जो एक छुपी हुई धारा की तरह कमोबेश हर जगह मौजूद है । इस कविता की भूमिका अनामिका ने लिखी है और उन्होंने बिल्कुल सही लिखा है कि ग्रहण के समय खाने-पीने की चीजों में मां तुलसी-पत्र डाल देती थी जैसे हम किताबों में फूल डाले देते थे परंपरा के पन्नों में ममता किरण जी की कविता ऐसा ही कुछ डाल देती है और काफी नफासत से । अब यहां मैं पाठकों पर छोड़ता हू कि वो तय करें कि कविता को लेकर मेरी जो राय है उसको अनामिका का कथन पुष्ट करता है या नहीं । क्योंकि अनामिता ग्रहण और तुलसी-पत्र के प्रतीकों में बहुत बड़ी बात कह गई हैं। सोचिए समझिए और निषकर्ष पर पहुंचिए । आमीन ।

Saturday, May 12, 2012

अन्ना रामदेव-लाचारी में गठजोड़

बाबा रामदेव जो हजारों भक्तों के समर्थन का दावा करते हैं । देशभर में लाखों लोगों को योग सिखा चुके हैं । आयुर्वेद का उनका लंबा चौड़ा कारोबार है । लेकिन इस योग गुरू ने ठानी थी काला धन के खिलाफ मुहिम चलाने की । सालभर पहले भी एक आंदोलन किया था जिसकी परिणिति हुई थी दिल्ली के रामलीला मैदान में जहां अनशन पर दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई की थी । बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस कार्रवाई के लिए पुलिस के साथ साथ रामदेव को भी जिम्मेदार माना था । बाबा रामदेव इस वक्त एक बार फिर से काले धन के खिलाफ देशव्यापी मुहिम को लेकर यात्रा पर हैं । जनलोकपाल कीमांग को लेकर सरकार को हिला देने वाले अन्ना हजारे एक बार फिर से महाराष्ट्र में मजबूत लोकायुक्त की मांग को लेकर पूरे सूबे का दौरा कर रहे हैं । लेकिन दोनों के दौरे के पहले दिल्ली में एक अहम घटना हुई । अन्ना हजारे और रामदेव ने एक साझा प्रेस कांफ्रेस कर एक बार फिर से साथ आने का ऐलान किया था । ऐलान के फौरन बाद ही टीम अन्ना के अहम सदस्य और मास्टर स्ट्रैजिस्ट अरविंद केजरीवाल ने एक चतुर राजनेता की तरह सफाई दी थी कि यह साथ सिर्फ मुद्दों का है और वो भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर साझा आंदोलन कर रहे हैं । अरविंद की बातों को मान भी लिया जाए कि सिर्फ मुद्दों के आधार पर अन्ना और रामदेव के बीच समझौता हुआ है तो एक बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है । कल को सुरेश कलमाड़ी, ए राजा, बंगारू लक्ष्मण और सुखराम भ्रष्टाचार विरोधी मोर्चा बनाते हैं तो क्या टीम अन्ना उनके साथ भी समझौता कल लेगी और उन्हें एक साथ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाने में कोई गुरेज नहीं होगा ।

रामदेव और उनके ट्रस्ट पर पर सैकड़ों एकड़ जमीन कब्जा करने से लेकर और भी कई संगीन इल्जाम हैं । कुछ दिनों पहले उनकी दवाइयों को लेकर जा रहे ट्रकों की जब्ती की खबर आई थी ।उनके बेहद करीबी सहयोगी बालकृष्ण पर फर्जी पासपोर्ट का केस चल रहा है । लेकिन टीम अन्ना इन रामदेव और उनके सहयोगियों पर लगे इन तमाम आरोपों को अलग हटाकर रामदेव के साथ हाथ मिला रही है । दरअसल अगर हम इसकी पड़ताल करें तो जो तस्वीर सामने आती है उस पर शक के गर्दोगुबार मौजूद हैं।

रामलीला मैदान में पिछले साल जून में बाबा रामदेव के अनशन के दौरान की उनकी गतिविधियों ने उनकी विश्वसनीयता को संदिग्ध कर दिया था । एक तरफ वो भ्रष्टाचाकर के खिलाफ हुंकार भर रहे थे तो दूसरी तरफ परदे के पीछे मनमोहन सरकार के मंत्रियों से डील कर रहे थे । अनशन के दौरान ही सरकार ने रामदेव की पोल खोल दी थी । उसके बाद जब रामलीला मैदान में पुलिस ने लाठीचार्ज किया था तो महिलाओं के वेष में रामदेव के भागने को लेकर भी रामदेव की खासी फजीहत हुई थी । महिला के वेष में अनशन छोड़कर भागने का मलाल रामदेव को इतना है कि जब भिंड की एक सभा में एक शख्स ने उनसे इस बाबत सवाल पूछा तो उनके समर्थकों ने रामदेव के सामने उसकी जमकर पिटाई कर दी । वो शख्स पिटता रहा और सत्य अहिंसा की बात करनेवाले बाबा खामोश रहे । इन फजीहतों के बाद भी उनपर कई संगीन इल्जाम लगे जिसने बाबा की छवि को तार-तार कर दिया । वो हरिद्वार के अपने आश्रम में अनशन पर भी बैठे लेकिन जब कहीं से किसी ने नोटिस नहीं लिया तो आनन-फानन में श्री श्री रविशंकर से अनशन तुड़वाया गया । नतीजा यह हुआ कि रामदेव के सामने विश्वसनीयता का एक बडा़ संकट खड़ा हो गया और वो इससे निकलने का रास्ता तलाशने लगे ।

उधर अन्ना हजारे भी अपने घटते जनसमर्थन और उनकी टीम मीडिया में तवज्जो नहीं मिलने से बेहद परेशान थी । पिछले साल दिसंबर में जब मुंबई में अन्ना हजारे ने अनशन किया तो वहां लोगों की भीड़ नहीं आई । चैनलों पर कवरेज के तमाम इंतजाम धरे रह गए क्योंकि मैदान खाली था। अचानक से माहौल बना कि अन्ना की तबियत खराब हो रही है और उस वजह से वो अनशन तोड़ेंगे । कई लोगों ने अनशन खत्म करने के फैसले के पीछे अपेक्षित जनसमर्थन नहीं मिलना बताया था । अनशन खत्म होने के बाद जब पत्रकारों से बातचीत हो रही थी तो उस वक्त बीजेपी से रिश्तों को लेकर पूछे सवाल पर अन्ना का उठकर चले जाना और अरविंद केजरीवाल का साफ जबाव नहीं देना भी पूरे आंदोलन को सवालों के चक्रव्यूह में फंसा गया । जिससे निकल पाना टीम अन्ना के लिए आसान नहीं था । नतीजा यह हुआ कि हर वक्त टीवी कैमरे और पत्रकारों से से घिरी रहनेवाली टीम अन्ना को भाव मिलना बंद हो गया । उनका कहा सुर्खियों से गायब होने लगा । मुंबई में बीजेपी पर टीम अन्ना के लिए स्टैंड से उनकी विश्वसनीयता और साख दोनों कम हो गई । बाद में अरविंद केजरीवाल ने प्रचार की खोई जमीन हासिल करने के लिए संसादों के खिलाफ बयान दिया जिससे उन्हें संजीवनी मिली । अब बाबा रामदेव की तरह टीम अन्ना भी नई जमीन की संभावना तलाशने की जुगत में लग गई । सारी संभावनाओं पर माथापच्ची और विकल्पों पर विचार करने के बाद टीम अन्ना को बाबा रामदेव में ही फिर से समझौते की संभावना नजर आई और तय हुआ कि बाबा रामदेव के साथ मिलकर काम किया जाए । इस पर टीम अन्ना में मतभेद रहा । टीम अन्ना के कुछ लोग रामदेव की मह्त्वाकांक्षा को इस समझौते में बाधा मानते थे । खैर समझौता हुआ और कहना ना होगा कि यह समझौता मजबूरी में किया गया क्योंकि दोनों के सामने सरवाइवल का संकट था । टीम अन्ना को रामदेव के कार्यकर्ताओं की जरूरत थी और रामदेव को टीम अन्ना की बची खुची विश्वसनीयता की । मजबूरी में दोनों एक साथ तो आ गए लेकिन दोनों को इस समझौते से फायदा होगा यह तो भविष्य के गर्भ में हैं । मजबूरी में किए गए समझौतों में मन नहीं मिला करते और इस तरह के आंदोलन में अगर शीर्ष नेतृत्व का मन नहीं मिला तो दोनों पक्ष बहुत आगे नहीं जा सकते हैं । फौरी फायदा मुमकिन है लेकिन दीर्घकालीन लक्ष्य की प्राप्ति नहीं सकती है ।

जब यह कहा जा रहा है कि टीम अन्ना और बाबा रामदेव के बीच समझौते में मन नहीं मिले हैं और मजबूरी की वजह से क्षणिक फायदे के लिए किया गया समझौता है तो उसके पीछे ऐतिहासिक वजहें हैं । दो हजार दस के नवंबर में जब अरविंद केजरीवाल और कुछ अन्य आरटीआई कार्यकर्ता सुरेश कलमाडी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने की सोच रहे थे तो किरण बेदी ने रामदेव का नाम सुझाया था । रामदेव को इस वजह से साथ लिया गया कि आंदोलन को एक चेहरा मिले । बाद में जब रामदेव को लगा कि अरविंद और उनकी टीम उनका इस्तेमाल कर रही है तो उन्होंने किनारा कर लिया । बाद में अरविंद की टीम ने अन्ना हजारे को खोज निकाला । उसके बाद की घटनाएं तो इतिहास बन गई हैं । रामदेव के मन में टीस बरकरार रही और वो अन्ना के जंतर मंतर के पहले अनशन में शुरू में शरीक नहीं हुए । जब उन्हें लगा कि हजारे पूरा मजमा अन्ना लूट रहे हैं तो हारे को हरिनाम की तर्ज पर वहां पहुंचे । लेकिन मन में जो टीस थी उसकी परिणति रामलीला मैदान के जवाबी अनशन के रूप में सामने आया । लेकिन वहां एक नया लेकिन मनोरंजक इतिहास बना । आजाद भारत के इतिहास में अनशन को छोड़कर भागने की यह अपने तरह की पहली और अनूठी घटना थी जिसे लोगों ने टीवी पर रियलिटी शो की तरह देखा । आनेवाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि मजबूरी में साथ आए ये दोनों दिग्गज कहां तक और कितनी दूर साथ चल पाते हैं ।