'हंस' खेमे के सिपहसालार, दलित युवा लेखक अजय नावरिया का नाम हाल के दिनों में बहुत तेजी से उभरा है । दो साल पहले जब उनका पहला कहानी संग्रह- पटकथा और अन्य कहानियां- छपा था तो पाठकों और आलोचकों ने उसका नोटिस लिया था । कहानी संग्रह के पहले अजय ने कई पत्रिकाओं के विशेषांको का संपादन सहयोग कर अपनी कौशल का प्रदर्शन किया था । अब उनका पहला उपन्यास- उधर के लोग- छपकर आया है । ये उपन्यास 'मैं' शैली में छपा है जिससे ये भ्रम हो सकता है कि ये लेखक की कहानी है, हलांकि इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया गया है । इस उपन्यास के बलर्ब पर लिखा है - 'अजय नावरिया का यह उपन्यास -उधर के लोग- में भारतीय संस्कृति की विशिष्टता, वैयक्तिक सत्ता के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को रेखांकित किया गया है ।' हिंदी में आमतौर पर ब्लर्ब अतिशय प्रशंसात्मक होते हैं और ये भी उससे अछूता नहीं है । पूरे उपन्यास में कहीं भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को रेखांकित करने जैसी कोई बात नहीं है, हां कहीं कहीं उसे छू भर लिया गया है ।
पिछले दिनों कई दलित लेखकों की आत्मकथाएं आई और संस्मरणात्मक उपन्यास भी छपे । पूर्व में छपे आत्मकथाओं और संस्मरणों से जो दलित लेखन का फार्मूला बना या यो कहें कि जो पद्धति विकसित हुई, उसी फार्मूले में अजय नावरिया भी फंस गए हैं । इस उपन्यास के नायक को पहला प्रेम भी वंदना झा (ब्राह्मण लड़की) से होता है और तमाम पारिवारिक विरोधों और सामाजिक मान्यताओं को ताक पर ऱखकर एक ब्राह्मण लड़की एक दलित से शादी भी कर लेती है । लेकिन कुछ ही दिनों बाद संस्करों या यों कहें कि दोनों की जीवन पद्धति का संघर्ष सामने आता है और नायक की मां और वंदना के बीच जमकर लडाई शुरु हो जाती है । वो दोनों अपने मां बाप से अलग रहना शुरु कर देते हैं । एक दिन जब नायक अपनी पत्नी को थप्पड़ मारता है तो वंदना भी पलटकर उसके गाल पर थप्पड जड़ देती है । यहीं से शुरु होता है प्रेम और नंगे यथार्थ में संघर्ष, जिसकी परिणति होती है वंदना की खुदकुशी से । विडंवना ये कि खुदकुशी के लिए लेखक परोक्ष रूप से वंदना को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करते हैं ।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती । नायक की फिर उसकी ही बिरादरी की संगीता से शादी होती है लेकिन मास्टर जी ( नायक) की जिंदगी में एक और औरत है - आएशा, जो हाई प्रोफाइल वेश्या है और तमाम धनपशु और बडे पुलिस अधिकारी उसके क्लाइंट हैं । आएशा मास्टर जी की शराफत पर फिदा है । दरअसल पहली ही मुलाकात में आएशा मास्टर जी को खुला मिमंत्रण देती है, जिसे वो बेहद शराफत से ठुकरा देते हैं । मास्टर जी और आएशा का रिश्ता बेहद पवित्र किस्म का दिखाने की कोशिश की गई है । उन्हें आएशा के साथ हंसना, बोलना, बीयर पीना, कॉफी पर घंटों बतियाना अच्छा लगता है। मन का रिश्ता बनता है लेकिन शरीर का नहीं । लेकिन अंतत एक रात दोनों के बीच 'चुप्पी की मकड़ी जाल बुनती है और वो उस जाल में फंसकर आएशा के साथ एक बिस्तर पर रात गुजार कर सुबह उठते हैं तो तरोताजा होते हैं।" संकेत साफ हैं ।
इस बीच मास्टर जी और उनकी दूसरी पत्नी संगीता के बीच भी नहीं निभती है और पति पत्नी अलग रहने लगते हैं । मास्टर जी के भाई की शादी के मौके जब संगीता घर लौटती है, तो अपने घर में आएशा को देखकर और ये जानकर कि वो उसके पति की दोस्त है स्वाभाविक रूप से नाराज होती है । और नाराजगी प्रकट कर घर छोड़कर चली जाती है । लेकिन कहानी कई मोड़ लेती है और संगीता गर्भवती होती है । कहानी का अंत सुखद है, संगीता और मास्टर जी के एक बेटी पैदा होती है और दोनों फिर जुड़ जाते हैं । मास्टर जी की मां कहती हैं - "औरत मर्द आसानी से अलग हो सकते हैं....मां बाप का अलग होना इतना आसान नहीं होता ।"
अगर हम समग्रता में अजय नावरिया के इस पहले उपन्यास पर विचार करें तो दलित लेखन के खांचे में लिखा गया फार्मूलाबद्ध उपन्यास है । इतना अवश्य है कि इस उपन्यास में लेखक ने अपने अंदर की प्रतिभा के संकेत दिए है । अगर अजय नावरिया अपने पूर्वाग्रहों और फार्मूलाबद्ध दलित लेखन पद्धति से इतर लिखेगें तो बेहतर लिख पाएंगे । इन संभावनाओं के पर्याप्त प्रमाण इस उपन्यास में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। नायक एक ऐसा दलित है जिसके तमाम मित्र उंचे ओहदों पर हैं, उनका समाज, उनकी सोच और उनके द्वंद पर अगर लेखक फोकस करते और दलित लेखन की लीक को छोड़ पाते तो एक नया समाज हमारे सामने होता । अजय का अनुभव संसार व्यापक प्रतीत होता है लेकिन उसे वो सिर्फ छूकर निकल जाते हैं जो उनकी इस कृति को एक साधारण कृति में बदल देता है ।
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समीक्ष्य कृति- उधर के लोग
लेखक- अजय नावरिया
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, 1- बी, नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली- 110002