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Saturday, March 30, 2019

वक्त के अंधेरे में खोई अदाकारा


मीना कुमारी भारतीय फिल्मी दुनिया में एक ऐसा नाम है जिनकी जिंदगी के अनगिनत किस्से जुड़े हैं । उनके बचपन, उनकी किशोरावस्था से लेकर जवानी और फिर मौत तक । साठ के दशक में बॉलीवुड पर मीना कुमारी का राज चलता था । उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचाती थी । उसी तरह उनके अफसाने भी अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियां बनते थे । कमाल अमरोही से शादी फिर अलगाव और उसके बाद प्रेमियों की फेहरिश्त फिल्मी पत्रिकाओं के लिए जरूरी विषय और गॉसिप मुहैया करवाते थे । फिल्मी पत्रिकाओं में उनकी मौत के बाद तो उनके किस्से धारावाहिक के तौर पर छपते रहे हैं । मुझे याद आ रहा है कि सन 2000 में एक फिल्मी पत्रिका में एच आई पाशा ने मीना कुमारी की मौत पर धारावाहिक सत्यकथा लिखी थी, जिसमें पात्रों के नाम बदल दिए गए थे । मीना कुमारी ने अपनी जिंदगी मुफलिसी में शुरू की और जब उनकी मौत हुई तो भी अस्पताल के बिल भरने का पैसा नहीं था । बीच में उन्हें मिली शोहरत, बेशुमार दौलत, इज्जत, कई फिल्म फेयर पुरस्कार लेकिन प्यार की तलाश में भटकते भटकते उन्होंने शराब का दामन थाम लिया । यहां उन्हें सुकून तो मिला लेकिन शराब का गिलास उन्हें मौत के रास्ते पर ले गई । मौत का अफसाना भी मशहूर हो गया । जब मशहूर संपादक विनोद मेहता ने अपनी आत्मकथा लिखी थी उसमें उन्होंने 1972 में मीना कुमारी की जिंदगी पर लिखी एक किताब का जिक्र किया था । किताब उस वक्त जयको पब्लिकेशन से छपी थी लेकिन बाद में उसके संस्करण नहीं छपे और वो बाजार में अनुपलब्ध हो गई । अपनी आत्मकथा की सफलता से उत्साहित विनोद मेहता ने इस किताब को फिर से छपवाने का फैसला किया। इस किताब को लिखने की भी बेहद दिलचस्प कहानी है । मीना कुमारी की मौत मार्च 1972 में होती है जब वो अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थी । मीना कुमारी के पति कमाल अमरोही की फिल्म पाकीजा उनकी मौत के महीने भर पहले रिलीज हुई थी । शुरुआत में फिल्म को दर्शकों का प्यार नहीं मिला और मुंबई का मराठा मंदिर सिनेमा हॉल पहले हफ्ते में ही खाली रह गया था । फिल्म रिलीज के महीने भर बाद ही मीना कुमारी की मौत हो जाती है और उसके बाद पाकीजा ने लोकप्रियता के सारे मानकों को ध्वस्त कर दिया था । दर्शकों ने पाकीजा देखकर मीना कुमारी को अपनी श्रद्धांजलि दी । मीना कुमारी की मौत के बाद पाकीजा की सफलता से उत्साहित प्रकाशक ने विनोद मेहता को उनकी जीवनी लिखने का प्रस्ताव दिया । 
इस किताब में विनोद मेहता ने माई हिरोइन कहकर मीना कुमारी को संबोधित किया है और उनके कहने का अंदाज आम जीवनियों से जुदा है । मीना कुमारी के बचपन से लेकर मौत तक की कहानी को विनोद मेहता ने बेहतर तरीके से कहने की कोशिश की है लेकिन मीना कुमारी के जीवन के इतने सिरे हैं कि विनोद मेहता सबको पकड़ नहीं पाए हैं । मीना कुमारी की जीवनी धर्मेंन्द्र और गुलजार के बगैर पूरी नहीं होती है । विनोद मेहता की इस किताब में मीना कुमारी की जिंदगी के इन दो अध्याय पर सरसरी तौर पर लिखते हुए निकल गए हैं । हलांकि धर्मेन्द्र और मीना कुमारी के बारे में नहीं लिख पाने की सफाई विनोद मेहता ने नए संस्करण में दी है । उन्होंने लिखा है कि  मुझे धर्मेन्द्र ने धोखा दिया जिसने मीना कुमारी का इस्तेमाल किया और फिर उसे छोड़ कर आगे बढ़ गया । धर्मेन्द्र ने मुझे कई बार मिलने का वक्त दिया लेकिन हर बार वो नहीं मिला ।‘  विनोद मेहता दूसरे संस्करण की भूमिका में यह स्वीकार करते हैं कि धर्मेन्द्र मीना कुमारी के जीवन का वो दौर है जिसके बिना उनके हिरोइन की कहानी पूरी नहीं होती है । गुलजार और मीना कुमारी के बारे में विनोद मेहता खामोश हैं और ये इस किताब की कमजोरी है । मीना कुमारी मास्टर अली बख्श और इकबाल बेगम की संतान थी और विनोद मेहता के मुताबिक उनका जन्म एक अगस्त 1932 को मुंबई के परेल अस्पताल में हुआ था । मीना कुमारी के पिता अली बख्श उर्दू में थोड़ा बहुत लिखते थे जिसकी वजह से वो मास्टर अली बख्श कहलाने लगे । वो बेहतरीन हारमोनियम भी बजाते थे । वो दौर मूक फिल्मों का दौर था और वो काम की तलाश में इस वक्त के पाकिस्तान के बहेरा से चलकर मायानगरी पहुंचे और यहां उन्होंने मूक फिल्मों के दौरान संगीत देने का काम शुरू किया । यहां आकर उन्हें महाकवि टैगोर के परिवार की लड़की प्रभावती से दिल लगा लिया । प्रभावती मूक फिल्मों के दौरान डांस किया करती थी और मास्टर हारमोनियम बजाता था । सुर ऐसे मिले कि प्रभावती इकबाल बेगम बनकर मास्टर के घर आ गई । इकबाल ने इस शादी के बाद तीन लड़कियों  खुर्शीद, महजबीन और मधु को जन्म दिया । मास्टर और इकबाल की जोड़ी यश और पैसा दोनो कमा रहे थे । फिर घर पर बीमारी का साया आया । पहले अली बख्श और फिर इकबाल बीमार पड़ी । दोनों की बीमारी की वजह से बड़ी बहन खुर्शीद पर घर चलाने के लिए पैसे कमाने की जिम्मेदारी थी लेकिन वो इतना नहीं कमा पा रही थी कि मां-बाप का इलाज भी हो और घर का खर्च भी चले । तब अली बख्श ने तय किया उनकी तीनों बेटियां फिल्मों के लिए अलग अलग तरीके का काम करेंगी । उस वक्त मीना कुमारी चार साल की थी । उनके पिता लगातार प्रोड्यूसर्स को फोन पर उसके लिए काम मांग रहे थे । इस दौर में निर्माता निर्देशक विजय भट्ट लेदर फेस नाम की फिल्म बना रहे थे । इस फिल्म में जयराज और महताब की जोड़ी काम कर रही थी । एक छोटी बच्ची की जरूरत थी । उन्होंने मास्टर को महजबीन को लेकर आने को कहा । इस फिल्म की शूटिंग प्रकाश स्टूडियो में चल रही थी जो मास्टर के घर के सामने ही था और महजबीन वहां खेलने जाया करती थी । जब विजय भट्ट ने महजबीन को कैमरे के सामने खड़ा किया तो उसने बेहद सहजता से अपना काम निबटा दिया । इस छोटे से रोल के लिए विजय भट्ट ने मास्टर को उस वक्त 25 रुपए दिए । इसके बाद कई सालों तक महजबीन ने कई फिल्मों में बाल कलाकार की भूमिका निभाई जिनमें अधूरी कहानी, पूजा, नई रोशनी, विजया, कसौटी और गरीब प्रमुख हैं । उसी दौर में एक और बाल कलाकार बेबी मुमताज भी फिल्मों में काम कर रही थी जो बाद में मधुबाला के तौर पर प्रसिद्ध हुई । दोनों की दोस्ती छुटपन से ही थी लेकिन बाद में प्रोफेशनल प्रतिद्वंदिता और बीच के लोगों की वजह से दोस्ती कमजोर पड़ गई थी ।
उसी वक्त कमाल अमरोही को सोहराब मोदी की फिल्म जेलर के लिए एक सात साल की लड़की की तलाश थी । किसी की सलाह पर वो मास्टर के घर पहुंचे ।दिलचस्प प्रसंग है  मास्टर ने महजबीन को आवाज लगाई और जब वो बाहर आई तो उसके पूरे चेहरे में मसला हुआ केला लगा था । यहीं पहली बार कमाल अमरोही ने महजबीन को देखा । ये फिल्म महजबीन को नहीं मिली लेकिन उसकी प्रसिद्धि का दौर जारी रहा और वो विजय भट्ट के लिए काम करती रही । जैसे जैसे वो बड़ी होने लगी तो विजय भट्ट ने एक दिन उसका नाम बेबी मीना कर दिया । मास्टर अली बख्श को ये अच्छा नहीं लाग लेकिन वो उस वक्त इस हैसियत में नहीं थे कि विजय भट्ट के प्रस्ताव का विरोध कर सकें । इस तरह से महजबीन, मीना कुमारी बन गई ।
बाल कलाकार की शोहरत के साथ मीना कुमारी फिल्म की हिरोइन बनी और फिर कमाल अमरोही से प्यार हुआ । कार दुर्घटना में अस्पताल में भर्ती होने के दौरान कमाल और उसके बीच नजदीकियां बढ़ी । कमाल के लिए मीना कुमारी मंजू और मीना के लिए कमाल चंदन बन गए । प्यार इतना परवान चढ़ा कि कालांतर में दोनों ने छुपकर निकाह कर लिया । बाद में जब मास्टर को पता चला तो वो आगबबूला हुए लेकिन होनी हो चुकी थी । फिर कमाल से झगड़ा और अलगाव । अपनी हिरोइन की कहानी में विनोद मेहता ने कई जगह पर इस बात के संकेत भी दिए हैं कि बाद के दिनों में मीना कुमारी कमाल अमरोही से झूठ बोलकर कार्यक्रमों और पार्टियों में जाने लगी थी । जब कमाल को इसका पता चलता था तो जमकर झगड़ा होता था । उसके बाद कमाल लगातार मीना कुमारी की जासूसी करने लगे । उसपर शक करने लगे । एक पार्टी में मीना कुमारी दिलीप कुमार के साथ बैठे बातें कर रहे थे तो कमाल अमरोही ने वहां पहुंचकर बाधा डाली थी । फिर उनकी जिंदगी में मशहूर थप्पड़ कांड आया । मीना कुमारी की जिंदगी में शराब का प्रवेश तो दवा के तौर पर होता है लेकिन धर्मेन्द्र के आने के बाद शराब नियमित साथी हो गया । नजदीक से जानने वाले कहते हैं कि ब्रांडी से शुरुआत करनेवाली मीना कुमारी बाद के दिनों में ठर्रा भी पी लेती थी ।
जैसा कि मैंने उपर कहा कि मीना कुमारी का चित्रण या उनपर लिखना आसान काम नहीं है । 1972 में लिखी गई विनोद मेहता की इस किताब से सिर्फ मीना कुमारी के बारे में जानने की जिज्ञासा होती है । जिन परिस्थियों में 1972 में आठ महीनों में ये किताब लिखी गई थी उन परिस्थियों के आलोक में ही इस किताब को देखना होगा । मुझे याद आ रहा है कि रविवार पत्रिका दीपावली उपहार अंक में मीना कुमारी पर काफी सामग्री प्रकाशित हुई थी । संभवत: मीना कुमारी की डायरी । उसमें मीना कुमारी का दर्द और मोहब्बत के अफसाने बेहतर तरीके से उबर कर सामने आए थे ।  
(बॉलीवुड सेल्फी, वाणी प्रकाशन)

फिल्मों का हिंसक लोकतंत्र



आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए कुछ छोटे, मंझोले और तथाकथित बड़े फिल्मकारों और फिल्म से जुड़े लोगों ने देश की जनता से भारतीय जनता पार्टी को वोट नहीं देने की अपील की है। भारतीय जनता पार्टी को वोट नहीं देने की अपील करनेवाले फिल्मों से जुड़े ये लोग सेव डेमोक्रेसी के बैनर तले जमा हुए हैं। अपील करनेवालों में आनंद पटवर्धन, देवाशीष मखीजा, सनल कुमार शशिधरन जैसे लोग शामिल हैं। उनका तर्क है कि भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में घृणा और ध्रुवीकरण की राजनीति की जा रही है, गाय के नाम पर समाज को बांटा जा रहा है। अल्पसंख्यकों और दलितों को सायास हाशिए पर डाला जा रहा है। जाहिर सी बात है कि जब इस तरह की बात होगी तो फासीवाद की बात भी होगी। इनमें से कई लोग पिछले पांच सालों में फासीवाद को महसूस करने की बात कर रहे हैं। इनका एक तर्क ये भी है मोदी सरकार ने पिछले पांच सालों में जानबूझकर संस्थाओं को कमजोर किया है। उनका आरोप है कि कोई भी व्यक्ति अगर मोदी सरकार के खिलाफ बोलता है तो उसको देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी करार दे दिया जाता है। फिल्मों से जुड़े ये लोग कोई नई बात नहीं कह रहे हैं। ये तमाम बातें 2015 से ही की जा रही हैं। इनमें से कुछ फिल्मकार पुरस्कार वापसी के दौर में भी सक्रिय थे और अब भी सक्रिय हैं। तब भी अपील आदि की गई थी।  दरअसल ये कला और संस्कृति की आड़ में राजनीति करते हैं और अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए इस तरह की बयानबाजी करते हैं। ये चुनाव के मौके पर विशेष तौर पर सक्रिय होते हैं।
फिल्मों से जुड़े ये लोग जब संस्थाओं को खत्म करने और फासीवाद की बात करते हैं तो वो बेहद हास्यास्पद लगते हैं। इस संबंध में एक ही उदाहरण काफी होगा। झारखंड की बीजेपी सरकार ने 7 मार्च 2019 को एक अधिसूचना जारी की और झारखंड फिल्म तकनीकी सलाहकार समिति को भंग कर उसके स्थान पर फिल्म डेवलपमेंट काउंसिल ऑफ झारखंड का गठन किया। इसके अध्यक्ष पद पर मेघनाथ नाम के एक वृत्तचित्र निर्माता को नामित किया गया। उनके अलावा पंद्रह और सदस्यों को भी मनोनीत किया गया। माना जा सकता है कि यह नियमित नामांकन और कमेटी का गठन है, लेकिन इस सूची पर नजर डालने से साफ हो जाता है कि इसमें नामित कई सदस्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के घोर विरोधी हैं। इसके अध्यक्ष मेघनाथ के फेसबुक पोस्ट और साझा किए जानेवाली सामग्री को देखकर इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और भारतीय जनता पार्टी के किस हद तक विरोधी हैं बल्कि ये कहना ज्यादा उचित होगा कि वो इनसे घृणा करते है। अमित शाह और नरेन्द्र मोदी पर व्यक्ति हमले और अमर्यादित टिप्पणियों को वो नियमित तौर पर अपने फेसबुक वॉल पर साझा करते रहे हैं। इसके अलावा मेघनाथ की संस्था अखड़ा के साथी भी इसमें नामित हुए हैं। इतना ही नहीं पिछले वर्ष के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के वक्त जब कुछ कलाकारों ने विरोध प्रदर्शन किया था तो उसके पीछे भी मेघनाथ की भूमिका थी। वो सक्रिय रूप से उस प्रदर्शन में शामिल होकर तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी के खिलाफ बयानबाजी कर रहे थे। बाववूद इसके उनको झारखंड की रघुवर दास के नेतृत्व वाली सरकार ने नामित किया। एक और तथ्य पाठकों को जानना आवश्यक है कि झारखंड सरकार ने जिस झारखंड फिल्म तकनीकी सलाहकार समिति को भंग किया उसके अध्यक्ष अनुपम खेर थे। तो अगर फासीवाद होता तो मेघनाथ और उनके साथियों का नामांकन कैसे हो पाता? इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं जहां भारतीय जनता पार्टी सरकार ने अपने विरोधियों को जगह दी। अभी हाल ही में दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ने अपने एक कार्यक्रम में कपिला वात्स्यायन को अतिथि के तौर पर बुलाया। तो आनंद पटवर्धन जैसे लोग जब फासीवाद की बात करते हैं वो खोखले लगते हैं। दरअसल ये दर्द तब झलकता है जब उनको लगता है कि सरकारी संस्थाओं में उनको जगह नहीं मिलेगी। तमाम मिथ्या आरोपों को उछालकर वो सरकार के खिलाफ माहौल बनाना चाहते हैं।  
अब अगर हम फिल्मी दुनिया की बात करें तो वहां भी विचित्र स्थिति दिखाई पड़ती है। खासतौर पर अगर हम हिंदी फिल्मों की बात करें तो यह याद नहीं पड़ता कि पिछले कई सालों में कोई ऐसी फिल्म आई हो जो लोकतंत्र को मजबूत करने की बात करती हो। जो वोट की ताकत को शिद्दत के साथ रेखांकित करती हो। पिछले तीस-चालीस साल में कई राजनीतिक फिल्में बनीं, उनमें से ज्यादातर बहुत हिट रहीं लेकिन ज्यादातर में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए मतदान की महत्ता के बारे में नहीं बताया गया। किसी में ये नहीं कहा गया कि राजनीतिक सिस्टम को ठीक करने के लिए जनता के हाथ में वोट का अहिंसक हथियार है जो बगैर किसी शोर-शराबे के सरकार बदल और बना सकती है। ज्यादातर फिल्मों में हिंसा का सहारा लिया गया। 1984 में अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी की प्रमुख भूमिका वाली फिल्म इंकलाब आई थी। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन पुलिस इंसपेक्टर की भूमिका में थे। परिस्थियां ऐसी बदलीं कि वो चुनाव लड़ते है, जीतने के बाद सरकार चलाने के लिए अपने सहयोगियों को चुनने के लिए पहुंचते है। वहां पहुंचकर वो सबका कत्ल कर देते हैं। सिस्टम को ठीक करने का हिंसक और क्रूर तरीका। अलोकतांत्रिक भी। ऐसा सिर्फ फिल्म इंकलाब में ही नहीं होता है। उसी वर्ष एक और फिल्म आई थी आज का एम एल ए रामअवतार। इस फिल्म के क्लाइमैक्स में राजेश खन्ना समाजवाद पर लंबा भाषण देते हैं लेकिन जनता के साथ खड़े शत्रुघ्न सिन्हा जब संतुष्ट नहीं होते हैं तो भीड़ को मंच पर बैठे नेताओं को मार डालने के लिए उकसाते हैं. उनका मानना है कि सभी भ्रष्ट नेताओं को खत्म करके ही सिस्टम ठीक होगा। इस फिल्म में भी मतदाताओं को ये नहीं बताया जाता कि उनके पास वोट की ताकत है। बाद में भी ऐसी कई हिट फिल्में बनीं लेकिन ज्यादातर में फिल्मकारों ने हिंसक लोकतंत्र की वकालत की। नायक फिल्म में भी मुख्यमंत्री के किरदार को सिस्टम को ठीक करने के लिए मारपीट का ही सहारा लेना पड़ता है। मुख्यमंत्री ना केवल छापेमारी करता है बल्कि गुंडों और मवालियों को पीटता भी है। फिल्म रंग दे बसंती में भी यही सब होता है। भ्रष्टाचारी मंत्री की मौत को जब शहादत में बदला जाता है तो ऑल इंडिया रेडियो पर कब्जा करके जनता को सचाई बताए जाने का ड्रामा रचा जाता है। खूनी क्रांति की तो बात की जाती है लेकिन कहीं से वोट की ताकत पर कोई नहीं बोलता। फिल्म दामुल, राजनीति, शूल से लेकर न्यूटन तक में हिंसा को ही लोकतंत्र के हथियार के तौर पर अहमियत दी गई है कहीं भी वोट की ताकत या उसकी महिमा को नहीं बताया गया है।
शायद ही तथाकथित सार्थक सिनेमा के दौर में भी ऐसी कोई फिल्म बनी हो जिसमें जनता को ये संदेश देने की कोशिश की गई हो कि अहिंसक तरीके से यानि वोट के जरिए भी सिस्टम को ठीक किया जा सकता है। अपने पसंद के नेता को चुना जा सकता है। सरकार बदली जा सकती है। ये तर्क दिया जा सकता है कि ये काल्पनिक कहानियां हैं और फिक्शन के आधार पर बनाई जानेवाली फिल्मों से इस तरह की अपेक्षा व्यर्थ है। कई ऐसी फिल्में हैं जिसमें राजनीतिक रूप से अहम टिप्पणियां बगैर किसी संदर्भ के की जाती है। उसके पीछे राजनीतिक नैरेटिव बनाने की मंशा होती है। अनुराग कश्यप की फिल्म आई थी मुक्काबाज। उसमें एक पंक्ति ऐसी कही गई जिसका कोई संदर्भ या मायने नहीं था। फिल्म चल रही थी अचानक से एक संवाद आता है कि वो आएंगे, भारत माता की जय बोलेंगे और हत्या करके चले जाएंगे। परोक्ष रूप से यह एक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश है। किसी दल या विचारधारा के विरोध में माहौल बनाने की कोशिश है जिससे कि फिल्मकार की विचारधारा और उससे जुड़े राजनीतिक दल को फायदा हो सके। फिल्मों का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है और यह एक ऐसा माध्यम है जिसके जरिए बहुत कुछ सार्थक किया जा सकता है बशर्ते कि करने की मंशा हो। जब फिल्मों के जरिए राजनीति हो सकती है, जब फिल्मों के जरिए किसी दल विशेष के पक्ष या विपक्ष में माहौल बनाने की कोशिश हो सकती है तो क्यों नहीं लोकतंत्र के पक्ष में, उसकी आधारभूत अवधारणा को मजबूत करने के लिए कोई फिल्म बनाई जा सकती है। हिंदी फिल्मों के इस हिंसक लोकतंत्र से निर्माताओं को जबरदस्त कमाई हो सकती है, हुई भी लेकिन इससे लोकतंत्र को मजबूती नहीं मिलती बल्कि वो परोक्ष रूप से कमजोर ही होता है।

Thursday, March 28, 2019

किताब के सिराहने 'सियासत'


लेखकों और साहित्यकारों को राजनीति करनी चाहिए या नहीं, इसको लेकर पूरी दुनिया में एक बहस चली थी जिसमें दुनिया भर के विचारकों ने अपने मत प्रकट किए थे। लुकाच से लेकर ब्रेख्त और बेंजामिन जैसे विश्वप्रसिद्ध लेखकों की राय है कि लेखक और राजनीति का संबंध होना चाहिए। अज्ञेय से लेकर मुक्तिबोध तक ने लेखकों में राजनीतिक चेतना की वकालत की है। हिंदी में भी अगर हम देखें तो कई लेखक सक्रिय राजनीति में रहे तो कइयों ने परोक्ष रूप से राजनीति की। हिंदी के मशहूर आलोचक नामवर सिंह ने तो लोकसभा का चुनाव तक लड़ा था। कवि रामधारी सिंह दिनकर, मैथिली शरण गुप्त और श्रीकांत वर्मा, भारतीय ज्ञान परंपरा पर विपुल लेखन करनेवाले विद्यानिवास मिश्र के अलावा भी कई लेखकों ने सक्रिय राजनीति की। प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में शामिल होने वाले इन लेखकों के अलावा कई लेखक परोक्ष रूप से राजनीति करते रहे। हिंदी में राजनीतिक कविता का एक लंबा इतिहास रहा है। नागार्जुन ने तो कांग्रेस के खिलाफ कई कविताएँ लिखीं, नेहरू जी के खिलाफ भी कविता लिखी, रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने भी ।  समकालीन कविता की दुनिया में सक्रिय कई कवियों ने वर्तमान राजनीति पर भी कविताएं लिखी। पर पिछले पांच साल से एक नया ट्रेंड मजबूती के साथ सामने आ रहा है वो है चुनाव के समय राजनीतिक विषयों पर किताबें आना। दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के थोड़ा पहले मोदी पर दर्जनों किताबें आईं तो राहुल गांधी और सोनिया गांधी को केंद्र में रखकर भी किताबें लिखी गईं। 2014 में राकेश पांडे ने जननायक राहुल गांधी नाम से एक किताब लिखी थी, जिसका विमोचन प्रियंका गांधी ने किया था। इसी तरह से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले अखिलेश यादव को केंद्र में रखकर समाजवाद का सारथी नाम से संजय लाठर ने एक किताब लिखी गई थी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके कार्यों पर कई किताबें लिखी गईं।
अब फिर से लोकसभा चुनाव सर पर हैं। फिर से इस तरह की किताबें बाजार में आने लगी हैं। हाल ही में हर्षवर्धन त्रिपाठी और शिवानंद द्विवेदी के संपादन में एक किताब आई जिसका नाम है नए भारत की ओऱ। इस किताब में मोदी सरकार की नीतियों को कसौटी पर कसने का दावा किया गया है। पुस्तक के संपादक शिवानंद द्विवेदी और हर्षवर्धन त्रिपाठी का कहना है कि किसी भी सरकार के कार्यकाल के खत्म होने पर उसकी नीतियों और कार्यक्रमों की पड़ताल होती रही है। उनके मुताबिक मोदी सरकार नए भारत के निर्माण की बात करती रही है, यह पुस्तक इस दिशा में हुए कार्यों की पड़ताल करती है। इसमें उन्नीस लेख हैं जो अलग अलग क्षेत्र के लोगों ने लिखे हैं और भूमिका वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लिखी है। इस किताब में लेखकों ने नीतियों और कार्यक्रमों की पड़ताल करने के साथ साथ अपने सुझाव भी दिए हैं। शिवानंद द्विवेदी साफ तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस पुस्तक की योजना बनाई गई थी। दूसरी तरफ एक किताब आई है वादा फरामोशी’, जिसके लेखक हैं संजॉय बसु, नीरज कुमार और शशि शेखर। इस पुस्तक में भी मोदी सरकार की पच्चीस स्कीमों को परखने का दावा किया गया है। इस पुस्तक के लेखकों में से एक शशि शेखर के मुताबिक चयनित स्कीमों को लेकर सरकार से सूचना के अधिकार के आधार पर जानकारी मांगी गई और सरकार से मिले जवाब के आधार पर उसका विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। नए भारत की ओर का विमोचन केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने किया तो वादा फरामोशी का विमोचन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने किया।
इसी तरह से लेखक विजय त्रिवेदी की किताब बीजेपी कल आज और कल प्रकाशित हुई है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह पुस्तक भारतीय जनता पार्टी की स्थापना से लेकर अबतक की कहानी कहती है। पुस्तक परिचय में लिखा भी गया है कि यह उस पार्टी की कहानी है जिसने सामूहिक नेतृत्व की शुरुआत की, नागपुर में अपना रिमोट कंट्रोल रहने दिया, और 7 लोक कल्याण मार्ग तक आते आते वन मैन पार्टी बन गई। ये किताब 2019 के चुनावों के बरअक्स भारत की राजनीति के सबसे दिलचस्प और सबसे नए अध्याय- भारतीय जनता पार्टी को समझने का प्रयास है। विजय त्रिवेदी ने इसके पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और अटल बिहारी वाजपेयी पर भी किताब लिखी है जो दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर में शामिल रही है। नरेन्द्र मोदी सेंसर्ड के नाम से अशोक श्रीवास्तव की एक किताब प्रकाशित हुई है। इसके लेखक का कहना है कि पिछले साढे चार साल में जिस तरह से अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर फेक नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है, उसको उनकी पुस्तक निगेट करती है। इसमें 2014 में दूरदर्शन पर मोदी के इंटरव्यू को सेंसर करने की कोशिशों की कहानी भी है।  2014 के लोकसभा चुनाव के पहले मोदी मंत्र लिखनेवाले हरीश बर्णवाल की इस लोकसभा चुनाव के पहले भी मोदी नीति के नाम से एक किताब प्रकाशित हुई है। हरीश का कहना है उनकी यह किताब चुनाव को ध्यान में रखकर नहीं लिखी गई है बल्कि वो इस बात को स्थापित करना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी जब कुछ बोलते हैं तो वो सुचिंतित होता है और कुछ भी अचानक नहीं होता है। उनका दावा है कि इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के सैकड़ों भाषणों को देखा और उनमें से तथ्यों को इकट्ठा कर उसकी व्याख्या की। इस किताब में एक अध्याय हरीश बर्णवाल और रामबहादुर राय ने मिलकर लिखा है।
चुनावी मौसम में एक और राजनीतिक किताब आ रही है जिसका नाम है भगवा का राजनीतिक पक्ष, वाजपेयी से मोदी तक। इस पुस्तक की लेखिका हैं पत्रकार सबा नकवी। सबा ने यह पुस्तक पहले अंग्रेजी में लिखी थी जिसका हिंदी अनुवाद शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है। सबा की इस किताब के शीर्षक से भी स्पष्ट है कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और दक्षिणपंथी राजनीति को कसौटी पर कसा है। अटल बिहारी वाजपेयी और मोदी के वक्त दक्षिणपंथी राजनीति में क्या बदलाव आया है इसको परखने की कोशिश की गई है। राजनीति को केंद्र में रखकर दर्जनों किताबें प्रकाशित हुई हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिंदी में इस तरह की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है, देशभर की अलग अलग भाषाओं में इस तरह की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है।
चुनाव के वक्त इस तरह की पुस्तकों के प्रकाशन का मकसद लगभग साफ होता है। एक तो पुस्तक की चर्चा हो जाए और जिसको केंद्र में रखकर प्रशंसात्मक या आलोचनात्मक किताब लिखी गई हो उसपर पुस्तक का प्रभाव पड़े। पुस्तक की मार्फत राजनीति का ये ट्रेंड भारत में नया है। अमेरिका में हर चुनाव के पहले राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों को केंद्र में रखकर प्रशंसात्मक और विध्वंसात्मक किताबें आती रही हैं। वहां तो संभावित उम्मीदवारों के निजी प्रसंगों तक पर किताबें लिखने का ट्रेंड रहा है। अब अगर हिंदी के लेखकों ने इस ट्रेंड को अपनाया है तो उनसे पाठकों की एक अपेक्षा यह बन रही है कि ये पुस्तकें भक्तिभाव से ऊपर उठकर वस्तुनिष्ठ होकर लिखी जाए ताकि फौरी तौर पर चर्चित होने के बाद ये किताबें गुमनाम ना हो जाएं।

Saturday, March 23, 2019

लगभग अप्रासंगिक हुए वाम दल


लोकसभा चुनाव के लिए नामांकन का दौर शुरू हो चुका है। चुनावी बिसात पर सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी चाल चल रहे हैं। दलबदल का खेल बदस्तूर जारी है। नए-नए लोगों को राजनीति में दीक्षित किया जा रहा है, संभव है उनको चुनाव में प्रत्याशी भी बनाया जाए। आरोप-प्रत्यारोप और वोटरों तक पहुंचने की नई-नई प्रविधियां आ रही हैं। दलों के बीच महागठबंधन से लेकर छोटे-छोटे समझौते हो रहे हैं। इन चुनावी हलचल के बीच एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात हो रही है जिसको कायदे से रेखांकित नहीं किया जा रहा है और उसकी वजहों पर भी चर्चा नहीं हो रही है। बिहार में एनडीए के खिलाफ महागठबंधन बना। इस महागठबंधन में लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी, जीतन राम मांझी की पार्टी, वीआईपी पार्टी और शरद यादव की पार्टी शामिल हुई। इन दलों के बीच सीटों का बंटवारा भी हो गया, लेकिन इस महागठबंधन में वामपंथी दलों को शामिल नहीं किया गया। कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय जनता दल अपने कोटे से कम्युनिस्ट पार्टियों में से एक माले को एक सीट देने पर राजी हो गई है। लंबे समय ये कयास लगाए जा रहे थे कि बिहार के बेगूसराय से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार सीपीआई के उम्मीदवार होंगे। महागठबंधन में सीपीआई को जगह नहीं मिलने से अब कन्हैया उनका उम्मीदवार नहीं हो पाएगा। बेगूसराय को पूरब का लेनिनग्राद कहा जाता था लेकिन उस सीट के लिए भी सीपीआई से समझौता नहीं होना राजनीतिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण संकेत दे रहा है। सिर्फ बिहार ही क्यों पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस और वामपंथी दलों के बीच लोकसभा चुनाव को लेकर कोई समझौता अबतक नहीं हो पाया है। इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब लेफ्ट पार्टी किसी ना किसी गठबंधन की या तो धुरी या उसका महत्वपूर्ण घटक हुआ करता था। उन्नीस सौ नब्बे के दशक में तो कई बार लेफ्ट के नेता हरकिशन सिंह सुरजीत किंगमेकर की भूमिका में नजर आते थे। फिर तीन चार दशकों में ही ऐसा क्या हो गया कि वामपंथी दल अन्य राजनीतिक दलों के लिए अस्पृश्य होते चले गए।
वामपंथी दल को देश की जनता ने आजादी के बाद काफी महत्व दिया। शुरुआती तीन लोकसभा चुनाव में उनके वोट बढ़ते रहे जो करीब दस फीसदी तक जा पहुंचा था, बावजूद इसके कि 1947 में जब देश आजाद हुआ था तो सीपीआई ने इसको आजादी मानने से इंकार करते हुए उसको बुर्जुआ के बीच का सत्ता हस्तांतरण करा दिया था। भारतीय जनमानस को नहीं समझने की शुरुआत यहीं से होती है । जब पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा था और नवजात गणतंत्र अपने पांव पर खड़े होने के लिए संघर्ष कर रहा था तो वाम विचारधारा ने गणतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत कर दी थी। उस वक्त रूसी तानाशाह स्टालिन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इस विद्रोह को खत्म करने में भारत की मदद की थी । महात्मा गांधी को भी 1947 में कहना पड़ा था-कम्यूनिस्ट समझते हैं उनका सबसे बड़ा कर्तव्यसबसे बड़ी सेवा (देश में ) मनमुटाव पैदा करनाअसंतोष को जन्म देना है। वे यह नहीं सोचते कि यह असंतोषये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएंगी । अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है ....कुछ लोग ये ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते हैं। हमारे कम्युनिस्ट इसी हालत में जान पड़ते हैं, ये लोग अब एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैंजिसे अंग्रेज लगा गए थे।  
दूसरी चूक जो वामपंथियों से हुई वो ये कि वो भारत को मार्क्स के नजरिए से समझने की कोशिश करते रहे। राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार एंथोनी पैरेल ने ठीक ही कहा था- भारतीय मार्क्सवादी भारत को मार्क्स के सिद्धांतों के आधार पर बदलने की कोशिश करते हैं और वो हमेशा मार्क्सवाद को भारत की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिशों का विरोध करते रहे हैं । नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित और व्याख्यायित करने की कोशिश ही नहीं की गई । नुकसान यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय दृष्टि देने का काम नहीं हो पाया । वामपंथी दलों को की ताकत उसकी सैद्धांतिकी हुआ करती थी। सिद्धांतों को लेकर उनकी सोच साफ होती थी। उन्ही सिद्धांतों पर पोलित ब्यूरो भी काम करता था और उसी पर एक आम कार्यकर्ता भी। जब देश में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो वामपंथी दल अपने सिद्धांतों को लेकर भ्रमित होने लगे। उस समय देश में एक चिंता थी कि आर्थिक उदारीकरण का समाज के सभी वर्गों को एक समान लाभ नहीं मिलेगा और इससे अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और गहरी होती जाएगी। जब देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो एक नैरेटिव ये भी बना था कि अमीरों को इसका ज्यादा लाभ मिलेगा, गांव की तुलना में शहरी आबादी को ज्यादा फायदा होगा, पिछड़ों की तुलना में अगड़े इससे ज्यादा लाभान्वित होंगे। एक नैरेटिव दलितों को लेकर चला था। भोपाल में दलित बुद्धिजीवियों की एक बैठक हुई थी जिसके बाद एक दस्तावेज जारी किया गया था। उस दस्तावेज में दलित उद्यमियों की कमी पर चिंता प्रकट की गई थी। इस तरह के नैरेटिव का प्रभाव समाज पर दिखा। लगभग उसी समय भारत में अन्य पिछड़ी जाति का राजनीति पर प्रभाव बढ़ा। जातिगत राजनीति ने भी जोर पकड़ा और अलग अलग राज्यों में जाति के नेता मजबूत होने लगे। वामदल वर्ग संघर्ष की बात करते रहे और जातियां मजबूत होती चली गईं। ऐसा होता देख वामदलों ने भी क्लास की जगह कास्ट को तवज्जो देना शुरू किया। यह कोलकाता में फरवरी 1948 में आयोजित दूसरी पार्टी कांग्रेस के प्रोग्राम ऑफ डेमोक्रैटिक रिवोल्यूशन में जाति के खिलाफ संघर्ष की घोषणा से विचलन था। यहां से उनकी सैद्धांतिकी कमजोर पड़ने लगी। वामदलों ने इसको ना समझकर बड़ी भूल की। इसके अलावा वामपंथ के नेतृत्व के बीच भ्रम की स्थिति ने भी इस दल को कमजोर किया। प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के बीच जो वैचारिक द्वंद दिखता है उसका प्रत्यक्ष असर कार्यकर्ताओं पर पड़ा। साम्यवाद के सामने बड़ी चुनौती क्या है पूंजीवाद या सांप्रदायिकता ये तय ही नहीं हो पा रहा है।     
इसी दौर में भारतीय जनता पार्टी मजबूत होने लगी थी। वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करने के लिए वामदलों ने एक बार फिर कांग्रेस का दामन थाम लिया। वामपंथी दल पहले भी कांग्रेस को समर्थन देते रहे हैं। इंदिरा गांधी ने जब देश में इमरजेंसी लगाई थी तब भी सीपीआई ने उनका समर्थन किया था। प्रगतिशील लेखक संघ ने अपने एक सम्मेलन में मशहूर लेखक भीष्म साहनी की अध्यक्षता में इमरजेंसी के समर्थन में प्रस्ताव पारित किया था। इसके पहले भी 1970 से लेकर 1977 तक सीपीआई कांग्रेस के साथ रही। कालांतर में जब केंद्र में देवगौड़ा और गुजराल की सरकार बनी तो सरकार में शामिल भी हुए। बाद में तो भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए 2004 में कांग्रेस को समर्थन देकर सरकार बनवा दिया। कांग्रेस की आर्थिक नीतियां लगभग वही रहीं जो उसने शुरू की थीं, जो अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मजबूती से आगे बढ़ीं थी। वामदलों ने जिस न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर मनमोहन सिंह या कांग्रेस को समर्थन दिया था वो ज्यादातर कागजों में ही रहा। 2008 में जब मनमोहन सरकार ने अमेरिका के साथ परमाणु करार किया तो वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। उस दौरान पार्टी का हुक्म को नहीं मानने पर करात ने सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा स्पीकर रहते हुए पार्टी से निकाल दिया था ।सोमनाथ चटर्जी ने अपनी पुस्तक कीपिंग द फेथ, मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटेरियन में विस्तार से उस वक्त सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात की तानाशाही के बारे में लिखा है।सोमनाथ चटर्जी ने वाम दलों को गंभीर आत्मविश्लेषण की भी सलाह दी थी। 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले सोमनाथ चटर्जी ने वामदलों की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए उनके हार की भविष्यवाणी की थी, जो लगभग सही साबित हुई थी।
कांग्रेस के साथ रहते हुए वामपंथी दलों को सत्ता का सुख मिलने लगा। कांग्रेस ने साहित्य कला और संस्कृति का क्षेत्र वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिया। वामपंथियों की राजनीति को करीब से देखनेवालों का मानना है कि कांग्रेस ने ऐसा करके वामपंथियों को सत्ता की मीठी गोली दे दी जिसका असर लंबे समय बाद अब जाकर दिखाई दे रहा है। इन क्षेत्रों में काम कर रहे मार्क्सवादियों के आचरण और सिद्धांत में बहुत अंतर रहा जो साफ तौर पर दिखता भी था। इसने जनता के बीच उनकी साख कमजोर करनी शुरू कर दी। एक बार साख में सेंध लग जाए तो उसको वापस पाना बहुत मुश्किल होता है। वामदलों के साथ यही हुआ हलांकि इस वक्त ना तो वो भारतीय जनमानस को समझने की कोशिश करते दिख रहे हैं और ना ही अपनी खोई साख वो वापस पाने के लिए प्रयत्नशील।  


Saturday, March 16, 2019

संस्कृति की ओट में चुनावी आखेट


लोकसभा चुनाव की तिथियों की घोषणा के बाद देशभर में चुनावी राजनीति जोर पकड़ने लगी है। बयानों के वीर अपने अपने तीर से अपने-अपने विपक्षी नेताओं को धराशायी करने में जुटे हैं। अलग-अलग विचारधारा के लोग अपनी-अपनी विचारधारा और दल को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं। श्रेष्ठता साबित करने की होड़ में जिस तरह के विशेषणों का उपयोग हो रहा है वो बेहद दिलचस्प होता जा रहा है। आजादी के बाद के चुनावों में बौद्धिकों के बीच समाजवाद, सामंती समाजवाद, सच्चा समाजवाद, रूढ समाजवाद, पारंपरिक समाजवाद से लेकर गरीब जनता और पूंजी जैसे विशेषणों का सहारा लिया जाता रहा है। दो हजार चौदह के आम चुनाव के बाद से लगातार बजने वाला राग फासीवाद इस बार धीमे स्वर में बज रहा है। दरअसल फासीवाद शब्द अब इतना घिस और पिट गया है और जिस उदारता के साथ उसका पिछले चार सालों में उपयोग किया गया कि उसने अपना अर्थ खो दिया।लोगों पर अब इस शब्द का प्रभाव लगभग खत्म सा होता दिखाई दे रहा है। फासीवाद का इस्तेमाल करनेवालों को भी यह बात समझ में आने लगी है। अब फासीवाद की जगह लोगों ने अलग शब्द चुन लिया है। अब गाहे बगाहे अघोषित आपातकाल जैसे शब्द चुनावी फिजां में गूंजने लगे हैं। असहिष्णुता का माहौल बनानेवाले अशोक वाजपेयी और रामचंद्र गुहा जैसे बौद्धिकों की रुचि भी अब इस जुमले में भी नहीं दिखाई पड़ती है, क्योंकि फासीवाद की तरह असहिष्णुता शब्द का भी प्रभाव अब क्षीण पड़ गया है। हलांकि गाहे बगाहे इस शब्द का इस्तेमाल हो जाता है। मोदी सरकार पर यह आरोप बहुत आसानी से लगाते रहे हैं कि वो असहिष्णु है, अपने विरोधियों को स्पेस नहीं देते हैं। यही आरोप अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पर लगते रहे थे। इसको लेकर लंबे समय तक मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की जाती रही । असहिष्णुता का ये आरोप अगर कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रहा तो इसके पीछे संस्कृति मंत्रालय की उदारता रही। 2014 से लेकर अबतक संस्कृति मंत्रालय ने जिस उदारता के साथ सरकार के विरोधियों को आर्थिक से लेकर हर प्रकार की मदद की उसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है। इस स्तंभ में संस्कृति मंत्रालय की उदारता और वौचाकिक विरोधियों को अहमियत और आर्थिक मदद की चर्चा होती रही है।
हाल में दो ऐसी घटनाएं घटी जिसने एक बार फिर से संस्कृति मंत्रालय की उदारता और बगैर भेदभाव के काम करने की छवि को मजबूत किया। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का शपथ लेने से लेकर अबतक ये आरोप लगता रहा है कि शिक्षा और संस्कृति विभाग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कब्जा हो गया है। केंद्र सरकार के इन दो मंत्रालयों के अधीन या संबद्ध संस्थाओं में नियुक्ति और वहां से आर्थिक अनुदान तक संघ की हरी झंडी मिलने के बाद ही मिलती है। पर दर्जनों ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जिससे ये साफ तौर पर दिखता है कि संघ और इसके अनुषांगिक संगठनों का किसी प्रकार का प्रभाव इन मंत्रालयों पर हो, या संघ के इशारे पर काम होता हो। एक ताजा उदाहरण देखा जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी एक संस्था है संस्कार भारती। संघ से संबद्ध ये संस्था साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम करती है। प्रयागराज कुंभ के दौरान संस्कार भारती ने 15 जनवरी से लेकर 4 मार्च तक अपना पूर्वोत्तर नाम से एक कार्यक्रम किया। किसी भी कुंभ में ये पहली बार हुआ कि पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के कलाकारों ने उसमें हिस्सा लिया। पूर्वोत्तर के अलग अलग विधा के तीन हजार के करीब कलाकारों ने संस्कार भारती के इस आयोजन में हिस्सा लिया। इसके अलावा संस्कार भारती ने कुंभ के दौरान ही संस्कृति विद्वत कुंभ के नाम से भारतीय साहित्य, सिनेमा और भारतीय ज्ञान परंपरा के विद्वानों के साथ तीन दिन के विचार कुंभ का आयोजन भी किया। इस कार्यक्रम के आयोजन में आर्थिक मदद के लिए संस्कार भारती ने संस्कृति मंत्रालय को एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें पौने दो करोड़ रुपए की आर्थिक मदद की मांग की गई थी। बताया जा रहा है कि संस्कृति मंत्रालय ने संस्कार भारती के इस प्रस्ताव को मौखिक स्वीकृति दे दी थी। फाइल प्रोसेस हो गई थी। इस आयोजन का निमंत्रण पत्र आदि छप गया था जिसमें संस्कृति मंत्रालय के सहयोग का उल्लेख था। कार्यक्रम से चंद दिनों पहले संस्कृति मंत्रालय ने इस आयोजन के लिए आर्थिक मदद देने से इंकार कर दिया। आयोजकों के हाथ-पांव फूल गए। आनन-फानन में दूसरा निमंत्रण पत्र छपा, जिसमें से संस्कृति मंत्रालय के सहयोग का उल्लेख हटाया गया। अन्य प्रचार सामग्री में भी ऐसा ही करना पड़ा। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दबाव या प्रभाव संस्कृति मंत्रालय पर होता तो इस तरह की स्थिति नहीं बनती। आखिरी वक्त में संस्कार भारती को अन्य संस्थाओं की मदद और संसाधनों से इस कार्यक्रम को करना पडा।
संस्कृति मंत्रालय से जुड़ा एक और उदाहरण। पटना की एक संस्था है जिसने 12 और 13 मार्च को टीवी पत्रकार रवीश कुमार की कृति इश्क में शहर होना पर एक नाटक का आयोजन किया। कालिदास रंगालय में दो दिनों तक हुए इस मंचन के लिए भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने आर्थिक मदद दी। रवीश कुमार मोदी सरकार की नीतियों के कठोर आलोचकों में से हैं। सरकार की नीतियों के विरोध में स्क्रीन काला करने से लेकर अपने कार्यक्रम में स्टूडियो में विदूषकों तक को बिठा चुके हैं। मोदी सरकार के लिए तरह तरह के विशेषणों का प्रयोग करते रहे हैं। बावजूद इसके उनकी कृति पर होनेवाले नाटक को संस्कृति मंत्रालय से आर्थिक मदद दी गई। बगैर किसी दुराग्रह और पूर्वाग्रह के। यह भी तर्क नहीं दिया जा सकता है कि मंत्रालय में निचले स्तर पर चूक हुई होगी। इसकी एक प्रक्रिया है जिसके तहत संस्थाएं नाटक के मंचन के लिए आर्थिक सहयोग की मदद के लिए आवेदन देती हैं । अपने आवेदन में वो नाटक के मंचन की तिथि के अलावा किस लेखक की कृति पर आधारित नाटक का मंचन होगा, आयोजन स्थल आदि सभी जानकारी अपने आवेदन के साथ संलग्न करते हैं। आवेदन पर मंत्रालय में उच्च स्तर पर फैसला लिया जाता है। अगर किसी तरह का पूर्वग्रह होता या भेदभाव होता तो क्या ये संभव हो पाता। यह अलग बात है कि इश्क में शहर होना का नाट्य रूपांतर कैसा हुआ होगा क्योंकि वो छोटी छोटी कहानियों का संग्रह है।
इस वर्ष फरवरी और मार्च में संस्कृति मंत्रालय के इन दो फैसलों से साफ है कि संस्कृति मंत्री ने जो शपथ ली थी, जिसमें कहा जाता है कि बगैर किसी राग या द्वेष के काम करेंगे, उसको अक्षरश: निभाया है। बावजूद इसके अगर मोदी सरकार पर असहिष्णुता और संघ के इशारे पर काम करने का आरोप लगता है तो वो सही नहीं प्रतीत होता है। दरअसल अगर हम 2014 से मोदी सरकार पर लग रहे इस तरह के आरोपों का विश्लेषण करते हैं तो इसमें राजनीति की एक अंतर्धारा साफ नजर आती है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद और राज्यों के विधानसभा चुनावों के पहले इस तरह की बातें फैला कर मोदी विरोधी राजनीति को मजबूत करने की एक कोशिश की जाती रही है। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी अभियान को एक सोची समझी रणनीति के तहत शुरू किया गया था। इस बात की पुष्टि पिछले दिनों तब हुई जब साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने एक लंबा लेख लिखकर सारी घटनाओं को क्रमबद्ध तरीके से देश के सामने रख दिया। इसी तरह से 2017 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले जुटान नाम से संगठन बनाकर वामपंथी लेखकों ने मोदी सरकार के विरोध करने की योजना बनाई थी। कुछ कार्यक्रम भी किए थे जिसमें देशभर में प्रतिरोध के बिखरे हुए स्वर को एक करने की आवश्यकता जताई गई थी। गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद इस जुटान का क्या हुआ ये पता नहीं चल पा रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले भी इस तरह की कोशिश की गई थी। लेखकों और साहित्यकारों को राजनीति करनी चाहिए या नहीं, इसको लेकर चली बहस में पूरी दुनिया के विचारकों ने अपने मत प्रकट किए। लुकाच से लेकर ब्रेख्त और बेंजामिन जैसे विश्वप्रसिद्ध लेखकों की राय है कि लेखक और राजनीति का संबंध होना चाहिए। अज्ञेय से लेकर मुक्तिबोध तक ने लेखकों में राजनीतिक चेतना की वकालत की है लेकिन इस बात का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है कि लेखक सांस्कृतिक मसलों की आड़ लेकर राजनीति करें। पिछले पांच सालों से हो ये रहा है कि एक खास विचारधारा के लेखक साहित्यिक और सांस्कृतिक मसलों की आड़ में राजनीति कर रहे हैं। अगले महीने से लोकसभा चुनाव के लिए मतदान शुरू होगा, उसके पहले भी इस तरह के मसले उठेंगे, पर कहते हैं न कि ये जो पब्लिक है वो सब जानती है। इसमें जोड़ सकते हैं कि वो सब समझती भी है।

Saturday, March 9, 2019

फॉर्मूलाबद्ध लेखन की बेड़ी में साहित्य


आगामी सितंबर में स्कॉटलैंड में इंटरनेशनल क्राइम राइटिंग फेस्टिवल का आयोजन होना है। इस क्राइम राइटिंग फेस्टिवल का नाम ब्लडी स्कॉटलैंड है। इस फेस्टिवल में दुनिया की अलग अलग भाषाओं के अपराध कथा लेखक शामिल होते हैं। इस फेस्टिवल की चर्चा इस वजह से हो रही है क्योंकि पिछले दिनों एक साहित्योत्सव के दौरान संस्कृतिकर्मी मित्र संदीप भूतोडिया ने बातचीत के दौरान बताया कि ब्लडी स्कॉटलैंड इंटरनेशनल क्राइम राइटिंग फेस्टिवल ने तय किया है कि वो हिंदी से भी एक अपराध कथा लेखक को इस फेस्टिवल में निमंत्रित करेंगे। तीन चार साहित्यिक मित्र वहां खड़े थे। इस खबर को सुनने के बाद सबके चेहरे पर खुशी का भाव था क्योंकि उनको लग रह था कि हिंदी लेखकों की पूछ वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है। हम सब लोग खुश हो ही रहे थे कि संदीप भूतोड़िया ने हमसे हिंदी के एक क्राइम फिक्शन या अपराध कथा लेखक का नाम पूछा ताकि ब्लडी स्कॉटलैंड फेस्टिवल के आयोजकों को सुझा सकें। वहां खड़े सबके मुंह से निकला सुरेन्द्र मोहन पाठक। फिर पता चला कि पाठक जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। पाठक जी के अलावा किसी क कोई नाम सूझ नहीं रहा था। लंबी चर्चा के बाद भी हम सब हिंदी के किसी अपराध कथा लेखक का नाम नहीं सुझा पाए। हिंदी के अपराध कथा लेखक पर बात चल निकली। जितने भी नाम आए लगभग सभी पॉकेट बुक्स के लेखक के आए चाहे वो कर्नल रंजीत हों, वेद प्रकाश शर्मा हों या ओम प्रकाश शर्मा हों। तथाकथित मुख्यधारा के साहित्यकारों में से कोई भी ऐसा नाम नहीं आया जिसको हिंदी में अपराध कथा लेखक के तौर पर स्वीकृति मिली हो। ले देकर एक गोपाल राम गहमरी का नाम याद पड़ता है जिन्होंने अपनी पत्रिका जासूस के लिए कई जासूसी उपन्यास लिखे। खूनी की खोज, अद्भुत लाश, बेकसूर की फांसी और गुप्तभेद उनके चर्चित उपन्यास रहे हैं। आजादी के कुछ दिनों पहले ही गोपाल राम गहमरी का निधन हो गया। दरअसल अगर हम देखें तो गहमरी ने हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं के अलावा जासूसी उपन्यास लिखे। उन्होंने जमकर अनुवाद भी किए। गहमरी के निधन के बाद उनके कद का तो छोड़ दें, कोई उनसे कमतर जासूसी लेखक भी हिंदी साहित्य को नहीं मिला। अपराध कथा पढ़ने वाले हिंदी के पाठक अपनी पाठकीय क्षुधा मेरठ से छपनेवाले पॉकेट बुक्स से पूरी करते रहे। एक जमाना था जब रेलवे स्टेशन के व्हीलर के स्टॉल पर राजन-इकबाल सीरीज के जासूसी उपन्यासों के लिए किशोरों की लाइन लगा करती थी। नए-नए पाठक राजन-इकबाल सीरीज के नए उपन्यासों की प्रतीक्षा करते थे। उसकी अग्रिम बुकिंग हुआ करती थी।  
अब इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि हिंदी में अपराध कथा लेखक क्यों नहीं हुए या क्यों बहुत कम हुए। हिंदी समेत पूरी दुनिया की अलग अलग भाषाओं में अपराध कथा का विशाल पाठक वर्ग है। अंग्रेजी में तो क्राइम फिक्शन लिखनेवाले लेखकों की एक बेहद समृद्ध परंपरा है। अमेरिकी क्राइम फिक्शन लेखक जेम्स पैटरसन दुनिया के सबसे अमीर लेखकों में से एक हैं। वो जासूसी उपन्यास के साथ साथ, रोमांस और एडल्ट फिक्शन भी लिखते हैं। उनके जासूसी उपन्यासों के लोग दीवाने हैं। लेकिन हिंदी साहित्य में अगर इस विधा पर विचार करें तो एक सन्नाटा नजर आता है। सुरेन्द्र मोहन पाठक को भी हाल के वर्षों में तथाकथित मुख्यधारा के लेखकों के बराबर सम्मान मिलना शुरू हुआ जब उनको हार्पर कॉलिंस जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह ने छापना शुरू किया। दरअसल हिंदी साहित्य लेखन में एक खास किस्म की वर्ण व्यवस्था दिखाई देती है। इसमें अलग अलग विधाओं में लेखन करनेवाले और अलग अलग प्रकाशकों से छपनेवाले वर्णव्यवस्था के अलग अलग पायदान पर हैं। ये वर्ण व्यवस्था इतनी कठोर या रूढ़ है कि इसके खांचे को तोड़ पाना लगभग नामुमकिन है। इसको समझने के लिए एक उदाहरण ही काफी होगा। हिंदी में प्रेम पर लिखनेवाले दो उपन्यासकार हुए। एक धर्मवीर भारती जिनका लिखा गुनाहों का देवता बहुत प्रसिद्ध हुआ। दूसरे हुए गुलशन नंदा जिनके कई उपन्यास बेहद लोकप्रिय हुए, उनके लिखे उपन्यासों पर खूब फिल्में बनीं। प्रेमकथा लिखनेवाले धर्मवीर भारती और गुलशन नंदा में साहित्यिक वर्ण व्यवस्था में धर्मवीर भारती केंद्र में रहे और गुलशन नंदा तमाम लोकप्रियता और फिल्मों में स्वीकार्यता के बावजूद उसकी परिधि के भी बाहर रहे। क्यों? तथाकथित मुख्यधारा के आलोचकों ने कभी गुलशन नंदा की कृतियों को विचार योग्य भी नहीं समझा। क्यों? जब भी गुनाहों का देवता का नया संस्करण छपता उसपर चर्चा होती, उसको और मजबूती प्रदान की जाती। अगर अब भी गुलशन नंदा के किसी एक उपन्यास की प्रतियों की संख्या और गुनाहों के देवता की अबतक बिकी प्रतियों की तुलना की जाए तो बेहद दिलचस्प आंकड़े और नतीजे सामने आ सकते हैं।  
साहित्य की इस वर्ण व्यवस्था को वामपंथी विचारधारा ने बहुत मेहनत से तैयार और मजबूत किया। इस विचारधारा को मानने वाले लेखकों और आलोचकों ने एक ऐसा मजबूत घेरा तैयार किया जिसमें बाहरी विचारधारा के लेखकों को मान्यता ही नहीं दी। गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत और इन जैसे अन्य लेखकों का मूल्यांकन क्या उसपर चर्चा ही नहीं की गई । इनको लुगदी लेखक कहकर साहित्यिक वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत रखा। यही हाल वर्षों तक फिल्मों और गीत संगीत पर लिखनेवालों का रहा। उनको भी गंभीर लेखक नहीं माना गया। फिल्मों और गीत संगीत को लेकर वामपंथी आलोचकों की राय अच्छी नहीं रही। उनको वो बुर्जुआ के लिए किया गया उपक्रम मानते रहे। नतीजा यह हुआ कि इस विधा पर लिखने वालों का विकास नही हो सका और हिंदी फिल्मों को लेकर जितना अच्छा और अधिक अंग्रेजी में लिखा गया उतना हिंदी में नहीं लिखा जा सका। हिंदी साहित्य जब वामपंथ के जकड़न से मुक्त होने लगी तो फिल्म और संगीत पर लेखन बढ़ने लगा। लेकिन अबतक हिंदी में इन विषयों पर लेखन इतना पीछे रह गया है कि उसको अंग्रेजी के बराबर आने में काफी वक्त लगेगा। अपराध कथा और जासूसी उपन्यासों को लेकर भी यही स्थिति रही। जासूसी उपन्यासों के लेखकों को हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठा नहीं मिली लिहाजा इस विधा में हाथ आजमाने वाले कम हुए। साहित्य के वाम विचारधारा काल में यथार्थवादी लेखन या मजदूरों और दबे कुचलों के पक्ष में इतना अधित लेखन हुआ, और उस लेखन को प्रतिष्ठा दिलाने का चक्र चला कि बाकी विधाएं या तो दम तोड़ गईं या फिर उनमें लिखनेवाले कम होते चले गए। इतना ही नहीं जनलेखक और अभिजन लेखक के खांचे में बांटकर भी लेखकों को उठाने और गिराने का खेल खेला गया। जनवादिता, प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता के नाम पर जिस तरह से साहित्यिक यथार्थ गढे गए उसने भी लेखकों को एक फॉर्मूला दिया। उस फॉर्मूले को अपनाकर पुरस्कार और प्रसिद्धि दोनों मिले। लेकिन उसने हिंदी साहित्य का नुकसान किया। उसके विस्तार को बाधित किया। फॉर्मूलाबद्ध लेखन लंबे समय तक चल नहीं सकता है।
जासूसी कथा या अपराध कथा नहीं लिखे जाने की एक औक वजह समझ में आती है वो है कि यह विधा लेखक से बहुत मेहनत की मांग करती है। इसमें पॉर्मूलाबद्ध लेखन नहीं हो सकता है, इसमें पाठकों के लिए हर पंक्ति में आगे क्या की रोचकता बरकरार रखनी होती है। यहां काल्पनि यथार्थ नहीं चलता है। दूसरी बात ये कि अपराध कथा में सूक्षम्ता से स्थितियों का वर्णन करना होता है जिसके लिए कानून और अपराध दोनों का ज्ञान होना आवश्यक है। अन्य विधा में इतनी सूक्ष्मता से वर्णन की अपेक्षा नहीं की जाती है वहां काल्पनिक यथार्थ से भी काम चल जाता है। एक और वजह ये हो सकती है कि हिंदी के प्रकाशकों ने भी लंबे समय तक अपराध कथा को छापने का साहस नहीं किया। लेखकों से अपराध कथा या जासूसी उपन्यास लिखवाने की कोई योजना नहीं बनाई। पिछले दिनों जब कॉलेज की कहानियां बेस्टसेलर होने लगी तो हिंदी के तमाम प्रकाशकों ने एक खास तरह के लेखन को ना केवल स्वीकारा बल्कि उसको बढ़ावा देने के लिए कमर कस कर तैयार हो गए। जासूसी उपन्यासों को लेकर हिंदी के प्रकाशकों में किसी तरह का उत्साह नहीं दिखा क्योंकि अगर उत्साह दिखता तो उसको छापने का प्रयत्न भी सामने आता। प्रकाशकों की उदासीनता ने भी लेखकों को जासूसी कथा लिखने से दूर किया। उपन्यासकार प्रभात रंजन कहते भी हैं कि अगर वो जासूसी उपन्यास लिख भी देगें तो छापेगा कौन। इअगर छपेगा ही नहीं तो लिखने का क्या फायदा। दरअसल अगर हम देखें तो भारतीय प्रकाशन जगत के एक बड़े हिस्से पर भी वामपंथी विचारधारा और रूस के धन का व्यापक प्रभाव लंबे समय तक रहा। उसने भी कायदे से हिंदी में अलग अलग तरह के लेखन का विकास अवरुद्ध किया। मार्क्स और मार्क्सवाद की आड़ में ना केवल पौराणिक लेखन को प्रभावित किया बल्कि अलग अलग विधा को भी पनपने से रोका। जबकि मार्क्स ने तो साफ कहा था कि पुराणों में अतिलौकिक और धार्मिक तत्व ही नहीं होते वो मनुष्य की नैतिक मान्यताओं और यथार्थ के प्रति उसके सौंदर्यात्मक दृष्टिकोण को भी प्रतिबिंबित करते हैं।जरूरत इस बात की है कि इन कारगुजारियों पर हिंदी साहित्य विचार करे।    


Saturday, March 2, 2019

समग्र मूल्यांकन की चुनौती


हिंदी साहित्य जगत में नामवर जी की उपस्थिति एक आश्वस्ति की तरह थी। उनके निधन के बाद यह आश्वस्ति थोड़ी कम हो गई है। खत्म हो गई इसलिए नहीं कहा जा सकता है क्योंकि नामवर सिंह की कृतियां हमारे साथ हैं। यह हमारे भारतीय संस्कार में है कि किसी भी व्यक्ति के निधन के बाद हम उनके व्यक्तित्व या कृतित्व का विश्लेषण उदार होकर करते हैं। नामवर सिंह के निधन के बाद कुछ लोग उनके लेखन और कथित व्यक्तिगत विचलन को लेकर उनकी आलोचना कर रहे हैं। हिंदी में यह बहुत कम होता है कि किसी के निधन के फौरन बाद उनकी आलोचना शुरू हो जाए। नामवर के निधन के बाद ऐसा हुआ। उनके निधन के बाद कुछ लोग उनको प्रगतिशील विचारधारा के ध्वजवाहक के तौर पर पेश करने लगे।इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी इसपर विचार किया जाना चाहिए। नामवर सिंह प्रगतिशील लेखक संघ के सालों तक अध्यक्ष रहे लेकिन जब भी उनको उचित लगा उन्होंने पार्टी लाइन से अलग हटकर भी फैसला लिया। इस संबंध में एक प्रसंग याद आता है जिसका जिक्र निर्मला जैन ने अपनी पुस्तक में किया है। पांच साल की बेरोजगारी के बाद नामवर सिंह को कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार जनयुग में नौकरी मिली और वो दिल्ली आ गए थे। कुछ दिन ही बीते थे कि राजकमल प्रकाशन की उस वक्त की मालकिन शीला संधू ने उनके सामने अपने प्रकाशन गृह के सलाहकार बनने का प्रस्ताव किया था। दो हजार रुपए महीने के वेतन पर। उस वक्त के लिहाज से प्रस्ताव बहुत अच्छा था। राजकमल प्रकाशन में सलाहकार की नौकरी और जनयुग का संपादन दो साल तक साथ-साथ चलता रहा। अचानक एक दिन शीला संधू ने उनके दो जगह नौकरी करने पर सवाल उठा दिया। शीला जी ने नामवर सिंह से दोनों में से एक जगह नौकरी करने के विकल्प को चुनने को कहा। नामवर सिंह थोडे परेशान हुए। एक तरफ पार्टी के प्रति निष्ठा और दूसरी तरफ राजकमल की आकर्षक वेतन वाली नौकरी। नामवर सिंह को निर्मला जैने ने सलाह दी थी कि किसी भी व्यापारिक संस्थान की तुलना में पार्टी समर्थित अखबार का ठिकाना ज्यादा भरोसेमंद होगा। ये उस वक्त की बात है जब कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिति अच्छी थी। लेकिन नामवर जी ने फैसला राजकमल प्रकाशन के पक्ष में लिया। वजह क्या रही होगी इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ लोगों ने उस वक्त राजकमल प्रकाशन से मिलनेवाली पगार को इसका कारण माना था। ये लगता नहीं है क्योंकि ऐसा मानना नामवर सिंह की पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिन्ह लगाने जैसा है। नामवर सिंह ने पार्टी पर एक निजी संस्थान को तरजीह दी। मुझे लगता है कि ऐसा उन्होंने इस वजह से किया होगा कि राजकमल प्रकाशन में रहकर उनका संपर्क पूरे हिंदी जगत के लेखकों से होगा और वो हिंदी साहित्य और साहित्यकारों के संपर्क में रहकर ज्यादा बेहतर काम कर पाएंगें।
ऐसे कई उदाहरण हैं जब नामवर सिंह ने प्रगतिशील लेखक संघ यानि प्रलेस या कम्युनिस्ट पार्टी की बात नहीं मानी। ज्यादा पुरानी बात नहीं है। करीब तीन साल पहले जब नामवर सिंह नब्बे साल के हुए थे तो इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने उनके जन्मदिन समारोह का आयोजन किया था। गृहमंत्री राजनाथ सिंह और संस्कृति मंत्री महेश शर्मा उस समारोह में शामिल हुए थे। नामवर सिंह के इस समारोह में शामिल होने के फैसले के विरोध में प्रलेस ने बयान जारी किया था। प्रलेस के उस बयान में ये कहा गया था कि 2012 में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पद से हटने के बाद नामवर सिंह संघ के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए। प्रलेस के महासचिव के मुताबिक उनके संगठन के पास नामवर सिंह को रोकने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन वो संगठन को नामवर सिंह से अलग तो कर ही सकते हैं। बावजूद इसके नामवर सिंह अपने जन्मदिन समारोह में शामिल हुए।
एक सांस्कृतिक संगठन का यह दायित्व होता है कि वो अपने वरिष्ठ लेखकों का सम्मान करे। इसमें राजनीति नहीं होनी चाहिए। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र अपने इसी दायित्व का निर्वाह कर रहा था। कला केंद्र ने तो उसके बाद नामवर सिंह के विपरीत विचारधारा के लेखक देवेन्द्र स्वरूप जी को लेकर भी समारोह आयोजित किया। देवेन्द्र स्वरूप जी के निधन के बाद उनके नाम से भारतीय ज्ञान परंपरा के अध्ययन के लिए एक फेलोशिप की घोषणा भी की है। दोनों विद्वानों ने अपनी लाइब्रेरी भी कला केंद्र को सौंपने का फैसला कर लिया था। दरअसल बहिष्कारवादियों को ये बातें कहां समझ में आती हैं। उन्हें तो अपना स्वार्थ और अपनी राजनीति दिखती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि नामवर सिंह कम्युनिस्ट थे। वो विचारधारा के स्तर पर मार्क्सवादी भी थे लेकिन जड़ता से दूर थे। वो अपने लेखन में भारतीय ज्ञान परंपरा और प्रतीकों का जमकर उपयोग करते थे। एक बेहद दिलचस्प प्रसंग मैनेजर पांडे के संदर्भ में है। नामवर सिंह ने अपनी पुत्री समीक्षा को दार्जिलिंग से 12 जून 2005 को एक पत्र लिखा था । पत्र की पृष्ठभूमि यह है कि दार्जिलिंग के होटल में कोई पांडे नाम के सज्जन पहुंचे और पांच सौ पृष्ठों के महाकाव्य पर नामवर जी से कुछ लिखने का आग्रह किया । पत्र में नामवर जी लिखते हैं बेटू, मेरी वह पुरानी जन्मकुंडली कहीं पड़ी हो तो इस बार लौटने पर मुझे दे देना । मैं उसे किसी ज्योतिषी को दिखाना चाहता हूं। मुझे शक है, उसमें कहीं ना कहीं ‘पांडे-पीड़ा’ का उल्लेख अवश्य होगा । काशी तो ‘पांडे-पीड़ित’ हैं ही, कहीं ना कहीं मुझे भी वह छूत लग गई है । भदैनी पर रहने के लिए किराए का जो मकान लिया था वह रामनाथ पांडे का ही दिया हुआ था और बाद में बगल का जो मकान खरीदा वह भी उन्हीं पांडे जी ने दिलवाया था । इस क्रम में मैनेजर पांडे भी याद आ रहे हैं जो जोधपुर में मिले तो मिले ही, मेरी शामत आई कि उनको जेएनयू ले आया और अंत में अवकाश ग्रहण करने के बाद तीन साल के लिए सेंटर पर थोप दिया, जिसके लिए सभी लोग आज भी कोस रहे हैं । जो हो, दार्जीलिंग भी इस ‘पांडे-पीड़ा’ से सुरक्षित नहीं है । जाने यह पीड़ा कहां-कहां तक और कब तक मेरा पीछा करती रहेगी ।
इस पूरे प्रसंग को बताने का मतलब सिर्फ इतना है कि नामवर सिंह निजी संवाद में भी जिन प्रतीकों का उपयोग करते हैं वो खांटी भारतीय समाज के होते हैं। इसी तरह अगर देखें तो नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और उसको नई कहानी की पहली कहानी करार दिया। उस वक्त भी ढेर सारे कम्युनिस्ट लेखक उनसे इस तमगे की अपेक्षा कर रहे थे। निर्मल वर्मा के विचारों से पूरा देश और खासतौर पर हिंदी साहित्य समाज अवगत है, जाहिर सी बात है नामवर सिंह भी रहे होंगे। बावजूद इसके वो पार्टी लाइन से अलग जाकर अपनी स्वतंत्र राय सामने रखते हैं और उस राय को लगातार स्थापित भी करते चलते हैं। बाद के दिनों में तो ऐसी प्रवृत्ति बढ़ती ही चली गई। पिछले वर्ष एक इंटरव्यू में तो वो खुलकर ईश्वर को याद कर रहे थे। ईश्वर की कृपा की आकांक्षा करते भी दिख रहे थे।
नामवर सिंह पर एक आरोप यह है कि उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु की उपेक्षा की। हो सकता है ये किया हो क्योंकि एक समारोह में उन्होंने रेणु पर भाषा को भ्रष्ट करने का आरोप जड़ा था। पर रेणु के उपन्यास मैला आंचल में वह ताकत थी जो उसको लोकप्रिय होने से रोक नहीं सकी। रेणु की उपेक्षा करने की कोशिश तो सबने की। शुरुआत में जब मैला आंचल पटना के समता प्रकाशन से छपा तो पटना विश्वविद्यालय के शिक्षक और आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने उसपर लेख लिखकर हिंदी जगत का ध्यान आकृष्ट किया। उसके बाद 15 जुलाई 1955 को गिरिलाल जैन ने अंग्रेजी में इसपर लिखा। गिरिलाल जैन ने लिखा कि भारत के गांवों को समझने और उसको अपनी कृति में उकेरनेवाले प्रेमचंद के बाद रेणु दूसरे लेखक हैं। जैन ने भी रेणु की स्थानीय भाषा के ज्यादा उपयोग पर टिप्पणी की लेकिन साथ ही ये भी कहा कि चरित्रों का चित्रण इतना बेहतर है कि भाषा पठनीयता को बाधित नहीं करती है। रेणु की उपेक्षा की कोशिश सिर्फ नामवर ने क्यों कई लोगों ने की। अभी राग दरबारी के पचास साल पूरे होने पर जश्न से लेकर लेख आदि तक लिखे गए लेकिन मैला आंचल के प्रकाशन के पचास साल कब पूरे हो गए किसी को पता चला क्या? नामवर सिंह ने लेखकों को उठाने गिराने का खेल खेला, ऐसा भी कहा जाता है लेकिन बावजूद इसके सभी लेखक उनसे अपनी कृति पर प्रमाण पत्र चाहते थे ऐसा क्यों ? इसपर विचार हो। नामवर सिंह का समग्र मूल्यांकन हो, टुकड़ों में न तो आरोप लगे और ना ही महान बनाया जाए।