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Thursday, June 30, 2016

स्वामी के खेल

सुब्रह्मण्य स्वामी भारतीय राजनीति का वो खिलाड़ी है जो अपने बयानों और सियासी कदमों से देशभर को चौंकाते रहता है । अर्थशास्त्र का ये प्रोफेसर सियासी दांव पेंच में भी फॉर्मूले फिट करता रहा है । कई सियासी दलों की यात्रा करने के बाद स्वामी की घर वापसी हुई है । कभी राजीव गांधी के बेहद करीबी रहे स्वामी अब सोनिया और राहुल गांधी के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं । कभी अटल बिहारी वाजपेयी के धुर विरोधी रहे स्वामी इन दिनों बीजेपी के आंखों के तारे हैं । पाठकों को याद होगा कि स्वामी जब राज्यसभा के लिए मनोनीत किए गए तो अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर पर बहस के दौरान पार्टी ने उनको अपने सभी सांसदों का वक्त मिलाकर दे दिया ताकि स्वामी कांग्रेस पर लंबे वक्त तक तीखे वार कर सके । बीजेपी के इस कदम ने स्वामी के हौसले बुलंद कर दिए । स्वामी अपने स्तरहीन बयानों के लिए भी जाने जाते हैं जैसे ट्विटर पर वो सोनिया गांधी को जिस नाम से संबोधित करते हैं वो सियासत की मर्यादा के बिल्कुल खिलाफ है । संसद में पार्टी के उस समर्थन के बाद स्वामी उस राह पर चल पड़े जहां सिर्फ टकराव की गुंजाइश बनती है । वो सरेआम ये कहने लगे कि वो सीधे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से निर्देश लेते हैं और आगे भी ऐसा करेंगे । ऐसा करके वो राज्यसभा में नेता सदन अरुण जेटली को संदेश दे रहे थे कि सदन में भी वो उनकी बात नहीं मानेंगे । अरुण जेटली पार्टी का सौम्य, पढ़ा लिखा और नो नॉनसेंस चेहरा है । स्वामी दूर की कौड़ी लाने में भी माहिर हैं, कई बार वो कौड़ी सही भी होती है लेकिन बहुधा वो बस कौड़ी ही रह जाती है । रिजर्व बैंक के काबिल गवर्नर रघुराम राजन का कार्यकाल सितंबर में खत्म होनेवाला था पर स्वामी ने अरुण जेटली पर परोक्ष रूप से हमला करने के लिए राजन को चुना और एक के बाद एक हमले किए । सौम्य राजन ने स्वामी के आरोपों पर कुछ नहीं कहा लेकिन गरिमापूर्ण तरीके से अपने पद छोड़ने का एलान कर दिया । रघुराम राजन के इस कदम ने स्वामी को अगले कदम के लिए उकसाया और उन्होंने वित्त मंत्रालय के सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम और एक अन्य अधिकारी पर हमला बोला । वित्त मंत्री होने के नाते अरुण जेटली ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए दोनों का बचाव किया लेकिन स्वामी ने फिर जेटली से क्या लेना देना वो तो पीएम और अमित शाह को जानते हैं जैसा बयान दे डाला । और तो और उन्होंने इशारों इशारों में अरुण जेटली पर बिलो द बेल्ट हमला बोला और कहा कि विदेश जानेवाले नेताओं को सूट टाई नहीं पहननी चाहिए क्योंकि उसमें वो वेटर जैसे दिखते हैं । कुछ ही वक्त पहले टीवी चैनलों पर अरुण जेटली की चीन से सूट टाई में भाषण देती तस्वीरें आई थी । जब पानी सर से उपर जाने लगा तो खबरों के मुताबिक अरुण जेटली ने चीन का दौरा एक दिन पहले खत्म किया और प्रधानमंत्री से मिलने का वक्त मांग लिया ।
इन सारे सियासी घटनाक्रम के बीच प्रधानमंत्री ने अपने एक इंटरव्यू में स्वामी को सार्वजनिक रूप से नसीहत ही नहीं दी बल्कि कड़ा संदेश दे दिया कि वो अपनी सीमाओं में रहें और संगठन और व्यवस्था से बड़ा कोई नहीं होता है । लेख लिखे जाने तक स्वामी खामोश हैं । सवाल खामोशी या उनकी प्रतिक्रिया का नहीं है सवाल यह है कि स्वामी का स्वामी आखिर कौन है । किसके इशारे पर स्वामी वित्त मंत्री अरुण जेटली को निशाना बना रहे हैं । कहीं से तो स्वामी को ताकत मिल रही है । सियासी हलकों में इस बात की चर्चा होती है कि स्वामी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आशीर्वाद प्राप्त है । जब स्वामी को राज्यसभा में मनोनीत किया गया था तब भी ये बात आई थी या फैलाई गई थी कि स्वामी संघ की पसंद हैं । लेकिन इस तरह की बातें करनेवाले संघ के क्रियाकलापों को बेहतर तरीके से जानते नहीं हैं । संघ को अगर अरुण जेटली से कोई शिकायत होगी तो वो कम से कम उसको दूर करने के लिए स्वामी को तो नहीं लगाएंगें । जब स्वामी ने एक किताब में अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में बेहद आपत्तिजनक बातें कही थी तब भी इसी तरह के कयास लगाए जा रहे थे । अटल जी जबतक सक्रिय रहे उन्होंने स्वामी को हाशिए पर रखा । दऱअसल अगर स्वामी के करियर को विश्लेषित किया जाए तो ये नतीजा निकलता है कि जबतक उनको पद नहीं मिलता है वो बेचैन रहते हैं राजीव गांधी से लेकर जयललिता से लेकर हर सरकार से उनकी अदावत की लगभग यही वजह रही है । और बेचैनी किसी भी मनुष्य को कुछ भी करने को बाध्य करती है । बेचैनी के आलम में अगर उसको कोई भी बाधा नजर आती है तो वो हमलावर हो जाता है । स्वामी इसी बेचैन सिंड्रोम के शिकार नजर आते हैं । राज्यसभा के सदस्य बनने के लिए उन्होंने तमाम जतन किए, इसमें कोई बुराई भी नहीं है । रायसीना हिल्स में ये चर्चा है कि स्वामी वित्त मंत्री बनना चाहते हैं इसलिए वो अरुण जेटली की ओर बयानों के तीर चला रहे हैं । लेकिन पद की लालसा में अगर कोई मर्यादा भूल जाता है तो उसको उसकी सही जगह दिखाने का दायित्व प्रधानमंत्री का होता है और उन्होंने इसका निर्वाह किया ।

Wednesday, June 29, 2016

खबरों में कहानी तलाशते फिल्मकार

पिछले लगभग एक दशक से हिंदी फिल्मों में थीम पर फिल्म बनाने का चलन शुरू होकर लोकप्रिय होने लगा है । इस तरह की दर्जनों फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं । मसलन प्रकाश झा की फिल्म सत्याग्रह, आरक्षण, गंगाजल, अनुराग कश्यप की ब्लैक प्राइडे, गैंग्स ऑफ वासेपुर और हाल में रिलीज हुई उड़ता पंजाब, राजकुमार गुप्ता की नो वन किल्ड जेसिका, मेघना गुलजार की तलवार, हंसल मेहता की अलीगढ़ या फिर प्रणब सिंह की शोरगुल- ये कुछ ऐसी फिल्में हैं जो किसी ना किसी थीम पर आधारित हैं । थीम बेस्ड इन फिल्मों को लेकर दर्शकों में खासा उत्साह देखने को मिला है और ज्यादातर फिल्में हिट ही रही हैं । इन फिल्मों को थीम आधारित फिल्म कहकर प्रचारित अवश्य किया जाता रहा है लेकिन गहराई और गंभीरता से विचार करने पर हम पाते हैं कि थीम की आड़ में कहानी के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है । उपर जितने भी फिल्मों के नाम गिनाए गए हैं सबमें एक समानता है कि वो सब तात्कालिकता को भुनाने के लिए बनाई गई हैं । जब अन्ना हजारे का आंदोलन अपने शबाब पर था तो प्रकाश झा ने फौरन सत्याग्रह बना डाली,देश में रिजर्वेशन को लेकर जब भहस उठी तो आरक्षण आ गई । बिहार की कानून व्यवस्था का मामला जब फिर से सुर्खियों में आय तो जय गंगाजल आ गई । दिल्ली के जेसिका लाल हत्याकांड में आए फैसले और उसपर उठे सवालों के बीच नो वन किल्ड जेसिका लाल आ गई । नोएडा के आरुषि तलवार मर्डर केस में फैसला आने और उसके माता पिता को दोषी करार दिए जाने के बाद जब उसको लेकर पक्ष विपक्ष में दलीलें दी जाने लगीं और अखबारों और न्यूज चैनलों पर बहस होने लगी तो मेघना गुलजार ने फिल्म तलवार का एलान कर दिया और जल्द ही फिल्म बनकर दर्शकों के बीच आ गई । अलीगढ़ के समलैंगिक प्रोफेसर डॉ श्रीनिवास रामचंद्र सीरस की समाज के तानों से उबकर आत्महत्या करने की घटना और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिकों के अधिकारों पर सुनवाई के कोलाहल के बीच मनोज वाजपेयी अभिनीत फिल्म अलीगढ़ फिल्म रिलीज की गई । इस वक्त पंजाब में ड्रग्स को लेकर पूरे देश में चर्चा है तो अनुराग कश्यप की उड़ता पंजाब आ गई । कैराना को लेकर हिंदू मुस्लमान रिश्तों को एक बार फिर से परिभाषित करने की बहसों के बीच मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी फिल्म शोरगुल आ गई । ये बताने का मकसद है कि अब फिल्मकार अखबारों की सुर्खियों से फिल्मों की थीम तय करने लगे हैं । पहले जो भी फिल्में बनती थी वो उसमें कहानी प्रमुख होती थी लेकिन इन दिनों फिल्मकार अखबारों की सुर्खियों में कहानी की तलाश करने लगे हैं । खबरों के आधार पर फिल्म बनाने का फैसला करने के बाद उसकी कहानी और स्क्रीनप्ले पर काम शुरू होता है । फिर सीन और गाने कहां कहानी के बीच कहां फिट करना है ये तय किया जाता है । इसका नतीजा यह हुआ कि थीम बेस्ड तमाम फिल्मों से से किस्सागोई गायब होती जा रही है । अगर हम देखें तो उड़ता पंजाब में कोई कहनी नजर नहीं आती है । यह अवश्य प्रचारित किया गया कि पंजाब में ड्रग्स की समस्या को केंद्र में रखकर ये फिल्म बनाई गई है और फिल्म से ड्रग्स के खिलाफ संदेश दिया गया है । अनुराग कश्यप को सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने इस फिल्म बेवजह विवादित कर दिया । इल विवाद ने फिल्म को लेकर एक उत्सुकता का माहौल बना दिया वर्ना इस फिल्म में विजुअल के अलावा कुछ भी नहीं है जो दर्शकों को अपनी ओर खींच सके । सिर्फ दृश्यों की भरमार और उसमें संदेश गुम ।  इसी तरह से अगर आप देखें तो प्रकाश झा की फिल्म सत्याग्रह में भी कोई कहानी ना होकर खबरों की निरंतरता और उसका डेवलपमेंट नजर आता है । जिस तरह से अखबार खबरों को फॉलो करते हैं उसी तरह से फिल्म में खबर डेवलप होती चली जाती है । चूंकि हिंदी फिल्म है और दर्शकों को गाने,रोमांस, डांस आदि चाहिए, इस वजह से कहानी को नाटकीय मोड़ देकर गाने आदि के लिए जगह बनाई जाती है ।
दरअसल अगर बॉलीवुड के परिदृश्य पर विचार करें तो पाते हैं कि सलीम जावेद की जोड़ी के बाद हिंदी फिल्मों में कहानी लेखकों का जलवा खत्म सा होता चला गया । सचिन भौमिक ने अवश्य कई फिल्में लिखी लेकिन उसके बाद धीरे धीरे कहानी बैकग्राउंड में चली गई । पहले फिल्मों की कहानियां चुनी जाती थी और फिर उसके स्क्रीनप्ले पर काम होता था । मुझे याद है कि हिंदी के वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव ने एक बार बताया था कि फिल्म सारा आकाश के वक्त किस तरह से वासु चटर्जी उनको स्क्रीन प्ले पर काम करने के लिए होटल के कमरे में बंद कर दिया करते थे और तबतक नहीं जाने देते थे जबतक कि काम पूरा नहीं हो जाता था । अब स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है और खबरों को कहानी में तब्दील करनेवाले लेखकों की एक पूरी फौज बॉलीवुड में मौजूद है जो डायरेक्टर की मर्जी के हिसाब से कहानी लिख देते हैं और फिर फिल्मकार उसको थीम देकर बाजार में पेश कर देता है । बाजार भी फिल्मकारों के इस दांव को अधिकतर सफल कर देता है लिहाजा वो भी कहानी को तवज्जो नहीं देता है । थीम बेस्ड फिल्मों को यथार्थ के नाम पर बेचने का फॉर्मूला कबतक चलता है ये देखना दिलचस्प होगा ।


Saturday, June 25, 2016

कैसे-कैसे साक्षात्कार

हिंदी साहित्य में साक्षात्कार की बेहद समृद्ध परंपरा रही है । आज भी समालोचना पत्रिका के उन्नीस सौ पांच के अंक में प्रकाशित संगीतकार विष्णु दिगम्बर पुलस्कर का साक्षात्कार पाठकों और संगीत प्रेमियों के लिए संदर्भ की तरह इस्तेमाल होता है । पुलस्कर जी का वो इंटरव्यू पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी ने लिया था । इस इंटरव्यू का शीर्षक था संगीत की धुन । आज भी हंस पत्रिका के दिसबंर 1947 के अंक में निराला जी का इंटरव्यू- अपने ही घर में सरस्वती का अपमान – बार बार उदधृत किया जाता है । अपने उस इंटरव्यू में निराला जी ने क्रोधपूर्वक इस बात को कहा था कि नेताओं के समक्ष लेखकों को तुच्छ समझा जाता है । साक्षात्कार एक समृद्ध विधा के तौर पर स्थापित हो गया था जिसमें प्रभाकर माचवे से लेकर अज्ञेय और दिनकर तक ने योगदान किया था । आज ये विधा दम तोड़ रही है ।  कुछ पत्र-पत्रिकाओं में साहित्यकारों के छोटे छोटे इंटरव्यू अवश्य छपते रहते हैं लेकिन वो बेहद हल्के होते हैं । इस तरह के इंटरव्यू से साहित्यक विधा के तौर पर इसको मजबूती नहीं मिलती है । इसमें साक्षात्कारकर्ता को किसी तैयारी की जरूरत नहीं होती है बस गए और यूं ही चार छह सवाल पूछ लिए । पाठकों को कुछ नया मिल रहा हो ऐस् बहुत कम देखने को मिलता है । हां साहित्यक लघु-पत्रिकाओं में कई बार लंबे और गंभीर इंटरव्यू देखने-पढ़ने को मिल जाते हैं । पिछले दिनों इलाहाबाद से निकलनेवाली साहित्यक पत्रिका नया प्रतिमान में असगर वजाहत का एक लंबा इंटरव्यू छपा है जो पाठको को उनके विचारों और साहित्यक प्रवृत्तियों को उनके नजरिए से समझने का अवसर देती है । असगर वजाहत से पल्लव ने बातचीत की है और ऐसा प्रतीत होता है कि साक्षात्कारकर्ता ने भी पूरी तैयारी की थी । भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका नया ज्ञनोदय के जून अंक में पांच वरिष्ठ लेखकों के साक्षात्कार छपे हैं । साक्षात्कार विशेष के तौर पर इसको कवर पर प्रचारित भी किया गया है । इन साक्षात्कारों में ओ एन वी कुरुप, भालचंद्र नेमाड़े और मलय के साक्षात्कार बेहतर हैं लेकिन सबसे कमजोर इंटरव्यू अशोक वाजपेयी का है । अशोक वाजपेयी से ध्रुव शुक्ल ने बातचीत की है और अमूमन सारे सवाल भक्तिभाव और प्रशंसात्मक शैली में पूछे गए हैं । इससे कुछ खास निकलकर आता नहीं है । जैसे एक सवाल है – विश्व कविता में आपकी दिलचस्पी और जानकारी जगजाहिर है । आपके पास कविता के अंग्रेजी अनुवादों का एक बड़ा संग्रह है । विश्व कविता में क्या घट रहा है इन दिनों ? अब पहले दो वाक्य क्या साबित करने के लिए हैं या फिर इस प्रश्न से इ बात का क्या लेना देना है कि अशोक वाजपेयी के पास विश्व कविता के अंग्रेजी अनुवाद का बड़ा संग्रह है । एक और प्रश्न देखे- कविता की बात करें तो आप अकेले नजर आते हैं – प्रचलित मुहावरों से अलग आपने अफने लिए एक मुहावरा चुना है , जिसमें संस्कृति की गूंज सुनाई देती है – इसे एक तरह से नवशास्त्रीय भी कहा जा सकता है । क्या समाज से खुद की ओर लौटना और इस लौटे को थामे रहना मुश्कुल रहा ? ‘ अब इस प्रश्न पर क्या कहा जा सकता है पाठक खुद तय करें । दरअसल हाल के दिनों में हिंदी साहित्य में साक्षात्कार को लेने और देनेवालों ने मिलकर एकालाप का माध्यम बना लिया है । कुछ कुछ मैच फिक्सिंग की तरह जहां सवाल भी जवाब देनेवाले की मर्जी के मुताबिक किए जाते हैं । कसौटी पर कसने की परंपरा लगभग खत्म सी होती जा रही है । इस वक्त भी हिंदी साहित्य को आवश्यकता है कि इस खत्म होती विधा को मजबूत करने के लिए युवाओं को पूरी तैयारी के साथ आगे आना चाहिए । 

किताबों को सहारे की जरूरत

इन दिनों देशभर में सेल का मौसम चल रहा है और हर अखबार सेल-सेल-सेल के तरह तरह के विज्ञापनों से अटा पड़ा है । विक्रेता तरह तरह से क्रेता को लुभाने में लगे हैं, कोई पचास फीसदी कम मूल्य पर तो कोई अमुक प्रोडक्ट के साथ अमुक चीज मुफ्त देना के वादे के ऑफर दिए जा रहे हैं । कपड़ों से लेकर हवाई जहाज के टिकटों तक की सेल चल रही है । इन प्रोडक्ट्स के जबरदस्त विज्ञापनों के कोलाहल के बीच एक अलग तरह के सेल की खबर दब सी गई । चौबीस पचीस जून को दो दिनों के लिए अंग्रेजी के प्रकाशक हॉर्पर कालिंस ने फरीदाबाद के अपने गोदाम में किताबों की सेल लगाई थी । इस सेल का ना तो किसी अखबार में बड़ा-बड़ा विज्ञापन दिया गया था ना ही टीवी पर, लेकिन खरीदारों की भीड़ ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए । लोग सेल शुरू होने के वक्त से पहले फरीदाबाद के गोदाम के बाहर लाइन लगाकर खड़े हो गए थे । भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि प्रकाशक को गेट बंद करना पड़ा और ट्विटर पर ये जानकारी देनी पड़ी कि स्टॉक खत्म हो गए हैं । सेल लगाने वाले प्रकाशक ने दिल्ली वालों का धन्यवाद भी अदा किया । दरअसल हॉर्पर कॉलिंस ने सोशल मीडिया आदि पर एलान किया था कि दो दिनों के लिए वो अपनी किताबों की सेल लगा रहे हैं जहां कि पच्चीस रुपए से लेकर सौ रुपए तक में किताबें मिलेंगी । इसके अलावा एक दो अखबारों में सेल के बारे में छोटी सी खबर छपी थी । प्रकाशक ने पुस्तक प्रेमियों को अपने गोदाम पर आने का न्यौता दिया था, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाशक को इस बात का अंदाज नहीं रहा होगा कि इतनी बड़ी संख्या में और इतनी भयंकर गर्मी में पुस्तक प्रेमी वहां तक पहुंच जाएंगे । खैर काफी मशक्कत के बाद कुछ लोगों को किताबें मिली तो कइयों को निराश होकर खाली हाथ वापस लौटना पड़ा । जो लोग निराश होकर लौटे उन्होंने अपनी निराशा ट्विटर के जरिए जाहिर की । हॉर्पर कॉलिंस हैशटैग के साथ ट्वीटर पर लोगों ने अपनी नाराजगी जतानी शुरू कर दी । कई लोगों ने तो लिखा कि वो सुबह से गोदाम के खुलने की प्रतीक्षा करते रहे लेकिन जब उनका नंबर आया तो प्रकाशक ने गेट बंद कर दिया । इस तरह के दर्जनों ट्वीट्स दो दिनों के दौरान देखे गए । दिल्ली के गुस्से में होने की वजह से कुछ समय के लिए हॉर्पर कॉलिंस ट्विटर पर ट्रेंड भी करने लगा था ।
अब इस पूरी घटना से पुस्तकों की बिक्री को लेकर कई मिथक टूटते हैं । हमारे देश में खासकर हिंदी में पुस्तकों की बिक्री को लेकर प्रकाशकों और लेखकों दोनों में कोई उत्साह देखने को नहीं मिलता है । एकाध प्रकाशक को छोड़ दें तो पाठकों तक पहुंचने की योजना और उसका कार्यान्वयन दिखाई नहीं देता है । पुस्तक मेलों को छोड़ दें तो किसी भी हिंदी के प्रकाशक ने कभी पुस्तकों की सेल लगाई हो ऐसा याद नहीं पड़ता है । पुस्तकों की सेल तो एक उदाहरण है । इस तरह के कई उपक्रम किए जा सकते हैं ताकि पुस्तकों को पाठकों तक पहुंचाया जा सके । इसके लिए प्रकाशकों को पहल करनी चाहिए और लेखकों को उनका सहयोग और सपोर्ट दोनों करना चाहिए । हॉर्पर कालिंस की बुक सेल ने ये तो साबित कर ही दिया कि पुस्तकों की खरीद के लिए पुस्तक प्रेमी अपना वक्त और धन दोनों खर्च करने के लिए तैयार हैं बशर्ते कि किताबें कम मूल्य पर मिले और निश्चित स्थान पर उपलब्ध हों । हिंदी में किताबों की उपलब्धता सबसे बड़ी समस्या है । आज दिल्ली का ही उदाहरण लें और सर्वे करें तो हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि इस महानगर में दर्जन भर से ज्यादा किताबों की दुकानें नहीं होगीं । हिंदी की साहित्यक पत्रिकाएं तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय स्थित पुस्तक केंद्र पर ही मिल पाती हैं । इसी तरह से लखनऊ और पटना में भी देखें तो तीन चार ही किताबों की दुकानें मिलेंगी । कई छोटे शहरों में तो वहां के रेलवे स्टेशन पर मौजूद एच एच व्हीलर के स्टॉल ही उस शहर के साहित्यप्रेमियों का अड्डा हुआ करता है । अफसोस कि वहां भी स्टॉल मालिक के व्यक्तिगत प्रयास से साहित्यक पत्र-पत्रिकाएं तो उपलब्ध हो जाती हैं लेकिन साहित्यक कृतियां मसलन कहानी संग्रह और उपन्यास आदि तो नहीं ही मिल पाती हैं ।
हिंदी पट्टी में आयोजित होनेवाले पुस्तक मेलों में उमड़ी भीड़ भी हमेशा ये संदेश देती है कि किताबों के पाठक हैं । उनको सहजता से उपलब्ध करवाने की जरूरत है । इस साल नई दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में हिंदी के हॉल के बाहर पुस्तक प्रेमी कतार लगाकर किताबें खरीदने के लिए जा रहे थे । इसी तरह से पटना और लखनऊ के पुस्तक मेलों में भी पाठकों की उमड़ी भीड़ बेहद उत्साहजनक संकेत देते हैं । अब तो छोटे-छोटे शहरों में पुस्तक मेले लगने लगे हैं और आयोजकों समेत प्रकाशकों की उसमें हिस्सेदारी होती है । मैं यह नहीं कह सकता हूं कि प्रकाशकों को इन छोटे पुस्तक मेलों में मुनाफा होता है या नहीं लेकिन उनकी लगातार उपस्थिति से इतना तो कहा जा सकता है कि प्रकाशकों को घाटा नहीं होता है । तो फिर क्यों नहीं इस काम को सुनियोजित तरीके से किया जाता है । प्रकाशकों के कई संगठन हैं उनको इस काम में आगे आना चाहिए लेकिन प्रकाशकों के संगठनों का हाल भी लेखक संगठनों से बेहतर नहीं है । सबके अपने अपने राम हैं ।

इसी तरह से नेशनल बुक ट्रस्ट पर भी देशभर में पुस्तक संस्कृति को विकसित करने और परोक्ष रूप से किताबों को उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी है । इस बात का आंकलन किया जाना चाहिए कि क्या नेशनल बुक ट्रस्ट अपनीइन जिम्मेदारियों को निभा पा रही है । अभी पिछले साल तो एक ऐसा उदाहरण देखने को मिला जिसमें नेशनल बुक ट्रस्ट पटना पुस्तक मेले के आयोजकों से होड़ लेता नजर आया । दशकों से पटना पुस्तक मेला आयोजित होता है और तमाम झंझावातों को झेलते हुए उसने बिहार और देश के साहित्यक कैलेंडर में अपना स्थान बनाया । पटना पुस्तक मेले के आयोजन के ठीक पहले नेशनल बुक ट्रस्ट ने भी पटना के गांधी मैदान में ही पुस्तक मेला आयोजित कर दिया । ट्रस्ट की मंशा का तो पता नहीं लेकिन एक ही वक्त और एक ही स्थान पर आयोजित होने से पाठकों के बीच भ्रम की स्थिति बनी रहती है । नेशनल बुक ट्रस्ट को देश के उन हिस्सों में पुस्तक मेले आयोजित करने चाहिए जहां तक पहुंचना मुश्किल हैं । हवाई रूट से जुड़े शहरों में नेशनल बुक ट्रस्ट के मेलों में उनके अफसरों को जाने में सहूलियतें होती हैं लेकिन इससे पुस्तक संस्कृति का अपेक्षित विस्तार हो पाता है, इसमें संदेह है । नेशनल बुक ट्रस्ट को किताबों को छापने से ज्यादा ध्यान किताबों की उपलब्धता पर लगाना चाहिए । उनको प्रकाशकों के साथ साझेदारी कर किताबें छपवानी चाहिए और मूल्य और गुणवत्ता निर्धारण के मानदंड तैयार करना चाहिए । जैसे ही वो किताबें छापते हैं तो वो अन्य प्रकाशकों से होड़ लेने लगते हैं । ट्रस्ट के पास चूंकि सरकारी पैसा है लिहाजा वो प्रकाशकों की निजी पूंजी पर भारी पड़ते हैं और परोक्ष रूप से पुस्तक संस्कृति के विकास को नुकसान पहुंचाते हैं । इसी तरह से साहित्य अकादमी को भी किताबों के प्रकाशन पर अपनी ऊर्जा और धन खर्च करने से ज्यादा जरूरी है कि वो किताबों के प्रचार प्रसार के लिए काम करे । बेहतर लेखकों का चयन करे और उनकी किताबों को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवाने के लिए प्रकाशकों के साथ साझेदारी करे । स्तरीय अनुवाद करवाकर प्रकाशकों को उपलब्ध करवाए । जब वो खुद इस काम में लगते हैं तो देर भी होती है जैसे भारत भारद्वाज ने डी एस राव की किताब फाइव डिकेड्स का अकादमी के लिए अनुवाद किया था लेकिन उसका प्रकाशन छह सात साल बाद हो पाया । यह जानकारी सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त हुई लेकिन संभव है कि ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद हों । सरकारी पूंजी से किताबों का प्रकाशन करने वाली संस्थाओं को लागत की फिक्र नहीं होती है । इस तरह की अड़चनों की अगर चूलें कस दी जाएं तो पुस्तकों की उपलब्धता बढ़ सकती है और पाठकों की मौजूदगी से इस इंडस्ट्री को मुनाफा हो सकता है । किसी भी सेक्टर के विकास के उसमें मुनाफा होना आवश्यक है । इसके अलावा अगर लेखक भी अपनी किताब की उपलब्धता को लेकर प्रकाशक के कंधे से कंधा मिलाकर काम करें तो स्थिति और बेहतर हो सकती है । सामूहिक प्रयास से ही बेहतर पुस्तक संस्कृति का विकास संभव है । 

Saturday, June 18, 2016

मुद्राराक्षस की बेबाकी को सलाम

पिछले दिनों जब हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार मुद्राराक्षस के निधन की खबर आई तो अचानक पच्चीस साल पहले की एक स्मृति दिमाग में कौध गई । कॉलेज के दिन थे और मैं साहित्य की दुनिया में एक पाठक की तरह विचरने लगा था । तभी एक नाम से सामना हुआ था - मुद्राराक्षस । यह ठीक से याद नहीं है कि उनकी कौन सी कृति थी लेकिन तब उस नाम को लेकर मन में जिज्ञासा हुई थी । कई लोगों से तब इसके बारे में पूछा था लेकिन ठोस जवाब नहीं मिल पाया था, लेकिन ये नाम जेहन में कहीं अटका हुआ था । बाद में पता चला था कि तार सप्तक की समीक्षा की वजह से उनका नाम बदल गया था । ये उस वक्त की बात है जब वो सुभाष चंद्र आर्य थे । तारसप्तक की समीक्षा छपने के लिए उन्हॆंने  डॉ देवराज के पास भेज दिया था जो उन दिनों एक पत्रिका निकाला करते थे । अपनी समीक्षा में उन्होंने अज्ञेय पर जमकर हमला बोला था और ये साबित करने की कोशिश की थी कि उनके लेखन पर विदेशी लेखकों की गहरी छाप है । उस वक्त अज्ञेय की साहित्य में तूती बोलती थी, लिहाजा देवराज जी ने उनको सलाह दी कि इस लेख को नाम बदलकर छापना चाहिए । दोनों के बीच सलाह मशविरा के बाद मुद्राराक्षस नाम तय हुआ और वो ही नाम आखिर तक चलता रहा । मुद्राराक्षस ने लंबी उम्र पाई और अपनी लंबी जीवन यात्रा में साहित्य के कई सफल मुकाम हासिल किए । उन्होंने साहित्य की हर विधा में हाथ आजमाया । करीब दर्जनभर नाटक लिखे और निर्देशित किए । उनके बारह उपन्यास, पांच कहानी संग्रह, तीन व्यंग्य संग्रह और आलोचना और इतिहास की कई किताबें प्रकाशित हैं । मुद्राराक्षस जी ने लंबे समय तक साहित्यक पत्रिकाओं का संपादन भी किया और अपने संपादकीय कौशल से हिंदी साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप किया । मुद्राराक्षस ने आकाशवाणी की नौकरी भी लेकिन वहां भी उन्होंने समाज के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन किया ।

छोटे कदकाठी के मुद्राराक्षस अंत तक अपने सिद्धांतों पर डिगे ही नहीं रहे बल्कि उसको फैलाने के लिए सक्रिय भी रहे । विचारों से मार्क्सवादी-लेनिनवादी मुद्रा जी ने सामजिक आंदोलनों में भी भागीदारी की । इस बात को कई लोग स्वीकार करते हैं कि मुद्राराक्षस सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे । मुझे याद है दो तीन साल पहले कथाक्रम सम्मान के मौके पर एक गोष्ठी थी जिसमें मुझे बोलना था । तमाम उद्भट मार्क्सवादियों की मौजूदगी में मैंने मंच से मार्क्सवाद के अंतर्विरोधों और मार्क्स के अंधभक्तों पर हमला बोला था । कार्यक्रम के बाद मुद्रा जी मुझसे मिले तो बोले कि मैं तुम्हारे तर्कों से सहमत नहीं हूं लेकिन तुम्हारे साहस की दाद देता हूं । उस वक्त भी उनकी तबीयत ठीक नहीं थी और वो किसी के सहारे से चल रहे थे लेकिन साहित्य समारोह में उनकी मौजूदगी उनके साहित्यप्रेम को दर्शाता था । 13 जून 1933 को लखनऊ के पास बेहटा में जन्मे मुद्राराक्षस ने रंगमंच की दुनिया में भी अपना लोहा मनवाया । उनका लिखा - आला अफसर – बेहतरीन नाटक है । उन्हें रंगमंच की गहरी समझ थी और वो नाट्य निर्देशक के तौर पर कई प्रयोग करते थे जो कि दर्शकों और आलोचकों दोनों को चौंकाते थे । मुद्राराक्षस हिंदी भाषा को लेकर भी बेहद चिंतित रहा करते थे लेकिन गोष्ठियों आदि में इस बात पर बेहद कुपित नजर आते थे कि हिंदी के लिए विलाप सिर्फ सेमिनारों तक सिमट गया है और लोग आगे बढ़कर उसके लिए कुछ सार्थक नहीं कर रहे हैं । वो युवा लेखन से भी संतुष्ट नजर नहीं आते थे और बहुधा इस बात को लेकर टिप्पणी भी करते चलते थे कि सोशल मीडिया के लिए हो रहे लेखन से साहित्य का भला नहीं हो सकता है । अपनी बेबाकी के लिए जाने जानेवाले मुद्राराक्षस के निधन से जो क्षति हुई है उसकी भारपाई निकट भविष्य में तो संभव नहीं दिखाई देती है । नमन ।    

अकादमी सचिव की ‘ललित कला’

ललित कला अकादमी एक बार फिर से गलत वजहों से सुर्खियों में है । संस्कृति मंत्रालय ने ललित कला अकादमी के रिकॉर्ड रूम को सील कर दिया है । खबरों के मुताबिक जिस कमरे में फाइलें रखी जाती हैं उसमें सचिव सुधाकर शर्मा के सहयोगी को देखे जाने की शिकायत के बाद मंत्रालय ने ये कदम उठाया है ।अकादमी से मंत्रालय को शिकायत मिली थी कि सुधाकर शर्मा के सहयोगी रिकॉर्ड रूम में जाकर दस्तावेजों में छेड़छाड़ कर रहे हैं ।  दरअसल ललित कला अकादमी के विवादित सचिव सुधाकर शर्मा पर कई संगीन इल्जाम है और इनमें से कुछ मामले अदालत में चल रहे हैं । आरोप है कि इन्हीं केसों से जुड़े दस्तावेजों से छेड़छाड़ की जा रही थी । सुधाकर शर्मा को ललित कला अकादमी के दो पूर्व चैयरमैन ने अलग-अलग समय पर बर्खास्त कर दिया था, बावजूद इसके वो बार बार फिर से किसी ना किसी तरह अकादमी के सचिव पद पर आसीन हो जाते हैं । पहले अशोक वाजपेयी ने उनके खिलाफ फैसला लिया था और उनके बाद चेयरमैन बने के के चक्रवर्ती ने भी सचिव सुधाकर शर्मा को गड़बड़ियों के आरोप में बर्खास्त कर दिया था । चक्रवर्ती के फैसले के खिलाफ सुधाकर केंद्रीय प्रशासनिक पंचाट में अपील में गए जिसने केंद्र सरकार को इस मामले पर विचार करने की सलाह दी ।जब ये मामला चल रहा था और कैट का फैसला आया तबतक केंद्र में सरकार बदल चुकी थी । नए बने संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के कार्यकाल में ललित कला अकादमी के सचिव सुधाकर शर्मा को दोबार बहाल कर दिया था । बेहद दिलचस्प घटनाक्रम में केंद्र सरकार ने के के चक्रवर्ती को चेयरमैन के पद से हटाते हुए ललित कला अकादमी का कंट्रोल अपने पास ले लिया था और संस्कृति मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव को उसका प्रभार सौंप दिया गया था । इस बीच खबर आई कि सीएजी ने भी सुधाकर शर्मा को दिए गए वेतनमान पर आपत्ति उठाई है और अपनी सिफारिश में कहा है कि सुधाकर शर्मा को दिए गए अतिरिक्त भुगतान को उनसे वसूला जाए । इन सब प्रसंगों और घटनाक्रमों के बीच ललित कला अकादमी से बेहद मंहगी पेंटिग्स गायब होने की जांच भी जारी थी ।
दरअसल ललित कला अकादमी को लेकर काफी समय से विवाद चल रहा है । इस वजह से आप अगर देखें तो जब केंद्र सरकार ने अकादमी की स्वायत्ता को खत्म कर उसका नियंत्रण अपने हाथ में लिया तो उसपर ज्यादा विवाद नहीं हुआ । बात-बात पर अभिव्यक्ति की आजादी के खतरे में होने और सांस्कृतिक संगठनों पर भगवा झंडा फहराने का आरोप लगानेवाले वीर भी लगभग खामोश ही रहे । उन्हें मालूम था कि ललित कला अकादमी में किस तरह के खेल खेले जा रहे हैं ।  दरअसल इन अकादमियों की स्वायत्ता की आड़ में अराजकता के खेल पर लगाम लगाने की जरूरत है । साहित्य और कला को लेकर जिस स्वायत्ता की कल्पना की गई थी उसको मूल रूप में स्थापित करने के प्रयास किए जाने चाहिए । अपने इस स्तंभ में मैंने अकादमियों के काम-काज पर कई बार टिप्पणी की है । इनके पुरस्कारों से लेकर विदेश यात्राओं तक में जिस तरह से बंदरबांट की जाती है उसपर अंकुश लगाए जाने की आवश्यकता है । अकादमियों के कामकाज का मूल्यांकन करने के लिए सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी की अध्यक्षता में वाली संसद की स्टैंडिंग समिति ने 17 अक्तूबर 2013 को राज्यसभा के सभापति और लोकसभा के अध्यक्ष को अपनी रिपोर्ट पेश की थी । इस रिपोर्ट को दोनों सदनों के पटल पर दो महीने बाद यानि 17 दिसबंर 2013 को पेश किया गया था । इस रिपोर्ट में अकादमियों के काम-काज को लेकर बेहद कठोर टिप्पणियां की गई थी । राष्ट्रीय अकादमियों और अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं का कार्यकरण- मुद्दे और चुनौतियों के नाम से तैयार की गई इस रिपोर्ट में साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के अलावा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र  के काम-काज का लेखा-जोखा तो प्रस्तुत किया ही था, साथ ही इन संस्थानों में सुधारों के बारे में सिफारिश भी की थी । दिसंबर 2013 के बाद तो पूरा देश चुनाव के मोड में चला गया था और चुनावी कोलाहल के बीच किसी को कला और संस्कृति की सुध लेने की फुरसत नहीं थी । संसद की इस रिपोर्ट के बाद एक हाईलेवल कमेटी भी बनी थी जिसने भी कुछ सुझाव आदि दिए थे लेकिन लगता है कि उनपर अमल नहीं हो पाया है । हाईलेवल कमेटी के सुझावों पर देशभर में गंभीर बहस की जरूरत है ।
संसदीय समिति ने अपने प्रतिवेदन में माना था कि-  ये अकादमियां हमेशा से विवादग्रस्त रही हैं । हमारे संस्थापकों ने संस्कृति को राजनीति से दूर रखने के लिए इन्हें स्वायत्ता दी परंतु आज ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीति इनमें पिछले दरवाजे से गुपचुप तरीके से प्रवेश कर गई है । इन संस्थाओं के संस्थापकों को लेखकों और कलाकारों के समुदाय की एकता पर दृढ विश्वास था और वे आज इन संस्थाओं को बाधित करनेवाली समस्याओं का पूर्वानुमान नहीं लगा पाए । इसके परिणामस्वरूप प्रक्रिया में पारदर्शिता और परिणाम के संबंध में जवाबदेही का आभाव है । वस्तुत पारदर्शिता और जवाबदेही के बिना उसकी स्वायत्ता एक दुधारी तलवार बन गई है जिसको कोई भी अपनी सुविधानुसार प्रयोग कर सकता है ।अब अगर हम इस टिप्पणी के आलोक में ललित कला अकादमी और उसके सचिव का मामला देखें तो साफ हो जाता है कि इस पूरे मामले में ना केवल जमकर राजनीति बुई बल्कि स्वायत्ता के नाम पर भी तमाम तरह की गड़बड़ियों को अंजाम दिया गया । स्वायत्ता के नाम पर हर नियम का सुविधानुसार उपयोग किया गया । यूपीए सरकार के दौरान बनाए गए ललित कला अकादमी अध्यक्ष के उस फैसले को बदल दिया गया जिसमें उन्होंने सचिव सुधाकर शर्मा को बर्खास्त करने का आदेश दिया था । तब मंत्रालय ने तर्क दिया था कि इस मामले में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं हुआ । अब उसी सरकार ने फिर से ललिता कला अकादमी के सचिव सुधाकर शर्मा के कामकाज की जांच का एलान किया है । अकादमी के कमरे को सील कर दिया है ।
संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में कहा था कि अकादमियों और तमाम सांस्कृतिक संस्थानों के काम-काज पर नजर रखने के लिए एक नियंत्रक निकाय होना चाहिए । इस निकाय को यह सुनिश्चित करने का कार्य सौंपा जाना चाहिए कि सभी अकादमियों और संगठनों के प्रशासन उनके लिए निर्धारित नियमों तथा संविधानों के अनुसार कार्य संचालित कर रहे या नहीं । इस कमेटी ने कला के क्षेत्र में प्रेस परिषद की तरह की संस्था बनाने का सुझाव भी दिया था और उसके सदस्यों का चुनाव भी उसी की तर्ज पर करने की सिफारिश की थी । दरअसल कमेटी की इस सिफारिश के पीछे ये मंशा थी कि लेखक या कलाकार अगर अकादमियों में हो रही गड़बड़ियों की शिकायत करना चाहे तो उसके पास एक प्लेटफ़ॉर्म हो । लेकिन इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो पाया और ये अकादमियां गड़बड़ियों का जीता जागता उदाहरण बनकर शान से काम कर रही हैं । ललित कला अकादमी के सचिव पर तमाम तरह की गड़बड़ियों के आरोप लगे, कई बार सस्पेंडसे लेकर बर्खास्त तक कर दिए गए लेकिन फिर से वो बहाल होते रहे । इस पूरे प्रकरण से यह साफ है कि सिस्टम में कहीं ना कहीं कोई ना कोई गड़बड़ी है । इस गड़बड़ी को दूर किए बिना इन अकादमियों को दुरुस्त नहीं किया जा सकता है । ललित कला अकादमी देश में कला के उत्थान और उन्नयन के लिए काम करती है लेकिन उसके कामकाज का नियमित ऑडिट होना जरूरी है । इस बात का लेखा-जोखा लिया जाना चाहिए की जिस मूल उद्देश्य के लिए उसकी स्थापना कि गई थी उस दिशा में वो आगे बढ़ पा रही है या नहीं । ललित कला अकादमी में अध्यक्ष और सचिव के बीच बहुधा ठनी रहती है जिसका नुकसान कलाकारों से लेकर कला तक को हो रहा है ।
ललित कला अकादमी के अलावा साहित्य अकादमी की सालों से चली आ रही नियमों को अपडेट करने की जरूरत है । जैसे साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और साधारण सभा के सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया बेहद दोषपूर्ण है । वहां हाथ उठाकर प्रत्याशियों का चयन कर लिया जाता है और बहुधा हर भाषा के लोग एक अलिखित समझौते के तहत अपनी भाषा के प्रतिनिधि का चुनाव कर देते हैं । इसमें पारदर्शिता बिल्कुल नहीं होती है और एक खास गुट के लोगों का कब्जा बरकरार रहता है । गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है । सरकार को इस दिशा में काम करने की जरूरत है । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और उसकी साधारण सभा के सदस्यों का चुनाव या तो बैलेट से हो या फिर उसके लिए कोई ऐसी प्रक्रिया बनाई जाए जो पारदर्शी हो और उसमें मनमानी की गुंजाइश नहीं रहे । सवाल वही है कि क्या सरकार में इन संस्थाओं की स्वायत्ता को बरकार रखते हुए गड़बड़ियों को दूर करने की इच्छाशक्ति है ।     
  



Friday, June 17, 2016

लाभ के पद को लेकर भ्रम

दिल्ली विधानसभा चुनाव में जब आम आदमी पार्टी ने सत्तर में से सड़सठ सीटें जीती थीं तब ना तो पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल को और ना ही उनके इक्कीस विधायकों को ये अंदाज रहा होगा कि उनको पांच साल के पहले एक बार फिर से चुनाव मैदान में जाना पड़ेगा । अब इस बात के आसार बन रहे हैं कि सड़सठ में से इक्कीस विधायकों को पांच साल के पहले ही जनता की अदालत में जाना पड़े । दरअसल ये पूरा मामला लाभ के पद से जुड़ा है । केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने 70 में से 67 सीटें जिताकर विराट बहुमत दिया था । इस विराट बहुमत और जनता की अन्य राजनीतिक दलों से नाराजगी की वजह से केजरीवाल सरकार ने केंद्र से दो दो हाथ करने की ठान ली थी । लंबे समय तक उपराज्यपाल से उनकी ठनी हुई है ।  दिल्ली की स्थिति देश के अन्य राज्यों से अलग है और यहां के नियम कायदे भी अलग हैं । केजरीवाल ने कई नियमों को चुनौती देने का जोखिम उठाना शुरू कर दिया । संविधान और कानून की व्याख्या अलग अलग तरीके से होने लगी । केजरीवाल सरकार ने कई नियमों को अदालत में तो कई को मीडिया के मंचों के पर चुनौती दी । इसी कोलाहल के बीच केजरीवाल सरकार ने अपने इक्कीस विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर दिया और अलग अलग मंत्रालयों से उनको अटैच कर दिया गया । उस वक्त तक दिल्ली में एक संसदीय सचिव नियुक्त करने का प्रावधान था । इस बारे में भी भ्रम की स्थिति है कि एक संसदीय सचिव भी लाभ के पद के दायरे में आता है या नहीं । बीजेपी के शासनकाल के दौरान नंदकिशोर गर्ग मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव बनाए गए थे लेकिन जब बाद में उसपर विवाद हुआ को उन्होंने पद छोड़ दिया था । इसी तरह से इस वक्त के दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अजय माकन भी शीला दीक्षित के संसदीय सचिव रह चुके हैं । तब लाभ के पद का मामला नहीं उछला था । लेकिन जब केजरीवाल ने अपने इक्कीस विधायकों को संसदीय सचिव बनाया तो इसको लाभ का पद मानते हुए एक शख्स ने चुनाव आयोग के समक्ष याचिका दायर कर दी । विवाद बढ़ता देख दिल्ली सरकार ने विधानसभा में एक बिल पास करवाया जिसमें संसदीय सचिवों को लाभ के पद के दायरे से बाहर करते हुए इसको भूतलक्षी ( रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव से लागू कर दिया ताकि उनके विधायकों पर कोई आंच नहीं आए । लेकिन इस बिल को राष्ट्रपति ने मंजूरी देने से इंकार कर दिया ।

राष्ट्रपति के इंकार करने के बाद दिल्ली की आम आदमी पार्टी और उसके सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल आगबबूला हैं और प्रधानमंत्री मोदी पर अपनी सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगा रहे हैं । बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों एक दूसरे पर बयानों की तीरंदाजी कर रहे हैं । आम आदमी पार्टी को लग रहा है कि उनके इक्कीस विधायक गंभीर संकट में फंस गए हैं तो वो इसका भी राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं । हर बार की तरह इस बार भी उनके निशाने पर सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं ।  दरअसल इस मसले पर. ऐसा लगता है कि, आम आदमी पार्टी से गलती हो गई है लेकिन अपनी गलती को छुपाने के लिए अब इस तरह की दलीलें भी दी जा रही हैं कि उनके विधायकों ने किसी प्रकार का कोई धनालाभ या अन्य आर्थिक लाभ सरकार से नहीं लिया । कहा तो यहां तक जा रहा है कि उनके विधायकों ने संसदीय सचिव के लिए बने दफ्तरों का इस्तेमाल भी नहीं किया । लेकिन इस मामले में शिकायतकर्ता का दावा है कि उनके पास एक आरटीआई का जवाब है जिसमें बताया गया है कि विधानसभा परिसर में इन सभी इक्कीस संसदीय सचिवों को दफ्तर के लिए कमरे अलॉट किए गए थे । ये सारा मामला अब चुनाव आयोग के समक्ष है और वो सभी विधायकों का पक्ष सुनने के बाद अपना फैसला सुनाएगा । विशेषज्ञों का मानना है कि चुनाव आयोग को फैसला लेने में करीब छह माह का समय लग सकता है । तबतक राजनीति की बिसात पर शह और मात का खेल चलता रहेगा । लेकिन यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि दो हजार छह में सोनिया गांधी ने जब राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष का पद संभाला था तब उनको लेकर भी सवाल खड़े हुए थे और उन्होंने रायबरेली के सांसद के तौर पर इस्तीफा देकर फिर से चुनाव लड़ा था । इसी तरह से समाजवादी पार्टी की राज्यसभा सांसद जया बच्चन भी जब यूपी फिल्म विकास निगम की अध्यक्ष नियुक्त की गई थी तब उनकी सदस्यता भी गई थी । बाद में वो फिर से चुनकर आई थी । इसलिए यह माना जाना चाहिए कि दिल्ली में इक्कीस सीटों पर फिर से चुनाव होना लगभग तय है, वक्त चाहे जितना लगे । दरअसल संसदीय सचिवों को लेकर हर राज्य में अलग अलग कायदे कानून हैं । पूर्वोत्तर के कई राज्यों में जहां साठ विधायकों वाली विधानसभा है वहां भी अठारह संसदीय सचिव हैं लेकिन जब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने दो हजार तेरह में तेरह संसदीय सचिवों की नियुक्ति की तो कलकत्ता हाईकोर्ट ने उसको जून दो हजार पंद्रह में रद्द कर दिया जबकि ये नियुक्तियां दो हजार बारह के एक कानून के तहत की गई थी । कई राज्यों के हाईकोर्ट ने संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को रद्द कर दिया है जिसके खिलाफ राज्यों की कई अपील सुप्रीम कोर्ट में लंबित है । हिमाचल प्रदेश का मामला तो 2005 से सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है । इस मामले में अलग अलग राज्यों में भ्रम की स्थिति होने से अब वक्त आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान की उचित व्याख्या कर स्थिति को साफ करे ।     

Saturday, June 11, 2016

प्रवासी साहित्य के झंडाबरदार ·

हिंदी में पिछले कई सालों से प्रवासी साहित्य को लेकर काफी कोलाहल है । विदेशों में रहनेवाले हिंदी भाषी कई लेखक अपनी लेखनी से समकालीन साहित्य में सार्थक तो कई अपने क्रियाकलापों से निरर्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं । लेखनी से हस्तक्षेप का स्वागत होता है लेकिन जब विदेशों में रहनेवाले लेखक अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए साहित्य के नाम पर व्यूहरचना रचते हैं तो वो खुद को ही साहित्य में हल्का कर लेते हैं । यह बात बार-बार साहित्य में साबित हो चुकी है कि आयोजनों से कोई साहित्य में अपनी जगह नहीं बना सकता है । ज्यादा ज्यादा से वो साहित्य का इवेंट मैनेजर या फिर साहित्यप्रेमी का दर्जा प्राप्त कर सकता है । अव्वल तो इस बात पर ही बहस होती रही है कि साहित्य साहित्य है वो प्रवासी लिखें या आवासी लेकिन विदेशों में रहनेवाले कई लेखक बहुधा इस बात को उपरी तौर पर मानते हैं कि साहित्य में इस तरह वर्णव्यवस्था नहीं होनी चाहिए लेकिन उनकी आंतरिक इच्छा होती है कि साहित्य में उनको प्रवासी साहित्यकार का दर्जा मिले ताकि भारत सरकार समेत तमाम तरह की संस्थाओं आदि से पुरस्कार सम्मान हासिल कर सकें । हिंदी में प्रवासी साहित्यकारों को लेकर बीच बीच में काफी हो हल्ला मचता रहता है लेकिन इसपर गंभीर काम कम ही होता है । कभी कभा निजी प्रयास से पत्रिका आदि के अंक सामने आ जाते हैं । राकेश पांडेय अवश्य इस दिशा में गंभीरता से काम कर रहे हैं और समय-समय पर वो अपनी पत्रिका के जो अंक निकालते हैं वो बेहद उम्दा होते हैं ।लेकिन उनके इस प्रयास को और मजबूत करने की जरूरत है । हिंदी साहित्य की गंगा प्रवासी साहित्य को अपने साथ लेकर चलती है और उसको उचित सम्मान भी देती है लेकिन अब वक्त आ गया है कि इन प्रवासी साहित्यकारों से पूछा जाना चाहिए कि वो हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए उन देशों में क्या कर रहे हैं जहां वो रहते हैं । विदेशों में हिंदी साहित्य की अपनी दुकान चलाने के अलावा वो हिंदी के बढ़ावा देने के लिए या उसके विस्तार के लिए क्या कर रहे हैं । क्या हिंदी को विश्वभाषा बनाने के हिंदी भाषी लोगों के सपनों को पूरा करने के लिए वो अपनी तरफ से कोई योगदान कर रहे हैं ।
हाल ही में फेसबुक से ये जानकारी मिली कि ब्रिटेन में रह रही कवयित्री शिखा वार्ष्णेय हर रविवार को हिंदी की एक कहानी वहां के एक रेडियो स्पाइस बॉक्स पर पढ़ती हैं और हिंदी कहानी के प्रचार प्रसार में जुटी हैं । रेडियो स्पाइस बॉक्स पर कथासागर के नाम से चलनेवाले इस साप्ताहिक कार्यक्रम का प्रसारण इंटरनेट के जरिए भारत, अमेरिका और युनाइटेड किंगडम में होता है जिसको अलग अलग समय पर सुना जा सकता है । पश्चिमी देशों में निजी रेडियो चैनल पर साहित्य के लिए जगह बनाना और हर हफ्ते किसी हिंदी कहानीकार का चयन कर उसको आवाज देना एक श्रमसाध्य कार्य है । हाल के दिनों में इस कार्यक्रम में उसने साहित्य की अन्य विधाओं को शामिल करना शुरू किया है । इस तरह के कार्यक्रमों से हिंदी को विस्तार मिलता है । विदेशों में प्रवासियों के बीच समकालीन हिंदी साहित्य को पहुंचाकर शिखा एक बेहद महत्वपूर्ण काम कर रही है । ये बात कल्पना से परे थी कि पटना के कहानीकार रत्नेश्वर की कहानी अमेरिका और युनाइटेड किंगडम में रेडियो पर सुनाई जाएगी । क्या नवोदित लेखिका सोनाली मिश्रा ने ये सोचा होगा कि उसकी रचना को विस्तार का ये क्षितिज हासिल होगा लेकिन रेडियो स्पाइस ने इसको मुमकिन बनाया है । संभव है कि इस तरह के और भी कार्यक्रम चल रहे हों जिसकी जानकारी हमें नहीं है लेकिन जिसकी जानकारी हो उसकी हिंदी साहित्य जगत को नोटिस लेनी चाहिए और उनके प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए । इस प्रयास की एक खास बात यह भी है कि इससे हिंदी के प्रसार और विस्तार के अलावा कोई निजी स्वार्थ नहीं सधता है । वर्ना तो इस तरह की कोशिशों को भुनाने की भी खबरें आती रहती हैं । विदेशों में दिए जानेवाले पुरस्कार के एवज में देश में सम्मान आदि की खबरें आम हैं । दावा चयन में पारदर्शिता को अवश्य होता है लेकिन कभी भी निर्णायकों की सूची और उनकी संस्तुति वगैरह सामने आई हो स्मरण नहीं आता । आप हमें दो हम आपको देगें की तर्ज पर पुरस्कारों का खेल चल रहा है । दरअसल ये हिंदी के नाम पर चलनेवाला कारोबार है । इस तरह के हिंदी के कारोबारियों को भी चिन्हित किया जाना चाहिए ।
रेडियो के अलावा कई देशों में हिंदी के लोग साहित्यक पत्र-पत्रिकाओं को प्रकाशन भी करते हैं । भारतीय गिरमिटिया जहां जहां गए और उस देश को अपना बनाया वहां वहां हिंदी को लेकर छोटे-छोटे प्रयास होते रहे हैं और अब भी हो रहे हैं चाहे वो सूरीनाम हो, फिजी हो त्रिनिदाद-टुबैगो हो या फिर गुयाना हो या दक्षिण अफ्रीका हो । यह काम सलंबे समय से हो रहा है लेकिन अपेक्षा को उन हिंदी भाषियों से है जो अमेरिका, स्विट्जरलैंड, फ्रांस आदि जगहों पर जाकर बसे । अमेरिका आदि में हिंदी को लेकर छिटपुट प्रयास हो रहे हैं । व्यक्तिगत स्तर पर हिंदी के लेखकों को वहां बुलाकर सम्मानित कर देने और छोटी मोटी गोष्ठियां कर देने की खबरें आती रहती हैं लेकिन हिंदी को आगे बढ़ाने को लेकर कोई ठोस पहल की खबरें नहीं आती हैं ।  कनाडा में रह रही लेखिका सुधा ओम ढींगरा भी हिंदी को विस्तार देने के लिए प्रयासरत दिखाई देते हैं लेकिन उनकी पत्रिकाओं और पुस्तकों में फोकस उनपर या उनकी रचनाओं पर ही ज्यादा होता है । यहां तक तो ठीक है लेकिन कनाडा में हिंदी के लिए जो हो रहा है उससे भारत में रह रहे हिंदी भाषियों को परिचित करवाना चाहिए । भारत में निकल रही सैकड़ों साहित्यक पत्रिकाओं की तरह एक और पत्रिका निकालकर हिंदी का विदेश में विस्तार संभव नहीं है । दरअसल प्रवासी साहित्य और साहित्यकारों को कसौटी पर कसा जाना चाहिए । कसौटी हिंदी की हो और कसनेवाले निरपेक्ष साहित्यकार हों जो विदेश जाने के लाभ-लोभ और पुरस्कृत होने की आकांक्षा से मुक्त हों । नतीजा जो हो भी निकले उससे प्रवासी साहित्य का तो भला होगा ही प्रवासी साहित्यकारों की साख में भी इजाफा होगा ।    


हिंदी के बुढ़ाते युवा लेखक

बात  नब्बे के शुरुआती दशक की रही होगी, संभवत उन्नीस सौ तिरानवे की । उस वक्त राजेन्द्र यादव के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका हंस की हिंदी साहित्य में तूती बोलती थी । यादव जी अपनी पत्रिका में नए नए प्रयोग के उसको नई ऊंचाई प्रदान कर रहे थे । आमतौर पर उन दिनों हंस के प्रकाशन की तिथि के आसपास पत्रिका के कार्यालय चला जाता था । उसका एक फायदा यह होता था कि डाक डाकुओं के प्रकोप से पत्रिका बच जाती थी और वक्त से पहले हंस पढ़ने की चाहत भी पूरी हो जाती थी । ऐसे ही एक दिन हंस का अंक छप कर आया था । अंत उलटते पलटते उसमें एक महिला कथाकार की तस्वीर पर नजकर गई । सालों पुरानी तस्वीर छपी थी बल्कि यों कहें कि उनकी उस जमाने की तस्वीर छपी थी जब वो युवा रही होंगी । उस वक्त वो अपने उम्र के चौथे वय में थीं लेकिन यादव जी हंस के पन्नों पर उनको जवान बनाए हुए थे । मैंने यादव जी से चुटकी ली और उसकी वजह जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि अरे वो तो अभी युवा लेखिका है । मेरे अनुमान के मुताबिक जिस यादव जी उनको युवा बता रहे थे उस वक्त वो पैंसठ के आसपास की रही होंगी । यादव जी ने इस तरह के कई युवा लेखक हिंदी साहित्य को दिए । मुझे हमेशा ऐसा लगता रहा कि उनका मानना था पाठक कगानीकार की फोटो देखकर कहानियां पढ़ लेते हैं या इसको इस तरह भी कहा जा सकता है कि कहानीकारों की ग्लैमरस फोटो देखकर पत्रिका भी खरीद लेते हैं । इसी सोच के तहत यादव जी लेखिकाओं की तरुणाई की तस्वीरें छापते रहे और उन्होंने युवा लेखक के बारे में साहित्य में एक भ्रम की स्थिचि पैदा की । जवानी की तस्वीरें देख-देख कर रचनाकार खुद तो युवा मानचा रहा और साथी लेखकों से ये अपेक्षा भी करता रहा कि उसे युवा लेखक माना जाए । दूसरी ओर रवीन्द्र कालिया ने युवाओं पर एक के बाद एक कई अंक निकालकर हिंदी साहित्य तो युवामय कर दिया था । दर्जनों लेखक तब से लेकर अबतक युवा ही बने हुए हैं । कालिया जी ने जिलस तरह से युवा लेखकों की फौज खड़ी की थी उससे तई बेहतरीन लेखक निकल कर आए लेकिन जो बच गए वो सिर्फ युवा लेखन की दुकान खोलकर साहित्य में अपने उत्पादन को खपाने की फिराक में रहते हैं । रवीन्द्र कालिया ने कभी सोचा नहीं होगा कि उन्होंने जिन युवा लेखकों को मंच देकर साहित्य की दुनिया में लांच किया था वो लॉंचिंग पैड पर ही जमकर बैठ जाएंगे । इसी तरह से 27-28 दिसबंर 1970 में पटना में एक विशाल युवा लेखक सम्मेलन हुआ था । उस दौर के सभी चर्चित युवा लेखकों को उसमें बुलाया गया था । उस वक्त भी युवा लेखकों को लेकर भ्रम की स्थिति बनी थी लेकिन मोटेतौर पर चालीस के आसपास के लेखकों को बी उसमें बुलाया गया था । कुछ अपवाद अवश्य थे । जैसे नामवर सिंह तैंतालीस के थे । परंतु ज्यादातर लेखक तीस साल के थे जिनमें अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, वेणुगोपाल. इब्राहिम शरीफ आदि थे । तब नागार्जुन को उसमें बुलाया गया था परंतु उन्होंने तब लिखा था या कहा था कि वो युवा लेखक सम्मेलन में बूढ़े बंदर की तरह इधर उधर डोलना नहीं चाहते हैं । उस वक्त जिन युवा लेखकों की पहचान की गई थी उसमें से ज्यादातर कालांतर में हिदीं साहित्य के मूर्धन्य कवि, कहानीकार और आलोचक के तौर पर स्थापित हुए ।      
दरअसल हिंदी साहित्य में युवा लेखकों को लेकर बेहद भ्रम की स्थिति है । पचास पार के लेखक अबतक खुद को युवा कहलवाना चाहते हैं । इस चाहत का असर ये होता है कि वो साठ-पैसठ तक आते आते भी लेखन में बौआ जी बने रहते हैं । हिंदी के इस तरह के कथित युवा लेखकों की स्थिति बिहार के जमींदार परिवार के बौआ जी जैसी होती है । बिहार के जमींदार परिवारों में अक्सर देखा जाता है कि जमींदार साहब के घर जब बेटा पैदा होता है तो उसको प्यार से उनके घरवाले और जमींदारी के सारे लोग बौआजी कहकर बुलाते हैं । तरुणाई खत्म होते होते बौआ जी की शादी कर दी जाती है और साल दो साल में बौआजी पिता भी बन जाते हैं । बौआजी की उम्र बढ़ती जाती है लेकिन पिता के जीवित रहने की वजह से उनको जमींदारी के काम-काज को करने का मौका नहीं मिल पाता है । वक्त बीतने के साथ साथ बौआ जी का पुत्र बड़ा होने लगता है और उसके दादा जी प्यार प्यार में उसको धीरे-धीरे जमींदारी के गुर सिखाने लग जाते हैं । इन सबसे बेखबर बौआजी तो बौआजी ही बने रहते हैं वो भी सोचते हैं कि चलो अच्छा है बेटा काम-काज सीख रहा है । इस चक्कर में जमींदार साहब के निधन या उनके बहुत बुजुर्ग होने की वजह से उनके पोते को जमींदारी की कमान मिल जाती है और बौआजी बेचारे पिता और पुत्र के बीच के सत्ता हस्तांतरण के गवाह बनकर रह जाते हैं क्योंकि वो अधेड़ हो चुके होते हैं । हिंदी की इस वक्त की कथित युवा पीढ़ी भी बौआजी सिन्ड्रोम से गुजर रहा है । पिछली पीढ़ी अब  तक जीवित और सृजनरत है और अगली पीढ़ी तैयार हो चुकी है यानि कई कथित युवा लेखक बौआजी ही बने रह गए हैं । मतलब ये कि पचास पचपन के अधेड़ होने के बावजूद वो युवा ही बने हैं या बने रहना चाहते हैं, जिसका नतीजा सबके सामने है ।
हिंदी साहित्य में युवा लेखक की कोई उम्र सीमा तय नहीं है । पचास तक तो युवा ही माना जाता है । पिछले दिनों एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में गया था तो वहां जिस लेखिका की किताब का विमोचन हो रहा था उनके बेटी दामाद भी मौजूद थे लेकिन संचालनकर्ता बार-बार उनको युवा लेखिका कह रहा था । जब जब संचालनकर्ता उनके नाम के पहले युवा शब्द का उद्घोष करता तो लेखिका महोदय के चेहरा दमकने लगता । इस तरह के कई वाकए आपको साहित्य से जुड़े आयोजनों में जाने पर देखने को मिल सकते हैं । हिंदी के इन अधेड़ लेखकों को युवा कहलवाने की क्या जरूरत है यह बात आजतक मेरे समझ से बाहर की रही है । इन अधेड़ लेखकों की इस चाहत को समझते हुए युवाओं को मंच देनेवाले कई संस्था साहित्य में सक्रिय हैं । वो खुद को युवाओं का माल बेचने वाले दुकानदार के तौर पर पेश करते हैं । तीस के आसापास के उम्र के लेखकों की रचनाओं के साथ साथ इन बुढ़ाते लेखकों की रचनाएं आदि छापकर उनकी युवा बने रहने की आकांक्षा को तृप्त करते रहते हैं । यहां वो भी राजेन्द्र यादव की राह पर चलते हुए लेखिकाओं और लेखकों की उन तस्वीरों को तवज्जो देते हैं जिनमें बालों की सफेदी ना दिखाई दे । वैसे भी हिंदी साहित्य में बालों की सफेदी को छुपाने का जबरदस्त रिवाज है । इसका फायदा यह होता है कि दूर-दराज के जो पाठक इन मंचों पर पहुंचते हैं और इन कथित युवा लेखकों या लेखिकाओं से मिले नहीं होते हैं वो उनको युवा मान लेते हैं और रचनाओं पर प्रतिक्रिया देते वक्त भी युवा छवि को ध्यान में रखते हैं । इन अधेड़ लेखकों को युवा बनाए रखने में पाठकों की प्रतिक्रियाएं संजीवनी का काम करती हैं । रही सही कसर फेसबुक पूरी कर देती है जहां युवा की परिभाषा किसी चौहद्दी में नहीं बांधी जा सकती है । बस आपके चार छह लेखकनुमा फेसबुकिया गुंडे आपके साथ खड़े हों जो सच कहनेवालों के खिलाफ अंटशंट लिखकर उनको अपमानित कर सकें । इनके दम पर आप जबतक चाहें युवा बने रह सकते हैं । दरअसल एक और बड़ी बिडंवना इनके साथ है ये खुद को मौके बे मौके वरिष्ठ कहलवाना भी पसंद करते हैं और युवाओं के संग युवा होने का मौका भी नहीं गंवाते हैं । इस वक्त पूरे देश में साहित्य से लेकर राजनीति तक में राग युवा बजाया जा रहा है तो हिंदी के अधेड़ साहित्यकार भी इस राग में शामिल होना चाहते हैं ।

इस बात पर गंभीरता से विचार होना चाहिए कि हिंदी के युवा लेखक की अधिकतम उम्र कितनी होनी चाहिए । क्या आज हिंदी के किसी लेखक में ये साहस है कि वो नागार्जुन की तरह युवाओं के नाम पर होनेवाले अखिल भारतीय आयोजन में जाने से इंकार कर दे । फिलहाल तो ऐसा कोई लेखक या लेखिका दिखाई नहीं देता है । युवा की अगर शब्दकोश की परिभाषा को छोड़ भी दें तो एक सीमा तो होनी चाहिए । हिंदी के मृतप्राय लेखक संगठनों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वो इस तरह की कोई पहल करेंगे । पहल तो खुद साहित्यकारों को ही करनी होगी और युवा कहलवाने के लाभ लोभ को त्यागना होगा । 

Wednesday, June 8, 2016

स्टार्टअप को संभालने की जरूरत

केंद्र में मोदी सरकार के दो साल पूरे होने के मौक पर जारी जश्न के बीच कुछ अहम बातें कहीं गुम सी हो गई हैं । सरकार ने पिछले दो सालों में स्टार्ट अप इंडिया को लेकर परिश्रमपूर्वक माहौल बनाया । स्टार्टअप कंपनियों के कर्ताधर्ताओं को लेकर दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम कर नए लोगों को प्रोत्साहित किया गया । सरकार ने स्टार्टअप को टैक्स आदि में कई सहूलियतें भी दी थी लेकिन चंद महीनों में ऐसा लगता है कि स्टार्टअप में निवेशकों की रुचि कम होने लगी है । यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि स्टार्टअप का हश्र दो हजार एक के डॉट कॉम के बुलबुले जैसा होने वाला है लेकिन जो संकेत मिलने लगे हैं वो खतरे की घंटी तो बजा ही रहे हैं । किसी भी प्रोजेक्ट के लिए इंवस्टेमेंट उसकी लाइफलाइन होती है लेकिन जब निवेश कम होने लगे तो ये समझा जाना चाहिए कि निवेशकों का भरोसा कम होने लगा है ।जिस तरह से स्टार्टअप प्रोजेक्ट्स में वेंचर कैपिटलिस्ट यानि निवेशकों की रुचि कम हो रही है या जिस तरह से वो कंपनियों के सामने अपनी अपेक्षाओं का पहाड़ खड़ा कर रहे हैं वह नई कंपनियों के लिए बेहद जटिल है । ना सिर्फ वेंचर कैपटलिस्ट बल्कि अन्य निवेशकों ने भी भारतीय स्टार्टअप से हाथ खींचना शुरू कर दिया है । जिस अमेरिकी म्युचुअल फंड कंपनी टी रो प्राइस ने पिछले साल दिसंबर में फ्लिपकार्ट में करीब सौ मिलियन डॉलर निवेश किया था उसने कंपनी में अपनी हिस्सेदारी पंद्रह फीसदी कम कर ली । भारतीय स्टार्टअप कंपनियों के लिए आदर्श रही फ्लिपकार्ट के लिए ये एक झटके से कम नहीं था । इसके पहले मोर्गन स्टेनली ने भी फ्लिपकार्ट में अपना शेयर पंद्रह फीसदी कम कर लिया था । फिल्पकार्ट पर इसका असर भी दिख रहा है । बड़े संस्थानों से कैंपस प्लेसमेंट के नाम पर मोटी सैलरी पर जिनको नौकरी का वादा किया गया था उसको स्थगित कर दिया गया है । इससे कुछ संकेत तो मिलते ही हैं । फिल्पकार्ट का उदाहरण सिर्फ इसलिए दिया गया है कि वो भारतीय स्टार्टअप इकोसिस्टम का एक बेहद अहम हिस्सा है ।
दरअसल अगर हम स्टार्टअप में निवेश को देखें तो पिछले तिमाही की तुलना में इस साल की पहली तिमाही में वेंचर कैपटलिस्ट और पीई फंड्स ने डेढ़ बिलियन डॉलर का निवेश किया । ये पिछले तिमाही की तुलना में करीब चौबीस फीसदी कम है । निवेश के बारे में जानकारी रखनेवालों का कहना है कि चौबीस फीसदी कम निवेश बेहद चिंता की बात है और उसको ठीक करने के लिए फौरन कदम उठाने की जरूरत है । दरअसल ये चिंता सिर्फ भारतीय कंपनियों के लिए ही नहीं है । एशिया में ही अगर हम देखें तो पिछले दो तिमाही से लगातार निवेश में भारी कमी दर्ज की गई है और ऐसा दो हजार बारह के बाद पहली बार हो रहा है । अगर अंतराष्ट्रीय मीडिया की खबरों को माने तो स्टार्टअप कंपनियों में वेंचर कैपटलिस्ट, प्राइवेट इक्यूटि प्लेयर्स, म्युचुअल फंड आदि का निवेश पूरी दुनिया में कम हो रहा है । ऐसा नहीं है कि टी रो प्राइस ने सिर्फ फ्लिपकार्ट को झटका दिया है बल्कि उसने तो उबर समेत कई अमेरिकी स्टार्टअप कंपनियों में भी अपना शेयर कम किया है । इसका मतलब है कि बाजार के ये खिलाड़ी स्टार्ट अप्स को लोकर बहुत उत्साहित नहीं है ।
दरअसल अगर हम हमारे देश की स्टार्ट अप कंपनियों को देखें तो ये साफ तौर नजर आता है कि इन कंपनियों ने अपना विस्तार नहीं ढूंढा । सामानों की खरीद फरोख्त के प्लेटफॉर्म का मॉडल हमारे सामने था औपर हर कोई इस मॉडल को अपनाते हुए उसको भुनाना चाहता था । हमारे यहां स्टार्टअप में बहुत प्रयोग नहीं किए जा रहे है कोई नई तकनीक का विकास नहीं किया जा रहा । यहां ज्यादातर स्टार्ट अप वैश्विक स्तर पर सफल हो चुकी कंपनियों के मॉडल की नकल में शुरू हो रहे हैं जो थोड़ा बहुत भारतीय ग्राहकों की जरूरतों और रुचियों का ध्यान रखते हैं । वेंचर कैपटलिस्टों को हमेशा से नई तकनीक और प्रयोग लुभाते रहे हैं और वो उसमें निवेश करते रहे हैं । भारतीय जरूरतों और परिस्थितियों के मुताबिक स्टार्टअप को ढालने और उसको जनता के बीच ले जाने की जरूरत है । देश में इन दिनों सूखा पड़ा है लेकिन पानी के प्रबंधन को लेकर कोई स्टार्टअप है नहीं । इस दिशा में अगर अब भी काम शुरू हो तो निवेशकों को आकर्षित किया जा सकता है । पानी का मैनेजमेंटआने वाले दिनों में भारत में एक बड़े सेक्टर के तौर पर उभर कर सामने आने वाला है । इस बात को ध्यान रखा जाना चाहिए कि वेंचर कैपटलिस्ट भविष्य का आंकलन कर निवेश करते हैं । साइबर सुरक्षा पर भी कम काम हो रहा है जबकि ये कई देशों में सफल बिजनेस मॉडल है ।

अब हम हमारे बड़ी स्टार्टअप कंपनियों को देखते हैं तो पाते हैं कि उनमें से ज्यादातर इंटरनेट सॉफ्टवेयर सर्विसेज पर आधारित हैं ।  इससे उलट अगर हम इजरायल की स्टार्टअप कंपनियों को देखें तो वहां ज्यादातर कंपनियां साइबर सुरक्षा, स्वास्थ्य, और सर्विसेज सेक्टर में है । इजरायल की स्टार्टअप कंपनियों की सफलता के पीछे की वजह स्टार्टअप की क्षितिज का विस्तार है । केंद्र सरकार ने कई स्कीमों को बेहतर सोच के साथ शुरु किया लेकिन उस सोच को जमीनी स्तर पर उतारने के लिए उस तरह के लोगों को सामना आना होगा । स्टार्टअप इंडिया को सफल बनाने के लिए टैक्स आदि में छूट देना तो ठीक है लेकिन इस स्कीम को स्किल इंडिया से जोड़कर कुछ नई योजना को बढ़ावा देना होगा । सरकार को निवेशकों का भरोसा कायम करने की दिशा में भी काम करना होगा । स्टार्ट अप्स के पास जो पैसा आ रहा है वो उसको डिस्काउंट के तौर पर ग्राहकों को देकर वॉल्यूम बढ़ाते हैं । निवेशकों को ये मॉडल सही नहीं लग रहा है क्योंकि ज्यादा डिस्काउंट से प्रोफिट का मार्जिन कम हो जाता है । सरकार को स्टार्टअप के निवेश को रेगुलेट करने के लिए कदम उठाने चाहिए । 

Saturday, June 4, 2016

बाल साहित्य को मिले अहमियत

अभी हाल ही में अंग्रेजी के लेखक देवदत्त पटनायक की बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी दो किताबें प्रकाशित होकर बाजार में आई हैं । दोनों ही किताबें भारतीय विरासत और मिथकीय चरित्रों को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं । इनको बच्चों के लिए रुचिकर बनाने के लिए देवदत्त पटनायक ने स्केच के माध्यम से कहानी कही है और बच्चों को उन रेखाचित्रों में रंग भरने का विकल्प दिया गया है । मजे के साथ कहानी या खेल खेल के साथ पढाई । अब इन दोनों किताबों को देखकर मेरे मन में हिंदी प्रकाशन और लेखक जगत को लेकर कई प्रश्न अंकुरित होने लगे । किस तरह से अंग्रेजी के प्रकाशक योजनाबद्ध तरीके से पाठकों को और उनकी सहूलियतों को ध्यान में रखकर प्रकाशन करते हैं । स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां हो गईं तो बच्चों को वक्त बिताने के लिए कुछ चाहिए । इसी चाहत की पूर्ति के लिए देवदत्त पटनायक की दो किताबें बाजार में पेश कर दी गई । यहीं आकर हमारा हिंदी प्रकाशन जगत पिछड़ जाता है । वहां योजनाबद्ध तरीके से ज्यादातर प्रकाशक काम नहीं करते हैं । काल और परिस्थिति के मद्देनजर पुस्तकों के प्रकाशन की योजना नहीं बनती बल्कि लेखक और किताब के आधार पर प्रकाशन को प्राथमिकता दी जाती है । इसी तरह से दो हजार सात में जब देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम की डेढ सौवीं सालगिरह आई थी तो अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति पर अंग्रेजी में कई किताबें आई थीं । ऐसा कई मौकों पर देखने को मिलता है कि अंग्रेजी के प्रकाशन अग्रिम योजना बनाकर उसपर अमल करने में हिंदी के प्रकाशकों से आगे निकल जाते हैं । इस पर हिंदी के प्रकाशकों को ध्यान देना चाहिए । अब एक दो प्रकाशकों ने योजनाबद्ध तरीके से किताबें लिखवाने का काम शुरू किया है जिसे हम हिंदी प्रकाशन जहत के लिए सुखद संकेत मान सकते हैं ।

दूसरी बात यह है कि हिंदी में बाल साहित्य पर बहुत काम ध्यान दिया जाता है । बाल साहित्य लिखने वाले चुनिंदा लेखक हैं । एक बार गुलजार ने कहा था कि बाल साहित्य लिखना बेहद चुनौतीपूर्ण काम है और लेखकों को इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए । हिंदी में बाल साहित्य की बेहद कमी है । घूम फिरकर पंचतंत्र आदि की कहानियां ही छपती रहती हैं । टी एस इलियट ने कहा था कि केवल अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता है बल्कि वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है । इलियट के इस तर्क के आधार पर अबतक हर युग में साहित्य का मूल्यांकन हुआ है  लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी में बाल साहित्य की उपलब्धता के आलोक में भी इस कथन को देखा जाना चाहिए । हिंदी में हम पाठकों की कमी का रोना रोते हैं लेकिन उसके मूल कारण में जाने की जरूरत महसूस नहीं करते हैं । हिंदी में रुचिकर बाल साहित्य के कम सृजन की वजह से बच्चे अंग्रेजी में लिखे जा रहे बाल साहित्य की ओर चले जाते हैं । इसकी और भी वजहें संभव है लेकिन यह भी एक वजह है । हम यह कह सकते हैं कि बाल साहित्य बच्चों को साहित्य की ओर ले जाने की नर्सरी है । हिंदी के ज्यादातर लेखक बाल साहित्य को कम अहमियत देते हैं उनको लगता है कि उनके नाम के साथ अगर बाल साहित्यकार लग गया तो उन्हें मुख्यधारा के साहित्यकारों के बीच अहमियत नहीं मिलेगी । इस मानसिकता और मनोविज्ञान ने हिंदी के लेखकों को बाल साहित्य से दूर किया । अंग्रेजी में ऐसा नहीं है । देवदत्त पटनायक जैसा मशहूर लेखक बाल साहित्य सृजन कर रहा है । इस बात को मजबूती के साथ रेखांकित किया जा सकता है कि अगर हिंदी में बाल साहित्य प्रचुरता में उपलब्ध होता तो हिंदी के पाठकों की कमी का रोना ना तो प्रकाशक रोते और ना ही लेखक । 

संस्कृति के नाम पर फिजूलखर्ची ?

दिल्ली में एक अकादमी है, नाम है हिंदी अकादमी । दिल्ली के मुख्यमंत्री इसके अध्यक्ष हैं और हिंदी की मशहूर और वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा इसकी उपाध्यक्ष हैं । दिल्ली में हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति के संवर्धन, प्रचार प्रसार और विकास के उद्देश्य से उन्नीस सौ इक्यासी में एक स्वायत्तशासी संस्था के तौर पर इसका गठन किया गया था । हिंदी अकादमी का दावा है कि ये अपने गठन के समय से ही भाषाई, सांस्कृति और साहित्यक गतिविधियों के प्रचार प्रसार में अहम भूमिका निभाती रही है । हिंदी अकादमी की बेवसाइट पर मौजूद उसके लक्ष्यों और उद्देश्यों के मुताबिक इसको भाषा साहित्य और संस्कृति के कार्यक्रमों को कार्यरूप में लाना है । इसके अंतर्गत दिल्ली के प्राचीन तथा समकालीन साहित्य का संकलन, परिरक्षण और उसके सृजन के लिए प्रोत्साहन का कार्य सम्मिलित है । इसके अलावा भी इसकी बेवसाइट कई तरह के कार्यों को करने का दावा करती है जिसमें वयोवृद्ध उच्च कोटि के साहित्यकारों को पुरस्कृत करने से लेकर, साहित्यक कार्यक्रमों और गोष्ठियों का आयोजन, साहित्यक पत्रिका का प्रकाशन और युवा लेखकों को प्रकाशन योजना के अंतर्गत सहायता देना शामिल है । हिंदी अकादमी ने पूर्व में क्या काम किया इसपर जाने का ना तो वक्त है और ना ही अवसर लेकिन इस मौके पर टी एस इलियट की एक उक्ति अवश्य याद आ रही है – केवल अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता है, वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है । हिंदी अकादमी के संदर्भ में ये दोनों बातें सही हैं । अतीत की आड़ में हिंदी अकादमी में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो कि अपेक्षित नहीं है और जो वर्तमान है वो अतीत के क्रियाकलापों पर फिर से कसौटी पर कसने की चुनौती दे रहा है । जब से मैत्रेयी पुष्पा ने हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पदभार संभाला है तब से कार्यक्रमों के आयोजन से उसकी सक्रियता नजर आ रही है । बाताया जा रहा है कि हिंदी के विकास के लिए स्कूलों कॉलेजों में भी कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं । अच्छी बात है । लेकिन अभी एक ऐसा मामला सामने आया है जो हिंदी अकादमी के कार्यक्रमों, उसके घोषिथ उद्देश्यों और लक्ष्य से अलग हट कर है । होली के मौके पर हिंदी अकादमी ने कई विधायकों और मंत्रियों के क्षेत्रों में होली मिलन कार्यक्रम आयोजित किया था जिसको सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत शामिल कर खर्चे दिखाए गए थे । इलियट की उक्ति के आलोक में देखें तो हिंदी अकादमी सालों से इस तरह के कार्यक्रमों का खर्चा उठाती रही है । सालों से किसी ने इसपर सवाल नहीं उठाया कि होली मिलन से कैसे संस्कृति का संवर्धन और विकास होता है । ये सब अब भी चल रहा था लेकिन होली मिलन के नाम पर बीजेपी के सांसद और कलाकार मनोज तिवारी को आठ लाख रुपए के भुगतान के बाद इस तरह के कार्यक्रमों पर सवाल उठने लगे हैं । खबरों के मुताबिक मनोज तिवारी के लोकसभा क्षेत्र में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया था और संभवत यह दिल्ली के भाषा और संस्कृति मंत्री कपिल मिश्रा का विधानसभा क्षेत्र भी है । इस कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र के मुताबिक मुख्य अतिथि मशहूर कवि और आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास थे और मुख्य प्रस्तुति मनोज तिवारी की थी । निमंत्रण पत्र के मुताबिक निवेदक कपिल मिश्रा थे जो कि दिल्ली के भाषा और संस्कृति मंत्री हैं और हिंदी अकादमी उनके मंत्रालय के अधीन है । अब सवाल यही से खड़े होते हैं कि हिंदी अकादमी के कार्यक्रमों के निमंत्रण पत्र में , परंपरा के मुताबिक, निवेदक के तौर पर उसके सचिव का नाम छपता रहा है । इस बार खुद मंत्री का नाम कैसे छप गया । खैर ये बात छोटी लग सकती है लेकिन यहां से परंपरा टूटने और कुछ अलग हटके होने का संकेत मिलता है । इस कार्यक्रम के कार्ड पर उपाध्यक्ष का नाम भी नहीं छपा है जो कि हिंदी अकादमी के निमंत्रण पत्रों पर शोभा की तरह होता ही है । सानिध्य के तौर पर ।
दूसरी बात यह कि मनोज तिवारी को हिंदी अकादमी आठ लाख रुपए का भुगतान करती है तो क्या इतनी बड़ी रकम के भुगतान के लिए कार्यकारिणी की मंजूरी ली गई थी । अगर मंजूरी लगी गई थी तो क्या ये माना जाए कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की भी इसमें सहमति थी क्योंकि वो ही अकादमी के अध्यक्ष हैं । सरकार को इन बातों को साफ करना चाहिए कि किसकी अध्यक्षता में उस कार्यकारिणी की बैठक हुई जिसने इतनी बड़ी रकम खर्च करने की मंजूरी दी गई । सवाल तो यह भी उठता है कि क्या कार्यकरिणी की बैठक में मनोज तिवारी के नाम पर इतने बड़े भगुतान की मंजूरी ली गई थी । क्या कार्यकारिणी के सदस्यों को इस बात की जानकारी दी गई थी कि करावल नगर में आयोजित होनेवाले कार्यक्रम में मनोज तिवारी को बुलाया जा रहा है और अमुक भुगतान पर।  क्या हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा की इसमें कोई भूमिका थी या वो सिर्फ मूकदर्शक बनी रहीं थी । जौसा कि उपर बताया गया है कि दिल्ली की हिंदी अकादमी पूर्व में होली मिलन जैसे कार्यक्रम करती रही है लेकिन बिदेसिया नाटक आयोजित करने में भी दो लाख खर्च किया गया था और उस नाटक के मंचन को देखने के लिए उस वक्त बीस हजार की भीड़ जुटी थी । एक सांस्कृतिक विरासत से लोगों का परिचय भी हुआ था ।
दरअसल अगर हम आम आदमी पार्टी की सरकार के बाद दिल्ली की हिंदी अकादमी के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो उसके संचालन समिति के गठन से देखना होगा । इसी स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि हिंदी अकादमी के संचालन समिति के गठन में पार्टी से गहरे जुड़े एक कवि की चली थी । मैत्रेयी पुष्पा को जब उपाध्यक्ष बनाया गया था तब सदस्यों की एक सूचूी उनको थमाई गई कि इनके साथ ही आपको काम करना है ।  अरविंद केजरीवाल के साथ हुई सदस्यों की पहली बैठक में उस कवि की मौजूदगी पर उस वक्त भी सवाल खड़े हुए थे लेकिन तब किसी ने उसपर ध्यान नहीं दिया था । बाद में वो बात आगे बढ़ती रही जिसकी परिणिति होली मिलन समारोह के आयोजन आदि में आकर दिखी । इसके पहले  हिंदी अकादमी के सदस्यों का कार्यकाल एक साल का होता है और पहले साल में ऐसे लोगों की नियुक्तियां हुई थी जो वृहत्तर एनसीआर के रहनेवाले थे । स्पष्ट था किसकी रुचि का ध्यान रखा गया था । इस साल वृहत्तर एनसीआर से आनेवाले सदस्यों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और नए सदस्यों को शामिल किया गया । हिंदी अकादमी के सदस्यों का कार्यकाल भी एक साल से बढ़ाकर दो साल कर दिया गया । इस बार के चयन में उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा की चली है, ऐसा प्रतीत होता है । लेकिन दो ऐसे चयन है जो सवालों के घेरे में हैं । अकादमी में दो ऐसे सदस्य मनोनीत किए गए हैं जिनके मनोनयन के कुछ ही दिन पहले हिंदी अकादमी ने लखटकिया पुरस्कार से पुरस्कृत किया था । खैर इन सवालों का थोड़ी देर के लिए दरकिनार किया भी जा सकता है क्योंकि हमारा मानना है कि टीम लीडर को उसकी टीम में कौन हो इसका अधिकार मिलना चाहिए । अगर मैत्रेयी पुष्पा ने उनका चयन किया है तो यह देखना होगा कि आगे आनेवाले दिनों में उनका क्या उपयोग करती हैं । संचालन समिति से ज्यादा अहम भूमिका कार्यकारिणी की होती है और इस बार की सूची में ये माना जा रहा है कि उपाध्यक्ष के समर्थकों का दबदबा है ।
रही बात मनोज तिवारी को आठ लाख रुपए के भुगतान की तो हिंदी अकादमी को यह साफ करना होगा कि किस प्रक्रिया के तहत मनोज को भुगतान किया गया । मनोज तिवारी एक बेहतरीन कलाकार हैं और वो इस बात को स्वीकार भी करते हैं कि वो अपने हुनर के प्रदर्शन के लिए पैसे लेते हैं । इस पूरे प्रकरण में मनोज पर सवाल खड़ा उचित नहीं होगा । सवालों के घेरे में हिंदी अकादमी और उसकी प्रक्रिया है । क्या हिंदी अकादमी की स्वायत्ता में भाषा और संस्कृति मंत्रालय का दखल होता है । क्या मंत्री के कहने पर इस तरह के आयोजनों में कलाकारों को भारी भरकम भुगतान किया जाता है या फिर एक निश्चित प्रक्रिया के तहत भुगतान हुआ है । अगर भुगतान में प्रक्रिया का पालन किया गया है तो अकादमी के उस वक्त के सदस्यों के विवेक पर सवाल खड़े होते हैं कि मनोज के कार्यक्रम से कैसे भाषा, साहित्य और संस्कृति का विकास होता है क्यों अकादमी का पैसा आम आदमी की गाढ़ी कमाई का पैसा है ।     

        

Thursday, June 2, 2016

दामाद के बचाव में गुम आरोप ·

सोनिया गांधी अपने लोकसभा क्षेत्र रायबरेली से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर अबतक का सबसे बड़ा हमला किया । उन्होंने प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया कि वो देश के शहंशाह की तरह काम कर रहे हैं । उन्हॆंने आरोप लगाया कि देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ा है, किसान बेहाल हैं और प्रधानमंत्री जश्न मना रहे हैं । दरअसल सोनिया गांधी जब कोई भी बात करती हैं तो वो मीडिया में बड़ी खबर बनती है । लिहाजा जब उन्होंने सीधे पीएंम मोदी को निशाने पर लिया सुर्खियां बनीं । सोनिया गांधी और कांग्रेस हमेशा से बीजेपी पर किसान और गरीब विरोधी होने का आरोप लगाती रही है । कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जब बीजेपी पर सूट बूट की सरकार का आरोप लगाया था तो वो लंबे समय तक बीजेपी से चस्पां रही थी क्योंकि उस वक्त प्रधानमंत्री ने लाखों रुपए का सूट पहना था । लंबे समय बाद वक्त के साथ कांग्रेस का ये विशेषण कमजोर पड़ा । राजनीति ने भी करवट बदली और बिहार और दिल्ली की हार के बाद असम में बीजेपी की जीत ने कांग्रेस को बैकफुट पर ला दिया । सूट बूट की सरकार पर कांग्रेस मुक्त भारत का नारा भारी पड़ने लगा ।
लिहाजा जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पर हमला बोला तो बीजेपी ने पलटवार करते हुए कहा कि सोनिया गांधी हालिया विधानसभा चुनाव में हार की बौखलाहट की वजह से ऐसे बयान दे रही हैं । बीजेपी के नेताओं का दावा है कि भारत को कांग्रेस मुक्त होता देख कर सोनिया हताशा में उल्टे सीधे आरोप लगा रही हैं । सोनिया गांधी के आरोपो की पड़ताल होती उसपर बहस होती, उसको कसौटी पर कसा जाता लेकिन खुद सोनिया ने ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लगाए अपने आरोपों को ही भटका दिया । सोनिया ने अपने दामाद राबर्ट वाड्रा पर लगाए जा रहे आरोपों को कांग्रेस पार्टी से जोड़ दिया । दरअसल राबर्ट वाड्रा पर रक्षा सौदों में बिचौलिये का काम करनेवाले एक शख्स से संबंध रखने और उसके मार्फत लंदन में एक उन्नीस करोड़ का बेनामी बंगला खरीदने का आरोप लगा है । राबर्ट वाड्रा और उनके सहायक ने कथित तौर पर रक्षा सौदे के उक्त बिचौलिए के साथ कुछ ईमेल का आदान प्रदान किया था जिसके आधार पर उनपर ये संगीन इल्जाम लग रहे हैं । उन ईमेल में लंदन की इमारत की मरम्मत के बारे में बातचीत है । इन ईमेल के सामने आने के बाद बीजेपी के सांसद किरीट सोमैया ने प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक को खत लिखकर पूरे मामले की जांच की मांग कर डाली । ये मामला तूल पकड़ ही रहा था कि सोनिया ने प्रधानमंत्री को शहंशाह बता दिया और चर्चा उधर मुड़ने लगी थी लेकिन इस बीच सोनिया ने अपने दामाद वाड्रा का बचाव कर अपने ही आरोपों की हवा निकाल दी । विपक्ष के हाथ बेवजह का एक मुद्दा दे दिया ।
सोनिया ने पहली बार खुलकर राबर्ट वाड्रा का बचाव करते हुए कह डाला कि उनपर हमेशा से बेबुनियाद आरोप लगाए जाते रहे हैं । उन्होंने केंद्र सरकार को चुनौती भी दी कि अगर राबर्ट के खिलाफ कोई आरोप है तो उसको साबित करे और जनता के सामने दूध का दूध और पानी का पानी कर दे । सोनिया यहीं पर रुक जाती तो भी ठीक था लेकिन उन्होंने राबर्ट वाड्रा को कांग्रेस मुक्त की साजिश से जोड़कर विपक्ष को हमला कराने का असलाह मुहैया करवा दिया । अब बीजेपी और कांग्रेस के विरोधी कांग्रेस मतलब राबर्ट वाड्रा कहकर चुटकी लेने लगे हैं । कुछ दिनों पहले भी जब कांग्रेस ने जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया था तब भी कुछ तख्तियों पर राहुल सोनिया के साथ राबर्ट वाड्रा की तस्वीर वाले बोर्ड भी लगे थे । तब कांग्रेस ने उसको चंद उत्साही पार्टी कार्यकर्ताओं की करतूत बताकर पल्ला झाड़ लिया था । प्रियंका गांधी से शादी के बाद जब भी राबर्ट पर आरोप लगे तब तब कांग्रेस पार्टी राबर्ट वाड्रा पर लग रह आटक गया । यह बात भी ठीक है कि बीजेपी लगातार राबर्ट वाड्रा पर इल्जाम लगाती रही है जमीन सौदों से लेकर इमारतों की खरीदारी का लेकिन सरकार के दो साल बीत जाने के बाद भी अबतक किसी भी आरोप में से कोई साबित नहीं हो पाया है । अपने चुनावी रैलियों में नरेन्द्र मोदी ने भी राबर्ट वाड्रा के जमीन सौदे को लेकर कांग्रेस पर जमकर प्रहार किए थे लेकिन सत्ता में आने के बाद जांच बेहद धीमी गति से चल रही है । दरअसल अगर हम देखें तो बीजेपी और कांग्रेस दोनों इस वक्त परसेप्शन की लड़ाई लड़ रही है । अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर सौदे में घोटाले पर भी कोई ठोस जांच होगी इसमें संदेह है। बीजेपी भी चाहती है कि ये लंबा चलता रहे और उसको लगातार कांग्रेस पर आरोपों की बौछार करने का अवसर मिलता रहे । उधर इसी तरह के सौदे में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री और उनके बेटे पर कांग्रेस आप लगाती रही । इसी तरह से राबर्ट का मुद्दा भी बीजेपी के लिए मुफीद है । दरअसल पिछले दस साल के यूपीए के शासन काल में भ्रष्टाचार के इतने मामले सामने आए कि जनता कांग्रेस से जुडे किसी नेता या उसके रिश्तेदारों पर लगने वाले आरोपों को प्रथम दृष्टया सहीमान लेती है । निष्कर्षत; यह कहा जा सकता है कि आरोपों का ये खेल दरअसल कोई जुर्म साबित करने के लिए नहीं बल्कि अपने विरोधियों को जनता की नजरों से गिराने का खेल है । सोनिया गांधी भी इस खेल में कूदी थीं लेकिन उन्होंने सेल्फ गोल कर डाला