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Saturday, March 18, 2023

संघ पर आधारहीन आरोप


कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी को जब भी अवसर मिलता है वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमलावर रहते हैं। कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को लेकर, कभी हिंदुत्व को लेकर, कभी वीर सावरकर को लेकर तो कभी सांप्रदायिकता को लेकर। वो भारतीय जनता पार्टी की सरकार को भी जब घेरने का प्रयास करते हैं तो सायास उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर आ जाते हैं। अभी हाल में विदेश में भी उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर निशाना साधा। राहुल गांधी का मानना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत में सभी संस्थाओं पर कबजा कर लिया है। इससे संवाद की प्रक्रिया बाधित हुई है बल्कि आयडिया आफ इंडिया को नुकसान पहुंचा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था तहस नहस हो गई है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि भारत में वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा भी संकट में है। उनको लगता है कि एक संगठन इस मजबूत भारतीय मूल्य को हानि पहुंचाने में सक्षम है। राहुल गांधी राजनेता हैं। राजनीति ही उनका कर्म है। उनके इस बयान पर हलांकि संघ ने बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि राहुल गांधी अपना राजनीतिक एजेंडा चलाते हैं और हमारी उनसे कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। लेकिन साथ ही उन्होंने राहुल गांधी से और जिम्मेदार होने की अपेक्षा भी जताई। राहुल गांधी के साथ-साथ कांग्रेस के नेता और पूर्व वामपंथी बुद्धिजीवी जो इन दिनों कांग्रेस में अपना भविष्य तलाश रहे हैं वो भी निरंतर संघ की आलोचना करते हैं। उनकी आलोचना का आधार होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के सभी सांस्कृतिक संस्थाओं पर कब्जा कर लिया। इस कब्ज ने देश में संवाद को बाधित किया है और लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया। 

लगभग दो वर्ष पहले की बात है। दिल्ली में कुछ बुद्धिजीवियों के साथ संघ प्रमुख मोहन भागवत की बैठक थी। दिनभर चली इस बैठक में भोजनावकाश के समय औपचारिक बातें हो रही थी। मोहन भागवत जिस टेबल पर भोजन कर रहे थे वहां एक वरिष्ठ पत्रकार पहुंचे। उन्होंने उनसे किसी नियुक्ति को लेकर बात आरंभ कर दी। संघ प्रमुख भोजन करते रहे। जब वरिष्ठ पत्रकार महोदय लगातार उसी विषय़ पर बोलते रहे तो मोहन जी ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कभी भी नियुक्तियों आदि में न तो हस्तक्षेप करता है और न ही सरकार को अपनी पसंद बताता है। संघ का काम है देश हित में जनमानस को तैयार करना। जब समाज का मानस तैयार हो जाता है तो सरकारें स्वत: उसका संज्ञान लेती हैं और उसके अनुकूल कार्य करती हैं। नियुक्ति आदि का काम सरकार का होता है वही इसको देखे तो व्यवस्था बनी रहती है। फिर कुछ हास-परिहास हुआ और बात खत्म हो गई। यहां हंसते हुए मोहन भागवत ने जो बात कही वो बेहद महत्वपूर्ण थी। उसको समझे जाने की जरूरत है। अब जरा वास्तविकता पर भी दृष्टि डाल लेते हैं कि देश में शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में काम करनेवाली संस्थाओं का हाल क्या है। अगर संघ ने सचमुच हर जगह कब्जा कर लिया है तो इन संस्थाओं के प्रमुखों के पद पर तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग ही पदस्थापित होंगे। 

शिक्षा से आरंभ करते हैं। एक बेहद दिलचस्प उदाहरण है बिहार के मोतिहारी स्थित महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय की। दो फरवरी 2021 को मोतिहारी के केंद्रीय विश्वविद्याल के कुलपति का कार्यकाल समाप्त हो गया। दो साल से अधिक समय बीत चुका है। दो बार वहां के कुलपति की नियुक्ति लिए चयन प्रक्रिया हो चुकी है। बावजूद इसके अबतक वहां किसी कुलपति की नियुक्ति नहीं हो सकी है। विश्वविद्यालय कार्यवाहक कुलपति के भरोसे चल रहा है। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शैक्षणिक संस्थाओं पर कब्जा जमाने में लगा होता तो अबतक तो यहां कुलपति की नियुक्ति करवा चुका होता। ये नया विश्वविद्यालय है और यहां अपने संगठन और विचार के लोगों को भरने की संभावनाएं भी हैं, दो साल से इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति ना होना इस आरोप का निषेध करता है कि संघ योजनाबद्ध तरीके से संस्थाओं पर कब्जा कर रहा है। अब शिक्षकों की नियुक्ति की बात करते हैं। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने बुधवार को संसद में जानकारी दी कि शैक्षणिक संस्थानों में 11050 शिक्षकों के पद खाली हैं। जिनमें से 6028 पद  केंद्रीय विश्वविद्यालयों में, 4526 पद भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों में और 496 पद भारतीय प्रबंध संस्थान में रिक्त हैं। अगर संस्थाओं पर कब्जा होता तो इतनी बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद खाली क्यों होते। संघ प्रयासपूर्वक नियुक्तियां करवा रहा होता। शिक्षा मंत्रालय से ही जुड़ी दो और संस्था का उदाहरण सामने है। एक संस्था है केंद्रीय हिंदी निदेशालय जो पिछले कई वर्षों से निदेशक की बाट जोह रहा है। इसी तरह से केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा को भी पिछले ढाई साल से प्रभारी निदेशक चला रही हैं। शिमला के भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में भी नियमित निदेशक की प्रतीक्षा है।    

अब जरा कला और साहित्य से जुड़ी संस्थाओं को देख लेते हैं। दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पिछले कई वर्षों से निदेशक का पद खाली है। वहां कई शिक्षकों के पद भी खाली हैं। यहां की स्थिति तो और भी दिलचस्प है। विद्यालय में दो कार्यवाहक निदेशक पद संभालकर सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इन दिनों नई दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के प्रोफेसर रमेश गौड़ नाट्य विद्यालय के निदेशक का अतिरिक्त प्रभार संभाल रहे हैं। यहां भी निदेशक के पद के लिए दूसरी बार साक्षात्कार हो चुका है लेकिन अबतक नियुक्ति नहीं हो पाई है। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संस्थाओं पर कब्जा करने में लगा होता तो इस प्रतिष्ठित नाट्य संस्था पर अपनी पसंद का निदेशक तो चयनित करवा चुका होता। निदेशक की नियुक्ति की बात छोड़ भी दें तो विद्यालय परिसर में करीब दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उपहास करते हुए पोस्टर लगाया गया था। संस्थाओं पर अगर कब्जा होता तो क्या ये संभव था कि वहां प्रधानमंत्री का उपहास उड़ाया जाता। संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत ही ललित कला अकादमी है, जहां नियमित सचिव का पद खाली है। कला संस्कृति से जुड़े संस्थानों में खाली पदों की सूची लंबी है। ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष के सलाहकारों ने ठीक से होमवर्क करके उनको जानकारी नहीं दी । अगर वो होमवर्क करते तो उनको पता चलता कि शिक्षा-संस्कृति के संस्थानों की वास्तविक स्थिति क्या है।

2014 में केंद्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने और कांग्रेस के निरंतर कमजोर होते जाने से वामपंथियों को चुनौतियां मिलने लगीं। इन चुनौतियों से जब वो पार नहीं पा सकते हैं तो दुष्प्रचार आरंभ कर देते हैं। दरअसल जो पूर्व वामपंथी बुद्धिजीवी कांग्रेस में अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं वो ही इस तरह की बातें फैलाते रहते हैं। इंदिरा जी के प्रधानमंत्रित्व काल से ही कांग्रेस ने शिक्षा और संस्कृति का क्षेत्र वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिया था। विश्वविद्यालयों से लेकर अकादमियों तक में वामपंथियों का बोलबाला था। कुलपति से लेकर अकादमी के चेयरमैन और संस्थानों के निदेशक सभी पदों पर वामपंथी अपने पसंद के लोगों को बिठाते थे। ज्योति बसु की जीवनीकार को कुलपति बना दिया गया था। कांग्रेस और वामदलों के राजनीतिक रूप से कमजोर होने के बाद इन परजीवी किस्म के कथित बुद्धिजीवियों को सत्ता की मलाई मिलने में मुश्किल हो रही है तो वो अनर्गल प्रलाप में जुटे रहते हैं। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के इर्द-गिर्द भी इस विचारधारा के लोगों ने अपना घेरा मजबूत कर लिया है और राहुल गांधी को आगे करके वो अपनी स्वार्थसिद्धि के उपक्रम में जुटे रहते हैं। वो ये नहीं समझा पा रहे कि आरोप अगर तथ्यहीन होते हैं तो प्रभाव नहीं छोड़ते।  

Saturday, March 11, 2023

युवाओं में पुस्तकों का आकर्षण कायम


हाल ही में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला समाप्त हुआ। पुस्तक मेला में युवाओं की उमड़ी भीड़ आश्वस्तिकारक है। यह उस दुष्प्रचार का भी निषेध करती है कि युवा पुस्तकों से विमुख हो रहे हैं। वो आनलाइन माध्यम को अधिक पसंद कर रहे हैं। वो किंडल और ई बुक में अपेक्षाकृत अधिक रुचि ले रहे हैं।कोरोना महामारी के कारण दो वर्ष तक विश्व पुस्तक मेला का आयोजन नहीं हो सका था। इस वर्ष जब पुस्तक मेला का आयोजन हुआ तो दिल्ली के प्रगति मैदान के गेट के बाहर पुस्तक प्रेमियों की लंबी कतार इस बात की गवाही दे रही थी कि पुस्तकों के पाठक हैं। यह ठीक है कि तकनीक ने पाठकों के सामने कई विकल्प दिए हैं। लेकिन छपे हुए शब्दों की महत्ता और पुस्तक को हाथ में लेकर पढने का रोमांच कम नहीं हुआ है। हिंदी के कई प्रकाशकों की तरफ से ये कहा जाता है कि हिंदी में पुस्तकें नहीं बिकतीं, हिंदी में पाठक कम हो रहे हैं। पुस्तक मेलों में पाठकों की संख्या और बिक्री के अनुमानित आंकडें कुछ अलग ही कहानी कहती हैं। अगर पुस्तकें नहीं बिकती हैं तो इतनी बड़ी संख्या में पुस्तकों का प्रकाशन क्यों और किसके लिए होता है। निरंतर नए नए प्रकाशन गृह क्यों खुल रहे हैं। पुराने प्रकाशन गृहों के अलग अलग प्रकल्प पुस्तकों का प्रकाशन क्यों करते हैं। स्वाधीनता के पहले हिंदी में दस प्रकाशक भी नहीं थे और इस वक्त एक अनुमान के मुताबिक चार सौ से अधिक प्रकाशक साहित्यिक कृतियां छाप रहे हैं। प्रकाशन जगत के जानकारों के मुताबिक हर साल हिंदी की करीब दो से ढाई हजार साहित्यिक किताबें छपती हैं। क्या साहित्य सेवा के लिए पुस्तकों का प्रकाशन होता है। अगर पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय में घाटा हो रहा है तो नए प्रकाशन गृह कैसे विकसित हो रहे हैं। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिसका उत्तर हिंदी का लेखक खोजना भी नहीं चाहता है।  

दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में तमाम बाधाओं के बीच पुस्तक प्रेमियों का पहुंचना कुछ तो संकेत कर रहा है। मैं पुस्तक मेले में गया था। प्रगति मैदान के गेट नंबर चार पर बहुत लंबी कतार लगी हुई थी। तीन-चार युवक बार-बार आनलाइन पेमेंट करके प्रवेश टिकट खरीदने का प्रयास कर रहे थे। दो बार जब उनका ट्रांजेक्शन फेल हो गया।उन्होंने गेट पर खड़े गार्ड से अपनी समस्या बताई। उनको अपना मोबाइल दिखाकर टिकट खरीद में आने की समस्या बताई। गार्ड ने उनके मोबाइल को देखा और कहा कि अंदर जाओ। दूसरे गार्ड ने उन लड़कों को रोकने का प्रयास किया तो पहले वाले गार्ड ने कहा कि जाने दो यार किताब ही तो खरीदने जा रहा है, कोई सर्कस देखने तो नहीं जा रहा है। यह है पुस्तकों के लिए हमारे मन में प्यार। उसके बाद उस गार्ड ने कई अन्य लड़कों को भी बगैर प्रवेश टिकट प्रगति मैदान में प्रवेश की अनुमति दी। मेला के अंदर हाल में तिल रखने की जगह नहीं थी। लगभग सभी प्रकाशकों के स्टाल पर पुस्तक प्रेमी पुस्तकें पलट रहे थे, खरीद रहे थे। हिंदी के बड़े प्रकाशकों के स्टाल पर स्थिति बेहतर थी। उनके यहां बिलिंग काउंटर पर ग्राहकों की कतार लगी थी। बिल बनानेवाले कम पड़ रहे थे। इंटरनेट नहीं चल पाने या धीमा चलने की वजह से आनलाइन पेमेंट में दिक्कत आ रही थी। ग्राहक धैर्यपूर्वक बिलिंग की प्रतीक्षा कर रहे थे। मेले में हर दिन दर्जनों पुस्तकों का विमोचन हो रहा था। इंटरनेट मीडिया पर इन विमोचन कार्यक्रमों की तस्वीरें प्रचलित हो रही थीं। अगर पाठक नहीं हैं तो ये पुस्तकें किनके लिए प्रकाशित हो रही हैं। 

गीता प्रेस के स्टाल पर तो हर वर्ष खरीदारों की भीड़ रहती ही है इस वर्ष भी उनके स्टाल पर जमकर खरीदारी हो रही थी। गीता प्रेस के स्टाल के एक कर्मचारी ने बताया कि इस वर्ष सबसे अधिक बिक्री श्रीरामचरितमानस और कल्याण के पुराने अंकों की हुई, जो अब पुस्तकाकार प्रकाशित हैं। अंग्रेजी के हाल में जो स्टाल थे उनपर भी बहुत भीड़ थी। पेंगुइन प्रकाशन पर तो कई कई बार पाठकों के प्रवेश को रोकना पड़ रहा था। उनके स्टाल के बाहर लंबी कतार लगी हुई थी। जब स्टाल के अंदर गए पाठक पुस्तक खरीदकर बाहर निकलते थे तब बाहर खड़े लोगों को अंदर जाने दिया जा रहा था। यह दृष्य संतोष देनेवाला था। आनलाइन प्लेटफार्म पर पुस्तकें बेचनेवाली कंपनियों के प्रतिनिधि भी मेले में घूम रहे थे। वो ये समझने का प्रयास कर रहे थे कि इतनी बड़ी संख्या में पाठक मेले में पुस्तकें क्यों खरीद रहे हैं, जबकि उनके प्लाटफार्म पर तो पुस्तकों की खरीद पर काफी छूट भी मिलती है। घर पर डिलीवरी का भी प्रविधान होता है। दरअसल पुस्तक मेलों में पाठकों को पुस्तकें तो मिलती ही हैं उनके लेखकों से मिलने का अवसर भी प्राप्त होता है। लेखकों से बात करने और उनकी रचना प्रक्रिया को सुनने समझने का अवसर भी मिलता है। यह सुविधा आनलाइन पुस्तक खरीद में नहीं होती है, छूट भले ही मिल जाए। 

एक और महत्वपूर्ण बात है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए, हिंदी समाज में अब भी पुस्तकों की भूख है। जरूरत इस बात की है कि पाठकों तक पुस्तकों को पहुंचाने का उपक्रम किया जाए। पुस्तकों को लेकर पाठकों तक पहुंचने का उपक्रम प्रकाशकों ने सामूहिक रूप से कभी किया नहीं। सभी प्रकाशकों को चाहिए कि वो साथ मिलकर पाठकों तक पुस्तकें पहुंचाने का एक तंत्र विकसित करें। अधिक से अधिक पुस्तकों की दुकानें खोलने का प्रयास किया जाना चाहिए। अभी हो ये रहा है कि कई प्रकाशक अलग अलग शहरों में अपनी पुस्तकों की दुकानें खोलते हैं। उनमें दूसरे प्रकाशकों की पुस्तकें नहीं रखते हैं। उनके बीच इस तरह का समन्वय होना चाहिए कि अगर एक प्राकशक ने एक शहर में पुस्तक विक्रय केंद्र खोला तो उसको सभी प्रकाशकों की पुस्तकें रखनी चाहिए। इससे उनकी लागत भी कम होगी और पाठकों को एक ही स्थान पर सभी पुस्तकें मिल जाएंगी। इसमें ईमानदारी और पारदर्शिता की आवश्यकता होगी। 

ईमानदारी और पारदर्शिता की आवश्यकता तो प्रकाशकों को लेखकों के साथ के संबंध में भी दिखाना चाहिए। आज कोई भी पुस्तक कितनी बिकी इसको जांचने का कोई तंत्र कम से कम हिंदी प्रकाशन जगत में तो उपलब्ध नहीं है। प्रकाशक जितना बता देता है उसपर ही विश्वास करना पड़ता है। अविश्वास की कोई वजह होनी भी नहीं चाहिए। संदेह तब पैदा होता है जब ये देखा जाता है कि अंग्रेजी के प्रकाशक कोई हिंदी की पुस्तक प्रकाशित करते हैं तो उनके यहां से वो पुस्तकें अपेक्षाकृत अधिक बिकती हैं । इस संदेह का निवारण होना पुस्तक व्यवसाय के लिए काफी आवश्यक है। पारदर्शिता और ईमानदारी के लिए किसी सरकार या सरकारी एजेंसी की आवश्यकता भी नहीं है, आवश्यक है परस्पर विश्वास की। हिंदी में पुस्तकों के संस्करणों को लेकर भी पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। कई पुस्तकें बगैर दूसरे संस्करण के प्रकाशित होकर बाजार में बिकती रहती हैं। इसका पता तब चलता है जब एक ही संस्करण की प्रतियां अलग अलग प्रेस से छपकर बाजार में पहुंचती हैं। कई बार लेखक इस बात को प्रकाशक के संज्ञान में लेकर आता भी तो उसको इसका संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाता है। मैं हिंदी के कुछ प्रकाशकों को जानता हूं कि वो कुछ लेखकों को उनके उपन्यास या पुस्तक के लिए 15-20 लाख तक का अग्रिम भुगतान भी करते हैं। अगर पुस्तकें बिकती नहीं हैं तो ये साहस प्रकाशक कैसे कर लेते हैं। ये सभी इस बात को स्थापित करते हैं कि हिंदी में पुस्तकों के पाठक हैं और ये कहना कि पाठक लगातार कम हो रहे हैं, उचित नहीं है।  

Friday, March 10, 2023

साहित्याकाश पर छाता साहित्योत्सव


आज से 38 वर्ष पहले जब पूरे देश में लिटरेचर फेस्टिवल के बारे में कम ही लोग सोचते और जानते थे। उस समय साहित्य अकादमी ने 1985 में फेस्टिवल आफ लेटर्स का आरंभ किया था। नई दिल्ली के रवीन्द्र भवन परिसर स्थित साहित्य अकादमी भवन की पहली मंजिल के सभागार में प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता था। इस प्रदर्शनी में साहित्य अकादमी की गतिविधियों का प्रदर्शन होता था। मैक्सम्यूलर मार्ग के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में अकादमी राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन करती थी। इस फेस्टिवल का आरंभिक स्वरूप कुछ इस तरह का ही था। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, अन्नदा शंकर रे, अमृता प्रतम, कुर्तुलऐन हैदर,निर्मल वर्मा, विद्यानिवास मिश्र, विष्णु प्रभाकर, सुनील गंगोपाध्याय जैसे दिग्गज लेखकों की भागीदारी इस उत्सव में होती थी। करीब 25 वर्षों तक इस स्वरूप में साहित्य अकादमी का साहित्योत्सव चलता रहा। साहित्योत्सव के दौरान विभिन्न भाषा के साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखकों को सम्मानित किया जाता था। संवत्सर व्याख्यान का आयोजन होता था। साहित्योत्सव की एक विशेषता और रही है कि इसमें बड़े से बड़ा लेखक सहजता से पाठकों और श्रोताओं के साथ संवाद करते नजर आते हैं। मुझे याद पड़ता है कि अमृता प्रीतम को पहली बार मैंने साहित्य अकादमी के इस उत्सव में ही देखा था। तब दिल्ली विश्वविद्याल के छात्र एक साथ इस उत्सव में पहुंचते थे। अपने पसंदीदा लेखकों के विचारों को सुनते थे। न केवल विचारों को सुनते थे बल्कि छात्रावास लौटकर उनकी स्थापनाओं पर बहस करते थे।

2013 में जब डा के श्रीनिवासराव साहित्य अकादमी के सचिव बने तो उन्होंने इसको व्यापक स्वरूप प्रदान किया। साहित्य अकादमी की प्रदर्शनी को भवन की पहली मंजिल से उतारकर परिसर के लान में लाकर विस्तार दिया गया। संगीत नाटक अकादमी के मेघदूत थिएटर में भी इस साहित्योत्सव की गतिविधियां आरंभ हुईं। साहित्य अकादमी पुरस्कार अर्पण समारोह को और भव्य बनाया गया। धीरे धीरे ये साहित्योत्सव अखिल भारतीय स्वरूप लेने लगा। इसमें देश के विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों को आमंत्रित करके अलग अलग सत्रों में विचार मंथन होने लगा। प्रतिवर्ष इसमें अलग अलग विषय जैसे बहुभाषी कवि सम्मेलन, बहुभाषी कहानी पाठ, एलजीबीटीक्यू लेखक सम्मिलन, जैसे कार्यक्रम जोड़े गए। अभी देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आलोक में मातृभाषा की चर्चा हो रही है। इस वर्ष साहित्योत्सव में मातृभाषा पर अलग से चर्चा रखी गई है। जी 20 सम्मेलन के आयोजन को ध्यान में रखते हुए कूटनीति और साहित्य विषय पर सत्र की संरचना की गई है। इसमें राजनयिक-लेखकों के विचार सुनने को मिलेंगे। 38 वर्ष के सफर में साहित्य अकादमी के साहित्योत्सव ने साहित्य जगत में अपनी एक विशिष्ठ पहचान बनाई है। यह एक ऐसा साहित्योत्सव है जो शोर-शराबे से दूर भारतीय भाषाओं के लेखकों के अखिल भारतीय मंच के तौर पर स्थापित हो गया है।    

Saturday, March 4, 2023

ज्ञान परंपरा का प्रचार आवश्यक


हाल ही में नागपुर में एस्ट्रोनामी पार्क के शुभारंभ के अवसर पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के वक्तव्य के कुछ अंशों की चर्चा हो रही है। चर्चा इस बात की हो रही है कि मोहन भागवत ने कहा कि हमारे प्रचीन ग्रंथों की समीक्षा होनी चाहिए। इसको कुछ विद्वान इतिहास के पुनर्लेखन से जोड़कर देखने लगे हैं तो कुछ को पाठ्य पुस्तकों में बदलाव की आहट सुनाई दे रही है। कुछ तो प्रचीन श्रुतियों के आधार पर ग्रंथों के होने न होने पर टीका टिप्पणी कर रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि मोहन भागवत के बयान को समग्रता में समझा जाए। अगर उनके चौंतीस-पैंतीस मिनट के वक्तव्य को ध्यान से सुना जाए तो उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं। भारत के गौरवशाली इतिहास को रेखांकित किया गया है। एस्ट्रोनामी पार्क के उद्घाटन में जब वो बोल रहे थे तो उन्होंने काल-गणना की भारतीय ज्ञान पद्धति पर विस्तार से प्रकाश डाला था। उन्होंने इस संबंध में भारत के अलग अलग प्रांतों में प्रचलित सूर्य और चंद्र की गति पर आधारित काल गणना पद्धति के महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने ग्रह नक्षत्रों की स्थिति और उसकी भारतीय पद्धति से पहचान की बात भी की। इसी क्रम में उन्होंने भारत के मौखिक इतिहास का उल्लेख करते हुए कहा कि हर अन्वेषण में हमारे पूर्वजों का किया कुछ न कुछ है। जो परंपरा से चला आ रहा है। पहले हमारे यहां ग्रंथ नहीं थे इसलिए ये बातें मौखिक परंपरा से चलीं। बाद में ग्रंथ हुए जो कुछ समय बाद इधर उधर हो गए। फिर इसमें कुछ स्वार्थी लोग घुस गए जिन्होंने उन ग्रंथों में कुछ कुछ घुसा दिया जो बिल्कुल गलत है। मोहन भागवत ने इसके अलावा यह भी कहा कि विदेशी आक्रमणों की वजह से हमारी ज्ञान परंपरा खंडित हो गई, जो व्यवस्थाएं थीं वो तहस नहस हो गईं। नियमित अंतराल पर हुए आक्रमणों की वजह से हमारी जो व्यवस्थाएं थीं वो तहस नहस हो गईं। इस पृष्ठभूमि में भागवत जी ने कहा कि उन ग्रंथों की पारंपरिक ज्ञान की एक बार समीक्षा की आवश्यकता है। 

मोहन भागवत के इस वक्तव्य में तीन महत्वपूर्ण बातें हैं जिनको रेखांकित किया जाना चाहिए और उसपर देशव्यापी विमर्श भी होना चाहिए। कुछ बातों पर तो विमर्श हो भी रहा है। मोहन भागवत ने जब भारतीय ज्ञान परंपरा की बात की तो उन्होंने यह भी कहा कि आज के विद्वानों का दायित्व है कि वो भारतीय ज्ञान परंपरा के बारे में समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लेख लिखकर नई पीढ़ी को उनकी भाषा में अवगत करवाएं। किस प्रकार से ग्रह और नक्षत्र की स्थिति होती हैं और वो कैसे कृषि और किसानों के लाभ पर आधारित है। उन्होंने एक दो उदाहरण भी दिए। उन्होंने एक तरह से उन सेमिनारवीरों को नसीहत भी दे डाली जो भारतीय ज्ञान परंपरा आदि जैसे शब्दों का उपयोग तो बार बार करते हैं लेकिन उस बारे में विस्तार में नहीं जाते। जब वो ग्रंथों में स्वार्थी तत्वों की छेड़छाड़ की बात करते हैं तो वो इतिहास लेखन के बारे में संकेत करते हैं। इतिहास लिखना क्या होता है। वैसा लेखन जिसमें भूतकाल की गतिविधियों का लेखा जोखा होता है। इतिहास कभी बदलता नहीं है, उसको देखने की दृष्टि अलग अलग हो सकती है। इतिहास तो समय के पन्नों पर दर्ज होता चलता है। इतिहासकार जब वस्तुनिष्ठ नहीं होकर किसी विचारधारा विशेष के प्रभाव या दबाव में अपनी दृष्टि को संकुचित कर लेते हैं तो समय के पन्नों पर दर्ज घटनाएं विसंगतियों के साथ सामने आती हैं। इतिहास में कई बार पुरानी स्थापनाओं को खारिज करके नई स्थापनाएं दी जाती हैं। उदाहरण के लिए स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के अवसर पर आदिवासी नायकों या गुमनाम नायकों के योगदान के बारे में देश की जनता को बताया गया वो इतिहास के एक नए आयाम को जनता के सामने रखने का उपक्रम था। किसी भी देश का इतिहास सिर्फ राजा रानियों या वीर सेनाननियों की गाथाओं का वर्णन नहीं होता है बल्कि उस समय की आम जनता के क्रियाकलापों का लेखा-जोखा ही उसको पूर्णता प्रदान करता है। मोहन भागवत अपने वक्तव्य में इसकी ही अपेक्षा करते नजर आ रहे हैं। 

अपनी उपरोक्त अपेक्षा को प्रकट करने के क्रम में मोहन भागवत ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति और उसके अंतर्गत बन रहे पाठ्यक्रम का उल्लेख भी किया। उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति के अनुसार पाठ्यक्रम बन रहा है और कक्षा छह तक पाठ्यक्रम बन भी गया है। इस पाठ्यक्रम में कई नई बातों को भी समाहित किया गया है जो पहले के पाठ्यक्रमों में नहीं थीं। आगे भी जो पाठ्यक्रम तैयार होगा उसमें भी नई बातों को समाहित किए जाने के संकेत उन्होंने दिए। मोहन भागवत ने कहा कि एक बार पाठ्यक्रम सामने आ जाए तो उसकी समीक्षा की जाएगी, चर्चा की जाएगी और प्रयास यही रहेगा कि वो ज्ञान परंपरा के अनुसार ठीक है। इस तरह की चीजों के आने से ज्ञान भी बढ़ेगा और स्वाभिमान भी। यहां भी उन्होंने ये अपेक्षा जताई कि भारतीय ज्ञान परंपरा की कुछ प्राथमिक बातें हम अपने घर में भी बच्चों को बता सकते हैं। मोहन भागवत ने विस्तार से धर्म और विज्ञान के अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला। उन्होंने स्पष्ट किया कि धर्म और विज्ञान साथ चल सकते हैं। उनके अनुसार हमारे धर्म की परंपरा में फेथ और बिलीफ जैसे शब्द नहीं हैं हमारे यहां अनुभव और प्रतीति को प्रमुखता दी गई है। उन्होंने उदाहरणों के साथ बताया कि हमारा धर्म वैज्ञानिक है। विज्ञान का दायित्व है कि वो धर्म को साथ लेकर चले। मानव कल्याण उसका उद्देश्य हो।  

मोहन भागवत ने एक और महत्वपूर्ण बात कही कि जनता को सरकार पर निर्भरता कम करनी चाहिए। आजकल ये स्वाभाविक अपेक्षा रहती है कि हर काम सरकार ही करे। यह पद्धति भारत की नहीं रही है कि सरकार ही सबकुछ करे। नौकरी भी दे, खाने को भी दे, टीवी भी दे और उसके बदले राज्य पूरी संपत्ति अरापने हाथ में रख ले। भारत में स्वायत्तशासी व्यवस्था थी। राजा का कर्तव्य सीमा का संरक्षण, कानून व्यवस्था और अधर्म का निर्धारण करना था। बाकी सारी बातें प्रजा के हाथों में थीं। मोहन भागवत ने माना कि वो जमाना चला गया और अब नया जमाना है जिसमें अपेक्षा रहती है कि सरकार ही सबकुछ करे। उन्होंने कहा कि करे तो करे लेकिन मोहन भागवत ने एकबार फिर से उस प्रश्न को छेड़ दिया है कि सरकार का दायित्व क्या हो जनता का क्या? इस बारे में कई बार चर्चा होती है कि सरकर क्या क्या करे। हमारे देश में एक सरकारी उपक्रम अब भी सिर्फ यात्रा टिकट करवाने का काम करती है। क्या सरकार का ये दायित्व होना चाहिए कि एक पूरा महकमा सिर्फ रेल और जहाज के टिकटों की व्यवस्था करने में लगे। जिस तरह से जमाना बदला और सरकार पर निर्भरता बढ़ी उसी तरह से एक बार फिर समय बदल रहा है और सरकार पर निर्भरता कम से कम करने की आवश्यकता है। 

मोहन भागवत ने जिस तरह से अपनी ज्ञान परंपरा के प्राथमिक ज्ञान की बात को महत्ता दी, धर्म और विज्ञान को साथ चलने की सलाह दी, परोक्ष रूप से सरकार पर निर्भरता कम करने की बात की अगर हम इसको समग्रता में देखें तो ग्रंथों को ठीक करने की बात नेपथ्य में चली जाती है। महत्वपूर्ण है कि भारत की जो ज्ञान परंपरा है उसका परिचय भारत की नई पीढ़ी को मिले और इसके लिए शिक्षण संस्थान और उसके कर्ताधर्ता सिर्फ मौखिक बात नहीं करें बल्कि प्रमाणिक रूप से उस ज्ञान परंपरा को सरल भाषा में जनता के सामने रखें। मोहन भागवत के वक्तव्य के इस निहितार्थ को समझकर अनुशासनबद्ध तरीके से काम करने की आवश्यकता है। 


Saturday, February 25, 2023

छद्म प्रतिरोध का स्थापत्य गढ़ता कवि

हिंदी के एक कवि हैं। नाम है अशोक वाजपेयी। पूर्व नौकरशाह हैं। महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा के कुलपति रहे हैं। प्रतिभाशाली इतने कि  अपने पूरे कार्यकाल में दिल्ली कार्यालय से वर्धा के विश्वविद्यालय का संचालन करते रहे। ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के चेयरमैन रहे। अकादमी का उनका कार्यकाल विवादित रहा। कई तरह के आरोप लगे। सीबीआई जांच हुई। उनके कुछ संवेदनहीन बयान हिंदी साहित्य जगत में बहुधा गूंजते रहते हैं। भोपाल गैस त्रासदी के बाद दिया उनका बयान कि मरने वाले के साथ मरा नहीं जाता या हिंदी के लेखकों को मैंने पहली बार हवाई जहाज पर चढ़ाया अब भी हिंदी के लोगों के स्मरण में है। भोपाल गैस त्रासदी के बाद के बयान पर वो खेद प्रकट कर चुके हैं।2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी अभियान के अगुवा रहे। अशोक वाजपेयी के बारे में ये चर्चा इस कारण क्योंकि उनके समर्थक एक बार फिर से उनकी जय-जयकार कर रहे हैं। प्रसंग ये है कि दिल्ली में अर्थ कल्चर फेस्टिवल के दौरान उनको काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था। रेख्ता के सहयोग से आयोजित इस सत्र में अशोक वाजपेयी के अलावा अनामिका, बद्री नारायण, दिनेश कुशवाह और मानव कौल का नाम विज्ञापित किया गया था। यह फेस्टिवल के पहले दिन का अंतिम सत्र था। सत्र के आयोजन वाले दिन अशोक वाजपेयी ने इंटरनेट पर एक टिप्पणी लिखकर घोषणा की कि वो काव्य पाठ में शामिल नहीं होंगे। उन्होंने लिखा ‘मैं आज अर्थ और रेख्ता द्वारा आयोजित कल्चर फेस्ट में भाग नहीं ले रहा हूं क्योंकि मुझसे कहा गया कि मैं ऐसी ही कविताएं पढ़ूं जिसमें राजनीति या सरकार की सीधी आलोचना न हो। इस तरह का सेंसर अस्वीकार्य है।‘ इसके बाद उनके समर्थक इस टिप्पणी का स्क्रीन शाट लेकर फेसबुक पर लहालोट होने लगे जैसे अशोक वाजपेयी ने किसी क्रांति का शंखनाद किया हो। 

अशोक वाजपेयी के इंकार के बाद अष्टभुजा शुक्ल का नाम काव्य पाठ वाले सत्र में शामिल किया गया । अनामिका, बद्री नारायण, दिनेश कुशवाह और मानव कौल ने कविताएं पढ़ीं। साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चयनित बद्री नारायण ने बताया कि उनको भी आयोजकों की तरफ से फोन आया था। फोन करनेवाले ने पूछा था कि वो किस तरह की कविताएं पढ़ेंगे। बद्री नारायण ने उनसे कहा कि वो हाशिए के लोगों को लेकर लिखी कविताओं का पाठ करेंगे।बात समापत हो गई। दिनेश कुशवाह को भी फोन कर पूछा गया था कि वो किस तरह की कविताएं पढ़ेंगे। उन्होंने तो आयोजकों को कहा कि वो जैसी कविताएं लिखते हैं वही पढ़ेंगे। उन्होंने जिज्ञासा भी प्रकट की कि ये प्रश्न क्यों पूछा जा रहा है। फोन करनेवाले ने बताया था कि ये सूचनाएं सत्र संचालक की सुविधा के लिए जुटाई जा रही हैं। बात खत्म हो गई। अब पता नहीं अशोक वाजपेयी को आयोजकों ने ऐसा क्यों कहा कि वो राजनीति या सरकार की सीधी आलोचना वाली कविता नहीं पढ़ें। वैसे अशोक वाजपेयी राजनीतिक कविता लिखने के लिए जाने भी नहीं जाते हैं। उनकी कविताओं का मूल स्वर तो प्रेम, प्रकृति और देह है। राजनीतिक कविताओं का तो वो उपहास ही करते रहे हैं। राजनीतिक कविताओं को लेकर उन्होंने एक बार टिप्पणी की थी कि इनमें अभिधा का आतंक होता है। ऐसे कवि से कोई भी आयोजक ये क्यों कहेगा कि वो राजनीति या सरकार की सीधी आलोचना वाली कविता न पढ़ें। वो भी रेख्ता जैसी संस्था जिनसे अशोक वाजपेयी का ना केवल परिचय रहा है बल्कि बहुत गहरे और पुराने संबंध भी। रेख्ता की तरफ से सफाई आई। उनकी तरफ से सिर्फ ये पूछा गया था कि अशोक जी किस विषय पर बोलने जा रहे हैं। रेख्ता की सफाई में ये भी कहा गया है कि उनकी तरफ से किसी विशेष कविता के नहीं पढ़ने या पढ़ने का कोई आग्रह नहीं किया गया था। रेख्ता के प्लेटफार्म पर तो जावेद अख्तर और कुमार विश्वास जैसे कवि अपनी कविताओं का पाठ करते रहे हैं और बहुधा राजनीतिक टिप्पणियां भी। रेख्ता का कहना है कि पूरा मसला चकित करनेवाला और अप्रसांगिक है। सचाई क्या है ईश्वर जानें। 

ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक वाजपेयी किसी न किसी बहाने से चर्चा में बने रहने का बहाना ढूंढ़ते रहते हैं। वो हमेशा से राजनीति और सत्ता से दूर रहने का दंभ भी भरते रहे हैं। राजनेताओं के साथ मंच साझा करने को लेकर भी वो चुनिंदा स्टैंड लेते रहते हैं। किसी दल के नेता के साथ मंच साझा करने में उनको कोई आपत्ति नहीं होती है तो किसी दल के नेता के साथ वो मंच पर दिखना नहीं चाहते हैं। कई अवसरों पर उनको राजनेताओं के साथ देखा गया है, कई बार मंच पर भी। हाल ही में अशोक वाजपेयी ने राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा में शामिल होकर अपनी प्रतिबद्धता को सार्वजनिक भी किया था। यहां वो कह सकते हैं कि ये राजनीतिक यात्रा नहीं थी लेकिन सचाई सबको पता है। लोकतंत्र में किसी को भी कहीं जाने या अपनी पसंद के दल के नेताओं के साथ दिखने की स्वतंत्रता है। अशोक वाजपेयी को भी है। जब पसंदीदा नेताओं या दल के मंच पर खड़ा होना है तो ये नैतिक स्टैंड खोखला लगता कि लेखकों को नेताओं से दूर रहना चाहिए। कांग्रेस पार्टी से उनके पुराने संबंध रहे हैं, हलांकि वो अपने लेखन में इसका साक्ष्य नहीं होने की बात करते हैं। लेखन में न सही लेकिन उनके क्रियाकलापों में तो ये निरंतर दिखता है। जब वो एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति थे तो गुजरात हिंसा के खिलाफ अभियान चलाया था। राष्ट्रपति को ज्ञापन आदि भी देने गए थे। अभी भी हर चुनाव के पहले चलनेवाले नरेन्द्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी विरोधी हस्ताक्षर अभियान में उनके हस्ताक्षर दिख जाते हैं। वो इसको एक नागरिक के कर्तव्य के तौर पर प्रचारित करते हैं। उन्होंने ये स्वीकार भी किया है कि उनकी प्रशासनिक सेवाओं का दो तिहाई हिस्सा कांग्रेसी सरकारों के साथ काम करते हुए बीता है। इसमें वो ये जोड़ना नहीं भूलते कि वो सभी सरकारों को लोकतांत्रिक प्रणाली ने चुना था। प्रश्न ये उठता है कि 2014 से या उसके बाद जो सरकारें बन रही हैं क्या वो लोकतांत्रिक प्रणाली से नहीं चुनी जा रही हैं। 

अशोक वाजपेयी ने अपने एक साक्षात्कार में नामवर सिंह को अचूक अवसरवादी कहा था। उस साक्षात्कार में उन्होंने नामवर सिंह के विचलनों का साक्ष्य देने का दावा किया था। क्या राहुल गांधी के साथ उनकी पदयात्रा में शामिल होकर अशोक वाजपेयी ने स्वयं ये साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर दिया कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता क्या है। पदयात्रा में शामिल होने को वो प्रतिरोध का स्थापत्य गढ़ना भी कह सकते हैं लेकिन उनकी पालिटिक्स हिंदी समाज को समझ आती है। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी अभियान चलाना भी उसी राजनीति का एक भाग था। अशोक वाजपेयी को उस समय आपत्ति नहीं हुई थी या कला संस्कृति पर कोई खतरा नजर नहीं आया था जब राजीव गांधी के शासनकाल में सलमान रश्दी की पुस्तक के आयात पर प्रतिबंध लगाया गया था। पुरस्कार वापसी जैसा कदम तब भी नहीं उठाया था जब मकबूल फिदा हुसैन ने भारत की नागरिकता छोड़ने का निर्णय लिया था। क्यों? क्योंकि तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। दरअसल अशोक वाजपेयी प्रतिरोध का स्थापत्य तभी गढ़ते हुए दिखते हैं जब राजनीति या राजनीतिक स्थितियां उनके अनुकूल नहीं होती है। आज स्थितियां इस तरह की बन गई हैं कि अशोक वाजपेयी ने नामवर सिंह को जिस विशेषण से विभूषित किया था वो पलटकर उनपर ही चिपकता नजर आ रहा है। नामवर जी में हो सकता है विचलन हो लेकिन इनके कांग्रेस प्रेम में तो निरंतरता है।