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Saturday, October 28, 2023

मनोरंजन का कारोबार या एजेंडा सेटिंग


कुछ दिनों पूर्व दो वेबसीरीज आई जिसको लेकर काफी चर्चा रही। एक है बंबई मेरी जान और दूसरी है मुंबई डायरीज सीजन टू। दोनों वेबसीरीज मुंबई शहर की पृष्ठभूमि पर आधारित है। बंबई मेरी जान में 1960 के दशक में उस शहर के अपराध की दुनिया को दिखाया गया है। उस दौर में हाजी मस्तान से लेकर दाऊद इब्राहम, हसीना पार्कर, वरदराजन मुदलियार, करीम लाला जैसे गैंगस्टरों की कारस्तानियों और बांबे (अब मुंबई) पर कब्जे की लड़ाई को चित्रित किया गया है। मुंबई डायरीज के दूसरे संस्करण में मायानगरी में आई 2006 में आई भयानक बाढ के दौरान अस्पताल में डाक्टरों की कठिन जिंदगी को दिखाया गया है। इस सीरीज में न्यूज चैनलों के कामकाज पर भी कटाक्ष किया गया है। इस आलेख का मंतव्य सीरीज की समीक्षा नहीं बल्कि इनके माध्यम से दिए जानेवाले परोक्ष संदेश को रेखांकित करना है। मनोरंजन के माध्यमों का उपयोग करके किसी व्यक्तित्व, घटना या विचारधारा को पुष्ट किया जाता है, वो यहां स्पष्ट दृष्टिगोटर होता है। पहले बात करते हैं बंबई मेरी जान की। इस वेब सीरीज को रीतेश सिधवानी और फरहान अख्तर ने प्रोड्यूस किया है। दस एपिसोड का ये सीरीज एस हुसैन जैदी की पुस्तक डोंगरी टू दुबई, सिक्स डीकेड्स आफ द मुंबई माफिया पर आधारित है। इस सीरीज में विस्तार से हाजी मस्तान के आपराधिक साम्राज्य, उसकी कार्यशैली और फिर दाऊद इब्राहिम के अपराध की दुनिया में आने और छा जाने की परिस्थितियों को दिखाया गया है।

बंबई मेरी जान में के के मेनन ने दाऊद इब्राहिम के पिता इब्राहिम कासकर की भूमिका निभाई है। इस्लाइल कादरी नाम का ये शख्स पुलिस में होता है और उसको हाजी मस्तान, करीम लाला और वरदराजन मुदलियार के आपराधिक सांठगांठ को तोड़ने का काम सौंपा गया है। उसको एक बेहद ईमानदार पुलिस अधिकारी के तौर पर दिखाया गया है जो विषम परिस्थितियों में भी टूटने को तैयार नहीं होता है। नौकरी चली जाती है, गरीबी में पूरा परिवार बिखरने लगता है, बच्चे की पढ़ाई छूट जाती है, त्योहार पर घर में खाने या पकवान के लिए पैसे नहीं होते हैं। ऐसे माहौल में उसका बेटा दारा, जिसका चरित्र दाऊद इब्राइम पर आधारित है, बकरीद के मौके पर पहला अपराध करता है और बकरा चोरी करता है। यहां विचार करने योग्य बात ये है कि इस चोरी में भी मजहब को डालना क्यों जरूरी था। बकरीद के मौके पर बेचारे बच्चे को कुर्बानी देनी है, मांस खाना है इसलिए वो चोरी करता है। ऐसी परिस्थिति बना दी गई है कि दर्शकों को उसके अपराध के पीछे उसकी बेचारगी नजर आती है। जैसे जैसे दारा का चरित्र आगे बढ़ता है उसके अपराध को अन्य परिस्थितियों से जोड़ दिया जाता है। जब भी उसका पिता उसको अपराध के बाद किसी प्रकार का नसीहत देना चाहता है तो वो अपने पिता को उसकी बेचारगी और परिवार की बदहाली का ताना देकर अपने कुकर्मों को जस्टिफाई करता है। हाजी मस्तान जब इस्माइल कादरी के घर आता है। बच्चों को तोहफा देकर जाने लगता है तो कादरी विरोध करता है लेकिन उसकी पत्नी बच्चों की भूख का हवाला देकर उसके विरोध को कुंद कर देती है। 

पूरी कहानी इस तरह से बुनी गई है कि दाऊद जैसे अपराधी को लेकर दया का भाव उभरता है। उसको अच्छे बाप का बुरा बेटा दिखाया जाता है। चरित्र भले ही बुरा हो लेकिन बुराई में नायकत्व को उभारा गया है। वो हफ्ता भी वसूलता है तो मस्जिद के मरम्मत के नाम पर। एक बार फिर अपराध को जस्टिफाई करने के लिए मजहब की आड़ ली जाती है। कहीं भी कहानी में कहानीकार या सीरीज में निर्देशक ने उसके नायकत्व को गढ़ने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। ऐसा नायक जिसके परिवार के पीछे दूसरे गैंगस्टर पड़े हैं, उसके परिवार पर अस्पताल में हमला होता है। परिवार की जान बचाने के लिए एक भाई गोली खाकर जख्मी होता है तो बहन गोली चलाने को मजबूर हो जाती है। यहां ऐसा माहौल बनाया गया है जैसे आत्मरक्षा में हत्या की जा रही हो। अपराधी  मनोरंजन की आड़ में छवि निर्माण की कोशिश या खूंखार छवि को अपेक्षाकृत माइल्ड करने का प्रयास दिखता है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि कैसे वेब सीरीज निर्माताओं, निर्देशकों और कहानीकारों के एजेंडा का संवाहक बनता जा रहा है। वेबसरीज को लेकर जिस भी प्रकार का स्वनियमन हो लेकिन उसका प्रभाव कहीं दिखता नहीं है। फिक्शन की आड़ में कई तरह के खेल होते नजर आते हैं।

बंबई मेरी जान की तुलना में मुंबई डायरीज का दूसरा सीजन बेहतर है। इसमें न्यूज चैनल की एक एंकर को अपने शो की रेटिंग बढ़ाने के लिए शहीद की पत्नी की भावनाओं से खेलते हुए दिखाया गया है। ये घटना काल्पनिक हो सकती है लेकिन पीड़ितों को स्टूडियो में बैठाकर उनके आरोपों को प्रसारित होते तो हमारे देश ने देखा है। जब दिल्ली में निर्भया कांड हुआ तो पीड़ित लड़की के साथ बस में उसका जो दोस्त था उसको टीवी स्टूडियो में बिठाने की होड़ लगी थी। न्यूज चैनलों में जिस प्रकार का मीडिया ट्रायल होता है उसका चित्रण मुंबई डायरीज में है। डाक्टर किन परिस्थितयों में काम कर रहे होते हैं उसको जाने बगैर उनपर आरोपों की बौछार करना। असाधारण परिस्थिति में उनसे सामान्य परिस्थितियों की तरह व्यवहार की अपेक्षा कर दोषी ठहरा देने की प्रवृत्ति पर भी प्रहार किया गया है। लेकिन इस वेब सीरीज में भी यथार्थ चित्रण के नाम पर जिस तरह के दृष्य दिखाए गए हैं वो इस सैक्टर में नियमन या प्रमाणन की आवश्यकता को पुष्ट करते हैं। बाढ में फंसी गर्भवती महिला की स्थिति जब बिगड़ती है तो उसकी शल्यक्रिया का पूरा दृष्य दिखाना जुगुप्साजनक है। कैमरे पर आपरेशन के दौरान पेट को चीरने का दृश्य, खून से लथपथ बच्चे को माता के उदर से बाहर निकालने आदि से बचा जा सकता था। कोई भी संवेदनशील दर्शक ऐसे दृश्यों को नहीं देखना चाहता है। इस तरह के दृश्यों को दिखाकर निर्माता निर्देशक पता नहीं क्या हासिल करना चाहते हैं। 

ओवर द टाप (ओटीटी) पर एक फिल्म आई खुफिया उसमें एक संवाद है, जबतक दुनिया देश और धर्म में बंटी है तब तक खूनखराबा होता रहेगा।इस संवाद में भी एक एजेंडा है जहां परोक्ष रूप से राष्ट्र की अवधारणा का निषेध किया जा रहा है। एक विचारधारा विशेष में वर्षों से देशों की भौगोलिक सीमाओं को खत्म करने की पैरोकारी करता रहा है। उनका मानना है कि इससे युद्ध से लेकर समुदायों के बीच की घृणा समाप्त होगी। यहां तक तो ठीक है लेकिन जब उसको धर्म से जोड़ दिया जाता है तो मंशा स्पष्ट होने लगती है। प्रमाणन के बावजूद इस तरह के संवाद फिल्मों में दिख जाते हैं, पता नहीं क्यों और कैसे। फिल्म ब्रह्मास्त्र में मंदिरों के शहरों की बात होती है तो एक संवाद आता है, इस शहर में हर कोई कुछ न कुछ छुपाने आता है, कोई अपनी परछाईं छुपाता है तो कोई अपने पाप। आखिर धर्म से बड़ा मुखौटा और क्या हो सकता है। यहां जिस तरह से मंदिर, धर्म और मुखौटा का प्रयोग किया गया है उससे निर्माता निर्देशक की मंशा साफ हो जाती है। प्रमाणन वाली फिल्मों में इस तरह के संवाद अपेक्षाकृत कम होते है लेकिन ओटीटी पर प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों में और वेब सीरीज में तो ये आम है। ओटीटी इंडस्ट्री के स्वनियमन का असर नहीं दिख रहा है, सरकार को इस दिशा में कदम उठाना चाहिए। ओटीटी प्लेटफार्म्स को काफी अवसर दिए गए लेकिन वहां की अराजकता जस की तस है।   

  


Saturday, October 21, 2023

हिंदी फिल्मों के अच्छे दिन


हम आपके लिए सितारे लेकर आते हैं और आप उनमें चमक भरते हैं। कुछ दिनों पहले सिनेमा हाल के कारोबार की कंपनी पीवीआऱ आईनाक्स ने अपने विज्ञापन में ये भी बताया कि इस वर्ष जुलाई- सितंबर की तिमाही में उसके सिनेमाघरों में चार करोड़ अस्सी लाख दर्शक पहुंचे। । पीवीआर के पास देशभर के 115 शहरों में 1702 स्क्रीन हैं। इस विज्ञापन को देखकर मस्तिष्क में एक बात कौंधी कि अगर तीन महीने में पीवीआर के मल्टीप्लेक्सों में करीब पांच करोड़ दर्शक फिल्म देखने पहुंचे तो अगर इसमें सिंगल थिएटर और अन्य मल्टीप्लेक्स शृंखलाओं के दर्शकों को जोड़ दिया जाए तो आंकड़े कहीं और ऊपर चले जाएंगे। देशभर में सिंगल थिएटरों की संख्या में निरंतर कमी आ रही है। फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकडों के मुताबिक देशभर में सिंगल थिएटर 10167 हैं। अगर इन आंकड़ों में कमी भी आई होगी तो छह से सात हजार तक सिंगल थिएटर तो देश में हैं हीं। पीवीआर के आंकड़े संकेत कर रहे हैं कि सिनेमा का दर्शक एक बार फिर से सिनेमाघरों की ओर लौट रहा है। पीवीआर के इन आंकड़ों को देखने के बाद सिनेमाप्रेमी होने के कारण मन में संतोष हुआ लेकिन ये जिज्ञासा भी हुई कि देखा जाए कि किन फिल्मों ने ये चमत्कार किया। खिन फिल्मों के कारण जुलाई-सितंबर की तिमाही में बाक्स आफिस पर खुशी का वातावरण देखने को मिल रहा है। 

जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान मुंबई में फिल्मकारों से चर्चा हो रही थी। पटकथा लेखक हैदर रिजवी ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी। उन्होंने बताया था कि अब मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में लोगों के चेहरे खिले हुए हैं। लोगों का विश्वास वापस लौटता दिख रहा है। उस समय ये बात आई गई हो गई। अब सोचता हूं तो ऐसा लगता है कि इस बात में कई संकेत छिपे हुए थे। फिल्मों से जुड़े लोगों का विश्वास वापस लौटना और उनके चेहरे के खिलने का सीधा संबंध सिनेमाघरों में दर्शकों की वापसी और मुनाफा से जुड़ा हुआ है। पिछले दिनों ओरमैक्स मीडिया की सिंतबर की बाक्स आफिस रिपोर्ट आई थी। ओरमैक्स मीडिया हर महीने के तीसरे सप्ताह में पिछले महीने की बाक्स आफिस रिपोर्ट जारी करती है जिसमें फिल्मों के कारोबार की जानकारी होती है। ओरमैक्स मीडिया की रिपोर्ट पर फिल्म इंडस्ट्री और उससे जुड़े लोगों का विश्वास है। ऐसा माना और कहा जाता है। सिंतबर की भारत की बाक्स आफिस रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। सितंबर 2023 में प्रदर्शित फिल्मों ने घरेलू बाक्स आफिस पर 1353 करोड़ रुपए का कारोबार किया है। इस वर्ष प्रदर्शित फिल्मों के आंकड़ों पर नजर डालें तो फिल्म के कारोबार की तस्वीर बेहद अच्छी नजर आती है। इस वर्ष अबतक फिल्मों ने 8798 करोड़ रुपए का कारोबार किया है जो पिछले वर्ष से छह प्रतिशत अधिक है। 

दरअसल कोरोना महामारी के दौरान सिनेमाघरों से दर्शक दूर हो गए थे और कई बड़े बजट की फिल्में भी बाक्स आफिस पर अच्छा नहीं कर पाई थीं। इस वर्ष का आरंभ भी काफी अच्छा रहा था। उसके बाद के महीनों में भी प्रदर्शित गदर-2, पठान और जवान ने बाक्स आफिस पर बंपर कमाई की। इन तीनों फिल्मों ने अलग अलग 600 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार किया है। अब भी इनको दर्शक मिल रहे हैं। 66 वर्ष के अभिनेता सनी देओल ने जब लंबे अंतराल के बाद फिल्मों में वापसी की तो गदर 2 में उनका जादू सर चढ़कर बोला। इस फिल्म की सफलता का अनुमान फिल्मों से जुड़े लोग भी नहीं लगा पाए थे। इसी तरह 57 वर्ष के अभिनेता शाह रुख खान को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया। उनकी फिल्म पठान 646 करोड़ रुपए तो फिल्म जवान ने 733 करोड़ रुपए का कारोबार किया। इन अधेड़ उम्र के अभिनेताओं के साथ साथ तमिल फिल्मों के सुपर स्टार 72 वर्षीय के रजनीकांत की फिल्म जेलर ने भी भारत में करीब चार सौ करोड़ रुपए का कारोबार करके ये साबित किया कि दक्षिण भारतीय फिल्मों के बास का जलवा अब भी कायम है। इन सबके बीच एक फिल्म आई ओएमजी-2 । इसमें पंकज त्रिपाठी, यामी गौतम के अलावा अक्षय कुमार भी संक्षिप्त भूमिका में हैं। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से काफी दिक्कतों के बाद पास हुई इस फिल्म ने भी भारत में 200 करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया। इस फिल्म के निर्देशक अमित राय की जमकर प्रशंसा हुई। फिल्म से जुड़े लोगों का मानना है कि अगर फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इस फिल्म को वयस्क फिल्म (ए सर्टिफिकेट) की बजाए यूनिवर्सल (यू) प्रमाण पत्र दिया तो इसका कारोबार और भी बेहतर हो सकता था। इस फिल्म ने न केवल अच्छा कारोबार किया बल्कि अक्षय कुमार को लगातार पांच फिल्मों की असफलता के बाद सफलता का स्वाद भी चखाया। तमाम विवादों के बीच भी फिल्म आदिपुरुष ने 331 करोड़ रुपए का और द केरला स्टोरी ने ढाई सौ करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार किया। इन फिल्मों ने दर्शकों को सिनेमाघरों में लौटाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। फिल्मों की इस सफलता में हिंदी फिल्मों की हिस्सेदारी 42 प्रतिशत है जबकि तमिल और तेलुगु फिल्मों की हिस्सेदारी सोलह सत्रह प्रतिशत के करीब है। 

कोरोना महामारी के समय भी और उसके बाद भी फिल्मों को लेकर कई फिल्मी पंडित सशंकित हो गए थे। उनको लगने लगा था कि हिंदी फिल्मों का बाजार खत्म हो गया है। पिछले वर्ष उन्होंने ये भवियवाणी तक कर दी थी कि अब दक्षिण भारतीय फिल्में ही चलेंगी। उस समय भी कार्तिक आर्यन की फिल्म भूल भुलैया-2 ने उम्मीद जगाए रखी थी और ढाई सौ करोड़ रुए से अधिक का कारोबार किया था। अजय देवगन और तब्बू की फिल्म दृश्यम 2 ने और भी अच्छा बिजनेस किया था। उस फिल्म ने बाक्स आफिस पर तीन सौ करोड़ रुपए के करीब अर्जित किया था। इन सभी सफल फिल्मों पर नजर डालें तो इनमें से कई पुरानी फार्मूला वाली फिल्में हैं। जिसमें जबरदस्त एक्शन है, रोमांस है और ऐसे संवाद हैं तो दर्शकों को पसंद आते हैं। लगता है कि दर्शकों को हल्का फुल्का मनोरंजन पसंद आ रहा है। द केरला स्टोरी और ओएमजी 2 में कहानी अलग हटकर है। द केरला स्टोरी और ओएमजी 2 दोनों में यथार्थ बहुत मजबूती के साथ उपस्थित है। अच्छी कहानी और अच्छा मनोरंजन दोनों दर्शकों को पसंद आ रहे हैं। आनेवाले दिनों में सलमान खान की फिल्म टाइगर 3, शाह रुख खान की डंकी और प्रभास की सालार आनेवाली है, जिसको लेकर दर्शकों के बीच उत्सुकता है। अगर इन तीनों फिल्मों ने बहुत अच्छा कारोबार किया तो ये वर्ष भारतीय फिल्मों के लिए बहुत अच्छा वर्ष साबित होगा। फिल्मों के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती है दर्शकों को सिनेमाघरों की तरफ निरंतर आकर्षित करते रहने की। इसके लिए फिल्मों के टिकटों की दरें कम करनी चाहिए। कई बार सिनेमाघर इस तरह के प्रयोग कर भी रहे हैं। जब वहां किसी विशेष दिन टिकटों की दर सौ रुपए के करीब रखा जाता है तो उस दिन दर्शकों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक रहती हैं। सिनेमाघरों में टिकटों के मूल्य के साथ साथ वहां मिलनेवाले खाद्य सामग्रियों और पेयजल के मूल्य पर भी ध्यान देना चाहिए और दर्शकों को उचित मूल्य पर उपलब्ध होना चाहिए। एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति अपने परिवार के साथ फिल्म देखने जाता है तो टिकट और इंटरवल में पापकार्न और चाय काफी के लिए उसे दो हजार रुपए तक खर्च करने पड़ते हैं। ऐसे में वो सोचता है कि एक दो महीने बाद फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म पर आ ही जाएगी, तब देख लेंगे। इस धारणा को कमजोर करना होगा ताकि फिल्मों के प्रति दर्शकों का प्रेम बना रहे।   

Saturday, October 14, 2023

आतंक का हथियार यौनिक हिंसा


इजरायल पर हमास के आतंकवादी हमले के दौरान पूरी दुनिया ने देखा कि किस तरह से आतंकवादियों ने एक इजरायली महिला के साथ क्रूर बर्ताव किया। किस तरह से मजहबी नारे लगाकर महिलाओं को निर्वस्त्र करके गाड़ी में बंधक बना कर उनके शरीर के साथ खिलवाड़ किया गया। किस तरह से महिलाओं को घरों से पकड़कर गाड़ियों में जबरन ठूंस कर अज्ञात स्थान पर ले गए। किस तरह से महिलाओं की गोद से उनके बच्चों को छीनकर या तो गोली मार दी गई या फिर उनको काट डाला गया। किस तरह से उनको बंधक बनाकर मनमानी की जा रही है। आतंकी हमले में महिलाओं के साथ जिस तरह का अमानवीय और क्रूर व्यवहार किया गया उससे सभ्य वैश्विक समाज की ओर बढ़ रही दुनिया के सामने एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया। इजरायल पर इतने बड़े आतंकी हमलों के कारणों पर चर्चा करनेवाले अधिकर विशेषज्ञों को महिलाओं के इस भयानक दर्द का अनुमान नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है। इनमें से अधिकतर विशेषज्ञ भौगोलिक और राजनीतिक कारणों की पड़ताल और उसके विश्लेषण में जुटे हैं। विशेषज्ञों के लंबे लंबे वक्तव्यों और राजनियक दांव पेंच को समझाने के प्रयासों में भी कहीं महिलाओं का ये दर्द दिखता नहीं है। अगर कोई इसकी चर्चा करता है तो बस एक दो पंक्तियों में । अपने देश में तो कुछ लोग हमास की आतंकी वारदात पर बोलने से भी कतरा रहे हैं। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी ने अपनी कार्यसमिति की बैठक के बाद जो प्रस्ताव पास किया उसमें हमास और आतंकी वारदात का उल्लेख तक नहीं किया। महिलाओं के दुख और दर्द की बात तो बहुत दूर प्रतीत होती है। कई विशेषज्ञ तो हमास के आतंकी कारनामे को ऐसिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न कर रहे हैं। इजरायल और फिलस्तीन में हो रहे बम धमाकों के बीच महिलाओं की चीखें दब गई हैं। 

ऐसे समय में याद आता है तीन वर्ष पहले प्रकाशित ब्रिटिश पत्रकार और लेखक क्रिस्टीना लैंब की पुस्तक ‘आवर बाडीज देयर बैटलफील्ड, व्हाट वार डज टू वूमन’। अपनी इस पुस्तक में क्रस्टीना लैंब ने विस्तार से केस स्टडीज के साथ बताया है कि किस तरह से युद्ध के दौरान बलात्कार को हथियार के तौर पर उपयोग में लाया जाता है। लैंब का कहना है कि बलात्कार युद्ध का सबसे सस्ता हथियार है जिसका उपयोग पुरुष करते हैं। इस हथियार से युद्ध के दौरान परिवारों को तबाह कर दिया जाता है। पूरे इलाके को आतंक के साये में जीने को मजबूर किया जा सकता है। इस हथियार से पीढियों को तबाह किया जा सकता है। इस पुस्तक में लेखिका ने प्रथम विश्व युद्ध से लेकर हाल के दिनों के युद्धों औपर हिंसाग्रस्त क्षेत्रों का विश्लेषण किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन के वर्ष 1863 में जारी किए गए उस कोड की चर्चा भी करती हैं जो अमेरिका के सिविल वार के समय सैनिकों को रेप से रोकता है। प्रथम विश्व युद्ध के समय तुर्की (अब तुर्किए) के सैनिकों ने आर्मेनिया में जो नरसंहार किया था तब भी बलात्कार और यौनिक हिंसा पर गहन विचार किया गया था। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी यौन हिंसा में किसी प्रकार की कमी देखने को नहीं मिली थी। उस दौरान भी दोनों पक्षों पर महिलाओं के दौहिक शोषण के आरोप लगे थे। युद्ध अपराधियों के विरुद्ध विशेष अंतराष्ट्रीय अदालतों में सुनवाई भी हुई थीं लेकिन वहां भी रेप के किसी आरोपी को सजा नहीं हो सकी थी। सजा तो बहुत दूर की बात किसी भी कोने से स्टालिन के सैनिकों का सैकड़ों जर्मन महिलाओं से बलात्कार पर बात भी नहीं हुई। इस मसले पर उस समय भी खामोशी ओढ़ ली गई थी। स्पेन की महिलाओं से बलात्कार और उनके वक्ष काटने की दर्दनाक वारदात पर भी किसी तरह की बात ना होना अब भी मानवता के सामने एक बड़ा प्रश्न है। दरअसल तब युद्ध के दौरान बलात्कार को उस वक्त के राजनेता अपराध नहीं मानकर युद्ध का एक हिस्सा मानते थे। 

1949 में जब जेनेवा कंन्वेशन हुआ तो उसकी धारा 27 में ये स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया कि युद्ध के दौरान महिलाओं की मर्यादा की विशेष रूप से रक्षा की जाएगी, बलात्कार और वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर नहीं किया जा सकेगा। इस समय से लेकर इसपर चर्चा तो होती रही लेकिन किसी प्रकार से इसको रोका नहीं जा सका। 19 जून 2008 को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने एक निर्णय लिया जिसके अनुसार बलात्कार और अन्य प्रकार की यौनिक हिंसा को युद्ध अपराध और मानवता के विरुद्ध अपराध माना जाएगा। इसके एक वर्ष बाद हिंसाग्रस्त क्षेत्र में यौनिक हिंसा को लेकर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के प्रतिनिधि की नियुक्ति की गई। उसके बाद भी विश्व के कई देशों में हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ यौनिक अपराध में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आई।  बोस्निया से लेकर रवांडा और इराक से लेकर नाइजीरिया तक के हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ जिस तरह की वारदातें आतंकी संगठनों ने की उसपर अंतराष्ट्रीय संगठनों का ध्यान तो गया लेकिन उसको रोकने के लिए किसी प्रकार का कारगर कदम नहीं उठाया गया। अब भी ये कहा जाता है कि युद्ध के दौरान क्लाश्निकोव बंदूक से ज्यादा असरकारी बलात्कार होता है। बोको हरम से लेकर इस्लामिक स्टेट (आईएस) के आतंकी हिंसक वारदातों के दौरान महिलाओं को निशाना बनाते हैं। इस प्रकार की कई कहानियां कई जगहों से सामने आई जिसमें आईएस के आतंकी किसी परिवार को बंधक बनाते हैं तो पहले उस परिवार के पुरुषों और महिलाओं को अलग करते हैं। पुरुषों को या तो मार डालते हैं या उनको छोड़कर महिलाओं को बंधक बनाकर अपने कैंप्स में ले आते हैं। वहां महिलाओं को यौन गुलामों की तरह से रखा जाता है और उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। कई बार तो आतंकी गुट बंधक बनाई गई महिलाओं को दूसरे आतंकी गुट को बेच भी देते हैं। बंधक बनाई गई महिलाओं को ऐसी जगहों में रखा जाता है जो नरक से भी खराब स्थिति में होते हैं। उनको भूखा रखा जाता है, पानी नहीं दिया जाता है, चारों ओर पसीने और मलमूत्र का दुर्गंध होता है। इस तरह की नारकीय जीवन में भायनक यातनाएं भी दी जाती हैं। 

इजरायल में जिन यहूदी महिलाओं को हमास के आतंकवादियों ने बंधक बना लिया है उनके साथ किस तरह का बर्ताव हो रहा होगा ये तो उनमें से एक दो महिलाओं के आजाद होने के बाद ही पता चल सकेगा। लेकिन इन आतंकवादी संगठनों का जो इतिहास रहा है उसको देखते हुए इस बात की कल्पना की जा सकती है किस तरह की नारकीय यातना ये इजरायली महिलाओं को गुजरना पड़ रहा होगा। इजरायल ने गाजा पट्टी पर हमला आरंभ कर दिया है। बहुत संभव है कि वो अपने क्षेत्र से आतंकवादियों का खात्मा भी कर देगा लेकिन जो नारकीय यातनाएं बंधक बनाई गई यहूदी  महिलाओं ने झेली हैं उसका बदला न तो लिया जा सकता है और ना ही उस दर्द और यातना को कम किया जा सकता है। आज पूरे विश्व को ये सोचना होगा कि जो आतंकवादी मानवता के दुश्मन हैं या जो संगठन हिंसा को हर समस्या का हल मानते हैं उनको किस तरह से काबू में किया जाए। इतना ही आवश्यक है कि इन हिंसक वारदातों के दौरान अगर महिलाओं के खिलाफ वारदात सामने आते हैं तो उसके लिए भी असाधारण सजा का प्रविधान किया जाए। पूरी दुनिया को इसमें एकजुट होना होगा अन्यथा मानवता का ये कलंक कभी खत्म नहीं हो पाएगा। 


Sunday, October 8, 2023

साहित्य के इतिहास का ओझल पक्ष


बुधवार को एक साहित्यिक गोष्ठी में जाने का अवसर मिला। ये गोष्ठी हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जन्मतिथि पर आयोजित की गई थी। गोष्ठी में मंचासीन अधिकतर वक्ता विश्वविद्यालयों के शिक्षक थे। कार्यक्रम दो घंटे तक चला और सभी वक्ताओं ने आचार्य शुक्ल को हिंदी साहित्य का पहला व्यवस्थित और प्रमाणिक इतिहास लिखने के लिए याद किया। एक वक्ता ने आचार्य शुक्ल को नामवर सिंह के हवाले से उनको हिंदी नवजागरण से जोड़ते हुए उनके योगदान को रेखांकित किया। गोष्ठी का नियत समय दो घंटे था लेकिन समय अधिक लग गया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद घर वापस लौटते हुए गोष्ठी में हुई चर्चा को याद कर रहा था। वहां आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लेखकीय व्यक्तित्व के अपेक्षाकृत अधिक ज्ञात पक्षों पर चर्चा हुई। अपने समय की राजनीति पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी और अंग्रेजी में जो टिप्पणियां की थीं उसका किसी वक्ता ने उल्लेख नहीं किया। शुक्ल जी ने अपने लेखों में इतिहास पर लिखा, धर्म पर विचार किया, विज्ञान पर चर्चा की। अंग्रेजी में जो लेख उन्होंने लिखे उसमें कई जटिल विषयों पर अपने विचार जनता के समक्ष प्रस्तुत किए। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के संबंधों पर लिखा। जाति व्यवस्था से लेकर धर्म के विकास पर विस्तार से लिखा। गांधी के असहयोग आंदोलन की आलोचना की आदि। उन्होंने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद में विभेद करते हुए अंग्रेजों को साम्राज्यावादी करार दिया था। 

आज इतिहास के पुर्नलेखन को लेकर बहुत चर्चा होती है। पक्ष विपक्ष में अनेक प्रकार के तर्क दिए जाते हैं। मौजूदा सरकार पर कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी आरोप लगाते हैं कि वो इतिहास बदलने की कोशिश कर रही है। इतिहास के पुनर्लेखन का अर्थ ये नहीं है कि इतिहास की घटनाओं को बदल दिया जाएगा। पुनर्लेखन का अर्थ है कि इतिहास लेखन को संतुलित और समग्र किया जाए। आचार्य शुक्ल के संबंध में जो लेखन हुआ या उनके लिखे पर बाद में जो विचार हुआ उसमें उनके व्यक्तित्व के कई आयामों को छोड़ दिया गया। जहां उन्होंने कांग्रेस की आलोचना की, जहां उन्होंने गांधी के कदमों को प्रश्नांकित किया उसको ओझल करने का प्रयास किया है। इस तरह का व्यवहार सिर्फ आचार्य शुक्ल के साथ ही नहीं किया बल्कि उन सभी लोगों के साथ किया गया जिन्होंने कांग्रेस की, गांधी की आलोचना की। उन सभी विचारों को बौद्धिक जगत की परिधि पर पहुंचाया गया ताकि उनपर कम से कम चर्चा हो सके। शुक्ल जी के राजनीतिक लेखों को आगे न बढ़ाकर उनको साहित्य के इतिहासकार और निबंधकार के रूप में रिड्यूस करने का खेल भी खेला गया। इसको लेकर एक जमाने में प्रगतिशील माने जाने वाले नामवर सिंह को भी कहना पड़ा कि हिंदी के लेखकों को बार-बार ये पढ़ाने और समझाने की कोशिश की जाती है कि यदि इंडियन नेशनल कांग्रेस न होती तो राष्ट्रीय चेतना हिंदी लेखकों में आई ही न होती। स्वाधीनता संग्राम का इतिहास सचमुच नए सिरे से लिखा जाना चाहिए और देखना चाहिए कि स्वाधीनता संग्राम में रोष्ट्रीय चेतना और स्वाधीनता की चेतना के विकास में देशी भाषाओं के लेखकों और साधारण जनता की क्या भूमिका है, उनकी अपेक्षा, जो अंग्रेजी माध्यम से इन तमाम चीजों का प्रचार किया करते थे। 1928 में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा था, कांग्रेस वर्ष में किसी एक दिन कहीं किसी बड़ी सभा में एकत्र होकर प्रस्ताव पास किया करती थी और स्वाधीनता की मांग याचना से आगे नहीं बढ़ती थी। 

जब उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को लेकर बहस चल रही थी तो 1907 में ही आचार्य शुक्ल ने द हिन्दुस्तान रिव्यू में एक लेख लिखकर स्पष्ट किया था कि साम्राज्यावद ही भारत में ब्रिटिश राज की नीति की प्रेरक शक्ति रही है। नामवर सिंह ने माना था कि आच्राय शुक्ल ही पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने साम्राज्यावाद पर अंगुली रखी। उनके अनुसार इसके पहले किसी ने अंग्रेज भारतीय शासकों को इतने स्पष्ट शब्दों में साम्राज्यवादी नहीं कहा था। तब नामवर सिंह ने इस बात की अपेक्षा जताई थी कि विश्वविद्यालयों में इसपर शोध होना चाहिए। नामवर सिंह ये बातें तो कहते रहे लेकिन उन्होंने शुक्ल जी पर इस तरह का कोई शोध करवाया हो ये ज्ञात नहीं है। स्वाधीनता आंदोलन में रत कांग्रेस पार्टी को भी उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को समझने में काफी समय लगा। इसी कारण से कांग्रेस को स्वराज्य और स्वाधीनता का स्वरूप तय करके उसके बारे में मत बनाने में भी समय लगा। लाहौर अधिवेशन में आकर कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य की मांग की। आचार्य शुक्ल का एक और महत्वपूर्ण राजनीतिक लेख है जो उन्होंने असहयोग आंदोलन के समय लिखा था। आचार्य शुक्ल ने तब कहा था कि असहयोग आंदोलन देश के पूंजीपतियों का पक्षधर है। इस आंदोलन से पूंजीपतियों का हित हो रहा है। पश्चिम के राष्ट्र अपने को जिससे मुक्त करना चाह रहे हैं उसी पूंजीवाद की ओर यह बढ़ता कदम है। यह पूंजी बटोरने और समाज में व्यक्तिवादी जीवन मूल्यों के क्षुद्र अमेरिकी मानदंड स्थापित करने का प्रयास भर है। अगर 1907 में लिखे आचार्य शुक्ल के लेख और असहोयग आंदोलन पर लिखे उनके लेख को देखें तो ये पता चलता है कि किस तरह से हिंदी का एक लेखक स्वाधीनता आंदोलन के विभिन्न कोणों को देखते हुए उसकी व्याख्या कर रहा था। सिर्फ व्याख्या ही नहीं बल्कि उसकी स्वस्थ आलोचना कर समाज में एक नया विमर्श स्थापित करना चाहता था। आचार्य शुक्ल का एक और अधूरा लेख हिंदी साहित्य के सामने है जिसमें उन्होंने जाति व्यवस्था पर विचार किया था। 

आचार्य शुक्ल ने 1917 में लीडर पत्रिका में एक लेख हिंदी और मुसलमान नाम से लिखा था। इस लेख में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि उर्दू कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। यह पश्चिमी हिंदी की एक शाखा मात्र है जिसे मुसलमानों द्वारा अपनी ऐकांतिक रुचियों और पूर्वग्रहों के अनुकूल एक निजी रूप दे दिया है। अपने इस लेख में रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी और उर्दू को लेकर जो भ्रांतियां विदेशी भाषाविज्ञानियों द्वारा पैदा की गई हैं उसका खंडन भी किया है। यह लेख उर्दू और हिंदी के संबंधों को समझने के लिए आवश्यक लेख है। हिंदी और उर्दू के बीच जो खिंचाव दिखाई देता है उसके ऐतिहासिक कारण है। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो आचार्य शुक्ल सिर्फ हिंदी साहित्य का इतिहास लिखनेवाले लेखक नहीं थे बल्कि जैसी वो अपेक्षा करते थे वैसा ही उनका व्यक्तित्व भी था। वो एक साथ समाज सुधारक, राजनीतिक आंदोलनकर्ता, कवि और शिक्षाशास्त्री थे। आचार्य शुक्ल हिंदी के एक ऐसे लेखक थे जिनसे देश की नई पीढ़ी का परिचय करवाना बहुत आवश्यक है। उनके लेखन के विविध कोणों पर व्यापक शोध की आवश्यकता भी है ताकि उनके ओझल हो चुके विचारों को सामने लाया जा सके। इतिहास का पुनर्लेखन इसलिए भी आवश्यक है कि शुक्ल जी जैसे लेखकों का सोच समग्रता में सामने आ सके।