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Saturday, May 20, 2023

मेरा दर्शक-तेरा दर्शक का खतरनाक खेल


जिस दिन फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ प्रदर्शित हुई उसी दिन एक और फिल्म का प्रदर्शन हुआ, जिसका नाम है ‘अफवाह’ । एक तरफ द केरल स्टोरी में कोई चमकता सितारा नहीं है वहीं दूसरी तरफ अफवाह फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दिकि और भूमि पेडणेकर जैसे सितारों ने काम किया है। फिल्म अफवाह को सुधीर मिश्रा ने निर्देशित किया है। ‘द केरल स्टोरी’ न केवल चर्चित हुई, हो रही है, बल्कि सुदीप्तो सेन निर्देशित इस फिल्म ने बंपर कारोबार भी किया। फिल्म ‘अफवाह’ को पालिटिकल थ्रिलर बताया गया लेकिन इस फिल्म की न तो चर्चा हो पाई और न ही इसने औसत कारोबार किया। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस फिल्म ने पहले सप्ताह में करीब तीस लाख का कारोबार किया। कुछ ट्विटरवीरों ने इस फिल्म के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया लेकिन हवा बन नहीं पाई। फिल्म फ्लाप हो गई। इस पृष्ठभूमि को बताने का आशय ये नहीं है कि किस फिल्म ने कितना बिजनेस किया। इसको बताने का उद्देश्य ये है कि फिल्म अफवाह के निर्देशक सुधीर मिश्रा ने एक ट्वीट किया जिसके निहितार्थ बेहद गंभीर हैं। इस ट्वीट में सुधीर ने लिखा, द कश्मीर फाइल्स के बारे में लिबरल्स को शिकायत रहती है। क्यों? विवेक अग्निहोत्री ने एक फिल्म बनाई और उसके दर्शक इस फिल्म को देखने के लिए थिएटर में आए। लेकिन जब हम फिल्म बनाते हैं तो हमारे दर्शक, जो विवेक की आलोचना करते हैं, चुपचाप बैठे रहते हैं। वो फिल्म देखने के लिए सिनेमा हाल नहीं पहुंचते हैं। क्षमा करें, मुझे ये कहना पड़ा। फिर उन्होंने हैशटैग लगाकर अपनी फिल्म का नाम अफवाह लिखा।

सुधीर मिश्रा के इस ट्वीट पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने उत्तर दिया। लिबरल का अर्थ जानना चाहा। सुधीर मिश्रा को चर्चा के लिए आमंत्रित किया। दोनों के बीच चर्चा भी हुई। सुधीर ने अपना पक्ष रखा और विवेक का अपना पक्ष था। हम यहां उस चर्चा के बिंदुओं पर नहीं जाएंगे। सुधीर ने अपने ट्वीट में जो लिखा उसके पीछे की मानसिकता को डिकोड करने का प्रयास करेंगे। सुधीर ने लिखा कि विवेक के दर्शक और हमारे दर्शक। सुधीर की छवि एक संजीदा फिल्मकार की है । जाने किस मानसिकता में उन्होंने हिंदी फिल्मों के दर्शकों का बंटवारा कर दिया। दर्शकों को बांटने की बात सार्वजनिक रूप से कहकर सुधीर ने एक विभाजक रेखा खींच दी। इस विभाजन की बात बहुत दूर तक जाएगी और इसके खतरनाक परिणाम भी हो सकते हैं। अगर निर्देशकों का अपना दर्शक वर्ग होने लगा तो फिल्म उद्योग संकट में फंस सकता है। हिंदी फिल्म जगत जिसको बालीवुड के नाम से भी जाना जाता है, पहले से ही कई खेमों में बंटा हुआ है। बावजूद इसके दर्शकों को लेकर कभी भी बंटवारे की बात नहीं होती थी। यह विभाजन हिंदी फिल्म जगत के लिए ठीक नहीं है। अभी तक ऐसा कोई संदर्भ या प्रसंग नहीं आया जिसमें किसी गंभीर फिल्मकार ने अपने और दूसरे के दर्शक की बात की हो। सुधीर ने ऐसा क्यों किया। क्या उनकी फिल्मों के लगातार फ्लाप होने की कुंठा से ये शब्द उपजे या कारण कुछ और है। अगर हम देखें तो सुधीर की पिछली कई फिल्में अच्छा बिजनेस नहीं कर पाई हैं। वो लाख कहें कि वो सौ करोड़, दो सौ करोड़ कमाने की होड़ में नहीं हैं लेकिन फिल्म अपनि लागत वसूल सके, इतना तो चाहते ही होंगे। संभव है कि उनको लगता हो कि वो जिस विचारधारा के अनुयायी हैं उस विचारधारा को माननेवाले लोग उनकी फिल्में देखने क्यों नहीं आते हैं। ये बात इस वजह से कह रहा हूं कि उन्होंने विवेक से बातचीत के क्रम में ये स्वीकार किया कि वो लेफ्टिस्ट हैं। उनकी फिल्मों में सर्वहारा की जीत होती है। उनकी फिल्मों का अंत सुखांत नहीं होता है। उनकी फिल्में कई असुविधाजनक सवाल खड़े करती हैं। आदि आदि। यदि ऐसा है तो सुधीर को अभी वामपंथियों को समझना शेष है।

सुधीर के तथाकथित दर्शक अगर उनकी फिल्म देखने के लिए नहीं आते हैं। सुधीर को इस बात की तकलीफ है। क्या ये माना जाए कि सुधीर मिश्रा सिर्फ अपने वैचारिक मित्रों के लिए ही फिल्में बनाते रहे हैं। समाज और फिल्मों से प्रश्न खड़े करने और दर्शकों से संवाद के दावे खोखले हैं। क्या उनकी फिल्मों में वामपंथ का एजेंडा या उस विचारधारा का प्रोपेगैंडा होता रहा है। सुधीर को ये बातें स्पष्ट करनी चाहिए। फिल्म जगत में वामपंथियों का एजेंडा किस तरह से चलता रहा है,किस प्रकार से हिंदी फिल्मों की दुनिया में में रूसियों के सहयोग से वामपंथियों ने अपना ईकोसिस्टम तैयार किया। उसके बारे में पिछले सप्ताह इस स्तंभ में चर्चा की गई थी। सुधीर की टिप्पणी से उस चर्चा को बल मिलता है। सुधीर ने विवेक अग्निहोत्री से बातचीत में ये भी कहा कि अब फिल्म उद्योग के लोग चुप हो गए हैं। शायद वो भूल गए कि उनके इर्दगिर्द जिन फिल्म निर्देशकों को देखा जाता है या जिनके साथ उनकी तस्वीरें इंटरनेट मीडिया पर आती हैं वो मुखरता से न सिर्फ अपनी बातें कहते हैं बल्कि कई बार तो सार्वजनिक मंचों पर गाली गलौच की भाषा का भी उपयोग करते हैं। दिल्ली के शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में धरने में शामिल होकर बिरयानी खाते हुए नारे लगाते भी देखे जाते हैं। सुधीर अपने मित्रों की भाषा तो नहीं बोलते हैं लेकिन उनके मन में क्या चलता है ये उनकी टिप्पणी से पता चलता है। विवेक से बातचीत में वो कहते हैं कि इन दिनों लोग चुप हो गए हैं। दबी जुबान में भय के माहौल की चर्चा भी करते हैं। फिल्म इंडस्ट्री में कई सितारों ने पहले भी भय की चर्चा की थी। उनमें से एक शाह रुख खान की फिल्म पठान ने बंपर बिजनेस किया। तब तो किसी ने तुम्हारा दर्शक और मेरा दर्शक का प्रश्न नहीं उठाया। दरअसल जो लेफ्ट की विचारधारा में आस्था रखते हैं वो लगातार अर्धसत्य के साथ चलते रहते हैं। सुधीर भी इस दोष के शिकार हो गए प्रतीत होते हैं। 

वामपंथी लगातार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं। अवसर मिलने पर आक्रामक होकर अपनी बात ऱखना और नारे लगाना उनका शौक है। उनके नारे, उनकी आक्रामकता सब खोखले हैं। अपनी विचारधारा को प्रभावी बनाने के लिए वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं। कई बार जब उनकी विचारधारा से जुड़े लोग कुछ ऐसा कर जाते हैं जो उनके विचारों के विपरीत होता है तो वहां उनको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता नहीं सताती है। अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी। गांधी और गोडसे, एक युद्ध। ये फिल्म हिंदी के वरिष्ठ लेखक और जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष असगर वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी.काम पर आधारित था। असगर वजाहत पर आरोप लगे कि उन्होंने इस फिल्म में गोडसे को गांधी के समकक्ष खड़ा कर दिया। गांधी के परिवार के तुषार गांधी भी इस विवाद में कूदे थे। हिंदी साहित्य जगत में इस बात की खूब चर्चा रही कि जनवादी लेखक संघ का एक धड़ा असगर वजाहत को संगठन के अध्यक्ष पद से हटाना चाहता है। हिंदी साहित्य की इस चर्चा को मानें तो प्रश्न उठता है कि वामपंथी लेखकों के इस संगठन, जनवादी लेखक संघ, को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की कितनी चिंता थी। उनके संगठन के अध्यक्ष ने एक नाटक लिखा, उस नाटक में उन्होंने गांधी के विचारों के आधार पर एक काल्पनिक परिदृष्य गढ़ा, जिसपर फिल्म बनी। ये उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी। चूंकि असगर वजाहत के विचार उनके संगठन के विचारों से अलग थे लिहाज उनके विरुद्ध एक माहौल बनाया गया। आवश्यकता इस बात की है फिल्म के दर्शक सुधीर की टिप्पणी के निहितार्थों को समझें और अपने विवेक से निर्णय लें।       

Saturday, April 28, 2018

अपने अपने 'देवदास'


हिंदी फिल्मों के इतिहास और हिंदी साहित्य पर नजर डालें तो बहुत दिलचस्प चीजें सामने आती हैं। कुछ लेखकों का फिल्मों का अनुभव बहुत बुरा है। हिंदी के कथा सम्राट प्रेमचंद तो फिल्मों को लेकर बहुत दुखी रहते थे। रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने अपने एक संस्मरण में प्रेमचंद के दर्द को सार्वजनिक किया है- 1934 की बात है । बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था । इन पंक्तियों का लेखक कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने आया ।  बंबई में हर जगह पोस्टर चिपके हुए थे कि प्रेमचंद जी का मजदूर अमुक तारीख से रजतपट पर आ रहा है । ललक हुईअवश्य देखूं कि अचानक प्रेमचंद जी से भेंट हुई । मैंने मजदूर की चर्चा कर दी । बोले यदि तुम मेरी इज्जत करते हो तो ये फिल्म कभी नहीं देखना । यह कहते हुए उनकी आंखें नम हो गईं । औरतब से इस कूचे में आने वाले जिन हिंदी लेखकों से भेंट हुई सबने प्रेमचंद जी के अनुभवों को ही दोहराया है ।हिंदी फिल्मों का साहित्य से बड़ा गहरा और पुराना नाता रहा है। कई लेखक साहित्य के रास्ते फिल्मी दुनिया पहुंचे थे। प्रेमचंद से लेकर विजयदान देथा की कृतियों पर फिल्में बनीं। कइयों को शानदार सफलता और प्रसिद्धि मिली तो ज्यादातर बहुत निराश होकर लौटे ।प्रेमचंदअमृत लाल नागरउपेन्द्र नाथ अश्कपांडेय बेचन शर्मा उग्रगोपाल सिंह नेपाली,सुमित्रानंदन पंत जैसे साहित्यकार भी फिल्मों से जुड़ने को आगे बढ़े थे, लेकिन जल्द ही उनका मोहभंग हुआ और वो वापस साहित्य की दुनिया में लौट आए ।
लेकिन इससे इतर या इसका एक दूसरा पक्ष भी है । कुछ ऐसी कहानियां या उपन्यास हैं जिसपर फिल्मकार दशकों बाद आजतक तक फिदा हैं। कहानी की मूल आत्मा को बरकरार रखते हुए उसकी स्थितियों और घटनाओं में परिवर्तन कर नयापन लाने की कोशिश करते हैं। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कृति देवदास फिल्मों के इसी कोष्ठक में है। ये उपन्यास लगभग हर पीढ़ी के भारतीय फिल्मकारों को अपनी ओर खींचता रहा है। यह अकारण नहीं है कि देवदास पर आधारित अबतक छह फिल्में तो सिर्फ हिंदी में बन चुकी हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में भी दर्जनों फिल्में इस उपन्यास पर बनी हैं। हिंदी में देवदास पर सबसे पहले फिल्म बनाई प्रमथेस बरुआ ने जिसमें के एल सहगल प्रोटेगनिस्ट की भूमिका में थे। बरुआ ने हिंदी और बांग्ला में इस फिल्म का निर्माण किया था। हलांकि इस बात की चर्चा भी मिलती है कि नरेश मिश्रा ने 1928 में देवदास के नाम से एक मूक फिल्म बनाई थी। बरुआ के बाद विमल रॉय ने भी देवदास पर फिल्म बनाई जिसमें दिलीप कुमार ने यादगार भूमिका निभाई। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि विमल रॉय प्रमथेस बरुआ की फिल्म देवदास के कैमरापर्सन थे। बीस साल बाद जब उन्होंने दिलीप कुमार को लेकर फिल्म बनाई वो दर्शकों को खूब पसंद आई। देवदास में दिलीप कुमार के साथ सुचित्रा सेन और वैजयंती माला थीं। यहां भी एक दिलचस्प कहानी है जो इस फिल्म से जुड़ी है। इस फिल्म में अभिनय के लिए वैयजंयती माला को बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवॉर्ड देने की घोषणा हुई थी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। 
इसके बाद संजय लीला भंसाली ने शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित और एश्वर्या राय को लेकर देवदास बनाई। जिसमें पारो की भूमिका में एश्वर्या राय और चंद्रमुखी की भूमिका माधुरी दीक्षित ने निभाई। संजय लीला भंसाली ने भी कहानी में बदलाव किया था। इसके पहले सत्तर के दशक में गुलजार ने धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी और शर्मिला टैगोर को लेकर देवदास बनाने की कोशिश की थी लेकिन वो फिल्म बन नहीं पाई। अगर वो फिल्म बनती तो प्रथमेश बरुआ की परंपरा जो विमल रॉय के माध्यम से दर्शकों के सामने आई थी वो आगे बढ़ती। विमल रॉय, प्रथमेश बरुआ के कैमरामैन थे उसी तरह से गुलजार भी विमल रॉय के असिस्टेंट थे। इसके बाद से देवदास पर आधारित देव डी बनी जिसमें फिल्मकार अनुराग कश्यप ने स्थितियां बहुत बदल दीं और कहानी को नए संदर्भ दिए लेकिन मूल आत्मा वही रही। अंग्रेजी के एक समीक्षक ने देव डी को बारे में लिखा था कि ये उपन्यास देवदास का लूज एडप्टेशन है।
देवदास उपन्यास पर ताजा फिल्म है दासदेव। इस फिल्म को सुधीर मिश्रा ने निर्देशित किया है और संजीव कुमार ने प्रोड्यूस किया है। यह फिल्म आधारित तो है शरतचंद्र के उपन्यास पर इसको राजनीति की संवेदनहीन भूमि पर नए संदर्भों और स्थितियों के आधार पर पेश किया है। कहानी उत्तर प्रदेश के एक गांव से शुरू होती है और वहीं पर खत्म हो जाती है। दरअसल अगर हम शरतचंद्र के 1917 में लिखे उपन्यास देवदास में इसका नायक अपने प्यार के लिए खुद को बर्बाद करता है। राजनीति की खूनी जमीन पर दासदेव में सुधीर मिश्रा ने देव चौहान के किरदार के माध्यम से इस थीम को मजबूती देने की कोशिश की है। राजनीति की बंजर जमीन पर प्यार की कोमल भावनाओं को रिचा चड्डा और अदिति राव हैदरी ने अपनी जानदार भूमिकाओं से जीवंत कर दिया है। दरअसल अगर हम सूक्ष्मता से देखें तो सुधीर मिश्रा ने अपनी इस फिल्म दासदेव में शरतचंद्र के उपन्यास देवदास और शेक्सपियर की कृति हैमलेट को मिला दिया है और देवदास की कहानी को भी थोड़ा सा उलट दिया है। शरतचंद्र में जहां नायक खुद को बर्बाद करता है वहीं दासदेव का नायक खुद को बर्बाद करने के बाद नाम बदलकर अपने प्यार पारो को पाने में कामयाब हो जाता है। अदिति राव हैदरी ने चांदनी की भूमिका में राजनीति के उस पक्ष को उजागर कर दिया है जहां सत्ता के शीर्ष पर बैठे शख्स का विद्रूप चेहरा सामने आता है। इस फिल्म में जबरदस्त हिंसा है, फिल्म बहुत तेजी से चलती है लेकिन प्रेम की गहराई तब भी कहीं कम नहीं होती, प्रेम का आवेग कहीं बाधित नहीं होता। इस फिल्म में प्रेम की इंटेंसिटी है लेकिन कई बार राजनीतिक षडयंत्रों के बीच वो नेपथ्य में जाती दिखती है, फिर वापस केंद्र में आ जाती है।
इस तरह से अगर हम देखते हैं तो देवदास की मूल कहानी को अपनाते हुए भी कई फिल्मकार उसमें बदलाव करते चलते हैं। नायक द्वारा अपने प्यार को पाने के लिए खुद को बर्बाद करने की थीम पर भी कई फिल्में बनीं। साहित्यकारों को बहुधा शिकायत रहती है कि उनकी रचना के साथ छेड़छाड़ की गई। प्रेमचंद का भी यही दर्द था। लेकिन हमें इस संदर्भ में गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के कथन को याद करना चाहिए। उन्होंने 1929 में शिशिर कुमार भादुड़ी के भाई मुरारी को लिखे एक पत्र में सिनेमा और साहित्य पर अपने विचार प्रकट किए थे। टैगोर ने लिखा था- ‘कला का स्वरूप अभिव्यक्ति के मीडियम के अनुरूप बदलता चलता है। मेरा मानना है कि फिल्म के रूप में जिस नई कला का विकास हो रहा है वो अभी तक रूपायित नहीं हो पाई है। हर कला अपनी अभिव्यक्ति की स्वाधीन शैली अपने रचना जगत में तलाश लेती है। सिनेमा के लिए सृजनशीलता ही काफी नहीं है उसके लिए पूंजी भी आवश्यक है और सिनेमा में बिंबों के प्रभाव के माध्यम से अभिव्यक्ति को पूर्णता प्राप्त होती है। टैगोर ने आज से करीब नब्बे वर्ष पहले जो लिखा था वो आज भी मौजूं है। कला अपने अभिव्यक्ति की स्वाधीन शैली तलाशती ही है। ध्यान सिर्फ इतना रखना चाहिए कि पूंजी को आवश्यक तो माना जाए लेकिन सिर्फ उसको ही आवश्यक मानने से सृजनशीलता से लेकर बिंबों तक पर असर पड़ने लगेगा। दासदेव में यह तो नहीं दिखाई देता है क्योंकि सुधीर मिश्रा ने बेहद खूबसूरती के साथ कहानी को शरतचंद्र के यहां से उठाते हुए उसको एक नई कल्पनाशीलता में पिरोया है। अब इस बात पर बहस तो हो सकती है कि फिल्मकार किसी कृति में छेड़छाड़ की कितनी छूट ले सकता है। इसपर साहित्य जगत मे लंबी बहसें पहले भी हुई हैं और अब भी की साहित्यक कृति पर फिल्म का निर्माण होता है तो इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो जाती है। जब सत्यजित राय प्रेमचंद की कृति शतरंज के खिलाड़ी पर फिल्म बना रहे थे तब भी यह बहस हुई थी और कहा गया था कि सत्यजित राय ने मूल कथानक के साथ छेड़छाड़ की । जब हिंदी के मशहूर कथाकार विजयदान देथा की कहानी पर पहेली फिल्म बनी थी तब भी उसमें काफी बदलाव किया गया था। वाद विवाद भी हुए थे। अब जब दासदेव में शतरचंद्र और शेक्सपियर को मिला दिया गया है, सुधीर मिश्रा ने फिल्म की शुरुआत में इसका पर्याप्त संकेत भी किया है,तो साहित्य जगत में इसको लेकर क्या प्रतिक्रिया होती है यह देखना दिलचस्प होगा।