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Thursday, May 30, 2019

ये वो दिल्ली तो नहीं...


मैत्रेयी पुष्पा हिंदी की वरिष्ठ और चर्चित उपन्यासकार हैं। इनकी कहानियों पर टेलीफिल्मों का भी निर्माण हो चुका है। ये दिल्ली की हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष रह चुकी हैं। इनको सार्क लिटरेरी अवॉर्ड समेत कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं। वो आज से पांच दशख पहले दिल्ली आई थीं, उनसे उनकी यादों के बारे में मैंने बातचीत की। 

मैं आज से करीब 51 साल पहले ग्वालियर से दिल्ली आई। मेरे पति डॉ आर सी शर्मा को आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में नौकरी मिली थी। कुछ दिनों तक एम्स के हॉस्टल में रहे, फिर साउथ एक्स में किराए के घर में रहे। जल्द ही एम्स के वेस्टर्न कैंपस में हमें घर मिल गया। उस वक्त सरकारी आवास के लिए इतनी लंबी लाइऩ नहीं होती थी बल्कि घरों की ही लाइऩ होती थी कि कोई भी पसंद कर लो। एम्स के वेस्टर्न कैंपस और एम्स के मुख्य इमारत के बीच की जो सड़क थी वो एकदम सूनी रहती थी। उस वक्त दिल्ली में सड़कों में एकदम भीड़-भाड़ नहीं होती थी। कभी अखबारों में पढ़ते कि उस वक्त के कलकत्ता या बंबई में जाम लग गया तो हम चर्चा किया करते थे कि पता नहीं जाम कैसा होता है और वो कैसे लगता है। एक और दिलचस्प किस्सा बताती हूं। एक दिन हम अपने बच्चों के साथ अपनी गाड़ी से कहीं जा रहे थे। डॉक्टर साब गाड़ी चला रहे थे और मेरी बेटी मोहिता उनके साथ बैठी थी। हमलोग पीछे की सीट पर थे। कार का अगला दरवाजा खुला रह गया और मोहिता चलती कार से नीचे गिर गई। लेकिन सड़क पर ट्रैफिक नहीं होने की वजह से कोई दुर्घटना नहीं हुई। अब इस तरह की बात सोची भी नहीं जा सकती है। उस वक्त दिल्ली की सड़कों पर दो ही गाड़ियां दिखती थीं अंबेसडर और फिएट।
तब दिल्ली में जगह ही जगह हुआ करती थी। फ्लैट सिस्टम आया नहीं था। क्वाटर होते थे ज्यादातर, दो मंजिले। पहले मुनरिका इलाके में फ्लैट बने जिसकी कीमत 45000 रु थी, उसके बाद सफदरजंग इलाके में फ्लैट बने जो 52000 के थे। तब मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ये फ्लैट महंगे थे।
दिल्ली में हम साथी डॉक्टरों के परिवारों के साथ जमकर पिकनिक करते थे। घर से खाना बनाकर कभी बुद्धा गार्डन या लोदी गार्डन तो कभी चिड़ियाघर तो कभी कुतुबमीनार। उस वक्त एम्स के अंदर एकदम गांव जैसा अपनापन था। घूमने के लिए चांदनी चौक जाते थे। स्कूटर पर बैठते थे और तुरंत पहुंच जाते थे क्योंकि ट्रैफिक होता नहीं था। हां, करोलबाग मार्केट और सरोजनीनगर बाजार में अपेक्षाकृत भीड़ हुआ करती थी इस वजह से हम इन बाजारों में लगभग नहीं जाते थे। अपने पड़ोसियों के साथ खूब घूमते फिरते थे। हमारे आपसी संबंध बहुत अच्छे थे। मेरी पड़ोसी पीएचडी कर रही थीं तो मैं उनके पति के लिए खाना बना देती थी। एम्स में इफ्तार की दावतें खूब हुआ करती थीं, कभी हमारे घर तो कभी डॉ गुप्ता के घर तो कभी डॉ शर्मा के घर तो कभी इल्माना के घर। पिकनिक से लेकर दावतों के लिए हम सब साउथ एक्सटेंशन मार्केट में शॉपिंग किया करते थे। इतने सालों से नोएडा में रहने के बाद अब भी खरीदारी के लिए हम साउथ एक्सटेंशन ही जाते हैं। उस वक्त हमारे मनोरंजन का एक और साधन होता था फिल्में देखना। गौतम नगर में सुदर्शन नाम का एक सिनेमा हॉल था। हमारे घर के पास था लेकिन पुराना होने की वजह से हम उसमें कम ही फिल्में देखते थे। मुझे याद है कि हमने ब्रह्मचारी फिल्म सुदर्शन सिनेमा हॉल में ही देखी थी। उस वक्त सफदरजंग में कमल सिनेमा बना ही था। वहां हम ज्यादा जाया करते थे। अच्छी फिल्म देखने तो दरियागंज के गोलचा सिनेमा तक पहुंच जाते थे। चिड़ियाघर के पास एक सिनेमा हॉल हुआ करता था वहां भी हम गाहे बगाहे फिल्म देखने चले जाते थे। मुझे याद है कि फिल्म अनोखी रात हमने वहीं देखी थी।
दिल्ली में जब हम आए थे तो तब बहुत सुकून था, हमने 1971 युद्ध भी देखा, 1975 की इमरजेंसी भी देखी और 1984 में सिख विरोधी दंगे भी देखे, मंडल कमीशन के लागू होने के बाद की हिंसा भी देखी । पर दो प्रसंग अब भी कचोटते हैं। एक तो 1971 के युद्ध के समय जब एम्स में दो मुस्लिम डॉक्टरों को निगरानी की जिम्मेदारी नहीं दी गई थी। हम कई दिनों तक उन दोनों का सामना नहीं कर पाते थे। दूसरी 1984 में। मेरी झांसी की एक दोस्त थी वो सिख थी। हम साथ ही रहते थे लेकिन जब सिख विरोधी दंगा हुआ तो वो हमपर विश्वास नहीं कर पाई और कहीं और रहने चली गईं। बाद में उसने कहा भी कि भरोसा नहीं था। अब इतने सालों बाद जब पलटकर देखती हूं तो लगता है कि ये वो दिल्ली तो नहीं।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)   

Saturday, May 25, 2019

स्मृति की जीत से निकलते संदेश


ठीक से याद नहीं, पर घटना 21 या 22 मार्च 1977 की रात की है। उस रात हम अपने ननिहाल, बिहार के एक कस्बाई शहर जमालपुर के पास के गांव वलिपुर, में थे। देश से इमरजेंसी हटाई जा चुकी थी और चुनाव हो चुके थे। सबको चुनाव के नतीजों की प्रतीक्षा थी। चुनाव और उसके बाद के नतीजों को लेकर हमारे ननिहाल में भी खूब गहमागहमी थी। उस वक्त हमारी उम्र ककहरा सीखने की थी, राजनीति और उसकी भाषा बिल्कुल समझ नहीं आती थी, पर उत्सव का माहौल समझ आता था। चुनावी के उत्सवी माहौल में इतनी दिलचस्प बातें होती थीं कि मजा खूब आता था। रातभर रेडियो पर चुनावी नतीजे आते रहते थे। वो बैलेट का जमाना था और मतपत्रों की गिनती में तीन से चार दिन का समय लगता था। हमारे ननिहाल में एक बड़ा सा मरफी का रेडियो हुआ करता था। उसका एंटीना खपड़ैल के छज्जे में लगाया हुआ था। एंटीना काफी बड़ा था जिससे एक तार रेडियो तक आता था। कहने का मतलब ये है कि रेडियो को रखने का स्थान नियत था और उसको उधर उधर हटाया नहीं जा सकता था। रेडियो सुनने के लिए उसके पास जाना होता था। 21 या 22 मार्च की रात में रेडियो पर चुनाव के नतीजे आ रहे थे, गांव के काफी लोग वहां बैठे थे, किसी बड़े नतीजे की प्रतीक्षा में। रात ज्यादा होने से लोग ऊंघ भी रहे थे, अचानक रेडियो पर खबर आई कि इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गईं। इस खबर के बाद ऊंघ रहे लोगों की आंखें चमक उठीं, वो सभी खुशी में झूमते हुए शोर मचाने लगे, नारेबाजी होने लगी। पूरे गांव के लोग अपने अपने घरों से निकलकर सड़क पर आ गए। इस बीच किसी ने हमारे रेडियो की आवाज तेज कर दी थी। उसपर इंदिरा गांधी की हार की खबर के बाद एक गाना बजने लगा था- बरेली के बाजार में झुमका गिरा रे...। लोग उसपर झूमने लगे थे। इंदिरा गांधी को जनता पार्टी के उम्मीदवार और समाजवादी नेता राजनारायण ने करीब 55000 मतों से मात दी थी। उसी चुनाव में रायबरेली के बगल के संसदीय सीट अमेठी से इंदिरा गांधी के कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी की हार भी हुई थी। गांधी परिवार के इन दो सदस्यों की हार आखिरी हार थी। उसके बाद के हुए सभी संसदीय चुनावों में गांधी परिवार के इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कोई हार नहीं हुई थी।
बयालीस साल बाद 23 मई को चुनाव के नतीजे आ रहे थे, शाम तक रुझानों से साफ हो गया था कि देश के मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को प्रचंड बहुमत दे दिया है। सबकी निगाहें अमेठी पर जाकर टिक गई थीं। अमेठी से गांधी परिवार के राजनीतिक वारिस और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चुनाव मैदान में थे। वो यहां के अलावा केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़े थे। अमेठी में कांग्रेस अध्यक्ष के सामने थीं बीजेपी की फायरब्रांड युवा नेता और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी। वही स्मृति ईरानी जिसको राहुल गांधी 2014 के चुनाव में एक लाख से अधिक वोटों से मात दे चुके थे। इस बार के चुनाव नतीजों में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी लगातार पिछड़ रहे थे। अब जमाना रेडियो का रहा नहीं था यहां तो चुनाव आयोग की साइट पर गिनती के हर चक्र के बाद अपडेट आ रहा था। वोटों का फासला बढञता जा रहा था। हर किसी के हाथ में मोबाइल और मोबाइल पर सोशल साइट्स से लेकर न्यूज वेबसाइट्स पर पल-पल की जानकारी आ रही थी। देशभर के रुझान और नतीजे आने शुरू हो गए थे लेकिन अमेठी के नतीजे में देर हो रही थी। नतीजा आने के पहले ही शाम करीब साढे पांच बजे राहुल गांधी ने अमेठी लोकसभा क्षेत्र से अपनी हार सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर ली थी और स्मृति ईरानी को शुभकामनाएं दे दी थीं। स्मृति ने भी अपने ट्वीट से ये संकेत दे दिया था वो जीत गई हैं। उन्होंने मशहूर शायर दुष्यंत कुमार की एक पंक्ति उद्धृत की थी- कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता। रात करीब साढे ग्यारह बजे ये खबर आई कि राहुल गांधी को स्मृति ईरानी ने हरा दिया। तकनीक के उन्नत होने और लगातार जानकारी मिलने के बावजूद उत्सकुता में तो कमी नहीं हुई थी, लेकिन राहुल गांधी की हार के बाद कोई गाना नहीं बजा। मुझे 1977 की घटना याद थी इसलिए मैं ऑल इंडिया रेडियो भी सुन रहा था। मैं देखना चाहता था कि रेडियो पर क्या होता है। रेडियो ने सिर्फ खबर दी। इस नतीजे के बाद अमेठी में लोग झूमे, भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जश्न भी मनाया।  
स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को करीब 55000 वोटों से शिकस्त दी। यहां याद दिला दें कि करीब इतने ही मतों से इंदिरा जी भी रायबरेली हारी थीं। इसके अलावा भी कई समानताएं इन दोनों चुनावों में देखी जा सकती हैं। 1971 में राजनारायण जब इंदिरा गांधी से हारे थे तब उन्होंने कहा था कि रायबरेली की जनता का प्यार उनको मिला है और इसी धरती से वो इंदिरा गांधी को हराएंगे। कुछ ऐसा ही बयान स्मृति ईरानी ने भी 2014 में अमेठी में अपनी हार के बाद दिया था। 1977 के चुनाव में रायबरेली में जो हुआ लगभग वही 2019 के चुनाव में अमेठी में दोहराया गया। एक ताकतवर और नामदार उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा। पर अगर 2019 में अमेठी में राहुल गांधी की हार और 1977 में रायबरेली में इंदिरा गांधी की हार की तुलना करें तो ऐसा लगता है कि राहुल को हराना ज्यादा मुश्किल था। 1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ देशभर में गुस्सा था। लोग इमरजेंसी लगाए जाने को लेकर उनसे बेहद खफा थे। उनके खिलाफ पूरा विपक्ष लामबंद था, सीपीआई को छोड़कर। सीपीआई चूंकि इमरजेंसी में कांग्रेस के साथ थी इस वजह से वो चुनाव में भी इंदिरा जी के समर्थन में खड़ी थी। फासीवाद और तानाशाही की बात करनेवाली इस पार्टी का चाल, चरित्र और चेहरा देश की जनता ने इमरजेंसी के दौरान देख लिया था। इस बार पूरा विपक्ष राहुल गांधी के साथ था। राहुल गांधी को अखिलेश और मायावती के महागठबंधन का समर्थन हासिल था। अमेठी में मतदान के चंद दिनों पहले मायावती ने अपने कॉडर को राहुल गांधी को वोट करने के निर्देश दिए थे। स्मृति का राहुल से सीधा मुकाबला था। इसबार तो वहां से आम आदमी पार्टी का भी कोई उम्मीदवार नहीं था। 2014 के चुनाव में तो कुमार विश्वास भी अमेठी से चुनाव लड़े थे। सीधे मुकाबले में पारिवारिक गढ़ को ध्वस्त करना टेढी खीर था। स्मृति ने वो कर दिखाया।
अमेठी के चुनाव नतीजे ने इस धाऱणा को और पुष्ट किया है कि इस बार के चुनाव में देश के मतदाता ने बहुत समझदारी के साथ वोट किया। वो जात-पात की जकड़न से तो मुक्त हुआ ही, वोटरों ने अब अपने और अपने क्षेत्र के हितों की रक्षा करनेवाले उम्मीदवारों पर भरोसा जताकर भारतीय लोकतंत्र के मजबूत और मैच्योर होने के संकेत भी दे दिए। तमाम तरह के समीकरणों के आधार पर चुनाव लड़ने और जीतनेवालों को हार का मुंह देखना पड़ा। अमेठी की जनता ने ये भी बता दिया कि अगर आपको राजनीति करनी है तो आपको मेहनत करनी होगी। आपको जनता के साथ खड़े रहना होगा। यही मानदंड काम आएगा। कुछ विश्लेषकों ने मोदी पर ये आरोप लगाया कि वो चुनाव में सेना के पराक्रम का फायदा उठा रहे हैं। सेना ने पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादी ठिकानों पर हमले किए थे, उसका श्रेय ले रहे हैं। जिसका मकसद लोकसभा चुनाव में फायदा उठाना है। कांग्रेस ने भी बालाकोट हमले को चुनावी मुद्दा बनाने को लेकर मोदी को घेरने की कोशिश की थी। पर कांग्रेस के लोग ये भूल गए कि 1972 के विधानसभा चुनाव के पहले इंदिरा गांधी का देश की जनता के नाम लिखा एक पत्र देशभर के समाचार पत्रों में विज्ञापन के रूप में छपा था। 10 मार्च 1972 को छपे इस विज्ञापन में इंदिरा गांधी ने देश की जनता को बांग्लादेश में पाकिस्तान पर विजय की याद दिलाई थी। बांग्लादेशी रिफ्यूजियों के उनके देश लौटाने की बात बताई गई थी। इसके साथ ही इंदिरा गांधी ने उस खतनुमा विज्ञापन में वोटरों से उनकी पार्टी को भारी बहुमत से विधानसभा चुनाव में विजयी बनाने की अपील भी की थी। जनता ने उस चुनाव में उनकी पार्टी को भारी बहुमत दिया। चुनाव में राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाकर इंदिरा गांधी ने फायदा उठाया था। पर अमेठी में तो जब छठे चरण में वोट डाले जा रहे थे तबतक बालाकोट का मुद्दा भी नेपथ्य में जा चुका था। अब चुनाव खत्म हो चुके हैं, नतीजा आ गया है। प्रतीत ये होता है कि अमेठी के चुनाव नतीजे का असर कांग्रेस पार्टी पर दिखाई देगा। कैसे? ये समय के गर्भ में है।

कनॉट प्लेस में चलते थे तांगे


सुरेश ऋतुपर्ण हिंदी के वरिष्ठ कवि हैं। 31 साल तक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में अध्यापन करने के बाद दस वर्षों तक जापान के एक युनिवर्सिटी में काम किया। वहां से लौटकर पिछले छह साल से के के बिरला फाउंडेशन के निदेशक हैं।

मैं 1962 में भारत और चीन के बीच युद्द होने के थोडा पहले मथुरा से दिल्ली आ गया था। मेरे माता-पिता यहां व्यापार के सिलसिले में आते थे। हम लोग उस वक्त दिल्ली में झील खूरेंजी में रहते थे। वहीं के नगर निगम स्कूल में मैंने पढ़ाई की। उसके बाद मैं जुलाई 1965 में हिंदू कॉलेज में हिंदी ऑनर्स में एडमिशन लिया। उस वक्त दिल्ली युनिवर्सिटी में बेहद सकारात्मक और सर्जनात्मक माहौल था और इसके हर कॉलेज में हिंदी के बड़े बड़े लेखक आया जाया करते थे। हमने पहली बार अज्ञेय को श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में देखा था। हिंदी विभाग में उस वक्त डॉ नगेन्द्र की तूती बोलती थी लेकिन हमारे देखते देखते ही उनका साम्राज्य ध्वस्त हो गया। सुधीश पचौरी ने डॉ नगेन्द्र के खिलाफ मोर्चा खोला था जिसको लेफ्ट के कई लोगों का समर्थन था। विश्वनाथ त्रिपाठी भी छुप-छुपकर सुधीश जी का साथ देते थे। पचौरी का साथ तो उस वक्त अज्ञेय ने भी दिया था। तब अज्ञेय दिनमान के संपादक हुआ करते थे और उस पत्रिका का एक संवाददाता नियमित रूप से आर्ट्स फैकल्टी में रहा करता था । नगेन्द्र के खिलाफ दिनमान के हर अंक में कुछ ना कुछ छपता ही था। हमने उस दौर में प्रज्ञा नाम से एक संस्था बनाई थी जो साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन करती थी। उसी दौर में जब अशोक चक्रधर दिल्ली आए तो उन्होंने प्रगति नाम से एक संस्था बनाई जो लेफ्ट विचारधारा के लोगों के लिए गोष्ठियां आदि आयोजित करती थी।  
जब मैं हिंदू कॉलेज में था तो व्यंग्यकार हरीश नवल और सिंधुराज के साथ हमारी मित्र-त्रयी थी। हरीश नवल चांदनी चौक में रहते थे। हिंदू कॉलेज से हम बस से चांदनी चौक पहुंच जाया करते थे। 15 मिनट लगते थे। चांदनी चौक से हमलोग नई सड़क जाते थे जहां कोने पर आसाराम की चाय की दुकान हुआ करती थी जो रातभर खुली रहती थी। टाउन हॉल का लॉन हमारा अड्डा हुआ करता था। हमलोग कई बार रात में भी आसाराम की चाय पीकर टाउन हॉल के लॉन में पहुंच जाते थे और देर रात तक वहीं बैठकर अपनी-अपनी कविताएं सुनाया करते थे। जब भी मन करता था मैजेस्टिक सिनेमा के पास पहुंचकर फटफटिया पर बैठ जाते थे जो कनॉट प्लेस पहुंचा देता था। उस वक्त चार आने में मैजेस्टिक सिनेमा से ओडियन सिनेमा तक फटफटिया चला करती थी जिसे फोर सीटर भी कहते थे। उस दौर में हौज काजी से लेकर ओडियन सिनेमा तक तांगे की सवारी भी की जा सकती थी। ।जब हम मस्ती के मूड में होते तो तांगे से कनॉट प्लेस जाते थे। तांगा मैजेस्टिक सिनेमा से दरियागंज होते हुए ओडियन सिनेमा तक जाता था। तब कनॉट प्लेस के सर्किल में दोनों तरफ से ट्रैफिक चला करती थी जिसको बाद में वन वे कर दिया गया। हिंदी के वरिष्ठ लेखक विष्णु प्रभाकर जी चांदनी चौक के कुंडेवालान इलाके में रहते थे। मैं देखता था कि वो कई बार पैदल ही अपने घऱ से मिंटो रोड होते हुए कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस तक पहुंच जाते थे। कॉफी हाऊस का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। चीन की लड़ाई के बाद इसका निर्माण हुआ था। आज जहां आप पालिका बाजार देखते हैं वहां एक थिएटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग हुआ करती थी। उसी बिल्डिंग में इंडियन कॉफी हाऊस खुला था जहां तमाम बुद्धिजीवी जमा हुआ करते थे। मुझे याद है कि उसी समय मैंने मशहूर चित्रकार एम एफ हुसैन को कॉफी हाउस में देखा था तो अपनी रंगी हुई फिएट कार से वहां आया करते थे। उनकी फिएट कार अलग से ही पहचान में आ जाती थी। अब दिल्ली काफी बदल गई है। हम उस वक्त रात में 11-12 बजे लाल किले के सामने खड़े होते थे फतेहपुरी की सड़कें खाली दिखाई देती थीं, अब का हाल आपके सामने है।(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

Saturday, May 18, 2019

कला-संस्कृति की आड़ में कारोबार !


चुनाव में राजनातिक गतिविधियां अपने चरम पर होती हैं। इस दौरान कई बार कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो महत्वपूर्ण तो होता है लेकिन उसपर ध्यान नहीं जाता। चुनाव के दौरान ऐसी कई घटनाएं हुईं जिसको अगर समग्रता में जोड़कर देखते हैं तो हमें एक मुकम्मल तस्वीर दिखाई देती है। चुनावी शोरगुल और कोलाहल थम चुका है। अब उन घटनाओं पर विचार करने की आवश्यकता है ताकि हमारे समाज का ध्यान उनपर जा सके, हम सब मिलकर कुछ बेहतर कर सकें। सबसे पहले मुझे याद पड़ता है कि चुनाव प्रचार के दौरान अपने एक पत्रकार मित्र को फोन किया तो वो उस वक्त बिहार के मुंगेर लोकसभा क्षेत्र की कवरेज में व्यस्त थे। राजनीति पर बातचीत के क्रम में उसने एक ऐसी बात का जिक्र किया जो बेहद महत्वपूर्ण थी। नेताओं के कैंपेन को कवर करने के क्रम में वो मुंगेर शहर जा पहुंचे थे। वही ऐतिहासिक नगरी मुंगेर जो महाभारत काल में दानवीर कर्ण के अंग प्रदेश की राजधानी था। वहां अब भी गंगा किनारे मशहूर कर्णचौरा है। मान्यता है कि वहीं बैठकर कर्ण दान किया करता थे। शहर में घूमते-टहलते, लोगों से बातचीत करते हुए पत्रकार मित्र को एक इमारत दिखी जिसका नाम था श्रीकृष्ण सेवा सदन। लोगों ने बताया कि श्रीकृष्ण सेवा सदन बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह के नाम पर बना हुआ है। इस इमारत में श्रीकृष्ण सिंह की तमाम पुस्तकें और उनसे जुड़ी चीजें रखी हैं। मेरे मित्र को इसमें एक अच्छी स्टोरी दिखी और वो इमारत के अंदर जाकर श्री बाबू से जुड़ी चीजों को शूट कर लाया। लेकिन उसने जो बताया उसको सुनकर लगा कि हम अपनी विरासत को लेकर कितने उदासीन और लापरवाह हैं। श्रीकृष्ण सेवासदन में रखी चीजें व्यवस्थित तो थीं पर उनका रखरखाव ठीक से नहीं हो रहा है। सभी चीजों पर धूल की मोटी परत जमी है। शहर के बीचों-बीच बनी इस इमारत की अगर ठीक से देखरेख की जाए और उसकी व्यवस्था दुरुस्त हो तो यह स्थान पर्यटकों को भी आकर्षित कर सकता है। इसमें भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी भी कई यादें रखी हैं। श्रीकृष्ण सिंह के बारे में कहा जाता है कि वो बेहद पढाकू थे। एक बहुत मशहूर किस्सा है कि वो एक बार प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने दिल्ली आए। नेहरू जी से मिलने के लिए उनको कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। जब पंडित जी आए तो श्रीकृष्ण सिंह ने उलाहना भरे स्वर में कहा कि पंडित जी अब ये स्थिति हो गई है कि आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। नेहरू ने श्रीकृष्ण सिंह को दो पुस्तकें दी और कहा कि दरअसल वो पिछले दिनों पुस्तक की एक दुकान पर गए थे वहां से उनके लिए दो पुस्तकें ले आए थे। पुस्तकों को ढूंढने में ही थोड़ा वक्त लग गया। ये कहते हुए नेहरू ने श्रीकृष्ण सिंह को दो पुस्तकें दीं। श्री बाबू ने दोनों पुस्तकों को उलटा-पलटा, फिर नेहरू जी को वापस करते हुए बोले कि पंडित जी पुस्तकों के लिए आपका बहुत आभार। इस बात के लिए भी धन्यवाद कि आपने पुस्तकें खरीदते वक्त मुझको ध्यान में रखा। साथ ही श्रीकृष्ण सिंह ने नेहरू जी को कहा कि वो दोनों पुस्तकें चंद दिनों पहले पढ़ चुके हैं। नेहरू जी को थोड़ा झटका तो लगा लेकिन अपने को संभालते हुए उन्होंने श्रीबाबू का हाथ पकडा और फिर जोरदार ठहाका लगाया। तो ऐसे थे श्री कृष्ण सिंह और ऐसा था उनका अध्ययन कि पुस्तक बाजार में आई नहीं कि वो पढ़ डालते थे। उनकी किताबें अब सेवासदन में धूल खा रही हैं और अगर उनपर ध्यान नहीं दिया गया तो नष्ट हो सकती हैं।
इसी तरह से एक दिन पटना से एक वरिष्ठ रंगकर्मी और लेखक ने फोन किया और बताया कि कुछ लोग मिलकर पटना के गांधी मैदान के पास स्थित कालिदास रंगालय की इमारत पर कब्जा करना चाहते हैं। कालिदास रंगालय पटना के नाट्यकर्म का केंद्र है और वहां नाटकों का मंचन होता है। आरोप है कि शहर के प्राइम लोकेशन पर होने की वजह से कुछ लोग उसपर कब्जा कर मॉल बनवाना चाहते हैं। कालिदास रंगालय एक सोसाइटी के अंतर्गत कार्य करता है। कुछ दिनों पहले सोसाइटी में कुछ गड़बड़ी की गई और दो अलग अलग गुट उसपर अपना दावा करने लगे। एक गुट चाहता है कि इमारत को गिराकर नई इमारत बने जबकि दूसरा गुट ऐसा नहीं चाहता है। मामला फिलहाल अदालत में विचाराधीन है। कहा जा रहा है कि जो लोग इस रंगालय को नया स्वरूप देना चाहते हैं वो इस जगह पर एक मॉल बनाना चाहते हैं। उसी मॉल में एक हिस्सा रंगकर्म के लिए देना चाहते हैं। पटना के रंगकर्मियों को ये प्रस्ताव मंजूर नहीं है। इसी तरह से पटना के कदमकुंआ इलाके में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन की एक इमारत है। एक जमाना था जब ये देशभर के साहित्य का एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। इसकी व्यवस्था से पंडित जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, मोहनलाल महतो वियोगी जैसे दिग्गजज साहित्यकार जुड़े रहे हैं। आज हालत ये है कि बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना का सबसे लोकप्रिय विवाह स्थल है। शादी के सीजन में ये हर दिन बुक रहता है। यहां सेल आदि लगा करते हैं। जिन उद्देश्यों के लिए बिहार साहित्य सम्मेलन की स्थापना की गई थी और जिसके आधार पर सरकार ने इस संस्था को जमीन आवंटित की थी वो अब हो नहीं रहा है। इसका जिम्मेदार कौन है?
इसी तरह की एक खबर आई उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद से, जहां के हिंदी भवन को आबंटित की गई जमीन को गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने निरस्त करने का नोटिस दिया है। दरअसल गाजियाबाद में हिंदी भवन समिति ने 1986 में गाजियाबाद विकास प्राधिकरण से रियायती दरों पर जमीन ली थी। जिसका पूरा पैसा प्राधिकरण को जमा नहीं किया जा सका। इसी धार पर 2006 में आवंटन रद्द कर दिया गया लेकिन बावजूद इसके इस जमीन पर इमारत बनी। सभागार बने। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के उस वक्त के उपाध्यक्ष ने इसका शुभारंभ किया। भवन समिति का उद्देश्य हिंदी को बढ़ावा देना था। खबरों के मुताबिक जमीन आवंटन की शर्तों में ये था कि इमारत बनने के बाद उसकी बुकिंग करके व्यावसायिक लाभ नहीं कमाया जा सकेगा। लेकिन आरोप है कि कच्ची रसीद पर शादी विवाह के लिए इस भवन का आवंटन होता रहा है। अब इसकी जांच की जा रही है। देशभर में कई जगह इस तरह के हिंदी भवन हैं। राजधानी दिल्ली में भी है। हर जगह सरकार ने रियायती दरों पर हिंदी को बढावा देने के लिए जमीन आवंटित की थी जिसमें लगभग सभी आवंटन में ये शर्त रखी गई थी कि इसका व्यावसायिक उपयोग नहीं होगा। लेकिन इन भवनों का व्यावसायिक उपयोग हो रहा है। हिंदी के कार्यक्रमों के लिए भी भारी-भरकम किराया लिया जाता है।
तीन तरह की स्थितियां सामने हैं। एक तो जिसमें हम अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संभाल नहीं पा रहे हैं, उसकी उचित देखभाल नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी जिसमें कला-संस्कृति के नाम पर बने संस्थानों पर कब्जे की राजनीति चल रही है। तीसरी जहां भाषा और संस्कृति के नाम पर बनी संस्थाओं की आड़ में कारोबरी गतिविधियां चलाई जा रही हैं। तीनों ही स्थितियां किसी भी देश के लिए, वहां की संस्कृति के लिए, वहां के समाज के लिए, वहां के लोगों के लिए, उचित नहीं हैं। कभी हमने सोचा है कि इस तरह की स्थितियां हमारे सामने क्यों आ रही है। यह इस वजह से आ रही हैं कि हमारे देश में कोई समग्र सांस्कृतिक नीति नहीं है। आजादी के सत्तर साल बीत जाने के बाद भी संस्कृति नीति पर गंभीरता से नहीं सोचा गया। संस्कृति नीति के अभाव में हो ये रहा है कि जहां जैसे जिसको मन हो रहा है, वैसे काम हो रहा है। चार दिनों बाद ये साफ हो जाएगा कि देश में नई सरकार का गठन कौन करेगा। किस पार्टी के नेता प्रधानमंत्री पद की शपथ लेगें। सरकार के गठन के बाद हमारे समाज को खासकर बुद्धिजीवी वर्ग को सांस्कृतिक नीति पर विचार करना होगा ताकि किसी कालिदास रंगालय जैसी जगह पर मॉल बनाने की बात कोई नहीं सोच सके। हिंदी भवन में शादी समारोह के लिए कच्ची प्रतियां ना कटें, साहित्य सम्मेलन के भवनों में साडियों और कपड़ों की सेल ना लगे। ना ही किसी श्रीकृष्ण सेवासदन में हमारी विरासत पर धूल जम जाए। इसके लिए बहुत गंभीरता से प्रयास की आवश्यकता है। अगर एक बार सांस्कृतिक नीति बन गई तो विरासत का संरक्षण भी हो सकेगा और भाषा और कला संस्कृति के नाम पर जारी कारोबार को भी बंद किया जा सकेगा।

Wednesday, May 15, 2019

लड़खड़ाते बिंब से लूट ली महफिल


साहित्य और फिल्म का बहुत पुराना नाता रहा है। फिल्म भुवन शोम और सारा आकाश से सार्थक या समांतर सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है। राजेन्द्र यादव भले ही आगरा में पैदा हुए लेकिन शोहरत के शिखर पर वो दिल्ली में रहते हुए ही पहुंचे। उनके उपन्यास सारा आकाश पर इसी नाम से फिल्म बनी। प्रेमचंद से लेकर अमृतलाल नागर और गोपाल सिंह नेपाली से लेकर पंडित नरेन्द्र शर्मा ने तक फिल्मों में अपने हाथ आजमाए। पहले ये होता था कि कवि के तौर पर स्थापित होने के बाद फिल्मों में हाथ आजमाते थे अब फिल्मों में गीत लिखकर शोहरत और सुर्खियां बटोरने के बाद हिंदी कविता में अपना स्थान तलाशते हैं। इस तलाश को गुलजार से लेकर जावेद अख्तर और प्रसून जोशी से लेकर मनोज मुंतशिर तक के लेखन में रेखांकित किया जा सकता है। हाल ही में दिल्ली में गीतकार मनोज मुंतशिर एक कार्यक्रम में आए थे। इस कार्यक्रम में हिंदी कविता की दुनिया से लगभग अपरिचित और अंग्रेजी की दुनिया में विचरण करनेवाले श्रोता उपस्थित थे। अंग्रेजी के लोग जब हिंदी में या फिर अंग्रेजी-हिंदी मिलाकर बात करते हैं तो हिंदी के लिए एक सुखद दृश्य उपस्थित होता है। इस कार्यक्रम में जो माहौल था वो हिंदी के लिए आश्वस्त करनेवाला था। कार्यक्रम की शुरुआत में मनोज मुंतशिर के परिचय के ऑडियो-वीडियो में उनको हिंदी फिल्मों में कविता की वापसी करनेवाला बताया गया। फिल्मी अंदाज में उनकी एंट्री हुई। जोरदार तालियों से स्वागत हुआ। उसके बाद कविता और शायरी पर बातें शुरू हुईं। बातचीत में ऐसा लगा कि मनोज महफिल लूटने की कला में माहिर हैं।
लेकिन जब बात कविता की होगी, हिंदी फिल्मों में कविता की वापसी की होगी तो कई प्रश्न भी उठेंगे। कविता के व्याकरण और उसके बिंबों पर बात होनी चाहिए लेकिन मनजो ने जब अपने पहले प्यार की बात उठाई तो कहा कि वो बारहवीं में थे। दो साल के बाद जब उनकी प्रमिका ने अपने पापा के नाराज होने की वजह बताकार उनसे अपने प्रेमपत्र और फोटो वापस मांगे तो मनोज ने शायरी लिखी जिसमें प्रमिका से अपनी जवानी लौटाने की बात करने लगे। यहीं बिंब का घालमेल हो गया। किशोरवस्था के प्रेम के टूट जाने के बाद अपनी प्रेमिका से जवानी वापस मांगकर कवि ने ज्यादती कर दी। मनोज की कविताई में बार बार बिंबों का खिलवाड़ देखने को मिला। इसी तरह उन्होंने जोश में साहिर लुधियानवी के गीतों के पहले हिंदी फिल्मों मजाक उड़ाया। उन्होंने कहा कि साहिर के पहले हिंदी फिल्मों के गीतों में फूल-पत्ती, मौसम आदि होते थे जिसे साहिर ने अपने गीतों से बदला । यहां वो हिंदी फिल्मों के केदार शर्मा, पंडिच नरेन्द्र शर्मा जैसे गीतकारों की परंपरा भूल गए लेकिन साहिर की शायरी सुनाकर मजमा तो लूट ही लिया। वहां मौजूद एक साहित्यकार ने कहा भी कि महफिल लूटना एक बात होती है और बौद्धिक उपस्थिति अलग।  

सुधीश पचौरी की दिल्ली की यादें


प्रो सुधीश पचौरी प्रख्यात आलोचक हैं। उन्होंने लंबे समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य किया और वहां के उप कुलपति भी रहे। उनकी दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। हिंदी में उत्तर-आधुनिकता की अवधारणा को स्थापित करने का श्रेय उनको ही दिया जाता है। उन्होंने दिल्ली को लेकर मुझसे अपनी यादें साझा कीं।     

मैं आज से 51 साल पहले आगरा से चलकर एम फिल करने दिल्ली आया था। पहले गाजियाबाद में रुका, फिर मिंटो रोड आ गया। उसके बाद शक्तिनगर के पास रहने लगा था। वो दौर मेरी जिंदगी का एक ऐसा दौर था, जिसमें मैंने बहुत काम किया और बहुत कुछ सीखा भी। तब दिल्ली की इतनी आबादी नहीं हुआ करती थी। कमलानगर दिल्ली के पुराने सेठों का इलाका था। कमलानगर की पहचान राजधानी दिल्ली के फैशन स्ट्रीट के तौर पर भी थी। कहा जाता था कि देश में नए फैशन के कपड़े सबसे पहले कमलानगर की दुकानों में ही पहुंचते थे। लिहाजा कमलानगर में बहुत रौनक हुआ करती थी। कमलानगर में उस वक्त एक बेहद लोकप्रिय कैफे हुआ करता था, जहां जाकर दिल्ली युनिवर्सिटी के छात्र गमजदा गाने सुना करते थे। वहां गाने सुनने के लिए एक ऐसा यंत्र लगा था जिसमें पहले पैसा डालना होता था उसके बाद मनपसंद गाने सुन सकते थे। उस मशीन में सबसे ज्यादा पैसे किशोर कुमार और तलत महमूद के गानों के लिए डाले जाते थे। फिल्में देखने के लिए हम शक्तिनगर से मॉडल टाउन पैदल जाते थे, कई बार तो दिन मे दो-दो चक्कर लग जाते थे।
उन दिनों लोग पैदल खूब चला करते थे। नामवर सिंह तिमारपुर में कोने की एक मकान में फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे। वहां से वो पैदल ही दरियागंज जाते थे या फिर जनयुग के कार्यलय भी पैदल ही जाया करते थे। उस समय बसों में टिकट बहुत कम था, दस पैसे के टिकट पर आप बस से दिल्ली घूम सकते थे। बाद के दिनों में हम रीगल सिनेमा के पास एक बाएं हाथ पर एक अरबी-अफगानी खाने का ठिकाना था। वहां भी अड्डा जमाते थे। मेरे साथ एक सहूलियत ये हो गई थी कि मैं सीपीएम में सक्रिय होने की वजह से ट्रेड यूनियन की बैठकों में होटलों आदि में भी जाया करता था। तो होटल का स्टाफ हमें पहचानता था। जब हम खाने जाते थे तो अतिरिक्त आतिथ्य मिलता था। फिर मेरी नौकरी लग गई। मैं पार्टी, एसएफआई, जनवादी लेखक संघ और शिक्षकों के मूवमेंट में इतना व्यस्त रहता था और इतना घूमता था कि मेरे सारे पैसे खत्म हो जाते थे। लेकिन तब इसकी चिंता भी नहीं होती थी। युवावस्था का जुनून और विचारधारा का रोमांटिसिज्म था।
उस वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय में मार्क्सवाद की लहर थी और दिल्ली वाम विचारधारा का गढ़ हुआ करता था। युनिवर्सिटी में आइडियोलॉजिकल डिबेट की जमकर तैयारी होती थी। सारे लोग जमकर पढ़ाई करते थे, संदर्भ नोट करते थे और बेखौफ होकर अपनी बात रखते थे। विरोध का स्पेस होता था। बहस आदि में बड़ों को गिराकर या उनको मात देकर छोटे मानेजाने वाले लोग अपनी प्रतिभा का एहसास करवाते हुए आगे आते थे। उसको सभी स्वीकार भी करते थे। उन दिनों दिल्ली में जमकर धरना प्रदर्शन का भी कल्चर था। मुझे याद पड़ता है कि 1975 में धर्मवीर भारती दिल्ली में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन करने आए। हमने उनका विरोध करने की ठानी। मैं और कवि स्वर्गीय पंकज सिंह कार्यक्रम स्थल पर जा पहुंचे और नारेबाजी कर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई। ये वही दौर था जब दिल्ली युनिवर्सिटी में डॉ नगेन्द्र की तूती बोलती थी। जब वो क्लास लेकर निकलते थे तो कॉरीडोर खाली हो जाता था। वो किसी को भी किसी कॉलेज में नौकरी दे सकते थे, देते भी थे। डॉ नगेन्द्र से मेरी टकराहट हो गई थी, ये कहानी फिर कभी।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

Saturday, May 11, 2019

अवधाऱणाओं के टकराव का चुनाव


लोकसभा चुनाव अब अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका है। आज के मतदान के बाद अब 19 मई को आखिरी चरण के लिए वोट डाले जाएंगे। अब सबकी निगाहें 23 मई को आनेवाले चुनाव के नतीजों पर टिकी हैं। कयासों का दौर चल रहा है। सट्टा बाजार से लेकर सोशल मीडिया तक में पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे को लेकर खासी उत्सुकता दिख रही है। पश्चिम बंगाल की राजनीति हमेशा से अलग किस्म की रही है। जब लंबे समय तक वहां मार्क्सवादियों का राज था और ममता बनर्जी उनको चुनौती दे रही थीं तब भी पूरे देश की रुचि बंगाल के चुनाव में रहा करती थी। अब जब ममता को भारतीय जनता पार्टी चुनौती दे रही है तब भी लोगों की निगाहें वहां टिकी हैं। जब ममता बनर्जी 2011 के अप्रैल में होनेवाले विधानसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट की सरकार के सामने मजबूत चुनौती पेश कर रही थी, उस वक्त कोलकाता से लेकर सूबे के कई हिस्सों में एक एक होर्डिंग खासा चर्चित रहा था। उस होर्डिंग पर कोई राजनीतिक नारा नहीं लिखा गया था, किसी भी राजनीतिक दल के नेता की कोई तस्वीर नहीं लगी थी, किसी पार्टी का झंडा या चुनाव चिन्ह नहीं बनाया गया था। उस होर्डिंग पर लेखिका महाश्वेता देवी के अलावा बांग्ला के अन्य लेखकों की तस्वीरें लगी थीं जिसके नीचे बांग्ला में एक पंक्ति लिखी होती थी जिसका अर्थ होता है कि हमें परिवर्तन चाहिए। बंगाल में माना जाता है कि लेखकों की इस अपील का खासा असर पड़ा और ममता बनर्जी के पक्ष में माहौल बनाने में इसकी भी भूमिका रही थी। बाद में जब चुनाव के नतीजे आए और ममता बनर्जी सूबे की मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने सार्वजनिक तौर पर महाश्वेता देवी और अन्य लेखकों का आभार जताया था। बाद में तो महाश्वेता देवी खुलकर और मुखर होकर ममता बनर्जी के समर्थन में आ गईं थीं।  
बंगाल में लेखकों और विद्वानों को बहुत ज्यादा प्रतिष्ठा प्राप्त है और वो समाज को प्रभावित करने की क्षमता भी रखते हैं। प्रतिष्ठा इतनी कि जब बांग्ला के मशहूर लेखक सुनील गंगोपाध्याय का निधन हुआ तो लगा कि पूरा कोलकाता उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़ा हो। उनकी अंतिम यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए थे। दुर्भाग्य से यह स्थिति हिंदी में नहीं है। बंगाल के समाज में लेखकों और बुद्धिजीवियों के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में उनतक पहुंचने का प्रयास भी किया है। पार्टी के थिंक टैंक श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के निदेशनक अनिर्वाण गांगुली और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य स्वप्न दासगुप्ता को इस काम के लिए लगाया गया। इन दोनों लोगों ने आउटरीच कार्यक्रम के तहत उत्तर बंगाल से शुरुआत की और राज्य के अलग अलग हिस्सों में दर्जनों कार्यक्रम किए। बंगाल के बुद्धिजीवियों तक पहुंचने की कोशिश में बंकिम चंद्र चटर्जी, रामानंद चट्टोपाध्याय तक की विरासत पर कार्यक्रम आयोजित हुए, इशमें देशभर के बुद्धिजीवियों से लेकर मंत्रियों तक ने शिरकत की। बंगाल की समृद्ध सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा, न्यू इंडिया के आकांक्षाओं तक पर गोष्ठियां आयोजित की गईं।
बंगाल की धरती पर अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहुत बातें होती रही हैं। जब वामपंथी शासन था तो उस दौर में बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन के अधिकारों को लेकर भी राष्ट्रव्यापी बहस हुई थी। लेकिन तस्लीमा नसरीन को आखिरकार कोलकाता छोड़ना ही पड़ा था। चुनाव की गहमागहमी के बीच बंगाल जाने का अवसर मिला। पूर्व कुलपतियों से लेकर कई वरिष्ठ लेखकों और संस्कृतिकर्मियों से बात-चीत हुई। उनसे बातचीत करने पर पता चला कि बंगाल में कला-संस्कृति के क्षेत्र में बहुत कुछ बदला नहीं है, हां इतना हो गया है कि पहले जिन संस्थाओं पर वामपंथी लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का प्रभुत्व था वहां अब तृणमूल से जुड़े या इस पार्टी की तरफ झुकाव रखनेवालों का वर्चस्व स्थापित हो गया है। इनमे से कई बुद्धिजीवी खुलकर राजनीति में शिरकत कर रहे हैं। वामपंथी शासनकाल के दौरान विरोधियों के लिए कार्यक्रमों के आयोजन में जितनी बाधाएं आती थीं वो सब अब भी आती हैं। कोलकाता के बुद्धिजीवियों ने बताया कि अगर कार्यक्रम भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग कर रहे हैं तो सरकारी हॉल मिलने में बहुत दिक्कत होती है। हॉल की अगर बुकिंग हो भी गई तो कार्यक्रम से चंद घंटे पहले भी बुकिंग निरस्त कर दी जा सकती है। बुद्धिजीवियों के मुताबिक वहां एक अदृश्य भय का वातावरण बनाया गया है कि ताकि सरकार विरोधी बुद्धिजीवी खुलकर अपनी बात नहीं रख सकें, विमर्श नहीं कर सकें। यह मुमकिन भी हो सकता है क्योंकि ममता बनर्जी को साहित्यकारों की हमें परिवर्तन चाहिए की अपील के असर का अंदाज तो होगा। लेकिन इस वातावरण में भी बंगाल के लेखक अपनी विचारधारा और सोच का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से नहीं हिचकते हैं, जबकि हिंदी के ज्यादातर लेखक इस मामले में ना सिर्फ हिचकते हैं बल्कि खुलकर राजनीति करने से भी परहेज करते हैं।
दरअसल इस चुनाव पर अगर हम नजर डालें तो ऐसा लगता है कि ये मुद्दों से अलग नैरेटिव पर लड़ा जा रहा है। अलग अलग तरीके का नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है। इस चुनाव के दौरान अंग्रेजी में राजनीति से जुड़ी कई पुस्तकें आईं तो हिंदी में भी चंद पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। अंग्रेजी के पुस्तकों के माध्यम से कभी सीधे तो ज्यादातर में परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीति के खिलाफ नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की गई। संघ की विचारधारा को समाज को बांटनेवाले साबित किया गया। इस तरह की पुस्तकों में एक दिक्कत ये होती है कि ये प्राथमिक स्रोत के आधार पर नहीं लिखे जाते हैं। हिंदुत्व और हिंदू धर्म पर जितनी भी पुस्तकें आईं उनमें से ज्यादातर ने प्राथमिक स्रोत तक पहुंचने की कोशिश नहीं की। अखबारों में उपलब्ध सामग्री या दूसरे लेखकों के निष्कर्षों को आधार बनाकर अपने मत का प्रतिपादन किया गया। क्या ये संभव है कि हिंदू धर्म या हिंदू जीवन पद्धति के बारे में बात हो और पांडुरंग वामन काणे की पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास का संदर्भ नहीं लिया जाए। क्या ये संभव है कि जब हिंदू धर्म के बारे में बात हो तो पुराणों का संदर्भ नहीं लिया जाए, वेदों को उद्धृत ना किया जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, अभी आई पुस्तकों में वेदों के उन संदर्भों की व्याख्या का उल्लेख कर निर्णय पर पहुंचा गया जो पहले से उपलब्ध है। सती प्रथा पर मूल ग्रंथों में क्या कहा गया इसको देखे बगैर सती पर अखबारों में छपे लेख को आधार बनाकर हिंदुत्व को परिभाषित करने की कोशिश की गई। लेखकों ने मूल स्रोत तक पहुंचने की कोशिश नहीं की। इसको लोग फॉल्स नैरेटिव कहते हैं जबकि मेरा मानना है कि ये खतरनाक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। फेक नैरेटिव तो झूठा होता है और वो समाज को गहरे तक नुकसान नहीं पहुंचाता पर अभी जिस तरह के नेरैचिव गढ़े जा रहे हैं वो समाज के लिए बेहद खतरनाक हैं। बंगाल की चुनावी पिच पर भारतीय जनता पार्टी इस नैरेटिव की लड़ाई में भी तृणमूल कांग्रेस से मुकाबला कर रही है। अनिर्वाण गांगुली की टीम ने वहां एक वैकल्पिक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की है। पिछले दिनों पत्रकार प्रवीण तिवारी की एक पुस्तक आतंक से समझौता प्रकाशित हुई। उस पुस्तक में प्रवीण तिवारी ने साबित करने की कोशिश की है कि भगवा आतंकवाद के नाम पर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को फंसाने का जो षड़यंत्र था, दरअसल वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने और अंतत: उसको प्रतिबंधित करने के लिए था। अपनी उस पुस्तक में प्रवीण तिवारी ने समझौता ब्लास्ट पर अपने तरीके से तथ्य प्रस्तुत किए हैं जो गंभीर विमर्श की मांग करती है।
नैरेटिव की ये लड़ाई कोई सामान्य लड़ाई नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है कि इस काम में पीछे से बड़ी ताकतें मदद कर रही हैं। इन विषयों पर जिस तेजी से पुस्तकों का प्रकाशन होता है, उनका विमोचन होता है, उनपर लेख और समीक्षाएं प्रकाशित होने लगती हैं तो, अगर हम समग्रता में देखें, ये सुचिंतित कार्ययोजना का हिस्सा प्रतीत होती हैं। इन ताकतों का स्वार्थ इतना होता है कि वो अपनी विचारधारा का प्रचार करें और ऐसी चीजें भारतीय जनमानस के पटल पर अंकित कर सकें जिसका लाभ उनसे नजदीकी रखनेवाली विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को हो। ये चुनाव इस लिहाज से देश में पूर्व में हुए चुनाव से थोड़ा अलग है। एक राजनीतिक विश्लेषक से पिछले दिनो बात हो रही थी तो उन्होंने बहुत सटीक कहा कि- जो चुनावी शोरगुल और मुद्दे सतह पर दिखाई देते हैं दरअसल इस बार का चुनाव उनपर लड़ा नहीं जा रहा है। इस बार का चुनाव खामोश रणनीतियों का चुनाव है। खैर जो भी अब तो दस दिन शेष रह गए हैं उसके बाद तो सबकुछ सबके सामने होगा।  

Saturday, May 4, 2019

यादों में सिमटी आर के की विरासत


अपने जीवन के अंतिम दिनों में मेरे पिता ने बहुत कम पैसों में आर के स्टूडियोज के दो स्टेज बेच दिए थे। उनके बेटे और उत्तराधिकारी के रूप में डब्बू, चिंपू और और मैं सफल फिल्में भले नहीं बना पाए लेकिन हमने संपत्ति का कोई हिस्सा नहीं बेचा। हम अपनी विरासत को संभाल कर रखे हैं। ये बातें ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा खुल्लम-खुल्ला में लिखी हैं, जो 2017 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुई थी। जब आर के स्टूडियोज के बिकने की खबर आई तो उपरोक्त पंक्तियां अचानक से दिमाग में कौंध गईं। दो साल पहले जो ऋषि कपूर अपनी विरासत को लेकर इतने बड़े दावे कर रहे थे, वो इतने कम समय में कैसे बदल गए, क्या हुआ कहा नहीं जा सकता है। क्या वजह रही कि राज कपूर के वारिसों ने, उनके बेटों ने ऐतिहासिक आर के स्टूडियोज को बेचने का फैसला किया। उन्हें यह हक है कि वो अपने पिता की संपत्ति को जिसे चाहे उसको बेचें। लेकिन भारतीय सिनेमा के इस अत्यंत महत्वपूर्ण स्मारक को गिराकर अब उसकी जगह शॉपिंग मॉल और लग्जरी अपार्टमेंट बनाए जाएंगें। राज कपूर और हिंदी फिल्म प्रेमियों के लिए ये एक झटके की तरह था। हलांकि इस बात की आशंका तभी से जताई जाने लगी थी जब स्टूडियो भयानक आग का शिकार हुआ था और कहा गया था कि सबकुछ जलकर खाक हो गया। इस तरह की बातें भी आने लगी थीं कि अब फिल्म निर्माता चेंबूर जाकर फिल्मों की शूटिंग करना नहीं चाहते हैं क्योंकि उससे ज्यादा सहूलियतें अंधेरी में उपलब्ध स्टूडियोज में है। इस वजह से आर के स्टूडियोज को चला और बचा पाना राज कपूर के वारिसों के लिए मुश्किल हो रहा था। दो एक ड़ से अधिक में फैला ये परिसर हिंदी फिल्म का एक ऐसा स्मारक था, एक ऐसी जगह थी जो दर्जनों बेहतरीन फिल्मों के बनने की गवाह रही हैं, यहां राज कपूर की मुहब्बत की शुरुआत होती है और यहीं उसपर परदा भी गिरता है। यह वो जगह थी जिसने गीत और संगीत की दुनिया को कई सितारे दिए। शंकर जयकिशन से लेकर शैलेन्द्र तक को। बॉबी की डिंपल से लेकर राम तेरी गंगा मैली की मंदाकिनी तक ने इसी परिसर में काम करके प्रसिद्धि का स्वाद चखने को मिला था।   
फिल्म इतिहासकार मिहिर बोस के मुताबिक 1950 में राज कपूर ने आर के फिल्म्स को विस्तार देने की योजना बनाई थी और आर के स्टूडियोज के नाम से चेंबूर में सभी सुविधाओं से लैस एक स्टूडियो की स्थापना की थी। उस वक्त राज कपूर का ये स्टूडियो उनके घर से करीब चार किलोमीटर की दूरी पर था। जब राज कपूर ने इस स्टूडियो की स्थापना की थी तो यह जगह उस वक्त के बंबई का बाहरी हिस्सा हुआ करता था। इलाका भी सुनसान होता था लेकिन अब इस इलाके की जमीन करोड़ की हैं। आर के स्टूडियोज के परिसर में राज कपूर का प्रसिद्ध कॉटेज होता था जहां कई ऐतिहासिक फिल्मों की शरूआती की बातें हुई थीं, कई मशहूर गानों और धुनों के बनाने- बनने पर बातें हुईं। फिल्मों को लेकर चर्चाओं के दौर चला करते थे। कई जगह तो इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि फिल्मों पर चर्चा सत्र को राज कपूर टेप किया करते थे। अगर ये सच है तो वो टेप फिल्म निर्माण करनेवालों के लिए अमूल् हो सकते हैं। राज कपूर का कॉटेज स्टूडियो परिसर में कार्यालय के पीछे की तरफ हुआ करता था। कॉटेज में राज कपूर का एक कमरा था। अपने कॉटेज को राजकपूर अपनी कला का मंदिर मानते थे और अपने कमरे को मंदिर का गर्भगृह। राज कपूर के कमरे में सभी धर्मों के देवी देवताओं के चित्र लगे हुए थे यहां तक कि कुरान की एक आयत भी दीवार पर उकेरी गई थी।
राज कपूर के लिए सिनेमा उनकी जिंदगी हुआ करती थी। कपूर खानदान पर पुस्तक लिखनेवाली मधु जैन ने लिखा है कि राज कपूर के कॉटेज का दरवाजा फिल्मकार राज कपूर और पति, भाई, पिता, दादा राजकपूर के बीच लाइन ऑफ कंट्रोल हुआ करता था। उनके परिवार ने कभी भी इस लाइऩ को लांघने की कोशिश नहीं की। आर के स्टूडियोज में राज कपूर के कमरे के पीछ नरगिस का भी एक कमरा हुआ करता था। और आर के स्टूडियोज में ही प्रसासनिक भवन के पीछे पहली मंजिल पर नरगिस का ड्रेसिंग रूम बना था। इसके ठीक सामने राज कपूर का ड्रेसिंग रूम होता था। नरगिस और राज कपूर के अलगाव के बाद उनका ड्रेसिंग रूम आर के बैनर तले काम करनेवाली अन्य नायिकाओं के उपयोग में आने लगा था। पर राज कूपर के कॉटेज में नरगिस का जो कमरा था वो जस का तस बना रहा। उसमें नरगिस का सामना भी उसी तरह से रखा रहा था जैसा वो छोड़कर गई थी। राज कपूर ने नरगिस से अलगाव के करीब बीस साल बाद 1974 में अपने एक इंटरव्यू में बताया कि जब नरगिस ने अलग होने का फैसला किया तो वो कभी आर के स्टूडियोज में वापस नहीं लौटीं। एक दिन अचानक उनका ड्राइवर आया और राज कपूर से कहा कि बेबी ने अपने हाईहील वाले सैंडल मंगवाए हैं। राज कपूर ने ड्राइवर को कहा ले जाइए। थोड़े दिनों बाद एक दिन फिर ड्राइवर आया और उसने राज कपूर से कहा कि बेबी ने बाजा (हारमोनियम) मंगवाया है। राज कपूर ने कहा कि जब ड्राइवर नरगिस का हारमोनियम ले जा रहे थे तो उनकी समझ में आ गया कि अब सबकुछ खत्म हो गया है।
राज कपूर और नरगिस के अलगाव का गवाह भी आर के स्टूडियोज ही बना था। 1956 में एक फिल्म आई थी जागते रहो। इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तो नरगिस पूरी तरह से कंट्रोल कर रही थी। हर तरह के निर्देश आदि देती थी लेकिन धीरे धीरे राज और उनके बीच के संबंध में खटास इतनी बढ़ गई कि इस फिल्म का आखिरी सीन नरगिस का आर के बैनर की अंतिम फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के अंतिम सीन में जब प्यासा राज कपूर भटक रहे होते हैं तो नरगिस उनको पानी पिलाती हैं। नरगिस इस सीन को करना नहीं चाहती थी लेकिन वहां मौजूद सभी लोगों के आग्रह को वो टाल नहीं पाईं। माना यह गया कि ये सीन नरगिस को आर के स्टूडियोज की तरफ से दिया जानेवाला फेयरवेल था।
राज कपूर और नरगिस से जुड़े सैकड़ों किस्से और यादें तो इस जगह से जुड़े ही हैं अन्य नायक नायिकाओं और कलाकारों से जुड़े दिलचस्प किस्सों का भी ये परिसर गवाह रहा है। यहीं राज कपूर और राजेश खन्ना के बीच रात भर बात होती रही थी। राज कपूर चाहते थे कि सत्यम शिवम सुंदरम में राजेश खन्ना काम करें। उन्होंने रात को उनको अपने कॉटेज पर बुलाया और फिर रसरंजन के दौर चले लेकिन बात नहीं बन सकी। जीनत अमान के साथ शशि कपूर को इस फिल्म में रोल मिला था। इस फिल्म को लेकर ही राज कपूर और लता मंगेशकर के रिश्तों में खटास आनी शुरू हुई थी। दरअसल राज कपूर ने लता मंगेशकर के साथ मिलकर सूरत और सीरत नाम से एक फिल्म की योजना बनाई थी जो परवान नहीं चढ़ सकी थी। बाद में जब राज कपूर ने उसी थीम पर सत्यम शिवम सुंदरम बनाई तो लता को जीनत अमान का चुनाव अखर गया। लता और राज कपूर के संबंध भी बहुत मधुर थे। कई रात सता मंगेशकर ने राज कपूर के कॉटेज में तानपूरे पर गाते हुए बिताई थी। ऐसी कई घटनाओं का गवाह रहा आर के स्टूडियोज अब किताब के पन्नों में रह जाएगा। हिंदी सिनेमा के एक सौ साल के इतिहास में आर के स्टूडियोज लगभग पचास साल तक हिंदी फिल्मों के केंद्र में रहा लेकिन अब वहां गगन चुंबी इमारत होगी और ये सभी यादें उन गगन चुंबी इमारतों के नीचे दफन हो जाएंगी। इसको बचाने की कोई कोशिश भी नहीं की गई। राज कपूर जैसे शोमैन से डुड़ी यादों को सहेजने के लिए कोई पहल नहीं हुई। राज कपूर और उनकी कला सिर्फ कपूर परिवार का नहीं है वो हमारे देश का है। इसको संभालने और बचाने की जिम्मेदारी हम सबकी थी, लेकिन ऐसा हो ना सका।
जरूरत इस बात की है कि हमारे देश में एक सांस्कृतिक नीति बने जिसमें अपनी विरासत और धरोहर को संजोने के लिए ठोस कदम उठाने की नीति शामिल की जाए। ये सिर्फ फिल्मों से जुड़ा मसला नहीं है हमारी कला संस्कृति की समृद्ध विरासत कई स्थानों पर बेहतर रख-रखाव आदि के अभाव में नष्ट हो रही है। भारतीय प्राच्य विद्या का खजाना कई प्राचीन पुस्तकालयों में नष्ट होने के कगार पर है। उनको संभालने की भी जरूरत है अन्यथा एक समय ऐसा आ सकता है जब हम विकास की गगनचुंबी इमारत पर तो खड़े होंगे लेकिन हमारे पास ना तो कोई धरोहर बचेगा और ना ही हमारी विरासत होगी। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ ठोस नीति चाहिए।