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Sunday, April 14, 2024

जा पर कृपा राम की होई


चुनाव प्रचार के दौरान मेरठ से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी अरुण गोविल की एक तस्वीर आई थी जिसमें वो श्रीराम की तस्वीर हाथ में लिए नजर आ रहे थे। कुछ लोगों ने उनकी इस तस्वीर पर आपत्ति जताई और उसको चुनाव प्रचार में धर्म का उपयोग बताना आरंभ किया था। ऐसा करनेवाले ये भूल गए कि उत्तर प्रदेश के एक उपचुनाव में अरुण गोविल और दीपिका चिखलिया को कांग्रेस ने राम और सीता की वेशभूषा में चुनाव प्रचार में उतारा था। कुछ ही दिनों पहले रामानंद सागर निर्मित सीरियल रामायण में इन दोनों ने राम और सीता की भूमिका निभाई थी। दरअसल राम और सीता या रामायण के पात्र धर्म नहीं हैं वो आस्था है। 1943 में भी जब विजय भट्ट निर्देशित फिल्म रामराज्य फिल्म आई थी तो लोगों ने उसमें राम और सीता की भूमिका निभानेवाले प्रेम अदीब और शोभना समर्थ को भी बहुत मान दिया था। वो जिधर निकल जाते थे उधर उनको देखने के लिए और उनको सम्मान देने के लिए आस्थावान भारतीयों की भीड़ उमड़ती थी। यह प्रभु श्रीराम और रामकथा में भारतीयों की आस्था ही है जिसने इस कथा के पात्रों को चुनाव में विजयश्री का हार पहनाकर भारतीय संसद में भेजा।

रामानंद सागर के सीरियल रामायण में सीता की भूमिका निभाने वाली दीपिका चिखलिया जब 1987-88 में सड़कों पर आती थीं लोग उनको सीता मानकर उनके प्रति सम्मान प्रकट करते थे। आस्थावान भारतीयों की भीड़ उनको घेर लेती थी। रामानंद सागर के रामयण में सीता की भूमिका में उनका जो गेटअप था, या उनका जो अभिनय था या उनकी जो संवाद अदायगी थी या जिन प्रसंगों में वो वो टीवी स्क्रीन पर आती थी वो सभी दर्शकों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ती थीं। वो रामकथा और माता सीता के प्रति आस्था ही थी कि जब 1991 में दीपिका चिखलिया बडोदरा से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार बनीं तो जनता ने उनके सर पर जीत का सेहरा बांधकर लोकसभा भेजा। उस समय बडोदरा कांग्रेस पार्टी का गढ़ हुआ करता था। दीपिका ने बडोदरा राजघराने के रंजीत सिंह प्रताप सिंह गायकवाड़ को लोकसभा के चुनाव में पराजित किया था। यह रामकथा और माता सीता के प्रति आस्था की जीत थी। राजनीति में आई दीपिका ने दिग्गज कांग्रेसी उम्मीदवार को न केवल परास्त किया बल्कि करीब 50 प्रतिशत वोट भी हासिल किया। 

आस्था से जीत का दूसरा उदाहरण रामायण सीरियल में रावण का किरदार निभाने वाले अरविंद त्रिवेदी है जिनको जनता ने पसंद किया था। 1991 के चुनाव में ही अरविंद त्रिवेदी ने गुजरात के साबरकांठा से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर तुनाव लड़ा था। तब उनके खिलाफ महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी जनता दल के उम्मीदवार थे और जनता दल से टूटकर अलग हुए जनता दल(गुजरात) के उम्मीदवार मगनभाई पटेल थे। तीन वर्ष पहले ही रामायण सीरियल ने लोकप्रियता का नया कीर्तिमान स्थापित किया था। उस समय रामजन्मभूमि आंदोलन भी चल रहा था। लंकेश की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी चुनावी मंच से गरजते थे कि राम की अवहेलना करने का परिणाम क्या होता है ये मुझसे बेहतर कौन जानता है तो जनता पर उसका प्रभाव पड़ता था। ये चुनाव परिणाम में दिखा और लंकेश की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी ने जनता दल के प्रत्याशी राजमोहन गांधी को पराजित कर दिया। राजमोहन गांधी तीसरे नंबर पर रहे थे। रामायण में हनुमान का किरदार निभानेवाले दारा सिंह ने हलांकि कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन पहले कांग्रेस का समर्थन किया और जब अखिल भारतीय जाट महासभा के अध्यक्ष बने तो अटल बिहारी वाजपेयी के करिश्मा के चलते उनका झुकाव भारतीय जनता पार्टी की तरफ हुआ। सीमा सोनिक ने लिखा है कि अटल जी के कहने पर ही दारा सिंह ने 1998 के लोकसभा चुनाव में अभिनेता विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा के लिए जमकर चुनाव प्रचार किया था। इन रैलियों में दारा सिंह रामायण सीरीयल में बोले गए हनुमान के संवाद दोहराते थे, उनके जैसी भाव भंगिमाएं बनाते थे। रैलियों में भारी भीड़ होती थी। बाद में भारतीय जनता पार्टी ने उनको राज्यसभा में भेजा था और वो 2003-09 तक सांसद रहे। 

लोक आस्था का ये रूप सिर्फ रामकथा को लेकर ही नहीं दिखता है। महाभारत सीरियल में श्रीकृष्ण की भूमिका निभानेवाले नीतीश भारद्वाज को भी जनता ने सम्मान दिया। यह श्रीकृष्ण में आस्था का ही परिणाम था कि जब नीतीश भारद्वाज ने 1996 में लोकसभा का चुनाव जीता था। नीतीश भारद्वाज ने झारखंड के जमशेदपुर से जनता दल के दिग्गज इंदर सिंह नामधारी को परास्त कर दिया था। श्रीरामकथा और श्रीकृष्णकथा में भारतीयों की प्रगाढ़ आस्था है। इसका प्रगटीकरण रील और रीयल दोनों में होता रहा है। 


Saturday, April 13, 2024

ईमानदारी और नैतिकता से बनेगी साख


कभी उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है। इस समय लोकसभा चुनाव की सरगर्मी है। पांच दिनों बाद लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान होगा लेकिन राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहीं दिखाई नहीं दे रही है। ऐसा क्या हुआ कि राजनीति के आगे चलनेवाला साहित्य गौण हो गया और राजनीति प्रमुख हो गई। क्या राजनीति ने साहित्य और साहित्यकारों को महत्व देना बंद कर दिया, या राजनीति के आगे साहित्य की मशाल थाम कर चलनेवाला कद्दावर साहित्यकार समकालीन साहित्य जगत में कोई बचा ही नहीं। स्वाधीनता के बाद कई ऐसे साहित्यकार हुए जो राजनीति में भी गए। कई साहित्यकार तो संसद और विधानसभाओं में भी पहुंचे। वो किसी मुद्दे पर जब बोलते या लिखते थे तो पूरा देश उनको सुनता था और उनके कहे का एक सम्मान होता था। संविधान लागू होने के 15 वर्षों बाद जब हिंदी के राजभाषा के दर्जा को लेकर राजनीति होने लगी तो संसद में साहित्य जगत के प्रतिनिधि के तौर पर नामित साहित्यकारों ने अपने विचारों से सरकार और समाज दोनों को प्रभावित किया था। दिनकर ने राज्यसभा में अपने भाषण में लालबहादुर शास्त्री के एक वक्तव्य पर कटाक्ष किया था। लाल बहादुर शास्त्री ने एक वक्तव्य कहा था कि  ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘ तब दिनकर ने शास्त्री को घेरते हुए कहा था कि  ‘जिस प्रकार सरकार इस बारे में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘ 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया था तब भी साहित्यकारों ने नेहरू जी को घेरा था। उनके निर्णयों की जमकर आलोचना की थी। इमरजेंसी के दौर में कई साहित्यकार जेल गए। इंदिरा गांधी का विरोध किया। कविताएं लिखीं, लेख लिखे। कई बार किसानों और गरीबों की समस्याओं पर लिखा। कहना न होगा कि साहित्यकारों ने समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी भूमिका को समझते हुए अपनी आवाज से लोकतंत्र को बल दिया था। 

लेखक-साहित्यकार स्वयं को अपनी ईमानदारी और नैतिकता से स्थापित करता है। इमरजेंसी के बाद से ही साहित्य और साहित्यकारों की ईमानदारी कठघरे में आ गई थी। इमरजेंसी के दौर में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े कुछ लेखकों ने इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का समर्थन किया था। उसके बाद लेखक संगठनों ने भी काफी गड़बड़ियां की जिससे जनता के बीच साहित्यकारों की छवि एक दल विशेष के कार्यकर्ता की बनती चली गई। विचारधारा विशेष की जकड़न में साहित्यकारों ने सच कहना बंद कर दिया। पार्टी और लेखक संघों से संबद्ध लेखक पार्टी और संघ की लाइन पर चलते दिखने लगे। उनके विचारों से वस्तुनिष्ठता कम होने लगी। लंबे अंतराल तक ऐसा चलने का परिणाम यह हुआ कि उनकी विश्वसनीयता छीजने लगी। 2015 में जब कुछ साहित्यकारों ने मोदी सरकार के विरुद्ध असहिष्णुता का आरोप लगाकर पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा तो शोर-शराबा तो बहुत हुआ, पर उसका प्रभाव जनमानस पर कम पड़ा। बाद में ये बात भी स्पष्ट हो गई कि बिहार विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने के लिए कुछ लेखकों ने नेताओं के साथ मिलकर पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया था। इस प्रसंग ने भी साहित्यकारों की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया। यह बात सार्वजनिक हो गई कि भारतीय जनता पार्टी और मोदी विरोध में पुरस्कार वापसी का अभियान चला था। कुछ लेखक और कलाकार राजनीति के टूल बन गए थे। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भी विचारधारा विशेष के इन्हीं लेखकों ने मोदी सरकार के विरुद्ध एक हस्ताक्षर अभियान चलाकर माहौल बनाने का प्रयास किया था। प्रभाव शून्य रहा था। यह अनायास नहीं है कि इस समय अधिकतर लेखक खामोश हैं या उनकी सर्जनात्मकता वो प्रभावोत्पादकता पैदा नहीं कर पा रही जो राजनीति के आगे मशाल  बनकर चल सके। 

इसका एक दूसरा पहलू भी है। जब प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है तब अपने उसी वक्तव्य में उन्होंने एक और बात कही थी। प्रेमचंद ने साहित्य को परिभाषित करते हुए कहा था कि साहित्य मन का संस्कार करता है। मन के संस्कार की बात तो दूर तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकारों ने व्यवहार को संस्कारित करने का कार्य करना भी बंद कर दिया। भारतीय संस्कारों को आगे बढ़ाने और समाज के बीच उन संस्कारों को गाढ़ा करने के बजाय विदेशी संस्कृति के संस्कारों को भारतीय पाठकों पर थोपने का कार्य किया था। विदेशी संस्कृति के रंग को गाढ़ा करने के लिए उन्होंने भारत और भारतीयता से जुड़े साहित्य और साहित्यकारों को नीचा दिखाना आरंभ कर दिया। जब उनकी ही विचारधारा के लेखक रामविलास शर्मा ने ऋगवेद पर लिखना आरंभ किया तो नामवर सिंह और उनकी मंडली ने उनको हिंदूवादी कहकर उपहास किया था। जब विद्यानिवास मिश्र जैसे लेखकों ने सनातन परंपराओं और पौराणिक ग्रंथों पर लिखना आरंभ किया तो नामवर सिंह ने उनको विद्याविनाश कहकर उनको अपमानित किया था। कुबेरनाथ राय जैसे निबंधकार को प्रगतिशीलों ने न केवल दरकिनार किया बल्कि लंबे समय तक उनके लेखन पर चर्चा ही नहीं की। भला हो साहित्य अकादमी और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का कि इन दोनों संस्थाओ ने कुबेरनाथ राय की रचनाओँ का संचयन प्रकाशित किया। नरेन्द्र कोहली से लेकर कमलकिशोर गोयनका तक ऐसे कितने ही लेखक हैं जिनको इस विचारधारा के पोषकों ने अपमानित किया। 

इन सबका परिणाम यह हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी या विचारधारा से संबद्ध लेखकों की साख समाप्त होती चली गई । आज हालत ये है कि हिंदी में कोई सार्वजनिक बुद्धीजीवी बचा ही नहीं। अशोक वाजपेयी गाहे बगाहे पब्लिक इंटलैक्टुअल की पोजिशनिंग करने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन उनके पास इस पोजिशनिंग के लिए कुछ खास औजार नहीं बचे हैं। बार-बार असहिष्णुता और लोकतंत्र के सिकुड़न का राग अलापते हैं। कांग्रेस पार्टी से उनकी निकटता और उसके प्रदर्शन के कारण उनकी मनचाही छवि बन नहीं पाती। पहले अर्जुन सिंह से निकटता और अब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में हिस्सा लेकर उन्होंने रही सही साख भी खो दी है। पहले अज्ञेय को बूढ़ा गिद्ध कहते हैं और बाद में अज्ञेय की प्रशंसा करते हैं। लेखकों की खामोशी का एक दूसरा पक्ष भी है। वह पक्ष है कि पिछले 10 वर्षों में नरेन्द्र मोदी सरकार ने साहित्य और शिक्षा को समृद्ध करने के लिए प्रशंसनीय प्रयास किया। साहित्य अकादमी ने अपने आयोजनों में विचारधारा को आधार बनाए बिना लेखकों को जुटाकर विश्वस्तरीय आयोजन किए। शिमला और भोपाल में उन्मेष नाम के कार्यक्रम में साहित्य अकादमी ने मोदी के विचार सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास और सबका विश्वास को साकार किया। एक जमाना था जब साहित्य अकादमी में वामपंथियों का दबदबा था और दूसरे विचार के साहित्यकार अघोषित प्रतिबंध का सामना करते थे। पिछले दस वर्षों में साहित्य अकादमी में सभी विचारों के लेखकों का प्रवेश संभव हुआ। सिर्फ इन दो कार्यक्रमों में ही नहीं बल्कि हाल ही समाप्त हुए साहित्योत्सव में भी संस्थान का समावेशी चरित्र गाढ़ा हुआ। ऐसे माहौल में वामपंथ से संबद्ध लेखकों को कहने के लिए कुछ बचा नहीं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को भी अभिजात्य से मुक्ति मिली और वह भी एक समावेशी संस्था के रूप में स्थपित हुआ। दस वर्ष पहले वहां भी भारत और भारतीयता को लेकर जो उपेक्षा भाव था वो खत्म हुआ, बिना किसी के प्रति नकारात्मक हुए। इसके अलावा 2020 में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं महत्व दिया गया। इसके कारण भारतीय भाषा भाषियों के बीच हिंदी को लेकर वैमनस्यता का भाव लगभग खत्म हो गया। साहित्य को राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने की आवश्यकता आज भी है लेकिन उसके लिए विचार का साथ चाहिए विचारधारा की नहीं। 

Sunday, April 7, 2024

चुनावी जंग में साहित्यिक योद्धा


आगामी 19 अप्रेल को लोकसभा के चुनाव के प्रथम चरण के लिए वोट डाले जाएंगे। इस चुनाव में भारतीय भाषा के कई साहित्यकार और कवि अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। ऐसे राजनेता-साहित्यकार के बारे में देश को जानना चाहिए। ऐसे साहित्यकारों और कवियों के बारे में आगामी अंकों में बताएंगे लेकिन पहले उन पूर्वज साहित्यकारों के बारे में जान लेते हैं जिन्होंने सक्रिय राजनीति भी की और चुनाव भी लड़ा। 

एक बार किसी कार्यक्रम में राष्ट्रकवि दिनकर और उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पहुंचे थे। कार्यक्रम स्थल पर जाने के दौरान नेहरू सीढ़ियों पर लड़खड़ा गए थे, उस वक्त दिनकर ने उनका हाथ थाम लिया था। जवाहरलाल नेहरू ने इसके लिए दिनकर को धऩ्यवाद कहा। धन्यवाद के उत्तर में दिनकर ने कहा था ‘जब जब सत्ता लड़खड़ाती है तो सदैव साहित्य ही उसे संभालती है।‘ दिनकर ने उस समय चाहे ये बात हल्के अंदाज में कही हो लेकिन इसके मायने बहुत गंभीर हैं। स्वाधीनता के बाद कई ऐसे साहित्यकार हुए जिनको संसद के उच्च सदन में समय समय पर राष्ट्रपति ने नामित किया। कुछ ऐसे साहित्यकार-कवि हुए जिन्होंने लोकसभा चुनाव जीतकर संसद की गरिमा बढ़ाई तो कुछ ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने लोकसभा का चुनाव तो लड़ा पर हार गए। 

सबसे पहले बात कर लेते हैं पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की। वाजपेयी कवि थे और उनके कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। राजनीति के मैदान में उतरे लेकिन उनका कवि मन पद्य में रमा रहा। पहला चुनाव 1952 में लड़ा लेकिन जीत नहीं सके। वाजपेयी ने हार नहीं मानी और 1957 में लोकसभा चुनाव जीत कर संसद पहुंचे। फिर हार जीत लगी रही। अटल जी की कविताओं का संग्रह मेरी इक्यावन कविताएं को लोगों ने खूब पसंद किया था। गीत नया गाता हूं और हिंदू तन मन हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय जैसी पंक्तियां अब भी लोगों को याद हैं। अटल जी कविताओं की भाषा उनको समकालीन कवियों से अलग दिखाती हैं। 

यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान वो धर्मवीर भारती के साथ मोर्च पर गए थे और वहां से उन्होंने रिपोर्ताज लिखे जो धर्मयुग पत्रिका में प्रकाशित हुए थे। विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता विश्वविद्यालय में आचार्य रहे। वे हिंदी के उन विरल आचार्यों में थे जिन्होंने कई विधाओं में श्रेष्ठ लेखन किया। आलोचना, निबंध, कविता के अलावा निराला और तुलसी की रचनाओं पर लिखा। दर्शन में उनकी विशेष रुचि थी और उन्होंने ज्ञान और कर्म के नाम से एक पुस्तक लिखी। 1944 में वो राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ से जुड़े और 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर बंगाल विधानसभा के सदस्य चुने गए। कालांतर में उन्होंने हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का दायित्व मिला। 

हिंदी आलोचना की जब भी चर्चा होती है तो नामवर सिंह का नाम आता है। उनकी पुस्तक दूसरी परंपरा की खोज काफी चर्चित रही और इस पुस्तक पर उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। उनकी पुस्तक हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग भी उल्लेखनीय रही। कहानियों पर वो नियमित स्तंभ लिखते रहे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र के संस्थापक भी रहे। नामवर सिंह ने 1959 में चंदौली (उप्र) से कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन बुरी तरह से पराजित हो गए। उसके बाद हलांकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से राजनीति करते रहे। 

ख्यात हिंदी कवि बालकवि वैरागी में कवित्व के अलावा राजनीति भी कूट कूट कर भरी हुई थी। जितना वो काव्य मंचों पर सक्रिय रहते थे उससे अधिक राजनीति में उनकी सक्रियता रहती थी। जब वो मंच पर कविता पाठ करते थे तो उनकी ओजपूर्ण वाणी से श्रोता मुग्ध हो जाते थे। उनकी कविता झर गए पात, बिसर गए टहनी काफी लोकप्रिय रही। उन्होंने बच्चों के लिए भी काफी कविताएं लिखीं। कई फिल्मों के लिए गीत भी लिखे। वो मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के रहनेवाले थे। सक्रिय राजनीति में रहे और विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़कर विधायक और सांसद बने। राज्यसभा के भी सदस्य रहे।      

    


Saturday, April 6, 2024

अभिव्यक्ति की सुविधाजनक व्याख्या


फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के बीते शुक्रवार को दूरदर्शन पर दिखाने को लेकर केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन से लेकर कई अन्य नेताओं ने विरोध जताया। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर टिप्पणियों से लेकर मामला कोर्ट तक में पहुंचा। एक कवि ने केरल हाईकोर्ट से अनुरोध किया कि इस फिल्म को आमचुनाव के संपन्न होने तक दूरदर्शन पर दिखाए जाने पर रोक लगाई जानी चाहिए। तर्क ये दिया गया था कि ये फिल्म धार्मिक आतंकवाद दिखाती है। यह एक एजेंडा फिल्म है जो चुनाव के समय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढावा देगी। याचिका में आरोप लगाया गया था कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी दूरदर्शन का दुरुपयोग कर रही है और दूरदर्शन के माध्यम से अपनी विचारधारा को बढ़ावा दे रही है। केरल हाईकोर्ट ने इस फिल्म को दूरदर्शन पर दिखाने के निर्णय पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। याचिकाकर्ता ने चुनाव आयोग से लेकर दूरदर्शन के अधिकारियों को भी इस फिल्म के प्रसारण को रोकने के लिए ईमेल भेजी थी। केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने लिखा कि राष्ट्रीय प्रसारणकर्ता दूरदर्शन को बीजेपी-आरएसएस का प्रोपेगैंडा मशीन बनने से बचना चाहिए। उनके मुताबिक ये फिल्म सांप्रदायिकता को बढ़ावा देनेवाली है और चुनाव के समय इसका प्रसारण अनुचित है। केरल से कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे शशि थरूर ने भी कुछ इसी तरह की बातें कीं। उनके मुताबिक ‘इस समय ‘द केरला स्टोरी’ को दिखाना शर्मनाक है। जब ये फिल्म आई थी तो सभी ने कहा था कि ये केरल की स्टोरी नहीं है। केरल तो सांप्रदायिक सद्भाव के लिए जाना जाता है।‘ इस मसले पर वामदलों और कांग्रेस के नेता एक सुर में बोल रहे हैं। दोनों का मानना है कि दूरदर्शन पर इस फिल्म को दिखाने का निर्णय चुनाव को प्रभावित करने की मंशा से किया जा रहा है। ये सभी वो लोग हैं जो स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चैंपियन बताते हैं। दिन रात संविधान को बचाने की कसमें खाते हैं। 

प्रश्न यही उठता है कि क्या संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वाधीनता कुछ चुनिंदा लोगों या विचारधारा को प्रदान की है। क्या ‘द केरला स्टोरी’ के निर्माताओं को संविधान अभिव्यक्ति की स्वाधीनता नहीं देता है। फिल्म का विरोध तब जबकि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसको सार्वजनिक प्रदर्शन के उपयुक्त माना था। पिछले वर्ष इस फिल्म की रिलीज के समय भी इसी तरह का वैचारिक बवाल मचा था। जिन्होंने फिल्म देखी नहीं थी वो ट्रेलर को देखकर इसको एजेंडा फिल्म करार दे रहे थे। वाम दलों और कांग्रेस के नेताओं को अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की इतनी ही चिंता होती तो वो इसके दूरदर्शन पर दिखाए जाने का विरोध नहीं करते। इस फिल्म को देखते या अपने समर्थकों को इसको देखने के लिए प्रेरित करते। फिल्म को देखने के बाद इसकी कमजोरियों को समाज के सामने प्रस्तुत करते। फिल्म देखे बिना उसका विरोध करना और उसको एजेंडा और प्रोपगैंडा बताना कानून समम्त तो नहीं ही कहा जा सकता है। आपको याद दिला दें कि जब ये फिल्म रिलीज होने वाली थी तब भी केरल हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दाखिल कर प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की गई थी। उस समय भी हाईकोर्ट ने फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से मना कर दिया था। जब एकबार फिल्मों को प्रमाणपत्र देनेवाली संस्था केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसको पास कर दिया था तो फिर से उसके प्रदर्शन को रोकने की मंशा सिर्फ और सिर्फ राजनीति प्रतीत होती है। क्या कोई विचारधारा इतनी कमजोर होती है कि वो एक फिल्म से हिल जाए या खतरे में आ जाए। विचार करना चाहिए। 

पिछले साल इस फिल्म को लेकर केरल हाईकोर्ट ने जो टिप्पणी की थी उसको एक बार फिर से याद दिलाने की आवश्यकता है। केरल हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के साथ फिल्म के ट्रेलर को कोर्ट में ही देखा था। देखने के बाद कहा था कि ये काल्पनिक है। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस फिक्शनल फिल्म का उद्देश्य मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश करना है। कोर्ट ने इससे भी असहमति जताते हुए कहा था कि फिल्मों में कई तरह की चीजें दिखाई जाती हैं। भूत और पिशाच भी नहीं होते हैं लेकिन फिल्मों में काल्पनिक रूप से उनको दिखाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी न्यायमूर्ति नागरेश ने की थी और कहा था कि कई फिल्मों में हिंदू संन्यासियों को तस्कर और बलात्कारी दिखाया गया है लेकिन कभी भी किसी ने उसपर आपत्ति नहीं जताई। हिंदी और मलयालम में इस तरह की कई फिल्में देखी होगी। मलयालम में तो एक फिल्म में पुजारी को मूर्ति पर थूकते दिखाया गया था लेकिन उससे भी किसी प्रकार की कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि वो फिल्म पुरस्कृत भी हुई थी। न्यायमूर्ति की इस टिप्पणी ने भारतीय फिल्म जगत के उस एजेंडे को बेनकाब कर दिया था जो अबतक फिल्मों में चल रहा है। कोर्ट की ये टिप्पणी भी उल्लेखनीय रही कि ‘द केरला स्टोरी’ में इस्लाम के विरुद्ध कुछ नहीं है, इस्लाम पर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया गया है। इस फिल्म में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के करतूतों को दिखाया गया है। बावजूद इसके फिल्म का विरोध तब भी हुआ था और अब भी हुआ। आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ना बिल्कुल गलत है। ‘द केरला स्टोरी’ में इस्लाम के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। ऐसा अदालत ने भी माना था।

दरअसल वाम दल और कांग्रेस पार्टी के नेता इस फिल्म के जरिए अपनी राजनीति चमकाने की फिराक में दिखाई देते हैं। फिल्म आतंकवादी संगठन के विरोध में है और वो इसको सांप्रदायिक सद्भाव भड़कानेवाली फिल्म बता रहे हैं। यह तो युवा पीढ़ी को आतंकवाद के खतरे से आगाह करती हुई फिल्म है। इसमें उन खतरों को दिखाया गया है जिसके कारण युवक और युवतियों की जिंदगियां तबाह हो रही हैं। दरअसल द केरला स्टोरी, द कश्मीर फाइल्स या वैक्सीन वार ऐसी फिल्में हैं जो वाम दलों के विचार का पोषण नहीं करती हैं। ये फिल्में भारतीय विचार को आगे बढ़ाती हैं जिसके कारण कुछ लोगों को आपत्ति होती है। उनको लगता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जिस तरह से मिशन कश्मीर और फना के माध्यम से आतंक और आतंकवादियों को लेकर एक रोमांटिसिज्म दिखाया जाता रहा है उसको चुनौती कैसे दी जा सकती है। जो लोग द केरला स्टोरी या द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों का विरोध करते हैं वो सच से मुंह मोड़ते नजर आते हैं। हमारे समाज में इस तरह का जो कुछ भी घटित हो रहा है, जो युवा पीढ़ी को बरगलाती है, इतिहास के क्रूर पन्ने को छिपाती है, उसको दिखाने का अधिकार संविधान भारत के हर नागरिक को देता है। दिखाने की क्या सीमा हो उसको केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड तय करता है। संसद से पारित चलचित्र अधिनियम में सबकुछ स्पष्ट लिखा है कि किस तरह की फिल्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जा सकता है और किसका नहीं। संविधान बचाने की बात करनेवाले दल और नेता जब संविधान के अंतर्गत निर्मित संस्था के निर्णयों के विरुद्ध जाकर राजनीति करते हैं तो ऐसा लगता है कि संविधान बचाने की बात सिर्फ राजनीति है। उनकी आस्था संवैधानिक संस्थाओं में नहीं है। संविधान सभी नागरिकों को विरोध करने का अधिकार देता है लेकिन यह भी बताता है कि विरोध किसी की अभिव्यक्ति की स्वाधीनता को बाधित न करे। फिल्मों पर राजनीति बंद होने चाहिए। फिल्मों के कंटेंट पर बात होनी चाहिए, उनके ट्रीटमेंट के तरीके पर बात होनी चाहिए। उसके पक्ष-विपक्ष में लिखा जाना चाहिए लेकिन सिरे से किसी भी प्रमाणित फिल्म के प्रसारण को रोकने की मांग अनुचित है। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का चुनिंदा होना खतरनाक है।  


Saturday, March 30, 2024

अकादमिक बौद्धिक वर्ग पर उठते प्रश्न


आमतौर पर इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर साहित्य को लेकर प्रशंसात्मक पोस्ट ही अधिक देखने को मिलती है। ‘तू पंत, मैं निराला’ वाली शैली में एक दूसरे की तारीफ करते हुए लेखक मिल जाते हैं। वैचारिक टिप्पणियां बहुत ही कम देखने को मिलती है।  जो भी टिप्पणियां होती हैं वो अपनी विचारधारा को पोषित करने या दूसरी विचारधारा को नीचा दिखाने के लिए की गई प्रतीत होती हैं। लेकिन पिछले दिनों फेसबुक पर एक ऐसी टिप्पणी देखने को मिली जिसने बहुत ही आधारभूत प्रश्न तो छुआ। टिप्पणी छोटी थी लेतिन उसके पीछे प्रश्न बहुत बड़ा था। उसने विचार करने पर मजबूर कर दिया। प्रकाशन जगत से जुड़े आलोक श्रीवास्तव ने एक टिप्पणी लिखी, किसी समय राष्ट्र बन रहा था इस भाषा के जरिए, अब इस भाषा में वैयक्तिक महात्वाकांक्षाएं, दुरभिसंधियां और उदासियां बची हैं। इसका साथ उन्होंने 1962 में उत्तर प्रदेश हिंदी समिति के प्रकाशनों की एक सूची डाली। उनका आश्य हिंदी भाषा से था क्योंकि उन्होंने जो सूची लगाई थी वो हिंदी में प्रकाशित पुस्तकों की थी। उनकी टिप्पणी को उद्धृत करते हुए कोलकाता में रहनेवाले साहित्य और इतिहास के अध्येता प्रोफेसर हितेन्द्र पटेल ने अपने विचार रखे। लिखा- स्वाधीन भारत में साठ के दशक तक भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान की किताबें छपती थीं और सरकारी सहयोग भी था। स्वाधीनता आंदोलन और उसके पूर्व के नवजागरण काल में भारतीय भाषाओं में यह प्रयास मिशनरी भाव से होता रहा था। लेखकों ने त्याग और तपस्या का जीवन चुना था ताकि देश में एक नया बौद्धिक वातावरण तैयार कर सकें। उसके बाद एक नया अकादमिक बौद्धिक वर्ग उभरा जिसके लिए ज्ञान-विज्ञान की भाषा बस अंग्रेजी ही हो सकती थी। उन्होंने आगे लिखा कि इस पोस्ट को पढ़कर बस इसको याद दिलाने का मन हुआ। प्रोफेसर पटेल की इस टिप्पणी ने कई प्रश्न खड़े किए जिसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण अकादमिक बौद्धिक वर्ग को लेकर है। वो कौन सी स्थितियां थीं जिनमें साठ के दशक के बाद उभरे नए अकादमिक बौद्धिक वर्ग ने भारतीय भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान की भाषा न मानकर अंग्रेजी को प्राथमिकता देना आरंभ किया। इसके लिए हमें साठ के दशक के उत्तरार्ध की स्थितियों के बारे में विचार करना होगा।  

यह वो दौर था जब देश ती जनता का नेहरू की नीतियों से मोहभंग हो रहा था। शास्त्री जी के असामयिक निधन के बाद इंदिरा युग का उदय हो रहा था। भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन हो चुका था। हिंदी के विरुद्ध गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में एक वातावरण बना दिया गया था। स्वाधीनता के बाद और नेहरू के शासनकाल में वामपंथियों ने अकादमिक जगत में जो बीज बोया था वो अब पेड़ बन गया था। साहित्य और मानविकी के क्षेत्र में वामपंथी अपनी जड़ें जमा चुके थे। उन्होंने माहौल बनाना आरंभ कर दिया था कि हिंदी और भारतीय भाषाओं में ज्ञान विज्ञान की बातें हो ही नहीं सकती हैं। वो अपने लेख से लेकर लेक्चर तक में विदेशी विद्वानों को उद्धृत करने लगे थे। पुस्तकें विदेशी अवधारणाओं के आधार पर तैयार की जाने लगी थी। भारतीय शब्दों को विदेशी शब्दों से विस्थापित किया जाने लगा था। भारतीय भाषाओं के शब्दों के अर्थ को संकुचिच करके उसके समान अर्थ वाले शब्द अकादमिक जगत में पेश किए गए थे। देशभर के विश्वविद्यालयों में इस तरह का माहौल बनाना गया था जैसे चेखव और ब्रेख्त कालिदास से बड़े नाटककार थे। समाज विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में भारतीय विद्वानों की मान्यताओं पर विदेशी विद्वानों को महत्वपूर्ण बताया जाने लगा था। भारत की मेधा और बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जाने लगा था। पूरी दुनिया को शून्य की अवधारणा से परिचित करानेवाले देश को बताया जाना लगा कि गणित और विज्ञान के लिए विदेशी फार्मूले अधिक उपयुक्त हैं। विदेशी फार्मूले को समझने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। मैकाले ने जो स्वप्न देखा था और जिसके आधार पर उसने भारत में शिक्षा पद्धति आरंभ करवाई थी, स्वाधीनता के बाद उसको रोकने का गंभीर प्रयास नहीं हुआ। हिंदी में लिखी पुस्तकें ओझल की जाने लगीं। हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी की पुस्तकों को प्राथमिकता मिलने से गैर साहित्यिक विषयों पर पुस्तकें प्रकाशित करनेवाले प्रकाशक कम होते चले गए। 

याद पड़ता है जबलपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास और संस्कृति विभाग के आचार्य और अध्यक्ष रहे डा राजबली पांडेय ने एक पुस्तक लिखी थी, भारतीय नीति का विकास। ये पुस्तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से साठ के दशक के मध्य में प्रकाशित हुई थी। इसमें डा राजबलि पांडेय ने नीतिशास्त्र पर विस्तार से अपनी बात रखी थी। इस पुस्तक की भूमिका में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के उस समय के निदेशक भुवनेश्वरनाथ मिश्र माधव ने लिखा है कि नीतिशास्त्र हिताहित का विवेचन करनेवाला शास्त्र है। इसका अध्ययन करने के मनुष्य को अपने कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्य-असत्य, उचित अनुचित, शुभ-अशुभ आदि का ज्ञान होता है और वह जीवन यात्रा में उपयुक्त मार्ग पर अग्रसर होने में समर्थ होता है। नीति के अभाव में मानव का पथभ्रष्ट होना स्वाभाविक है। अब नीति की ऐसी व्याख्या या परिभाषा पश्चिम के विद्वानों के यहां नहीं मिलती। वो तो पालिसी की बात करते हैं और हमारे यहां के विद्वान नीति को पालिसी समझने की भूल कर बैठते हैं। सिर्फ नीतिशास्त्र ही नहीं बल्कि इतिहास, विज्ञान, गणित, दर्शन, पदार्थ शास्त्र, योग दर्शन, राजनीति शास्त्र, पश्चिम की विचारधाराओं और विदेश नीति पर हिंदी में मौलिक पुस्तकें लिखी गईं थी और प्रकाशित भी हुई थीं। चाहे वो राज्य सरकारों की अकादमियों से प्रकाशित हों या काशी नागरी प्रचारिणी सभा से या अन्य संस्थाओं से। आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य में आलोचक के रूप में समादृत हैं लेकिन उन्होंने भारतीय वस्त्रों से लेकर राजनीति और अन्य विषयों पर विपुल लेखन किया है, अधिकतर हिंदी में। अगर प्राचीन हस्तलिखित पोथियों के विवरण पर नजर डालेंगे तो वहां भी हिंदी में विविध विषयों पर लिखी गई पुस्तकों के बारे में जानकारी मिलेगी। उस विवरण में दर्शन, विज्ञान और धर्म पर लिखी पोथियों की लंबी सूची दिखाई देती है।

आज जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने के प्राथमिक चरण में है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी निरंतर भारतीय भाषाओं में शिक्षा को लेकर आग्रही बने हुए हैं तो अब एक महती जिम्मेदारी आती है संस्थाओं पर। इन संस्थानों का दायित्व बनता है कि वो प्राचीन काल में हिंदी में विभिन्न विषयों पर लिखी गई मौलिक पुस्तकों को खोजें और उसको अद्यतन करवाकर फिर से प्रकाशित करें। आज शिक्षा के क्षेत्र में धन की कमी नहीं है, प्रचुर मात्रा में संसाध्न उपलब्ध करवाए जा रहे हैं, आवश्यकता है मजबूत इच्छाशक्ति की। अगर इस भ्रम को तोड़ना है कि ज्ञान विज्ञान की भाषा हिंदी नहीं हो सकती है तो पहले इस भाषा में ज्ञान विज्ञान की लिखी पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन करना होगा। प्रोफेसर हितेन्द्र पटेल भी कहते हैं कि उस स्वदेशी परंपरा का नवोन्मेष हो, इन किताबों का पढ़ने पढ़ाने का एक आंदोलन हो। और कुछ हो न हो करमजले यह कहना बंद करेंगे कि इन भाषाओं में भान विज्ञान की चर्चा कैसे करें। पढ़ने पढ़ानेवाले नवबौद्धिकों ने ही अंग्रेजी के प्रभुत्व को बढ़ाने में अपनी स्वार्थपरता, काहिली और लोलुपता से मदद की है। ये विस्मृत कर चुके हैं कि हिंदी, मराठी या बांग्ला में विपुव मात्रा में ज्ञान विज्ञान पर पुस्तकें लिखनेवाले लोग थे। अंत में एक बात और कह देना आवश्यक है कि इस कार्य में सरकारी संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को पहल करनी होगी। साहित्य, कला, इतिहास और समाज शास्त्र से जुड़ी अधिकतर सरकारी संस्थाएं इवेंट मैनेजमेंट कंपनी बन गई हैं। सेमिनार और गोष्ठियां करवा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। जबकि होना ये चाहिए कि ये संस्थाएं हिंदी में मौलिक लिखवाने का प्रयास करें। ऐसा करनेवाले लेखकों को बेहतर मानदेय दें। अगर ये संभव हो पाता है तो हिंदी का गौरव पुनस्थापित हो सकेगा।