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Saturday, January 26, 2019

हिंदी साहित्य का ‘व्यावहारिक’ काल


साहित्य समाज का दर्पण होता है। दर्पण झूठ नहीं बोलता है। ये दो वाक्य ऐसे हैं जो साहित्य में बहुधा सुनाई देते हैं। इन दिनों इन दो वाक्यों के अलावा एक और वाक्य इसमें जुड़ गया है वो है साहित्यकार बहुत व्यावहारिक होते हैं। व्यावहारिकता बुरी चीज नहीं है लेकिन जब उस व्यावहारिकता की वजह से सत्य प्रभावित होने लगता है तब परेशानी वाली बात सामने आती है। दरअसल पिछले लेखकों में एक प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ी है वो है अपने साथियों की कृतियों पर व्यावहारिक राय देना। यहां जानबूझकर गलत शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूं क्योंकि वो गलत से अधिक व्यावहारिकता के करीब होते हैं। दरअसल पिछले दिनों अपने एक लेखक मित्र से बात हो रही थी। बातचीत का विषय एक दूसरे कथाकार के ताजा उपन्यास तक जा पहुंची। बातचीत की शुरुआत में मेरे मित्र ने बहुत जोर देकर कहा कि अमुक का अमुक उपन्यास बहुत अच्छा है।मैंने हल्का सा प्रतिवाद किया, कुछ तर्क रखे, कुछ अपनी राय बताई। हमलोगों के बीच उपन्यास की भाषा, उसके शिल्प, कहन और विषय को लेकर बहुत लंबी चर्चा हो गई। मेरे मित्र धीरे-धीरे खुलने लगे थे और फिर उन्होंने अपने मन की बात कह दी। उन्होंने कहा कि जिस उपन्यास पर बात हो रही है वो उपन्यास उन्हें कुछ खास नहीं लगा। उसकी भाषा में भी वो रवानगी नहीं है और कहने का अंदाज भी बहुत पुराना है। आगे और भी बातें हुईं और हम दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि उपन्यास औसत है। बात आई-गई हो गई। अचानक तीन-चार दिन बाद मैंने देखा कि मेरे मित्र ने उस उपन्यास पर फेसबुक पर एक लंबी टिप्पणी लिखी। मेरी उत्सुकता बढ़ी, मैंने सोचा पढा जाए क्या लिखा गया है। पढ़कर मैं हैरान। उन्होंने उपन्यास पर जो बातें लिखी थीं वो पिछले दिनों हुई हमारी चर्चा और उसके निष्कर्ष से बिल्कुल अलग। मैंने फौरन उनको फोन किया कि आपकी राय तो उस उपन्यास को लेकर बिल्कुल उलट थी लेकिन आपने तो उसके बारे में एकदम ही अलग लिख दिया। उनका जवाब था कि आप क्या चाहते हैं कि मेरा उनसे झगड़ा हो जाए, व्यावहारिकता यही कहती है कि आपको कृति अच्छी लगे या न लगे सार्वजनिक रूप से उसको अच्छा कहो। खासतौर पर फेसबुक पर अच्छा कहना ही चाहिए। उन्होंने संस्कृत के एक श्लोक से अपनी बात को पुष्ट भी किया, जिसका अर्थ है कि सत्य बोले तो प्रिय बोलो, अप्रिय सत्य मत बोलो।
मैंने सोचा कि फिर एक बार अपने मित्र से बहस करूं, शुरू भी किया लेकिन फिर रुक गया क्योंकि ये सिर्फ उनकी बात नहीं थी। यह प्रवृत्ति हिंदी साहित्य में इन दिनों आम है। ज्यादातर लोग व्यावहारिक हो गए हैं। अपने समकालीन साहित्यकारों की कृतियों पर प्रतिकूल टिप्पणी तो दूर की बात उसके बारे में कुछ भी ऐसा लिखने से बचते हैं जिनसे कि आपसी संबंध खराब होने का खतरा हो। अगर हम पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य का ये व्यावहारिक काल है। साहित्यिक कृतियों पर इस तरह की ज्यादातर चर्चा या टिप्पणी आप फेसबुक पर स्वयं देख सकते हैं। आजमा भी सकते हैं। आप किसी भी पुस्तक पर फेसबुक पर लिखी टिप्पणी पढ़े और फिर उनके लेखक से बात करें। टिप्पणी और बातचीत में आपको एक साफ अंतर नजर आएगा।
साहित्य के इस व्यावहारिक काल का एक पक्ष और है। इस वक्त लेखकों के बीच सार्वजनिक प्रशंसा और पीठ पीछे निंदा का चलन बढ़ा है। सामने या सार्वजनिक रूप से तारीफ की प्रवृत्ति ने जिस कदर जोर पकड़ा है उसी रफ्तार से पीठ पीछे निंदा करने की आदत कई लेखकों का श्रृंगार बन गई है। दरअसल इस व्यावहारिकता ने ढेर सारे ऐसे लेखक साहित्य की दुनिया में तैयार कर दिए जिनके कई चेहरे लक्षित किए जा सकते हैं। जब वो आपसे बात करेंगे तो वो अलग लगेंगे। जब वो आपसे एक और शख्स की मौजूदगी में बात करेंगे तो आपको अलग दिखेंगे, और जब वो समूह में आपसे बात करेंगे तो उनका व्यवहार और उनका आचरण बिल्कुल ही आपसे भिन्न होगा। मुंहदेखी बात करने की आदत की वजह से विभक्त व्यक्तित्व के लेखकों की संख्या भी बढ़ी है।
व्यावहारिकता का यह एक बड़ा नुकसान भी है कि लेखकों के बीच के आपसी आत्मीय संबंध कम हो गए हैं। यह बात इसलिए भी जोर देकर कही जा सकती है कि हिंदी आलोचना का भी कमोबेश यही हाल है। हिंदी की एक आलोचक हैं रोहिणी अग्रवाल। उनकी टिप्पणियां देखकर लगता है कि हिंदी में इस वक्त सर्वश्रेष्ठ लेखन हो रहा है। कभी कोई प्रकाशक तो कभी कोई लेखक उनकी टिप्पणियां फेसबुक पर लगाते हैं। उन टिप्पणियों में हाल ही में पढ़े या छपे साहित्यिक कृतियों पर उनके विचार होते हैं। ज्यादातर कृतियां उनको अद्धभुत ही लगती हैं। अगर इन अद्भुत कृतियों के बारे में कुछ सालों बाद विचार किया जाए और उसी कृति की पाठकों के बीच व्याप्ति और साहित्य में स्थायित्व को परखा जाए तो उनमें से कई तो औसत नजर आती हैं और कइयों का कोई नामलेवा भी नहीं बचता है। एक आलोचक से ये तो अपेक्षा की ही जा सकती है कि वो उन कृतियों को अद्भुत कहें जिनमें उनको स्थायित्व के कुछ गुण, कुछ तत्व आदि दिखाई दें या फिर यह मान लिया जाए कि हिंदी आलोचना भी अब व्यावहारिक हो गई है। आलोचना के औजार भी व्यावहारिकता की वजह से भोथरे हो गए हैं। दरअसल हिंदी साहित्य में कृतियों पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार बहुत कम हुआ है। उन्नीस सौ साठ के दशक के पहले तो यह काम होता भी था लेकिन कालांतर में इसमें ह्रास होता चला गया। इसकी वजह थी हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी आलोचकों का बढ़ता दबदबा। मार्क्सवादी आलोचकों ने भी हिंदी में व्यावहारिक काल की जमीन तैयार की। उन्होंने जिस तरह से लेखकों और उनकी विचारधारा को ध्यान में रखकर कृतियों पर विचार किया उसने साहित्य में व्यावहारिकता की एक ठोस जमीन तैयार कर दी। अपनी विचारधारा को मानने वाले लेखकों के उपन्यासों, कहानी संग्रहों और कविता संग्रहों को अद्भुत बताया जाने लगा, कृतियां नई जमीन तोड़ने लगीं, आदि आदि। विचारधारा के आधार पर कोई कृति अच्छी या बुरी घोषित की जाने लगी। मार्क्सवादी आलोचकों ने यह काम बखूबी किया। मुझे याद है कि एक मार्कसवादी आलोचक ने अशोक वाजपेयी की कविताओं पर लिखा था कि उनके यहां आकर नई कविता दम तोड़ देती है। चंद सालों बाद जब अशोक वाजयेपी की कविताओं पर उन्होंने फिर से लिखा तो अपनी पुरानी टिप्पणी को सुधारते हुए वाजपेयी की कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा कर डाली। इस बदले हुए स्टैंड के पीछे भी व्यावहारिक वजहें ही थीं। उन वजहों का उल्लेख यहां गैर जरूरी है। नतीजा सबको पता है। आलोचना से जिस तटस्थता की अपेक्षा की जाती है उसका जैसे जैसे ह्रास होता गया वैसे वैसे हिंदी आलोचना की साख छीजने लगी। मार्क्सवादी आलोचकों ने जिस तरह से अपनी विचारधारा को आगे रखकर लेखकों को उठाने गिराने का खेल खेला उसका एक दुष्परिणाम और हुआ कि इस वक्त हिंदी में कोई भी आलोचक नामवर सिंह के आसपास की बात छोड़ भी दें तो मैनेजर पांडे जैसा भी नहीं दिखाई देता है। आचार्य शुक्ल और द्विवेदी के आसपास की तो बात भी सोचना बेमानी है। इसकी ठोस वजह ये है कि नई पीढ़ी को लगा कि विचारधारा का झंडा उठाकर ही प्रसिद्धि मिल सकती है तो फिर क्यों वो पढ़ाई लिखाई और खुद को अपडेट रखने में अपना समय खराब करें। इसने साहित्य का बहुत नुकसान किया। आज इस बात की आवश्यकता है कि साहित्य जगत में कोई ऐसा आलोचक आए जो सही को सही और गलत को गलत कह सके। बिगाड़ के डर से ईमान की बात कहने से हिचकनेवाले लोग नहीं चाहिए। विचारधारा या आपसी संबंधों के आधार पर कृतियों का मूल्यांकन करना बंद किया जाना चाहिए। वैसे ही तकनीक के प्रचार प्रसार और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव की वजह से कई लोग कहने लगे हैं कि हिंदी के लेखक अब आलोचकों की परवाह नहीं करते। हो सकता है उनकी बात में दम हो लेकिन ऐसा कहनेवाले यह भूल जाते हैं कि आलोचना साहित्य की एक स्वतंत्र विधा है जिसको रचनाकार से किसी तरह के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं होती है, उनको तो सत्य से प्रमाण-पत्र चाहिए होता है। लेकिन अगर आलोचना भी व्यावहारिकता की शिकार हो गई तो इस विधा पर खत्म हो जाने का संकट या फिर इस विधा के इतिहास के बियावान में गुम हो जाने का खतरा भी बढ़ जाएगा। किसी भी साहित्य से जब विधाएं खत्म होने लगें तो उस पर पूरे समाज को चिंता भी करनी चाहिए और चिंतन भी।