हिंदी जगत में रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रकवि के रूप में समादृत हैं। द्वारिका राय सुबोध के साथ एक साक्षात्कार में दिनकर ने इस विशेषण को लेकर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी। जब उनसे पूछा गया कि क्या आलोचकों ने उनके साथ न्याय किया तो उन्होंने साफ कहा कि राष्ट्रकवि के नाम ने मुझे बदनाम किया है। मेरे कवित्व की झांकी दिखलाने का कोई प्रयास नहीं करता। उन्होंने माना था कि कवि की निष्पक्ष आलोचना उसके जीवनकाल में नहीं हो सकती है क्योंकि जीवनकाल में उनके व्यवहार आदि से कोई रुष्ट रहता है और कोई अकारण ईर्ष्यालु हो उठता है। यह अकारण भी नहीं है कि दिनकर को राष्ट्रकवि कहा जाता है। उनकी कविताओं में राष्ट्रीय भावनाओं का प्राबल्य है। उनकी आरंभिक कविताओं से लेकर परशुराम की प्रतीक्षा तक में राष्ट्र को लेकर चिंता दिखाई देती है। स्वयं दिनकर ने भी लिखा है कि लिखना आरंभ करने के समय सारे देश का कर्त्तव्य स्वतंत्रता संग्राम को सबल बनाना था। अपनी कविताओं के माध्यम से वो भी कर्तव्यपालन में लग गए थे। दिनकर की कविताओं में अतीत का गौरव गान भी मुखरित होता है। जब देश स्वाधीन हुआ था तो दिनकर ने ‘अरुणोदय’ जैसी कविता लिखकर स्वतंत्रता का स्वागत किया था। एक वर्ष में ही दिनकर का मोहभंग हुआ और उन्होंने ‘पहली वर्षगांठ’ जैसी कविता लिखकर राजनीतिक दलों की सत्ता लिप्सा पर प्रहार किया।
राष्ट्रकवि के विशेषण से दिनकर के दुखी होने का कारण था कि उनकी अन्य कविताओं और गद्यकृतियों को आलोचक ओझल कर रहे थे। दिनकर के सृजनकर्म में पांच महत्वपूर्ण पड़ाव है। इनको रेखांकित करने के पहले दिनकर के बाल्यकाल के बारे में जानना आवश्यक है। दिनकर ने दस वर्ष की उम्र से ही रामायण और श्रीरामचरितमानस का नियमित पारायण आरंभ कर दिया था। रामकथा और रामलीला में उनकी विशेष रुचि थी। उनपर श्रीराम के चरित्र का गहरा प्रभाव था। किशोरावस्था से ही वो वाल्मीकि और तुलसी की काव्यकला से संस्कारित हो रहे थे। कालांतर में पराधीनता ने उनके कवि मन को उद्वेलित किया। रेणुका और हुंकार जैसी कविताओं ने उनको राष्ट्रवादी कवि के रूप में पहचान दी। जब कुरुक्षेत्र और के बाद रश्मिरथी का प्रकाशन हुआ तो दिनकर को चिंतनशील और विचारवान कवि माना गया। कुछ समय बाद जब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ का प्रकाशन हुआ तो दिनकर को इतिहास में संस्कृति और दर्शन की खोज करनेवाला लेखक कहा गया। दिनकर की कलम निरंतर चल रही थी। उर्वशी के प्रकाशन पर तो साहित्य जगत में जमकर चर्चा हुई। दर्जनों लेख लिखे गए, वाद-विवाद हुए। चर्चा में दिनकर को प्रेम और अध्यात्म का कवि कहा गया। 1962 के चीन युद्ध के बाद जब ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ आई तो आलोचकों ने कविता में विद्रोह के तत्वों को रेखांकित करते हुए उनको विद्रोही कवि कह डाला।
दिनकर चाहते थे कि उनकी कृतियों की समग्रता में चर्चा हो लेकिन जब सिर्फ उनकी राष्ट्र आधारित कविताओं की चर्चा होती तो वो झुब्ध हो जाते । दिनकर की कविताओं में वर्णित ओज के आधार पर कुछ आलोचक उनको गर्जन-तर्जन का कवि घोषित कर देते हैं। वो भूल जाते हैं कि ओज के पीछे गहरा चिंतन भी है। दिनकर की कविता की भाषा एकदम सरल है लेकिन बीच में जिस तरह से वो संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करते हैं उससे उनकी कविता चमक उठती है। इस बात पर भी शोध किया जाना चाहिए कि जो दिनकर बाल्यकाल में रामायण और श्रीरामचरितमानस के प्रभाव में थे उन्होने बाद में अपने प्रबंध काव्यों में महाभारत को प्राथमिकता क्यों दी। प्रणभंग, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी तो महाभारत आधारित है। अगर समग्रता में देखें तो दिनकर की कविताओं में समय, समाज, संस्कृति, प्रेम,प्रकृति, राजनीति और राष्ट्रीयता आदि की गाढ़ी उपस्थिति है। यही उनकी काव्य धरा भी है और क्षितिज भी।