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Saturday, May 29, 2021

नए अंदाज में रामकथा का चित्रण


पिछले दिनों राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित समीक्षक विनोद अनुपम जी से बात हो रही थी। बात फिल्मों से होते हुए वेब सीरीज ‘रामयुग’ पर जा पहुंची। उन्होंने बहुत ही दिलचस्प बात कही कि राम कथा दुनिया की एकमात्र ऐसी कहानी है जिसके क्लाइमेक्स को जानने की उत्कंठा नहीं होती, बस उससे गुजरते जाने का मन करता है। कोरोना संक्रमण के पहले दौर में दूरदर्शन पर रामानंद सागर के रामयण को फिर से दिखाया गया था। दर्शकों ने उसको खूब पसंद किया था। व्यूअरशिप के कई नए कीर्तिमान बने थे। जब कोरोना संक्रमण का दूसरा दौर आया तो लगभग उसी समय एमएक्स प्लेयर पर वेब सीरीज ‘रामयुग’ रिलीज की गई। इस वेब सीरीज को लेकर इन दिनों काफी चर्चा हो रही है। चर्चा इसके कथा कहने के अंदाज को लेकर हो रही है। ‘रामयुग’ में कहानी का आरंभ ‘स्वर्णमृग’ प्रसंग से होता है और फिर कहानी आगे बढ़ती जाती है। ‘रामयुग’ में कहानी फ्लैशबैक के सहारे आगे बढ़ती है। आठ एपिसोड की इस सीरीज में इसी प्रविधि को अपनाया गया है। कहानी कहने के अंदाज के अलावा इसके फिल्मांकन से लेकर, कलाकारों की वेशभूषा और संवाद अदायगी तक में एक नयापन है। इस वेब सीरीज के निर्देशक कुणाल कोहली हैं, संवाद लेखक कमलेश पांडेय हैं और रामायण सलाहकार स्वर्गीय नरेन्द्र कोहली हैं। ‘रामयुग’ का राम या रावण या अन्य पात्र राजा रवि वर्मा के राम के चित्र या रामानंद सागर के राम की वेशभूषा से मुक्त होकर आधुनिक गेटअप में हैं। राम के चरित्र के साथ कोई बदलाव नहीं किया गया है लेकिन एक संदेश ये है कि हर युग का अपना राम और अपना रावण होता है। रामयुग की एक और विशेषता है कि इस सीरीज में भले ही राम को आधुनिक रूप में दिखाने की कोशिश की गई हो लेकिन उनके मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित्र को उसी तरह से पेश किया गया है जैसा कि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में या तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ में किया है। इस कहानी में ज्यातार प्रसंग श्रीरामचरितमानस से लिए गए हैं लेकिन कुछ प्रसंगों का फिल्मांकन वाल्मीकि के रामायण के अनुसार किया गया है, जैसे राम रावण युद्ध के समय का जो दृश्य है या फिर मेघनाथ और कुंभकर्ण से युद्ध के समय दृश्य रामायण से लिया गया प्रतीत होता है। 

‘रामयुग’ की कहानी में कई बदलाव भी किए गए हैं, हो सकता है कि विद्वान पटकथा लेखक और सलाहकार ने राम कथा को अलग अलग ग्रंथों से लिया होगा। जैसे मेघनाद के संहार का जो प्रसंग ‘रामयुग’ में दिखाया गया है उसका उल्लेख न तो श्रीरामचरितमानस में मिलता है और न ही वाल्मीकि के रामायण में। रामयुग में जब मेघनाद का संहार करने के लिए लक्ष्मण पहुंचते हैं तो वो नदी में पूजा कर रहा होता है। इस वेब सीरीज में लक्ष्मण को देखकर मेघनाद कहता है कि निहत्थे पर वार करना उचित नहीं होता है लेकिन लक्ष्मण उसको याद दिलाते हैं कि रावण ने जब सीता का हरण किया था तो वो निहत्थी थीं, जटायु को जब रावण ने मारा था तब पक्षीराज निहत्थे थे। इतना कहने के बाद लक्ष्मण ने मेघनाथ पर बाण से वार कर उसका वध कर दिया। युद्ध के पहले पूजा का प्रसंग श्रीरामचरितमानस में भी है, लेकिन वहां इस बात उल्लेख है कि जब मेघनाद साधना कर रहा था और लक्ष्मण वहां अंगद, नील, नल, मयंद और हनुमान के साथ पहुंचे थे। अपनी साधाना में बाधा देखकर मेघनाद बहुत नाराज हुआ था और उसने लक्ष्मण पर प्रचंड त्रिशूल से वार किया था। मेघनाथ के उस वार को  लक्ष्मण जी ने अपने बाण से काट दिया था। तुलसीदास जी कहते भी हैं, ‘प्रभु कहं छांड़ेसि सूल प्रचंडा, सर हति कृत अनंत जुग खंडा’। यहां पर मेघनाद और लक्ष्मण के बीच युद्ध होता है लेकिन ‘रामयुग’ में  मेघनाद के निहत्था होनेपर वध दिखाना हैरत में डालता है। संभव है लेखकों ने किसी और भाषा के रामायण से इस प्रसंग को उठाया हो। 

‘रामयुग’ में कहानी चूंकि फ्लैशबैक प्रविधि के साथ चलती है और आठ एपिसोड में खत्म करने का दबाव रहा होगा इसलिए कई प्रसंगों को छोटा किया गया है। कई प्रसंगों को अपेक्षाकृत कम नाटकीय दिखाया गया है। युद्ध में कुंभकर्ण तो बहुत ही जल्दी मार डाला जाता है। राम उसके दोनों हाथ काटते हैं और फिर गरदन। इस वेब सीरीज में राम तलवार से कुंभकर्ण की गर्दन काटते दिखाए गए हैं जबकि श्रीरामचरितमानस में तो राम अपने बाणों से उसकी गरदन काटते हैं और कुंभकर्ण का कटा हुआ सर रावण के आगे जाकर गिरता है जिसको देखकर रावण बहुत व्याकुल हो उठता है। तुलसीदास कहते भी हैं- ‘सो सिर परेउ दसानन आगें, बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें।‘ लेकिन सीरीज में ऐसा नहीं चित्रित किया गया है। वेब सीरीज में रावण वध के प्रसंग को थोड़ा नाटकीय किया गया है। दस रावण चारो तरफ से घेरकर राम के साथ युद्ध करते हैं। रावण वध का प्रसंग श्रीरामचरितमानस से लिया गया है। वेब सीरीज में राम अपने बाण से रावण की नाभि पर वार करते हैं क्योंकि उनको विभीषण ने बताया था कि रावण की नाभिकुंड में अमृत का निवास है और वो उसके ही बल पर जीता है। तुलसीदास जी लिखते भी हैं कि, ‘सायक एक नाभि सर सोषा, अपर लगे भुज सिर करि रोषा’। यानि कि एक बाण ने रावण नाभि के अमृतकुंड को सोख लिया और बाकी तीस बाण उसके सिरों और भुजाओं में जा लगे। वाल्मीकि रामायण में पूरा प्रसंग अलग है। यहां रावण का वध ब्रह्मा जी के दिए अस्त्र से होता है जिसका निर्माण ब्रह्मा जी ने इंद्र के लिए किया था। उस बाण का संधान कर राम ने रावण की छाती पर वार किया जिससे उसकी मौत हो गई। वाल्मीकि रामायण में संस्कृत में जो लिखा है जिसका हिंदी में अनुवाद ये है कि शरीर का अंत कर देनेवाले उस महान वेगशाली बाण ने छूटते ही दुरात्मा रावण के हर्दय को विदीर्ण कर डाला।  

रामयुग को लेकर कुछ लोगों ने आपत्तियां भी जताई हैं कि इसमें मूल कथा से छेड़छाड़ की गई है। लेकिन इस सीरीज को देखने के बाद ये लगता है कि पटकथा लेखक ने कुछ छूट जरूर ली है लेकिन ये छूट रचनात्मक दायरे में है। ऐसा लगता है कि इस सीरीज के निर्माता और पटकथा लेखक ने रामकथा को आधुनिक और समकालीन बनाने के लिए इस तरह का बदलाव किया है। यह अकारण नहीं है कि राम जब वनवास में होते हैं तो बेहद करीने से ट्रिम की गई दाढ़ी रखते हैं, रावण का हाव भाव एक दंभी खलनायक की तरह का है। ये बदलाव सकारात्मक इस वजह से कहे जा सकते हैं क्योंकि आज के युवा अपने आपको इस कथा से एकाकार कर सकते हैं। इस सीरीज के लेखक बार-बार रावण और राम के मुंह से ये बात कह कर इन बदलावों का औचित्य भी साबित करते हैं। हर युग का अपना राम होता है, हर युग का अपना रावण होता है। कहने का मतलब ये कि हर युग में अच्छाई और बुराई का स्वरूप होता है। इस सीरीज को देखते हुए नरेन्द्र कोहली जी का भी स्मरण हो आया क्योंकि उनसे जब भी बात होती थी तो वो रामकथा को इसी स्वरूप में देखते थे। वो हमेशा वानरों को वनवासी के तौर पर देखते थे।  उनका मानना था कि रामकथा हर युग में अपने बदले हुए स्वरूप में सामने आती है। मूल कथा तो राम, सीता के बीच रावण के आ जाने की ही है। कथा कहने की प्रविधि और घटनाएं और परिस्थियों में अंतर हो सकता है। यही ‘रामयुग’ में दिखता है।  

Saturday, May 22, 2021

नए विकल्प की ओर फिल्मी दुनिया




सलमान खान की कोई फिल्म आनेवाली होती है तो दर्शकों के बीच एक उत्सुकता का माहौल बन जाता है। दर्शक प्रतीक्षा करने लग जाते हैं। हाल ही में रिलीज हुई सलमान खान की फिल्म ‘राधे, योर मोस्ट वांटेड भाई’ को लेकर ऐसा ही माहौल बना। सिनेमा हॉल के लगभग बंद होने की स्थिति में सलमान की फिल्म को लेकर सप्ताहांत में जो माहौल बनता है वो तो इस बार नहीं बन पाया। सिनेमा हॉल के बंद होने की वजह से सलमान की फिल्म के निर्माताओं ने इस फिल्म को ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म जी-5 पर रिलीज किया। ओटीटी के साथ ही फिल्म डायरेक्ट टू होम (डीटीएच) सेवा देनेवाली कंपनियों, टाटा स्काई, डिश टीवी और एयरटेल डिजीटल, पर भी रिलीज की गई। फिल्मों की रिलीज में ये एक नया प्रयोग था। दर्शकों को जी 5 पर फिल्म देखने के लिए अलग से पैसे देने पड़े। आमतौर पर ये होता है कि किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म की अगर आपने सदस्यता ली हुई है तो वो आप वहां उपलब्ध ज्यादातर सामग्री देख सकते हैं। कुछ समाग्री को देखने के लिए अलग से पैसे देने पड़ते हैं। सलमान की फिल्म ‘राधे, योर मोस्ट वांटेड भाई’ को देखने के लिए अलग से दो सौ उनचास रुपए देने पड़ रहे हैं। इस वक्त जब फिल्म इंडस्ट्री पर कोरोना का संकट छाया हुआ है, नई फिल्में बन नहीं पा रही हैं, शूटिंग रुकी हुई हैं, कई फिल्में तैयार हैं लेकिन सिनेमा हॉल बंद होने की वजह से उनकी रिलीज टलती जा रही है, ऐसे में ‘राधे, योर मोस्ट वांटेड भाई’ की रिलीज से एक नए रास्ते का संकेत मिलता है। एक ऐसा रास्ता जिसपर चलना अगर सफल रहा तो फिल्म उद्योग को बड़ी राहत मिल सकती है।

नए रास्ते का संकेत इस वजह से कह रहा हूं कि सलमान खान की फिल्म जब रिलीज हुई, तो ओटीटी प्लेटफॉर्म के मुताबिक, पहले दिन बयालीस लाख दर्शक मिले। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक सभी प्लेटफॉर्म को मिलाकर अगर विचार किया जाए तो पहले दिन मिले दर्शकों की संख्या संतोषजनक कही जा सकती है। पहले दिन तो जी 5 पर इतने दर्शक पहुंचे कि वो प्लेटफॉर्म थोड़ी देर तक दर्शकों का बोझ ही नहीं उठा सका और हैंग हो गया। इस संख्या के हिसाब के फिल्म के बिजनेस पर नजर डालते हैं। हर दर्शक को फिल्म देखने के लिए 249 रु देने पड़ रहे थे। अगर दर्शकों की संख्या और एक बार फिल्म देखने के पैसे पर विचार करें तो तो पहले ही दिन फिल्म ने सौ करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस कर लिया। ये किसी भी फिल्म के लिए ऐसी ओपनिंग है जो स्वप्न सरीखी है। कुछ लोगों का कहना है कि जो बयालीस लाख दर्शकों का आंकड़ा है वो सभी पैसे देनेवाले दर्शक न हैं। उनका तर्क है कि एक परिवार के चार लोगों ने बैठ कर देखा होगा तो दर्शकों का वास्तविक आंकड़ा तो करीब साढे दस लाख का ही होता है। पर इस तरह के अनुमान का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है, सिर्फ अटकल ही लगाई जा सकती है। अगर कोई कंपनी अपनी किसी फिल्म के दर्शकों का आंकड़ा जारी करती है तो ये माना जाता है कि आकलन का आधार भुगतान होता है । क्योंकि पे पर व्यू (एक बार देखने का भुगतान) तो दर्शकों को एक ही बार फिल्म देखने की अनुमति देता है। ये भी सिनेमा हॉल के टिकट की तरह है कि अगर आपने एक शो का टिकट लिया है तो आप तय शो में ही फिल्म देख सकते हैं और वो भी एक ही बार। ओटीटी पर भी अगर कोई फिल्म पे पर व्यू है तो वहां भी दर्शक एक बार ही देख सकते हैं। सलमान खान की फिल्म ‘राधे, योर मोस्ट वांटेड भाई’ के बारे में फिल्म के कारोबार पर नजर रखनेवालों का अनुमान है कि इस फिल्म को पहले चार दिन में सत्तर लाख दर्शक मिले। अगर ये अनुमान सही है तो पहले चार दिन में इस फिल्म ने करीब पौने दो सौ करोड़ रुपए का बिजनेस कर लिया है। यानि कि गुरूवार से लेकर रविवार तक इस फिल्म को जमकर दर्शक मिले। ये तो तब हो रहा था जब ‘राधे, योर मोस्ट वांटेड भाई’, पूरी फिल्म व्हाट्सएप और अन्य इंटरनेट मीडिया के माध्यमों पर सर्कुलेट हो रहा है। फिल्म के निर्माताओं ने इसको लेकर मुंबई पुलिस में शिकायत भी दर्ज करवाई और जांच चल रही है। 

कोरोना संकट की वजह से ये आशंका है कि निकट भविष्य में शायद ही सिनेमा हॉल खुल सके। कम से कम इस वर्ष अगस्त-सितंबर तक तो सिनेमा हॉल के खुलने की उम्मीद बहुत ही कम है, ऐसे में बड़ी बजट और बड़े सितारों की फिल्मों के रिलीज होने का एक नया मॉडल या विकल्प अपनाने से फिल्म उद्योग पर छाए संकट को कम किया जा सकता है। पे पर व्यू के हिसाब से ओटीटी और डायरेक्ट टू होम सेवा प्रदताओं के प्लेटफॉर्म पर पर फिल्म रिलीज करने का विकल्प। अगर ऐसा हो पाता है तो ये बिल्कुल नई शुरुआत होगी और नया ट्रेंड आरंभ होगा। सलमान खान की फिल्म की सफलता से बड़ी बजट की फिल्मों के निर्माताओं का हौसला बढ़ेगा। दरअसल बड़ी बजट की फिल्मों में निर्माताओं का पैसा लग चुका है और वो ज्यादा दिनों तक अपने निवेश को रोककर रखने की बजाए उससे मुनाफा कमाने के बारे में सोच सकते हैं। हो सकता है ओटीटी और डायरेक्ट टू होम पर फिल्मों को रिलीज करने से अपेक्षाकृत कम मुनाफा हो लेकिन रुका हुआ पैसा वापस आने से नए प्रोजेक्ट शुरू होंगे। लोगों को काम मिलेगा और इससे लगभग ठप पड़े फिल्म उद्योग में जान आ सकती है।

अगर फिल्मों के डिजीटल रिलीज को फिल्म निर्माता अपनाते हैं तो एक बेहद महत्वपूर्ण मसले पर ध्यान देना होगा। वो मसला है पायरेसी का। जिस तरह से सलमान खान की फिल्म का पायरेटेड वर्जन रिलीज वाले दिन ही इंटरनेट मीडिया पर घूमने लगा था, उसने इस फिल्म के निर्माताओं को चिंता में डाल दिया था। पायरेसी को रोकने के लिए इन प्लेटफॉर्म्स को ऐसा सिस्टम विकसित करना होगा कि वहां से कोई उसकी कॉपी न कर सके। अगर कोई कॉपी करने की कोशिश करे या कॉपी करने में सफल हो जाए तो संबंधित प्लेटफॉर्म के जरिए उस व्यक्ति तक पहुंचा जा सके जिसके डिवाइस से फिल्म की क़ॉपी की गई हो। आज तकनीक के इस दौर में ऐसा करना बहुत मुश्किल काम नहीं है। फिल्म उद्योग को बचाने के लिए कानून का पालन करवानेवाली एजेंसियों को भी कठोर कदम उठाने होंगे। पायरेसी करते हुए पकड़े जाने पर कठोर सजा का प्राविधान हो, इसके लिए फिल्म उद्योग के लोगों को संगठित होकर आवाज उठानी होगी। फिल्म उद्योग में कई ऐसा लोग हैं जो बयानवीर हैं, ट्वीटरवीर हैं लेकिन अपनी इंडस्ट्री और उससे जुड़े लोगों की समस्या का स्थायी हल ढूंढने में उनकी रुचि दिखाई नहीं देती है। इन वीरों को उनके हाल पर छोड़कर संजीदा निर्माताओं को सरकार के नुमाइदों से बात करने की पहल करनी होगी। कोरोना संकट के लंबा चलने की आशंकाओं के बीच हर क्षेत्र के लोगों को वैकल्पिक रास्ते पर विचार करना होगा, अगर कोई रास्ता सूझता है तो उसको अपनाने के लिए प्रयास करना होगा। इस तरह के प्रयासों से ही संबंधित क्षेत्र को राहत मिल सकती है, फिल्म जगत के सामने भी इसी तरह का विकल्प है कि वो अपने को बचाने के लिए नए रास्ते तलाशे। सलमान की फिल्म की रिलीज ने फिल्म उद्योग जगत को ऐसा ही एक रास्ता दिखाया है । 

Saturday, May 15, 2021

कमल हासन की हार से निकलते संदेश


इस महीने के आरंभ में कई राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव नतीजे आए और इसके साथ ही उन राज्यों के चुनाव संपन्न हो गए। पश्चिम बंगाल चुनाव के परिणामों के शोरगुल में तमिलनाडु विधासभा चुनाव  की एक महत्वपूर्ण खबर की अपेक्षित चर्चा नहीं हो पाई। तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में मशहूर अभिनेता कमल हासन और उनकी पार्टी दोनों हार गई। कमल हासन ने दो हजार अठारह में मक्कल निधि मायय्म नाम से एक पार्टी बनाई थी और उसके बैनर तले दो हजार उन्नीस का लोकसभा चुनाव भी लड़ा था। उस चुनाव में भी उनकी पार्टी का खाता नहीं खुल पाया था। कुछ चुनावी विशेषज्ञों और वामपंथी उदारवादी राजनीतिज्ञों को इसकी उम्मीद थी कि कमल हासन और उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव में बेहतर करेगी। कम से कम इस बात का अंदाज तो था ही कि कमल हासन की पार्टी तमिलनाडु विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय कर देगी। पर ऐसा हो नहीं सका। जब तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के परिणाम आए तो कमल हासन कोयंबटूर दक्षिण सीट से भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा की अध्यक्षा वनाथी श्रीनिवासन से पराजित हो गए। चुनाव प्रचार के दौरान कमल हासन ने वनाथी को छोटा राजनेता कहकर उनका मजाक भी उड़ाया था। तब वनाथी ने पलटवार करते हुए उनको ‘लिप सर्विस’ करनेवाला राजनेता बताया था। इस चुनाव के दौरान एक और दिलचस्प घटना घटी थी। प्रचार के दौरान कमल हासन के पैर में चोट लग गई थी, जब वनाथी को पता चला तो उन्होंने कमल हासन को फलों की एक टोकी भेजी और साथ में जल्द स्वस्थ होने की कामना का एक कार्ड भी। जब पत्रकारों ने उनसे इस बारे में सवाल किया था तब वनाथी ने कहा था कि कोयंबटूर वाले अपने मेहमानों का खास ख्याल रखते हैं और उन्होंने इस परंपरा को निभाया है। कहना न होगा कि कमल हासन को ‘मेहमान’ बताकर वनाथी ने मतदाताओं को ये संदेश दे दिया था कि हासन कोयंबटूर में बाहरी हैं। परिणाम सबके सामने है। 

कमल हासन की हार को इस वजह से भी रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि वो भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी से हारे, उनको कांग्रेस के प्रत्याशी से हार नहीं मिली। कांग्रेस का तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) से चुनावी गठबंधन था और इस बार पूरे राज्य में डीएमके की लोकप्रियता अन्य दलों से अधिक थी। चुनाव परिणामों में ये दिखा भी। कमल हासन का पराजित होना एक विधानसभा चुनाव का परिणाम नहीं है बल्कि इसके गहरे निहितार्थ हैं, खासकर तमिलनाडु की राजनीति में। कमल हासन तमिलनाडु के बेहद लोकप्रिय अभिनेता रहे हैं और पिछले करीब पांच दशक से वो फिल्मों में काम रहे हैं। उनको कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। वो अपनी फिल्मों में जिस तरह से प्रयोग करते रहे हैं उससे भी एक कलाकार के तौर पर उनकी काफी प्रतिष्ठा है। दक्षिण के राज्यों में फिल्मों के जो भी सुपरस्टार राजनीति में आए उन्होंने यहां भी सफलता प्राप्त की। ये सूची काफी लंबी है लेकिन अगर सिर्फ तमिलनाडु का ही संदर्भ लें तो एम जी रामचंद्रन, करुणानिधि और जयललिता के उदाहरण अभिनेताओं की चुनावी सफलता की कहानी कहते हैं। इन अभिनेताओं की चुनावी सफलता और राज्य में राजनीति के शिखर पर पहुंचने की परंपरा से प्रभावित होकर कमल हासन भी राजनीति में उतरे थे। कमल हासन अपने पूर्वज अभिनेताओं से प्रभावित होकर राजनीति में उतर तो गए लेकिन वर्तमान हालात का आकलन करने में चूक गए। इन नतीजों को देखने के बाद लगता है कि तमिल फिल्मों के सुपरस्टार रजनीकांत इस वजह से ही राजनीति के मैदान में उतरने से हिचकते रहे । ऐसा लगता है कि उन्हें इस बात का अंदाज हो गया था कि अब वो समय नहीं रहा कि फिल्मों का लोकप्रिय अभिनेता, राजनीतिक दल बनाकर उतरे और जनता के भारी समर्थन से सत्ता पर काबिज हो सके। इस बात की कई बार चर्चा होती थी कि रजनीकांत राजनीति में आने वाले हैं लेकिन अबतक तो वो राजनीति में आए नहीं हैं। कमल हासन और उनकी पार्टी की हार से ऐसा प्रतीत होता है कि रजनीकांत का फैसला सही रहा।  

कमल हासन ने जब दो हजार अठारह में अपना राजनीतिक दल बनाया था तब उन्होंने मोदी विरोध का भी बिगुल भी फूंका था। राजनीतिक दल बनाने के बाद वो केरल के वामपंथी मुख्यमंत्री विजयन से लेकर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी मिले थे। खबरों के मुताबिक मुलाकात तो उन्होंने ममता बनर्जी से भी की थी। उनके इन मुलाकातों से उनके मंसूबे साफ थे कि वो भारतीय जनता पार्टी के विरोध या विपक्ष की राजनीति करना चाहते थे। यही संदेश तमिलनाडु में भी गया। कमल हासन के विचारों से ऐसा प्रतीत होता है कि वो वामपंथ के करीब हैं। वो अपने वामपंथी विचारों को अपने साक्षात्कारों में प्रकट भी करते रहे हैं। उनके इन विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से उनके राजनीतिक दल पर भी दिखा। तो क्या कमल हासन की चुनाव में हार और उनकी पार्टी का तमिलनाडु में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में सूपड़ा साफ होने से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वाम दलों के विचारों में लोगों का भरोसा न्यूनतम रह गया है। ‘न्यूनतम भरोसे’ के तर्क को यह कहकर खारिज किया जा सकता है कि तमिलनाडु के पड़ोसी राज्य केरल के चुनाव में वामपंथी गठबंधन की सरकार बनी। ये ठीक है, लेकिन केरल की स्थितियां अलग थीं। वहां वामपंथी दलों के मोर्चे का मुख्य मुकाबला कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा से था। मतदाताओं को वहां वाम और कांग्रेस में से एक को चुनना था क्योंकि भारतीय जनता पार्टी अभी वहां संघर्ष ही कर रही है। मतदाताओं ने वाम मोर्चे को चुना। यह भी कहा जा सकता है कि कमजोर विकल्प की वजह से मतदाताओं ने वामपंथी गठबंधन को चुना। पश्चिम बंगाल में तो कांग्रेस और वामपंथी मिलकर चुनाव लड़ रहे थे और इस गठबंधन का वहां खाता भी नहीं खुला। यहां मतदाताओं के पास विकल्प थे। आज से चंद साल पहले कोई इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बंगाल की जनता लेफ्ट को इस तरह से नकार देगी कि पूरे राज्य में उसको एक भी सीट नहीं मिलेगी। कल्पना तो ये भी नहीं की जा सकती थी कि बंगाल की नक्सलबाड़ी विधानसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी का उम्मीदवार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर लेगा। कमल हासन को तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी पराजित कर देगी। 

दरअसल अगर अब हम इन घटनाओं को देखें और अतीत की इसी तरह की घटनाओं के आधार पर विश्लेषण करें तो सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएंगे। अब भारत का लोकतंत्र अपेक्षाकृत परिपक्व हुआ है। अब चेहरे या फिल्मी पर्दे की छवि के आधार पर वोट मिलना संभव नहीं है। अब जनता काम चाहती है, जनता उस पार्टी को पसंद करती है जिसका नेता उसको भरोसा दिला सके, भरोसा उनकी बेहतरी का, भरोसा देश की बेहतरी का और भरोसा समयबद्ध डिलीवरी का। आजादी के सात दशकों के बाद जनता इतनी परिपक्व हो गई है कि उसको अब नारों या नेताओं की राजनीति से इतर छवि से बहलाया नहीं जा सकता है। अब शायद ही संभव हो कि कोई अभिनेता एन टी रामाराव का तरह अपनी पार्टी बनाकर आएं, सालभर तक राज्य में घूमें फिर चुनाव लड़ें और जनता उनको भारी बहुमत से जिताकर गद्दी सौंप दें। कई चुनावों में तो हिंदी फिल्मों के सुपरस्टार के प्रचार भी उम्मीदवारों का बेड़ा पार नहीं कर पाए। इस लिहाज से कमल हासन की हार भारतीय राजनीति को समझने का एक प्रस्थान बिंदु हो सकता है।   


Saturday, May 8, 2021

प्रकृति-पूजा से होगा कष्ट निवारण


आज पूरे देश के शहरी इलाकों में ऑक्सीजन को लेकर त्राहिमाम है। अदालतें ऑक्सीजन की सप्लाई को लेकर सरकार पर सख्ती बरत रही हैं, सरकारें ऑक्सीजन के उत्पादन और वितरण में रात दिन लगी हुई हैं। अस्पतालों में ऑक्सीजन के संयत्र लगाए जा रहे हैं, ऑक्सीजन वितरण के लिए विदेशों से टैंकर मंगाए जा रहे हैं। ऑक्सीजन के छोटे सिलिंडरों की कालाबाजारी हो रही हैं। विदेशों से ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मगंवाए जा रहे हैं। समाजसेवी संस्थाएं और सक्षम लोग इन ऑक्सीजन कंसंट्रेटर का वितरण कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कोरोना जैसी महामारी से निबटने के लिए ऑक्सीजन बेहद आवश्यक है। है भी। लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि हमने प्रकृति के साथ अबतक क्या किया और अब इन कंसंट्रेटर के माध्यम से क्या करने जा रहे हैं। क्या हमारे वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीजन की मात्रा पर इन कंसंट्रेटर का असर नहीं पड़ेगा? गर्मी के बढ़ने के साथ एरकंडीशनर का उपयोग बढ़ेगा और कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी होगी। याद करिए अमेरिका में कोरोना की पहली लहर का कितना भयानक असर हुआ था और उसने कैसी तबाही मचाई थी। वो तब था जब अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक विकसित देश है और वहां स्वास्थ्य सेवाएं बहुत अच्छी हैं। 

दरअसल हम तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में इस कदर शामिल हो गए कि अपने भारतीय मूल्यों को लगातार बिसरते चले गए। हमारे देश में प्रकृति को लेकर एक अनुराग प्राचीन काल से रहा है। प्रकृति और पेड़ों को तो हमारे यहां भगवान मानकर पूजने की परंपरा रही है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में वृक्षों और पौधों को लेकर कई तरह की मान्यताओं की बात कही गई है। पीपल, वट, तुलसी आदि की तो पूजा तक की जाती रही है। इन वृक्षों और पौधों को लेकर लोक में जो मान्यता है वो उनको धर्म से भी जोड़ती हैं। महाभारत के आदिपर्व में एक श्लोक में घने वृक्षों की महिमा का वर्णन है। कहा गया है कि किसी भी गांव में घुसते ही जब आपको कोई वृक्ष दिखाई देता है जो पत्तों से छतनार हो और फलों से लदा हुआ हो तो वो अपने विशिष्ट लक्षणों के कारण प्रसिद्ध होता है। आसपास के लोग उस वृक्ष की पूजा करते हैं। वैदिक साहित्य में भी वृक्ष की महिमा का विस्तार से उल्लेख मिलता है। हिंदू धर्म के अलावा बौद्ध और जैन धर्म में भी वृक्षों की पूजा की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। यह अनायास नहीं है कि बुद्ध और तीर्थंकर के नाम के साथ एक पवित्र वृक्ष भी जुड़ा हुआ है जिसे बोधिवृक्ष कहते हैं। हिंदू धर्म में भी कल्पवृक्ष की मान्यता है जो लोक में व्याप्त है। मान्यता ये है कि देवता और असुरों के समुद्र मंथन के समय ही कल्पवृक्ष का जन्म हुआ जिसको स्वर्ग में इंद्र देवता के नंदनवन में लगा दिया गया। लोक में इस कल्पवृक्ष की मान्यता के अलावा इसका उल्लेख कई ग्रंथों में मिलता है। उन ग्रंथों में इस वृक्ष को उत्तरकुरू देश का वृक्ष माना गया है। महाभारत में भी उत्तरकुरु देश में सिद्ध पुरुषों के रहने का वर्णन मिलता है और उस वर्णन के दौरान ऐसे वृक्ष का उल्लेख मिलता है जो हमेशा फलता फूलता रहता है। हमेशा हरा भरा रहता है। कुछ इसी तरह का वर्णन रामायण में भी मिलता है । सुग्रीव जब सीता को खोजने के लिए अपनी वानर सेना को उत्तर दिशा की ओर भेज रहा होता है तब वो अपनी सेना से कहते हैं कि इस दिशा के अंत में उत्तरकुरु प्रदेश है। उस प्रदेश की पहचान ये है कि वहां वहां वैसे वृक्ष मिलेंगे जो सदा फलते-फूलते रहते हैं। उन वृक्षों से ही उस प्रदेश की पहचान है।  

इसके अलावा भी अगर हम अपनी परंपराओं पर विचार करें तो हमारे यहां उद्यानों की बहुत पुरानी परंपरा दिखाई देती है। आज जिसे किचन गार्डन कहकर महिमा मंडित किया जाता है उसकी जड़े हमारे पौराणिक समय में ही देखी जा सकती हैं। काव्यादर्श में तो स्पष्ट कहा गया है कि ‘महाकाव्य का स्वरूप तबतक पूरा नहीं समझा जा सकता है जबतक उसमें उद्यान क्रीड़ा या सलिल क्रीडा का वर्णन न हो।‘ मुगल काल में भी इसी परंपरा को बढ़ाते हुए गृह-उद्यान की परंपरा को अपनाया गया और उसको नजरबाग कहा गया। शासकों और राजाओं के उद्यान लीला का वर्णन साहित्यिक रचनाओं में भी मिलता है। उन उद्यानों में पेड़ों की कतार और उसके बीच छोटे छोटे तालाब या जलकुंड का उल्लेख मिलता है। राजाओं या जमींदारों की अपनी वाटिकाएं भी होती थीं। धर्म से लेकर लोक तक में प्रकृति के साथ जो संबंध थे वो कालांतर में बाधित होते चले गए। जिसका असर हमारे जीवन पर पड़ा। पेड़ों की महत्ता को लोक उत्सवों और वैवाहिक अनुष्ठानों के माध्यम से भी समझा जा सकता है। बिहार के कई इलाकों में लड़कियों की शादी से पहले आम के पेड़ से प्रतीकात्मक शादी करवाई जाती है। शादी वाले दिन कन्या को लेकर सभी सुहागिनें आम के पेड़ के पास जाती हैं और वहां लोकगीतों के बीच आम के पेड़ के साथ शादी की रस्म होती है। इसके बाद कन्या को लेकर सभी सुहागिनें लौटती हैं और रात में शादी संपन्न होती है। कहना न होगा कि पेड़ को लोक मान्यताओं में इतना महत्व दिया गया है कि लड़कियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो पेड़ का भी उतना ही ख्याल रखे जितना अपने पति का। इसी तरह कई इलाकों में शादी के पहले बांस के पेड़ों के साथ भी लड़कियों के विवाह की परंपरा रही है। इसके अलावा उसी इलाके में सुहागन स्त्रियों का एक और पर्व होता है जिसे बरसायत कहते हैं। लड़की की शादी जिस वर्ष होती है उसके अगले वर्ष के जेठ माह की अमावस्या को वो बरगद की पूजा करती है। यह पूजा समारोहपूर्वक की जाती है।

आधुनिकता और शहरीकरण के अंधानुकरण के दबाव में हमने खुद को प्रकृति के दूर करना आरंभ किया। विकास के नाम पर प्रकृति से खिलवाड़ का खेल खतरनाक स्तर पर पहुंच गया। पेड़ों की जगह गगनचुंबी इमारतों ने ले ली। हाइवे और फ्लाइओवर के चक्कर में हजारों पेड़ काटे गए। ये ठीक है कि विकास होगा तो हमें इन चीजों की जरूरत पड़ेंगी लेकिन विकास और प्रकृति के बीच संतुलन बनाना भी तो हमारा ही काम है। अगर हम पेड़ों को काट रहे हैं तो क्या उस अनुपात में पेड़ लगा रहे हैं। अगर हम विकास के नाम पर बड़े बड़े डैम बना रहे हैं तो क्या हम उससे प्रकृति को होनेवाले नुकसान का आकलन कर उसके भारपाई का प्रबंध कर रहे हैं। हमें इन सब बिंदुओं पर विचार करना चाहिए था। हमने नीम, पीपल और बरगद के पेड़ हटाकर फैशनेबल पेड़ लगाने आरंभ कर दिए थे, बगैर ये सोचे समझे कि इसका पर्यावरण और प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा। आज जब ऑक्सीजन को लेकर हाहाकार मचा है तो हमें फिर से नीम और पीपल के पेड़ों की याद आ रही है। आज मरीज की जान बचाने के लिए कंसंट्रेटर का उपयोग जरूरी है पर उतना ही जरूरी है उसके उपयोग को लेकर एक संतुलित नीति बनाने की भी। आज हम कोरोना की महामारी से लड़ रहे हैं, ये दौर भी निकल जाएगा। हम इस महामारी के प्रकोप से उबर भी जाएंगे लेकिन प्रकृति को जो नुकसान हमने पहुंचा दिया है उसको जल्द पाटना मुश्किल होगा। कोरोना की महामारी ने हमें एक बार इस बात की याद दिलाई है कि हम भारत के लोग अपनी जड़ों की ओर लौटें, हमारी जो परंपरा रही है, हमारे पूर्वजों ने जो विधियां अपनाई थीं, उसको अपनाएं। हम पेड़ों से फिर से रागात्मक संबंध स्थापित करें, उनको अपने जीवन का हिस्सा बनाएं।  

Friday, May 7, 2021

कठोर प्रशासक, संवेदनशील लेखक


करीब दो साल पहले की बात है। सर्दी के दिन थे। किसी मित्र ने दोपहर के भोजन के लिए इंडिया इंरनेशनल सेंटर(आईआईसी) आमंत्रित किया था। डायनिंग हॉल में जगह नहीं थी, तो हमलोग लॉन में अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। अचानक सफेद पैंट शर्ट पहने एक बुजुर्ग पास से निकले, मैंने अपने दोस्त से कहा कि ये तो जम्मू कश्मीर के पूर्व गवर्नर जगमोहन लग रहे हैं। उसने पुष्टि की। जगमोहन जी लॉन में टहल रहे थे। थोड़ी देर टहलने के बाद वो धूप में बैठ गए। मैंने थोड़ा साहस जुटाया और उनको परिचय देकर पास रखे खाली कुर्सी पर बैठ गया। उनसे कश्मीर पर बात शुरू की। उनकी एक बात मुझे अब भी याद है। उन्होंने कहा था कि अनुच्छेद तीन सौ सत्तर समाप्त कर दो, समस्या बहुत हद तक खत्म हो जाएगी। थोड़ी देर की बातचीत के बाद वो ये कहते हुए उठ खड़े हुए कि लाइब्रेरी जाने का समय हो गया है। आईआईसी की लाइब्रेरी जाने के लिए बढ़े, फिर थोड़ा रुके और बोले कि अगर समय मिले तो मेरी किताब ‘माई फ्रोजन टरबुलेंस इन कश्मीर’ पढ़ना। तीन मई को तिरानवे साल की उम्र में जगमोहन जी के निधन की खबर सुनते ही ये मुलाकात याद आ गई।   

जगमोहन का जन्म अविभाजित भारत के हफीजाबाद में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार पंजाब आ गया। पंजाब से होते हुए जगमोहन दिल्ली पहुंचे थे।  पूरे देश ने उनका नाम इमरजेंसी में तब जाना जब वो दिल्ली विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष थे। उनके उपाध्यक्ष रहते हुए तुर्कमान गेट इलाके की अवैध इमारतों पर बुलडोजर चला था। काफी विरोध हुआ, प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलीं लेकिन जगमोहन ने काम नहीं रुकने दिया था। उस वक्त इस बात की चर्चा थी कि संजय गांधी चाहते थे कि तुर्कमान गेट से जामा मस्जिद साफ-साफ दिखे और उसके बीच कोई बाधा न हो। जगमोहन ने संजय गांधी की इस ख्वाहिश को पूरा किया था। तुर्कमान गेट पर जब इमारतों को ढहाने का काम रोका नहीं गया तो कुछ लोग जगमोहन के पास पहुंचे थे। इलाके के लोगों ने अपने पुनर्वास की बात की और जगमोहन से अनुरोध किया कि उन सबको एक ही जगह रहने की व्यवस्था की जाए। तब जगमोहन ने उनसे दो टूक कहा था कि वो यहां एक दूसरा पाकिस्तान नहीं बसाना चाहते हैं। उमा वासुदेव की उन्नीस सौ सतहत्तर में प्रकाशित पुस्तक ‘टू फेसेस ऑफ इंदिरा गांधी’ में इस प्रसंग का उल्लेख है। 

आज हम दिल्ली के ज्यादातर इलाकों को झुग्गियों से मुक्त देखते हैं तो इसके लिए जगमोहन की दूरदर्शी नीति और उनके कठोर निर्णय के अलावा अपने फैसलों के क्रियान्वयन की इच्छाशक्ति जिम्मेदार है। उन्नीस सौ बयासी में दिल्ली में  एशियाई खेल का आयोजन हो या फिर उसके अगले साल निर्गुट देशों के राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन, जगमोहन ने अपनी प्रशासनिक क्षमता की छाप छोड़ी। जगमोहन जब राजनीति में उतरे तो नई दिल्ली लोकसभा सीट से सुपरस्टार राजेश खन्ना को मात दी। इस सीट से तीन बार सांसद रहे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में शहरी विकास मंत्री रहे। उनके निधन ने दिल्ली के बौद्धिक और प्रशासनिक जगत को थोड़ा विपन्न कर दिया है।   


Saturday, May 1, 2021

सृजनशीलता का स्वर्णिम शिखर


सत्यजित राय, भारतीय फिल्म जगत का एक ऐसा नाम, जिसपर हर भारतीय को गर्व है। सिनेमा के वैश्विक पटल पर सत्यजित राय ने अपनी फिल्मों के माध्यम से रचनात्मकता का परचम लहराया। उनकी बनाई हर फिल्म कला का नायाब नमूना है। एंड्रयू रॉबिंसन की पुस्तक ‘सत्यजित राय, द इनर आई’ में सत्यजित राय की फिल्मकला पर कई बेहतरीन टिप्पणियां हैं। इनमें से एक टिप्पणी तो प्रख्यात लेखक वी एस नायपॉल की भी है जो इनकी फिल्मों की या इन फिल्मों के दृश्यों की तुलना शेक्सपियर के लेखन से करते हैं जहां कम शब्दों में ऐसी बात कह दी जाती है जिसकी व्याप्ति बहुत अधिक होती है। उनकी फिल्मों का कलात्मक मूल्यांकन करते समय बहुधा समीक्षकों से कोई न कोई सिरा छूट ही जाता है। साहित्य को सिनेमा में रूपांतरित करने की कला में सत्यजित राय पारंगत थे। ‘पथेर पांचाली’ से लेकर ‘आगंतुक’ या ‘गणशत्रु’ या फिर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तक उन्होंने मशहूर साहित्यकारों की कृतियों को उठाया और उसको फिल्मी पर्दे पर इस तरह से उकेरा कि वो क्लासिक बन गई। सत्यजित राय ने विभूति भूषण, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमेन्द्र मित्र और प्रेमचंद की कृतियों पर फिल्में बनाईं और कह सकते हैं कि ये सभी फिल्में और सौंदर्य और कहन में मूल कहानी या रचना से कमतर नहीं है बल्कि कई बार तो इस सत्यजित राय का ट्रीटमेंट उसको और बेहतर बना देता है। सत्यजित राय एक ऐसे निर्देशक थे जिनका फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र पर दखल रहता था। 

राय के मित्र चिदानंद दासगुप्त ने उन्नीस सौ सत्तावन में अमृत बाजार पत्रिका में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘पटकथा फिल्म निर्माण का आरंभ है और संपादन उसका अंत होता है। निर्देशक इन दोनों स्तंभों पर निर्भर रहता है, कम से कम सत्यजित राय के मामले में तो ऐसा ही है। दोनों पर संपूर्ण नियंत्रण के माध्यम से सत्यजित अपने कृतित्व को अपनी सोची हुई तस्वीर की समग्र अभिव्यक्ति में रूपायित करते हैं।‘ दरअसल उनके ऐसा कहने के पीछे की सोच ये थी कि सत्यजित राय का शिल्प इस सिद्धांत पर आधारित होता था कि फिल्मकार को छायांकन की श्रेष्ठ समझ हो, वो संगीत में निपुण हो, विषय़ को उसके मूल स्वरूप में चित्रित करने की सलाहियत हो और अपने अभिनेताओं से उच्च श्रेणी का अभिनय करवाने की क्षमता हो। सत्यजित राय में ये सभी गुण थे। फिल्म ‘चारुलता’ में सत्यजित राय ने कैमरा थाम लिया था और फिल्म ‘तीन कन्या’ में उन्होंने संगीत की जिम्मेदारी भी उठा ली थी। कालांतर में तो सत्यजित राय ने संगीत की अपनी एक शैली ही विकसित कर ली थी। लेकिन फिल्मों में पार्श्व संगीत के पक्ष में सत्यजित राय नहीं थे। उन्होंने एक बार कहा भी था कि अगर अपनी फिल्मों का मैं इकलौता दर्शक होता तो उसमें पार्श्व संगीत नहीं डालता। उनका मानना था कि संगीत बाहरी तत्व है और उसके बिना भी अभिव्यक्ति संभव है। पटकथा लेखन में वो ये जानते थे कि मूल कहानी में से क्या रखना है और क्या छोड़ देना है। उनकी तमाम फिल्मों की पटकथा का अगर विश्लेषण किया जाए तो यह बात साफ तौर पर उभर कर आती है कि उसमें न तो अतिभावुकता होती थी, न ही दर्शकों को चमत्कृत करने या उसको प्रभावित करने के लिए कोई विशेष युक्ति अपनाई जाती थी। उन्नीस सौ बयासी में एक समारोह में राय ने माना भी था कि पटकथा का उद्देश्य कहानी का सहज प्रवाह होना चाहिए। उन्होंने कहा था कि, श्रेष्ठ फिल्म संवाद वो होता है जिसे सुनकर दर्शक को लेखक के अस्तित्व का भान ही न हो। मैं ऐसी फिल्म की बात कर रहा हूं जो यथार्थ के एहसास को दृश्य में बांधती है। यथार्थ को जस का तस रख देना कभी भी कला नहीं हो सकती है।‘ सत्यजित राय कभी भी अपनी फिल्म में काम करनेवाले अभिनेताओं से रिहर्सल नहीं करवाते थे। उनका मानना था कि अधिक रिहर्सल से अभिनय की स्वाभाविकता पर असर पड़ता है। अभिनेताओं से बेहतर निकलवाने का उनका अपना एक अनोखा तरीका था, वो करते ये थे कि सेट पर कहानी के अनुरूप ऐसा वातावरण तैयार कर देते थे कि अभिनेता या अभिनेत्री उसके प्रभाव में आकर अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करते थे, देते भी थे। वो हमेशा शूटिंग से पहले अपने अभिनेताओं को कहानी और सीन समझाते थे और अपनी अपेक्षा भी बताते थे। इस बात के लिए भी प्रेरित करते थे कि वो अपना स्वाभाविक अभिनय करें।  

भारतीय फिल्म के इस कुशल चितेरे के जन्म शताब्दी वर्ष का आरंभ आज से हो रहा है। भारत सरकार ने भी फिल्म से जुड़े इस कलाकार के जन्म शताब्दी वर्ष को भव्यता से मनाने का फैसला किया है। संस्कृति मंत्रालय और विदेश मंत्रालय भी शताब्दी वर्ष के दौरान सत्यजित राय से जुड़े आयोजन करेंगे। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने घोषणा की है कि इस वर्ष से सत्यजित राय के नाम से एक लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार दिया जाएगा। इस पुरस्कार में दस लाख रुपए की राशि देने की घोषणा भी की गई है। ये पुरस्कार गोवा में आयोजित होने वाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के दौरान दिए जाएंगे। पूरे वर्ष तक सत्यजित राय की फिल्मों का प्रदर्शन आदि भी होगा। सत्यजित राय की फिल्म कला की बारीकियों पर जमकर चर्चा होनी चाहिए, उसके विविध रूपों पर फिल्म के जानकारों के बीच विमर्श होने से नए लोगों की फिल्मों को लेकर दृष्टि और संपन्न होगी।