जिस दिन फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ प्रदर्शित हुई उसी दिन एक और फिल्म का प्रदर्शन हुआ, जिसका नाम है ‘अफवाह’ । एक तरफ द केरल स्टोरी में कोई चमकता सितारा नहीं है वहीं दूसरी तरफ अफवाह फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दिकि और भूमि पेडणेकर जैसे सितारों ने काम किया है। फिल्म अफवाह को सुधीर मिश्रा ने निर्देशित किया है। ‘द केरल स्टोरी’ न केवल चर्चित हुई, हो रही है, बल्कि सुदीप्तो सेन निर्देशित इस फिल्म ने बंपर कारोबार भी किया। फिल्म ‘अफवाह’ को पालिटिकल थ्रिलर बताया गया लेकिन इस फिल्म की न तो चर्चा हो पाई और न ही इसने औसत कारोबार किया। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस फिल्म ने पहले सप्ताह में करीब तीस लाख का कारोबार किया। कुछ ट्विटरवीरों ने इस फिल्म के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया लेकिन हवा बन नहीं पाई। फिल्म फ्लाप हो गई। इस पृष्ठभूमि को बताने का आशय ये नहीं है कि किस फिल्म ने कितना बिजनेस किया। इसको बताने का उद्देश्य ये है कि फिल्म अफवाह के निर्देशक सुधीर मिश्रा ने एक ट्वीट किया जिसके निहितार्थ बेहद गंभीर हैं। इस ट्वीट में सुधीर ने लिखा, द कश्मीर फाइल्स के बारे में लिबरल्स को शिकायत रहती है। क्यों? विवेक अग्निहोत्री ने एक फिल्म बनाई और उसके दर्शक इस फिल्म को देखने के लिए थिएटर में आए। लेकिन जब हम फिल्म बनाते हैं तो हमारे दर्शक, जो विवेक की आलोचना करते हैं, चुपचाप बैठे रहते हैं। वो फिल्म देखने के लिए सिनेमा हाल नहीं पहुंचते हैं। क्षमा करें, मुझे ये कहना पड़ा। फिर उन्होंने हैशटैग लगाकर अपनी फिल्म का नाम अफवाह लिखा।
सुधीर मिश्रा के इस ट्वीट पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने उत्तर दिया। लिबरल का अर्थ जानना चाहा। सुधीर मिश्रा को चर्चा के लिए आमंत्रित किया। दोनों के बीच चर्चा भी हुई। सुधीर ने अपना पक्ष रखा और विवेक का अपना पक्ष था। हम यहां उस चर्चा के बिंदुओं पर नहीं जाएंगे। सुधीर ने अपने ट्वीट में जो लिखा उसके पीछे की मानसिकता को डिकोड करने का प्रयास करेंगे। सुधीर ने लिखा कि विवेक के दर्शक और हमारे दर्शक। सुधीर की छवि एक संजीदा फिल्मकार की है । जाने किस मानसिकता में उन्होंने हिंदी फिल्मों के दर्शकों का बंटवारा कर दिया। दर्शकों को बांटने की बात सार्वजनिक रूप से कहकर सुधीर ने एक विभाजक रेखा खींच दी। इस विभाजन की बात बहुत दूर तक जाएगी और इसके खतरनाक परिणाम भी हो सकते हैं। अगर निर्देशकों का अपना दर्शक वर्ग होने लगा तो फिल्म उद्योग संकट में फंस सकता है। हिंदी फिल्म जगत जिसको बालीवुड के नाम से भी जाना जाता है, पहले से ही कई खेमों में बंटा हुआ है। बावजूद इसके दर्शकों को लेकर कभी भी बंटवारे की बात नहीं होती थी। यह विभाजन हिंदी फिल्म जगत के लिए ठीक नहीं है। अभी तक ऐसा कोई संदर्भ या प्रसंग नहीं आया जिसमें किसी गंभीर फिल्मकार ने अपने और दूसरे के दर्शक की बात की हो। सुधीर ने ऐसा क्यों किया। क्या उनकी फिल्मों के लगातार फ्लाप होने की कुंठा से ये शब्द उपजे या कारण कुछ और है। अगर हम देखें तो सुधीर की पिछली कई फिल्में अच्छा बिजनेस नहीं कर पाई हैं। वो लाख कहें कि वो सौ करोड़, दो सौ करोड़ कमाने की होड़ में नहीं हैं लेकिन फिल्म अपनि लागत वसूल सके, इतना तो चाहते ही होंगे। संभव है कि उनको लगता हो कि वो जिस विचारधारा के अनुयायी हैं उस विचारधारा को माननेवाले लोग उनकी फिल्में देखने क्यों नहीं आते हैं। ये बात इस वजह से कह रहा हूं कि उन्होंने विवेक से बातचीत के क्रम में ये स्वीकार किया कि वो लेफ्टिस्ट हैं। उनकी फिल्मों में सर्वहारा की जीत होती है। उनकी फिल्मों का अंत सुखांत नहीं होता है। उनकी फिल्में कई असुविधाजनक सवाल खड़े करती हैं। आदि आदि। यदि ऐसा है तो सुधीर को अभी वामपंथियों को समझना शेष है।
सुधीर के तथाकथित दर्शक अगर उनकी फिल्म देखने के लिए नहीं आते हैं। सुधीर को इस बात की तकलीफ है। क्या ये माना जाए कि सुधीर मिश्रा सिर्फ अपने वैचारिक मित्रों के लिए ही फिल्में बनाते रहे हैं। समाज और फिल्मों से प्रश्न खड़े करने और दर्शकों से संवाद के दावे खोखले हैं। क्या उनकी फिल्मों में वामपंथ का एजेंडा या उस विचारधारा का प्रोपेगैंडा होता रहा है। सुधीर को ये बातें स्पष्ट करनी चाहिए। फिल्म जगत में वामपंथियों का एजेंडा किस तरह से चलता रहा है,किस प्रकार से हिंदी फिल्मों की दुनिया में में रूसियों के सहयोग से वामपंथियों ने अपना ईकोसिस्टम तैयार किया। उसके बारे में पिछले सप्ताह इस स्तंभ में चर्चा की गई थी। सुधीर की टिप्पणी से उस चर्चा को बल मिलता है। सुधीर ने विवेक अग्निहोत्री से बातचीत में ये भी कहा कि अब फिल्म उद्योग के लोग चुप हो गए हैं। शायद वो भूल गए कि उनके इर्दगिर्द जिन फिल्म निर्देशकों को देखा जाता है या जिनके साथ उनकी तस्वीरें इंटरनेट मीडिया पर आती हैं वो मुखरता से न सिर्फ अपनी बातें कहते हैं बल्कि कई बार तो सार्वजनिक मंचों पर गाली गलौच की भाषा का भी उपयोग करते हैं। दिल्ली के शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में धरने में शामिल होकर बिरयानी खाते हुए नारे लगाते भी देखे जाते हैं। सुधीर अपने मित्रों की भाषा तो नहीं बोलते हैं लेकिन उनके मन में क्या चलता है ये उनकी टिप्पणी से पता चलता है। विवेक से बातचीत में वो कहते हैं कि इन दिनों लोग चुप हो गए हैं। दबी जुबान में भय के माहौल की चर्चा भी करते हैं। फिल्म इंडस्ट्री में कई सितारों ने पहले भी भय की चर्चा की थी। उनमें से एक शाह रुख खान की फिल्म पठान ने बंपर बिजनेस किया। तब तो किसी ने तुम्हारा दर्शक और मेरा दर्शक का प्रश्न नहीं उठाया। दरअसल जो लेफ्ट की विचारधारा में आस्था रखते हैं वो लगातार अर्धसत्य के साथ चलते रहते हैं। सुधीर भी इस दोष के शिकार हो गए प्रतीत होते हैं।
वामपंथी लगातार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं। अवसर मिलने पर आक्रामक होकर अपनी बात ऱखना और नारे लगाना उनका शौक है। उनके नारे, उनकी आक्रामकता सब खोखले हैं। अपनी विचारधारा को प्रभावी बनाने के लिए वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं। कई बार जब उनकी विचारधारा से जुड़े लोग कुछ ऐसा कर जाते हैं जो उनके विचारों के विपरीत होता है तो वहां उनको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता नहीं सताती है। अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी। गांधी और गोडसे, एक युद्ध। ये फिल्म हिंदी के वरिष्ठ लेखक और जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष असगर वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी.काम पर आधारित था। असगर वजाहत पर आरोप लगे कि उन्होंने इस फिल्म में गोडसे को गांधी के समकक्ष खड़ा कर दिया। गांधी के परिवार के तुषार गांधी भी इस विवाद में कूदे थे। हिंदी साहित्य जगत में इस बात की खूब चर्चा रही कि जनवादी लेखक संघ का एक धड़ा असगर वजाहत को संगठन के अध्यक्ष पद से हटाना चाहता है। हिंदी साहित्य की इस चर्चा को मानें तो प्रश्न उठता है कि वामपंथी लेखकों के इस संगठन, जनवादी लेखक संघ, को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की कितनी चिंता थी। उनके संगठन के अध्यक्ष ने एक नाटक लिखा, उस नाटक में उन्होंने गांधी के विचारों के आधार पर एक काल्पनिक परिदृष्य गढ़ा, जिसपर फिल्म बनी। ये उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी। चूंकि असगर वजाहत के विचार उनके संगठन के विचारों से अलग थे लिहाज उनके विरुद्ध एक माहौल बनाया गया। आवश्यकता इस बात की है फिल्म के दर्शक सुधीर की टिप्पणी के निहितार्थों को समझें और अपने विवेक से निर्णय लें।