Translate

Saturday, March 16, 2024

विवाद के भंवर में लेखक-प्रकाशक संबंध


नई दिल्ली के रवीन्द्र भवन परिसर को साहित्य अकादमी ने अपने वार्षिक आयोजन साहित्योत्सव के कारण खूब सजाया था। शनिवार को संपन्न हुए साहित्योत्सव को विश्व का सबसे बड़ा साहित्य उत्सव बताया गया, जिसमें भारतीय और अन्य भाषाओं के 1100 से अधिक लेखकों के भाग लेने की बात कही गई। रवीन्द्र भवन परिसर में बनाए गए अलग अलग सभागारों में दिनभर विमर्श का दौर चला था। इसमें कन्नड के वरिष्ठ लेखक भैरप्पा से लेकर बिल्कु नवोदित लेखकों तक की भागीदारी रही। साहित्योत्सव के दौरान रवीन्द्र भवन परिसर में घूमते हुए सुरुचिपूर्ण तरीके से लगाए गए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखकों के संक्षिप्त परिचय श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। पुरस्कार विजेताओं की तस्वीर के साथ पुरस्कृत कृति की तस्वीर भी लगाई गई थी। इन पुरस्कार विजेताओं की तस्वीरों को देखने के क्रम में मेरी नजर वर्ष 2023 में हिंदी के लिए सम्मानित लेखक संजीव के परिचय पर चली गई। उनकी तस्वीर के साथ सेतु प्रकाशन के प्रकाशित उनकी कृति ‘मुझे पहचानो’ का कवर भी लगाया गया था। बताया गया था कि संजीव, जिनका मूल नाम राम सजीवन प्रसाद है, हिंदी के प्रख्यात लेखक और अनुवादक हैं। आपका जन्म 6 जुलाई 1947 को बांगर कलां, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपकी 17 कृतियां प्रकाशित हैं। ‘मुझे पहचानो’ हिंदी उपन्यास है, जो सती जैसे सामाजिक कुप्रथा के सामंती अवशेषों के विनाशकारी प्रभावों को उजागर करता है। यह उपन्यास आमजन की दुनिया के पाखंड, धर्म और धन के फंदों, बिगड़ते मानवीय मूल्यों की काली परछाइयों को भी प्रदर्शित करता है और मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान का आह्वान करता है। इस परिचय में तो जो बातें लिखी गई हैं उसपर मतैक्य संभव है और नहीं भी। संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद के इस पोस्टर को देखते हुए अचानक से कुछ दिनों पहले दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला के एक कार्यक्रम की बात दिमाग में कौंधी।

विश्व पुस्तक मेला के दौरान राजकमल प्रकाशन के मंच से संजीव ने ये घोषणा की थी कि उनकी सभी किताबें अब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। अवसर था उनके कहानी संग्रह प्रार्थना के लोकार्पण का। संजीव ने कहा था कि राजकमल प्रकाशन समूह पहले से हमारा प्रकाशक है और मेरे कई उपन्यास पूर्व में यहां से प्रकाशित है। प्रतिनिधि कहानियां प्रकाशित की है। इनसे पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास है। इसी विश्वास के कारण उन्होंने राजकमल प्रकाशन को अपनी सभी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए अधिकृत किया है। अब इस अधिकृत करने से जो एक स्थिति बनेगी उसकी कल्पना करिए। सेतु प्रकाशन ने संजीव का उपन्यास प्रकाशित किया। वहां से प्रकाशित उपन्यास पर उनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। सेतु प्रकाशन ने इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों तक पहुंचाने का उपक्रम किया होगा। उपन्यास प्रकाशन पर धन खर्च हुआ होगा जिसको सेतु प्रकाशन ने वहन किया। जब उस उपन्यास को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया तो उसको दूसरे प्रकाशन गृह को देने की घोषणा कर दी गई। सेतु प्रकाशन के अमिताभ का कहना है अभी तक संजीव ने इस संबंध में उनसे कोई बात नहीं की है। अपने प्रकाशक से बगैर बात किए और बिना आपसी सहमति के दूसरे प्रकाशन को पुस्तक देने की घोषणा अनैतिक प्रतीत होती है। अगर राजकमल प्रकाशन समूह से उनका पुराना संबंध और वर्षों का विश्वास था तो उपन्यास वहीं से प्रकाशित करवाना चाहिए था। इससे सेतु प्रकाशन के लिए ये असहज स्थिति नहीं बनती। इसी तरह से संजीव की कई पुस्तकें वाणी प्रकाशन से भी प्रकाशित हैं। उनका क्या होगा, इस बारे में भी कयास लगाए जा रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति बनेगी कि लेखक और प्रकाशकों के मसले अदालत से हल होगें? दरअसल संजीव हिंदी के ओवररेटेड लेखक हैं। उन्होंने सूत्रधार नाम से एक उपन्यास लिखा था। उनकी विचारधारा के लेखकों ने उसको चर्चित करने का प्रयास किया लेकिन तात्कालिक चर्चा के बाद वो उपन्यासों की भीड़ में गुम हो गया। गाहे बगाहे वो विवादित बयान देते रहते हैं लेकिन उसका नोटिस भी हिंदी जगत नहीं लेता।

इसके पहले हिंदी प्रकाशन जगत से एक और समाचार आया। स्वर्गीय निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकें एक बार फिर से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगी। निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल ने प्रकाशन के अधिकार राजकमल प्रकाशन को सौंप दिए। राजकमल प्रकाशन से उनकी कुछ पुस्तकें नई साज सज्जा के साथ प्रकाशित भी हो गईं। निर्मल जी की पुस्तकों की यात्रा दिलचस्प है। कुछ वर्षों पहले गगन गिल और राजकमल प्रकाशन में रायल्टी को लेकर विवाद हुआ था। तब इस तरह की खबरें आई थीं कि एक वर्ष में निर्मल वर्मा की सभी पुस्तकों की रायल्टी एक लाख रुपए भी नहीं होती है। उस समय हिंदी जगत में रायल्टी को लेकर खूब चर्चा हुई थी। तब निर्मल जी की सभी पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार राजकमल प्रकाशन से लेकर भारतीय ज्ञानपीठ को दे दिया गया था। वहां से कुछ वर्षों बाद निर्मल वर्मा की समस्त पुस्तकें वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुईं। संभव है कि एग्रीमेंट ही इस तरह का हो कि एक अंतराल के बाद पुस्तक प्रकाशन का अधिकार लेखक या उनके उत्तराधिकारी के पास वापस आ जाते हों। लेकिन जब विवाद और आरोप- प्रत्यारोप के बाद पुस्तकों के प्रकाशन का अधिकार एक जगह से दूसरे जगह जाता है तब प्रश्न उठते हैं। कुछ दिनों पूर्व विनोद कुमार शुक्ल ने भी रायल्टी का मुद्दा उठाकर अपनी कुछ पुस्तकों के प्रकाशन अधिकार दूसरे प्रकाशन को देने की घोषणा की थी। होना ये चाहिए कि लेखक और प्रकाशक दोनों को प्रकाशन एग्रीमेंट सार्वजनिक करना चाहिए ताकि भ्रम और विवाद की अप्रिय स्थिति न बने।

संजीव उपाख्य राम सजीवन प्रसाद ने जब अपनी सभी पुस्तकों के राजकमल प्रकाशन से छपने की बात की थी तब कहा था कि इससे पाठकों को सुविधा होगी और उनको सभी पुस्तकें एक जगह उपलब्ध होंगी। पाठकों को कितनी सुविधा होगी या भ्रमित होंगे ये तो समय तय करेगा लेकिन लेखकों के आर्थिक लाभ का संकेत तो मिल ही रहा है। हर किसी को अपना लाभ देखना चाहिए लेकिन उसको दूसरा रंग देना उचित नहीं कहा जा सकता है। पूरे हिंदी जगत को इसपर विचार करना चाहिए कि ऐसी स्थिति बन क्यों रही है। विचार किया जाए तो हिंदी प्रकाशन का जो स्वरूप वर्षों से बना है उसमें प्रकाशक और लेखक के बीच व्यावसायिक संबंध नहीं बन पाते हैं और वो बहुधा व्यक्तिगत होते हैं। वरिष्ठ लेखक अपनी पसंद के प्रकाशकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित होने के लिए दे देते हैं और प्रकाशक लेखक की साहित्यिक हैसियत या अपनी श्रद्धा के अनुसार उनको अग्रिम धनराशि देते हैं जो रायल्टी में एडजस्ट होते रहती है। लेखकों को अपने पुस्तकों के प्रकाशन की इतनी जल्दी होती है कि वो चाहते हैं कि प्रकाशक उनकी पुस्तक उनकी मर्जी की तिथि के अनुसार प्रकाशित कर दे। लेखकों का एक दूसरा वर्ग है जो प्रकाशकों के यहां चक्कर लगाता रहता है कि उसकी कृति किसी भी तरह से प्रकाशित हो जाए। कई प्रकाशक इस स्थिति का फायदा उठाते हैं और बिना किसी एग्रीमेंट के पुस्तक का प्रकाशन कर देते हैं। जब पुस्तकों की समीक्षा आदि छपने लगती है या कोई पुरस्कार मिल जाता है तो लेखक को लगता है कि प्रकाशक उनकी कृति से बहुत पैसे कमा रहा है। विवाद यहीं से उत्पन्न होने लगता है। ऐसी स्थिति में प्रकाशक कुछ धन लेखक को देकर विवाद को फौरी तौर पर शांत करने का प्रयास करते हैं। हो भी जाता है लेकिन ये स्थायी हल नहीं है। इस बारे में प्रकाशकों और लेखकों को एक साथ बैठकर बात करनी होगी या फिर हिंदी में अंग्रेजी की तरह लिटरेरी एजेंट हों जो लेखकों और प्रकाशकों दोनों का हित देख सकें। लेखकों और प्रकाशकों को भी दोनों के हितों का ध्यान रखना चाहिए।

Saturday, March 9, 2024

राष्ट्र और संस्कृति पर राजनीति


कुछ दिनों पूर्व द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के सांसद ए राजा ने भारत और राष्ट्र को लेकर कुछ बातें कहीं। उनकी बातों पर राजनीतिक दलों ने प्रतिक्रिया दी। दोनों बातें समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। ए राजा कहते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। एक राष्ट्र, एक भाषा एक परंपरा और एक संस्कृति को दर्शाता है और ऐसी विशेषताएं ही एक राष्ट्र का निर्माण करती है। डीएमके के सांसद इतने पर ही नहीं रुके, आगे बोले कि तमिल एक राष्ट्र है, उड़िया एक भाषा है और एक राष्ट्र है। ऐसी सभी इकाइयां मिलकर भारत का निर्माण करती हैं। ऐसे में भारत एक देश नहीं है बल्कि यह एक उपमहाद्वीप है इसमें विभिन्न प्रथाएं, परंपराएं और संस्कृतियां हैं। तमिलनाडु, केरल, दिल्ली और ओडिशा जैसे राज्यों में अपनी अपनी स्थानीय संस्कृति है। ए राजा ने इसके बाद भी अनेक विवादित बातें कीं। वो भारत के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि ये एक राष्ट्र नहीं बल्कि छोटे राष्ट्रों का समूह है। यहां की संस्कृति एक नहीं है। इस तरह की बातों से वो अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हैं। भारत एक राष्ट्र के तौर पर प्राचीन काल से पूरी दुनिया में जाना जाता रहा है। भारतीय संस्कृति भी एक है जिसको लेकर भी तमाम विद्वानों ने लिखा है। पौराणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख कई बार मिलता है। ए राजा और उनकी पार्टी के नेताओं को भारत के पौराणिक ग्रंथों या सनातन से जुड़े ग्रंथों पर हो सकता है विश्वास न हो इस कारण उनकी धारणा का निषेध आधुनिक काल के इतिहासकारों के लेखन से ही करना उपयुक्त रहेगा। ए राजा से ये अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है कि उन्होंने ऋगवेद या स्मृतियों को पढ़ा होगा। अपेक्षा तो ये भी नहीं की जा सकती है कि उन्होंने आनंद कुमारस्वामी, वासुदेवशरण अग्रवाल, जैसे लेखकों को पढ़ा होगा। पर ये अपेक्षा तो की जा सकती है कि ए एल बैशम का पुस्तक द वंडर दैट वाज इंडिया पढ़ा होगा। रोमिला थापर और रामशरण शर्मा जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों के बारे में सुना होगा। उनके लेखन से परिचित होंगे। ए एल बैशम आस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा में एशियन सिविलाइजेशन के प्रोफेसर थे। उन्होंने 1954 में ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ नाम की पुस्तक लिखी थी। ये कई वर्षों बाद भारत में प्रकाशित हुई थी। ये पुस्तक छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय हुई और इतिहास के छात्रों के लिए लगभग अनिवार्य भी। इस पुस्तक में बैशम ने भारत के बारे में विस्तार से लिखा है। दूसरे संस्करण की भूमिका की कुछ पंक्तियों का उल्लेख राजा के बयान के संदर्भ में करना उचित रहेगा। बैशम लिखते हैं कि इस पूरी किताब में ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग भौगोलिक आधार पर किया गया है, जिसमें पाकिस्तान समाहित है। इसका अर्थ है कि वो एक राष्ट्र के तौरा पर अखंड भारत की बात कर रहे हैं। इस पुस्तक के पहले अध्याय में भी ए एल बैशम ने विस्तार से भारत और उसकी प्राचीन संस्कृति के बारे में बताया है। इसमें भी वो ‘लैंड आफ इंडिया’ के बारे में जब लिखते हैं तो भारत को एक राष्ट्र के तौर पर ही रेखांकित करते हैं। जब वो हिमालय पर्वत शृंखला और नदियों की बात करते हैं तो दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत की सीमाओं की बात करते हैं। जब वो डिस्कवरी आफ इंडिया की बात करते हैं तो प्राचीन भारतीय सभ्यता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि प्राचीन भारत की सभ्यता मिस्त्र, मेसोपोटामिया और ग्रीस की सभ्यताओं से अलग हैं क्योंकि इनकी पंरपराएं सभ्यता के आरंभ से लेकर अबतक निर्बाध रूप से कायम हैं। इसके आगे वैशम एक पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण कहते हैं, भारत और चीन प्राचीनतम सांस्कृतिक परंपरा वाले देश हैं जहां एक निरंतरता लक्षित की जा सकती है। लगभग 500 पृष्ठों की इस पुस्तक को ही राजा पढ़ लेते तो भारत को एक राष्ट्र नहीं कहने की अज्ञानता नहीं करते। इसको विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं का देश नहीं बताते। रोमिला थापर से लेकर रामशरण शर्मा तक ने भी जब भारत की बात की है तो एक देश के तौर पर ही की है। 

ए राजा के उपरोक्त बयान के कारणों पर आने के पहले सम्राट अशोक के शिलालेखों को भी देख लेते हैं। 1837 तक अशोक के शिलालेखों के बारे में पता नहीं था। 1837 में पहली बार जेम्स प्रिंसेप ने अशोक के शिलालेखों के बारे में लिखना आरंभ किया। 1901 के आसपास वी स्मिथ ने सम्राट अशोक पर एक मोनोग्राफ लिखा। इसके बाद अशोक के कालखंड के शिलालेखों की ओर पूरी दुनिया के इतिहासकारों का ध्यान गया। अब यह तो नहीं कहा जा सकता है कि ए राजा को वी स्मिथ के मोनोग्राफ को पढ़ना चाहिए। 1925 में डी आर भंडारकर ने सम्राट अशोक के शासनकाल पर दिए अपने व्याख्यानों को प्रकाशित करवाया। उससे भी भारत के एक राष्ट्र और एक पारंपरिक संस्कृति के बारे में पता चला है। 

इस स्तंभ में पहले भी सभ्यता और संस्कृति के बारे में लिखा जा चुका है। संस्कृति के चार अध्याय जैसा ग्रंथ लिखनेवाले रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है कि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है और संस्कृति वो गुण है जो हममें व्याप्त है। वो ये भी कहते हैं कि संस्कृति सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज होती है। वह सभ्यता के भीतर उसी तरह व्याप्त रहती है जैसे दूध में मक्खन या फूलों में सुगंध। संस्कृति ऐसी चीज नहीं जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती है। संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान प्रदान से बढ़ती है। जब भी दो देश वाणिज्य-व्यापार अथवा शत्रुता-मित्रता के कारण आपसे में मिलते हैं तब उनकी संस्कृतियां एक दूसरे को प्रभावित करने लगती हैं। भारत वर्ष पर आक्रांताओं का आक्रमण हुआ। उन्होंने भारत पर शासन किया। उस कालखंड में भी भारत की संस्कृति प्रभावित हुई थी। संस्कृति के प्रभावित होने का ताजा उदाहरण हम 1991 के बाद के कालखंड में देख सकते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था को जब खोला गया तो उसने भी हमारी संस्कृति को प्रभावित किया। जब भारत की संस्कृति कहा जाता है तो उसको संस्कृति के अर्थ में ही समझना होगा। कई इतिहासकारों और विद्वानों ने जब संस्कृति के प्रभावित होने की बात की तो उन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ये कहा कि भारत की संस्कृति एक ही है जहां हम विविधताओं का उत्सव मनाते हैं। संस्कृति की स्थापित परिभाषा के आलोक में उनकी ये बात सटीक प्रतीत होती है। 

दरअसल ए राजा का बयान एक राजनीतिक बयान है। जब एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि इस तरह की बातें करता है तो उसका समाज पर असर पड़ता है। लोकतंत्र में जनता का अधिकार है कि वो अपने नेताओं की बातों के पीछे की राजनीति को समझे। राजा जब तमिल, तेलुगु और उड़िया की अलग संस्कृति की बात करते हैं या भारत के एक राष्ट्र की अवधारणा पर चोट करते हैं तो उनका सोच विभाजनकारी प्रतीत होता है। इस तरह के बयानों से फौरी तौर पर कुछ राजनीतिक लाभ हो सकता है लेकिन न तो उनको न ही पार्टी को कोई दीर्घकालिक फायदा होगा न ही उनको व्यक्तिगत रूप से। इस तरह के विभाजनकारी बयानों का प्रतिकार इस कारण भी किया जाना चाहिए ताकि विभाजनकारी सोच को रोका जा सके। कुछ दिनों से देश में उत्तर दक्षिण के बीच विवाद को हवा दी जा रही है। राजा के बयान को भी उसी आलोक में देखा जाना चाहिए। ऐसे लोग भारत के संविधान की शपथ लेकर संसद में बैठते हैं लेकिन प्रतीत होता है कि वो जिसकि शपथ लेते हैं उनमें भी उनकी आस्था नहीं है। 

आलम आरा ने बदली दिशा


भारतीय फिल्मों की सफलताओं का स्वर्णिम इतिहास रहा है। दादा साहब फाल्के ने जब पहली हिंदी फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी वो जबरदस्त सफल रही थी। कहा जाता है कि टिकटों की बिक्री की कमाई इतनी होती थी कि सिक्कों को बोरियों में भर कर रखना होता था। कुछ इसी तरह की कहानी दादा साहब फाल्के की एक और फिल्म से जुड़ी हुई है। 1917 में दादा साहब ने एक फिल्म बनाई  थी जिसका नाम था लंका दहन। नाम से ही स्पष्ट है कि फिल्म रामकथा पर आधारित है। 1917 में बनी इस फिल्म को पूरे देश में दर्शकों का खूब प्यार मिला था। कहा जाता है कि ये फिल्म मद्रास (अब चेन्नई) में इतनी हिट रही थी कि इसकी कमाई के सिक्कों को बोरियों में भरकर बैलगाड़ी पर लादकर ले जाया जीता था। फिल्मों को लेकर ये दीवानगी मूक फिल्मों के दौर में चल ही रही थी लेकिन उस दौर में फिल्मों को देखने के लिए घंटों पहले से सिनेमा हाल के बाहर जमा होने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। 14 मार्च 1931 को जब पहली बोलती फिल्म आलम आरा बांबे (अब मुंबई) के मैजेस्टिक सिनेमा हाल में रिलीज होने की खबर आम हुई तो लोग सूरज उगने के पहले अंधेरे में ही सिनेमा हाल के बाहर जमा होने लगे थे। मिहिर बोस ने अपनी पुस्तक बालीवुड में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर इरानी के बिजनेस पार्टनर के हवाले से लिखा गया है कि मैजेस्टिक सिनेमा के बाहर सुबह से ही इतनी भीड़ जमा हो गई कि हाल के कर्माचरियों को अंदर जाने में परेशानी हो रही थी। किसी तरह से वो अंदर जा पाए उस समय पंक्तिबद्ध होकर किसी काम को करने की अवधारणा नहीं थी इस कारण अफरातफरी मची थी। लोगों की भीड़ धीरे धीरे जब अराजक होने लगी तो सिनेमाघर के प्रबंधकों को पुलिस बुलानी पड़ी थी । तब जाकर फिल्म का प्रदर्शन हो सका था। कहा जाता है कि उस समय फिल्म के टिकट की कीमत चार आना थी जो ब्लैक में चार से पांच रुपए में बिकी थी। एक रुपए में चार आना होता था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आलम आरा को लेकर कितनी दीवानगी थी। 

ये दीवानगी फिल्म को लेकर तो थी ही, दीवानगी का एक कारण अपनी भाषा में नायक और नायिका को बोलते सुनने का रोमांचकारी अनुभव भी था। आलम आरा पहली बोलती फिल्म तो थी ही लेकिन इसने हिंदी फिल्मों की दिशा बदल दी। इस फिल्म में तीस गाने थे। आलम आरा के बाद बनने वाली फिल्मों को अगर देखें तो सबमें खूब गाने होते थे। फिल्मकारों को लगता था कि जितना संगीत होगा फिल्म उतनी लोकप्रिय होगी। आलम आरा के बाद बनने वाली फिल्मों में 10 से 15 गाने तो होते ही थे। फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि आलम आरा के पहले जब मूक फिल्मों का दौर था तब भारत में बनने वाली फिल्मों का ट्रीटमेंट वैसा ही होता था जैसे कि पूरी दुनिया में उस जानर की फिल्मों का होता था। जैसे ही बोलती फिल्मों का चलन आरंभ हुआ तो भारतीय फिल्में कथावाचन की अपने पारंपरिक शैली को अपनाने लगी। रंगमंच को लेकर जो अवधारणा थी वो पर्दे पर साकार होने लगी थी। इस लिहाज से देखा जाए तो आलम आरा को सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि उसने भारतीय फिल्मों के पात्रों को वाणी दी। इस फिल्म ने निर्माण की शैली को भी प्रभावित किया। गानों को फिल्म का अभिन्न अंग बनाने का आरंभ यहीं से होता है। गानों की परंपरा भारतीय रंगमंच में पहले से मौजूद थी। इस तरह से अगर हम विचार करें तो आलम आरा ने हिंदी फिल्मों को भारतीय कला के करीब लाने का कार्य भी किया। 1938 में प्रकाशित इंडियन सिनेमैटोग्राफ ईयरबुक में इस प्रवृत्ति को रेखांकित किया गया था। उसमें कहा गया था कि बोलती फिल्मों में गीत और संगीत के माध्यम से भारतीय चलचित्र जगत ने अपनी रचनात्मकता साबित की थी।  जो लोग तकनीक को कला का दुश्मन मानते हैं उनको यह सोचना चाहिए कि बहुधा तकनीक रचनात्मकता को बढ़ावा देती है । आज आर्टिफिशियल इंटेलिंजेंस (एआई) को लेकर भी फिल्म जगत से जुड़े कई लोग सशंकित हैं लेकिन जिस तरह से एआई ने किसी भाषा में बनी फिल्म को अन्य भाषाओं में जब करने की सहूलियत दी है वो भी रेखांकित की जानी चाहिए।    


Saturday, March 2, 2024

हिंदी और गांधी के सपनों पर ग्रहण


एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, जिसका नाम है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय। ये विश्वविद्यालय महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित है। इसकी वेबसाइट पर प्रकाशित परिचय में बताया गया है कि वर्ष 1997 में संसद में पारित एक अधिनियम के माध्यम से इसकी स्थापना की गई। इस विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी का सम्यक विकास करना, हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए सुसंगत प्रयास करना। हिंदी को रोजगार की भाषा बनाने के लिए प्रयत्न करना, अंतराष्ट्रीय शोध और विमर्श केंद्र के रूप में विवविद्यालय का विकास करना। संसद के पारित अधिनियम के आलोक में कांग्रेस समर्थक अधिकारी अशोक वाजपेयी को विश्वविद्यालय का पहला कुलपति बनाया गया। वो लगभग चार वर्षों तक विश्वविद्यालय को दिल्ली से ही चलाते रहे। कभी कभार वर्धा चले जाते थे। उनके कार्यकाल में कुछ विवाद भी हुए। उनके बाद कई कुलपति नियुक्त हुए लेकिन विश्वविद्यालय अपने उद्देश्यों की तरफ बहुत धीरे-धीरे बढ़ पाया। वर्धा इस स्थित यह विश्वविद्यालय कभी छोटे तो कभी बड़े विवाद में घिरा रहा। तभी नियुक्तियों को लेकर तो कभी निर्माण को लेकर। पिछले वर्ष 14 अगस्त को अप्रिय परिस्थितियों में कुलपति रजनीश कुमार शुक्ल ने कुलपति के पद से इस्तीफा दे दिया। रजनीश शुक्ल का कार्यकाल भी विवादित रहा। जब उन्होंने पद छोड़ा तो विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम प्रोफेसर एल कारूण्यकरा को कुलपति का प्रभार दिया। करीब दो महीने तक रजनीश शुक्ल का इस्तीफा स्वीकृत नहीं हुआ और प्रोफेसर कारूण्यकरा विश्वविद्यालय चलाते रहे। शिक्षा मंत्रालय ने जब रजनीश शुक्ल का इस्तीफा स्वीकृत किया तो साथ ही नागपुर के इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट (आईआईएम) के निदेशक को विश्वविद्यालय के कुलपति का अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया। इसके बाद प्रोफेसर कारूण्यकरा अदालत चले गए जहां मामला अभी लंबित है। अतिरिक्त प्रभार के रूप में नागपुर आईआईएम के निदेशक विश्वविद्लाय चला रहे हैं। इस बीच नए कुलपति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय ने विज्ञापन दे दिया। प्रक्रिया चल रही है। 

इस क्रोनोलाजी को बताने का उद्देश्य ये है कि किस तरह से महात्मा गांधी और हिंदी के नाम पर बना ये केंद्रीय विश्वविद्लाय निरंतर विवादों में रहा। इन विवादों का असर विश्वविद्यालय के कामकाज पर पड़ रहा है। स्थायी कुलपति के इस्तीफे के छह महीने की अवधि बीत जाने के बाद भी कुलपति की नियुक्ति नहीं होने के कारण विश्वविद्यालय के सामने जो बड़े उद्देश्य थे उन पर ब्रेक लग गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से शिक्षा के भारतीयकरण के लक्ष्य को पाना चाह रहे हैं। इसके लिए वो खुद बहुत सक्रिय रहे हैं, अब भी हैं। भारतीय भाषा भी प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्राथमिकता में है। भारतीय भाषा को रोजगार से जोड़ने के लिए भी बड़े स्तर पर कार्य हो रहे हैं। पाठ्यक्रम से लेकर पाठ्य सामग्री तक तैयार करने के लिए पिछले दो वर्षों से हर स्तर पर श्रम हो रहा है । लेकिन जब हिंदी के इस विश्वविद्यालय की स्थिति ऐसी लचर हो तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लक्ष्य को समग्रता में पाने में कठिनाई हो सकती है। इस समय जब  महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, के माध्यम से हिंदी को शक्ति देने का उपक्रम जोर शोर से चलाया जाना चाहिए था तब विश्वविद्यालय केस मुकदमों में उलझा हुआ है। जिनके पास विश्वविद्यालय का अतिरिक्त प्रभार है वो अतिरिक्त दायित्व की तरह ही निर्वाह भी कर रहे हैं। विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने अभी हाल ही में कुलपति को एक पत्र लिखने की बात कही है जिसमें वो ये मांग करेंगे कि प्रशासन विश्वविद्यालय की स्थिति पर एक श्वेत पत्र जारी करे। शिक्षकों को संबोधित उसी पत्र में शिक्षक संघ ने आरोप लगाया है कि विश्वविद्यालय में नियम कानून को दरकिनार कर निर्णय लिए जा रहे हैं। कर्माचरियों और शिक्षकों को परेशान किया जा रहा है आदि आदि। ये आरोप हैं और इनकी जांच होगी तभी सचाई का पता चल पाएगा। 

इन दिनों एक बेहद दिलचस्प बात इस विश्वविद्लय से जुड़ी है वो ये कि इसके रोजमर्रा के निर्णय व्हाट्सएप पर हो रहे हैं। चाहे वो शिक्षकों के अवकाश की स्वीकृति का मामला हो, चाहे किसी के जीपीएस खाते से पैसे निकालने की अनुमति का संदर्भ हो या किसी शिक्षक को किसी कार्यक्रम आदि में भाग लेने की अनुमति का मामला हो। अधिकतर मामलों में कुलपति का अप्रूवल व्हाट्सएप पर हो रहा है। इस प्रवृत्ति के कारण विश्वविद्यालय में ये चर्चा होने लगी है कि महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अब व्हाट्सएप युनिवर्सिटी बन गया है। अभी तक विमर्श या चर्चा के दौरान जब काल्पनिक बातों को तथ्य बनाकर पेश किया जाता था तो कहा जाता था कि व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का ज्ञान मत दो। व्हाट्सएप युनिवर्सिटी का प्रयोग हल्के फुल्के अंदाज में होता था उसको अब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से जुड़े कुछ लोग अपनी युनिवर्सिटी का मजाक बनाने के लिए प्रयोग करने लगे हैं। यह ऐसी स्थिति है जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। अकादमिक परिषद और कार्य परिषद की लंबे समय से बैठक नहीं होने के कारण बड़े निर्णय नहीं लिए जा रहे हें। व्हाट्सएप पर जितने निर्णय हो सकते हैं वो हो रहे हैं। व्हाट्सएप के स्क्रीन शाट के प्रिंट लेकर फाइलों में लगा दिए जाते हैं। 

महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय एक स्वप्न था। एस ऐसा स्वप्न जिसको 1975 में नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान देखा गया था। उस सम्मेलन के दौरान प्रस्ताव पारित किया गया था कि वर्धा में हिंदी के एक विश्वविद्यालय की स्थापना हो। 1993 में मारीशस में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान एक अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की आवश्यकता पर चर्चा हुई थी। तब ये भी कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए भी एक ऐसे विश्वविद्यालय की आवश्यकता है। महात्मा गांधी के हिंदी प्रेम को भी इस विश्वविद्लय की स्थापना की आवश्यकता से जोड़ा गया था। तब जाकर 1997 में संसद ने ऐसे विश्वविद्यालय की स्थपना को स्वीकृति दी थी। आज इस विश्वविद्लाय के दो मान्यता प्राप्त केंद्र कोलकाता और प्रयागराज में चल रहे हैं। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में भी एक केंद्र कार्यरत है जिसको विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मान्यता मिलना शेष है। गुवाहाटी में चौथा केंद्र खोलने की कवायद हो रही थी। कोलकाता का केंद्र काफी समय से किराए के मकान में चल रहा है। वहां बहुत कम जगह है। आरोप है कि अगर विश्वविद्यालय प्रशासन किसी को प्रताड़ित या दंडित करना चाहता है तो उसका तबादला कोलकाता केंद्र में कर दिया जाता है। प्रयागराज में विश्वविद्यालय का अपना परिसर है लेकिन वो भी आधारभूत सुविधाओं की बाट जोह रहा है। यह शोध का विषय हो सकता है कि इस केंद्र में जितने कर्मचारी या अध्यापक हैं उस अनुपात में विद्यार्थी रहे हैं या नहीं। अमरावती जिले के केंद्र को जब मान्यता ही प्राप्त नहीं है तो उसकी चर्चा व्यर्थ है। हिंदी के नाम पर बने इस विश्वविद्यालय पर केंद्र सरकार को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर ऐसा हो पाता है तो इसको एक ऐसे केंद्र के रूप में विकसित किया जाए जो हिंदी पठन पाठन के लिए एक वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित हो सके। विश्व के अन्य देशों के विश्वविद्लायों में हिंदी शिक्षण के समन्वयक के रूप में काम कर सके। वहां के लिए पाठ्यक्रम तैयार कर सके, शिक्षक तैयार कर सके। इस विश्वविद्यालय को उच्च शिक्षा के एक ऐसे वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करना होगा जहां विश्व की अन्य भाषाओं में चल रही गतिविधियों पर विमर्श हो सके, शोध हो सके। अगर ऐसा हो पाता है तो प्रधानमंत्री के विकसित भारत के सोच को भी शक्ति मिल सकती है। अन्यथा व्हाट्सएप युनिवर्सिटी तो चलती ही रहेगी। 


आंधी ने उड़ाई अटकलें


जब भी चुनाव आते हैं, फिल्मों में राजनीति की बात होती है तो फिल्म आंधी की चर्चा अवश्य होती है। इस महीने देश में आम चुनाव की घोषणा होने जा रही है। नारी शक्ति वंदन अधिनियम संसद में पेश हो चुका है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि महिलाओं से जुड़े मुद्दे आगामी चुनाव में केंद्र में होंगे। फिल्म आंधी को भी देखें तो उसमें महिला और उसके संघर्ष की कहानी है। गुलजार ने माना भी था कि वो आधुनिक भारत की महिला राजनीतिज्ञ को केंद्र में रखकर फिल्म बनाना चाहते थे। एक आदर्श राजनीतिक महिला। गुलजार ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जब वो फिल्म आंधी के चरित्र की कल्पना कर रहे थे तो उनके मस्तिष्क में इंदिरा गांधी और तारकेश्वरी सिन्हा की छवि थी। पर उन्होंने जोर देकर तब ये भी कहा था कि वो कभी भी इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत जीवन पर फिल्म नहीं बनाना चाहते थे। गुलजार चाहे जो भी कहें लेकिन इस फिल्म में कई ऐसे प्रसंग थे या कई ऐसी स्थितियां थीं जिनका मेल इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत जीवन से है। फिल्म और इंदिरा गांधी की कहानी में जो सबसे बड़ी समानता थी वो ये कि फिरोज गांधी से उनका अलगाव हुआ और वो अपनी पिता की मर्जी के अनुसार राजनीति में आईं। इंदिरा गांधी के पिता भई अपनी बेटी को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार कर रहे थे और फिल्म में भी नायिका आरती के पिता इंदिरा गांधी के पिता की तरह अपनी बेटी को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देख रहे थे। सुचित्रा सेन का गेटअप भी इस तरह से बनाया गया था कि उससे भी इंदिरा गांधी की झलक दिखती थी। फिल्मकारों ने बस एक अहम अंतर रखा था वो ये कि फिल्म में नायिका की संतान एक लड़की थी और इंदिरा गांधी के दो पुत्र थे। इंदिरा गांधी के पुत्र उनके साथ रहते थे जबकि फिल्म में नायिका की पुत्री अपने पिता के साथ रहती थी। 

आंधी फिल्म की महिला पात्र आरती देवी और उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच कई समानताएं तो थीं लेकिन जब ये फिल्म रिलीज हुई तो इसके प्रचार में अति उत्साह ने इसको और विवादित बना दिया। दक्षिण भारत के अखबारों में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ जिसमें फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन के फिल्मी गेटअप वाली तस्वीर प्रकाशित हुई और उसके नीचे लिखा था अपने प्रधानमंत्री को स्क्रीन पर देखें। दिल्ली के समाचार पत्रों में इस फिल्म का जो विज्ञापन प्रकाशित हुआ, उसमें लिखा था स्वाधीन भारत की एक दमदार महिला राजनेता की कहानी देखिए। इंदिरा गांधी तक बातें पहुंचने लगीं थीं। उन्होंने फिल्म नहीं देखी थी। उन्होंने अपने दो सहयोगियों को फिल्म देखकर रिपोर्ट देने को कहा कि क्या वो सिनेमा हाल में प्रदर्शन के लिए उचित है। दोनों ने फिल्म देखी और उसमें ऐसा कुछ भी नहीं पाया कि फिल्म को प्रतिबंधित किया जाए। उस समय के सूचना और प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को भी फिल्म में कुछ गलत नहीं लगा था। लेकिन बताया जाता है कि अखबारों के विज्ञापन और फिर एक दृश्य में सुचित्रा सेन को सिगरेट पीते दिखाने की बात जब इंदिरा गांधी तक पहुंची तो उन्होंने तय कर लिया कि फिल्म को रोक दिया जाए। फिल्म प्रतिबंधित हो गई। कुछ ही सप्ताह पहले रिलीज की गई फिल्म प्रतिबंधित। फिल्म को फिर से सिनेमा हाल तक पहुंचने में ढाई वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ी। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जब इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी हारी तो इस फिल्म से प्रतिबंध हटा।  मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली सरकार ने इस फिल्म को दूरदर्शन पर भी दिखाया। एक बेहद खूबसूरत फिल्म राजनीति की भंट चढ़ी। 

गुलजार ने जिस संवेदनशीलता के साथ इस फिल्म में प्रेम दृष्यों को फिल्माया है वो बेहद मर्यादित है। विवाह के पहले और विवाह के बाद के रोमांटिक दृष्यों को संजीव कुमार और सुचित्रा सेन ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है। याद करिए इस फिल्म का गीत तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं में दोनों के मन की तड़प, मिलने की आकांक्षा लेकिन परिस्थितियां विपरीत। कश्मीर के अनंतनाग इलाके के मार्तंड मंदिर के खंडहरों के बीच फिल्माए इस गीत का लोकेशन, गाने के दौरान नायक नायिका की पोजिशनिंग इस तरह कि रखी गई जो कहानी को मजबूती प्रदान करता है और दर्शकों को दृष्य से जोड़ता है। लेकिन राजनीति के निर्मम हाथों एक खूबसूरत फिल्म विवादित तो बनी लेकिन आज भी उसकी चर्चा होना ये साबित करता है कि कला को राजनीति दबा नहीं सकती। 

Saturday, February 24, 2024

महाआख्यान से बनता सत्ता विमर्श


दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि नरेन्द्र मोदी ने देश को सामूहिक हीन भावना से बाहर निकालने का काम किया। नरेन्द्र मोदी जी ने पहली बार इस देश में को गुलामी के प्रतीकों से मुक्ति दिलाने का आह्वान लाल किले की प्राचीर से किया था। आगे उन्होंने जो कहा उसका अर्थ ये था कि मोदी के शासन काल में देश को उग्रवाद, आतंकवाद और नक्सलवाद से लगभग मुक्ति मिली। इसके अलावा भी अमित शाह ने अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी को कई समस्याओं से मुक्ति दिलानेवाले नेता के तौर पर रेखांकित किया। जब मुक्ति की बात होती है और उसके साथ कार्यों का लेखा जोखा दिया जाता है तो वो कोई साधारण बात नहीं होती है। राजनीतिक वक्तव्य नहीं होता है। उस वक्तव्य के पीछे एक सुचिंतित रणनीति होती है। अमित शाह के नेता नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों के माध्यम से एक पाठ (टेक्सट) का निर्माण करते चलते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में मुक्ति का चाहत तो होती ही है, देश के उज्जवल भविष्य का स्वपन भी होता है। पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के भाषणों और क्रियाकलापों को देखें तो वो इसके माध्यम से जो आख्यान रचते हैं उसमें इन सबकी झलक दिखाई देती है। नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय जो पंच प्रण की घोषणा की थी वो इसी आख्यान का एक भाग प्रतीत होता है। उसमें भी उन्होंने मुक्ति का स्वप्न देखा था। उसके बाद वो निरंतर विकसित भारत की बात कर रहे हैं। 2047 तक भारत को पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने का स्वप्न। जब नरेन्द्र मोदी विकसित भारत का आख्यान रचते हैं तो उसके साथ भारतीय अस्मिता को भी जोड़ते चलते हैं। अगर मोदी की इस अस्मितामूलक आख्यान को देखें और उसको स्टीफन ग्रीनब्लाट जैसे चिंतक की अवधारणों पर कसें तो स्थिति और स्पष्ट होती है। स्टीफन ग्रीनब्लाट कहते हैं कि हर अस्मिता एक कहानी है। कहानी के बार बार कहने से ही अस्मिता का निर्माण होता है। हमें यहां ये समझना होगा कि बार बार कहना क्या है। ये जो बार बार कहना होता है यही तो जनता के मानस पटल पर अंकित होकर एक ऐसे पाठ का निर्माण करते हैं जिससे एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में वातावरण का निर्माण होता है, जिसकी परिणति सत्तामूलक विमर्श में होती है। 

हिंदी के आलोचक सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक तीसरी परंपरा की खोज में लिखा है कि जिस तरह से इतिहास एक टेक्सट (पाठ) है उसी तरह पद्मावत भी एक टेक्सट है और हर सत्ता समूह उसको अपने तरीके से पढ़ सकता है। उसका अर्थ फिक्सड नहीं तरल होता है उससे राजनीति भी की जा सकती है। वो आगे कहते हैं कि टेक्सट जब मास सर्कुलेशन में होता है तो उसकी मानी की परतें बढ़ती जाती हैं और उसकी एक इकोनामी भी काम करने लगती है।... कोई टेक्सट कभी बंद नहीं होती है, न किसी टेक्सट का समापन होता है। वह नए नए पाठों के लिए हमेशा खुली रहती है और इस तरह इतिहास के पाठों को बदलती रहती है।  अब अगर इस सिद्धांत के आलोक में नरेन्द्र मोदी के रचे आख्यानों को देखें तो वो जिस टेक्सट का सृजन करते हैं उसके मास सर्कुलेशन में होने के कारण व्याप्ति बढ़ती जाती है। प्रधानमंत्री मोदी अपने पाठ (टेक्सट) का समापन नहीं करते हैं बल्कि एक को दूसरे से जोड़कर एक नया टेक्सट जनता के सामने रखते चलते हैं। उदाहरण के तौर पर पहले वो संकल्प से सिद्धि की बात करते हैं। संकल्प और सिद्धि की बात करते करते वो स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय कई प्रकार की मुक्ति का पाठ रचते हैं। इस मुक्ति के बाद वो विकसित भारत के स्वप्न की संरचना करते हैं। इस तरह से प्रधानमंत्री मोदी न केवल नया टेक्सट रचते हैं बल्कि उसको इतिहास के तथ्यों के साथ मिलाकर मौखिक इतिहास (ओरल हिस्ट्री) का सृजन भी करते हैं। सुधीश पचौरी कहते हैं कि मौखिक इतिहास के इतिहासत्व को लेकर अतिरिक्त सजगता की आवश्यकता होती है। मौखिक इतिहास की चुनौतियां भी कई प्रकार की होती हैं। वो वाचक पर निर्भर करते है। कई बार मौखिक इतिहास में एक वाचक नहीं होता है बल्कि वो अलग अलग कालखंड में कई वाचकों के माध्यम से आगे बढ़ता है। प्रधानमंत्री के इस मौखिक पाठ को विश्लेषण करते हैं तो इतिहास के साथ साथ वो एक पावर टेक्सट (सत्तात्मक कृति) का निर्माण भी करते हैं। पाठ में जब मुक्ति और स्वप्न का रसायन मिला दिया जाता है तो वो पावर टेक्सट बनता है। आज अगर नरेन्द्र मोदी की साख और विश्वास है तो उसके पीछे यही पावर टेक्सट है। 

हमारे देश में पावर टेक्सट को समझने का सटीक उदाहरण तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस है। तुलसीदास ने जब मानस की रचना की तो कथा के साथ साथ उन्होंने मुक्ति का लक्ष्य भी रखा। जब तुलसीदास मानस की रचना कर रहे थे उस समय भारत की जनता का मनोबल गिरा हुआ था। हिंदू जनता आक्रांताओं की ज्यादातियों से परेशान थी और वो मुक्ति चाहती थी। तुलसीदास ने इसको समझते हुए एक ऐसे पाठ की रचना की जिसमें राम जैसा नायक था जिसका चरित्र लोगों में उत्साह का संचार करनेवाला था। तीसरी परंपरा की खोज करते करते लेखक कहते हैं कि रामकथा और उसमें राम का विष्णु के अवतार के रूप में आना और विराट हिंदू कथा में बदलना पूर्व लिखित बहुत सी रामकथाओं को विस्थापित कर देता है। भारत में तुलसी के रामकथा की व्याप्ति एक बहुत ही ताकतवर और सघन विमर्श पैदा करती है। इसके मूल में धार्मिक कारणों के अलावा सबसे बड़ा कारण है मानस के प्रतीकों, रूपकों और मुक्ति की कथा के रूप में उसके आदर्शों का सुदीर्घ और सतत संचरण। ये चिन्ह एक तरह से हिंदू जनता की स्मृति में चक्कर मारते रहते हैं। भारत में मानस को मनोरंजन का ग्रंथ नहीं बल्कि मुक्ति का ग्रंथ माना जाता है । एक मेटानेरेटिव ये बनता है कि वो कलियुग के अत्याचारों से मुक्ति देनेवाली एकमात्र कथा है। तुलसी के मानस के साथ विश्वास और आस्था जुड़कर उसको एक पावर टेक्स्ट बनाती है। 

आज नरेन्द्र मोदी जिस तरह पावर टेक्सट का आख्यान रच रहे हैं उससे उनके नेता की छवि के साथ मुक्तिदाता की छवि भी गाढ़ी होती जा रही है। उनके सहयोगी और उनकी पार्टी के लोग इस पावर टेक्सट को लेकर ही आगे बढ़ रहे हैं और जनमानस में इस छवि को गाढा करने के प्रयत्न में जुटे हुए हैं। जनता भी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के इस पावर टेक्सट से सहमत ही नजर आती है। लोकतंत्र में जनता की सहमति का पैमाना चुनाव होता है। तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों में मोदी के इस पाव्र टेक्सट को मतदाताओं ने स्वीकार किया। विपक्ष के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती नरेन्द्र मोदी के पावर टेक्सट से पैदा हो रहे मेटानैरेटिव को समझने के साथ साथ उसका काट ढूंढने की है। विपक्षी दल अब भी राजनीति के पुराने औजारों से इसका काट ढूंढने का प्रयत्न कर रहे हैं और निरंतर विफल हो रहे हैं। वो अब भी जाति और धर्म का आधार लेकर मोदी के पावर टेक्सट के समझ अपना पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन इन पाठ में न तो मुक्ति की बात है और न ही कोई स्वप्न। इसलिए जनविश्वास अर्जित करने में सफलता नहीं मिल पा रही है। तुलसीदास ने रामकथा को मिथक से प्रतिरोधात्मक कथा में बदला उसी तरह से प्रधानमंत्री मोदी विकसित भारत के संकल्प के नैरेटिव के साथ एक महाआख्यान रचा है। इसके परिणाम मिल रहे है।  

Saturday, February 17, 2024

महाकवि निराला का हिंदू मन


नईदिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेला आज समाप्त हो जाएगा। इस वर्ष विश्व पुस्तक मेला में प्रकाशकों और पाठकों की भागीदारी ने पुस्तकों के प्रति आश्वस्ति को गाढा किया। इस बार पुस्तक मेले में श्रीराम साहित्य कई प्रकाशकों के यहां प्रमुखता से प्रदर्शित की गई थी। पाठक उन पुस्तकों को खरीद भी रहे थे। पुस्तक मेला मेरे लिए उन पुस्तकों की खोज और क्रय का अवसर होता है जो सामान्य तौर पर बाजार में नहीं मिलती है। इसी तरह की पुस्तकों की तलाश में जब वाणी प्रकाशन के स्टाल पर पुस्तकें देख रहा था तो नजर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की पुस्तक रामायण विनय-खण्ड पर पड़ी। इस पुस्तक की मुझे जानकारी नहीं थी। यह पुस्तक तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस के कुछ अंशों का अवधी से हिंदी अनुवाद जैसा है। इसपर बाद में चर्चा होगी। पर इस पुस्तक के बारे में जो जानकारी मिली वो दिलचस्प है। वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से जब इस पुस्तक के बारे में पूछा तो उन्होंने एक किस्सा बताया। कोरोना महामारी के कुछ वर्षों पहले की बात है। अरुण माहेश्वरी किसी काम से काशी गए हुए थे। काशी के गोदौलिया क्षेत्र में पटरी पर पुस्तकें बेचनेवाले एक व्यक्ति की दुकान पर पहुंचे। वहां उपलब्ध पुस्तकों को उलटने पुलटने लगे। अचानक उनकी नजर पटरी पर लगी दुकान के एक छोर पर गई। वहां कुछ प्रकाशित पन्ने रखे हुए थे। जिज्ञासावश अरुण जी ने उन पन्नों को उठाया तो वो निराला की पुस्तक रामायण, विनय खण्ड के छपे हुए फर्मे थे। जाहिर तौर पर वो बिक्री के लिए रखे गए थे। अरुण जी उन छपे हुए फर्मों को खरीद लिया। काशी में उन्होंने निराला जी की इस पुस्तक के बारे में पूछताछ की। वहां कई तरह की बातें पता चलीं। किसी ने बताया कि ये पुस्तक जिस प्रेस को छपने दी गई थी वो प्रेस बंद हो गया। तबतक पुस्तक के फर्मे छप चुके थे। प्रेस बंद होने के बाद उन फर्मों को रद्दी में बेच दिया गया होगा। आदि । उन छपे हुए पन्नों को लेकर अरुण माहेश्वरी दिल्ली लौट आए। 

दिल्ली में उन्होंने कवि केदारनाथ सिंह, अब स्वर्गीय, से मिलकर उनको वो पन्ने दिखाए। केदारनाथ सिंह ने उन पन्नों को पढ़ने के बाद कहा कि ये निराला जी का ही लिखा है और उन्होंने इस पुस्तक को बचपन में देखा था। उसकी भाषा और डा रामविलास शर्मा का लिखा प्रथम संस्करण की भूमिका स्पष्ट कर रही थी ये निराला की ही पुस्तक है। डा रामविलास शर्मा की भूमिका पर 1 जून 1949 की तिथि अंकित है। फिर इस पुस्तक को पुनर्प्रकाशित करने की योजना बनी। केदारनाथ सिंह ने पुस्तक पर एक टिप्पणी लिखी, निरालाकृत इस काव्यानुवाद को मैंने तब देखा जब मैं बनारस में स्कूल का छात्र था। यह भी याद है कि यह संभव हुआ था त्रिलोचन जी के कारण, जिन्हें इस काव्यानुवाद की प्रर्ति राष्ट्रभाषा विद्यालय, काशी से प्राप्त हुई थी। निराला जी उन दिनों अस्वस्थ थे और विद्यालय के प्रधानाचार्य गंगाधर मिश्र के आवास पर विश्राम कर रहे थे। यह अनुवाद कार्य वहीं संपन्न हुआ था और उस समय काशी के अखबारों में इसकी चर्चा भी हुई थी। निराला जी रामायण (श्रीरामचरितमानस) का खड़ी बोली में भाषांतर कर रहे हैं। इसको लेकर वहां के साहित्यिक जगत में एक उत्सुकता भी थी। प्रतियां कम छपीं थी। इस कारण कम लोगों तक पहुंच सकीं। केदारनाथ सिंह ने ये भी स्पष्ट किया है कि यह पूरी रामायण का अनुवाद नहीं है केवल उसके विनयपरक छंदों का भाषांतरण इस पुस्तक में किया गया है। यहां एक प्रश्न उठता है कि निराला जी ने भाषांतरण के लिए श्रीरामचरितमानस को ही क्यों चुना। इसका उत्तर निराला की टिप्पणी से मिलता है, श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदास जी का रामचरित-मानस या रामायण भारत की सर्वोत्तम काव्यकृति है, इसको इस समय यहां का वेद कहते हैं। इसके संबंध की बहुत सी बातें प्रकाश में नहीं आयीं। काफी अंधेरा है, अधिकार और अधिकारियों का प्रमाद भी।... जिन प्रांतो के विद्यार्थी अवधी नहीं जानते उनके लिए सुविधा हुई है। ऐसे भी नवें दसवें में इसका प्रचलन करने से विद्यार्थियों की खड़ी बोली अधिक पुष्ट हो जाएगी, इसका प्रमाण अधिकारीवर्ग पढ़ते ही समझ जाएंगे। आशा है पाठक पढ़कर राष्ट्रभाषा के विस्तार के प्रयत्न में हमारा उत्साह बढ़ाएंगे। रामविलास शर्मा इस पुस्तक के बारे में कहते हैं कि यह रामचरितमानस तक पहुंचने के लिए ऊंची नीची धरती पर रचे हुए एक नए मार्ग के समान है। इस पुस्तक के लिए निराला को तैयार करनेवाले श्री राष्ट्रभाषा विद्यालय के प्रधानाचार्य गंगाधर मिश्र ने उद्देश्य को और स्पष्ट किया था। उनका मानना था कि निराला श्रीरामचरितमानस के अनुवाद से इस ग्रंथ को सांस्कृतिक शिक्षा का आधार ग्रंथ बनाना चाहते थे। जिससे राष्ट्र की आत्यात्मिक चेतना जागरूक हो सके।  

अगर हमें निराला की रचनाओं पर समग्रता में विचार करें तो महाकवि निराला का मन बार बार हिंदू धर्म और परंपराओं में रमता हुआ दिखता है। उनकी कुछ कविताओं के आधार पर उनको कम्युनिस्ट और जनवाद आदि से जोड़कर हिंदुत्व और भारतीयता से दूर करने का खेल खेला गया। तोड़ती पत्थर कविता को कई बार उद्धृत किया गया। उस कविता में वर्णित गरीबी और मजदूरों की मेहनत को बार-बार रेखांकित करके विचारधारा विशेष का कवि घोषित किया गया। दूसरी तरफ सनातन धर्म और भारतीयता पर लिखे उनके लेखों को पाठकों की नजरों से ओझल करने का षडयंत्र किया गया। निराला जब समन्वय पत्रिका के संपादक थे तब उन्होंने श्रीरामचरितमानस के सातो कांडों की मौलिक व्याख्या करते हुए कई निबंध लिखे थे। रामविलास शर्मा ने माना है कि निराला की काव्य रचना पर तुलसीदास का प्रभाव था। यह प्रभाव भावों और विचारों के अलावा छंद रचना और ध्वनि पर भी दिखता है। इस सबंध में निराला के प्रबंध काव्य तुलसीदास को भी देखा जाना चाहिए। इन रचनाओं और कृतियों पर अकादमिक जगत में कम विचार हुआ। निराला पर काम करनेवाले आलोचकों ने उनके इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया। निराला पर विदेशी लेखकों और रविन्द्रनाथ ठाकुर के प्रभाव की चर्चा मिलती है। उनकी इतनी आलोचना हुई थी कि रामविलास शर्मा को कहना पड़ा था, निराला जो चार लाइनें बेहोशी में लिख देगा, वह चार जनम तुम होश में भी न लिखा पावोगे। उनके निधन के बाद भी उनपर आरोप लगते रहे, जीवनकाल में तो लगे ही थे। इस तरह के मसलों में उलझाकर निराला के लेखन के सनातन भाव तक जाने से पाठकों को रोका गया। निराला के तुलसी या श्रीरामचरितमानस पर लिखे लेखों अथवा गीताप्रेस गोरखपुर से निकलनेवाली पत्रिका कल्याण के उनके लेखों को मिलाकर निराला के हिंदू मन की चर्चा नहीं की गई। निराला तुलसी साहित्य के गहन अध्येता भी थे और उनके लेखों और प्रबंध काव्य में ये दिखता भी है। श्रीरामचरितमानस के विनयपरक छंदों का भाषांतरण करके उसको व्याप्ति दिलाने का प्रयत्न किया था। निराला के हिंदू मन को पाठकों के सामने लाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। यह कार्य कठिन भी नहीं है। पहले तो उनके सनातन और हिंदुत्व  को आधार बनाकर लिखे ग्रंथों और रचनाओं को पुस्तकालयों की धूल से बाहर लाकर पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास हो। अकादमिक जगत में उन रचनाओं पर चर्चा हो, शोधार्थियों को उनपर शोध के लिए प्रेरित किया जाए। निराला रचनावली में अगर उनकी इन रचनाओं का समावेश नहीं है तो उसमें भी इन सारी रचनाओं को डालकर उसका पुनर्प्रकाशन करवाया जाए। निराला की रचनाओं को लेकर जो नैरेटिव गढ़ा गया उसको निगेट करने के लिए यह आवश्यक है कि निराला को समग्रता में पाठकों के सामने पेश कर दिया जाए। पाठकों में स्वयं निर्णय करने की क्षमता विकसित हो चुकी है। अमृतकाल में यह आवश्यक है।