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Thursday, July 30, 2020

फिल्मों में रामकथा


सचिन भौमिक को क्या पता था कि राज कपूर से उनकी एक मुलाकात उनको सफलता की ऐसी राह दिखा देगा जिसपर चलकर वो हिंदी फिल्मों के सबसे सफल कहानीकार बन जाएंगे। हिंदी फिल्मों के इतिहास में जितनी सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली फिल्में सचिन भौमिक के खाते में हैं उतनी किसी और के नहीं। सलीम-जावेद की जोड़ी को भी नहीं। सचिन भौमिक की सफलता के पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प है। सचिन काम की तलाश में कोलकाता (तब कलकत्ता) से मायानगरी मुंबई (तब बांबे) पहुंचे थे। जब वो मुंबई आए तो उस समय राज कपूर को प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनकी फिल्म ‘बरसात’, ‘सरगम’, ‘आवारा’, ‘बूट पॉलिश’ और ‘श्री 420’ जैसी फिल्में लोकप्रिय हो चुकी थीं। सचिन भौमिक किसी तरह से राज कपूर से मिलना चाहते थे। एक दिन वो आर के स्टूडियो पहुंचे और राज कपूर से मिलने की इच्छा जताई। उस दिन राज कपूर से भेंट नहीं हो सकी लेकिन अगले दिन का समय तय हुआ। नियत समय पर सचिन भौमिक चेंबूर के आर के स्टूडियो पहुंचे। वहां उनको राज कपूर के कमरे में ले जाया गया। सचिन भौमिक से राज कपूर ने हाल-चाल पूछा और फिर आने का प्रयोजन। भौमिक ने बताया कि वो फिल्मों के लिए कहानी लिखना चाहते हैं। राज कपूर की सहमति के बाद सचिन ने कहानी सुनाना आरंभ किया और राज कपूर बहुत धैर्यपूर्वक उनकी कहानियां और बातें सुनते रहे। बातचीत जब खत्म हुई तो राज कपूर ने कहा कि आप हिंदी फिल्मों के लिए कहानियां लिखते हो, अच्छी बात है, लिखते भी रहो लेकिन इतना ध्यान रखना कि हिंदी फिल्मों में कहानी तो एक ही होती है, ‘राम थे, सीता थीं और रावण आ गया।‘ सचिन भौमिक जब राज कपूर से मिलकर निकल रहे थे तो उनके मस्तिष्क में ये बात बार-बार कौंध रही थी। सचिन भौमिक ने एक साक्षात्कार में बताया था कि राज कपूर की ये बात उन्होंने गांठ बांध ली थी और वो कोई भी कहानी लिखते थे तो उनके अवचेतन मन में रामकथा अवश्य चल रही होती थी।

अगर हम हिंदी फिल्मों के सौ साल से अधिक के इतिहास पर नजर डालें तो रामकथा अब तक सौ से अधिक फिल्मों का निर्माण हो चुका है। मूक फिल्मों के दौर में 1917 में दादा साहब फाल्के ने ‘लंका दहन’ के नाम से एक फिल्म बनाई थी। कहना न होगा कि जब लंका दहन के प्रसंग की चर्चा होगी तो राम कथा के अन्य प्रसंग भी इसमें आते चले जाते हैं। इस फिल्म की सफलता के साथ तो कई किवदंतियां भी जुड़ी हुई हैं। मद्रास (अब चेन्नई) में ये फिल्म इतनी हिट रही थी कि इसकी कमाई के पैसों को बैलगाड़ी में भरकर ले जाना पड़ता था। उस दौर में एक और फिल्मकार हुए जिनका नाम था श्री नाथ पाटणकर। इन्होंने 1918 में ‘राम वनवास’ के नाम से एक ऐतिहासिक फिल्म बनाई। इस बात का उल्लेख मिलता है कि पाटणकर की कंपनी फ्रेंड्स एंड कंपनी ने इस फिल्म को करीब पच्चीस हजार फीट के रील में शूटिंग की थी। इसको दर्शकों को धारावाहिक के रूप में दिखाया गया था और दर्शकों के लिए एक विशेष प्रकार का टिकट भी बनाया गया था। जब भी इस फिल्म का प्रदर्शन होता था तब उसके पहले राम की महिमा का बखान करनेवाले विशेष प्रकार के गीत-संगीत का कार्यक्रम होता था। उसी दौर में सीक्वल का भी चलन हिंदी फिल्मों में शुरू हो गया था और पाटणकर ने राम वनवास के सीक्वल के तौर पर ‘सीता स्वंयवर’, ‘सती अंजनि’ और ‘वैदेही जनक’ नाम से फिल्में बनाईं थीं। मूक फिल्मों के दौर में तकरीबन हर वर्ष राम कथा पर केंद्रित फिल्में बनती थीं। ‘अहिल्या उद्धार’, ‘श्री राम जन्म’, ‘लव कुश’, ‘राम रावण युद्ध’, ‘सीता विवाह’, ‘सीता स्वयंवर’ और ‘सीता हरण’ आदि प्रमुख फिल्में हैं।      
जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ तब भी रामकथा फिल्मकारों की पंसद बनी रही। बंगाल के मशहूर फिल्मकार देवकी बोस ने ‘सीता’ के नाम से एक फिल्म बनाई थी जो बेहद लोकप्रिय हुई थी। इस फिल्म में राम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप को स्थापित करने की कोशिश की गई थी। इस फिल्म में सीता की भूमिका मशहूर अभिनेत्री दुर्गा खोटे ने निभाई थी और पृथ्वीराज कपूर ने राम की। ये हमारे देश में बनी पहली ऐसी फिल्म थी जिसको अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया था। इस फिल्म का प्रदर्शन 1934 में वेनिस फिल्म फेस्टिवल में किया गया था। प्रकाश पिक्चर्स ने वाल्मीकि के रामयाण के आधार पर चार फिल्में बनाईं, ‘भरत मिलाप’, ‘रामराज्य’, ‘राम वाण’ और ‘सीता स्वयंवर’। इन चारों फिल्मों में पूरी रामायण को फिल्माया गया। इन चार फिल्मों में राम का किरदार अभिनेता प्रेम अदीब और सीता की भूमिका का शोभना समर्थ ने निभाई थी। इन फिल्मों में प्रेम अदीब और शोभना समर्थ ने बेहद शानदार काम किया था। उस दौर में लोग प्रेम अदीब और शोभना समर्थ की तस्वीरें देखकर उनके सामने सर झुकाकर प्रणाम करते थे। आज की पीढ़ी ने दूरदर्शन पर रामानंद सागर की रामायण की लोकप्रियता देखी। प्रकाश पिक्चर्स की ये चारों फिल्में भी अपने दौर में इसी तरह लोकप्रिय हुई थीं। इनमें से ‘रामराज्य’ को महात्मा गांधी ने देखी।
1967 में प्रकाश पिक्चर्स ने जब ‘रामराज्य’ को नए अंदाज में बनाने तैयारी शुरू की तो इसके निर्देशक विजय भट्ट ने नूतन से सीता के रोल के लिए संपर्क किया था। उनको लगा था कि शोभना समर्थ की बेटी नूतन इस भूमिका के लिए उपयुक्त होंगी। नूतन ने तब ये कहते हुए मना कर दिया था कि उनके अभिनय की तुलना उनके मां के अभिनय से होगी और वो ऐसा नहीं चाहती। नूतन के इंकार के बाद सीता की भूमिका वीणा राय ने निभाई थी। लेकिन ये फिल्म सफल नहीं हो पाई थी। इसके बाद भी नियमित अंतराल पर राम कथा पर फिल्में बनती रहीं हैं जो इस बात को साफ तौर पर इंगित करती हैं कि राम और उनसे जुड़ी कहानियां भारतीय जनमानस को हमेशा आकर्षित करती हैं। इसी आकर्षण को पकड़ने हुए राज कपूर ने सचिन भौमिक को कहा था कि कहानी तो एक ही है राम थे, सीता थीं और रावण आ गया।   

कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर...

पिछले दिनों दो ऐसी खबरें आईं जिसने ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटऑर्म की बढ़ती लोकप्रियता की ओर इशारा किया। पहली खबर तो ये कि पिछले तीन महीनों में डेढ करोड़ ग्राहकों ने नेटफ्लिक्स का एप डाउनलोड किया। ये इतनी बड़ी संख्या है जिसकी कल्पना नेटफ्लिक्स के कैलिफोर्निया में बैठे कर्ताधर्ताओं ने सपने में भी नहीं की होगी। इस संख्या में उनको व्यापक संभावना नजर आ रही है, बहुत बड़ा बाजार नजर आ रहा है और इसके साथ ही मुनाफे का एक ऐसा फॉर्मूला भी उनके हाथ लग गया है जिसमें जोखिम कम है। अगर हम सिर्फ इस डेढ़ करोड़ की संख्या को ही लें और उसको सबसे कम यानि 199 रु प्रतिमाह की सदस्यता शुल्क के आधार पर देखें तो करीब तीन अरब रुपए प्रतिमाह का कारोबार होता है। ये तो सिर्फ इन तीन महीनों में बने नए ग्राहकों के न्यूनतम सदस्यता शुल्क के आधार पर कारोबार का टर्न ओवर है। अब जरा इसी से जुड़ी दूसरी खबर पर विचार कर लेते हैं। एक और प्लेटफॉर्म है जिसका नाम है एमएक्स प्लेयर। इसपर एक वेब सीरीज है जिसका नाम है मस्तराम। एक एजेंसी के आंकड़ों के मुताबिक इस वेब सीरीज को तीन जुलाई को एक दिन में एक करोड़ दस लाख से अधिक दर्शकों ने देखा। इसके मुताबिक इसको अबतक छत्तीस करोड़ से अधिक लोग देख चुके हैं। ये वेब सीरीज तमिल, तेलुगू और हिंदी में उपलब्ध है और ये संख्या इन तीन भाषाओं के दर्शकों को मिलाकर है। निर्माता इस वेब सीरीज को भले ही वयस्क की श्रेणी में डालकर पेश कर रहे हों लेकिन ये है अश्लील। मस्तराम के नाम से कुछ वर्षों पूर्व पीली पन्नी में लपेटकर इरोटिक पुस्तकें बेची जाती थीं लेकिन अब ये खेल खुलकर चल रहा है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर न केवल यौनिकता को खुलकर बढ़ावा दिया जा रहा है बल्कि वहां हमारे देश और देश की संस्थाओं के खिलाफ भी बहुधा अमर्यादित टिप्पणियां की जा रही हैं। 
अगप हम देखें तो वेब सीरीज में गाली गलौच और यौनिकता की शुरुआत को विदेशा कंटेंट से हुई लेकिन कुछ भारतीय निर्माताओं ने इसकी भौंडी नकल करनी शुरू कर दी और वो हिंसा और यौनिकता दिखाने में जुट गए। इसके अलावा उनकी जो राजनैतिक विचारधारा है उसका प्रकचीकरण भी उनके द्वारा निर्मित वेब सीरीज में दिखाई देने लगा। अगर विचार करें तो इस तरह को मामलों ने जोर पकड़ा लस्ट स्टोरीज और सेक्रेड गेम्स के बाद । ‘सेक्रेड गेम्स’ 2006 में प्रकाशित विक्रम चंद्रा के इसी नाम के उपन्यास पर बनाया गया धारावाहिक था, जिसको अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवाणी ने निर्देशित किया है। भारतीय बाजार में सफलता के लिए कुछ तय फॉर्मूला है जिसपर चलने से कामयाबी मिल जाती है। ये फॉर्मूले हैं धर्म, हिंसा, सेक्स और अनसेंसर्ड सामग्री दिखाना। नेटफ्लिक्स ने ‘लस्ट स्टोरीज’ और ‘सेक्रेड गेम्स’ में इन फॉर्मूलों का जमकर इस्तेमाल किया।‘लस्ट स्टोरीज’ में भी सेक्स प्रसंगों को भुनाने की मंशा दिखती है। अनुराग कश्यप अपनी फिल्मों में गाली-गलौच वाली भाषा के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने यही काम इस सीरीज में भी किया है। फिल्म, धारावाहिक या साहित्य तो ‘जीवन’ जैसी कोई चीज है ‘जीवन’ तो नहीं है। अगर हम धारावाहिक या फिल्म में ‘जीवन’ को सीधे-सीधे उठाकर रख देते हैं तो यह उचित नहीं होता है। जीवन को जस का तस कैमरे में कैद करना ना तो फिल्म है ना ही धारावाहिक। जिस भी फिल्म में इस तरह का फोटोग्राफिक यथार्थ दिखता है वो कलात्मक दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं माना जाता है।‘सेक्रेड गेम्स’ में सेक्स प्रसंगों की भरमार है, अप्राकृतिक यौनाचार के भी दृश्य हैं, नायिका को टॉपलेस भी दिखाया गया है। हमारे देश में इंटरनेट पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर पूर्व प्रमाणन जैसी कोई व्यवस्था नहीं है लिहाजा इस तरह के सेक्स प्रसंगों को कहानी में ठूंसने की छूट है जिसका लाभ उठाया गया है।
इन वेब सीरीज के माध्यम से दलितों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों और राष्ट्रवाद की भ्रामक परिभाषाओं के
आधार पर एक अलग तरह का नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के क्रियाकलापों को कट्टरता से जोड़कर एक अलग ही तरह की तस्वीर पेश करने की कोशिशें भी की गई। इसका उदाहरण वेब सीरीज ‘लैला’ में देखा जा सकता है। ये सीरीज लेखक प्रयाग अकबर के उपन्यास पर आधारित है। ये हिंदुओं के धर्म और उनकी संस्कृति की कथित भयावहता को दिखाने के उद्देश्य से बनाई गई है। इस वेब सीरीज का निर्देशन दीपा मेहता ने किया है। भविष्य के भारत को आर्यावर्त बताया गया है। आर्यावर्त के लोगों की पहचान उनके हाथ पर लगे चिप से होगी। यहां दूसरे धर्म के लोगों के लिए जगह नहीं होगी। कुल मिलाकर भविष्य के भारत को हिंदू राष्ट्र की तरह पेश किया गया है। ‘आर्यावर्त’ में अगर कोई हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से शादी कर लेती है तो उसके पति की हत्या कर लड़की को ‘शुद्धिकरण केंद्र’ लाया जाएगा। इस ‘शुद्धिकरण केंद्र’ का भी घिनौना चित्रण किया गया है। धर्म के अलावा इस वेब सीरीज में जातिगत भेदभाव को उभारा गया है ताकि सामाजिक विद्वेष बढ़े। इसमें बेहद शातिर तरीके से हिंदुत्व को बदनाम करने की मंशा दिखती है।
सेक्रेड गेम्स के दूसरे सीजन में निर्माताओं ने एक कदम और बढ़ा दिया। उनको मालूम है कि इस माध्यम पर किसी तरह की कोई बंदिश नहीं है लिहाजा वो सांप्रदायिकता फैलाने से भी नहीं चूके जो परोक्ष रूप से एक राष्ट्र के तौर पर भारत को कमजोर करता है। इसके एक संवाद में जब मुसलमान अभियुक्त से पुलिस पूछताछ के क्रम में कहती है कि उसको यूं ही नहीं उठाकर पूछताछ किया जा रहा है तो अभियुक्त कहता है कि इस देश में मुसलमानों को उठाने के लिए किसी वजह की जरूरत नहीं होती है। अब इस बात पर विचार किया जाना आवश्यक है कि इस सीरीज के निर्माता और निर्देशक इस तरह के संवाद किसी पात्र के माध्यम से सामने रखकर क्या हासिल करना चाहते हैं। इस तरह के कई प्रसंग और संवाद इस सीरीज में है। जो मुसलमानों के मन में देश की व्यवस्था के खिलाफ गुस्से और नफरत के प्रकटीकरण की आड़ में उनको उकसाते हैं। इसी तरह से अभी एक वेब सीरीज आई पाताल लोक, इस सीरीज में भी मुसलमानों को लेकर बेहद ही अगंभीर टिप्पणियां की गईं और परोक्ष रूबप से ये बताने की कोशिश की गई कि भारतीय एजेंसियां मुसलमानों को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित रहती हैं। इस वेब सीरीज में साफ तौर पर पुलिस और सीबीआई दोनों को मुसलमानों के प्रति पूर्वग्रह से ग्रसित दिखाया गया। थाने में मौजूद हिंदू पुलिसवालों के बीच की बातचीत में मुसलमानों को लेकर जिस तरह के विशेषणों का उपयोग किया जाता है उससे ये लगता है कि पुलिस फोर्स सांप्रदायिक है। इसी तरह से जब इस वेब सीरीज में न्यूज चैनल के संपादक की हत्या की साजिश की जांच दिल्ली पुलिस से लेकर सीबीआई को सौंपी जाती है, और जब सीबीआई इस केस को हल करने का दावा करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करती है तो वहां तक उसको मुसलमानों के खिलाफ ही दिखाया गया है। मुसलमान हैं तो आईएसआई से जुड़े होंगे, नाम में एम लगा है तो उसका मतलब मुसलमान ही होगा आदि आदि। संवाद में भी इस तरह के वाक्यों का ही प्रयोग किया गया है ताकि इस नेरेटिव को मजबूती मिल सके। और अंत में ऐसा होता ही है कि सीबीआई मुस्लिम संदिग्ध को पाकिस्तान से और आईएसआई से जोड़कर उसे अपराधी साबित कर देती है। कथा इस तरह से चलती है कि जांच में क्या होना है ये पहले से तय है, बस उसको फ्रेम करके जनता के सामने पेश कर देना है। अगर किसी चरित्र को सांप्रदायिक दिखाया जाता तो कोई आपत्ति नहीं होती, आपत्तिजनक होता है पूरे सिस्टम को सांप्रदायिक दिखाना जो समाज को बांटने के लिए उत्प्रेरक का काम करती है। बात यहीं तक नहीं रुकती है, इस वेब सीरीज में तमाम तरह के क्राइम को हिंदू धर्म के प्रतीकों से जोड़कर दिखाया गया है।
ये सब सिर्फ इन ओटीटी प्लेटफॉर्म पर ही नहीं दिखाय जा रहा है बल्कि फिल्मों में भी परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से इस तरह के प्रसंगों को फिल्माया जाता है। अगर हम एक फिल्म मुक्काबाज की बात करें तो उसमें एक जगह एक संवाद है, वो आएंगें भारत माता की जय बोलेंगे और तुम्हारी हत्या करके चले जाएंगे। अब इस संवाद का फिल्म में जहां उपयोग हुआ है उसकी जरूरत बिल्कुल भी नहीं है लेकिन फिर भी निर्देशक को अरनी विचारधारा को आगे बढ़ाना है और भारत माता की जय बोलनेवाले को नीचा दिखाना है लिहाजा वो उसको ठूंस देते हैं। फिल्मों में चूंकि प्रमाणन की व्यवस्था है इसलिए ये दबे छुपे होता है लेकिन होता है। लेकिन ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कोई बंधन नहीं है किसी तरह का नियमन नहीं है लिहाजा वहां स्वच्छंदता है। कई बार ये तर्क दिया जाता है कि इन प्लेटफॉर्म पर जानेवाले लोग जानते हैं कि वो क्या करने जा रहे हैं. वो इनकी सदस्यता लेते हैं, शुल्क अदा करते हैं और उसके बाद वेब सीरीज देखते हैं। तो किसी को भी क्या सामग्री देखनी है ये चयन करने का अधिकार तो होना ही चाहिए। ठीक बात है, कि हर किसी को अपनी रुचि की सामग्री देखने का अधिकार होना चाहिए लेकिन उन अपरिपक्व दिमाग वाले किशोरों का क्या जिनके हाथ में बड़ी संख्या में स्मार्टफोन भी है, उसमें इंटरनेट कनेक्शन भी है और इतने पैसे तो हैं कि वो इन ‘ओवर द टॉप’ प्लेटफॉर्म की सदस्यता ले सके। क्या हम या इन प्लेटफॉर्म पर सामग्री देनेवाली संस्थाएं ये चाहती हैं कि हमारे देश के किशोर मन को अपरिपक्वता की स्थिति से ही इस तरह से मोड दिया जाए कि आगे चलकर इस तररह की सामग्री को देखनेवाला एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग तैयार हो सके। इसके अलावा जो एक और खतरनाक बात यहां दिखाई देती है वो ये कि इन प्लेटफॉर्म्स पर कई तरह के विदेशी सीरीज भी उपलब्ध हैं जहां पूर्ण नग्नता परोसी जाती है। ऐसी हिंसा दिखाई जाती है जिसमें मानव शरीर को काटकर उसकी अंतड़ियां निकाल कर प्रदर्शित की जाती हैं। जिस कंटेंट को भारतीय सिनेमाघरों में नहीं दिखाया जा सकता है उस तरह के कंटेंट वहां आसानी से उपलब्ध हैं। चूंकि वेब सीरीज के लिए किसी तरह का कोई नियमन नहीं है लिहाजा वहां बहुत स्वतंत्र नग्नता और अपनी राजनीति चमकाने या अपनी राजनीति को पुष्ट करनेवाली विचारधारा को दिखाने का अवसर उपलब्ध है। लेकिन अब वक्त आ गया है कि सरकार इन वेब सीरीज के नियमन के बारे में जल्द से जल्द विचार करे।  

Saturday, July 25, 2020

इतिहास से छल करती पाठ्य पुस्तक

भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध एक स्वायत्त संस्था है,राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद। इसको एनसीईआरटी के नाम से भी जाना जाता है।1961 में इसकी स्थापना केंद्र और राज्य सरकारों को स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए नीति और कार्यक्रम बनाने पर सुझाव देने के लिए की गई थी। इस संस्था का एक महत्वपूर्ण काम स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन का भी है। पुस्तकों के प्रकाशन में इस संस्था ने वामपंथी लेखकों के प्रभाव में जिस तरह की भाषा और जिस तरह की व्याख्या स्कूली छात्रों को अबतक पढ़ाई है वो एक अलग शोध की मांग करता है। नामवर सिंह से लेकर रोमिला थापर तक एनसीईआरटी की पुस्तकों के लिए नीति निर्धारण करते रहे हैं। परिणाम सबके सामने हैं कि छात्रों को क्या पढाया जा रहा है। अभी इस बात की जोरशोर से चर्चा हो रही है कि एनसीईआरटी ने बारहवीं कक्षा की पुस्तक ‘स्वतंत्र भारत में राजनीति’ में अनुच्छेद 370 को समाप्त किए जाने को लेकर महत्वपूर्ण बदलाव कर दिया है। परंतु महत्वपूर्ण बदलाव के नाम पर सिर्फ चंद पंक्तियां जोड़ी गई हैं। इस पुस्तक के पृष्ठ 158 पर यह जोड़ दिया गया है कि 5 अगस्त 2019 को जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 द्वारा अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया गया और राज्य को पुनर्गठित कर दो केंद्र शासित प्रदेश-जम्मू कश्मीर और लद्धाख बना दिए गए। न तो इस ऐतिहासिक कदम की पृष्ठभूमि बताई गई और न ही उन कारणों का उल्लेख किया गया है जिसको लेकर भारत सरकार ने ये फैसला लिया। इन कारणों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में विस्तार से बताया भी था, पर इस ओर एनसीईआरटी का ध्यान नहीं गया। ध्यान तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय में बैठे जिम्मेदार लोगों का भी नहीं गया। 
इस पुस्तक के ‘क्षेत्रीय आकाक्षाएं’ वाले अध्याय में अगर ‘जम्मू एवं कश्मीर’ पर विचार करते हैं तो यहां पहली ही पंक्ति से छात्रों को भ्रामक और गलत जानकारी दी गई है। अब इस पंक्ति पर गौर करिए, ‘आपने जैसा कि गत वर्ष पढ़ा है, जम्मू और कश्मीर को अनुच्छेद 370 के अंतर्गत विशेष दर्जा दिया गया था।‘ गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। यह अर्धसत्य बताकर छात्रों के मन में बचपन से ही गलत जानकारी बिठाई गई है। कहीं भी ये नहीं कहा गया है कि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को अस्थायी व्यवस्था बताया गया है। उसको इस तरह से लिखा गया है जैसे कि वो संविधान के अन्य अनुच्छेदों के समान है। इस अस्थायी व्यवस्था को छिपाकर विशेष दर्जा की बात को उभारा गया है और अंत में इसको खत्म करने की बात की गई है। स्वाभाविक तौर पर छात्रों के मन में प्रश्न उठेगा कि अगर मूल संविधान में किसी राज्य या भौगोलिक क्षेत्र को विशेष दर्जा दिया गया था तो उसको क्यों हटाया गया। यह पता नहीं कितने सालों से पढ़ाया जा रहा है और पीढ़ी दर पीढ़ी भ्रामक जानकारी देकर नए तरह का इतिहास गढ़ा जा रहा है।  
इसी तरह से पृष्ठ 154 पर लिखा गया है ‘जम्मू और कश्मीर की राजनीति बाहरी और आंतरिक कारणों से विवादास्पद और द्वंद्वपूर्ण बनी रही। बाहर से पाकिस्तान ने सदा दावा किया कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। जैसा हमने ऊपर जाना, पाकिस्तान ने 1947 में राज्य में कबायली हमला करवाया जिसके परिणामस्वरूप राज्य का एक हिस्सा पाकिस्तानी नियंत्रण में आ गया।‘ अगले पृष्ठ पर कहा गया कि ‘भारत दावा करता है कि इस पर गैर-कानूनी कब्जा किया गया है। पाकिस्तान इस क्षेत्र को ‘आजाद कश्मीर’ कहता है।‘  अब जरा इन पंक्तियों पर सावधानी और सूक्षम्ता से विचार करिए। ये हमारे देश की उस केंद्रीय संस्था की पाठ्य पुस्तक में है जिसको केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। इस पाठ्य पुस्तक का अनुसरण राज्यों के पाठ्यक्रम में भी होता है। इसमें लिखा गया है कि ‘भारत दावा करता है’। ऐसा प्रतीत होता है कि ये पुस्तक भारत के बाहर किसी देश में पढ़ाई जानेवाली हो या पाकिस्तान के पाठ्य पुस्तक में हो। ये लिखने का उद्देश्य और मंशा दोनों समझ से परे है। ये क्यों लिखा और पढ़ाया जा रहा है कि पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर पर भारत ‘दावा’ करता है? क्या लेखकों को या एनसीईआरटी को ये मालूम नहीं है कि भारत का ‘दावा’ नहीं बल्कि वो भौगोलिक क्षेत्र भारत का अभिन्न अंग है और इस बारे में हमारी संसद ने भी प्रस्ताव पास किया हुआ है। स्पष्ट है कि इस पुस्तक के लेखक वस्तुनिष्ठ होने की आड़ में पाकिस्तान का पक्ष भारतीय छात्रों को पढ़वा रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो ये क्यों लिखा जाता कि पाकिस्तान ने जिस इस क्षेत्र पर कब्जा किया हुआ है उसको ‘आजाद कश्मीर’ कहता है। इसमें इस बात का कहीं भी जिक्र नहीं है कि भारत, पाकिस्तान के कब्जावाले कश्मीर को क्या कहता है। इस बात को छुपा ले जाना भी इस पुस्तक के लेखकों और एनसीआरटी में कार्यरत जिम्मेदार लोगों की पाकिस्तान परस्त मानसिकता को सार्वजनिक करता है। 
एक और बेहद आपत्तिजनक पंक्ति पृष्ठ संख्या 155 पर है जहां उल्लेख किया गया है कि ‘आंतरिक रूप से भारतीय संघ में कश्मीर के दर्जे के बारे में विवाद है।‘  अनुच्छेद 370 के समाप्त होने के बाद भारतीय संघ में कश्मीर के दर्जे को लेकर क्या विवाद है इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अध्याय में जम्मू और कश्मीर के बारे में जो अनुच्छेद 370 के खत्म होने के पहले लिखा गया था उसको जस का तस रहने दिया गया और अध्याय के अंत में अनुच्छेद खत्म करने की बात जोड़ दी गई। यह घोर लापरवाही का एक नमूना भर है। इस पंक्ति के तीन चार पंक्तियों के बाद एक और ऐसी बात लिखी गई ‘जम्मू और कश्मीर के बाहर लोगों का एक वर्ग है कि जो विश्वास करता था कि अनुच्छेद 370 द्वारा प्रदत्त राज्य का विशेष दर्जा राज्य को भारत से पूर्ण रूप से एकीकृत नहीं होने देता है।‘  जम्मू और कश्मीर से बाहर के लोगों का एक वर्ग ऐसा सोचता है ये कहने का क्या आधार है। ऐसा प्रतीत होता है कि पूरे राष्ट्र की भावना को या उनकी सोच को एक वर्ग की भावना बताकर छात्रों के मन में शक का बीज बोने का काम बहुत सोच समझकर किया जा रहा है। जबकि अस्थायी अनुच्छेद 370 को खत्म हुए साल भर होने को आए। 
इसके अलावा की कई बातें हैं जो इस पुस्तक में इस तरह से कही गई हैं जिससे एक अलग तरह की तस्वीर बनती है। शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉंफ्रेस को धर्मनिरपेक्ष बताया गया पर इस बात का उल्लेख नहीं किया गया कि पहले उसका नाम मुस्लिम कॉंफ्रेस क्यों था? शेख अब्दुल्ला को भारत सरकार ने चौदह साल तक कारावास में क्यों रखा? नेशनल कॉंफ्रेस और कांग्रेस के गठबंधन को भी इसमें गलत बताया गया है। सवाल ये उठता है कि एनसीईआरटी को ऐसी अराजक स्वायत्ता मानव संसाधन मंत्रालय क्यो दे रहा है? क्यों देश विरोधी बातें छात्रों को पढ़ाई जा रही हैं और मंत्रालय और एनसीईआरटी के जिम्मेदार अधिकारी आंखें मूंदे बैठे हैं? क्यों गलत बातों का उल्लेख करके वस्तुस्थिति को छिपाया जा रहा है। क्यों इस तरह की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है जो छात्रों के मानस पर अपने ही राष्ट्र की गलत छवि बनाती है? समय आ गया है कि इस पाकिस्तान परस्त और राष्ट्र विरोधी व्याख्या को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं। 

Saturday, July 18, 2020

विकलांग मानसिकता से उपजा हास्य

हरिशंकर परसाईं का एक बेहद मशहूर व्यंग्य है, राजनीतिक पुंगी। उसमें वो लिखते हैं, ‘आदमी और पुंगी में क्या फर्क है? आदमी खुद बोलता है और पुंगी बजायी जाती है। पुंगी में सिर्फ खाली पोल होती है, उसमें स्वर नहीं होता। पुंगी का स्वर उसी आदमी का स्वर होता है, जिसके हाथ में वो है और जो उसको फूंक रहा है। पिछले कुछ सालों में इस देश के स्टैंडअप कॉमेडियनों ने यह सिद्ध कर दिया कि वो स्टैंडअप कॉमेडियन नहीं हैं, मेले में मिलनेवाली दो टके की पुंगी हैं।‘ हमने नेता की जगह स्टैंडअप कॉमेडियन कर दिया है। हरिशंकर परसाईं की याद इस वजह से आई कि पिछले दिनों हास्य के नाम पर सार्वजनिक मंचों पर बजनेवाली ये पुंगियां अज्ञान की वजह से बेसुरी हो गई हैं। इन सबसे निकलनेवाले स्वर समाज के बहुसंख्यक समुदाय को आहत भी करने लगा हैं और उनके अंदर गुस्से का बीज भी बोने लगे हैं। हास्य की ये पुंगियां जब बजती हैं तो संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेने की कोशिश करती हैं, लेकिन जब पुंगी सड़ने लगती है तो उससे स्वर की सुंदरता की अपेक्षा करना और उसके स्वर के अनुशासन के दायरे में रहने की कल्पना करना व्यर्थ है। लिहाजा हास्य की ये पुंगियां बहुधा संविधान के तहत मिली अभिव्यक्ति की आजादी का अतिक्रमण करती हैं और बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत कर देती हैं। ये पुंगियां अपने संवैधानिक अधिकारों को तो याद रखती हैं लेकिन लोकप्रियता हासिल करने के चक्कर में शायद ये भूल जाती हैं कि जो संविधान उनको अभिव्यक्ति की आजादी देता है वही संविधान अन्य नागरिकों को भी अन्य कई तरह के अधिकार देता है। जिसमें उनकी भावनाएं आहत न हों इसका भी ख्याल रखा गया है।
अब जरा इस बात पर विचार कर लें कि हास्य के इन पुंगियों यानि स्टैंडअप कॉमेडियंस किस तरह से हिंदू धर्म, हिंदू परंपरा, हिंदू भगवान, हिंदू अनुष्ठान, हिंदू रीति-रिवाज और हिंदू धार्मिक संस्कारों का उपहास करते हैं। कभी गणेश जी की सूंढ़ को लेकर प्लास्टिक सर्जरी के सौंदर्य की बातें करते-करते मर्यादा की सभी सीमा लांघ जाते हैं। उन्हें यह याद नहीं रहता कि गणेश जी को हिंदू, भगवान के तौर पर पूजते हैं और उनका मजाक उड़ाना कुछ लोगों की भावनाओं को बुरी तरह आहत कर सकता है। स्टेज पर खडे होकर फूहड़ बातें करके जनता को हंसाने की कोशिश करनेवाले इन स्टैंडअप कॉमेडियंस को इसकी परवाह कहां। अभी पिछले दिनों एक वीडियो सुन रहा था जिसमें एक स्टैंडअप कॉमेडियन कहता है कि वो इस वजह से नास्तिक बन गया क्योंकि अगर वो नास्तिक नहीं बनता तो उसको ब्राह्मण कहलाना पड़ता। फिर अपनी मुद्राओं से लोगों को हंसाने की कोशिश करता है और बोलने के क्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आईएसआईएस को एक ही कोष्ठक में रखते हुए आगे निकल जाता है। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहां हिंदू प्रतीकों और देवताओं का मजाक उड़ाते नजर आते हैं। 
स्टैंडअप कॉमेडियंस की जो फौज इन दिनों यूट्यूब पर है उसमें से ज्यादातर ये मानते हैं कि विवादित बातें करके ही लोगों को अपनी ओर आकृष्ट किया जा सकता है। विवादप्रियता की वजह से ये लोग हिंदू देवी-देवताओं के बारे में उलजलूल बोलते हैं। उनको ये बात भी अच्छी तरह से मालूम है कि हिंदू समाज सहिष्णु है और वो बहुत जल्दी इस तरह की किसी बात पर उत्तेजित नहीं होता है। ये सब इसी सहिष्णुता का फायदा उठाकर हिंदू देवी-देवताओं के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी तक कर जाते हैं। एक कॉमेडियन तो भगवान शिव के बारे में इतनी आपत्तिजनक बातें कह गया है कि उसको लिखा भी नहीं जा सकता है। लेकिन जब हिंदू के अलावा किसी और धर्म की बात आती है तो इनकी जुबान तालू से चिपक जाती है। आपको याद होगा कि कुछ साल पहले एआईबी ने क्रिश्चियन समुदाय से बिना शर्त माफी मांगी थी। एक कार्यक्रम में इन लोगों ने कथित तौर पर जीजस और चर्च के खिलाफ कुछ टिप्पणी कर दी थी। उनकी टिप्पणी के सार्वजनिक होने के बाद एआईबी के खिलाफ कुछ क्रिश्चियन संगठनों के बयान आए थे। फौरन बाद एआईबी ने मुंबई के बिशप से मिलकर बिना शर्त लिखित माफी मांगी थी। माफी मांगनेवालों में जो लोग शामिल थे उनमें तन्मय भट्ट, गुरसिमरन, आशीष शाक्य और रोहन जैसे स्टैंडअप कॉमेडियन शामिल थे। बिशप ने इनका माफीनामा सार्वजनिक कर दिया था। इस्लाम को लेकर तो खैर कोई टिप्पणी आती ही नहीं। एंकर अर्णब गोस्वामी से विमान में सवाल पूछने का वीडियो जारी कर प्रचार हासिल करनेवाले कुणाल कामरा के बारे में मुझे किसी ने बताया कि उन्होंने कुछ समय पहले अपने ट्वीटर हैंडल से इस्लाम के बारे में की गई सारी टिप्पणियां हटा दी थीं। ये वही कुणाल कामरा है जो हिंदू धर्म और प्रतीकों के बारे में टिप्पणी करके खुद को परमवीर समझते हैं।    
स्टैंडअप कॉमेडियंस इतने पर ही नहीं रुकते, ये तो इतने संवेदनहीन हैं कि बलात्कार पीड़िता से लेकर एसिड अटैक पीड़िताओं तक का मजाक उड़ाने से बाज नहीं आते। हैरत इस बात पर होती है कि हमारे समाज में वो कौन लोग हैं जो इतने संवेदनशून्य हो चुके हैं कि इन पीड़िताओं के सार्वजनिक मजाक में भी उनको हास्य नजर आता है। पिछले दिनों सौरभ घोष नाम के कॉमेडियन ने छत्रपति शिवाजी का मजाक उड़ाया था, एक महिला कॉमेडियन ने भी। शिवाजी महाराज का मजाक उड़ाने का जब विरोध हुआ तो उस महिला ने एक वीडियो जारी करके माफी मांगी। इसका एक और पहलू भी है जहां से इस तरह की संवेदनहीन और आपत्तिजनक बातें करनेवालों को ताकत मिलती है। हिंदू देवी-देवताओं या प्रतीकों का जब मजाक उड़ाया जाता है और उसका विरोध होता है तो कथित तौर पर खुद को लिबरल कहनेवाली पूरी जमात उनके समर्थन में खड़ी हो जाती है। विरोध करनेवालों को संघी और भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल से जुड़ा बताकर मामले को राजनीतिक रंग देने की कोशिश होती है। सोशल मीडिया पर तो इस विरोध को मोदी से जोड़ दिया जाता है और विरोध करनेवालों को भक्त आदि कहकर इस तरह से प्रचारित करने की कोशिश होती है कि हिंदूवादी कितने असहिष्णु हैं। सोशल मीडिया पर ये कथित लिबरल्स एक और खेल खेलते हैं। वो किसी एक ऐसे व्यक्ति को खोजते हैं जिसकी टिप्पणी स्तरहीन होती है और फिर उसको मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़कर शोर मचाने लगते हैं कि देखो सारे हिंदू ऐसे ही हैं। सवाल इन लिबरल्स का नहीं है, सवाल तो उन स्टैंडअप कॉमेडियंस का है जो हिंदू धर्म और उसके प्रतीकों का मजाक उड़ाते हुए एक बड़ी जनसंख्या की आस्था को अपमानित करते हैं। हुसैन के केस में दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि ‘शब्द, पेंटिंग, रेखाचित्र और भाषण के माध्यम से अभिव्यक्ति की आजादी को संविधान में जो अधिकार मिला है वो हर नागरिक के लिए अमूल्य है। कोई भी कलाकार या पेंटर मानवीय संवेदना और मनोभाव को कई तरीकों से अभिव्यक्त कर सकता है। इन मनोभावों और आइडियाज की अभिव्यक्ति को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है । लेकिन कोई भी इस बात को विस्मृत नहीं कर सकता कि जितनी ज्यादा स्वतंत्रता होगी उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी भी होती है।‘ स्टेज पर बजनेवाले पुंगियों के समर्थक लिबरल्स को ये बात कब समझ में आएगी पता नहीं, लेकिन जिस रफ्तार से इंटरनेट पर इस तरह के वीडियो अपलोड हो रहे हैं वो चिंता की बात है। देश को और सरकार को इसपर विचार करना ही चाहिए। 

Saturday, July 11, 2020

पत्र और पुस्तक से चुनावी दांव


नवंबर में अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव होना है। वहां चुनाव की सरगर्मियां बहुत तेज हो रही हैं। कोरोना के भयावह संकट से जूझ रहे देश में भी राजनीति के दांव-पेंच तो अपनी गति से चल ही रहे हैं लेकिन राजनीति से इतर वो गतिविधियां तेज हो गई हैं जो राजनीति को प्रभावित करती हैं। राष्ट्रपति के चुनाव के पहले उम्मीदवारों के बारे में पुस्तकें प्रकाशित होने का चलन रहा है। कभी किसी के पक्ष में तो कभी किसी को ध्वस्त करने की मंशा से पुस्तकें लिखी जाती रही हैं। चुनाव के मौसम में इस तरह की पुस्तकें बिकती भी हैं। पुस्तकों की बिक्री से प्रकाशक भी उत्साहित होते हैं और वो भी चुनाव के वक्त ऐसे लेखकों की तलाश में रहते हैं जो राष्ट्रपति के उम्मीदवार के करीब हों और उनके बारे में कुछ विस्फोटक लिख सकें। इसके अलावा पिछले दो तीन दशकों से वहां के चुनाव में लेखकों की आड़ में भी राजनीति शुरू हुई है। अमेरिका में डेमोक्रैट और रिपब्लिकन के समर्थक लेखक अपने-अपने उम्मीदवारों के समर्थन में प्रत्यक्ष या परोक्ष अपील भी जारी करते रहे हैं। अब जब इसी वर्ष नवंबर में अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव होना है तो वहां पुस्तकें भी छपने लगी हैं और अपील भी जारी होने लगे हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का राष्ट्रपति बने लगभग चार साल होने को आए लेकिन इसके पहले वहां के बुद्धिजीवियों को ये याद नहीं आया था कि पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगाई जा रही है या स्वतंत्र राय व्यक्त करने पर सत्ता द्वारा परेशान किया जाने लगा है।

कुछ दिनों पहले अमेरिका और वहां की संस्थाओं से संबद्ध डेढ सौ बुद्धिजीवियों, स्तंभकारों, नाटककारों, लेखकों ने एक पत्र जारी किया। उन्होंने पूरी दुनिया में स्वतंत्र राय रखनेवालों को हो रही मुश्किलों पर चिंता जताते हुए उदारवादी शक्तियों पर अनुदारवादी ताकतों के प्रबल होते जाने के खतरे को रेखांकित किया है। इस पत्र पर हस्ताक्षऱ करनेवालों में हैरी पॉटर सीरीज की लेखिका जे के रॉलिंग से लेकर बुकर पुरस्कार प्राप्त उपन्यासकार, कहानीकार और कवयित्री के रूप में पूरी दुनिया के साहित्य जगत में समादृत मार्गेट अटवुड, वामपंथियों के ‘परम श्रद्धेय’ विचारक नोम चोमस्की, विवादास्पद लेखक सलमान रशदी के अलावा भी कई नामचीन हस्तियां शामिल हैं। इन सबलोगों की चिंता ये है कि पूरी दुनिया में स्वतंत्र विचारों का विनिमय बाधित किया जा रहा है ।ये मानते हैं कि स्वतंत्र विचारों का विनिमय उदारवादी समाज की प्राणवायु है और इसपर प्रतिबंध लगाने की परोक्ष कोशिशों से अनुदारवादी समाज की तरफ बढ़ रहे हैं। इस पत्र में असहिष्णुता का मुद्दा भी उठाया गया है और अमेरिकी समाज में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर भी चिंता व्यक्त की गई है। इस अपील के बाद अमेरिका में सोशल मीडिया पर इसको लेकर घमासान छिड़ गया। कुछ लोगों ने अमेरिका में ‘स्थगित संस्कृति’ का जुमला उछाला। हलांकि इस पत्र पर हस्ताक्षर करनेवाले चंद लोगों ने इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। जेनिफर बॉयलेन ने तो ट्वीट करके कहा कि वो नहीं जानती कि उनके अलावा और किसने इसपर हस्ताक्षर का है, वो तो ये समझ रही थीं कि ये अपील इंटरनेट पर होनेवाले दुर्व्यवहार के विरोध में है। इतिहासकार केरी ग्रीनिज तो इससे भी एक कदम आगे चली गईं और साफ किया कि वो हार्पर पत्रिका में छपे पत्र से सहमत नहीं हैं। केरी ग्रनिज के इस विरोध के बाद हार्पर ने उनका नाम इस पत्र से हटा भी दिया। दरअसल ये वामपंथी रुझानवाले लेखकों और बुद्धिजीवियों की अपनी विचारधारा वाले राजनीति दल को समर्थन करने का एक औजार मात्र है। इसमें वो समाज में अपनी साख का उपयोग अपनी विचारधारा को मजबूत करने और उस विचारधारा के आधार पर चलनेवाले राजनीतिक दलों को फायदा पहुंचाने के लिए करते हैं। हमारे देश ने भी चुनाव के समय बुद्धिजीवियों, नाटककारों, फिल्मकारों के कई ऐसे पत्र या अपील देखे हैं।
अमेरिका में जो पत्र जारी किया है उसमें वैश्विक स्तर पर अनुदारवादी विचार के मजबूत होने को लेकर चिंता जताई गई है। लेकिन नोम चोमस्की जैसे लोग भी ये भूल जाते हैं कि रूस के राष्ट्रपति पुतीन ने अब से कुछ दिनों पहले ही ही कहा था कि ‘उदारवादी विचार को जनता ने नकारना शुरू कर दिया है। अब वो दौर आ गया है कि उदारवादी किसी को भी किसी भी समय इस अवधारणा की आड़ में कुछ भी करने को मजबूर नहीं कर सकते हैं। पिछले कई दशकों के दौरान उदारवाद के नाम पर लोगों को तरह तरह के आदेश देकर सत्ता से अपने हिसाब से काम करवाया। उदारवाद के नाम पर अराजकता की इजाजत कतई नहीं दी जा सकती है। पुतीन का मानना है कि उदारवाद का सिद्धांत किसी भी देश के बहुमत के अधिकारों के खिलाफ जाता है, लिहाजा अब वो अर्थहीन हो चुका है।‘   पुतीन ने तब उदारवादी व्यवस्था की कमियों को लेकर बेहद आक्रामक तरीके से अपनी बातें रखी थीं। इस आलोक में अगर इन बुद्धिजीवियों की चिंता को देखें तो वो महज एक चुनावी दांव ही नजर आता है। 
अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के पहले पुस्तकों का प्रकाशन भी शुरू हो गया है। चंद दिनों पहले ही राष्ट्रपति ट्रंप की भांजी मैरी एल ट्रंप की एक पुस्तक आई है, ‘टू मच एंड नेवर एनफ, हाउ माई फैमिली क्रिएटेड द वर्ल्ड्स मोस्टडेंजरस मैन’ जिसमें ट्रंप के कई राज खोलने का दावा किया गया है। मैरी ट्रंप ने अपनी इस पुस्तक में अपने पारिवारिक झगड़ों और रिश्तों के बनने-बिगड़ने की कथा लिखी है। किताब खूब बिक भी रही है। इसके विवादास्पद अंश भी अमेरिका समेत पूरी दुनिया के अखबारों में छप रहे हैं। जैसा की पुस्तक के नाम से ही जाहिर है कि लेखिका ने किताब में क्या लिखा होगा। इस पुस्तक के विवादास्पद अंशों को लेकर अमेरिका में राजनीतिक बयानबाजी भी हो रही है। अमेरिका के चुनावी इतिहास को देखते हुए इस बात की संभावना है कि इस तरह की कई किताबें नवंबर के पहले प्रकाशित होंगी।
जब से हमारे देश में चुनाव लड़वाने वालों की पूछ बढ़ी है, जो आंकड़ों के अलावा चुनावी माहौल बनाने का वैज्ञानिक तंत्र खड़ा करने का दावा करते हैं, तब से यहां भी चुनाव के पहले पुस्तकों का प्रकाशन या बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों या नाटककारों से अपील करवाने का चलन बढ़ा है। मतलब कि अमेरिका की तर्ज पर उन चुनावी औजारों का यहां भी उपयोग होने लगा है। हमारे देश में भी चुनावों के पहले असहिष्णुता का मुद्दा एक बार अवश्य उठता है। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले तो चुनाव को ध्यान में रखकर किताबें भी लिखी भी गईं और प्रकाशित भी हुईं। चुनाव के पहले ‘व्हाई आई एम अ हिंदू” से लेकर ‘व्हाई आई एम अ लिबरल’ जैसी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। उदारवादियों ने 2014 के बाद नरेन्द्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि सरकार अनुदारवादी है। दो हजार चौदह से लेकर दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव तक ये भी कहा जाता रहा कि सरकार में अनुवादरवादी शक्तियां प्रबल हैं। केंद्र सरकार पर तानाशाही से लेकर फासिज्म तक के आरोप जड़े जाते रहे। लेकिन चुनाव लड़वाने वाले और जितवाने वाले चाहे जितना दावा करें लेकिन जनता के मानस को समझने की जो दृष्टि जमीन से जुड़े नेताओं में होती है वो इन चुनावी मैनेजरों के पास नहीं होती। इसलिए न तो अमेरिका के चुनाव में अपील और किताबों के प्रकाशन का बहुत असर दिखता है और न ही भारत दो आम चुनाव में दिखा।

Friday, July 10, 2020

प्रचार के लिए कुछ भी...


ऐसा बहुत कम होता है कि किसी अन्य भाषा की फिल्म को लेकर दूसरी भाषा के लोग उद्वेलित हों। इन दिनों तेलुगू में बनी एक फिल्म को लेकर हिंदी भाषा के दर्शकों का एक बड़ा वर्ग क्षुब्ध नजर आ रहा है। दरअसल तेलुगू में एक फिल्म आई है जिसका नाम है कृष्णा एंड हिज लीलाऔर ये फिल्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई। इस फिल्म के रिलीज होने के बाद इसके नाम को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। ट्विटर पर लोगों का गुस्सा जमकर निकल रहा है और वो नेटफ्लिक्स पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहे हैं। दरअसल अंग्रेजी सबटाइटल के साथ रिलीज हुई इस फिल्म में नायक का नाम कृष्णा है और उसकी एक गर्लफ्रेंड का नाम राधा और एक का सत्या है। रुक्मिणी से प्रेरित होकर एक पात्र का नाम रुखसार रख दिया गया है। इस फिल्म के आरंभ और अंत में ये बताया जाता है कि ये सत्य अफवाह पर आधारित है। दरअसल इसमें कहीं भी कृष्ण की कहानी नहीं है बस नाम रखकर विवादित करने की कोशिश दिखाई देती है। ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाने वाले कंटेंट की तुलना में ये फिल्म साफ सुथरी है। लेकिन नाम से विवादित करके दर्शकों को अपनी ओर खींचने का प्रयास है।
पौराणिक नामों को रखकर विवाद खड़ा करके प्रचार हासिल करने की कोशिशें पहले भी की जाती रही हैं पर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के होने से स्थिति अराजक नहीं हो पाती थीं। 2017 में गोवा में आयोजित अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के इंडियन पैनोरमा में एस दुर्गा फिल्म को अनुमति नहीं देने पर विवाद हुआ था। मामला कोर्ट कचहरी तक गया था। इस फिल्म का नाम पहले कुछ और था लेकिन बाद में इसको एस दुर्गा किया गया था। इस बीच कई जगह इस फिल्म के पोस्टर पर थ्री एक्स दुर्गा भी लिखा गया था। भारतीय समाज में बेहद समादृत पौराणिक चरित्रों और देवी देवताओं के नाम के साथ इस तरह के शब्दों को जोड़कर विवाद खड़ा करने की कोशिशें वाटर फिल्म में दीपा मेहता ने भी की थी। इसी तरह से कुछ समय पहले नेटफ्लिक्स पर लैला नाम की एक वेब सीरीज में इस तरह का प्रयास किया गया था। ओटीटी को लेकर कोई नियमन ने होने की वजह से जो फिल्में यहां रिलीज होती हैं वो मनमानी कर सकती हैं। अगर नियमन होता को कृष्णा एंड हिज लीला जैसे नामों पर प्रमाणन के पहले विचार तो होता ही।

Sunday, July 5, 2020

‘सरस्वती’ और श्यामा प्रसाद मुखर्जी

हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘सरस्वती’ पत्रिका का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इस पत्रिका का प्रकाशन सन 1900 से आरंभ हुआ तो बाबू श्यामसुंदर दास ने इसका जिम्मा संभाला था। तीन साल बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इसके संपादक बनाए गए थे जो 1920 तक रहे। इनके बाद पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और पंडित देवीदत्त शुक्ल जैसे विद्वानों ने इस पत्रिका को संभाला था। ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से इसके संपादकों ने हिंदी को बहुत समृद्ध किया। इस पूरे दौर मे ‘सरस्वती’ पत्रिका में उत्कृष्ट साहित्य तो छपता ही था उस दौर की प्रमुख हस्तियों पर भी लेख आदि छपा करते थे। संपादकों की दृष्टि इतनी सजग होती थी कि कोई भी महत्वपूर्ण साहित्यिक घटना या साहित्यप्रेमी से संबंधित किसी प्रसंग को विषय विशेष के विद्वान से लिखवाते थे। इस बात की चर्चा इस वजह से प्रांसंगिक है कि आज भारत माता के सपूत श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब देश की एकता और अखंडता के लिए 23 जून को अपना बलिदान दिया था तो ‘सरस्वती’ पत्रिका में देश, समाज और साहित्य के प्रति उनके योगदान को रेखांकित करते हुए चार पन्ने का बड़ा लेख प्रकाशित हुआ था। ये लेख लिखा था उस वक्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के आचार्य शिवाधार पांडेय ने और उस वक्त पत्रिका के संपादक थे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और देवीदयाल चतुर्वेदी।
इस लेख की शुरुआत शिवाधार जी ने कुछ इस प्रकार की थी, ‘कलिकाल में भी इस भारत भूमि में नररत्न अवतार लेते हैं, कर्मभूमि में आकर अपने कर्म सुधारते हैं, परलोक संवारते हैं और संसार उद्धारते हैं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे ही अवतारी पुरुष थे।‘ सरस्वती पत्रिका में इस लेख का शीर्षक ‘नरकेसरी श्यामा प्रसाद मुखर्जी’ दिया गया था। अपने लेख में आचार्य शिवाधार पांडेय ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के संस्मरण तो लिखे ही थे, उनकी लोकप्रियता को भी पाठकों के सामने प्रस्तुत किया था। देश को ये जानना चाहिए कि इस देश में ऐसे भी नेता हुए जिनके दौरे की जानकारी देने का समय नहीं होता था तो सड़क पर चूना से सिर्फ उनका नाम और स्थान लिख दिया जाता था और फिर सभा में ऐसी भीड़ उमड़ती थी कि सभास्थल पर तिल रखने की जगह नहीं होती थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ ऐसा ही हुआ था 1953 में मुंबई में एक जनसभा में। ये पूरा प्रसंग विस्तार से लिखा गया है।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब अंग्रेजी में स्नातक किया तो उनके पिता आशुतोष मुखर्जी ने उनसे आग्रह किया कि उनको बांग्ला में एमए करना चाहिए क्योंकि इससे भारतीय भाषाओं को मजबूती मिलेगी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के दिल में ये बात बैठ गई, उन्होंने बांग्ला में एमए किया। इसके बाद जब वो कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने तो दीक्षांत समारोह में रवीन्द्रनाथ टैगोर को आमंत्रित किया। जब टैगोर ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उनसे अनुरोध किया कि वो अपना भाषणा बांग्ला में दें। टैगोर ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय में पहली बार किसी ने बांग्ला में भाषण दिया। ये अपनी भाषा के प्रति श्यामा प्रसाद मुखर्जी का प्रेम था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को हिंदी से भी बहुत लगाव था। जनसंघ का पहला अधिवेशन कानपुर के फूलबाग में दिसंबर 1952 में हुआ था और डॉ मुखर्जी तीन दिन तक वहां उपस्थित रहे थे, इसको भी शिवाधार पांडेय जी ने दिलचस्प तरीके से ‘सरस्वती’ के लेख में रेखांकित किया है। 

Saturday, July 4, 2020

वामपंथियों की दिनकर से चिढ़ पुरानी


चीन से जारी तनातनी के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लेह की यात्रा की और वहां सेना के जवानों को संबोधित करते हुए दिनकर की कविता की पंक्तियों को भी उद्धृत किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजनीति में अपने गैरपारंपरिक तौर तरीकों से चौंकाते रहे हैं। अब कूटनीति के एक नए आयाम में भी उन्होंने कविता के मार्फत संदेश देकर चौंकाना शुरू किया है। मोदी की साहित्य में रुचि रही है, गुजराती में छपी उनकी कविताओं को देखकर ये समझा जा सकता है। किताबों से उनको प्रेम है। किसी का स्वागत करने के लिए फूल की जगह किताब की पैरोकारी कर प्रधानमंत्री ने पुस्तकप्रेमियों को दिल जीत लिया था। इसी तरह से कुछ साल पहले एक पुरस्कार समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि हर घर मे पूजाघर की तरह एक पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए। उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि घर बनाते समय आर्किटेक्ट से नक्शे में पुस्तकालय के प्रावधान के लिए अनुरोध किया जाना चाहिए। इसके अलावा जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं बने थे और संगठन का काम संभालते थे तो उस वक्त वो खूब पत्र लिखा करते थे। उन पत्रों को देखने से भी इस बात का पता चलता है कि मोदी में एक गहरी साहित्यिक अभिरुचि है। यह अकारण नहीं है कि वो समय-समय पर अपनी रैलियों में कविताओं का उपयोग करते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी उन्होंने ‘ये देश नहीं मिटने दूंगा’ जैसी ओजपूर्ण कविता के माध्यम से देश को संदेश दिया था। कविता के माध्यम से जनता से जुड़ने और उनके दिलतक अपनी बात पहुंचाने का उनका अपना एक अलग ही अंदाज है।

प्रधानमंत्री मोदी का दिनकर की कविताओं को उद्धृत करना कई लोगों को खल गया। कुछ लोग दिनकर की उन पंक्तियों को उद्धृत करने लगे जिनमें उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की प्रशंसा की थी। कई वामपंथी विचारधारा की तरफ झुकाव रखनेवाले लेखकों ने तो दिनकर को दक्षिणपंथी करार दे दिया। अपने कहे के समर्थन में वो प्रसंग उठा लाए जब दिनकर ने पांचजन्य पत्रिका के लिए छात्रों से बातचीत की थी। यहां सवाल दिनकर की रचनाओं को समझने का है। हिंदी में दिनकर अकेले ऐसे कवि हैं जो अपनी रचनाओं में खुद को अपने समय का सूर्य घोषित करते हैं – ‘मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूं मैं।‘ तो सूर्य का ताप उनकी कविताओं में भी दिखाई देता है। वामपंथियों ने लंबे समय तक दिनकर को हाशिए पर डालने की कोशिश की, उनके खिलाफ लिखा गया, उनकी उपेक्षा की गई। दिनकर को उनके जीवनकाल में ही साहित्य की परिधि पर धकेलने का प्रयास विदेशी विचारधारा के प्रभाव में काम कर रहे आलोचकों और लेखकों ने संगठित रूप से किया। उऩकी मृत्यु के बाद भी उनकी रचनाओँ का मूल्यांकन ना हो पाए, इस बात की कोशिश की गई। लेकिन दिनकर की रचनाओं में इतना दम है कि उसको दबाया नहीं जा सका।

वामपंथियों की दिनकर से चिढ़ पुरानी है। 1962 में चीन से पराजय के बाद जब दिनकर ने परशुराम की प्रतीक्षा लिखा को उनके खिलाफ इस विचारधारा के लोगों ने काफी दुष्प्रचार किया था। दिनकर ने लिखा भी है कि ‘‘परशुराम की प्रतीक्षा’ से तीन प्रकार के लोग नाराज हुए। एक तो वे, जो गांधीवाद का अर्थ यह समझते हैं कि कि दुश्मन जब धावा करे, तब उसे रोकने के लिए निहत्थे आदमियों को सरहद पर लेट जाना चाहिए। दूसरे वे लोग, जो यह समझते थे कि चूंकि चीन कम्युनिस्ट है, उसलिए उसके विरुद्ध उत्पन्न क्रोध की लपट प्रगतिशील भावनाओं को भी आंच पहुंचा सकती है। और तीसरे वे लोग, जो समझती थे कि सरकार अकर्मण्य रहना चाहती है, अतएव इस कविता के विरोध से सरकार के नेता खुश हो जाएंगें।‘  दिनकर को इस बात का भान था कि कम्युनिस्ट उनकी इस रचना के खिलाफ हैं और वो चीन को ललकारने की भावना को बढ़ाना नहीं देना चाहते हैं। इस वजह से भी उन्होंने दिनकर की इस कृति का नोटिस नहीं लिया। तब दिनकर ने लिखा था कि उनकी नजर में समाचारपत्रों के वे संपादक साहसी थे जिन्होंने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की समीक्षाएं प्रकाशित की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि दिनकर उन दिनों कम्युनिस्टों से इस बात को लेकर झुब्ध थे कि वो चीनी आक्रमण के बाद भी चीन की निंदा नहीं कर रहे थे। दिनकर ने लिखा, ‘कम्युनिस्टों ने खुली आलोचनाएं तो बहुत कम लिखीं, किन्तु कानाफूसी के जरिए उन्होंने अपनी नाराजगी का समाचार सरहद के पार तक पहुंचा दिया था। इसलिए मुझे आश्चर्य हुआ कि पिछले 8 अक्तूबर 1964 ई. को साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित अपने स्वागत समारोह में श्री चेलीशेव ने यह कहा कि ‘चीनी आक्रमण के समय आपलोगों ने क्या लिखा, यह रूस में हम नहीं जान सके। हमने तो केवल ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ को पढ़ा और उसी काव्य की चर्चा हमारे देश में फैली है। आश्चर्य, संभव है, कुछ साम्यवादी पंडितों को भी हुआ हो।‘ तो यह कहा जा सकता है कि दिनकर ने अपनी रचनाओं में बहुधा वामपंथियों के दोहरे चरित्र को उजागर किया और उनके असली चेहरे को सामने लाने में हिचके नहीं। वो कहते भी थे कि उनको क्रेमलिन से आया फरमान कतई मंजूर नहीं है।
इस वक्त जो वामपंथी दिनकर की आलोचना करने में लगे हैं या फिर दिनकर को कांग्रेसी और नेहरू का चमचा कह रहे हैं उनको न तो दिनकर के बारे में पता है और न ही इतिहास बोध। वो तो बस उस सूखे पुआल के रखवाले की तरह हैं जो अंगार से डरता है। अब वामपंथी विचारधारा सूखा हुआ पुआल हो चुका है और ये वामपंथी उनके रखवाले जो दिनकर की रचनाओं के अंगार से भयाक्रांत दिखाई देते हैं। डर इस बात का है कि अगर इतिहास की लिखी सारी बातें अंगार के रूप में सामने आ जाएंगी तो सूखे पुआल को जलते देर नहीं लगेगी। दरअसल ये समझना होगा कि दिनकर की कविताओं में जो राजनीतिक चेतना है उसके आधार में राष्ट्र का हित है। नेहरू से वामपंथी इस वजह से भी चिढ़ते थे कि वो लगातार नेहरू के वामपंथ के प्रभाव से मुक्त होने की बात भी करते थे। एक बार दिनकर ने कह दिया था कि जैसे जैसे मार्क्स के सिद्धांत काल के गियर से छूटते गए वैसे वैसे पंडित जी की आस्था मार्क्स पर कम होती गई। इस तरह के बेबाक बोल उस वक्त की ताकतवर विचारधारा के कर्ताधर्ताओं को नहीं भाता था।  
एक किस्सा कई बार सुनाया जाता है कि एक बार किसी कार्यक्रम में दिनकर और जवाहरलाल नेहरू दोनों पहुंचे थे। कार्यक्रम स्थल पर जाने के दौरान नेहरू सीढ़ियों पर लड़खड़ा गए थे, उस वक्त दिनकर ने उनका हाथ थाम लिया था। जवाहरलाल नेहरू ने दिनकर को धऩ्यवाद कहा। इस धन्यवाद के उत्तर में दिनकर ने कहा था ‘जब जब सत्ता लड़खड़ाती है तो सदैव साहित्य ही उसे संभालती है।‘ दिनकर ने ये बात भले ही मजाक में कही हो लेकिन उस वक्त नेहरू की लड़खड़ाती सत्ता पर ये कड़ा व्यंग्यात्मक प्रहार था। आज दिनकर की आलोचना करनेवाले ये भूल जाते हैं कि उन्होंने राज्यसभा सांसद रहते कई मुद्दों पर नेहरू की आलोचना भी की थी। चाहे वो भाषा का मुद्दा हो या फिर भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का, दिनकर ने खुलकर अपनी बात रखी थी। उस वक्त की सरकार को कभी अपनी रचनाओं के माध्यम से तो कभी भाषणों से कठघरे में खड़ा किया था।