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Monday, November 14, 2022

राष्ट्र सर्वप्रथम पर अडिग फिल्मकार


आज हिंदी फिल्म के विषयों को लेकर निरंतर विवाद होते हैं। कई बार फिल्मों में राजनीति और राजनीतिक दलों के एजेंडा भी दिखाई पड़ते हैं। आज बहुत ही कम फिल्मकार राष्ट्र सर्वप्रथम के सोच के साथ फिल्म बनाते नजर आते हैं। बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में कई ऐसी फिल्में आईं जिसने आतंकवाद और सांप्रदायिकता का विषय तो फिल्म के लिए चुना लेकिन मंशा विचारधारा विशेष का पोषण था। कई बार राजनीति भी। लेकिन हमारे देश में ऐसे कई फिल्मकार हुए जिन्होंने राष्ट्र की एकता और अखंडता को शक्ति देनेवाली फिल्में बनाईं। ऐसे ही एक फिल्मकार थे व्ही शांताराम। देश की स्वाधीनता के बाद वो दहेज पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे थे। फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम चल रहा था। उसी वक्त दक्षिण भारत में भाषा के आधार पर अलग आंध्र प्रदेश की मांग को लेकर आंदोलन चलने लगा। स्वाधीनता सेनानी श्रीरामलु आमरण अनशन पर थे। उनकी मौत हो गई। आंदोलन भड़क गया। इस आंदोलन ने शांताराम को व्यथित कर दिया। उन्होंने दहेज पर फिल्म बनाने की योजना रोक दी। तय किया कि वो अपना देश के नाम से एक फिल्म बनाएंगे। फिल्म हिंदी और तमिल दोनों भाषा में बनाई जाएगी। उनके मित्रों ने बहुत समझाया कि फिल्म दहेज की योजना को रोककर ‘अपना देश’ बनाने की योजना में लाभ नहीं होगा। उस समय शांताराम धनाभाव से गुजर रहे थे। पैसे के आगे उन्होंने देश को रखा। 

फिल्म अपना देश का पहला दृश्य स्वाधीनता के उत्सव का रखा गया। शांताराम ने इसमें एक डांस सीक्वेंस रखा। जिसमें भारत माता को बेड़ियों में जकड़ा दिखाया गया। भारत माता के आसपास नृत्यांगनाएं और उनके साथी परफार्म कर रहे थे। वो विभिन्न प्रदेशों की पोशाक पहने थे। नृत्य करते करते सबने मिलकर भारत माता को बेड़ियों से मुक्त कर दिया। अचानक एक व्यक्ति भारत के नक्शे से एक टुकड़ा उठा लेता है। सभी के बीच उसको लेकर झगड़ा शुरु हो जाता है। विभिन्न प्रदेशों के पोशाक पहने लोगों के बीच हो रहे इस झगड़े के दृश्यांकन से शांताराम ये संदेश दे रहे थे कि किस तरह भूमि के टुकड़े को लेकर भारत के लोग आपस में लड़ रहे हैं। झगड़े के बीच उन्होंने भारत माता को दुखी दिखाया था। भारत माता को दुखी देखकर सब फिर से एक होने लगते हैं। जमीन के जिस टुकड़े को लेकर विवाद हो रहा था उसको नक्शे पर सही जगह लगा दिया जाचा है। सब प्रसन्नतापूर्व डांस करने लगते हैं। सब एक हो जाते हैं। शांताराम इस नृत्य के माध्यम से ये संदेश देना चाहते थे कि जमीन के टुकड़े को लेकर आपस में लड़ाई झगड़ा अच्छी बात नहीं है। इससे न केवल भारत माता को दुख पहुंचता है बल्कि देश की एकता कमजोर होती है। शांताराम ने इस नृत्य सीक्वेंस में भारत के नक्शे को लेकर जिस तरह का दृश्यांकन किया गया था, उनके मन में ये आशंका पैदा हो गई थी कि फिल्म पर पाबंदी लग सकती है। मोरार जी देसाई की मदद से फिल्म सेंसर से पास हो गई। 

शांताराम की मुश्किल खत्म नहीं हुई थी। उस समय की प्रमुख पत्रिका फिल्मइंडिया के सपादक बाबूराव पटेल शांताराम की फिल्म के विरोध में थे। उन्होंने सभी राज्य सरकारों को पत्र लिखकर फिल्म पर पाबंदी लगाने की मांग की। उनके पत्र के बाद कई राज्य सरकारों ने रिलीज के पहले शांताराम से फिल्म की एक कापी मांगी। शांताराम थोड़े विचलित हुए। लेकिन उनको अपनी कला पर भरोसा था। दिल्ली में इस फिल्म के प्रदर्शन के पहले बाबूराव पटेल के दोस्तों ने इसके विरोध में पोस्टर लगाए थे। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल फिल्म के पक्ष में खड़े हो गए। उन्होंने इसके निर्बाध प्रदर्शन की व्यवस्था कर दी। इन सारे विवाद का फायदा हुआ और फिल्म ने कई जगहों पर सिल्वर जुबली मनाई। 1949 में हिंदी और तमिल में प्रदर्शित इस फिल्म ने देश की एकता और अखंडता को लेकर पूरे देश में एक संदेश दिया था लेकिन अफसोस कि इस देश में भाषा के नाम पर राज्यों का बंटवारा रोका न जा सका। 

Saturday, October 29, 2022

फिल्मों को सरदार ने दी थी जीवनी शक्ति


सरदार पटेल और फिल्म। सधारणतया इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। ऐसा कहने पर लोग चौंकते भी हैं। सरदार पटेल को स्वाधीनता के लिए संघर्ष करनेवाले अग्रिम पंक्ति के नेता, आधुनिक भारत के निर्माता,सख्त निर्णय लेनेवाले कुशल प्रशासक, राष्ट्रवाद के सजग प्रहरी आदि के तौर पर याद किया जाता है। लेकिन सरदार पटेल और फिल्म का बेहद गहरा नाता रहा है। स्वाधीनता आंदोलन के समय सरदार पटेल ने भारतीय फिल्मों के लिए एक ऐसा कार्य किया जिसने फिल्म जगत को लंबे समय तक प्रभावित ही नहीं किया बल्कि उसके विस्तार की जमीन भी तैयार कर दी। फिल्म को लेकर उनके योगदान की चर्चा करने से पूर्व यह जान लें कि उस समय फिल्मों को लेकर किस तरह का वातावरण था। स्वाधीनता संग्राम के दौरान तिलक भारतीय फिल्मों के प्रबल समर्थक थे। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि तिलक ने दादा साहब फाल्के की फिल्म राजा हरिश्चंद्र के समर्थन में लेख लिखा था। बाबू राव पेंटर का उनकी फिल्म ‘सैरंध्री’ के लिए सार्वजनिक अभिनंदन किया था। जवाहरलाल नेहरू भी फिल्मों के शौकीन थे। जब स्वाधीनता संग्राम में गांधी का प्रभाव बढ़ा तो अग्रिम पंक्ति के नेताओं के बीच फिल्मों को लेकर उदासीनता का भाव उत्पन्न हो गया। गांधी जी फिल्मों को पसंद नहीं करते थे। वो फिल्मों को समाज में बुराई फैलाने वाला माध्यम और नैतिकता विरोधी मानते थे। गांधी के इस सोच का असर कांग्रेस पर भी पड़ा था। उस दौर में हिंदी फिल्म जगत अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था। कई फिल्मकार अपने पुरुषार्थ के बल पर भारतीय सिनेमा को मजबूती देने में लगे थे। 

स्वाधीनता आंदोलन अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका था। इस बीच एक बेहद दिलचस्प घटना घटी। 1945 में फिल्मकार और अभिनेता किशोर साहू ने अपनी फिल्म वीर कुणाल पूरी कर ली थी। किशोर साहू चाहते थे कि इस फिल्म का जब प्रदर्शन हो तो उस अवसर पर कोई बड़ा नेता उपस्थित रहे। मुश्किल ये थी कि कांग्रेस के नेता फिल्मों को लेकर या फिल्मों से जुड़े समारोह को लेकर बिल्कुल उत्साहित नहीं रहा करते थे। उनके अंदर की इस झिझक के बारे में किशोर साहू को पता था, लेकिन उन्होंने ठाना कि कांग्रेस के नेताओं और फिल्मों के बीच जो एक खाई बनती जा रही है उसको रोका जाए। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘मन करने लगा कि कांग्रेस और कला के बीच की खाई को पाटने की कोशिश करूं। फिल्मों के प्रति कांग्रेसी नेताओँ के मन की झिझक को निकाल दूं।यह काम शेर की गुफा में जाकर शेर को नत्थी करने के समान था। पर मैंने कमर कस ली। उन दिनों कांग्रेस में कई शेर थे। मगर बब्बरशेर एक ही था- सरदार वल्लभभाई पटेल। मैंने तवज्जो इन पर दी।‘  फिल्म उद्योग से चंदा आदि जमा करने के सिलसिले में किशोर साहू का परिचय पुरुषोत्तमदास टंडन से था। टंडन जी जब बांबे (अब मुंबई) आते थे तो वो किशोर साहू को मिलने के लिए कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के आवास पर बुलाया करते थे। इस तरह से किशोर साहू का मुंशी और श्रीमती लीलावती मुंशी से परिचय था। 

किशोर साहू मुंशी जी के घर पहुंचे और लीलावती जी से पटेल से मिलवाने का अनुरोध किया। लीलावती जी ने किशोर साहू की सरदार पटेल से भेंट तय करवा दी। किशोर साहू नियत समय पर पटेल के मुंबई के घर पर पहुंच गए। पटेल की बेटी मणिबेन ने किशोर साहू को हिदायत दी कि पटेल साहब की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए पांच मिनट में बात समाप्त कर वो निकल जाएं। जब किशोर साहू पटेल के कमरे में पहुंचे तो वो सोफे पर लेटे हुए थे। बातचीत आरंभ हुई। किशोर साहू ने कांग्रेस पार्टी पर फिल्मवालों की अवहेलना का आरोप जड़ा। साथ ही फिल्म जगत की समस्याएं भी बताईं। इस बीच पांच मिनट खत्म हो गए थे। मणिबेन ने कमरे में घुसकर किशोर साहू को बातचीत समाप्त करने का संकेत दिया। जब दो तीन बार मणिबेन कमरे में आई तो पटेल समझ गए। उन्होंने मणिबेन को कहा कि इस व्यक्ति को बैठने दिया जाए। तब किशोर साहू ने अन्य समस्याओं के साथ पटेल के सामने विदेशी स्टूडियो के भारत में कारोबार आरंभ करने की योजना के बारे में बताया । उनको ये भी बताया कि विदेशी कंपनियों के पास इतनी अधिक पूंजी है कि वो भारतीय फिल्मों की व्यवस्या को खत्म कर सकती है। करीब घंटे भर बाद पटेल ने पूछा कि आप क्या चाहते हैं?  किशोर साहू ने उनसे कहा कि आप 1 दिसंबर (1945) को बांबे के नावेल्टी सिनेमा में मेरी फिल्म वीर कुणाल के प्रीमियर पर आएं और वहां से फिल्म जगत को आश्वासन दें कि कांग्रेस उनके साथ है। सरदार पटेल ने किशोर साहू को वचन दिया कि वो अवश्य आएंगे। जब उन्हें पता चला कि एक दिसंबर को कलकत्ता (अब कोलकाता) में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक है। अब दुविधा में थे लेकिन फिल्म के प्रीमियर में जाने के अपने वादे पर अटल थे। उन्होंने इसका हल निकाला। अपने सहयोगी को चार्टर प्लेन की व्यवस्था करने को कहा। जिससे वो प्रीमियर के बाद कलकत्ता जा सकें। किशोर साहू ने अपनी फिल्म के प्रीमियर को खूब प्रचारित किया। लोगों में आश्चर्य का भाव था कि कांग्रेस के नेता कैसे फिल्म के प्रीमियर पर पहुंच रहे हैं। उत्सकुकता सरदार पटेल के वक्तव्य को लेकर भी थी कि वो क्या बोलेंगे। एक दिसंबर को सिनेमाघर के बाहर हजारों की भीड़ जमा थी। समय पर सरदार सिनेमा हाल पहुंचे। फिल्म आरंभ होने के पहले उनको मंच पर ले जाया गया। किशोर साहू ने फिल्म जगत की समस्या उनके सामने रखी। अब बोलने की बारी सरदार की थी। उन्होंने सबसे पहले फिल्म की सफलता की शुभकामनाएं दीं लेकिन उसके बाद जो कहा उसका दूरगामी असर पड़ा। सरदार ने लंबा भाषण दिया और पहली बार फिल्मों से जुड़े लोगों को आश्वस्त भी किया कि कांग्रेस फिल्म विरोधी नहीं है। अंत में उन्होंने चेतावनी के स्वर में कहा, जिस दिन विदेशी पूंजीपतियों ने हमारे देश आकर स्टूडियो खोलने की कोशिश की, तो याद रखें वो विदेशी, और याद रखे ये बरतानवी सरकार, उस दिन कांग्रेस अपनी पूरी ताकत के साथ इसका विरोध करेगी। जिस तरह नमक सत्याग्रह हुआ था, उसी तरह इन विदेशी पूंजीपतियों के स्टूडियो पर सत्याग्रह होगा और इस सत्याग्रह का नेतृत्व मैं खुद करूंगा।‘  किशोर साहू ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग को अपनी आत्मकथा में लिखा है। भाषण के बाद सरदार पटेल ने मध्यांतर तक फिल्म देखी। उसके बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भाग लेने के लिए कलकत्ता चले गए। सरदार पटेल की इस चेतावनी के बाद विदेशी कंपनियों ने स्टूडियो खोलने की योजना रोक दी थी।

सरदार पटेल का वीर कुणाल के प्रीमियर पर दिया गया वक्तव्य फिल्मी के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया था। उस दौर में जब गांधी फिल्मों का विरोध कर रहे थे, सरदार पटेल ने फिल्मों का ना केवल समर्थन किया बल्कि उसको आगे बढ़ाने के लिए हर संभव मदद का भरोसा भी दिया। गांधी के मत के खिलाफ जाकर कदम उठाने का साहस पटेल ने दिखाया था। अगर सरदार पटेल भारतीय फिल्मों के समर्थन में खड़े नहीं होते तो आज भारतीय फिल्म जगत किस स्थिति में होती, कहना कठिन है। स्वाधीनता के पहले ही हमारे देश में विदेशी स्टूडियो खुल गए होते और स्वदेशी फिल्मों पर विदेशी पूंजी का ग्रहण लग चुका होता। स्वाधीनता के सालों बाद जब भारतीय फिल्म उद्गोय परिपक्व हुआ, विश्व सिनेमा की बराबरी पर खड़ा होने लगा, तब जाकर यहां विदेशी स्टूडियो को खोलने की अनुमति दी गई। भारतीय फिल्म जगत की वैश्विक सफलता के पीछे सरदार पटेल का सोच भी था। 

Friday, November 8, 2013

अपने अपने पटेल

पहले नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री की मौजूदगी में ये बयान दिया कि सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री होते को देश की तस्वीर कुछ अलग होती । अब लालकृष्ण आडवाणी ने एक किताब के हवाले से अपने ब्लॉग में लिखा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल को सांप्रदायिक कहा था । आडवाणी ने एक किताब के हवाले से लिखा है हैदराबाद का निजाम पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था । इस बाबत उसने अपने एक प्रतिनिधि को पाकिस्तान भी भेजा था, साथ में काफी धन भी । पटेल ने इन बातों का जिक्र कैबिनेट की बैठक में किया और मंत्रिमंडल के सामने सुझाव रखा कि हैदराबाद के शासन को भारत के अधीन करने के लिए वहां सेना भेजी जानी चाहिए । पटेल के इस प्रस्ताव पर नेहरू ने उनसे कहा कि आप पूरी तरह से सांप्रदायिक हैं और मैं आपकी सिफारिश कभी नहीं मानूंगा । दरअसल हम अगर मोदी के बयान और आडवाणी के ब्लॉग को देखें तो एक महीन रेखा उभर कर सामने आती है । वो रेखा यह है कि नेहरू के बरक्श पटेल को खड़ा करने की कोशिश । सरदार पटेल आजाद भारत के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे । भारत को एक करने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई । लेकिन नेहरू को नीचा दिखाकर पटेल को ऊंचा दिखाने की जो राजनीति चल रही है दरअसल वो तथ्यों से परे है । इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की कोशिश है । अब अगर हम बिना संदर्भ जाने किसी भी पत्र के कुछ चुनिंदा हिस्सों को पेश कर उसके आधार पर राय बनाते हैं तो हम तार्किक दोष के शिकार हो जाते हैं । आडवाणी भी उसी फैलेसी के शिकार हो गए लगते हैं । आडवाणी जिस किताब के प्रसंग का हवाला दे रहे हैं उसमें ये प्रसंग 1949 का है । उसी साल नेहरू पर एक किताब में पटेल ने उनको देश की जनता के आदर्श, जननेता और जननायक जैसे विशेषणों से नवाजा था । पटेल ने लिखा कि उनसे बेहतर नेहरू को कोई समझ नहीं सकता । उनके मुताबिक वो ही जानते हैं कि आजादी के बाद के दो सालों में नेहरू ने देश को कठिन परिस्थितियों से ऊबारने के लिए कितनी मेहनत की और .ह नेहरू की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि भारत हर क्षेत्र में एक देश के तौर पर अपनी पहचान बनाने लगा था । पटेल के मुताबिक इन दबाबों का असर नेहरू की उम्र पर दिखाई देने लगा है । पटेल ने लिखा कि उम्र में बड़े होने की वजह से वो हमेशा नेहरू को अहम मसलों पर राय देते हैं । कई बार उनकी राय से वो असहमत भी होते हैं लेकिन ध्यानपूर्वक सुनते हैं और अपने तर्कों से सामनेवाले को राजी करने की कोशिश करते हैं । मतलब यह है कि पटेल यह कहना चाहते हैं कि नेहरू बेहद लोकतांत्रिक थे और विचारों में मतभेद को डिस्कोर्स में जगह देते थे । अगर हम उस वक्त के नेहरू के मंत्रिमंडल को देखें तो पता चल जाएगा कि किस तरह से नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल में सभी विचारों को प्रतिनिधित्व दिया था ।  
पटेल और नेहरू में तमाम मुद्दों पर मतभेद थे, कई मसले पर दोनों की राह एकदम जुदा थी । लेकिन दोनों इस बात से इत्तफाक रखते थे कि उनकी जोड़ी  इस देश के बेहतर भविष्य के लिए आवश्यक है । गांधी जी की हत्या के बाद पटेल बेहद क्षुब्ध थे और उनके मन के कोने अंतरे में यह बात घर करने लगी थी कि देश के गृहमंत्री होने के नाते गांधी को नहीं बचा पाने की जिम्मेदारी उनकी भी बनती है । इस मनस्थिति में पटेल गृहमंत्री का पद छोड़ने के बारे में विचार भी करने लगे थे । पटेल की मनोदशा को भांपते हुए जवाहरलाल नेहरू ने गांधी जी की हत्या के चार दिन बाद चार फरवरी 1948 को उनको पत्र लिखा । पत्र में नेहरू ने लिखा कि -पिछले 25 सालों के दौरान हम दोनों ने कई झंझावातों को साथ झेला है । उन मुश्किल भरे दौर में आपकी सूझबूझ ने मेरे मन में आपकी इज्जत बढ़ाई है और कोई भी और कुछ भी इसको कम नहीं करा सकता । गांधी जी की मौत के बाद हमें एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्धता और आपसी विश्वास को उसी स्तर पर मजबूत बनाए रखना होगा । मेरा अब भी आपमें गहरा विश्वास है । नेहरू के उत्तर में पटेल ने जो लिखा वो सारी शंकाओं को दूर करने के लिए काफी है । पटेल ने लिखा- हम दोनों लंबे समय से साथी हैं । हमारे बीच तमाम मतभेदों के बावजूद देशहित सर्वोपरि रहा है । बापू की इच्छा भी हम दोनों के लिए मायने रखती है लिहाजा इन बातों के आलोक में मैं अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करूंगा । दोनों के बीच के इस पत्र व्यवहार के बाद इनके संबंधों की कोई भी व्याख्या बेमानी होगी ।  
दरअसल अगर हम पूरे मसले को समग्रता में देखें तो कांग्रेस की अपने नायकों की उपेक्षा ने बीजेपी को उन्हें भुनाने का अवसर दे दिया है । नेहरू-गांधी परिवार के महिमामंडन में कांग्रेस ने अपने नायकों को दरकिनार कर दिया चाहे वो सरदार पटेल हों, डॉ राजेन्द्र प्रसाद हों या फिर मौलाना आजाद या रफी अहमद किदवई ही क्यों ना हों । यह इसी देश में संभव है कि संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के दो बार राष्ट्रपति रह चुके डॉ राजेन्द्र प्रसाद को संसद भवन परिसर में उचित स्थान ना मिले । आजादी मिलने के बाद ज्यादातर वक्त तक देश पर कांग्रेस का शासन रहा लेकिन इस दौरान कांग्रेस ने पटेल की विरासत को आगे बढ़ाने का काम तो नहीं ही किया उसको भुलाने का काम जरूर किया । कांग्रेस की इसी अनदेखी ने पटेल और नेहरू के बीच मतभेदों की खबरों को एक खास वर्ग के लोगों ने इस तरह से प्रचारित कर दिया कि देश की तमाम ऐतिहासिक समस्याओं के लिए नेहरू जिम्मेदार हैं । जैसे कि कश्मीर और भारत बंटवारे के मुद्दे पर । यह धारणा बना दी गई कि अगर पटेल होते तो कश्मीर समस्या इस तरह से देश के सामने नहीं होती । जबकि सचाई यह है कि कश्मीर को पटेल देश के लिए सरदर्द मानते थे और उससे छुटकारा पाना चाहते थे । उसी तरह यह भी भ्रम भी फैलाया गया कि भारत पाकिस्तान विभाजन के लिए नेहरू-गांधी जिम्मेदार हैं । पटेल होते तो विभाजन नहीं  होता । जबकि तथ्य इससे उलट है । तथ्य यह है कि पटेल तो विभाजन के लिए नेहरू और मौलाना आजाद से पहले तैयार हो गए थे और उन्होंने ही नेहरू और कांग्रेस कार्यसमिति के अन्यसदस्यों को इसके लिए राजी किया  । बाद में पटेल और नेहरू के दबाव में गांधी जी भी विभाजन के लिए तैयार हुए । हलांकि यह भी तथ्य है कि मुस्लिम लीग के व्यवहार से निराश होने के बाद ही पटेल ने विभाजन के लिए हामी भरी थी । खान अब्दुल गफ्फार खान ने कहा भी था कि अगर अगर पटेल ने थोड़ा सा और दबाव डाला होता तो पाकिस्तान बनता ही नहीं । लेकिन इन बातों के आधार पर पटेल को विभाजन के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है । निर्णयों को हमेशा काल और परिस्थियों की कसौटी पर कसा जाना चाहिए । होता यह है कि हम निर्णयों को उस वक्त के हालात के आलोक में नहीं देखते हैं बल्कि वर्तमान परिस्थितियों में उसका विश्लेषण करने लग जाते हैं । इस वजह से इतिहास की सूरत बिगड़ने लग जाती । कुछ लोग या संस्था सायास ऐसा करते हैं और कुछ अज्ञानतावश ऐसा करते हैं । दोनों ही परिस्थियां खतरनाक हैं । इतिहास और ऐतिहासिक तथ्यों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही मूल्यांकन होना चाहिए । राजनीति लाभ लोभ के लिए इतिहास के साथ खिलवाड़ दरअसल देश के महापुरुषों का अपमान भी है, इतिहास तो छल है ही ।