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Saturday, November 26, 2022

प्रगतिशीलता के झंडाबरदार खामोश


हाल में तीन घटनाएं लगभग एक साथ घटी। दिल्ली के जामा मस्जिद में एक नोटिस लगा जिसपर लिखा था कि मस्जिद में लड़की या लड़कियों का अकेले दाखिला मना है। दूसरी घटना में अभिनेत्री ऋचा चड्ढा ने भारतीय सेना का मजाक उड़ाते हुए एक ट्वीट किया। हुआ ये कि लेफ्टिनेंट जनरल उपेन्द्र द्विवेदी ने एक बयान दिया कि भारतीय सेना गुलाम कश्मीर को वापस भारत में मिलाने के आदेश को पूरा करने के लिए तैयार है। इसपर ऋचा चड्ढा ने मजाक उड़ाते हुए टिप्पणी की थी। जामा मस्जिद वाली घटना में दिल्ली के उपराज्यपाल के हस्तक्षेप के बाद मस्जिद प्रबंधन ने अपना निर्णय वापस ले लिया। ट्विटर पर जब चौतरफा हमला होने लगा तो अभिनेत्री ऋचा चड्ढा को भी बात समझ में आई होगी। उसने भी अपनी टिप्पणी पर खेद प्रकट कर दिया। अपने नाना के सेना में होने की बात कहने लगी। तीसरी खबर दारुल उलूम देवबंद से आई। एक ताजा फतवे में कहा गया कि इस्लाम में जन्मदिन मनाना गुनाह है। फतवे में कहा गया कि जन्मदिन मनाना एक खुराफात है क्योंकि इस्लाम और शरीयत में इसका कोई जिक्र नहीं है। जन्मदिन मनाने की परंपरा ईसाइयों की है और मुसलमान उसकी नकल करते हैं। मुसलमानों को इससे बचना चाहिए और शरीयत के बताए रास्ते पर चलना चाहिए।  

जामा मस्जिद में नोटिस वापसी और ऋचा के खेद प्रकट करने के बाद मामले का पटाक्षेप हो गया प्रतीत होता है। लेकिन इन दो घटनाओं के बाद कई प्रश्न उत्पन्न हो गए हैं। जिसपर भारतीय समाज को गंभीरता से विचार करना चाहिए। जामा मस्जिद में अकेली लड़कियों के प्रवेश पर प्रतिबंध का जब इंटरनेट मीडिया पर विरोध आरंभ हुआ तो मस्जिद की ओर से सफाई आई। उस सफाई में मस्जिद के प्रवक्ता ने कहा कि लड़कियां अपने पुरुष मित्रों से मिलने के लिए मस्जिद में आती हैं, डांस करती हैं, वीडियो बनाती हैं, इस वजह से उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि एक वेबसीरीज में जब एक मंदिर के अंदर नायक-नायिका का चुंबन दृष्य फिल्माया गया था तो उसका विरोध हुआ था। केस मुकदमे भी गुए थे। तब कथुत उदारवादियों की तरफ से ये तर्क दिया गया था कि प्रेम तो पवित्र होता है और वो कहीं भी किया जा सकता है। उसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भी जोड़ा गया था। तब इस तरह के तर्क देने वाले जामा मस्जिद वाले मसले पर कन्नी काट गए हैं। जबति यहां न तो कोई चुंबन दृश्य था और न ही रोमांटिक नृत्य का वीडियो बना था। 

हिंदुओं और मुसलमानों के बारे में दो अलग अलग मानदंडों पर विचार किया जाना चाहिए। नारी स्वतंत्रता की बात करनेवाली और खुद को उदारवादी प्रचारित करनेवाली क्रांतिकारी महिलाएं भी इन मसलों पर खामोश रहीं। कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर में महिलाओं के प्रवेश पर कितना हंगामा मचा था, ये अब भी पाठकों के स्मरण में होगा। उस वक्त जितनी महिलाएं पक्ष में खड़ी हुई थीं, इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर जिस तरह का गुस्सा या विरोध देखने को मिला था वो जामा मस्जिद के फैसले के समय कहीं भी नहीं दिखा। वो फिल्मी अभिनेत्रियां भी नहीं दिखाई दीं जो महिला अधिकारों के लिए हाथ में तख्तियां लेकर ट्विटर पर खड़ी हो जाया करती हैं। उनके पास जामा मस्जिद में लड़कियों के प्रवेश पर पाबंदी की खबरें नहीं पहुंच पाती हैं लेकिन शणि शिंगणापुर की आहट से भी परेशानी हो जाती है। इन तथाकथित उदारवादी, प्रगतिशील या महिला अधिकारों की झंडा-डंडा लेकर चलनेवाली महिलाओं की इस तरह की चुनी हुई चुप्पियां उनके सार्वजनिक स्टैंड को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है। इनके इस तरह के स्टैंड से समाज में एक अलग ही किस्म की सांप्रदायिक स्थितियां बनती हैं जिसका असर काफी लंबे समय के बाद देखने को मिलता है। यह स्थिति समाज के लिए घातक है। 

पिछले दिनों जब फिल्मों का बहिष्कार होने लगा था तो इसके विरोध में देशभर में एक चर्चा का वातावरण बनाने की कोशिश की गई थी। उसमें इस तरह की बातें भी की गई थीं कि बहिष्कार की अपील के कारण हमारा समाज हिंदू और मुसलमान के आधार पर बंट रहा है। ऐसा तब नहीं कहा गया था जब आमिर खान ने नरेन्द्र मोदी के विरोध में चलते फिरते इंटरव्यू दिया था। तब आमिर खान को साहसी अभिनेता के तौर पर रेखांकित किया गया था। जब आमिर की फिल्म के बहिष्कार की बात आई तो उसको हिंदू मुसलमान का रंग देकर भारतीय समाज को अपमानित करने की कोशिश की गई। ऋचा चड्ढा ने भारतीय सेना का अपमान किया है, उसका मजाक उड़ाया है। सवाल यही उठता है कि कोई अपने देश की सेना का मजाक कैसे उड़ा सकता है। कहां से दिमाग में इस तरह की सोच आती है। क्यों ये लोग बात-बात में सेना को अपनी क्षुद्र राजनीति का शिकार बना लेते हैं। कल को अगर ऋचा को कोई फिल्म मिलती है या वो किसी वेबसीरीज में नजर आती है और दर्शकों की ओर से उसके बहिष्कार की अपील की जाती है तो उसकी आलोचना का अधिकार किसी को नहीं होगा। बहिष्कार तो विरोध जताने का एक शांतिपूर्ण तरीका भी है। इंटरनेट मीडिया पर ऋचा चड्ढा की टिप्पणियां पढ़कर लगता है कि वो खुद को उदारवादी मानती हैं, सेक्यूलर भी। इंटरनेट मीडिया पर खूब सक्रिय भी हैं लेकिन जामा मस्जिद में लड़कियों के प्रवेश पर पाबंदी के मामले में वो भी चुप्पी को ही चुन लेती हैं। इस तरह का छद्म उदारवाद ज्यादा दिनों तक चल नहीं सकता। 

अब बात कर लेते हैं उस फतवे की जिसमें जन्मदिन के उत्सव को इस्लाम में गुनाह माना गया है। इसपर आगे बढ़ने के पहले फतवे के बारे में कुछ जानकारी। समय समय पर जारी होनेवाला फतवा संकलित होता रहा है। इसके बाद उसको संकलित कर प्रकाशित करवा दिया जाता है। जब किसी आम मुसलमान के मन में अपनी जिंदगी, शरीयत या स्वभाव के बारे में कोई शंका पैदा होती है या उसका किसी मसले पर विवाद हो जाता है तो वो मौलवी के पास जाता है। उनसे अपने शंका का समाधान चाहता है। मौलवी पूर्व में जारी किए गए फतवों के संकलन को देखकर शंका समाधान की कोशिश करते हैं। दारुल उलूम देवबंद के जारी फतवों के कई खंड अबतक प्रकाशित हो चुके हैं। इस तरह के देखा जाए तो फतवे कानून बन जाते हैं। जन्मदिन तो लेकर जो फतवा जारी किया गया है उसका भी दूरगामी असर होगा। इस फतवे पर भी किसी भी प्रगतिशील कामरेड ने मुंह नहीं खोला और चुपचाप इसको गुजर जाने दिया गया। 

साहित्य जगत में भी कई लेखक और लेखिकाएं महिला अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर चीखती रहती हैं लेकिन उनमें से भी ज्यादातर लेखिकाएं चुप रहीं। कहीं कुछ नहीं लिखा। हिंदी साहित्य में भी खुद को प्रगतिशील कहनेवाले लेखक भी इन मसलों पर खामोश हैं। प्रगतिशील लेखक जितना मुखर हिंदू धर्म से जुड़ी घटनाओ पर होते हैं उतनी ही गहरी चुप्पी इस्लाम के मसले पर साध लेते हैं। अपने लेखन में भी और अपने बयानों और भाषणों में भी। ये कैसी प्रगतिशीलता है जो धर्म के आधार पर अपना रास्ता तय करती है। ये कैसी प्रगतिशीलता है जो देश के सैनिकों को अपमानित करनेवालों का विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पाता है। दरअसल ये छद्म प्रगतिशीलता है जो अपने राजनीतिक आकाओं के कहने पर अपना स्टैंड लेती है। राजनीति करनेवाले अपने वोटबैंक की चिंता करते हैं, करनी भी चाहिए लेकिन जब लेखक या बुद्धिजीवी खुद को राजनीतिक औजार के तौर पर इस्तेमाल करने की छूट देते नजर आते हैं तो समाज में उनकी प्रतिष्ठा कम होती है। 


Saturday, November 19, 2022

हिंदू शासकों के पराक्रम की अनदेखी


भुवनेश्वर में आयोजित ओडिशा लिटरेरी फेस्टिवल के एक सत्र में इतिहास पर चर्चा थी। उसमें भाग ले रही इतिहासकार नंदिता कृष्णा ने इतिहास लेखन में असंतुलन का प्रश्न उठाया। इस प्रश्न पर कम या नहीं के बराबर चर्चा हुई है। नंदिथा के अनुसार भारत के इतिहासकारों ने दक्षिण भारत के हिंदू राजाओं के शौर्य, पराक्रम और सनातन संस्कृति से प्रेम के बारे में अपेक्षाकृत कम लिखा। इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में मुगलों के शासन काल, ब्रिटिश औपनिवेशिकता और स्वाधीनता आंदोलन के बारे में विस्तार से लिखा गया लेकिन महान भारतीय राजाओं या सम्राटों के बारे में संक्षेप में। 1206 से लेकर 1526 तक चला सल्तनत काल सिर्फ दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक सीमित था लेकिन उनको या फिर 1526 से लेकर 1739 तक के मुगल काल को इतिहास की पुस्तकों में प्रमुखता से स्थान दिया गया। उन्होंने इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद से लेकर आर सी मजुमदार तक की पुस्तकों का उदाहरण दिया। उनका दावा था कि ईश्वरी प्रसाद की पुस्तक में वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल, जैन, बुद्ध, मौर्य सम्राज्य, शक, हूण, कुषाण, गुप्त काल और राजपूत राजाओं के बारे में 115 पृष्ठों में विवरण है लेकिन दक्षिण भारत के राजाओं और शासकों के बारे में सिर्फ सात पृष्ठों में। इसी तरह से मध्यकालीन इस्लामिक काल, जिसमें गजनी, गोरी के भारत पर आक्रमण गुलाम राजवंश, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी और मुगलों के बारे में विवरण है, को 190 पृष्ठ दिए गए हैं। जबकि उसी काल में दक्षिण भारत के बारे में कोई विवरण इस पुस्तक में नहीं है। 

सिर्फ ईश्वरी प्रसाद की पुस्तक ही नहीं बल्कि उन्होंने आर सी मजुमदार और रोमिला थापर की पुस्तकों का उदाहरण भी दिया। आर सी मजुमदार की पुस्तक में भी उत्तर भारत के इतिहास के बारे में 171 पृष्ठ हैं जबकि सातवाहन, राष्ट्रकूट, पल्लव और चालुक्यों के बारे में सिर्फ नौ पृष्ठ। मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं के भारत आक्रमण पर 146 पेज, मुगल अफगान आक्रमणकारियों पर 192 पेज और विजयनगर के बारे में 77 पेज और ओडिशा में उस काल में घट रही घटनाओं पर सिर्फ 3 पेज। इसी तरह से रोमिला थापर की पुस्तक में उत्तर भारत के इतिहास पर 195 पृष्ठ और दक्षिण भारत के इतिहास पर सिर्फ 17 पेज।  

नंदिता कृष्णा ने इतिहास की पुस्तकों के इस असंतुलन को रेखांकित किया था। प्रश्न ये उठता है कि इतिहास की पुस्तकों के लेखकों ने ऐसा क्यों किया। जितनी जगह बादशाहों या मुस्लिम आक्रांताओं को दी गई उतना वर्णन दक्षिण भारत के हिंदू राजाओं के शासनकाल का क्यों नहीं किया गया। इस संदर्भ में दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य का जिक्र आवश्यक प्रतीत होता है। चोल साम्राज्य के शासक भारतवर्ष के पहले शासक थे जिन्होंने नौसेना का उपयोग करके अपने साम्राज्य को विस्तार दिया था। आज के श्रीलंका, मालदीव और इंडोनेशिया तक अपनी सत्ता कायम की थी। चोल सम्राट राजेन्द्र चोल प्रथम के पास कुशल नौसैनिकों और जहाजों का बहुत ही मजबूत बेड़ा था। उनके नौसैनिकों इतने कुशल थे कि वो हवा के रुख का भी अनुमान लगा लेते थे। इसी अनुमान पर आक्रमण की रणनीति बनती थी। इसी शक्ति के बल पर राजेन्द्र चोल प्रथम ने आज के सुमात्रा तक अपनी विजय पताका फहराई थी। राजेन्द्र चोल प्रथम के पिता राजराजा ने श्रीलंका पर आक्रमण करके उसको जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। इतना ही नहीं उन्होंने आज के मालदीव को भी अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया था। आज के इंडोनेशिया और उस समय के श्रीविजय के राजा का 14 बंदरगाहों पर आधिपत्य था। वो समुद्री रास्ते से होनेवाले कारोबार पर न केवल अपनी शर्तें थोपते थे बल्कि कारोबार को नियंत्रित भी करते थे। राजेन्द्र चोल को श्रीविजय के राजा संग्राम विजयतुंगबर्मन की ये नीतियां रास नहीं आ रही थी। लिहाजा उन्होंने एक साथ उनके चौदह बंदरगाहों पर हमला कर उनपर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। उन्होंने राजा संग्राम को बंदी बना लिया था। कुछ इतिहास पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजेन्द्र चोल प्रथम ने राजा संग्राम विजयतुंगबर्मन की पुत्री से विवाह भी किया था। संभव है कि राजेन्द्र चोल ने अपने साम्राज्य से होनेवाले व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए सुमात्रा पर हमला किया हो लेकिन इससे उनके शौर्य और पराक्रम को कम नहीं किया जा सकता है। नंदिथा कृष्णा ने भी इस बात को रेखांकित किया था कि चोल साम्राज्य के राजा भारत के पहले हिंदू शासक थे जिन्होंने समुद्री रास्ते से जाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था और उसको श्रीलंका से लेकर सुमात्रा तक फैलाया था। 

तंजावुर के शिलालेख में भी राजेन्द्र चोल प्रथम के इस नौसैनिक अभियान का उल्लेख मिलता है। राजेन्द्र ने इस आक्रमण के लिए अपने जहाज के माध्यम से हाथियों को भी रणभूमि में भेजा था। हाथियों पर सवार सैनिक श्रीविजय के बंदरगाहों पर धावा बोला था और विजय में निर्णाय़क भूमिका निभाई थी।  इतिहास में उपलब्ध तथ्यों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि चोल राजवंश ने बहुत लंबे समय तक शासन किया। पूरी दुनिया में इतने लंबे समय तक एक भूभाग पर एक ही राजवंश के शासन का उदाहरण कम मिलता है। कहा जाता है कि चोल राजवंश सबसे लंबे कालवधि तक राज करनेवाला वंश था। चोल राजवंश के बारे में अशोक के शिलालेखों में भी उल्लेख मिलता है और उनको मौर्य शासकों का मित्र बताया गया है। चोल राजवंश के हिंदू राजाओं के शौर्य और पराक्रम की चर्चा इतिहास की पुस्तकों में कम है। इतना ही नहीं उनके कला और संस्कृति प्रेम और इस क्षेत्र में उनके योगदान को भी रेखांकित करने का उपक्रम नहीं किया बल्कि वामपंथी इतिहासकारों ने तो इसको प्रयासपूर्वक ओझल किया। 

इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि इतने बड़े तथ्य या इतनी बड़ी ऐतिहासिक घटना को इतिहासकारों ने अपने लेखन के केंद्र में क्यों नहीं रखा। दरअसल इसके पीछे अपने विचारधारा को पुष्ट करने की मंशा दिखाई देती है। वामपंथी और नेहरूवादी इतिहासकारों ने स्वाधीनता के बाद इतिहास लेखन की जो पद्धति अपनाई वो इतिहास लेखन कम वैचारिक प्रोपगैंडा अधिक था। चाहे वो प्राचीन भारत का इतिहास लिख रहे थे या मध्यकालीन भारत का या फिर आधुनिक भारत का उन्होंने एजेंडा और प्रोपगैंडा को महत्व दिया। स्कूली पाठ्यक्रम लिखने का जिम्मा इन्हीं वामपंथी इतिहासकारों को मिला। वामपंथी इतिहासकारों ने जनता की दृष्टि से इतिहास को देखने का प्रचार तो किया लेकिन जन इतिहास लेखन की पद्धति के पीछे पार्टी की विचारधारा थी। वामपंथी इतिहासकारों ने लेखन के समय एक और छल किया कि उन्होंने हिंदू धर्म सिद्धांतों की अनदेखी की। उसकी मौलिकता को रेखांकित करने की बजाए वो आक्रांताओं की संस्कृति और कला को महत्व देने लगे। यहां भी चोल राजवंश का उदाहरण देना उपयुक्त रहेगा। चोल राजवंश के समय कला और संस्कृति को खूब बढ़ावा मिला। स्थापत्य कला की दृष्टि से भी अनेक उत्कृष्ट मंदिरों का निर्माण हुआ। मंदिरों पर जिस तरह की कलाकारी की गई वो अप्रतिम है। कहा जाता है कि नटराज की जो मूर्ति प्रचलन में है उसको चोल राजवंश के ही किसी राजा ने बनवाया था। उसके पहले शिव की उस मुद्रा की मूर्ति के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। वामपंथी इतिहासकारों ने जिस तरह से इतिहास लिखा उससे समाज के विभाजित होने का खतरा है। आर्य-अनार्य की अवधारणा ,जाति और वर्ग के आधार पर किसी कालखंड का मूल्यांकन करके वामपंथी इतिहासकारों ने विभाजन के बीज डाले। इतिहास लेखन में जो असंतुलन दिखाई देता है उसे दूर करने के लिए भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद को पहल करनी चाहिए। इस समय राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन का कार्य चल रहा है। पाठ्य पुस्तक तैयार करते समय भी इस असंतुलन को दूर किया जाना चाहिए। 

Monday, November 14, 2022

राष्ट्र सर्वप्रथम पर अडिग फिल्मकार


आज हिंदी फिल्म के विषयों को लेकर निरंतर विवाद होते हैं। कई बार फिल्मों में राजनीति और राजनीतिक दलों के एजेंडा भी दिखाई पड़ते हैं। आज बहुत ही कम फिल्मकार राष्ट्र सर्वप्रथम के सोच के साथ फिल्म बनाते नजर आते हैं। बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में कई ऐसी फिल्में आईं जिसने आतंकवाद और सांप्रदायिकता का विषय तो फिल्म के लिए चुना लेकिन मंशा विचारधारा विशेष का पोषण था। कई बार राजनीति भी। लेकिन हमारे देश में ऐसे कई फिल्मकार हुए जिन्होंने राष्ट्र की एकता और अखंडता को शक्ति देनेवाली फिल्में बनाईं। ऐसे ही एक फिल्मकार थे व्ही शांताराम। देश की स्वाधीनता के बाद वो दहेज पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे थे। फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम चल रहा था। उसी वक्त दक्षिण भारत में भाषा के आधार पर अलग आंध्र प्रदेश की मांग को लेकर आंदोलन चलने लगा। स्वाधीनता सेनानी श्रीरामलु आमरण अनशन पर थे। उनकी मौत हो गई। आंदोलन भड़क गया। इस आंदोलन ने शांताराम को व्यथित कर दिया। उन्होंने दहेज पर फिल्म बनाने की योजना रोक दी। तय किया कि वो अपना देश के नाम से एक फिल्म बनाएंगे। फिल्म हिंदी और तमिल दोनों भाषा में बनाई जाएगी। उनके मित्रों ने बहुत समझाया कि फिल्म दहेज की योजना को रोककर ‘अपना देश’ बनाने की योजना में लाभ नहीं होगा। उस समय शांताराम धनाभाव से गुजर रहे थे। पैसे के आगे उन्होंने देश को रखा। 

फिल्म अपना देश का पहला दृश्य स्वाधीनता के उत्सव का रखा गया। शांताराम ने इसमें एक डांस सीक्वेंस रखा। जिसमें भारत माता को बेड़ियों में जकड़ा दिखाया गया। भारत माता के आसपास नृत्यांगनाएं और उनके साथी परफार्म कर रहे थे। वो विभिन्न प्रदेशों की पोशाक पहने थे। नृत्य करते करते सबने मिलकर भारत माता को बेड़ियों से मुक्त कर दिया। अचानक एक व्यक्ति भारत के नक्शे से एक टुकड़ा उठा लेता है। सभी के बीच उसको लेकर झगड़ा शुरु हो जाता है। विभिन्न प्रदेशों के पोशाक पहने लोगों के बीच हो रहे इस झगड़े के दृश्यांकन से शांताराम ये संदेश दे रहे थे कि किस तरह भूमि के टुकड़े को लेकर भारत के लोग आपस में लड़ रहे हैं। झगड़े के बीच उन्होंने भारत माता को दुखी दिखाया था। भारत माता को दुखी देखकर सब फिर से एक होने लगते हैं। जमीन के जिस टुकड़े को लेकर विवाद हो रहा था उसको नक्शे पर सही जगह लगा दिया जाचा है। सब प्रसन्नतापूर्व डांस करने लगते हैं। सब एक हो जाते हैं। शांताराम इस नृत्य के माध्यम से ये संदेश देना चाहते थे कि जमीन के टुकड़े को लेकर आपस में लड़ाई झगड़ा अच्छी बात नहीं है। इससे न केवल भारत माता को दुख पहुंचता है बल्कि देश की एकता कमजोर होती है। शांताराम ने इस नृत्य सीक्वेंस में भारत के नक्शे को लेकर जिस तरह का दृश्यांकन किया गया था, उनके मन में ये आशंका पैदा हो गई थी कि फिल्म पर पाबंदी लग सकती है। मोरार जी देसाई की मदद से फिल्म सेंसर से पास हो गई। 

शांताराम की मुश्किल खत्म नहीं हुई थी। उस समय की प्रमुख पत्रिका फिल्मइंडिया के सपादक बाबूराव पटेल शांताराम की फिल्म के विरोध में थे। उन्होंने सभी राज्य सरकारों को पत्र लिखकर फिल्म पर पाबंदी लगाने की मांग की। उनके पत्र के बाद कई राज्य सरकारों ने रिलीज के पहले शांताराम से फिल्म की एक कापी मांगी। शांताराम थोड़े विचलित हुए। लेकिन उनको अपनी कला पर भरोसा था। दिल्ली में इस फिल्म के प्रदर्शन के पहले बाबूराव पटेल के दोस्तों ने इसके विरोध में पोस्टर लगाए थे। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल फिल्म के पक्ष में खड़े हो गए। उन्होंने इसके निर्बाध प्रदर्शन की व्यवस्था कर दी। इन सारे विवाद का फायदा हुआ और फिल्म ने कई जगहों पर सिल्वर जुबली मनाई। 1949 में हिंदी और तमिल में प्रदर्शित इस फिल्म ने देश की एकता और अखंडता को लेकर पूरे देश में एक संदेश दिया था लेकिन अफसोस कि इस देश में भाषा के नाम पर राज्यों का बंटवारा रोका न जा सका। 

Saturday, November 12, 2022

सांप्रदायिकता की शिकार अकादमियां


महारानी वेबसीरीज में एक संवाद है, जैसे ही मुझे लगता है कि मैंने बिहार को समझ लिया है, वैसे ही बिहार एक और झटका देता है। हो सकता है शब्दों में कुछ बदलाव हो लेकिन भाव यही है। इस संवाद में बिहार की जगह अगर वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम लिख दिया जाए तब भी इस संवाद के अर्थ में कोई बदलाव नहीं होता दिखेगा। कुछ दिनों पहले की बात है बिहार में उर्दू अनुवादकों को समारोहपूर्वक नियुक्ति पत्र बांटा जा रहा था। मुख्य सचिव ने अपने उद्बोधन में विभाग को कई सुझाव दिए। बारी आई मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बोलने की। उन्होंने मुख्य सचिव पर तंज कसते हुए कहा कि प्रवचन तो आपने बहुत अच्छा दिया। आप तो 2007 से मेरे साथ थे। 2008 से ही हम उर्दू अनुवादकों की बहाली (नियुक्ति) के लिए कह रहे हैं लेकिन अबतक नहीं हो पाया है। अभी भी पूरा बहाली नहीं हुआ है। जल्दी से सब पता करके काम पूरा करवाइए। पूरा सभागार पहले ठहाकों से और फिर तालियों से गूंज उठा। वेबसीरीज महारानी के पात्र मिश्रा जी की तर्ज पर बिहार के मुख्य सचिव अमीर सुब्हानी भी सोच रहे होंगे कि जैसे ही उनको लगता है कि वो नीतीश कुमार को समझने लगे हैं तो वो एक झटका देते हैं। प्यार से ही सही लेकिन नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्य सचिव को सार्वजनिक तौर पर झटका तो दे ही दिया।

ठहाकों और तालियों के बीच एक महत्वपूर्ण बात दब सी गई वो ये कि ये समारोह उर्दू के अनुवादकों को नियुक्ति पत्र देने का था। जिसमें नीतीश कुमार ने कहा कि वो 2008 में जिसकी घोषणा की गई थी उसको चौदह साल बाद भी पूरी तरह से संपन्न नहीं किया जा सका। उर्दू को लेकर नीतीश कुमार की चिंता की प्रशंसा की जानी चाहिए। यह अपेक्षा की जाती है कि किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री या उनके अधीन कार्य करनेवाले मंत्रालय या विभाग किसी भी भाषा के साथ भेदभाव नहीं करेंगे। संविधान भी यही कहता है। लेकिन क्या बिहार सरकार इस अपेक्षा को पूरा कर रही है। नीतीश कुमार ने जब तेजस्वी यादव के साथ मिलकर सरकार बनाई तो महागठबंधन की सरकार ने  बिहार की दो और स्थानीय भाषाओं के लिए अकादमियां खोलने की घोषणा की। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में निर्णय लिया गया कि वैशाली के आसपास के जिले में बोली जानेवाली बज्जिका और सीमांचल में बोली जानेवाली सुरजापुरी को संरक्षित और समृद्ध करने के लिए दो नई अकादमियों का गठन किया जाएगा। ये घोषणा स्वागतयोग्य है। उर्दू अनुवादकों की नियुक्ति पत्र वितरण समारोह में मुख्यमंत्री स्वयं कह चुके हैं कि उर्दू को लेकर 2008 में जो घोषणाएं की गई थीं वो अबतक धरातल पर नहीं उतर पाई हैं। तो क्या माना जाए कि इन अकादमियों की घोषणाओं को भी पूरा होने में काफी समय लगेगा। ये कब तक हो पाएगा ये तो भविष्य के गर्भ में है।

नीतीश सरकार ने दो नई भाषा अकादमियों की घोषणा की लेकिन जो भाषा और सांस्कृतिक अकादमियां बिहार में पहले से चल रही हैं वो लगभग मृतप्राय हैं। बिहार में पहले से भोजपुरी अकादमी, मगही अकादमी, मैथिली अकादमी और संस्कृत अकादमी अस्तित्व में हैं। पटना के शास्त्री नगर इलाके के सरकारी कर्माचरियों के आवासीय फ्लैट्स में इन सभी अकादमियों का कार्यालय है। इन अकादमियों की हालत इतनी खराब है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। इनकी आधारभूत जरूरतें पूरी हो सकें, इतनी व्यवस्था भी बिहार सरकार का शिक्षा विभाग नहीं कर पा रहा है। अकादमियों में इतने कम नियमित कर्मचारी हैं कि किसी नए काम के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। कुछ दिनों पूर्व मगही अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और हिंदी के महत्वपूर्ण कवि रामगोपाल रुद्र से संबंधित सामग्री की तलाश में एक मित्र मगही अकादमी पहुंचे थे। कार्यालय में एक कर्मचारी अकेले बैठा था। कुछ सामग्री मिली लेकिन अकादमी कार्यालय बुरी  हालत में थी। इनकी हालत देखकर ही किसी के मन में ये प्रश्न भी नहीं उठेगा कि इनकी स्थापना किन उद्देश्यों के लिए की गई थी। ये अकादमियां स्थापना के समय निश्चित किए गए उद्देश्यों की पूर्ति में कितनी सफल रहीं। आंकलन तो उन संस्थानों का हो सकता है जो सक्रिय हों और साधन संपन्न हों। संसाधन की कमी वाले संस्थानों के कार्यों का आकलन लगभग असंभव है। अन्य भाषा अकादमियों की बदहाली के बीच दो नई भाषा अकादमियों की घोषणा का कोई अर्थ नहीं है। दूसरी तरफ उर्दू को लेकर पूरी बिहार सरकार सक्रिय नजर आ रही है। मुख्यमंत्री स्वयं प्रदेश के मुख्य सचिव को सार्वजनिक रूप से सभी बहालियां जल्द करने के लिए कह रहे हैं। क्या अन्य अकादमियां भाषाई सांप्रदायिकता का शिकार हो रही हैं।    

समग्रता में बिहार के कला और संस्कृति के परिदृश्य को देखा जाए तो उसको लेकर शासन के स्तर पर एक उदासीनता नजर आती है। भाषा अकादमियों के अलावा शिक्षा विभाग के अंतर्गत बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का संचालन भी होता है। इन दोनों संस्थाओं का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है। यहां से अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन हुआ था लेकिन अब उन पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन नहीं हो पा रहा है। इन दोनों संस्थाओं का कार्यालय ऐसी जगह पर है जहां से शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारी हर दिन गुजरते हैं लेकिन इनकी बदहाली पर किसी की नजर नहीं जाती है या देखकर अनदेखा किया जाता है। अगर ये दोनों संस्थाएं सिर्फ पूर्व प्रकाशित पुस्तकों का प्रकाशन कर दें तो उनकी बिक्री से ही आगे की योजनाओँ पर काम करने लायक धन मिलने की संभावना बन सकती है। संस्कृति विभाग के अंतर्गत बिहार संगीत नाटक अकादमी और बिहार ललित कला अकादमी का संचालन होता है। ये दोनों संस्थाओं में लंबे समय से न तो अध्यक्ष हैं और न ही उपाध्यक्ष। प्रविधान है कि दोनों संस्थाओं में एक अध्यक्ष और दो उपाध्यक्ष को बिहार सरकार नामित करेगी। सचिव का अतिरिक्त प्रभार भी विभाग के अधिकारियों के पास है। ऐसी स्थिति में इन संस्थाओं के क्रियाकलाप लगभग ठप हैं। बिहार में एक और अनूठी घटना हुई। पटना में एक हिंदी भवन बना, लोगों की उम्मीदें जगीं कि वहां हिंदी के प्रोन्नयन को लेकर कार्य हुआ करेंगे। लेकिन पहले वहां एक मैनेजमेंट संस्थान और अब जिलाधिकारी का कार्यालय चल रहा है।    

बिहार रचनात्मक रूप से बेहद उर्वर प्रदेश है। पहले भी और अब भी प्रदेश के कई लेखकों की राष्ट्रीय ख्याति रही है। रेणु से लेकर दिनकर तक, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय से लेकर उषाकिरण खान तक। वर्तमान में भी कई लेखक रचनात्मक रूप से खूब सक्रिय हैं। इन रचनाकारों और कलाकारों के साथ मिल कर ये भाषा संस्थान प्रदेश के गौरव को और विस्तार दे सकते थे लेकिन अफसोस कि शासन के स्तर पर इनपर ध्यान देनेवाला कोई नहीं है। जिस तरह से उर्दू को लेकर नीतीश सरकार उत्साहित दिखाई देती है और उसके विस्तार के लिए योजनाएं बन रही है, नियुक्तियां हो रही हैं उस अनुपात में सरकार का ध्यान न तो मैथिली, न मगही और न ही भोजपुरी अकादमियों की ओर जा रहा है। अगर इन चार भाषा अकादमियों को कुछ स्थायी कर्मचारी भी मिल जाते तो इनका दैनंदिन कार्य सुचारू रूप से चल पाता। 2015 में पुरस्कार वापसी का जो प्रपंच रचा गया था, उसके कर्ताधर्ता बिहार की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि फिर से विश्व कविता समारोह जैसे किसी आयोजन की रचना हो जाए और कोई अशोक वाजपेयी उसके आयोजन के लिए आगे न आ जाएं। करोड़ों का बजट आवंटन हो और कला संस्कृति के नाम पर मेला लगे।   

Saturday, November 5, 2022

हिंदी पर अदालत का महत्वपूर्ण निर्णय


कुछ दिनों पहले दिल्ली के पटियाला हाउस स्थित जिला एवं सत्र न्यायालय के प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश धर्मेश शर्मा ने हिंदी को लेकर एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर किसी भी पक्ष से अदालत के सामने अनुरोध आता है कि साक्ष्य या किसी अन्य कार्यवाही को हिंदी में दर्ज किया जाए तो राष्ट्रीय राजधानी की अदालतें ऐसा करने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य हैं। प्रधान जिला न्यायाधीश ने अपने में यह भी कहा कि, यह समझ में नहीं आता कि विद्वान मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट को किस लाजिस्टिक समस्या से परेशानी है। गवाहों के बयान कंप्यूटर पर दर्ज किए जा सकते हैं। जिसके लिए स्टेनोग्राफर के पास हिंदी फांट होता है। अगर स्टेनोग्राफर हिंदी टाइपिंग नहीं जानता है तो हिंदी टाइप करनेवाले स्टेनोग्राफर के लिए अनुरोध किया जा सकता है। उनकी व्यवस्था की जा सकती है। उन्होंने इससे भी एक कदम आगे जाकर अपने आदेश में कहा कि अगर हिंदी में टाइप करनेवाला स्टेनोग्राफर उपलब्ध नहीं हो सकता है तो मजिस्ट्रेट खुद या अदालत के कर्मचारियों की मदद से गवाहों के बयान हिंदी में दर्ज कर सकते हैं। उन्होंने अपने निर्णय में कानूनी प्रविधानों का उल्लेख भी किया। हिंदी में साक्ष्य दर्ज करने के लिए पक्षकार के अनुरोध को अस्वीकार करना आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 272 और दिल्ली उच्च न्यायालय के नियमों का उल्लंघन होगा। दिल्ली उच्च न्यायालय का नियम है कि देवनागरी लिपि में हिंदी दिल्ली उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालयों की भाषा होगी। 

इस निर्णय की पृष्ठभूमि ये है कि दिल्ली के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में एक केस में चल रहा था। जिसमें एक पक्ष ने मजिस्ट्रेट से अनुरोध किया था कि गवाहों से बहस के दौरान सवाल हिंदी में पूछे जाएं और उनके उत्तर भी हिंदी में ही दर्ज किए जाएं। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने हिंदी में प्रश्न उत्तर और उसको हिंदी में ही दर्ज करने की याचिका को खारिज कर दिया था। खारिज करते हुए मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने कहा था कि अदालत में इससे संबंधित सुविधा नहीं है। इस कारण उनके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अपनी याचिका के खारिज होने के बाद गुलशन पाहूजा नाम के व्यक्ति ने इस फैसले के विरुद्ध जिला और सत्र न्यायाधीश की अदालत में अपील की थी। जहां जिला और सत्र न्यायाधीश ने मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के निर्णय को निरस्त कर दिया। इस निर्णय की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी उतनी नहीं हो पाई। इसमें जिस तरह से कहा गया कि संसाधन की कमी या अनुपलब्धता की स्थिति में मजिस्ट्रेट को ये प्रयास करना होगा कि गवाहों के बयान या साक्ष्य हिंदी में दर्ज किए जा सकें। यह निर्णय मजिस्ट्रेट और जज की जिम्मेदारी को भी स्पष्ट रूप से व्याख्यित करने वाला है । आज जब हिंदी को लेकर अकारण राजनीति की जा रही है वैसे में इस तरह के अदालती निर्णय भारतीय भाषाओं में न्याय की दिशा में बढ़नेवाले कदम को शक्ति देनावाला है। दिल्ली उच्च न्यायालय की अधीनस्थ अदालतों में समय समय पर हिंदी के प्रयोग को लेकर विभिन्न प्रकार की पहल की जाती रही है। कुछ वर्षों पूर्व दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने भी हिंदी को लेकर एक पहल की थी और इस तरह का प्रविधान किया गया था कि अदालत के विभिन्न विभागों के बीच लिखित संवाद हिंदी में हो। 

निचली अदालतों में अंग्रेजी के प्रयोग को देखकर कुछ वर्षों पूर्व की एक घटना याद आती है। गाजियाबाद की एक हाउसिंग सोसाइटी में नया-नया रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन बना था। वहां के नोटिस बोर्ड की पर बाहर से सोसाइटी के फ्लैट्स में काम करने आनेवाली घरेलू सहायिकाओं के लिए हर दिन अंग्रेजी में कोई न कोई सूचना लगी होती थी। उसकी पहली पंक्ति होती थी, आल मेड्स आर रिक्वेस्टेड टू...(सभी सहायिकाओं से अनुरोध है कि...)। उसके बाद जो भी दिशा निर्देश होते थे वो अंग्रेजी में लिखकर नोटिस बोर्ड पर चिपका दिए जाते थे। कोई भी सहायिका उसका पालन नहीं करती थी। रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के पदाधिकारियों के पास शिकायत आती थी। वो घरेलू सहायिकाओं से बात करते थे तो फिर नियमों का पालन आरंभ हो जाता था। फिर कोई नया निर्देश और फिर अंग्रेजी में नोटिस और फिर उसका अनुपालन नहीं होता था। रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष बहुत परेशान थे कि इस समस्या का हल कैसे निकले। अचानक एक दिन एक बुजुर्ग महिला ने अध्यक्ष महोदय को परेशान देखकर उनकी परेशानी का कारण जानना चाहा। उन्होंने जब कारण बताया तो बुजुर्ग महिला ने उनसे पूछा कि जिनके लिए नोटिस लगाए जाते हैं क्या वो अंग्रेजी जानती हैं? अध्यक्ष को इस प्रश्न से ही अपनी समस्या का हल मिल गया। उसके बाद सभी नोटिस हिंदी में लगने लगीं। उन नोटिसों को सुरक्षा गार्ड भी पढ़ लेते थे। कुछ घरेलू सहायिकाएं भी पढ़ लेती थीं। आपस में उनकी चर्चा हो जाती थी और अनुपालन भी हो जाता था। हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। जिनको न्याय चाहिए उनको अंग्रेजी नहीं आती और जिनको न्याय देना है वो अंग्रेजी में ही सारी कार्यवाही करते हैं।  

न्याय विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार काफी पहले से ही मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के उच्च न्यायालयों में हिंदी में कार्यवाही और निर्णयों की अनुमति है। जब तमिलनाडू सरकार ने तमिल में, गुजरात सरकार ने गुजराती में, छत्तीसगढ़ सरकार ने हिंदी में, बंगाल सरकार ने बंगाली में और कर्नाटक सरकार ने कन्नड में अपने से संबंधित हाईकोर्ट की कार्यवाही का अनुरोध किया तो उनको केंद्र सरकार की अनुमति नहीं मिल पाई। दरअसल 1965 की कैबिनेट कमेटी का एक निर्णय है कि अगर इस तरह का कोई अनुरोध केंद्र सरकार के पास आता है तो सरकार को उसपर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की राय लेनी होगी। केंद्र सरकार ने इन राज्यों के प्रस्ताव के आलोक में, 1965 के कैबिनेट के फैसले के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश से उनकी राय मांगी। 2012 में उस समय के मुख्य न्यायाधीश ने केंद्र सरकार को बताया कि पूरी अदालत ने राज्यों के प्रस्ताव पर विचार किया और इसको स्वीकार नहीं करने का निर्णय लिया। उसके बाद कई बार इन राज्यों के प्रतिनिधियों ने संसद में भी इस प्रश्न को उठाया लेकिन अबतक कोई निर्णय नहीं हो पाया और अंग्रेजी में ही कार्यवाही चल रही है। न्याय के आकांक्षी को उसकी भाषा में न्याय नहीं मिल पा रहा है। इसका प्रयास किया जाना चाहिए कि कम से कम देशभर की निचली अदालतों में स्थानीय भारतीय भाषाओं में न्यायिक प्रक्रिया चले। गवाहों के बयान, साक्ष्य आदि स्थानीय भारतीय भाषा में हो सकें। इससे न्यायिक प्रक्रिया सुदृढ़ होगी और इसमें नागरिकों की भागीदारी बढ़ेगी।  

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता की बात पर और गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाली राजभाषा समिति की राष्ट्रपति को सौंपी गई रिपोर्ट को लेकर देशभर में एक भ्रम का वातावरण बनाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार गैर हिंदी भाषी प्रदेशों पर हिंदी थोपना चाहती है। राजभाषा समिति की रिपोर्ट में किस तरह के सुझाव दिए गए हैं वो अभी तक सार्वजनिक नहीं हुए हैं। बावजूद इसके अंग्रेजी के पैराकार छाती कूटने में लगे हैं कि सरकार आईआईटी, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहती है। अभी हाल ही में  बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने भी हिंदी थोपने के विरोध की घोषणा की। यह स्पष्ट नहीं है कि कहां हिंदी थोपी जा रही है। भाषा पर राजनीति करने और अंग्रेजी कायम रखने से बेहतर है कि भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता मिले। भारतीय भाषाओं में शिक्षा मिले, भारतीय भाषाओं में न्याय मिले, भारतीय भाषा ही शासन प्रशासन की भाषा हो।