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Saturday, December 28, 2019

हैशटैग पर बनकर सफल होती फिल्में


देश में आर्थिक मंदी पर कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के बयान का खूब मजाक बना था। रविशंकर प्रसाद ने तब कहा था कि जहां एक दिन में फिल्में सौ करोड़ से अधिक कमा रही हैं तो मंदी कैसे हो सकता है। जब उनका ये बयान आया था तब उसका ना सिर्फ मजाक बना था बल्कि विपक्ष समेत कई स्वतंत्र स्तंभकारों ने रविशंकर प्रसाद को घेरा था। टेलीविजन चैनलों पर बहस भी हुई थी। कई लोगों ने रवि बाबू के इस बयान को गंभीर मुद्दे को हल्के में लेनेवाला करार दिया था। बाद में इस मुद्दे पर सफाई आदि भी आई। लेकिन अब जो आंकड़ें आ रहे हैं वो इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि कम से कम हिंदी फिल्म उद्योग मंदी से प्रभावित नहीं है। रविशंकर प्रसाद भले ही मजाक मे कह रहे हों लेकिन अगर किसी सैक्टर में ग्रोथ तीस प्रतिशत से अधिक हो तो वहां मंदी जैसी बात तो नहीं ही कही जा सकती है। 2019 में फिल्मों के कारोबार का आंकड़ा चार हजार करोड़ को पार कर गया है। एक अनुमान के मुताबिक इस वर्ष फिल्मों का कारोबार चार हजार तीन सौ पचास करोड़ से ज्यादा का रहा जो पिछले वर्ष की तुलना में हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा है। इस वर्ष एक हिंदी फिल्म वॉर ने तीन सौ करोड़ से अधिक का बिजनेस किया जबकि तीन हिंदी फिल्मों ने दो सौ करोड़ रुपए से ज्यादा और दो ने दो सौ करोड़ का कारोबार किया। इसके अलावा तीन फिल्में ऐसी रहीं जिनका कारोबार डेढ़ सौ करोड़ से अधिक रहा। इस लिहाज से देखें तो दो हजार उन्नीस फिल्मों के कारोबार के लिहाज से अबतक का सबसे अधिक मुनाफा देने वाला वर्ष बन गया। सबसे अधिक कमाई तो फिल्म वॉर ने की जिसने तीन सौ करोड़ से अधिक का कारोबार किया और अगर इसमें तमिल और तेलुगू वर्जन को मिला दें तो ये आंकड़ा सवा तीन सौ करोड़ रुपए तक पहुंच जाता है।
वॉर के बाद कबीर सिंह ने दो सौ अस्सी करोड़ से अधिक का बिजनेस किया। इस फिल्म की काफी आलोचना भी हुई थी लेकिन बावजूद इसके दर्शकों ने इसको पसंद किया। कबीर सिंह तेलुगू फिल्म अर्जुन रेड्डी का हिंदी रीमेक है। इस फिल्म में शाहिद कपूर ने एक ऐसे शख्स की भूमिका निभाई है जिसको बहुत जल्दी गुस्सा आता है। सर्जन बनने के बाद भी वो शराब पीकर और ड्रग्स के डोज लेकर ऑपरेशन करता है। महिलाओं के प्रति हिंसा उसके व्यवहार उसके काम-काज के दौरान दिखता है। ये वही दौर था जब उरी और केसरी जैसी देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्में बॉक्स ऑफिस पर जोरदार कमाई कर रही थीं तो दूसरी तरफ कबीर सिंह जैसी फिल्म को भी दर्शक हाथों हाथ ले रहे थे। कबीर सिंह के अलावा उरी द सर्जिकल स्ट्राइक ने भी ढाई सौ करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया। हाउसफुल 4 और टोटल धमाल आदि भी कमाई में अव्वल रहीं।
इसके अलावा इस वर्ष हिंदी सिनेमा में एक और प्रवृत्ति दिखाई देती है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। वो है देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्मों का जमकर कारोबार करना। 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश में राष्ट्रवाद को लेकर काफी बातें होने लगीं थीं। राष्ट्रवाद के पक्ष और विपक्ष में तर्क-कुतर्क भी हुए, हिंसा से लेकर आंदोलन भी हुए। सोशल मीडिया पर राष्ट्रवाद कई बार ट्रेंड भी करता रहता है। राष्ट्रवाद का ये विमर्श अब भी अलग अलग रूपों में जारी है। फिल्मकारों ने राष्ट्रवाद के इस विमर्श को अपनी फिल्मों का विषय बनाया और जमकर मुनाफ कमाया। अगर हम सिर्फ नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में बनी फिल्मों पर नजर डालते हैं तो ये पाते हैं कि इस दौर में तीन दर्जन ने अधिक फिल्में ऐसी बनीं जिसमें देशभक्ति और राष्ट्रवाद के साथ-साथ भारत और भारतीयता को सकारात्मकता के साथ पेश करनेवाली फिल्मों ने जमकर कमाई की। उरी द सर्जिकल स्ट्राइक का उदाहरण तो सबके सामने है ही। इसके अलावा अगर हम नाम शबाना और गाजी अटैक जैसी फिल्मों को भी लें तो उसने अच्छा मुनाफा कमाया। पहले ज्यादातर लगान जैसी फिल्में बनती थीं जिसमें अंग्रेजों से गुलामी का बदला लिया जाता था और देशप्रेम की भावना को उभार कर निर्माता निर्देशक दर्शकों को सिनेमा तक खींच कर लाते थे, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद स्थितियां बदलने लगीं। अब तो देश के गौरव को स्थापित करनेवाली फिल्में दर्शकों को पसंद आने लगीं। दर्शकों को देश की सफलता की कहानी भी पसंद आने लगी। मिशन मंगल की सफलता इसकी एक बानगी भर है. इसमें भारत की अंतरिक्ष में कामयाबी की गौरव गाथा है। इस तरह हम ये कह सकते हैं कि राष्ट्रवाद की लहर से फिल्म उद्योग अछूता नहीं रहा। देशभक्ति, देश की गौरव गाथा, देश से जुड़ा गौरवशाली पल ये सब दर्शकों को पसंद आने लगा है। चाहे वो केसरी हो या बजरंगी भाईजान या फिर भारत
इस तरह की फिल्मों की सफलता से हिंदी फिल्मों से खान साम्राज्य के दबदबे में कमी की घोषणा भी हो गई है। आमिर खान की ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान बुरी तरह से फ्लॉप रही। शाहरुख खान की 2019 में कोई फिल्म आई नहीं। इसके पहले जीरो को दर्शक नकार चुके हैं। ले देकर सलमान खान अब भी मैदान में डटे हुए हैं। इससे अलग कुछ ऐसे चेहरे हिंदी फिल्मों में स्थापित हुए जिसमें लोग अपने जैसी छवि देखते हैं। आयुष्मान खुराना से लेकर विकी कौशल जैसे अभिनेताओं ने अपनी अदाकारी से खुद को तो स्थापित किया ही फिल्मों को कारोबार के लिहाज से भी सफल बनाया।
इन सबसे अलग हटकर एक और तथ्य है जिसकी ओर फिल्मकारों ने ध्यान दिया और वो सफल रहे। पिछले पांच सालों से फिल्मकारों ने खबरों पर फिल्में बनानी शुरू कर दी हैं। जिस भी खबर ने देशव्यापी चर्चा हासिल की या जिस भी खबर को लेकर सोशल मीडिया पर मुहिम चली और उसका हैशटैग ट्रेंड करने लगा उन खबरों पर देर सबेर फिल्म बनी। नोएडा में स्कूली छात्रा आरुषि कलवार हत्याकांड पर मेघना गुलजार ने तलवार फिल्म बनाई। इसी तरह से लखनऊ में हुए एनकाउंटर और फिर परिवार का मुठभेड़ में मारे गए अपने लड़के का शव लेने से इंकार कर देने की घटना पूरे देश में चर्चा का विषय बनी थी। उस समय इस खबर को पूरे देश में एक मिसाल के तौर पर देखा गया था। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने इस घटना को केंद्र में रखकर फिल्म मुल्क का निर्माण किया। ये फिल्म दर्शकों को खूब पसंद आई। अनुभव ने ही उत्तर प्रदेश के बदायूं में दो बहनों की मौत और उनके शव पेड़ पर लटके मिलने की बेहद चर्चित खबर को केंद्र में रखकर आर्टिकल15 बनाई। इस खबर की भी देश-विदेश में चर्चा हुई थी। सीबीआई जांच तक हुई थी। कई दिनों तक न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम पर पेड़ से लटकी दो लड़कियों की तस्वीरों पर चर्चा हुई थी। इसी तरह से अलीगढ़ के एक समलैंगिक प्रोफेसर की कहानी पर अलीगढ़ के नाम से फिल्म बनी। तलवार फिल्म बनाने वाली मेघना गुलजार अब छपाक लेकर आ रही हैं जो एसिड अटैक पीड़ित लक्ष्मी की कहानी है। इस फिल्म में दीपिका पादुकोण केंद्रीय भूमिका में हैं। ये वारदात भी देशभर में चर्चित रही थी। अगर हम विचार करें तो ये पाते हैं कि हैशटैग पर फिल्म बनने की जो शुरुआत कुछ सालों पहले शुरू हुई थी वो दो हजार उन्नीस में आकर और मजबूत हुई और अब इसने एक ट्रेंड का रूप ले लिया है।
कुछ फिल्मकार इसको फिल्मों में यथार्थवादी कहानियों की वापसी के तौर पर देखते हैं। उनका कहना है कि इस तरह की कहानियों से दर्शकों को उन प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है जो खबरों से नहीं मिल पाता है। फिल्मों में खबरों को फिक्शनलाइज करके दिखाया जाता है जिससे उनको ये छूट रहती है कि वो अपने हिसाब से खबर को उसके अंजाम तक पहुंचा सकें। इस प्रवृत्ति को साफ तौर पर फिल्म मुल्क से लेकर तलवार तक में देखा जा सकता है। इस तरह की फिल्मों के निर्देशकों को ये छूट भी मिल जाती है कि खबर को लेकर जन भावना के साथ अपनी फिल्म के क्लाइमैक्स को पहुंचा दे या फिर निर्देशक अपनी विचारधारा के हिसाब से दर्शकों को ज्ञान दे। लेकिन जनभावना अगर छूटती है तो फिल्म की सफलता संदिग्ध हो जाती है जिसका उदाहरण अलीगढ़ फिल्म की असफलता में देखा जा सकता है। तलवार में मेघना ने लगभग जन भावना के अनुरूप ही फिल्म का क्लाइमैक्स रचा। 2019 को हम फिल्मों के इतिहास में कारोबार के लिहाज से अबतक के सबसे सफलतम वर्ष में रख सकते हैं। इस वर्ष को फिल्मों के अधिक लोकतांत्रिक होने के वर्ष के रूप में भी याद किया जा सकता है।     

Thursday, December 26, 2019

हिंदी साहित्य के अजातशत्रु लेखक को नमन

18 दिसंबर की बात है, साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हुई थी। हिंदी के लिए नंदकिशोर आचार्य को पुरस्कार देने की घोषणा की गई थी लेकिन जूरी ने गंगा प्रसाद विमल के नाम पर भी विचार किया था। मुझे जब इस बात का पता चला तो मैंने शाम को उनको फोन किया और जूरी में हुई चर्चा के बारे में उनको बताते हुए अफसोस प्रकट करने के अंदाज में उनसे बोला कि सर! पुरस्कार आपको मिलते मिलते रह गया। विमल जी ने जो कहा उसने मुझे नि:शब्द कर दिया। बोले, अनंत जी कोई बात नहीं अभी और बेहतर लिखूंगा तो शायद जूरी मुझे पुरस्कार के लायक समझे। अस्सी साल की उम्र में बेहतर लेखन की ये ललक हिंदी साहित्य में कम ही मिलती है। अपने इस एक वाक्य से उन्होंने ये सीख दे दी कि अगर कुछ नहीं मिला तो निराश नहीं होना चाहिए बल्कि उसको चुनौती के तौर पर लेना चाहिए और बेहतर और सकारात्मक करना चाहिए। विमल जी को लंबे समय से जानता था। पिछले महीने 15 नवंबर को पटना पुस्तक मेला के दौरान दैनिक जागरण ने सान्निध्य कार्यक्रम किया था। कार्यक्रम में विमल जी को लेकर हम पटना गए थे। विमल जी ने कार्यक्रमों में जाना बहुत कम कर दिया था लेकिन वो दैनिक जागरण के कार्यक्रम में पहुंचे और सक्रिय भागीदारी की। कार्यक्रम के बाद रात को होटल में खाने की मेज पर बैठे तो साहित्य चर्चा शुरू हो गई। साथ में हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी भी बैठे थे। महाभारत और रामायण पर चर्चा होने लगी। चर्चा इस बात पर होने लगी कि महाभारत दुनिया का सबसे बड़ा क्राइम थ्रिलर है। उसके पात्रों की बहुलता और स्त्री पात्रों पर चर्चा हुई। विमल जी को महाभारत के इतने प्रसंग याद थे कि कब रात के एक बज गए पता ही नहीं चला।
जगूड़ी जी ने चर्चा को साहित्य में श्रृंगार रस की ओर मोड़ा तो विमल जी उसमें भी उसी अंदाज में भागीदार बने। जब चर्चा वाल्मीकि रामायण के आधार पर स्त्रियों के आभूषणों और श्रृंगार पर वासुदेव शरण अग्रवाल की लिखी पुस्तक श्रृंगार हाट की चली तो विमल जी ने उस पुस्तक में रानियों के अलावा राक्षस स्त्रियों के आभूषणों पर बोलते रहे। जगूड़ी जी को भी उस पुस्तक की याद आ रही थी। ये पुस्तक अब मिलती नहीं है। गंगा प्रसाद विमल जी ने एक बार फिर से उस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा जताई थी और मुझे ये जिम्मा सौंपा था कि कहीं मिले तो उसकी फोटो कॉपी उनको दूं। उनके असमय चले जाने से उनकी ये इच्छा पूरी नहीं हो पाई।
विमल जी के साथ हमारी ढेर सारी यादें हैं। अब से करीब बीस साल पहले की बात होगी। हमलोग एक शादी में मेरठ गए थे। रास्ते में मैंने उनका एक लंबा इंटरव्यू रिकॉर्ड किया था। विमल जी अपने स्वभाव के विपरीत उस दिन बेहद आक्रामक थे और वामपंथ के खिलाफ काफी कुछ बोल गए थे। शादी समारोह में काफी रात हो गई थी और विमल जी रसरंजन के बाद मगन हो गए थे। मैं, विमल जी और रुद्रनेत्र शर्मा जी मेरठ से लौट रहे थे। दिल्ली में भयानक गर्मी पड़ रही थी। तब विमल जी पटपड़गंज में रहा करते थे। ये हमें भी मालूम था लेकिन अपार्टमेंट का पता नहीं था। हम जब इंदिरापुरम से आगे बढ़े तो उनसे पूछा कि आपको कहां छोड़ दें, किस अपार्टमेंट में रहते हैं। विमल जी ने कहा कि मुझे याद नहीं है। फिर बोले कि मदर डेयरी वाली रोड पर एक मंदिर है वहीं मेरा घर है। आपलोग मंदिर के पास मुझे छोड़ दो मैं घर चला जाऊंगा। हमने मंदिर के पास उनको उतार दिया। तब रात के करीब डेढ़ बजे थे। जब हम थोड़ा आगे चले गए तो रुद्रनेत्र जी ने कहा कि एक बार वापस चलते हैं और देख लेते हैं कि विमल जी अपने घर गए कि नहीं। हमलोग वापस मंदिर के पास पहुंचे तो विमल जी वहीं फुटपाथ पर बैठे थे। अब रात के करीब दो बज रहे हैं, विमल जी से पूछा तो फिर वही उत्तर कि याद नहीं। फिर किसी तरह से उऩको लेकर हम पैदल ही उस रोड पर चले तो थोड़ा आगे बढ़ते ही एक अपार्टमेंट के गेट पर खड़े गार्ड ने विमल जी को पहचान लिया और बोला सर तो यहीं रहते हैं। हमारी जान में जान आई। गार्ड विमल जी को लेकर उनके फ्लैट पर पहुंचा आया। अगले दिन विमल दी से बात हुई तो एकदम सामान्य, बीती रात की कोई चर्चा ही नहीं।
गंगा प्रसाद विमल हिंदी के बेहद समादृत लेखक थे, प्रतिभाशाली भी। उन्होंने विपुल लेखन किया और उनकी पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। हिंदी में अकहानी आंदोलन के प्रणेता के तौर पर भी उऩको याद किया जाता है। उन्होंने हिंदी कहानी को अपनि लेखनी से समृद्ध किया। गंगा प्रसाद विमल ने कहानी के अलावा कविताएं भी लिखीं और एक कवि के रूप में हिंदी साहित्य में अपनी पहचान स्थापित की। कहानी और कविता के अलावा विमल जी ने उपन्यास भी लिखा। 1971 में प्रकाशित उनका उपन्यास कहीं कुछ और को पाठकों ने बहुत पसंद किया था। विमल जी ने दिल्ली के जाकिर हुसैन कॉलेज में अध्यापन किया, केंद्रीय हिंदी निदेशालय के एक दशक से अधिक समय तक निदेशक रहे, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में प्रोफेसर रहे। जेएनयू से रिटायर होने के बाद दिल्ली का इंडिया इंटरनेशनल सेंटर उनकी पसंदीदा जगह थी। वहीं वो मिलते भी थे और साहित्यिक चर्चाएं भी करते थे। विमल जी जितने अच्छे लेखक थे उतने ही अच्छे व्यक्ति भी थे। इस वजह से पूरे साहित्य जगत में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो विमल जी का मुरीद ना हो। साहित्य के इस अजातशत्रु लेखक को नमन।

Saturday, December 21, 2019

पुरस्कार प्रक्रिया से बेनकाब प्रपंच


देशभर को साहित्य अकादमी पुरस्कारों का इंतजार रहता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार को लेकर हमेशा विवाद होते रहते हैं, कभी छिटपुट तो कभी बड़ा। इस वर्ष भी हुआ। पहले तो मैथिली भाषा के संयोजक प्रेम मोहन मिश्रा ने इस्तीफा का मेल भेजकर विवाद को हवा देने की कोशिश की। मिश्र को पुरस्कार की प्रक्रिया से ही परेशानी थी। खबरों के मुताबिक प्रेम मोहन मिश्र ने अकादमी को जो पत्र भेजा उसमें पुरस्कार देने की लिए जूरी के गठन पर सवाल उठाते हुए वहां एक रैकेट के सक्रिय होने का आरोप जड़ा। उनका आरोप है कि इस बार जूरी के सदस्यों का नाम पहले ही सार्वजनिक हो गया और ये भी सबको पता था कि इस वर्ष का पुरस्कार किसको दिया जाएगा। उनकी मांग है कि जूरी के चयन और पुरस्कार की प्रक्रिया गोपनीय होनी चाहिए। अभी तक जो प्रक्रिया है उसके मुताबिक हर भाषा के जो प्रतिनिधि होते हैं वही जूरी के सदस्यों का नाम प्रस्तावित करते हैं। जब नई आम सभा का गठन होता है तो सभी सदस्यों को एक पत्र भेजा जाता है और उनसे, आधार सूची बनाने के लिए, प्राथमिक सूची पर विचार करने के लिए और फिर अंतिम जूरी के सदस्यों के लिए संभावित लोगों के नाम मांगे जाते हैं। सभी भाषा के सदस्यों के नाम जब आ जाते हैं तो उसको मिलाकर एक विस्तृत सूची तैयार की जाती है। इसी सूची से पांच साल तक हर प्रकार की जूरी का चयन किया जाता है। साहित्य अकादमी के चारों पुरस्कार के लिए इसी विस्तृत सूची से हर वर्ष नाम निकालकर अध्यक्ष के सामने रख दिया जाता है।
अध्यक्ष के सामने जूरी के सदस्यों का नाम रखने के पहले ये जांच लिया जाता है कि कोई भी नाम पिछले साल के दौरान तो जूरी का सदस्य नामित नहीं हुआ। नियम ये है कि एक बार जो व्यक्ति जूरी का सदस्य नामित हो जाता है वो अगले साल किसी स्तर पर जूरी का सदस्य नामित नहीं किया जाता है। इस जांच पड़ताल के बाद जो भी नाम अध्यक्ष के सामने आते हैं उसमें से वो तीन नाम का चयन करते हैं जो वर्ष और भाषा विशेष की जूरी में शामिल होते हैं। अगर साहित्य अकादमी में नियमानुसार जूरी के सदस्यों का चयन किया गया है तो प्रेम मोहन मिश्र भी उसके सहभागी माने जा सकते हैं क्योंकि नाम तो उन्होंने भी प्रस्तावित किया होगा। मिश्र जी के हवाले से जो खबर छपी है उसके मुताबिक उन्होंने दस दिसंबर को पहली बार आपत्ति की। दस दिसंबर को आपत्ति करने का अर्थ इस वजह से नहीं रह जाता है कि तबतक पुरस्कार का काम लगभग पूरा हो चुका था। अंतिम चयन पर विचार बाकी रह गया था।
मिश्र का एक आरोप पुरस्कार के रैकेट का भी है। इस तरह का रैकेट वामपंथियों के दबदबे वाले काल में सक्रिय रहता था लेकिन पिछले कई वर्षों से ऐसी बात सामने नहीं आई है। उस वक्त तो ये होता था कि महीनों पहले से साहित्य जगत को पता होता था कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार किसको दिया जाना है। इस स्तंभ में कई बार इसकी चर्चा भी हो चुकी है और बता भी दिया गया था कि किसको पुरस्कार मिलनेवाला है, उसको ही मिलता भी था। गड़बड़ी तो यहां तक होती थी कि लंबी कहानी को उपन्यास मानकर उसी श्रेणी में पुरस्कार भी दे दिया जाता था।
राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस के कई नेताओं के अलावा वामपंथी बुद्धिजीवी भी लगातार ये आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार संस्थाओं को नष्ट कर रही है। उसकी परंपराओं को भंग कर रही है और स्वयत्त संस्थाओं के कामकाज में हस्तक्षेप कर रही है। लेकिन इस बार साहित्य अकादमी में एक ऐसी घटना हुई जो कांग्रेस और वामपंथियों के इन आरोपों को नकारने के लिए काफी है। इस वर्ष अंग्रेजी के लिए कांग्रेस के तिरुवनंतपुरम से सांसद और लेखक शशि थरूर को उनकी पुस्तक एन एरा ऑफ डार्कनेस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। अगर साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को बाधित करने या उसको कमजोर करने की कोशिश होती तो क्या शशि थरूर को पुरस्कार मिल पाता? क्या साहित्य अकादमी के फिछले छह दशक के इतिहास में कभी ऐसा हुआ है कि विरोधी विचारधारा ही नहीं प्रमुख विपक्षी दल के सांसद को पुरस्कृत किया गया हो। संभवत: नहीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लेखकों की तो छोड़िए भारतीयता की बात करनेवाले लेखकों के नाम पर भी साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए विचार हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। नरेन्द्र कोहली के के नाम पर कभी विचार भी हुआ ऐसी चर्चा तक नहीं हुई। पाठकों को ये तय करना चाहिए कि असहिष्णु कौन है या अपनी विचारधारा को सृजनात्मकता पर थोपने की कोशिश किस विचारधारा के लोग करते हैं। प्रेम मोहन मिश्र को इस तरह की बातों पर भी प्रकाश डालना चाहिए था।
पिछले सप्ताह के स्तंभ में इस बात की चर्चा की गई थी कि दो हजार पंद्रह के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी का जो अभियान चला था उसमें शामिल उदय प्रकाश, मंगलेश, अशोक वाजपेयी जैसे लेखक किस तरह से अकादमी पुरस्कारों को अपने परिचय में शान से शामिल करते हैं। इस बार तो इस तरह के लेखक और बेनकाब हो गए और इस बात को और बल मिला कि पुरस्कार वापसी अभियान ना केवल मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए किया गया था बल्कि अपने राजनीतिक आकाओं के कहने पर उनके राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए साहित्य का इस्तेमाल किया गया। दरअसल लक्ष्य तो बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ माहौल बनाना था। उनको अभिव्यक्ति की आजादी की ना तो चिंता थी और ना ही वो लेखकों पर हो रहे हमलों से व्यथित थे।
शशि थरूर को जिस जूरी ने पुरस्कार योग्य माना उसमें शामिल लेखकों के नाम देख लेते हैं। इससे कुछ और लोग बेनकाब होंगे। पहला नाम है जी एन देवी, दूसरा के सच्चिदानंदन और तीसरे हैं सुकांत चौधरी। जी एन देवी वही शख्स हैं जिन्होंने जोर-शोर से पुरस्कार वापस करने की घोषणा की थी और मोदी सरकार पर तमाम तरह के आरोप जड़े थे। दूसरे शख्स हैं के सच्चिदानंदन जिन्होंने पुरस्कार तो वापस नहीं किया था लेकिन उस वक्त अंग्रेजी की सलाहकार समिति से विरोधस्वरूप इस्तीफा दे दिया था। साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी को एक ईमेल भेजकर विरोध जताया था और तिवारी को अहंकारी आदि कहा था। तब सच्चिदानंदन ने साहित्य अकादमी से भविष्य में किसी प्रकार का संबंध नहीं रखने का एलान भी किया था। बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद वो सब भूल गए और अकादमी से अपने संबंध बना लिया और इस वर्ष तो जूरी में भी शामिल रहे। अब ये बात समझ से परे है कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अभिव्यक्ति की आजादी कैसे बहाल हो गई और किस तरह से लेखक सुरक्षित हो गए। अगर दोनों चीजें हो गईं तो स्वीकार की घोषणा भी होनी चाहिए।
ये बात सिर्फ इन दोनों तक सीमित नहीं है, हिंदी की जूरी में रहे नंद भारद्वाज ने भी अपना पुरस्कार वापस किया था लेकिन उनको भी अकादमी से कोई परहेज नहीं है। अकादमी के लोग बताते हैं कि नंद भारद्वाज ने चंद दिनों के बाद ही पुरस्कार वापसी का अपना फैसला चुपचाप वापस ले लिया था और अकादमी को भेजे चेक आदि भी वापस ले लिए थे। सरकार के खिलाफ माहौल बनाने के लिए सार्वजनिक घोषणा और सुर्खियां बटोर लेने के बाद अकादमी के कार्यक्रमों में चुपके से भागीदारी की ये कला पता नहीं कहां से सीखते हैं ये बौद्धिक। ऐसे ही कई और लेखक हैं जिनमें पंजाबी के सुरजीत पातर, अंग्रेजी के केकी एन दारूवाला, इन लोगों ने भी पुरस्कार वापस किया था लेकिन अब सक्रिय रूप से साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों और क्रियाकलापों में भागीदार दिखते हैं। नैतिकता की मांग तो ये है कि इस तरह से सभी लेखक सार्वजनिक रूप से ये स्वीकार करें कि मोदी सरकार के उस दौर में लेखकों को डर लगता था लेकिन अब मोदी सरकार के दौरान ही लेखकों का वो कथित डर समाप्त हो गया और अभिव्यक्ति की आजादी बहाल हो गई। क्या पुरस्कार वापसी करनेवाले इन लेखकों से इस नैतिकता की उम्मीद की जा सकती है। क्या इनमें इतना नैतिक साहस बचा है या ये मान लेना चाहिए कि लेखकों में जो नैतिक आभा होती है उसको स्वार्थ और लाभ-लोभ ने ढंक लिया। साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्थान है जो भारत सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं है और लेखक समुदाय के लिए ये आवश्यक है कि इसकी स्वायत्ता बरकरार रहे। ये तभी संभव है जब लेखक समुदाय इसको राजनीति का अखाड़ा न बनाएं और यहां सृजन की ऐसी जमीन तैयार करें जहां रचनात्मकता की फसल लहलहा सके।

Saturday, December 14, 2019

सिनेमा और साहित्य की ओट में प्रपंच


एक फिल्मकार हैं, नाम हैं जाह्नू बरुआ। असमिया में फिल्में बनाकर मशहूर हुए हैं। फिल्मों का राष्ट्रीय पुरस्कार भी उनको मिल चुका है। तमाम सरकारी कमेटियों में स्थायी तौर पर उपस्थित रहते हैं। फिल्म आर्काइव से लेकर फिल्म हेरिटेज तक के प्रोजेक्ट में जुड़े हैं। पुणे के प्रतिष्ठिच फिल्म और टेलीविजन संस्थान से भी जुड़े रहे। केंद्र के अलावा राज्य सरकार की फिल्म नीतियां आदि से भी जुड़े रहते हैं। कान से लेकर अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में सरकारी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा रहे हैं। उनको भारत सरकार ने पद्म भूषण सम्मान से भी सम्मानित किया है। जाह्नू बरुआ का ये परिचय इस वजह से दे रहा हूं जिससे पता चल सके के वो कितने प्रतिभाशाली हैं और लोगों को ये भी समझ में आ जाए कि उनकी प्रतिभा किसी सरकार या किसी खास मंत्री की मोहताज नहीं है। किसी भी पार्टी की सरकार रहे वो समान रूप से मौजूद रहते हैं। कहना ना होगा कि बरुआ में इतनी प्रतिभा है कि चाहे सरकार कोई हो, किसी भी पार्टी की हो लेकिन उनकी अहमियत बनी रहती है। हलांकि सिनेमा से जुड़े कई लोग उनकी इस प्रतिभा को जुगाड़ प्रतिभा भी कहते हैं कि लेकिन अगर इसमें आंशिक सचाई भी है तो यह तो माना ही जा सकता है कि कम से कम इस तरह की प्रतिभा तो उनमें हैं कि वो खुद को अजातशत्रु बना चुके हैं। पर इन दिनों बरुआ साहब मोदी सरकार से खफा हैं। उनकी नाराजगी की वजह है नागरिकता संशोधन कानून। वो नागिरकता संसोधन कानून को असम की संस्कृति के खिलाफ मान रहे हैं लिहाजा इसका विरोध भी कर रहे हैं। अब कलाकार हैं तो उनके विरोध का तरीका भी कलात्मक ही होगा। लिहाजा उन्होंने असम फिल्म अवॉर्ड और असम सरकार के सहयोग से आयोजित फिल्म फेस्टिवल से अपनी फिल्म वापस लेने की घोषणा कर दी है। बरुआ की इस फिल्म भोगा खिड़की ( टूटी खिड़की) को मशहूर अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने प्रोड्यूस किया था। यहां तो ठीक है उनका गुस्सा और विरोध भी जायज हो सकता है लेकिन अपने विरोध को जताते हुए उन्होंने जो कहा वो बेहद आपत्तिजनक है। जाह्नू बरुआ ने कहा कि राजनीति के लिए नेता उनकी मातृभूमि को निर्वस्त्र कर रहे हैं। जब कलाकार, वो भी इतना प्रतिष्ठित और इतना मशहूर, अगर कुछ बोलता है तो उसको बेहद सोच समझ कर बोलना चाहिए। लेकिन कहा जाता है ना कि क्रोध में विवेक समाप्त हो जाता है। बरुआ भी इसी दोष के शिकार हो गए और नेताओं को निशाने पर लेने के क्रोध में उन्होंने मातृभूमि को निर्वस्त्र करने जैसी उपमा का चयन कर लिया। इससे जाह्नू की पितृसत्तात्मक सोच का पता चलता है। वो अपने विरोध के लिए किसी नारी के शरीर और उसको निर्वस्त्र करने की उपमा का प्रयोग करते हैं, क्यों? क्या अभिव्यक्ति के लिए उनको कोई दूसरा शब्द नहीं मिला था या ये मान लिया जाए कि जाह्नू के मानलिकता क्रोध में सार्वजनिक हो गई है। अगर जाह्नू की यही मानसिकता है तो उनकी तमाम कला और कलाकारी पर उनके यो तीन शब्द भारी पड़ रहे हैं। इससे तो ये भी साबित होता है कि एक संवेदनशील कलाकार की जो छवि उन्होंने गढ़ी वो वैसे हैं नहीं। अफसोस तो इस बात का है कि फिल्मों में नारी के चरित्र चित्रण को लेकर सवाल उठानेवाले सारे बयानवीर भी बरुआ की इन शब्दों पर खामोश हैं। दुख इस बात भी है कि वो सारे कलाकार जिनको भारत में डर लगता है वो भी बरुआ के इस नारी विरोधी पद पर खामोशी ओढ कर बैठ गए हैं। चुप्पी की इस राजनीति पर भी लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं क्योंकि बरुआ के इस बयान और फिल्म वापस लेने के फैसले पर सुर्खियां बनती हैं और मोदी सरकार को घेरने का एक मौका मिलता है कि देखो इतना बड़ा कलाकार भी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ है।
एक और उदाहरण देना चाहता हूं जिसपर देश का बौद्धिक वर्ग चुनी हुई चुप्पी का प्रदर्शन कर रहा है। वो भी नागरिकता संशोधन कानून के विरोध से ही जुड़ा हुआ है । एक उर्दू की लेखिका हैं शिरीन दलवी। इन्होंने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर दिया है। उनका मानना है कि ये कानून समाज के लिए विभाजनकारी है। उन्होंने अपने निर्णय की घोषणा के साथ-साथ अपने मित्रों को संदेश भी भेजा कि सीएबी नहीं चलेगा। उनके निर्णय को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और समुदाय विशेष के पक्षकारों ने इस तरह से प्रस्तुत किया जैसे कि किसी लेखक ने केंद्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया हो लेकिन ट्विटर पर ही ये बात भी साफ हो गई कि ये राज्य अकादमी का पुरस्कार था। यहां भी किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है उनको पुरस्कार मिला और अब वो उसको वापस करना चाहती हैं।
यहां दिलाना जरूरी है कि पुरस्कार वापसी सिर्फ प्रचार हासिल करने का एक औजार है इससे कुछ होता नहीं है। पाठकों को याद होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी देश में सहिष्णुता के मुद्दे पर हिंदी के कई लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का ऐलान किया था। हिंदी में पुरस्कार वापसी की शुरुआत सबसे पहले जादुई यथार्थवादी लेखक उदय प्रकाश ने शुरू किया था। तब उनको भारत में बहुत डर लग रहा था। अभी-अभी वाणी प्रकाशन से उदय प्रकाश की नई पुस्तक आई है नाम है, अम्बर में अबाबील। किताब को पलटते हुए मेरी नजर अंत में छपे उनके परिचय पर गई। वहां लिखा है- उदय प्रकाश को भारतीय एवं अंतराष्ट्रीय साहित्य में विशिश्ट स्थान प्राप्त है। देश और विदेश की लगभग समस्त भाषाओं में अनूदित और पुरस्कृत उनका साहित्य बदलते समय और यथार्थ का प्रामाणिक और साहसिक दस्तावेज है। साहित्य अकादमी, सार्क राइटर सम्मान, मुक्तिबोध सम्मान आदि के अतिरिक्त उनकी रचनाओं के अनुवाद को भी कई अंतराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है। अब इस परिचय पर विचार कीजिए तो ये आइने ती तरह साफ हो जाता है कि अकादमी पुरस्कार लौटाना किसी विरोध का हिस्सा नहीं था। अगर होता तो वो आपके परिचय का हिस्सा नहीं होता। उनके परिचय में बिल्कुल सही लिखा है कि उदय प्रकाश के साहित्य में साहित्य के बदलते समय और यथार्थ का प्रामाणिक दस्तावेज है। इससे ज्यादा बड़ा यथार्थ क्या हो सकता है जहां लेखक खुद को बेनकाब कर दे। उदय के इस परिचय में भी यही हुआ है।
ये सिर्फ उदय प्रकाश की ही बात नहीं है एक और हिंदी के कवि हैं नाम हैं मंगलेश डबराल। जब साहित्य अकादमी पर वामपंथियों का एकछत्र राज था तब इनको भी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। लिहाजा ये भी पुरस्कार वापसी का हिस्सा बन गए थे। अकादमी पुरस्कार लौटाकर उनको प्रचार मिला था क्योंकि उन्हें पता था कि साहित्य अकादमी किसी भी कीमत पर एक बार दिए पुरस्कार की ना तो राशि वापस स्वीकार कर सकती है और ना ही स्मृति चिन्ह आदि। इसकी पुष्टि कोर्ट ने भी की थी। यह सब जानते बूझते अकादमी पुरस्कार लौटाया गया था। बाद में मंगलेश जब भी मंच पर जाते रहे उनका परिचय साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक के तौर पर दिया जाता रहा और वो वहां बैठकर खुश होते रहे। एक बार भी उन्होंने रोकने या टोकने की जहमत नहीं उठाई कि उन्होंने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया है लिहाजा उनके परिचय में ये नहीं बोला जाए। अशोक वाजपेयी के साथ भी यही हो रहा है। जिन भी लेखकों ने पुरस्कार लौटाए, लगभग वो सभी साहित्य अकादमी पुरस्कार को अपने सर पर कलगी की तरह लगाए घूम रहे हैं लेकिन उस वक्त शहीद होने का जैसा प्रपंच करके पर्याप्त यश लूटा था। तो साहित्य पुरस्कार वापसी आदि को लेकर अब कोई स्पंदन हो नहीं पाता है। शिरीन को भी ये समझना होगा कि अब पुरस्कार वापसी से किसी प्रकार के यश की आशा करना व्यर्थ है।
दरअसल अगर हम इस पूरे प्रकरण को देखें तो एक बात और निकल कर आ रही है कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की वजह भी समझ में नहीं आ रही है। ना तो जाह्नू बरुआ और ना ही शिरीन दलवी अपने विरोध की वजह साफ कर पा रही हैं। जाह्नू का कहना है कि ये उनकी मातृभूमि को निर्वस्त्र करने की कोशिश है लेकिन जब उनसे पूछा गया कि कैसे तो वो कोई ठोस उत्तर नहीं दे पाए और संस्कृति को खतरे में बता कर निकल गए। लोकतंत्र में हर किसी को विरोध करने का हक है लेकिन विरोध साहित्य, सिनेमा और कला की ओट में होता है तो आपकी मंशा साफ होती है और फिर वो विरोध का प्रपंच हो जाता है। जरूरत इस बात की है कि जो साहित्य और कला जगत विरोध की भूमि बनती है वो ऐसे प्रपंचों को बेनकाब करने की भूमि भी बने ताकि उसकी प्रतिष्ठा और लोगों का उसमें भरोसा कायम रह सके।  

Saturday, December 7, 2019

संस्कृति को लेकर उदासीनता


हाल ही में एक सेमिनार में जाने का अवसर मिला जहां समाजशास्त्रियों को सुना। इस सेमिनार में संस्थाओं के बनाने और उसको सुचारू रूप से चलाने पर बात हो रही थी। सभी वक्ता अपनी-अपनी बात तर्कों के साथ रख रहे थे, ज्यादातर वक्ता नई संस्थाओं को बनाने के लिए तर्क दे रहे थे, कुछ तो मौजूदा संस्थाओं को कैसे अच्छे से चलाया जाए और उनको मजबूत किया जाए, इस बारे में दलीलें दे रहे थे, सलाह भी। लेकिन सबसे दिलचस्प तरीके से बात रखी एक एक बेहद अनुभवी समाजशास्त्री विद्वान ने, उन्होंने कहा कि संस्थाओं को बनाने को लेकर बहुत सारी बातें हुईं लेकिन वो इस बात को रेखांकित करना चाहते हैं कि संस्थाओं को कैसे कमजोर किया जा सकता है। संस्थाओं को कमजोर करने की बात करते-करते उन्होंने इसके दो प्रमुख अलिखित नियम बताए। उनका कहना था कि जब भी किसी संस्थान की भूमिका का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जाता है तो इसका बहुत ध्यान रखा जाता है। पहला अलिखित नियम ये कि संस्था के प्रमुख के पद पर किसी की नियुक्ति मत करो वो संस्था धीरे-धीरे इतनी कमजोर हो जाएगी कि अपने गौरवशाली अतीत को भी खो देगी और भविष्य में उसको अपने बनाए मानदंडों तक पहुंचने में भी लंबा वक्त लगेगा। दूसरा औजार ये है कि संस्था में ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करो जिसकी उस काम में रुचि नहीं है जो दायित्व उसको दिया गया हो। उनकी इन बातों को सुनते-सुनते मेरे दिमाग में उन संस्थाओं के नाम घुमड़ने लगे जो पिछले कई महीनों से खाली पड़े हैं और जिनको चलाने की जिम्मेदारी जिनपर है या जो उन संस्थाओं के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी हैं।
ये माना जाता है कि मौजूदा सरकार शिक्षा और संस्कृति को लेकर बेहद संजीदा है और इन क्षेत्रों पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाता है। संस्कृति को लेकर बहुत बातें होती हैं लेकिन संस्कृति पर कितना ध्यान है इसपर आगे विचार किया जाएगा पर पहले हम समझ लें कि संस्तृति क्या है और उसका निर्माण कैसे होता है। कवि-लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति पर बहुत गहराई से विचार किया है और उसपर काफी लिखा भी है। दिनकर ने लिखा है कि संस्कृति ऐसी चीज नहीं है जिसकी रचना दस बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती है। अनेत शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते, पढ़ते-लिखते, सोचते –समझते और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से उनकी संस्कृति का उत्पन्न होती है। असल में संस्कृति जिन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। संस्कृति असल में शरीर का नहीं आत्मा का गुण है। सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है तब भी हमाररी संस्कृति का प्रभाव हमी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है। दिनकर ने अपने इसी लेख में आगे लिखा है कि संस्कृति के उपकरण हमारे पुस्तकालय, संग्रहालय, नाटकशाला और सिनेमागृह ही नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक और आर्थिक संगठन भी होते हैं क्योंकि उन पर भी हमारी रुचि और चरित्र की छाप लगी होती है।
अब जरा हम इसपर ही विचार कर लें जिन उपकरणों की ओर दिनकर जी ने इशारा किया है। हमारे यहां राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है, इसकी बहुत प्रतिष्ठा है, यहां से पढ़कर निकले बहुत सारे कलाकारों ने अपनी कला के माध्यम से ना केवल इस संस्थान का नाम रौशन किया बल्कि अभिनय कला को भी समृद्ध किया। ऐसे कलाकारों की बहुत लंबी सूची है और उनके नाम गिनाने का यहां कोई अर्थ नहीं है। अब इसपर विचार किया जाना चाहिए कि यहां निदेशक का पद दिसंबर 2018 से खाली है यानि संस्था को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी जिसकी है वो व्यक्ति यहां लगभग ग्यारह महीने से नहीं है। इससे भी दिलचस्प कहानी है यहां के अध्यक्ष की। रतन थियम का कार्यकाल 2017 में समाप्त हो गया और तब से यहां नियमित अध्यक्ष नहीं है और संस्था के उपाध्यक्ष डॉ अर्जुनदेव चारण पर ही दायित्व संभाल रहे हैं। ये कहानी सिर्फ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की नहीं है। अब संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक और महत्वपूर्ण संस्था राष्ट्रीय अभिलेखागार पर विचार करते हैं। ये संस्था भारत सरकार के सभी अभिलेखों की संरक्षक है। इस संस्था में सालों से कोई नियमित महानिदेशक नहीं है, बीच में अल्प अवधि के लिए राघवेन्द्र सिंह को यहां का प्रभार मिला था लेकिन जल्द ही उनका भी तबादला हो गया। यहां का अतिरिक्त प्रभार संस्कृति मंत्रालय के अफसरों के पास रहा, अब भी है। एक और संस्था है राष्ट्रीय संग्रहालय। इस संस्था की जिम्मेदारी है ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और कलात्मक महत्व की पुरावस्तुओं एवं कलाकृतियों को प्रदर्शन, सुरक्षा और शोध के प्रयोजन से संग्रहीत करना। इस संस्था के मुख्य कार्यकारी का पद खाली है। एक और बेहद महत्वपूर्ण संस्था है जिसका नाम है नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय और इस संस्था के अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं। 15 अक्तूबर 2019 को इसके निदेशक का प्रभार राघवेन्द्र सिंह को दिया गया है वो भी छह महीने के लिए या जबतक नए निदेशक की नियुक्ति नहीं हो जाती। राघवेन्द्र सिंह भारत सरकार में सचिव के पद से सेवानिवृत हो चुके हैं और सेवानिवृत्ति के बाद संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत ही सीईओ- डेवलपमेंट ऑफ म्यूजियम और कल्चरल स्पेस का पद संभाल रहे हैं। नियमित निदेशक नहीं होने से कामकाज पर असर पड़ रहा है इसकी छोटी सी झलक इसकी वेबसाइट को देखने से मिल सकती है जहां पुरानी जानकारी अबतक लगी हुई है।
संस्कृति मंत्रालय से इतर अगर बात करें तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के कई संस्थाओं में भी उसके प्रमुख कार्यकारी नहीं हैं। एक संस्थान है राष्ट्रीय पुस्तक न्यास इसके निदेशक का पद भी रीता चौधरी का कार्यकाल खत्म होने के बाद से खाली पड़ा हुआ है। इस सरकार को हिंदी को प्रमुखता देने के लिए भी जाना जाता है लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संस्था है केंद्रीय हिंदी निदेशालय। इसमें वर्षों से नियमित निदेशक नहीं हैं और इसका काम अतिरिक्त प्रभार के जुगाड़ से ही चल रहा है। मैसूर में स्थित भारतीय भाषा संस्थान अपनी स्थापना के पचास साल मना रही लेकिन बगैर निदेशख के। इस महत्वपूर्ण संस्थान के निदेशक का पद खाली है। मानव संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत ही एक संस्थान है सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लासिकल तमिल। इसके निदेशक की जिम्मेदारी भी वहां के रजिस्ट्रार संभाल रहे हैं। दिनकर जी ने पुस्तकालय, संग्रहालय, नाटकशाला और सिनेमागृह को संस्कृति के उपकरण के तौर पर रेखांकित किया है। उनके इन औजारों के आधार पर इस विवेचन में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की संस्थाओं पर नजर डालें तो वहां भी कई संस्थानों में प्रमुख के पद खाली हैं।
सबसे पहले अगर हम देखें तो फिल्म समारोह निदेशालय में नियमित निदेशक का पद महीनों से खाली पड़ा है। इस संस्था के पास अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आयोजन की जिम्मेदारी से लेकर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के आयोजन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। दूसरा संस्थान है, भारतीय जन संचार संस्थान जो आईआईएमसी के नाम से जाना जाता है, वहां के महानिदेशक का पद भी लंबे समय से खाली है। इस संस्थान की देश दुनिया में प्रतिष्ठा है लेकिन इसके भी महानिदेशक के पद पर प्रभारी हैं। इसके अलावा दूरदर्शन के निदेशक का पद खाली है, आकाशवाणी के निदेशक का पद इसी महीने के अंत में खाली हो जाएगा। हलांकि ये दोनों पद विज्ञापित हो गए हैं लेकिन अगर कुछ वक्त के लिए भी ये पद खाली रहते हैं तो संस्थान के काम-काज पर तो असर पड़ेगा। क्या इन संस्थानों में ये व्यवस्था नहीं है कि एक व्यक्ति के कार्यकाल खत्म होने के पहले ही दूसरे की नियुक्ति हो जाए, जैसा गृह सचिव या कैबिनेट सचिव के पद के लिए होता है। इस बात पर उच्चतम स्तर पर विचार किया जाना चाहिए कि इतने सारे संस्थानों के पद क्यों खाली हैं? क्या अफसर नहीं चाहते कि इन पदों को भरा जाए क्योंकि इनके नहीं भरे जाने का लाभ उनको अतिरिक्त प्रभार के रूप में मिलता है। या क्या मंत्रियों की रुचि नहीं है।
जिन मंत्रालयों के कामकाज से संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है या यों कहें कि संस्कृति के निर्माण में जिनकी भूमिका है उनके प्रति इस तरह की उदासीनता का ये आलम प्रश्नाकुल कर देता है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि अगर आप किसी को प्यार करते हैं तो उसको प्रदर्शित भी करें। इस कहावत को अगर हम अपनी संस्कृति से जोड़कर देखें और विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि अगर हम अपनी संस्कृति से प्यार करते हैं तो हमें इसका प्रदर्शन भी करना चाहिए। ये प्रदर्शन कैसे होगा इसका सबसे बेहतर तरीका तो यही है कि हम संस्कृति के प्रति गंभीर रहें, गंभीर दिखें।

Saturday, November 30, 2019

गांधी के गुनहगार कम्युनिस्ट ?


पिछले दिनों दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में एक पुस्तक चर्चा के दौरान बेहद दिलचस्प बातें हुई। पुस्तक थी लेखक इकबाल रिजवी की गांधी और सिने संसार। इस पुस्तक में लेखक ने मोहनदास करमचंद गांधी और फिल्मों के रिश्तों पर रोचक तरीके से लिखा है। इस पुस्तक का प्रकाशन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने किया है। पुस्तक विमोचन के बाद उसपर एक चर्चा का आयोजन भी किया गया था जिसमें नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित लेखक शरद दत्त, भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक लीलाधर मंडलोई समेत कई अन्य लोग शामिल हुए थे। पुस्तक पर चर्चा के दौरान एक बात बार-बार आ रही थी कि गांधी पर किसी भारतीय निर्माता ने सम्रगता में फिल्म क्यों नहीं बनाई? एक वक्ता ने इसको गांधी के विराट व्यक्तित्व से जोड़ा और कहा कि बापू का जीवन इतना विराट था कि उसको तीन घंटे में समेटना बहुत ही मुश्किल काम है। एक अन्य वक्ता ने कहा कि टुकड़ों-टुकड़ों में गांधी को लेकर कई फिल्में बनीं और उन्होंने इसको कलात्मक स्वतंत्रता से जोड़ा और तर्क दिया कि फिल्मकार अपनी सोच के हिसाब से फिल्में बनाता है किसी शख्सियत को ध्यान में रखकर नहीं। काफी देर तक इस बात पर मंथन होता रहा कि किसी भारतीय निर्माता-निर्देशक ने गांधी पर मुकम्मल फिल्म क्यों नहीं बनाई। नेहरू जी का संसद में दिया गया वो बयान भी सामने आया जिसमें उन्होंने कहा था कि भारतीय निर्माताओं में गांधी पर फिल्म बनाने की क्षमता नहीं है।
सवाल अनुत्तरित रहा कि गांधी पर भारतीय फिल्म निर्माताओं ने फिल्म क्यों नहीं बनाई।घंटे भर की चर्चा में यह संभव भी नहीं था कि इस गंभीर और गूढ़ विषय पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। अब जरा अगर हम ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर करें और वहां से मिल रहे संकेतों को जोड़ें तो शायद निषकर्ष तक पहुंचने का रास्ता मिल सके। जब गांधी जी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की थी तो कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका विरोध किया था। इसके विरोध की वजह स्थानीय राजनीति या गांधी से मतभेद नहीं था, इसकी वजह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी को मॉस्को ये इस आंदोलन का विरोध करने का निर्देश प्राप्त हुआ था। जनवरी 1941 में रूस और जर्मनी के बीच व्यापक व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखकर समझौता हुआ था। उसके पहले भी नाजी जर्मनी और सोवियत रूस ने युद्ध सामग्री का जमकर आदान-प्रदान किया था। लेकिन जब जून 1941 में हिटर ने अपने पूर्व सहयोगी सोवियत रूस पर हमला कर दिया तो रातों रात नाजियों के खिलाफ संघर्ष को सोवियत रूस ने दूसरा रंग देते हुए उसको जन युद्ध बना दिया। इस रणनीति के तहत सोवियत रूस ने अपने एक विशेष दूत लार्किन को संदेश लेकर भारत भेजा जिसने कम्युनिस्ट पार्टियों को भारत छोड़े आंदोलन का विरोध करने का संदेश दिया। कम्युनिस्ट पार्टी ने पितृभूमि से आए संदेश को ग्रहण करते हुए जोरदार तरीके से भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध शुरू कर दिया।
भारत उस वक्त गुलामी के खिलाफ अपनी लड़ाई के अंतिम दौर में प्रवेश कर चुका था और कम्युनिस्ट पार्टी भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ जुलूस आदि निकालने लगी थी। देश की जनता को कम्युनिस्टों का ये रुख पसंद नहीं आ रहा था। जब कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध तेज किया तो जनता के सब्र का बांध टूट गया। हालात इतने बदतर हो गए थे और लोगों को गुस्सा इतना बढ़ गया था कि कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ जुलूस निकालते थे तो लोग छतों से उनपर खौलता हुआ पानी फेंक देते थे। भारत छोड़ो आंदोलन के समय ही कम्युनिस्ट और गांधी आमने सामने थे।
भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करने की वजह से 1942-43 में कम्युनिस्ट पार्टी की साख बुरी तरह से छीज गई थी। अपनी उसी छीज गई साख को नई पहचान और स्वीकृति देने के लिए कम्युनिस्टों ने भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना की। देश आजाद हुआ और कम्युनिस्टों ने देश की आजादी को झूठी आजादी करार दिया। तेलांगना में सशस्त्र क्रांति के मंसूबों के साथ खून बहाया। प्रतिबंधित हुए। इन सबके बीच भारतीय जन नाट्य संघ  से जुड़े लोग हिंदी फिल्म जगत में स्थापित हो चुके थे या माहौल कुछ ऐसा बनाया गया कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों से जुड़े लोग इप्टा से जुड़ते चले गए। फिल्म जगत में कम्युनिस्टों का दबदबा बढने लगा था लेकिन कोई गांधी पर समग्रता में फिल्म बनाने की नहीं सोच रहा था। कोशिश भी नहीं हो रही थीं। क्या इससे कोई संकेत निकलता है। क्या कम्युनिस्टों और उनसे संबद्ध संगठनों के कलाकारों ने गांधी की उपेक्षा उस वजह से की।
हिंदी फिल्मों में कम्युनिस्टों के प्रभाव को एक ही उदाहरण से समझा जा सकता है। 1945 में महबूब खान ने एक फिल्म बनाई थी नाम था हुमायूं। इस फिल्म में अशोक कुमार, नर्गिस, वीणा ने अभिनय किया था और इसकी कहानी लिखी थी वाकिफ मुरादाबदी ने। इस फिल्म के शुरुआती फ्रेम को ध्यान से देखने और उसपर विचार करने की आवश्यकता है। सेंसर सर्टिफिकेट और फिल्म में योगदान स्मरण के बाद तीसरे फ्रेम में महबूब प्रोडक्शंस और उसका लोगो है। इस फिल्म कंपनी के लोगो को ध्यान से देखा जाना चाहिए। इसमें हंसिया और हथौड़ा है और उसके बीच में अंग्रेजी का एम लिखा है। एम से दो चीजें हो सकती हैं या तो महबूब या मार्क्स । एम से मार्क्स का अंदाज इस वजह से लगाया जा सकता है कि कम्युनिज्म का अंतराष्ट्रीय निशान हंसिया और हथौड़ा है। जो शख्स कम्युनिस्ट पार्टी से इतना गहरे तक जुड़ा हो उससे क्या ये उम्मीद की जा सकती है कि वो पार्टी के विरोधी के खिलाफ फिल्म बनाए। ये तो गांधी और उनके विचारों की ताकत थी जो महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया में उभर कर सामने आती है। मदर इंडिया में महबूब खान गांधी से बचते हैं लेकिन फिल्म को गांधी के प्रभाव से नहीं बचा पाते। इस फिल्म की कहानी नायिका का यौन शोषण और हिंसा के खिलाफ अहिंसक तरीके से प्रतिकार का है। हिंदी फिल्मों में इप्टा के प्रभाव वाले निर्माताओं, निर्देशकों और लेखकों ने भी गांधी का दरकिनार किया और गांधीवाद को अपनाया चाहे वो फिल्म श्री 420 हो, फिल्म नया दौर हो या फिर 1952 में बनी फिल्म आंधियां हो। इन फिल्मों में समाजवाद और मार्क्सवाद को परोक्ष रूप से लाया गया लेकिन यहां भी मार्क्सवाद को गांधी के कंध की जरूरत पड़ी। फिल्म आंधियां में जब गांववाले सूदखोर के खिलाफ विरोध करते हैं तो सिद्धांत तो समाजवादी होता है लेकिन विरोध का औजार गांधीवादी। गांववाले सूदखोरों के खिलाफ सत्याग्रह करते हैं। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जहां इप्टा से जुड़े फिल्मकारों ने गांधी का उपयोग किया लेकिन गांधी पर फिल्म नहीं बनाई।
नेहरू ने भी किसी पर भरोसा नहीं किया कि वो गांधी पर फिल्म बना सकें बल्कि उन्होंने तो संसद में कहा कि भारत में किसी में क्षमता नहीं है कि वो गांधी पर फिल्म बना सकें। रिचर्ड अटनबरो जब नेहरू से मिले थे तब गांधी पर फिल्म बनाने की बात बहुत गंभीरता से आगे बढ़ी थी। तब भी नेहरू ने अटनबरो से ये कहा था कि गांधी जी एक महान व्यक्ति थे लेकिन उनके व्यक्तित्व में भी कमजोरियां थीं, उनकी विफलताएं भी थीं। हम हिंदुओं में एक प्रवृत्ति है कि जब हम किसी को महान समझते हैं तो उसको भगवान भी समझने लगते हैं। गांधी जी भी मनुष्य थे. एक जटिल मनुष्य और उनको उसी तरह से देखा जाना चाहिए।1958 के बाद नेहरू और अटनबरो की कई बैठकों में से एक बैठक में नेहरू ने उनसे ये भी कहा था कि गांधी पर बनने वाली फिल्म में उनको भगवान या संत नहीं बनाना चाहिए। फिर गांधी के जीवन पर बनने वाली फिल्म में आनेवाले खर्चे को लेकर भी लंबे समय तक भारत सरकार फैसला नहीं ले सकी। अटनबरो चाहते थे कि भारत सरकार गांधी पर फिल्म बनाने के उनके प्रोजेक्ट को धन दे। आखिरकार इंदिरा गांधी ने दस लाख डॉलर का अनुदान दिया और अटनबरो ने फिल्म बनाई। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि किसी भी भारतीय फिल्म निर्माता ने गांधी पर समग्रता में फिल्म क्यों नहीं बनाई। आज जब बॉयोपिक का दौर चल रहा है और मैरी कॉम से लेकर सचिन तेंदुलकर तक पर बयोपिक बन रहे हैं लेकिन अब भी गांधी पर फिल्म बनाने को लेकर किसी तरह की कोई पहल दिखाई नहीं देती। इस बात पर संवाद होना चाहिए, चर्चा होनी चाहिए कि आजादी के बाद के दशकों में किसी भारतीय फिल्म निर्माता ने फिल्म क्यों नहीं बनाई? इस लेख में जिन बिंदुओं की ओर इशारा किया गया है उसपर व्यापक बहस से किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।          

Saturday, November 23, 2019

बने चुनौतियों से मुठभेड़ की योजना


भारत सरकार के मानव संस्थान विकास मंत्रालय से संबद्ध एक संस्था है नाम है राष्ट्रीय पुस्तक न्यास। इस संस्थान की स्थापना 1957 में देश में पुस्तक संस्कृति के विकास के लिए की गई थी। इसका उद्देश्य हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च कोटि की पुस्तकों का प्रकाशन और पाठकों तक उचित मूल्य पर पहुंचाना है। इसके अलावा इस संस्थान का उद्देश्य देश में पुस्तक पढ़ने की प्रवृति को बढ़ावा देना भी है जिसके लिए ये पुस्तक मेलों का आयोजन आदि करती है। दिल्ली में प्रतिवर्ष आयोजित होनेवाला विश्व पुस्तक मेला इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। लेखकों और संस्थाओं को आर्थिक अनुदान भी देती है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक संस्थान बच्चों के लिए भीली, गोंडी, संथाली, और कई उत्तर पूर्व की भाषाओं जैसे नागा, भूटिया, बोरो, गारो, खासी, कोकबोरोक, लेप्चा, लिंबू, मिंजो आदि में पुस्तकों का प्रकाशन करती है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का दावा है कि वो उन विषयों के पुस्तकों के प्रकाशन पर विशेष ध्यान देता है जो अन्य प्रकाशकों द्वारा पर्याप्त रूप से प्रकाशित नहीं की जाती है। इसके अलावा ये जानकारी भी उपलब्ध है कि न्यास विदेशों में भी पुस्तक प्रोन्नयन के लिए केंद्रीय अभिकरण के रूप में विभिन्न अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेलों में सहभागिता करता है और वहां भारत के विभिन्न प्रकाशकों की चुनिंदा पुस्तकों की प्रदर्शनियों का आयोजन करता है। देश में पुस्तक संस्कृति के निर्माण और विकास के लिए न्यास का काम उचित कहा जा सकता है लेकिन विदेशों में पुस्तक प्रोन्नयन का काम किस तरह होता है इसको समझने की जरूरत है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास मैक्सिको में तीस नवंबर से आठ दिसंबर तक आयोजित होनेवाले पुस्तक मेले में भाग लेने जा रहा है। इसके पहले न्यास फ्रैंकफर्ट, मास्को, संदन, बीजिंग, आबू धाबी और शारजाह के अलावा कई अन्य देशों में पुस्तक प्रोन्नयन हेतु वहां लगनेवाले पुस्तक मेलों में भाग ले चुका है। यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि इनमें से ज्यादातार पुस्तक मेले बिजनेस टू बिजनेस यानि प्रकाशकों के विभिन्न कारोबार के लिए आयोजित किए जाते हैं पाठक वहां पुस्तक खरीद नहीं कर सकते हैं। मैक्सिको में आयोजित होनेवाला पुस्तक मेला बी टू सी यानि बिजनेस टू कस्टमर (कारोबार के साथ पुस्तक बिक्री) है जिसमें भाग लेने के लिए राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत से 18 लेखकों का भारी भरकम प्रतिनिधिमंडल लेकर जा रहा है। इस प्रतिनिधि मंडल में सी एस लक्ष्मी, लीलाधर जगूड़ी, सुकन्या दत्ता, मकरंद परांजपे, विनॉय बहल, अरुप कुमार दत्ता, मंजुला राणा, मिनि सुकुमार, मधु पंत, अनुष्का रविशंकर, रचना यादव, कैलाश विश्वकर्मा, योगेन्द्र नाथ अरुण, सुबीर रॉय, सोन्या सुरभि गुप्ता, अमीश त्रिपाठी(सहायक के साथ), बी आर रामकृष्णा और दिव्यज्योति मुखोपाध्याय शामिल हैं। इन लेखकों के अलावा न्यास के अधिकारियों और कर्मचारियों की टीम भी मैक्सिको में पुस्तकों के प्रोन्नयन हेतु जा रहे हैं। सवाल ये उठता है कि इतने लेखकों को ले जाने का औचित्य क्या है और वो किस तरह से वहां पुस्तकों का प्रोन्नयन करेंगे। वो क्या वहां आनेवाले प्रकाशकों के साथ बातचीत करके भारतीय भाषा के पुस्तकों का प्रोन्नयन करेंगे या फिर भारतीय भाषा के लेखकों की पुस्तकों के अनुवाद के अधिकार आदि पर बात करेंगे। इन सवालों के उत्तर खोजने की जरूरत है। सवाल तो ये भी उठता है कि पुस्तक न्यास के किस नियम के तहत इतनी बड़ी संख्या में लेखकों को विदेश यात्रा पर ले जाया जा रहा है और इनके चयन का मानदंड क्या है। मैक्सिको जानेवाले लेखकों का चयन एक समिति ने किया जिसमें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव सच्चिदानंद जोशी, साहित्य अकादमी के सचिव के एस राव और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अखिलेश मिश्र आदि शामिल थे। इस बात की पड़ताल होनी चाहिए कि क्या उनके सुझाए नामों में न्यास के अध्यक्ष ने कोई बदलाव किया या नहीं। अगर किया तो वो किन नियमों के तहत किया।
इसके पहले भी आबू धाबी में आयोजित पुस्तक मेले में लेखकों और न्यास के कर्मचारियों और अधिकारियों को ले जाने पर विवाद हो चुका है। अबूधाबी में पुस्तक के प्रोन्नयन में न्यास के दर्जनभर से अधिक कर्माचरियों को ले जाया गया था जिसमें अधिकारियों के निजी सहायक तक शामिल थे। इसके अलावा वहा जाने वाले लेखकीय प्रतिनिधिमंडल में कुछ ऐसे लोग भी गए थे जिनकी लेखकीय प्रतिभा से अभी साहित्य जगत का परिचय होना शेष है। दरअसल इस तरह के पुस्तक मेलों में लेखकों के प्रतिनिधिमंडल को ले जाने का काम साहित्य अकादमी का होता है। मैक्सिको पुस्तक मेला में भी साहित्य अकादमी की टीम अलग से जा रही है बावजूद इसके राष्ट्रीय पुस्तक न्यास डेढ दर्जन लेखकों को लेकर जा रहा है। इस बात की पड़ताल होनी चाहिए कि विदेशों में बिजनेस टू बिजनेस पुस्तक मेलों में में कितने भारतीय लेखकों की कृतियों के अनुवाद का अधिकार बिक सका, कितनी पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर विदेशी प्रकाशकों के साथ करार हुआ और सबसे बड़ी बात कितने भारतीय लेखकों का प्रकाशन उस देश की भाषा में हो सका। यहां पाठकों को यह भी जानना चाहिए कि पिछले मैक्सिको पुस्तक मेले में भी न्यास की टीम गई थी लेकिन प्राप्त जानकारी के मुताबिक वहां कोई कारोबारी करार नहीं हो पाया था। जरूरत इस बात की है कि न्यास के विदेशों में किए जा रहे पुस्तक प्रोन्नयन के इन कामों के बारे में सूक्ष्मता से जांच की जानी चाहिए क्योंकि न्यास करदाताओं की गाढ़ी कमाई से चलता है और वहां किसी तरह के अपव्यय पर ध्यान रखना जरूरी है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का मुख्य काम उचित मूल्य पर भारतीय भाषाओं के पुस्तकों का प्रकाशन है लेकिन पुस्तक प्रकाशन की क्या स्थिति है और किस अनुपात में भारतीय भाषाओं की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है ये जानना भी दिलचस्प होगा। हर घर तक पुस्तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है पुस्तकों की उपलब्धता को राष्ट्रीय पुस्तक न्यास सुनिश्चित करे। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा किताबों का बाजार है । अनुमान के मुताबिक किताबों का ये बाजार सालाना करीब साढे उन्नीस फीसदी की दर से बढ़ेगा और 2020 तक इस बाजार का आकार तेहत्तर हजार नौ सौ करोड़ तक पहुंच जाएगा । किताबों के बाजार में हिंदी किताबों का शेयर पैंतीस फीसदी है और अन्य भारतीय भाषाओं की किताबों की हिस्सेदारी मात्र दस फीसदी है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि भारतीय पुस्तक बाजार में अन्य भारतीय भाषा की पुस्तकें भी आनुपातिक हद में रहें। मैक्सिको जानेवाले लेखकों की सूची पर ध्यान दें तो यहां भी भारतीय भाषाओं के लेखकों के प्रतिनिधित्व में एक असंतुलन साफ दिखाई देता है। देश में आयोजित होनेवाले पुस्तक मेलों से पुस्तक बाजार में भारतीय भाषाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जा सकती है। देश का तीन सबसे बड़े पुस्तक मेला में से एक पटना पुस्तक मेला में राष्ट्रीय पुस्तक न्स की अनुपस्थिति रेखांकित की जानी चाहिए। मैक्सिको पुस्तक मेला में भागीदारी और पटना पुस्तक मेला में अनुपस्थिति, हैरान करती है।  
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से अपेक्षा ये की जाती है कि वो उच्च कोटि के साहित्य या फिर उच्च कोटि के लेखन को भारतीय पाठकों के सामने उचित मूल्य पर प्रस्तुत करेंगे लेकिन कई ऐसी संपादित पुस्तकें वहां से प्रकाशित हुई हैं जो बहुत ही निम्न कोटि की हैं। किसी का नाम लेना यहां उचित नहीं होगा लेकिन स्तरीयता से भी कई बार समझौता होता है। उन लेखकों की वो कृतियां भी घुमा फिराकर यहां से प्रकाशित हो जाती हैं जो पहले से किसी ना किसी प्रकाशक के यहां से प्रकाशित हो चुकी हैं। भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन इस संस्थान को चलाने के लिए बोर्ड ऑफ ट्रस्टी होते हैं, एक्जीक्यूटिव कमेटी होती है। अलग अलग भाषाओं की सलाहकार समितियां होती हैं। इतना बड़ा अमला होने के बावजूद राष्ट्रीय पुस्तक न्यास अपने रचनात्मक कार्यों की वजह से चर्चा में नहीं आता है। आज भी देशभर में पुस्तकों की अनुपलब्धता पर चर्चा होती है, पुस्तकों की कम होती दुकानों को लेकर बौद्धिक वर्ग में एक खास तरह की चिंता लक्षित की जा सकती है लेकिन इस दिशा में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का प्रयास भी दिखाई नहीं देता है। अपनी स्थापना के छह दशक से अधिक बाद अब राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को बदलते समय के साथ अपनी कार्यशैली भी बदलनी चाहिए ताकि समकालीन समय की चुनौतियों से मुठभेड़ कर सके। यह काम तभी संभव है जब न्यास के चेयरमैन और निदेशक सही फैसले लें और राष्ट्र और पाठक हित में संस्थान के क्रियाकलापों को तय भी करें और उसका क्रिन्यावयन भी सुनिश्चित करें। वैसे कई अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं की तरह इस वक्त राष्ट्रीय पुस्तक न्यास में भी निदेशक का पद खाली है।     


Wednesday, November 20, 2019

साहित्यिक गतिविधियों का सूना कोना


दिल्ली में 1964 के आसपास रशियन सेंटर ऑफ साइंस एंड कल्चर, जिसको साहित्यकार बोलचाल में रशियन कल्चर सेंटर कहा करते थे, एक बड़े साहित्यिक और सांस्कृतिक केंद्र के तौर पर उभरा था। ये जगह सेंट्रल दिल्ली के फिरोजशाह रोड पर था, अब भी है। रूस अपने साहित्य और संस्कृति को भारत में बढ़ावा देने के लिए अपने साहित्यकारों की जयंति या उनकी पुण्यतिथि पर कार्यक्रम आयोजित करता था जिसमें दिल्ली के साहित्यकरों की उपस्थिति हुआ करती थी। ये वो दौर था जब साहित्य में सोवियत रूस समर्थित सिस्टम पल्लवित-पुष्पित हो रहा था। यहां नियमित रूप से रूसी भाषा की फिल्मों का प्रदर्शन, नाटकों का मंचन और रचना पाठ और नई कृतियों पर चर्चा हुआ करती थी। उस समय यहां इंडो-रशियन लिटरेचर सोसाइटी की गतिविधियां हुआ करती थीं जिसमें बड़ी संख्या में साहित्य और कला प्रेमी जुटते थे। उस वक्त इस सोसाइटी के कार्यक्रमों में भीष्म साहनी, कमर रईस, गंगा प्रसाद विमल, गोपीचंद नारंग के अलावा उर्दू के कई लेखकों की नियमित भागीदारी हुआ करती थी। कभी कभार राजेन्द्र यादव भी आया करते थे। गंगा प्रसाद विमल उस दौर को याद करते हुए बताते हैं कि उस दौर में सोवियत रूस समर्थित सिस्टम का बोलबाला जरूर था लेकिन तब गैर कम्युनिस्ट लेखकों को भी यहां आमंत्रित किया जाता था। हिंदी के नए लेखक यहां इस उम्मीद से पहुंचते थे कि बड़े लेखकों और वैश्विक साहित्यिक लेखन से उनका परिचय होगा। होता भी था। गर्मागर्म बहसें हुआ करती थीं। आलम ये था कि रशियन कल्चर सेंटर उस दौर में दिल्ली के एक बड़े साहित्यिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था और वहां हिंदी और उर्दू के तमाम लेखक आपस में मिलने जुलने भी पहुंचते थे। दिल्ली के बाहर से भी अगर हिंदी का कोई लेखक आता था तो वो एक शाम रशियन कल्चर सेंटर जरूर पहुंचता था। ये दौर करीब चार साल तक चला।
1968 में जब सोवियत रूस की अगुवाई में कम्युनिस्ट चेकोस्लोवाकिया पर हमला हुआ था तो रूसी सेना को सफलता जरूर मिली लेकिन इस एक कृत्य ने दुनिया के कम्युनिस्ट एकता को बड़ा नुकसान पहुंचाया था। चेकोस्लोवाकिया में मार्क्सवादी लेनिनवादी मत पर चलनेवाली पार्टी की सरकार थी। लेकिन उस वक्त की सरकार मार्क्सवाद के दायरे में रहकर सुधार कर रही थी जिसको जनता का भी भरपूर समर्थन मिल रहा था। लेकिन सोवियत रूस वहां सुधारों को नहीं बल्कि रूढ़िवादी मार्क्सवादियों को मजबूत करना चाहती थी। सोवियत रूस ने वार्सा संधि वाले कुछ देशों के साथ मिलकर चेकोस्लोवाकिया पर हमला कर दिया था जिसमें डेढ़ सौ के करीब नागरिक मारे गए थे और सैकड़ों जख्मी हो गए थे। इस हमले की पूरी दुनिया में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई थी। दिल्ली के रशियन कल्चर सेंटर पर भी इसका असर देखने को मिला था। हिंदी के लेखक कम्युनिस्ट रूस के इस हमलावर रुख से दो फाड़ में बंट गए थे। निर्मल वर्मा ने खुद को कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया था। रशियन कल्चर सेंटर में होनोवाली गोष्ठियों में लेखकों की उपस्थिति कम होने लगी। इंडो रशियन लिटरेचर सोसाइटी भी कमजोर पड़ने लगी थी और समें दिल्ली के लेखकों की उत्साहवर्धक उपस्थिति नहीं रही थी। इसके बाद से ही यहां गैर कम्युनिस्ट लेखकों को शक की निगाहों से देखा जाने लगा। आयोजनों आदि में भी ये विभाजन साफ तौर पर देखा जाता था। धीरे-धीरे यहां सिर्फ सोवियत समर्थक लेखकों-कलाकारों का जमावड़ा लगने लगा था। 1980 में जब रूस में सुधारों का दौर शुरू हुआ और 1987 से लेकर 1989 तक ये और भी जोर पकड़ने लगा तो इसका असर भी दिल्ली के रशियन कल्चर सेंटर पर पड़ा था। अब फिरोजशाह मेहता रोड पर खड़ी रशियन कल्चर सेंटर की इमारत में बहुत ही कम साहित्यिक गतिविधियां होती हैं। जो थोड़ी बहुत होती भी हैं उनमें दिल्ली के बुद्धिजीवी वर्ग की उपस्थिति बहुत कम होती है। इमारत में भी एक अजीब किस्म का उदास माहौल महसूस किया जा सकता है।      

Sunday, November 17, 2019

पुस्तक मेला नहीं सांस्कृतिक समागम


समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में देशभर में साहित्य महोत्सवों की धूम मच रही है और कस्बों और मोहल्ले स्तर पर लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं। दिल्ली के द्वारका से लेकर सुदूर कोच्चि तक में उसी नाम से लिटरेचर फेस्टटिवल हो रहे हैं। कई बार तो इन लिटरेचर फेस्टिवल में इस तरह के विषय और संवाद होते हैं जो साहित्य को मर्यादाहीन करते प्रतीत होते हैं। कई साहित्य महोत्सवों में मीना बाजार जैसा माहौल तैयार किया जाता है। साहित्य महोत्सव के नाम पर दुकानें सजाई जाती हैं, कपड़े, गहने से लेकर जूते तक साहित्यिक मेलों में बेचने का चलन शुरू हो चुका है। कई साहित्यिक महोत्सवों में सांस्कृतितिक कार्यक्रमों के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन भी होता है। देशभर में आयोजित होनेवाले कई साहित्यिक मेलों को देखकर कहा जा सकता है कि लोगों की रुचि इस ओर बढ़ी है। लोग साहित्य कला और संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। जब तक साहित्यिक महोत्सवों का उद्देश्य साहित्य और कला को बढ़ाना देना है तबतक इसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन जैसे ही उद्देश्य इससे अलग होता है तो उनकी आलोचना भी होनी चाहिए। लिटरेचर फेस्टिवल की भीड़ में एक पुस्तक मेला ऐसा है जो इस तरह के साहित्यिक आयोजन से बिल्कुल अलग दिखता है। यह आयोजन है पटना पुस्तक मेला। पिछले चौंतीस साल से पटना में आयोजित होनेवाला ये पुस्तक मेला पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में 8 नवंबर से शुरू हो चुका है और ये 18 नवंबर तक चलेगा। पटना पुस्तक मेला का ये पच्चीसवां आयोजन है। 1985 में शुरू हुआ ये पुस्तक मेला पहले हर दो साल पर आयोजित किया जाता था जो बाद में सालाना पुस्तक उत्सव के रूप में नियमित हुआ। पांच छह साल में पटना पुस्तक मेला बिहार में इतना लोकप्रिय हो गया कि वो प्रदेश के सांस्कृतिक कैलेंडर का अभिन्न हिस्सा हो गया। यहां सिर्फ पुस्तकों की बिक्री नहीं होती बल्कि लेखकों आदि से संवाद का सत्र भी होता है।
कहा जाता है कि लड़के स्कूल और कॉलेज छोड़कर या भागकर फिल्में देखने चले जाते हैं लेकिन कोई भी स्कूल कॉलेज से भागकर पुस्तकालय या फिर पुस्तकों के पास नहीं पहुंचता है । यह बात सत्य हो सकती है पर मेरा अनुभव बिल्कुल भिन्न है । हम तो कॉलेज छोड़कर अपने दोस्तों के साथ 1992 के पुस्तक मेला को देखने तकरीबन सवा दो सौ किलोमीटर की रेल यात्रा करके भागलपुर से पटना पहुंचे थे । कई हिंदी के प्रकाशकों के स्टॉल पर जाकर पुस्तक क्लब आदि की सदस्यता भी ली थी । दो तीन दिनों तक पुस्तक मेले में खरीदारी की थी और समृद्ध होकर लौट आए थे । मेरे जैसे जाने कितने नौजवान बिहार के दूर दूर के गांवों कस्बों से पटना पुस्तक मेले में पहुंचे थे। बिहार की बारे में मान्यता है कि वहां सबसे ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं बिकती हैं। लोग सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यक रूप से जागरूक हैं । यह हकीकत भी है । यहां के लोग सिर्फ पढ़ते ही नहीं हैं उसपर बेहिचक अपनी राय भी देते हैं, आपस में किसी मुद्दे पर बहस भी करते हैं । बिहार में इस जागरूकता को और फैलाने और नई पीढ़ी की पढ़ने की रुचि को संस्कारित करने में पटना पुस्तक मेला ने बेहद सकारात्मक और अहम भूमिका निभाई है । बिहार ने इस स्थापना को भी निगेट किया है कि युवा साहित्य नहीं पढ़ते या युवाओं की साहित्य में रुचि नहीं है । पटना पुस्तक मेले के दौरान युवाओं की भागीदारी और उनके उत्साह को देखकर संतोष होता है कि हिंदी के पाठक भारी संख्या में हैं जरूरत है उनतक पहुंचने के उपक्रम की है।
इस वर्ष पटना पुस्तक मेले में दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की नई सूची भी जारी की गई। हिदी साहित्य की अलग अलग विधाओं में सबसे ज्यादा बिकनेवाली पुस्तकों को लेकर तैयार की गई दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची की घोषणा 15 नवंबर को पटना पुस्तक मेले में की गई। हिंदी साहित्य के लगभग हर मंच पर दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर सूची की चर्चा होती है। दरअसल हिंदी में किताबों की बिक्री और उसके प्रामाणिक आंकड़ों को लेकर भ्रम की स्थिति रही है। इस भ्रम को दूर करने के लिए दैनिक जागरण ने तीन साल पहले एक ऐतिहासिक पहल की थी और हिंदी बेस्टसेलर सूची का प्रकाशन शुरू किया था। हिंदी में पहली बार प्रामाणिक और पारदर्शी तरीके से हिंदी बेस्टसेलर की सूची तैयार करवाई गई । दैनिक जागरण के लिए विश्व प्रसिद्ध एजेंसी नीलसन-बुकस्कैन बेस्सेलर की सूची तैयार करती है । नीलसन-बुकस्कैन दुनिया के कई देशों में बेस्टसेलर की प्रामाणिक सूची प्रस्तुत करती है। जब हिंदी में पहली बार बेस्टलर की सूची प्रकाशित हुई तो तमाम चर्चा इसके इर्द गिर्द होने लगी। दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर सूची को चार श्रेणियों में बांटा गया है – कथा, कविता, कथेतर और अनुवाद । हर श्रेणी में दस बेस्टसेलर पुस्तकों की सूची होती है। यह दैनिक जागरण की मुहिम हिंदी हैं हम के तहत किया जा रहा है।
हिंदी में बिकनेवाली पुस्तकों की प्रामाणिक और पारदर्शी सूची को तैयार करने में कई मानदंडों को रखा गया है। प्रकाशकों के साथ बैठकर इस मानदंडों को तैयार किया गया था। पुस्तकों पर तेरह अंकों के वैध आईएसबीएन नंबर का होना आवश्यक है। दैनिक जागरण हिन्दी बेस्टसेलर के चयन के लिए देशभर के 42 बड़े शहरों का चुनाव किया जाता है जहां की मुख्य भाषा हिन्दी है। बेहतर नतीजों के लिए उन शहरों के चिन्हित पुस्तक विक्रेताओं से तय तिमाही के बिक्री के आंकड़ें इकट्ठा किए जाते हैं। बिक्री संबंधी जानकारी के लिए नीलसन एजेंसी के प्रतिनिधि हर शहर के चिन्हित पुस्तकों की दुकानों पर जाते हैं और प्रामाणिकता की जांच करने के बाद ही आंकड़ों को शामिल किया जाता है। बेस्टसेलर सूची को तैयार करने के लिए चिन्हित किये गए पुस्तकों की दुकानों के आंकड़ों को नील्सन-बुकस्कैन रिटेल पैनल में मौजूद ऑनलाइन बिक्री के आंकड़ों के साथ मिलाकर हिन्दी बेस्टसेलर की सूची को अंतिम रूप दिया गया है । यह बहुत ही वैज्ञानिक तरीका है। इस वर्ष इस पुस्तक मेले में दैनिक जागरण ने अपने अभियान हिंदी हैं हम के तहत जागरण सान्निध्य का आयोजन भी किया था। इसमें बिहार और देश के कई नामचीन लेखक जुटे थे। पटना पुस्तक मेला तो पुस्तक मेला से आगे जाकर सांस्कृतिक आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर चुकी है । जैसा कि उपर संकेत किया गया है कि पटना पुस्तक मेले में लेखकों, पत्रकारों और विशेषज्ञों के साथ विषय विशेष पर विमर्श भी होते हैं । पटना पुस्तक मेला ने सूबे में समाप्तप्राय नुक्कड़ नाटक को एक विधा के तौर फिर से संजीवनी प्रदान की। इसके अलावा पटना पुस्तक मेला हर वर्ष कई तरह के नए प्रयोग भी करता है। इस वर्ष 8 नवंबर से शुरू हुए आयोजन का शुभारंभ दीप प्रज्ज्वलन की बजाए पौधों में पानी डालकर किया गया क्योंकि इस वर्ष की थीम को पर्यावरण से जोड़ा गया था। किसी मशहूर शख्सियत की बजाए मेले का उद्घाटन पटना के स्कूलों के प्राचार्यों से करवाया गया। यहां बच्चों के लिए लेखन की कार्यशाला आदि भी आयोजित की जाती है। नवोदित कवियों को अपनी रचनाओं के पाठ के लिए मंच मुहैया करवाया जाता है।
पटना पुस्तक मेला के आयोजकों ने बिहार की कला-संस्कृति को संजोने के लिए भी तरह तरह के प्रयोग करते रहे हैं। यहां से राजनीतिक संकेत भी निकलते रहे हैं। पाठकों को याद होगा कि वो पटना पुस्तक मेला की पेंटिंग प्रदर्शनी ही थी जहां से नीतीश कुमार ने महागठबंधन से अलग होने का संकेत दिया था। पुस्तक मेले में पहुंचे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कमल के फूल में रंग भरे थे। दरअसल हुआ यह था कि नीतीश कुमार उस वक्त राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ महागठबंधन की सरकार चला रहे थे। उस वक्त तक किसी को इस बात का इल्म भी नहीं था कि नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग हो सकते हैं। जब नीतीश कुमार पटना पुस्तक मेले की पेंटिंग प्रदर्शनी में मिथिला की प्रसिद्ध कलाकार बउआ देवी के पास पहुंचे थे और उनके बनाए कमल के फूल में अपनी कूची से रंग भरे थे तब पहली बार ये बात निकली थी कि नीतीश भारतीय जनता पार्टी के साथ जा सकते हैं। चंद दिनों बाद यही हुआ था और नीतीश कुमार ने महागठबंधन को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के समर्थन और साथ से सरकार बनाई थी। अगर हम समग्रता से पुस्तक मेले पर विचार करें तो हमें दो उत्साही युवाओं, अमित झा और रत्नेश्वर की दाद देनी जो अपनी टीम के साथ इस मेले को बेहतर बनाने में लगे रहते हैं। जरूरत इस बात की है कि बिहार सरकार भी इस पुस्तक मेले मे को अपने सांस्कृतिक कैलेंडर में शामिल करे और इस मेले को बेहतर बनाने की दिशा में अपना सहयोग करे।  

Wednesday, November 6, 2019

पुस्तक केंद्र की खलती कमी


दिल्ली में अब भी बहुत कम ऐसी जगह हैं जहां साहित्य की हर विधा की पुस्तकें मिलती हों। सामने लॉन हो जहां बैठकर चाय कॉफी का लुत्फ लिया जा सके। कॉफी हाउस की जगह पर पालिका बाजार बनने के बाद मोहन सिंह प्लेस के कॉफी हाउस में साहित्यकारों की बैठकी जमा करती थी। लेकिन एक जगह ऐसी थी जहां साहित्यकारों के अलावा रंगकर्मी से लेकर संस्कृतिक्रमी तक जुटा करते थे। ये जगह थी श्रीराम कला केंद्र के भूतल पर स्थित वाणी पुस्तक केंद्र। उससे सटा एक कैफेटेरिया भी था और सामने लॉन । वाणी पुस्तक केंद्र में देशभर की साहित्यिक पत्रिकाएं एक जगह मिल जाया करती थीं। कैफेटेरिया में चाय-कॉफी। साहित्य चर्चा के लिए बेहद मुफीद जगह भी और वातावरण भी। वाणी पुस्तक केंद्र के मालिक अरुण माहेश्वरी के मुताबिक ये केंद्र सन 2000 में खुला था। पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह को कहीं से ये जानकारी मिली कि श्रीराम कला केंद्र वाले अपने परिसर में एक पुस्तक की दुकान चलवाना चाहते हैं। सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने इसकी चर्चा अपने मित्र पत्रकार राजकिशोर से की। राजकिशोर ने इस पुस्तक केंद्र के लिए वाणी प्रकाशन के मालिक अरुण माहेश्वरी को तैयार कर लिया। इस तरह से इस केंद्र की शुरुआत हुई थी। इस केंद्र का शुभारंभ पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और फिल्मकार महेश भट्ट ने किया था। शुभारंभ के मौके पर उस वक्त अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे मनोज वाजपेयी ने कवि चंद्रकांत देवताले की कविताओँ का पाठ किया था। अरुण माहेश्वरी बताते हैं कि चंद्रशेखर पुस्तक प्रेमी थे। चंद्रशेखर जी को जब इस बात का पता लगा कि मंडी हाउस के पास एक ऐसा पुस्तक केंद्र खुल रहा है तो वो इसका शुभारंभ करने के लिए फौरन तैयार हो गए थे। वो समय पर आए काफी देर तक रुके भी थे। हिंदी साहित्य जगत के तमाम बड़े लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी भी इसके शुभारंभ के मौके पर उपस्थित थे।
इसके शुभारंभ समारोह को लेकर अरुण माहेश्वरी ने दैनिक जागरण के साथ अपनी बहुत सारी यादें साझा की। एक दिलचस्प बात उन्होंने बताई। उद्घाटन समारोह के लिए उन्होंने फिल्मकार महेश भट्ट से चर्चा की। महेश भट्ट ने उनको कविता पाठ के लिए मनोज वाजपेयी का नाम सुझाया और कहा कि ये लड़का मुंबई में फिल्मों में नाम करने लगा है। महेश भट्ट ने कहा था कि वो एक दिन बहुत बड़ा स्टार बनेगा। तबतक मनोज की दो तीन फिल्में आ चुकी थी। महेश भट्ट ने मनोज वाजयेपी का नंबर दिया और फिर अरुण माहेश्वरी के निमंत्रण पर मनोज वाजयेपी दिल्ली आ गए। मनोज दिल्ली एयरपोर्ट से खुद ही टैक्सी लेकर हिमाचल भवन पहुंच गए थे। उस वक्त मनोज वाजपेयी को हिमाचल भवन में ठहराया गया था क्योंकि वो जगह समारोह स्थल के बहुत पास था। कार्यक्रम के दौरान मनोज वाजपेयी ने चंद्रकांत देवताले की कविताओं को पाठ किया था, जिसको उपस्थित सभी लोगों ने काफी सराहा था। अरुण माहेश्वरी के मुताबिक कार्यक्रम के बाद उन्होंने मनोज वाजपेयी को धन्यवाद दिया और कुछ तोहफा देने की इच्छा जताई। मनोज ने तब अरुण माहेश्वरी से कहा था कि अगर तोहफा देना है तो उदय प्रकाश का संग्रह तिरिछ दे दीजिए। ये संग्रह मंगवाकर मनोज वाजपेयी को गिफ्ट दिया गया था। उस वक्त उदय प्रकाश की कहानी तिरिछ की काफी चर्चा थी।
ये तो रही उद्घाटन समारोह की दिलचस्प कहानी लेकिन उसके बाद श्रीराम कला केंद्र स्थित ये पुस्तक केंद्र दिल्ली की साहित्यिक बिरादरी का प्रमुख केंद्र बन गया। इसकी वजह वहां साहित्यिक पत्रिकाओं की उपलब्धता तो थी ही वहां का माहैल भी रचनात्मक था। ये जगह दिल्ली की सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र में भी थी। करीब दस साल तक ये वाणी पुस्तक केंद्र चलता रहा था लेकिन एक दिन अचानक लैंड एंड डेवलपमेंट डिपार्टमेंट ने इमारत के मालिकों को परिसर में व्यावसायिक गतिविधियां चलाने पर रोक लगाने का नोटिस दे दिया। थोड़े दिन की बातचीत के बाद दिल्ली का ये साहित्यिक केंद्र बंद कर दिया गया। पुस्तक केंद्र बंद होने के कुछ दिनों बाद तक कैफेटेरिया चलता रहा लेकिन फिर वो भी बंद हो गया, फिर खुला। उसके बंद होने के बाद तो लेखकों के मिलने जुलने का एक स्थान खत्म हो गया। दरअसल इस स्थान की उपयोगिता इस वजह से भी थी कि जो भी श्रीराम कला केंद्र में नाटक देखने आता था उनके लिए भी ये जगह मुफीद थी। लेकिन एक सरकारी नोटिस ने इस बेहतरीन साहित्यिक केंद्र को बंद कर दिया।   

Saturday, November 2, 2019

नए कवियों की चुनौतियां और कमजोरियां


सोशल मीडिया के इस यग में ये बात बहुधा सुनाई देती है कि पहले ब्लॉग ने फिर फेसबुक ने साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर दिया। सुनाई तो यह भी देता है कि साहित्यिक पत्रिकाओं उसके संपादकों और आलोचकों के दंभपूर्ण एकाधिकार को फेसबुक आदि ने ध्वस्त कर दिया। इस तरह की कई बातें कही जाती हैं कि अब हिंदी में आलोचना की जरूरत नहीं रही, आलोचकों पर रचनाकारों की निर्भरता समाप्त हो गई आदि-आदि। ये सारी बातें इसी माध्यम पर सुनाई देती हैं, यहीं इसको लेकर बातें होती हैं, बहुधा हिकारत भरे स्वर में आलोचना को आलूचना आदि कहा जाता है। एक तरफ तो इस तरह की बातें और दूसरी तरफ हजारों कवियों की हजारों कविताएं फेसबुक पर हर रोज पढ़ने को मिलती हैं। इन कविताओं को लाइक और कमेंट्स भी मिल जाते हैं लेकिन इनमें कविता के तत्व कम तुकबंदी ज्यादा होती है। छोटी पंक्ति और बड़ी पंक्तिवाली कविताओं की भरमार होती है। इन कविताओं को देखने के बाद लगता है कि कविता लिखना दुनिया का सबसे आसान काम है। देखना जानबूझकर कह रहा हूं क्योंकि कई बार नजरों के सामने आने के बाद यहां कविताओं को ज्यादातर पाठक देखकर ही निकल जाते हैं, पढ़ते नहीं हैं।
निश्चित तौर पर तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन फेसबुक पर लिखी जा रही कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हिंदी कविता इस वक्त बहुत विपन्न है। किसी विद्वान ने कहा है कि कवियों का आकलन तीन कसौटियों पर किया जा सकता है, कवि की व्यक्तिगत कसौटी, जिस युग में वो जी और रच रहा है उस युग की कसौटी और इतिहास की कसौटी। इस वक्त रचनाकर्म में लीन कवियों का आकलन भी इन कसौटियों पर किया जाना चाहिए, खासतौर पर उन कवियों का जो बिल्कुल युवा है और तकनीक में दक्ष भी हैं। इन दक्ष कवियों में से ज्यादातर इन कसौटियों पर खरे नहीं उतरते हैं। खरे उतरना तो दूर की बात उनकी कविताओं में इन मानकों के संकेत भी कम ही मिल पाते हैं। कवियों के बारे में हिंदी के आलोचक कहा करते थे कि वो भविष्यद्रष्टा नहीं होता बल्कि उनकी रचनाओं में वर्तमान का प्रकटीकरण होता है । माना यह भी जाता था कि कवियों की वर्तमान को देखने की दृष्टि होती है जिसको वो अपनी रचनाओं में उतारते हैं, जिससे भविष्य की झलक दिखाई देती है। इस तरह के कवियों में जो वर्तमान बोध दिखाई देता था वो भविष्य की कल्पना का भी दृष्य खींचता था। आचार्य़ रामचंद्र शुक्ल ने भी कहा था कि कविता को परिवर्तित समाजिक स्थितियों से घनिष्ठ लगाव बनाकर चलना चाहिए। कविता से गतिरोध की स्थिति तभी समाप्त हो सकती है। लेकिन फेसबुक पर इन दिनों जिस तरह की कविताएं आ रही हैं उनमें से ज्यादातर को देखते हुए सामाजिक स्थितियों से घनिष्ठ लगाव जैसी बात करना बेमानी है। कुछ वरिष्ठ कवि भी राजनीतिक नारेबाजी करके अपनी विचारधारा के आकाओं को खुश करने की कोशिश करते नजर आते हैं।
सोशल मीडिया पर कविता की इस स्थिति को देखते हुए साहित्य के लोकतंत्रीकरण वाले नारे और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक और आलोचना से मुक्त होने जैसे नारों की याद आती है। फेसबुक पर भले ही इस तरह के नारे लगते हैं लेकिन जब गहराई से विचार किया जाए तो ऐसा लगता है कि इससे साहित्य में एक अलग किस्म की अराजकता पैदा हो गई। रचनात्मकता का नुकसान भी हुआ। अब किसी प्रकार की कोई छलनी नहीं रही जो रचनाओं को शुद्ध कर सके। फेसबुक पर लिखने और फौरन प्रसिद्ध होने की लालसा ने हिंदी कविता का इतना नुकसान किया है जिसका आकलन होना शेष है। प्रसिद्ध होने की इस आपाधापी में स्तरीयता से कितना समझौता हुआ इस बारे में विचार किया जाना चाहिए। पहले साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने के लिए आपको संपादक की कठोर दृष्टि से गुजरना पड़ता था। एक ऐसी दृष्टि जो कठोर तो होती थी लेकिन उसकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने के बाद रचनाओं चमक जाती थीं। अब उस संपादकीय दृष्टि की जरूरत नहीं समझी जा रही है लिहाजा जिसके जो मन में आ रहा है वो कविता के नाम पर ठेले चला जा रहा है। फेसबुक पर सबके अपने अपने साथी-संगी हैं जो बिना पढ़े उसको लाइक और वाह वाह कर दे रहे हैं। नतीजा यह हो रहा है कि औसत और औसत से नीचे लिखनेवाले कवि भी खुद को महाकवि निराला के समकक्ष मानने लगते हैं। संपादक के नहीं होने का एक और नुकसान है कि नवोदित कवियों और लेखकों को समझानेवाला नहीं रहा। कच्ची रचनाओं को पकाकर पाठकों के सामने पेश करने वाली कड़ी नहीं रही। यह स्थिति कवि और पाठक दोनों के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। पहले क्या होता था कि आप कविताएं भेजते थे, संपादक आपके साथ पत्र व्यवहार करता था, आपकी रचनाओं की कमी बताता था, उसको बेहतर करने के तरीके बताता था जिससे बेहतर कविताएं निकल कर सामने आती थीं। प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने की कसौठी बहुत कठिन होती थी।
जब किसी साहित्यिक पत्रिका से कोई रचना वापस लौटती थी तो रचनाकारों के सामने एक चुनौतीपूर्ण स्थिति होती थी कि वो अपनी रचना का स्तर बढ़ाए, एक जिद होती थी कि अमुक पत्रिका में छपना ही है। चुनौती और जिद की वजह से बेहतर रचना और रचनाकार सामने आते थे। दो संपादक का तो मुझे अनुभव है जिनकी वजह से अपने लिखे पर कई कई बार काम करना पड़ता था। राजेन्द्र यादव और ज्ञानरंजन। ये दोनों नए लेखकों के साथ रचनाओं को लेकर गंभीर संवाद करते थे। ज्ञानरंजन के संवाद में बहुधा वैचारिकता हावी रहती थी और राजेन्द्र यादव खुले मन से रचना को बेहतर बनाने की बातें करते थे। फायदा तो लेखक का ही होता था। आज अगर आप देखें तो रचनाओं को बेहतर बनाने की ये पद्धति लगभग समाप्त हो गई है। आज के ज्यादातर युवा लेखक खुद को ही इतना बड़ा लेखक मानते हैं कि उनको इस तरह की पद्धति अपमानजनक लगती है। उनको लगता है कि जो उन्होंने लिख दिया है वो ही सबसे अच्छी रचना है और अगर कोई कमी बता दे या संशोधन सुझा दे तो वो और फेसबुक पर सक्रिय उनके गिरोह के साथी इतना हो हल्ला मचाना शुरू कर देते हैं कि अप्रिय स्थित उत्पन्न हो जाती है। कई बार तो बात गाली गलौच तक भी पहुंचते देखा गयी है। इससे सबसे अधिक नुकसान हिंदी साहित्य का हो रहा है।
नुकसान तो इस बात से भी हो रहा है कि हिंदी में इस वक्त कविता का कोई आलोचक नहीं है। जो दिग्गज वयोवृद्ध आलोचक हैं वो अब उतने सक्रिय रहे नहीं। आज कविता आलोचना के क्षेत्र में एक सन्नाटा दिखाई देता है। सोशल मीडिया पर लिखनेवाले कवि लाख कहें कि अब उनको आलोचकों की जरूरत नहीं है और वो सीधे अपने पाठकों तक पहुंच रहे हैं लेकिन आलोचकों की जरूरत तो साहित्य को है। रचना की स्तरीयता को पाठकों तक पहुंचाने और कविताओं के अर्थ को खोलकर पाठकों को बताने में आलोचकों की भूमिका रही है। इसको नकारा नहीं जा सकता है। आज के कवियों के पास न तो कोई रामविलास शर्मा हैं, न नामवर सिंह, न ही सुधीश पचौरी और न ही मैनेजन पांडे। इन आलोचकों की एक महती भूमिका रही है और उन्होंने अपने दौर के कवियों पर लिखकर उनको स्थापित किया। आज कोई रामविलास शर्मा नहीं दिखाई देते जो निराला की साहित्य साधना लिख सकें। कविता लिखनेवाली आज की पीढ़ी के सामने बड़ा संकट इस बात को लेकर है कि उनकी रचनाओं को मांजनेवाला और बेहतर करनेवाला संपादक नहीं है और उनकी रचनाओं को पाठकों के बीचच ले जाकर उसका अर्थ खोलनेवाला आलोचक भी नहीं है। इससे भी बड़ी चुनौती है इन कवियों द्वारा इन दोनों संस्थाओं के नकार और सीधे पाठक से जुड़ जाने के दंभ का। नतीजा क्या हो रहा है कि हिंदी कविता के परिदृष्य पर बुरी कविताओं ने अच्छी कविताओं को ढंक दिया है। फेसबुक पर छपनेवाली कविताओं के लेखकों को साहित्य जगत में गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है क्योंकि उनकी कविताओं को स्थापित करनेवाला आलोचक नहीं है। यह हिंदी साहित्य के लिए अच्छी स्थिति नहीं है। आज अगर हम कविता की ओर दृष्टि उठाकर देखें तो संजय कुंदन, बोधिसत्व, हेमंत कुकरेती, सुंदरचंद ठाकुर वाली पीढ़ी के बाद के कवि अभी भी वो प्रतिष्ठा हासिल नहीं कर पा रहे हैं जो इस पीढ़ी को मिली। हिंदी साहित्य के लोगों को इसपर विचार करना चाहिए कि इन कमियों को कैसे पूरा किया जाए। किस तरह से साहित्य जगत में कविता और कथा के आलोचक सामने आ सकें। आलोचना कर्म बेहद श्रमसाध्य है, उसमें बहुत अध्ययन की जरूरत होती है लिहाजा इस ओर कम लोग प्रवृत्त होते हैं।