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Monday, September 30, 2019

'लेडी नामवर' की उदार अपेक्षा


हिंदी के चर्चित लेखक और अनुवादक प्रभात रंजन ने फेसबुक पर लिखा, मनोहर श्याम जोशी अक्सर एक बात कहते थे तुम हिंदी वाले हिंदी को ढंग का एक लेखक भी नहीं दे पाए (उनकी मुराद मेरे जैसे हिंदी के विद्यार्थियों से होती थी)। हिंदी के अधिकांश बड़े लेखक वे हैं जो मूलत: हिंदी भाषा-साहित्य के विद्यार्थी नहीं हैं। उसके बाद वो नाम गिनाना शुरू करते- प्रेमचंद, जैनेन्द्र, बच्चन, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी आदि आदि के बाद कुछ देर रुककर कहते और मैं ( वे स्वयं विज्ञान स्नातक थे)। एक बार मैंने जवाब दिया कि भले अधिकांश लेखक हिंदी के बाहर के रहे हों लेकिन आचार्य तो एक हिंदी वाला ही है, नामवर सिंह। जोशी जी अपना चश्मा उतारकर कुछ देर अपनी आंखों को मलते रहे, फिर चश्मा पहनकर बोले, तुम हिंदी वाले दूसरा नामवर भी पैदा नहीं कर पाओगे। जैसा कि आमतौर पर होता है कि प्रभात रंजन की पोस्ट पर तरह तरह के कमेंट आते हैं, मनोरंजक भी गंभीर भी, चुटीले भी, कुंठा से भरे हुए भी, प्रशंसात्मक भी, उस दिन भी आए। सबसे दिलचस्प टिप्पणी लिखी वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया ने। उन्होंने लिखा, अब एक महिला नामवर की जरूरत है। कुर्सी खाली पड़ी हुई है। रोहिणी अग्रवाल से हम सबको उम्मीद है। ममता जी बेहद सजग लेखिका हैं और शब्दों का चयन सावधानी से करती हैं लेकिन ऐसा लगता है कि अतिरिक्त स्नेह में शब्दों के चयन में वो उदार हो गईं। रोहिणी अग्रवाल में उनको महिला नामवर बनने की उम्मीद नजर आ गई। अब फेसबुक पर चलनेवाली बहसों में या फेसबुक की टिप्पणियों में राय तो फैसले की शक्ल में ही आती है जिसका आधार भी आवश्यक नहीं होता। ममता कालिया की टिप्पणी भी इसी शक्ल में आई लेकिन चूंकि उन्होंने अपेक्षा की थी लिहाजा उसको फैसले की तरह नहीं देखकर अपेक्षा की तरह देखते हैं। लेकिन ममता कालिया की इस टिप्पणी में अपेक्षा के साथ-साथ उम्मीद भी थी, इस वजह से जब मैंने इस टिप्पणी को देखा तो चौंका । ममता कालिया जैसी वरिष्ठ और संजीदा रचनाकार को किसी भी लेखक में नामवर सिंह बनने की उम्मीद नजर आती है तो उसको गंभीरता से लेना चाहिए। उसके लेखन का गंभीरता से विश्लेषण करना चाहिए। रोहिणी अग्रवाल विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाती हैं। निरंतर समीक्षानुमा टिप्पणियां करती हैं लेकिन आलोचना जिस अनुशासन और तैयारी की मांग करती है वो उनकी टिप्पणियों में अनुपस्थित दिखता है। एक तो उनकी ज्यादातर टिप्पणियां प्रशंसात्मक होती हैं। दूसरे ज्यादातर रचनाएं उनको आह्लाद और आनंद से भर देती हैं। वो ज्यादातर उन्हीं कृतियों पर टिप्पणी करती हैं जो अद्भुत होती हैं और लंबी लकीर खींचती हैं। अभी कुछ दिनों पहले उन्होंने लक्ष्मी शर्मा की कहानी पर एक टिप्पणी लिखी उसका एक अंश देख सकते हैं, जानती हूं कहानी के प्रभाव से चौतरफा घिर कर मैं बहुत कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण कह रही हूं। खुद अपने को बरजना और दुरुस्त करना भी चाहती हूं कि स्त्री की दुरावस्था में स्वयं स्त्री का भी हाथ है। चौबीस घंटे पुरुष को कोसते रहना अपनी निष्क्रियता और कमतरी का स्वीकार है। लेकिन क्या यह भी आज के प्रगतिशील उदार समय का सच नहीं कि डांट-फटकार उपहास-उपेक्षा खाने की प्लेट में परोसी जानेवाली कुछ डिशेज हैं जिन्हें बुद्धिजीवी कमाऊ स्त्री भी पारिवारिक शांति के नाम पर निगल लेती है ?... लक्ष्मी शर्मा की कहानी रानियां रोती नहीं पढ कर मन में उगी रॉ प्रतिक्रिया, आलोचना तो लिख नहीं पाई लक्ष्मी जी, चित्त का उबाल आलोचना के आधार को तहस नहस कर देता है न!’ ये टिप्पणी उनकी है जिनसे ममता कालिया नामवर सिंह बनने की उम्मीद कर रही हैं। इनके बिंब देखिए, जब वो लिखती हैं डांट-फटकार और उपहास-उपेक्षा को खाने वाली प्लेट में परोसी जानेवाली डिशेज बताती हैं। ये बिंब उत्तर आधुनिकता के नाम पर छात्रों को तो पढ़ाई जा सकती हैं लेकिन क्या इस तरह के बिंबों को अपनी टिप्पणियों में रचकर कोई नामवर हो सकता है या नामवर के आसपास भी पहुंच सकता है। या इस तरह की भाषा और बिंब को हिंदी आलोचना स्वीकार करेगी। दूसरे उनके एक और शब्द ने चकित किया वो है रॉ प्रतिक्रिया। काफी देर तक को रॉ का मतलब समझ नहीं पाया। फिर लगा कि वो अनगढ़ प्रतिक्रिया की बात कर रही हैं। यह तो कतई हिंदी आलोचना की भाषा नहीं हो सकती। यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त टिप्पणी फेसबुक पर लिखी गई है इसलिए इसमें गंभीरता से नहीं लेना चाहिए । पर प्रतितर्क ये भी हो सकता है कि एक सार्वजनिक मंच पर की गई टिप्पणी से उसके लेखक की भाषा और भाव के संकेत तो मिल ही सकते हैं। हिंदी में कहा जाता है कि अच्छी आलोचना रचना की ही तरह भाषा का शास्त्रीय नहीं बल्कि सृजनात्मक उपयोग करती है। 
ममता कालिया ने जब रोहिणी अग्रवाल में संभावना देखी और उनका नाम सार्वजनिक तौर पर लिखा तो एक किस्से का स्मरण हो आया जो हिंदी के एक वरिष्ठ उपन्यासकार ने बताया था। हुआ यूं कि वो एक दिन अपने एक मित्र की पुस्तक प्रकाशन की सिफारिश लेकर हिंदी के शीर्ष प्रकाशकों में से एक के यहां पहुंचे। बातचीत शुरू हुई और उपन्यासकार महोदय ने अपने आने का उद्देश्य प्रकाशक महोदय को बताया। पूरी बात सुनने के बाद प्रकाशक महोदय ने जो उत्तर दिया वो आलोचना और समीक्षा पर की गई सटीक टिप्पणी थी। प्रकाशक ने उपन्यासकार से कहा कि आप जिनकी सिफारिश लेकर आए हैं वो समीक्षा लिखते हैं और हम समीक्षा की पुस्तक प्रकाशित करते नहीं हैं। जब उपन्यासकार ने जोर दिया तो प्रकाशक और खुले और बोले कि आलोचना के लिए एक विशेष तैयारी और अध्ययन की जरूरत होती है। आलोचना योजनाबद्ध तरीके से की जाती है जबकि समीक्षा करने के अन्यान्य कारण होते हैं। अब उपन्यासकार महोदय सन्न। उनसे कुछ कहते नहीं बना और वो प्रकाशक के यहां से उठकर चले आए।
दरअसल आलोचना बहुत कठिन विधा है। इस विधा का साधने के लिए आवश्यक है कि आप अपने देश की लेखन परंपरा से पूरी तरह परिचित हों। ना सिर्फ परंपरा बल्कि समकालीन लेखक क्या लिख रहे हैं और वो अपने लेखन में किस तरह का प्रयोग कर रहे हैं, अपने लेखन से अपनी परंपरा को किस चरह से चुनौती दे रहे हैं आदि। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर इस वक्त साहित्य में किस तरह का लेखन हो रहा है, किस तरह की नई लेखकीय प्रवृत्ति आकार ले रही है इसका भी भान हो। नामवर सिंह ने ना सिर्फ विदेशी साहित्य को पढ़ा था बल्सि संस्कृत समेत अन्य भारतीय भाषाओं के लेखन से भी परिचित थे। नामवर सिंह की एक खूबी और थी कि वो अपने समकालीनों को तो पढ़ते ही थे, नए से नए लेखकों की रचनाएं भी उनकी नजर से गुजरती थी और जब भी उनको उचित लगता था तो उसपर टिप्पणी भी करते थे। कभी भी ऐसा नहीं देखा गया कि उनके चित्त के उबाल ने उनकी आलोचना के आधार को तहस नहस कर दिया हो आलोचक को रचना पढते समय और उसकी आलोचना करते समय अपनी संवेदनाओं पर काबू रखना पड़ता है। राग-द्वेष और मित्रता आदि से तो दूर रहना ही पड़ता है। यहां निराला और पंत का उदाहरण देना उचित होगा। ये छायावाद के दौर की बात है। पंत और निराला में बेहद घनिष्ठ संबंध थे लेकिन जब पंत की कृति पल्लव पर लिखने की बात आई तो निराला ने अपनी घनिष्ठता को अलग रखते हुए उसपर बेहद कठोर टिप्पणी की थी। इसके ठीक उलट राग-द्वेष का भी उदाहरण है। जब विजयमोहन सिंह कहते हैं कि राग दरबारी तो घटिया उपन्यास है और मैं उसको हिंदी के पचास उपन्यासों की सूची में भी नहीं रखूंगा और ये तीन कौड़ी का उपन्यास है। इस तरहब की प्रवृत्ति ने तब जोर पकड़ा जब हिंदी आलोचना ने साहित्य की आसान पंगडंडियों पर चलना शुरू कर दिया और आलोचक रचनाकार की परवाह करने लगे। आलोचना लिखते समय ये सोचने लगे कि अमुक रचनाकार पर की गई टिप्पणी से कहीं बो बुरा ना मान जाएं। आलोचना राजनीति नहीं है जिसमें समझौते की कोशिश की जाए और सभी पक्षों की सहूलियतों का ध्यान रखा जाए। आलोचना दायित्व और विवेक का वो रास्ता है जिसमें किसी रचना को बेहतर ढंग से समझकर सिर्फ और सिर्फ रचना के आधार पर टिप्पणी की जाए और आलोचना लिखते समय रचनाकार कहीं से सोच में भी न आए। अगर कोई आलोचक ऐसा कर पाए तो उससे नामवर सिंह बनने की उम्मीद की जा सकती है।

Thursday, September 26, 2019

फिल्मों पर गांधी का प्रभाव


हिंदी फिल्म के सौ वर्षों से अधिक लंबे इतिहास पर अगर हम नजर डालते हैं तो पाते हैं कि किसी भी हिन्दुस्तानी ने उनपर कोई मुकम्मल फिल्म नहीं बनाई। उनके व्यक्तित्व के हिस्सों, उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं और उनके बेटों के साथ संबंधों पर तो फिल्म बनी लेकिन गांधी को केंद्र में रखकर जिस तरह से रिचर्ड अटनबरो ने फिल्म गांधी का निर्माण किया उस तरह की कोई फिल्म नहीं बनी। गांधी पर हजारों किताबें लिखी गई, सैकड़ों शोध हुए लेकिन भारतीय निर्माताओं द्वारा उनपर मुकम्मल फिल्म नहीं बनाना, चकित करता है। जवाहरलाल नेहरू ने 1963 में राज्यसभा में अपने एक बयान में कहा था कि भारत सरकार के किसी विभाग के लिए महात्मा गांधी के जीवन पर फिल्म बनाना बेहद कठिन है। सरकारी विभाग इस काम के योग्य नहीं हैं क्योंकि कोई ऐसा सक्षम व्यक्ति सरकार के पास नहीं है। सरकारी विभाग की बात तो समझ में आती है लेकिन फिल्मों से जुड़े इतने महान निर्माता-निर्देशक हिंदी में हुए लेकिन किसी ने इस दिशा में कदम उठाने का साहस नहीं किया। क्या इसके पीछे हिंदी फिल्म के निर्देशकों की गांधी के विराट व्यक्तित्व के फिल्मांकन को लेकर समझ में हिचक थी या वो कारोबार के लिहाज से कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे। या फिर गांधी की फिल्म को लेकर जो उदासीनता या नकारात्मक राय थी उसने हिंदी फिल्म के कर्ताधर्ताओं पर मनोवैज्ञानिक असर डाला। अब जब पूरा देश गांधी के जन्म की एक सौ पचासवीं वर्षगांठ मना रहा है तो एक बार ये प्रश्न फिर ये यक्ष की भांति हिंदी सिनेमा के सामने खड़ा हो गया है।
गांधी पर समग्रता में फिल्म का निर्माण भले ही किसी भारतीय फिल्मकार ने नहीं किया लेकिन गांधी के विचार, उनकी जीवन शैली, उनके प्रयोग, उनके सिद्धांत हिंदी फिल्मों में लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे। कुछ लोग भले ही ये कहते हों कि हिंदी फिल्मों में गांधी अदालतों और पुलिस थानों में सिर्फ तस्वीरों में ही दिखाई देते हैं लेकिन अगर फिल्मों की कहानियों को विश्लेषित करें तो ऐसी दर्जनों फिल्में हमारे सामने है, जिसमें गांधी किसी ना किसी रूप में उपस्थित हैं। चाहे वो सत्याग्रह हो, अहिंसा हो या फिर गरीबों को विशेष तवज्जो देने की गांधीवादी परिकल्पना हो। हिंदी फिल्म ने शुरू से ही राजनेता गांधी की जगह गांधी के व्यक्तित्व के नैतिक पक्ष को चुना, उनकी नैतिक आभा को उभारने की कोशिश की। अगर हम इस पहलू पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि हिंदी फिल्मों ने नायकत्व तो सुभाषचंद्र बोस को प्रदान किया लेकिन नैतिकता के शीर्ष पर गांधी को बिठाया। इस सिलसिले में 1948 में बनी फिल्म शहीद का उदाहरण सटीक होगा। इस फिल्म में नायक नायिका गांधी को बहुत अधिक सम्मान तो देते हैं लेकिन उनको अपना आदर्श नहीं मानते, उनके आदर्श तो सुभाषचंद्र बोस ही हैं। अगर हम हिंदी फिल्मों की सौ साल से अधिक की यात्रा में गांधी की इस भूनिका को तलाशते हैं तो एक फिल्म और ध्यान में आती है 1950 में बनी समाधि। इसमें नायक सुभाषचंद्र बोस को अपना आदर्श मानता है, उनकी पूजा करता है और गांधी की उपेक्षा करता है। हिंदी फिल्मों में शायद 1954 में बनी फिल्म जागृति एकमात्र ऐसी फिल्म है जिसमें गांधी के राजनीतिक पक्ष और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका को उभारा गया है। इस फिल्म में गांधी को देश को आजाद करवाने के लिए धन्यवाद दिया गया है। इसके गाने भी खूब मशहूर हुए चाहे वो हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल कर हो या साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। इन दोनों गानों के चित्रांकन में गांधी की मुस्कारती तस्वीरें अब भी दर्शकों को याद हैं।
1948 में बनी फिल्म शहीद से लेकर 2006 में बनी फिल्म लगे रहो मुन्ना भाई तक के फिल्मी सफर में से उन फिल्मों की एक लंबी सूची बनाई जा सकती है जिसमें गांधी के विचारों की छाप साफ तौर पर लक्षित की जा सकती है। 1952 में बनी फिल्म आंधियां में जब फिल्म का नायक, जो महाजन है और सूद पर पैसे देता है, अपने पैसे की ताकत पर गांव की एक गरीब लड़की से शादी करना चाहता है तो पूरा गांव सत्याग्रह का फैसला लेता है। इसी तरह से फिल्म जोगन की नायिका अपनी मर्जी के खिलाफ शादी का प्रतिकार करने के लिए ब्रहम्चर्य का रास्ता अपनाती है। फिल्म नया दौर में समाजवाद को लेकर गांधी और नेहरू के बीच के द्वंद्व को बेहतरीन तरीके से चित्रित किया गया है। फिल्म में गांधी की उस उक्ति का इस्तेमाल भी किया गया है जो उन्होंने मशीनों के बारे में कही थी कि वो मजदूरों को विस्थापित कर देगी और कुछ लोगों के हाथों में पूरी ताकत सिमट जाएगी। मशीन और मजदूर के बीच के संघर्ष को बस और तांगा के माध्यम से दिखाया गया है।
मदर इंडिया में भी प्रत्यक्ष रूप से गांधी की उपस्थिति नहीं है लेकिन जिस तरह से एक पूरा परिवार एक ताकतवर सूदखोऱ के खिलाफ विरोध करता है और उसमें भी मां और उसका एक बेटा अहिंसक तरीके का सहारा लेते हैं वो परोक्ष रूप से गांधी की याद दिलाते हैं। इसी तरह से अगर हम देखें तो त्याग से आनंद की अनुभूति की कहानी कई फिल्मों में दिखाई देती है। कई फिल्मों में नायक दोस्ती की खातिर अपनी खुशी अपने प्यार को कुर्बान कर देता है। यह भी गांधी का ही प्रभाव है। हिंदू मुस्लिम एकता के गांधी के विचार कई फिल्मों में दिखते हैं, फिल्म अमर अकबर एंथोनी में तीनों बच्चे गांधी की प्रतिमा के नीचे दिखते हैं। इसकी प्रतीकात्मकता और प्रेरणा वही है।
गांधी की फिल्मों में कोई रुचि नहीं थी और वो फिल्मों को समाज के लिए बुराई मानते थे। और कहा जाता है कि उन्होंने सिर्फ एक ही फिल्म, रामराज्य, देखी थी जिसके बाद भी उनकी राय बदल नहीं सकी। गांधी भले ही सिनेमा को पसंद नहीं करते थे लेकिन भारतीय सिनेमा अब भी गांधी के विचारों को बेहद पसंद करता है।

दिल्ली विश्वविद्लाय के छात्रों की रचनात्मकता

प्रज्ञा संगोष्ठी की स्थापना 1965 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर की थी। इनके संस्थापक थे हंसराज कॉलेज से जुड़े डॉ सुखवीर सिंह, श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्श के महेश मिश्र, हिन्दू कॉलेज के छात्र सुरेश ऋतुपर्ण और किरोड़ीमल कॉलेज के छात्र रामकुमार। इसके अलावा भी कुछ उत्साही छात्र इस संस्था की स्थापना में सक्रिय भूमिका में थे। इन सभी छात्रों की साहित्य में रुचि थी और उनको लगता था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्यिक रुचि वाले छात्रों का कोई साझा मंच नहीं था लिहाजा उन्होंने एक दिन प्रज्ञा संगोष्ठी के नाम से एक संस्था का गठन किया। उस वक्त दिल्ली विश्वविद्लाय में वामपंथ की साहित्यिक धारा बड़े वेग से बहा करती थी और वो अपनी विचारधारा से इतर लेखकों या छात्रों को किसी प्रकार का समर्थन नहीं करते थे। प्रज्ञा संगोष्ठी की स्थापना की एक वजह ये उपेक्षा भी थी। प्रज्ञा संगोष्ठी की बैठकें दिल्ली विश्वविद्यालय के अलग अलग कॉलेजों में होती थी। इसका कोई तय एजेंडा नहीं होता था। सभी छात्र जुटते थे और अपनी कविताएं और रचनाएं एक दूसरे को सुनाते थे। हर महीने इस संस्था की एक गोष्ठी हुआ करती थी। इस संस्था के पास नियमित आय का कोई साधन नहीं था इसलिए ज्यादातर समय इसके संस्थापकों को ही चाय-पानी का इंतजाम करना पड़ता था। या कई बार कॉलेज की साहित्य सभा इनकी गोष्ठियों से जुड़ जाती थी तो वो चाय-पानी का इंतजाम कर देती थी। इस संस्था के संस्थापकों में से एक सुरेश ऋतुपर्ण के मुताबिक जब ये संस्था शुरू हुई थी तो इसकी आरंभिक गोष्ठियों का खर्चा 15-20 रुपए हुआ करता था क्योंकि उस वक्त दो आने में एक समोसा मिलता था और एक आने की चाय आती थी। इसकी गोष्ठियों में मशहूर कवि अजित कुमार, आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी और कवि रामदरश मिश्र के अलावा प्रेम जनमेजय और प्रताप सहगल आदि नियमित आया करते थे।  
प्रज्ञा संगोष्ठी नाम की इस संस्था ने उस वक्त एक अभिनव प्रयोग की शुरुआत की थी। दिल्ली विश्वविद्यालय कविताअब्द जिसका अर्थ होता है दिल्ली विश्वविद्यालय कविता वर्ष के नाम से एक कविता संग्रह छापने की योजना बनाई। इसके प्रथम अक्षरों को लेकर दिविक-1 नाम से एक कविता संग्रह का प्रकाशन हुआ। इस संग्रह का प्रकाशन संभवत: 1969 के अंत में या 1970 के शुरुआती महीनों में हुआ था। इसका विमोचन दिल्ली विश्वविद्यालय के टैगोर हॉल में हुआ था। हिंदी विभाग के उस वक्त के अध्यक्ष डॉ नगेन्द्र ने तब राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के अलावा शमशेर बहादुर सिंह को भी आमंत्रित किया था और वो आए भी थे। उस वक्त शमशेर एक उर्दू शब्दकोश पर काम कर रहे थे और उसी इमारत में बैठते थे। दिविक एक में एक नवोदित कवि रमेश शर्मा की कविताएं भी छपी थीं जिन्होंने अपना नाम ही दिविक रमेश रख लिया था और इस वक्त हिंदी के मशहूर बाल साहित्यकार और कवि हैं। बाद में जब डॉ नगेन्द्र हिंदी विभाग से पद मुक्त हुए तो सावित्री सिन्हा ने हिंदी विभाग का काम-काज संभाला। तब इन उत्साही छात्रों ने एक और संग्रह मुट्ठियों में बंद आकार के नाम से एक और संकलन छापा था। उस वक्त सावित्री सिन्हा ने ऋषभ चरण जैन एवं संतति के मालिक दिग्दर्शन चरण जैन को बुलाकर छात्रों के इस संग्रह को छापने का अनुरोध किया था, खुद इसकी भूमिका भी लिखी थी। बाद में डॉ सुखवीर सिंह ने दिविक 2 का प्रकाशन भी किया था। 

Tuesday, September 24, 2019

पीढ़ियों को अभिनय से प्रभावित किया


अमिताभ की अदाकारी ने भारतीय फिल्म जगत को गहरे तक प्रभावित किया। पहले तो कहानीकारों ने उनकी फिल्मी छवि को ध्यान में रखकर कहानियां लिखीं। उनके बोलने के अंदाज को ध्यान में रखकर डॉयलॉग लिखे गए। वर्ष 1980 तक आते आते अमिताभ बच्चन की छाप हिंदी सिनेमा पर इतनी गहरी हो गई कि उनके उनके बाद की पीढ़ी के अभिनेताओं ने उनकी अदाकारी के प्रमुख आयाम- एंग्री यंगमैन, को अपने अभिनय का अभिन्न अंग बना लिया। संभव है कि ये निर्देशकों की या कहानी लिखने वालों की सोच रही हो लेकिन एक पूरी पीढ़ी पर अमिताभ के अंदाज, फिल्मों में उनके प्रदर्शन, उनकी फिल्मी छवि का असर दिखा और हिंदी फिल्मों ने उसको शिद्दत से अपनाया। किसी भी फिल्म अभिनेता के लिए यह बहुत बड़ी बात है। अमिताभ बच्चने के बाद के दौर के अभिनेताओं ने अपनी अलग छवि बनाने की जरूर कोशिश की लेकिन उसमें अमिताभ की झलक लगातार दिखती रही।
मिथुन चक्रवर्ती भले ही डिस्को डांसर के तौर पर लोकप्रिय हुए लेकिन अपनी ज्यादातर फिल्मों में वो डांसर के साथ-साथ एंग्री यंगमैन भी होते थे। डांसर के साथ-साथ गुस्सा और मार-धाड़ अवश्य होता था। मिथुन के बाद अगर हम अनिल कपूर की अदाकारी को देखे तो उसमें भी एंग्री यंगमैन की छवि साफ तौर पर दिखती है। फिल्म मशाल में अनिल कपूर के अभिनय के कई भाव को अमिताभ की अभिनय की छाप और छाया के तौर पर लक्षित किया जा सकता है। हलांकि बाद की फिल्मों में अनिल कपूर ने एंग्री यंगमैन की छवि के साथ एक खिलंदड़ापन जोड़ा लेकिन उसमें भी अमिताभ के अभिनय के कई शेडस दिखते हैं। अगर आप याद करें फिल्म शोले में अमिताभ का किरदार, जब वो तांगे पर पीछे बैठे होते हैं और धर्मेन्द्र आगे हेमा मालिनी के साथ । तांगे पर जिस तरह का संवाद होता है वैसा ही संवाद फिल्म रामलखन में अनिल कपूर और माधुरी दीक्षित के बीच देखा जा सकता है। सिर्फ ये दो ही नहीं बल्कि संजय दत्त की फिल्मी छवि भी प्रयत्नपूर्वक एंग्री यंगमैन की बनाई गई। उस छवि को अलग दिखाऩे के लिए उसको थोड़ा संवेदनशील दिखाया गया। जैकी श्राफ ने तो पूरी तरह से एंग्री यंगमैन की छवि को अपनाया और सफल भी रहे। अमिताभ के चलने तक का स्टाइल आप जैकी की चाल में देख सकते हैं। इस छाप को अब के नायकों पर भी देख सकते हैं। अमिताभ ने अपने अभिनय में जितने प्रयोग किए उतना कम ही अभिनेताओं ने किया ज्यादातर तो अपनी सफल फिल्मी छवि की गिरफ्त में ही जकड़ कर रह गए।  

Saturday, September 21, 2019

संस्थाओं की चूलें कसने की कवायद


नरेन्द्र मोदी ने 2014 में जब प्रधानमंत्री के तौर पर देश की बागडोर संभाली तो संस्कृति मंत्रालय को लेकर खूब चर्चा होती रही। उनके पहले कार्यकाल के शुरुआती दो वर्षों में संस्कृति मंत्रालय के काम और उसके अधीन संस्थाओं में हुई नियुक्तियों को लेकर भी सवाल उठे। इस तरह की बातें भी हुईं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को इन संस्थाओं में बिठाया जा रहा है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में हुई नियुक्तियों पर तो सीताराम येचुरी तक ने सवाल खढ़े किए थे। लगातार सवाल उठते रहने का नतीजा यह हुआ कि मंत्रालय यथास्थितिवाद की राह पर चल पड़ा। फैसले लगभग बंद हो गए। जो जैसा चल रहा है चलने दो की प्रवृत्ति हावी हो गई। नियुक्तियां बहुत कम हो गईं। संस्कृति मंत्रालय के अधीन कई संस्थाओं के अध्यक्ष और निदेशकों की नियुक्तियां नहीं हुईं। तदर्थ व्यवस्था से संस्थाएं संचालित होती रहीं। पता नहीं कब से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में कार्यकारी चेयरमैन हैं। महीनों से इस संस्था में निदेशक का पद खाली है। दूसरे कार्यकाल में संस्कृति मंत्रालय में नए मंत्री आए, वो सक्रिय भी दिख रहे हैं लेकिन नई सरकार के गठन के साढे चार महीने बीतने के बाद भी उपरोक्त पध खाली पड़े हैं।
इस बीच कैबिनेट सचिवालय ने एक अधिसूचना जारी की जिसके मुताबिक पूर्व नौकरशाह राघवेन्द्र सिंह को संस्कृति से संबंधित महती जिम्मेदारी सौंपी गई । राघवेन्द्र सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर हैं और संस्कृति मंत्रालय और वस्त्र मंत्रालय में सचिव रह चुके है। राघवेन्द्र सिंह को संस्कृति मंत्रालय में सीईओ-डीएमसीएस ( डेवलपमेंट ऑफ म्यूजियम और कल्चरल स्पेसेज) की जिम्मेदारी दी गई है। उनको भारत सरकार के सचिव के बराबर प्रशासनिक शक्तियां दी गई हैं और वो सीधे संस्कृति मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल को रिपोर्ट करेंगे। उनको राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अलावा उन सभी विषयों के अधिकार दिए गए हैं जो संग्रहालयों से संबंधित हैं। उनको राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक और राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान के कुलपति के तौर पर भी कार्य करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इस अधिसूचना के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त को इंदिरा गांधी राष्ट्रय कला केंद्र और नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट का दौरा किया था। तब से ये उम्मीद जगी थी कि प्रधानमंत्री इन कलाओं के संरक्षण आदि को लेकर गंभीर हैं। फिर खबर आई कि लटियंस दिल्ली की सूरत बदलने की योजना पर काम हो रहा है और राघवेन्द्र सिंह को जिस कल्चरल स्पेसेज की जिम्मेदारी दी गई है उसमें नॉर्थ ब्लॉक और साउथ बल्क में बनने वाले म्यूजियम भी हैं।अब सवाल यह उठता है कि संस्कृति मंत्रालय के सचिव के अधिकारों में कटौती क्यों की गई। संस्कृति मंत्रालय में उपरोक्त संस्थानों का जिम्मेदार राघवेन्द्र सिंह को क्यों बनाया गया। कहते हैं ना कि कुछ तो वजहें रही होंगी कोई यूं ही वेबफा नहीं होता। संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों और जानकारों का मानना है कि प्रधानमंत्री कार्यालय संस्कृति मंत्रालय के अफसरों के काम-काज से संतुष्ट नहीं थे। सस्कृति मंत्री भले नए आ गए हैं लेकिन अफसरों ने अबतक यथास्थितिवाद का रास्ता छोड़ा नहीं है। फैसलों में भी अब भी देरी हो ही रही है। सस्कृति मंत्रालय से जुड़ी कई संस्थाओं में तो इतनी अराजकता है कि अब उसपर सिर्फ चर्चा ही की जा सकती है क्योंकि कार्रवाई की उम्मीद लगभग खत्म सी होती जा रही है।
संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक संस्था है ललित कला अकादमी। ललित कला अकादमी में अव्यवस्थाओं का लंबा इतिहास है। केस मुकदमे भी खूब होते रहे हैं, अब भी चल रहे हैं। ललित कला अकादमी के दो पूर्व चेयरमैन अशोक वाजपेयी और के के चक्रवर्ती के खिलाफ सीबीआई जांच चल रही है। बीच में यहां सी एस कृष्णा शेट्टी प्रशासक रहे। लेकिन बेहद दिलचस्प रहा मौजूदा चेयरमैन उत्तम पचारणे की चयन प्रक्रिया। जब चेयरमैन के लिए सर्च कमेटी बनी तो उसमें जे एस खांडेराव को प्रशासक ने नामांकित किया। सर्च कमेटी के दो अन्य सदस्यों का चयन राष्ट्रपति करते हैं संस्कृति मंत्री की सलाह पर। संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने 22 फरवरी 2018 को भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सदस्य और अंतराष्ट्रीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अध्यक्ष विनय सहस्त्रबुद्धे और प्रिंस ऑफ वेल्स, म्यूजियम के पूर्व निदेशक सदाशिव वी गोरक्षकर के नाम को राष्ट्रपति को भेजने की स्वीकृति दी जिसे राष्ट्रपति ने स्वीकार कर लिया। सर्च कमेटी बन गई। सर्च कमेटी के सदस्य विनय सहस्त्रबुद्धे ने बगैर तिथि के एक पत्र संस्कृति मंत्रालय के तत्कालीन सचिव को भेजा जो मंत्रालय में 23 मार्च 2018 को प्राप्त हुआ। उस पत्र के माध्यम से विनय सहस्त्रबुद्धे ने संस्कृति मंत्रालय को सर्च कमेटी की तीन रिजोल्यूशन भेजे। रिजोल्यूशन पर विनय सहस्त्रबुद्धे के हस्ताक्षर हैं जिसमें 23 मार्च 2018 की तारीख है। दूसरे रिजोल्यूशन में विनय सहस्त्रबुद्धे और जे एस खांडेराव के हस्ताक्षर हैं और तीसरे रिजोल्यूशन में विनय और सदाशिव गोरक्षकर के हस्ताक्षर हैं। अब सवाल ये उठता है कि सर्च कमेटी की कोई बैठक हुई तो तीन रिजोल्यूशन क्यों बने? अगर सर्च कमेटी की बैठक नहीं हुई तो क्यों नहीं हुई। इसके अलावा एक और प्रश्न और उठता है कि विनय सहस्त्रबुद्धे ने तीनों रिजोल्यूशन को अग्रसारित क्यों किया? सरकारी पत्र के मुताबिक चयन समिति के तीन सदस्य नियुक्त किए गए थे तो फिर इसके संयोजन की जिम्मेदारी तो मंत्रालय के किसी अधिकारी की होती या फिर ललित कला अकादमी के अफसर इसको आयोजित करते। 23 मार्च 2018 को ही मंत्रालय को नाम मिलता है और उसी दिन राष्ट्रपति को तीनों नाम भेज दिए जाते हैं। ये उस मंत्रालय में होता है जहां यथास्थितिवाद चरम पर है।  
इस सर्च कमेटी ने तीन नामों का पैनल भेजा था, सी एस कृष्णा शेट्टी, श्याम शर्मा और उत्तम पचारणे। कुछ वजहों से उस दौर में ललित कला अकादमी के लिए प्रोटेम चेयरमैन की नियुक्ति कर दी जाती है। फिर सस्कृति मंत्रालय की तत्कालीन अतिरिक्त सचिव सुजाता प्रसाद ने विनय सहस्त्रबुद्धे को पत्र लिखकर ललित कला अकादमी के अध्यक्ष पद के लिए ताजा पैनल भेजने का अनुरोध किया। यहां तो ठीक था कि मंत्रालय ने विनय सहस्त्रबुद्धे से अनुरोध किया तो उन्होंने पैनल का नाम भेजा। लेकिन इस बार दो नाम बदल गए थे। श्याम शर्मा और शेट्टी की जगह हर्षवर्धन शर्मा और सुभाष भुलकर का नाम आ गया था। उत्तम पचारणे सूची में बने रहे और उनका ही चयन भी हुआ। इस पूरे प्रकरण में सबसे दिलचस्प है संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव (अकादमी) का 5 अगस्त 2018 को सर्च कमेटी के सदस्य एस वी गोरक्षकर के लिए एक ईमेल किया जिसमें उनसे अनुरोध किया गया कि जैसा कि फोन पर बात हुई है, रिजोल्यूशन की कॉपी, जो इस मेल के साथ संलग्न है, पर एस गोरक्षकर के हस्ताक्षर करवा दें। हस्ताक्षरित प्रति को वापसी मेल से भेजने की कृपा करें। इसको मोस्ट अर्जेंट समझें। अब ये किस रिजोल्यूशन की बात हो रही है क्योंकि पहले जो रिजोल्यूशन आए थे जिनमें तीन नाम सुझाए गए थे उसमें तो इनके हस्ताक्षर हैं।
यह अकेला मामला नहीं है। ललित कला अकादमी में स्थायी सचिव भी नहीं हैं। राजन श्रीपत फुलारी के सचिव पद छोड़ने के बाद से अस्थायी सचिव संस्थान का  कामकाज संभाल रहे हैं। इसके पहले एक प्रभारी सचिव विशालाक्षी निगम को इसी वर्ष मई में निलंबित कर दिया गया। 7 मई को निलंबन हुआ और 6 सितंबर को उनको ये बताया गया कि किन वजहों से उन्हें निलंबित किया गया है, यानि करीब चार महीने बाद। इतनी तरह की अराजकताएं वहां हैं जिसका असर ललित कलाओं पर भी पड़ रहा है। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि पिछले सालों में ललित कला अकादमी में कितनी प्रदर्शनियां लगीं और उससे अकादमी को कितनी आय हुई। ललित कला अकादमी ने नया मेमोरेंडम ऑफ अडरस्टैंडिग को अंगीकार किया और उसके अनुसार गवर्निंग बॉडी और सामान्य परिषद का गठन होना था। लेकिन अकादमी की वेबसाइट के मुताबिक अबतक इन दोनों का गठन प्रक्रिया में है।
एक तरफ जहां प्रधानमंत्री कार्यालय संस्कृति को लेकर बेहद गंभीर हैं। राघवेन्द्र सिंह जैसे सक्षम अधिकारियों को जिम्मेदारी दी जा रही है वहीं दूसरी तरफ संस्कृति मंत्रालय के अधिकारी ललित कला अकादमी को लेकर इतनी लापरवाही बरत रहे हैं जिससे वहां अराजकता बढ़ती जा रही है। इस तरह की अराजकता सिर्फ ललित कला अकादमी में नहीं है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भी स्थायी चेयरमैन और निदेशक नहीं होने से भी काम-काज पर असर पड़ रहा है और तदर्थवाद का बोलबाला है। राष्ट्रय महत्व की इन संस्थाओं को लेकर संस्कृति मंत्रालय के अफसरों की उदासीनता पर संस्कृति मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल को ध्यान देकर चूलें कसनी चाहिए। करदाताओं के पैसे की कहीं तो जवाबदेही होनी चाहिए।

Saturday, September 14, 2019

गांधी, हिंदी और हिन्दुस्तानी


हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर दैनिक जागरण के आयोजन में एक सत्र का विषय था, गांधी और हिंदी। इस सत्र में वक्ताओं ने गांधी के हिंदी प्रेम को रेखांकित किया। इस चर्चा में एक बात सामने आई कि गांधी हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करना चाहते थे। दरअसल गांधी शुरुआत में तो ऐसा चाहते थे, कहा भी था लेकिन बाद के दिनों में वो हिन्दुस्तानी की पैरोकारी करने लगे थे। गांधी और हिंदी के संबंधों को समग्रता में समझने के लिए हमें हिंदी के आंदोलनों की ऐतिहासिकता में जाना होगा। पहले गांधी का हिंदी प्रेम और बाद के दिनों में हिन्दुस्तानी प्रेम गांधी के विचारों का ऐसा विचलन है जिसमें राजनीति को देखना होगा। इस विचलन को समझने के लिए हमें हिंदी को लेकर चलाए गए आंदोलनों और प्रयासों को भी देखना होगा। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास गांधी के आगमन के बहुत पहले से हो चुका था। 1826 में राममोहन राय ने बंगदूत नाम का एक साप्ताहिक पत्र निकाला था जिसमें हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी के लेख छपा करते थे। राममोहन राय हिंदी में लिखते थे और दूसरों को भी हिंदी में लिखने के लिए कहा करते थे। राममोहन राय के बाद ब्राह्म समाज को केशवचंद्र सेन ने संभाला था। केशवचंद्र सेन हिंदी के बड़े हिमायती थी। ठीक से याद नहीं है पर कहीं इस बात का उल्लेख मिलता है कि एक बार स्वामी दयानंद कलकत्ता गए थे को केशवचंद्र सेन के साथ ठहरे थे। उस वक्त वो सत्यार्थ प्रकाश लिख रहे थे। केशवचंद्र सेन से इसपर उनकी बातें होने लगीं। जब सेन साहब को पता चला कि स्वामी जी संस्कृत में सत्यार्थ प्रकाश की रचना कर रहे हैं तो उन्होंने स्वामी जी को इसको हिंदी में लिखने की सलाह दी थी। केशव जी की सलाह के बाद ही स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश को हिंदी में लिखा। इस बात के भी पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं कि केशवचंद्र सेन जी ये महसूस करते थे कि भारत की एकता के लिए और इसकी स्वतंत्रता के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है जो पूरे देश की संपर्क भाषा हो। वो इसके लिए हिंदी को सबसे उपयुक्त मानते थे। सेन ने अपनी पत्रिका सुलभ समाचार के 1875 के किसी अंक में बंग्ला में इस विषय पर एक लेख भी लिखा था और अपना मत हिंदी के पक्ष में प्रस्तुत किया था।
बंकिमचंद्र चटर्जी ने भी ये भविष्यवाणी की थी कि हिंदी एक दिन इस देश की राष्ट्रभाषा होकर रहेगी क्योंकि इसकी सहायता से ही भारत में एकता स्थापित होगी। डॉ सुनीति कुमार चटर्जी के मुताबिक 1877 में बंगदर्शन में एक लेख छपा था जिसके लेखक का नाम नहीं था पर सभी का अनुमान था कि वो लेख बंकिमचंद्र चटर्जी ने लिखा था। उस लेख में भी हिंदी को भारत को जोड़ने वाली भाषा के तौर पर रेखांकित किया गया था। महर्षि अरविंद ने भी साप्ताहिक पत्रिका धर्म में लिखा था कि भाषा-भेद से देश की एकता में बाधा नहीं पड़ेगी। सबलोग अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए,हिंदी को साधारण भाषा के रूप में अपनाकर, इस भेद को खत्म कर देंगे।इस पृष्ठभूमि की चर्चा करने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि जब 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई उसके पहले से ही देशभर में ये माहौल बना हुआ था कि हिंदी ही इस देश को एक सूत्र में जोड़ने का काम कर सकती है। हिंदी ही वो भाषा है जो इस देश की राष्ट्रभाषा बन सकती है। साफ है कि जब गांधी भारत लौटे तो उस वक्त पूरे देश के मानस में हिंदी को लेकर एक अपनत्व या कहें कि उसके पक्ष में एक खास किस्म का माहौल बना हुआ था। दक्षिण अफ्रीका से गांधी के भारत आने के पहले ही 10 अक्तूबर 1910 को हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की स्थापना हो चुकी थी और पंडित मदन मोहन मालवीय उसके अध्यक्ष और पुरषोत्तमदास टंडन इसके महामंत्री बन चुके थे। अदालतों की भाषा हिंदी हो इसके लिए काम शुरू हो चुका था। गांधी इस बात को भांप गए थे कि हिंदी को भारत की एकता और स्वतंत्रता के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।  
अब जरा हिन्दुस्तानी के इतिहास को समझने की कोशिश करनी होगी। अकबर के समय से ही राजकाज की भाषा फारसी चली आ रही थी। बाद में भी ये चलता रहा। 1837 में कंपनी राज ने फारसी को कठिन मानते हुए आम जनता के लिए भारतीय भाषाओं में काम करने का आदेश जारी किया। इस आदेश के बाद बंगला, ओडिया, गुजराती और मराठी में संबंधित भूभाग में काम होने लगा। संयुक्त प्रांत, बिहार और मध्यप्रदेश का जो इलाका है वहां काम करनेवालों ने अंग्रेज अफसरों को ये समझा दिया कि उर्दू ही हिन्दुस्तानी है। इसका परिणाम यह हुआ कि इन प्रांतों में अदालतों की भाषा उर्दू ही रह गई। जब मदन मोहन मालवीय जी ने अदालतों में फारसी की जगह पर नागरी लिपि का आंदोलन शुरू किया और ये जोर पकड़ने लगा तो मुसलमानों की तरफ से इसका विरोध शुरू हुआ। यहीं से भाषा के प्रश्न में संप्रदाय का प्रवेश होता है। हम कह सकते हैं कि भाषाई संप्रदायवाद का बीज कचहरी में नागरी आंदोलन के विरोध के दौरान बोया गया जो बाद में फला-फूला। 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेजों को ये बात समझ आ गई थी कि हिंदू और मुसलमानों के बीच की खाई को और चौड़ा किए उनका राज ज्यादा दिनों तक चलनेवाला नहीं है। इसको भांपते हुए बरतानिया हुकूमत अदालतों में नागरी लिपि की मांग को खारिज करने लगी। लेकिन 1881 में अंग्रेजो को समझ आया कि जनता की भाषा हिंदी और लिपि नागरी है तो अदालतों में फारसी के साथ साथ नागरी के उपयोग की अनुमति भी दे दी गई।
इस स्थिति में गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा कहना शुरू कर दिया था। वो हर जगह इस आशय का भाषण भी देने लगे थे। दक्षिण के लोगों को भी हिंदी सीखने के लिए प्रेरित करने लगे थे। कब ये हिंदी प्रेम हिन्दुस्तानी प्रेम में बदल गया इसको ठीक ठीक चिन्हित करने में कठिऩाई है क्योंकि गांधी एक तरफ हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए काम कर रहे थे तो दूसरी तरफ हिन्दुस्तानी की वकालत करने में लग गए थे। 28 मार्च 1919 के तूतीकोरन में उन्होंने हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बताया था लेकिन 1920 या उससे थोड़ा पहले से गांधी के वक्तव्य गड्डमड्ड होने लगे थे। जब हिंदी को लेकर आंदोलन जोर पकड़ने लगा तब 1925 के कांग्रेस अधिवेशन में एक प्रस्ताव पास होता है कि पार्टी का सारा काम-काज, महासचिवों का काम सब आमतौर पर हिन्दुस्तानी में होगा। फिर 1935 में गांधी ने हिंदी और हिन्दुस्तानी पर अपना मत और स्पष्ट किया और बोले – हिंदी उस भाषा का नाम है जिसे हिंदू और मुसलमान कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्न के बोलते हैं। इसी में वो आगे कहते हैं कि हिन्दुस्तानी और उर्दू में कोई फर्क नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वो हिंदी और अरबी में लिखी जाने पर उर्दू कही जाती है। हरजिन सेवक के 1 फरवरी 1942 में वो फिर से भ्रम पैदा करते हैं जब अपने लेख में लिखते हैं कि हिंदी और उर्दू के मेल से एक ऐसी जबान तैयार करनी है जो सबके काम आ सके। गांधी धीरे धीरे इसको हिंदू-मुस्लिम एकता के औजार के तौर पर इस्तेमाल करने लगे। देश की एकता के लिए भाषा को राजनीति का औजार गांधी ने बनाया। पहले हिंदी की वकालत करके और फिर उसके बाद हिन्दुस्तानी की वकालत करके। 1915 से लेकर 1947 तक हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर उनके इतने भ्रमित करनेवाले बयान और लेख उपलब्ध हैं कि उससे किसी निषकर्ष पर पहुंचना बेहद मुश्किल काम है। 1945 तक तो गांधी हिन्दुस्तानी के इतने पक्ष में आ गए थे उनके सर्वमान्य नेता होने के बावजूद उनको साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। जयपुर के सम्मेलन के खुले अधिवेशन में गांधी के इस्तीफे को रखा गया। रात दो बजे तक इसपर मंथन हुआ और आखिर गांधी का इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया। सदस्यों ने भारी मन से गांधी के इस्तीफे को स्वीकार किया लेकिन इस बात के संकेत मिले कि भाषा के नाम पर वो गांधी से भी दूबर जाने को तैयार थे।
गांधी हिंदी को लेकर आग्रही थे, बहुत काम किया, बहुत लेख लिखे, भाषण दिए लेकिन इतना ही उन्होंने हिन्दुस्तानी के लिए भी किया। गांधी ये कहते भी थे किसी विषय पर अगर उनकी अलग अलग राय है तो उनकी बाद में प्रकट की गई राय ही अंतिम राय होगी। गांधी की हिंदी को लेकर क्या राय रही है इसपर गंभीर मंथन की जरूरत है। मंथन बगैर किसी पूर्वग्रह के, बगैर किसी राजनीति के और बगैर किसी धर्म और संप्रदाय के दबाव के।

Sunday, September 8, 2019

वेब सीरीज के नियमन पर हो मंथन


पिछले दिनों इस तरह की खबरें आई कि सरकार वेब सीरीज पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर विचार विमर्श शुरू करने जा रही है । खबरों के मुताबिक सरकार इस बात पर विचार कर रही है कि वेब सीरीज पर जो कुछ भी दिखाया जा रहा है उसको लेकर इस महीने से मंथन शुरू हो रहा है। पिछले दिनों सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड और फिल्म इंडस्ट्री के लोगों से मिले थे। उस बैठक में मंत्री ने भी इस बात की ओर इशारा किया था कि सरकार जल्द ही वेब पर दिखाई जानेवाली सीरीज और उसके कंटेंट को लेकर उससे जुड़े सभी लोगों से बातचीत करनेवाली है। दरअसल पिछले दिनों कई वेब सीरीज ऐसी आईं जिनमें भयानक हिंसा और अश्लील दृश्यों की भरमार दिखाई देती है। कहानी की मांग से इतर कई निर्माताओं ने जबरदस्ती हिंसा और यौनिक दृष्यों को पेश किया। माना गया कि ये सब लोकप्रियता हासिल करने के उद्देश्य से दिखाया गया। जब इस, तरह के कंटेंट की बहुतायत होने लगी तो उसपर लेख आदि लिखे जाने लगे। इस स्तंभ में भी कई बार इस ओर इशारा किया गया। अभी पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर एक वेब सीरीज का दूसरा सीजन दिखाया गया था। इस सीरीज का नाम है सेक्रेड गेम्स। इसमें कई संवाद ऐसे हैं जो साफ तौर पर इसके निर्देशक की सोच को दर्शाते हैं और समाज को बांटने जैसा है। जैसे एक जगह जब एक मुसलमान अभियुक्त से पुलिस पूछताछ के क्रम में कहती है कि उसको यूं ही नहीं उठाकर पूछताछ किया जा रहा है तो अभियुक्त कहता है कि इस देश में मुसलमानों को उठाने के लिए किसी वजह की जरूरत नहीं होती है। अब इस बात पर विचार किया जाना आवश्यक है कि इस सीरीजज क निर्माता और निर्देशक इस तरह के संवाद किसी पात्र के माध्यम से सामने रखकर क्या हासिल करना चाहते हैं। इस तरह के कई प्रसंग और संवाद इस सीरीज में है। इसके पहले सीजन में भी इस तरह के अनेक दृश्य और संवाद दिखाए गए थे। मुसलमानों के मन में देश की व्यवस्था के खिलाफ एक खास किस्म के गुस्से और नफरत का प्रकटीकरण नियमित तौर पर होता रहा है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब इसी तरह की एक वेब सीरीज आई थी लैला। इस पूरी सीरीज में हिंदू धर्म को लेकर जो भयावह तस्वीर पेश की गई थी। जिस तरह से हिंदू लड़कियों के मुसलमान लड़के से शादी करने के परिणामों की बेहद आऐपत्तिजनक तस्वीर पेश की गई थी वो निश्चित तौर पर समाज को बांटनेवाले या एक समुदाय के खिलाफ दूसरे समुदाय के मन में शंका के बीज बोने जैसा था। मुस्लिम लड़कों से शादी करनेवाली हिंदू लड़कियों के शुद्धिकरण को लेकर जिस तरह के संवाद और दृश्य पेश किए गए थे, उसको देखने के बाद स्वाभाविक तौर पर मन में यह प्रश्न उठते हैं कि इसके पीछे का एजेंडा क्या है। इसके पीछे एक खास तरह की विचारधारा का पोषण और एक दूसरी विचारधारा को पुष्ट करने की मंशा को रेखांकित किया जा सकता है। इस तरह की एजेंडा सीरीज की पहचान इसके निर्देशकों के नाम और उनके पूर्व के काम को देखकर साफ तौर पर किया जा सकता है।
इसी तरह से अगर हम देखें तो कई सीरीज में देश को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बदनाम करने की कोशिशें भी दिखाई देती हैं। एक सीरीज में तो यहां तक दिखा दिया गया है कि कश्मीर में भारतीय वायुसेना के विमान स्कूल पर बम गिराकर छात्रों को मार डालते हैं। ये कैसी क्लपनाशीलता है जिसमें एक देश की सेना को ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाए। एक और सीरीज में कश्मीर की जेल का चित्रण है जिसमें ये दिखाया जाता है कि वहां का जेलर एक पाकिस्तानी लड़की का जेल में ही रेप करता है। निर्माताओं को ये मालूम होना चाहिए कि भारतीय जेल में महिला कैदियों के साथ किसी तरह की यौनिक हिंसा करना कितना मुश्किल है। इस तरह के केंटेंट हमारे देश की संस्थाओं को ना केवल बदनाम करते हैं बल्कि उनके खिलाफ जनता के मन में नफरत और जहर भी भरते हैं। कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर इस तरह की छूट दी जानी चाहिए, इसपर विचार करना आवश्यक है।
समाज में नफरत के बीज बोने के अलावा सेक्रेड गेम्स में जिस तरह के अश्लील दृश्य और अप्राकृतिक यौनाचार दिखाई गए थे या दिखाए जा रहे हैं, उस तरह के दृश्यों के लिए क्या हमारा समाज तैयार है, इसपर भी गहरे मंथन और विचार विमर्श की जरूरत है। इसी तरह से लस्ट स्टोरीज में जिस तरह के यौन प्रसंगों को उभारा गया था उसको भी कलात्मक अभिव्यक्ति की श्रेणी में डालकर प्रश्न नहीं पूछना अनुचित होगा। क्या हमारा समाज पश्चिमी देशों की तरह इस बात के लिए तैयार है कि टॉपलेस नायिकाओं और रति प्रसंगों का सार्वजनिक प्रदर्शन हो। कई वेब प्लेटऑर्म तो ऐसे हैं जो अपने को हॉट और वाइल्ड एंड लस्टफुल कहकर प्रचारित भी करते हैं। सरकार को इसके नियमन के बारे में भी विचार करना चाहिए, क्योंकि फिल्मों और वेब सीरीज के लिए दोहरे मानदंड उचित नहीं है। फिल्मों में गाली हो तो उसको बीप करना होता है, बेव सीरीज पर गालियों की भरमार, फिल्मों में लंबे चुंबन दृष्यों पर कैंची और वेब सीरीज में रति प्रसंगों को फिल्माने की छूट। फिल्मों में विकृत हिंसा के दृष्यों को संपादित करने का नियम तो बेव सीरीज में हिंसा के जुगुप्साजनक दृष्यों की भरमार। अश्लील दृश्यों की भरमार वाले सीरीज दिखानेवाले ये तर्क देते हैं कि इंटरनेट पर तो कितने ही पोर्न साइट हैं जहां इस तरह की सामग्री मौजूद है तो जिनको इस तरह के दृष्य देखने होंगे वो वहां बहुत आसानी से देख सकते हैं। लेकिन इस तरह के तर्क देनेवालों को यह सोचना चाहिए कि इंटरनेट पर मौजूद पोर्न सामग्री और इस तरह के वैध प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध पोर्न को देखने में फर्क है। यहां कहानी की शक्ल में इसको पेश किया जाता है। दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि इन प्लेटफॉर्म पर जानेवाले लोग जानते हैं कि वो क्या करने जा रहे हैं. वो इनकी सदस्यता लेते हैं, शुल्क अदा करते हैं और उसके बाद वेब सीरीज देखते हैं। तो किसी को भी क्या सामग्री देखनी है ये चयन करने का अधिकार तो होना ही चाहिए। ठीक बात है कि हर किसी को अपनी रुचि की सामग्री देखने का अधिकार होना चाहिए लेकिन उन अपरिपक्व दिमाग वाले किशोरों का क्या जिनके हाथ में बड़ी संख्या में स्मार्टफोन भी है, उसमें इंटरनेट कनेक्शन भी है और इतने पैसे तो हैं कि वो इन ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म की सदस्यता ले सके। क्या हम या इन प्लेटफॉर्म पर सामग्री देनेवाली संस्थाएं ये चाहती हैं कि हमारे देश के किशोर मन को अपरिपक्वता की स्थिति से ही इस तरह से मोड दिया जाए कि आगे चलकर इस तररह की सामग्री को देखनेवाला एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग तैयार हो सके। इसके अलावा जो एक और खतरनाक बात यहां दिखाई देती है वो ये कि इन प्लेटफॉर्म्स पर कई तरह के विदेशी सीरीज भी उपलब्ध हैं जहां पूर्ण नग्नता परोसी जाती है। ऐसी हिंसा दिखाई जाती है जिसमें मानव शरीर को काटकर उसकी अंतड़ियां निकाल कर प्रदर्शित की जाती हैं। जिस कंटेंट को भारतीय सिनेमाघरों में नहीं दिखाया जा सकता है उस तरह के कंटेंट वहां आसानी से उपलब्ध हैं। चूंकि वेब सीरीज के लिए किसी तरह का कोई नियमन नहीं है लिहाजा वहां बहुत स्वतंत्र नग्नता और अपनी राजनीति चमकाने या अपनी राजनीति को पुष्ट करनेवाली विचारधारा को दिखाने का अवसर उपलब्ध है। इस तरह की सामग्री को जब लगातार दिखाया जाता है तो कहीं न कहीं से इसके निमयन को लेकर बात शुरू होती है।
फिछले दिनों इस तरह की वेब सीरीज दिखानेवाले कई प्लेटफॉर्म्स ने स्व नियमन करने की कोशिश की लेकिन सभी के बीच सहमति नहीं बन पाने से यह बहुत प्रभानी नहीं हो पाया है। किसी भी कंटेंट पर सेंसरशिप अंतिम कदम होना चाहिए उसके पहले सभी तरह के विकल्पों पर विचार करना होगा। क्या इस तरह की कोई ऐसी स्वयत्त संस्था बन सकती है जो इन वेब सीरीज पर दिखाए जानेवाले कंटेंट की शिकायत मिलने पर विचार करे और उसपर फैसला ले लेकिन इस संस्था को इतना अधिकार होना चाहिए कि उसके फैसले का सम्मान हो और उसको लागू करवाने के लिए उसके पास वैध अधिकार हों। अगर इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो इंटरनेट की इस दुनिया में अराजकता और बढ़ेगी और फिर उसको काबू करने के लिए बेहद कठोर कदम उठाने होंगे जो बेवजह विवाद को जन्म दे सकते हैं।