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Saturday, August 24, 2024

पुस्तक महोत्सव से जगती आस


जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई है। 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया गया था। उसके एक वर्ष पहले जून 2018 में जम्मू कश्मीर में राजनीतिक उठापटक के बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। अनुच्छेद 370 हटने के बाद अक्तूबर 2019 में जम्मू कश्मीर राज्य का पुनर्गठन करते हुए इसको दो केंद्र शासित क्षेत्र में बांट दिया गया था। एक जम्मू कश्मीर और दूसरा लद्दाख। अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू कश्मीर में भारत के सभी कानून लागू हो गए थे। वहां के स्थानीय कानून जो भारत के संविधान से अलग थे वो भी समाप्त हो गए थे। पिछले लगभग पांच वर्षों से वहां जनहित के बहुत सारे कार्य हुए और जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के विष का असर कम हुआ। अब वहां करीब छह वर्षों के बाद फिर से विधानसभा का गठन होने जा रहा है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद दो बार कश्मीर जाने का अवसर मिला। दो वर्ष पहले अक्तूबर 2022 में एक साहित्य महोत्सव में कश्मीर जाना हुआ था। श्रीनगर में आयोजित कुमांऊ लिट फेस्ट का आयोजन डल झील के किनारे शेर-ए-कश्मीर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में हुआ था। उस समय के हिसाब से आयोजन बहुत अच्छा रहा था। लेकिन तब सुरक्षा व्यवस्था सख्त थी। केंद्र के गेट से लेकर अंदर तक सुरक्षा के इंतजाम थे। तब भी स्थानीय लोगों की भागीदारी थी लेकिन आमंत्रण पर ही लोग आए थे। उस साहित्य उत्सव में भी कला, संस्कृति और फिल्मों से जुड़े देशभऱ के लोग आए थे। 

दूसरी बार इस सप्ताह जाना हुआ। अवसर था चिनार पुस्तक महोत्सव का जिसका आयोजन शिक्षा मंत्रालय के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने किया था। नौ दिनों का ये आयोजन 17 अक्तूबर को आरंभ हुआ। ये भी शेर-ए-कश्मीर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में ही चल रहा है। इस बार लोगों की भागीदारी बहुत अधिक दिखी, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों की। इस आयोजन में पूरा दिन बिताने के बाद और वहां उपस्थित छात्राओं और महिलाओं से बात करने के बाद ये लगा कि उनके भी अपने सपने हैं, उनकी भी अपनी आकांक्षाएं हैं। पहले भी रही होंगी। अब उनको लगने लगा है कि वो अपने सपनों को पूरा कर सकती हैं। फिल्म और साहित्य पर एक सत्र के दौरान जब वहां उपस्थित लड़कियों से पूछा गया कि कौन कौन फिल्म प्रोडक्शन के क्षेत्र में आना चाहती हैं तो दो लड़कियों ने अपने हाथ खड़े किए। सार्वजनिक रूप से श्रीनगर के एक आयोजन में लड़कियों का इस तरह से सामने आना और ये कहना कि वो फिल्म प्रोडक्शन के क्षेत्र में आना चाहती हैं, बड़ी बात थी। इन आयोजनों का सांस्कृतिक फलक तो बड़ा होता ही है इसका असर भी गहरा होता है। । कश्मीर के युवा पाठकों को बाहर की दुनिया से परिचय करवाने से लेकर भारत की सफलता की कहानी भी पुस्तक महोत्सव में दर्शाई गई थी। इसरो के बारे में, उसकी सफलता के बारे में और मंगलयान के बारे में जानने की जिज्ञासा प्रतिभागियों में प्रबल थी। अंतरिक्ष में इसरो की उड़ान से वो बेहद प्रभावित लग रही थीं। कुछ लड़कियां इस बारे में बात कर रही थीं कि कैसे इस संस्था से जुड़ा जा सकता है। सुरक्षा के इंतजाम रहे होंगे पर वो दिख नहीं रहे थे। प्रतिभागी खुले मैदान में बैठकर बातें कर रहे थे। अलग अलग पंडालों में करीब सवा सौ पुस्तकों की दुकानें थीं जिसमें कश्मीर की कला संस्कृति से जुड़ी पुस्तकों के अलावा हिंदी और अंग्रेजी की पुस्तकें भी प्रदर्शित की गई थीं। उर्दू प्रकाशकों के भी कई स्टाल लगे थे। युवाओं के हाथ में किताब देखकर कुछ अलग ही संकेत मिल रहे थे। कश्मीर के युवाओं की जो छवि बनाई गई थी उससे अलग पुस्तकों के प्रति उनका प्रेम अलग ही कहानी कह रहा था। ऐसा लग रहा था कि कश्मीर के युवा बंदूकों की आवाज या बारूद की गंध से ऊब चुके हैं। वो बेहतर जीवन के रास्ते तलाश रहे हैं। 

चिनार पुस्तक महोत्सव में सिर्फ पुस्तकों के स्टाल ही नहीं थे बल्कि स्थानीय कश्मीरी कलाकारों को भी मंच मिल रहा था। कश्मीरी संगीत, कश्मीरी वाद्य, कश्मीरी कलाकारों से लेकर कश्मीरी कवियों के कृतित्वों पर चर्चा हो रही थी। पुस्तक महोत्सव में शामिल होनेवाले लोग इसका आनंद उठा रहे थे। कला और संस्कृति के प्रति उनका लगाव नैसर्गिक था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो हिंदुस्तान की मुख्यधारा में शामिल होना चाह रहे हैं। वहां इस बात की भी चर्चा हो रही थी कि इतने बड़े स्तर पर कला-संस्कृति और शिक्षा को लेकर कश्मीर में ये पहला अखिल भारतीय आयोजन था। अपने देश के स्वाधीनता सेनानियों के बारे में जानने के लिए भी वहां आए लोग उत्सुक थे। वहां लगी प्रदर्शनी में जुटी भीड़ से इसका पता चल रहा था। कश्मीर में इस तरह के आयोजन प्रतिवर्ष किए जाने चाहिए ताकि अधिक से अधिक युवाओं को जोड़ा जा सके। ऐसा नहीं था कि वहां सिर्फ श्रीनगर के प्रतिभागी ही आए थे। भद्रवाह से लेकर सोनमर्ग और गुलमर्ग के भी युवा भी वहां मिले। युवाओं के अलावा नागरिक संगठन के लोग भी इस आयोजन में दिखे। नागरिकों के समर्थन के बगैर इस तरह का और इतना बड़ा आयोजन संभव भी नहीं है। इस तरह के आयोजन का एक और लाभ है कि वो लोगों को मिलने जुलने और खुलकर बोलने बतियाने के अलावा अपने आयडिया साझा करने का अवसर भी प्रदान करता है। जब एक दूसरे के साथ विचारों का आदान प्रदान होता है तो बेहतर भविष्य का रास्ता निकलता है। लोग एक दूसरे से विचारों के माध्यम से जुड़ते हैं और विभाजन की लकीर धुंधली पड़ने लगती है।

नौ दिनों के इस आयोजन को एक इवेंट मानकर समाप्त नहीं करना चाहिए। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय को इसकी निरंतरता के बारे में विचार करना चाहिए। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की स्थापना 1957 में हुई थी। इसकी स्थापना के समय ये अपेक्षा की गई थी कि ये संस्था देश में पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देगी। पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य राष्ट्रीय पुस्तक न्यास लंबे समय से कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में गंभीर आयोजनों के माध्यम से पाठकों को पुस्तक तक पहुंचाने का उपक्रम किया जा रहा है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। चिनार पुस्तक महोत्सव का आकलन वहां बिकी पुस्तकों की संख्या या बिक्री से हुई आय या आयोजन पर हुए व्यय से नहीं किया जा सकता है। इसके दीर्घकालीन प्रभाव के बारे में विचार करना चाहिए। भारत सरकार वर्षों से कश्मीर की बेहतरी के लिए और सुरक्षा इंतजामों पर करोड़ों रुपए खर्च करती रही है। कला संस्कृति पर खर्च करना भी उतना ही आवश्यक है क्योंकि ये एक ऐसा माध्यम है जो बिना किसी दावे के, बिना किसी शोर शराबे के लोगों को जोड़ती है। अब चुनाव की घोषणा हो गई है। नेताओं का कश्मीर आना जाना आरंभ हो गया है। दलों के बीच गठबंधन भी होने लगे हैं। जैसे जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आएगी तो बयानवीर नेता अपने बयानों से वहां का माहौल खराब करेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि कश्मीर के तीन हजार वर्ष के इतिहास को संजोकर रखा जाए और उस परंपरा को बढ़ाने की दिशा में कार्य हो।  

Saturday, October 22, 2022

विकास और विचार से लौटेगा वैभव

 श्रीनगर के डल झील का किनारा, किनारे स्थित शेर-ए-कश्मीर क्नवेंशन सेंटर का विशाल परिसर, परिसर के लान में एक तरफ सजा मंच और सामने बैठे देश के विभिन्न हिस्सों से आए लेखक, साहित्यकार, फिल्मकार और कलाकार। ये सब मिलकर एक ऐसे वातावरण की निर्मिति कर रहे थे जो आज से तीन साल पहले सोचा भी नहीं जा सकता था। कुमांऊ लिटरेचर फेस्टिवल ने दो दिनों तक कश्मीर संस्करण का आयोजन करके एक ऐतिहासिक पहल की है। श्रीनगर में लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन और श्रीनगर और शोपियां में सिनेमा हाल का खुलना कश्मीर के सांस्कृतिक वैभव की पुनर्वापसी की ओर उठाया कदम कहा जा सकता है। पिछले कई दशकों से श्रीनगर में गोली-बारूद की गंध और निर्दोष नागरिकों की हत्या से आतंक का वातावरण बना था। इस वातावरण ने कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को नेपथ्य में धकेल दिया था। कभी इसकी बात नहीं होती थी कि कश्मीर का शारदा पीठ, पूरी दुनिया में ज्ञान का ऐसा केंद्र था जिसके समांतर किसी और केंद्र का इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता है।
साहित्योत्सव के दौरान प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने शारदा पीठ का न केवल उल्लेख किया बल्कि जोर देकर कहा कि शारदा पीठ दुनिया का पहला विश्वविद्यालय भी था। बिबेक देवराय की इस बात पर चर्चा होनी चाहिए और विद्वानों को इसपर अपना अपना मत रखना चाहिए। कश्मीर के शारदा पीठ की अपने समय में बड़ी प्रतिष्ठा थी। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि पूरे देश के विद्वान जब किसी ग्रंथ की रचना करते थे तो वो उसकी स्तरीयता की परख के लिए शारदा पीठ आते थे। वहां के विद्वान उस ग्रंथ पर चर्चा करते थे और अगर उसमें मौलिक स्थापना होती थी तो उसको अपने तरीके से प्रमाणित करते थे। दुर्भाग्य से शारदा पीठ इस वक्त गुलाम कश्मीर का हिस्सा है।  

शारदा पीठ सिर्फ ज्ञान का केंद्र ही नहीं था बल्कि इस पीठ के नाम से एक लिपि भी उस दौर में प्रचलन में थी, जिसको शारदा लिपि के नाम से जानते हैं। ये माना जाता है कि शारदा लिपि का आरंभ दसवीं शताब्दी में हुआ था। कश्मीरी विद्वानों ने शारदा लिपि में विपुल लेखन किया था। शारदा लिपि में बहुत अधिक लिखा गया था और वहां के विद्वान लेखक अपनी रचनाओं को लेकर देश के अलग अलग हिस्सों में विमर्श के लिए गए भी थे। इसके अलावा देशभर के अलग अलग हिस्सों के विद्वान भी शारदा पीठ जाकर शारदा लिपि सीखकर अपने अपने क्षेत्रों में लौटते थे। फिर वो अपनी रचनाएं शारदा लिपि में लिखते थे। देशभर में कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां आज भी शारदा लिपि में लिखे गए ग्रंथ सहेजकर रखे हुए हैं। कश्मीर में सिर्फ शारदा लिपि ही नहीं बल्कि संस्कृत भाषा और उसमें रचना करनेवाले विद्वानों की लंबी सूची है। नीलमत पुराण में विस्तार इसकी चर्चा है कि कैसे कश्मीर में वहां की जनता उत्सवों के माध्यम से अपनी पंरपराओं को और अपनी ज्ञान परंपरा को जीवंत बनाए रखती थी। काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मट भी कश्मीर की धरती के ही सपूत थे। काव्यप्रकाश एक ऐसा ग्रंथ है जो अब भी साहित्य के अध्येताओं के सामने चुनौती बनकर खड़ा है। अबतक इस पुस्तक की असंख्य टीकाएं लिखी जा चुकी हैं लेकिन अब भी कई विद्वान इसमें वर्णित उल्लास और कारिकाओं की व्याख्या करने में लगे रहते हैं। बिबेक देवराय ने एक ऐसे मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित किया जिसके बारे में लगातार चर्चा होती है। संस्कृत के आलोचकों का कहना है कि इस भाषा में व्यंग्य साहित्य की कमी है। संस्कृत की इस कथित कमी को आलोचक इस भाषा के रचनात्मक लेखन की कमजोरी के तौर पर रेखांकित करते हैं। बिबेक ने इस संबंध में कश्मीर के ही एक लेखक क्षेमेन्द्र का नाम लिया और कहा कि उनकी रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में व्यंग्य उपस्थित है। 

कश्मीर के इतिहास और उसकी परंपराओं पर पुस्तक लिखनेवाले निर्मलेंदु कुमार ने लिखा है कि भारत के प्रांतो में एकमात्र कश्मीर ही है जिसका मध्यकाल का पूरा प्रामाणिक इतिहास वहीं के विद्वानों द्वारा लिखा हुआ मिलता है। भारतवर्ष के अन्य प्रदेशवासियों की अपेक्षा कश्मीरियों में विशेष इतिहास-प्रेम रहा, जिससे उन्होंने अपने देश का शृंखलाबद्ध इतिहास लिख रखा है। कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना की और उसके बाद जोनराज ने राजतरंगिणी का दूसरा खंड लिखा। आगे भी दो खंड लिखे गए। इस तरह से हम देखते हैं कि कश्मीर का साहित्यिक और सांस्कृतिक वैभव अपने जमाने में शिखर पर था। भारत के स्वतंत्रता के कुछ समय पहले से और उसके कुछ दिनों के बाद से कश्मीर में जिस तरह की राजनीति की गई उसने भी यहां की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की विकास यात्रा को अवरुद्ध कर दिया। स्वाधीन भारत में कश्मीर एक ऐसा मुद्दा बना रहा जिसपर हमेशा से राजनीति होती रही। राजनीति भी ऐसी जिसको न तो प्रदेश की विकास की फिक्र थी और न ही विचारों के निर्बाध प्रवाह की। विकास और विचार दोनों बाधित हुए। विकास और विचार को बाधित करने के बाद वहां आतंक को केंद्र में लाने का कुत्सित प्रयास हुआ। आतंकवाद ने लंबे कालखंड तक न केवल कश्मीर की जनता को परेशान किया बल्कि उसको देश दुनिया से काटकर रखा। एक समय तो ऐसा भी आ गया था जब लगने लगा था कि कश्मीर हाथ से निकलने वाला है। वहां के हालात बेकाबू थे। कश्मीरी हिंदुओं की हत्या और उनके पलायन ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। जो धरती कभी शैव मत के दर्शन को शक्ति प्रदान करनेवाली रही, वो धरती जहां के लोग शिव और विष्णु के उपासक थे उसी धरती से हिंदू धर्म को माननेवालों को या तो मार डाला गया या उनको उस धरती को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। इस तरह से कश्मीर की जनता को धर्म के आधार पर विभाजित करने का जो खेल स्वाधीनता के बाद से आरंभ हुआ था वो कश्मीरी हिंदुओं के पलायन के साथ अपने चरम पर पहुंचा। 

अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद से कश्मीर में जिस तरह से विकास के साथ साथ विचार का प्रवाह भी आरंभ हुआ है उसने एक उम्मीद जगाई है। कश्मीर में आयोजित कुमांऊ लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान स्थानीय कश्मीरी छात्रों की भागीदारी या स्थानीय लेखकों की उपस्थिति और सत्रों में हिस्सेदारी संतोषजनक रही। छात्रों में इस बात को जानने की उत्सुकता थी कि अन्य भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है। अन्य प्रदेशों में किन बिंदुओं पर विमर्श होते हैं और उन विमर्शों से क्या निकलकर आता है। उनके अंदर सिनेमा की बारीकियों और उनसे जुड़े किस्सों को सुनने की भी ललक दिखाई पड़ रही थी। जब राज कपूर के सहायक निर्देशक रहे और बाद में ‘बेताब’ और ‘लव स्टोरी’ जैसी फिल्में बनाने वाले राहुल रवैल के सत्र में कश्मीरी युवकों की प्रश्नाकुलता देखते ही बनती थी। वो ये जानना चाहते थे कि जिस फिल्म के नाम पर कश्मीर में बेताब वैली है उसके निर्माता के उस वक्त के अनुभव क्या थे। जब राहुल रवैल ने बताया कि ‘बाबी’ फिल्म का कुछ हिस्सा डल झील के किनारे शूट हुआ था तो युवकों की जिज्ञासा और बढ़ गई। राहुल रवैल साहब ने भी विस्तार से अपनी बात रखकर उपस्थित श्रोताओं की जिज्ञासा शांत करने की कोशिश की। कश्मीर में इस तरह के आयोजनों से न केवल वहां के युवाओं के मन में उठ रहे प्रश्नों का शमन होगा बल्कि उनकी रचनात्मकता को विस्तार मिलेगा। भारत सरकार और कश्मीर प्रशासन दोनों को ये सोचना चाहिए कि विकास के साथ विचार का भी अगर प्रवाह होगा तो वो लोगों के मन मस्तिष्क को खोलेगा जो किसी समस्या के हल के लिए आवश्यक अवयव है। 

Tuesday, April 18, 2017

सेना को मिले पूरी छूट

कश्मीर में एक पत्थरबाज को सेना ने अपनी गाड़ी के बोनट पर बांधकर कई लोगों की जान बचाई, लेकिन बावजूद इसके मानवाधिकार के नाम पर कई लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। इस तरह की खबरें भी आई कि सेना ने कोर्ट ऑफ इंक्वायरी के आदेश दे दिए हैं जिसकी अबतक सेना ने पुष्टि नहीं की है। अगर कोर्टऑफ इंक्यावरी होती भी है तो यह सिर्फ उस घटना से जुड़े तथ्यों को जुटाने के लिए भी की जा सकती है। सेना के जिस अफसर ने उस वक्त ये फैसला लिया वह हालात को देखते हुए बिल्कुल उचित और राष्ट्रहित में लिया फैसला था। इश फैसले ने कम से कम बीस लोगों की जान बचाई। सेना और चुनाव कार्य से जुड़े अफसरों को हिंसक हो रहे पत्थरबाजों ने घेर लिया था और उनपर लगातार हमले हो रहे थे। उस वक्त सेना के उस नौजवान अफसर ने जो फैसला लिया उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है ।  
पत्थरबाज को गाड़ी के आगे बांधकर जान बचाने की घटना की आलोचना करनेवालों को इस वीडियो के एक दो दिन पहले वायरल होते उस वीडियो की याद नहीं आ रही है जिसमें पत्थरबाज सीआरपीएफ के जवानों के साथ धक्कामुक्की कर रहे हैं। उनको थ्पपड़ तक मारा, लेकिन जवानों ने अपना धीरज नहीं खोया। कश्मीर के पत्थरबाजों के लिए हाय तौबा मचानेवालों ने उस घटना पर खामोशी अख्तियार कर ली गोया सेना और अर्धसैनिक बलों का सम्मान ना हो। खबरों के मुताबिक सूबे की मुख्यमंत्री ने सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत से मिलकर युवक को गाड़ी में बांधने का मुद्दा उठाया लेकिन महबूबा ने उन पत्थरबाजों पर क्या कार्रवाई की जिन्होंने अर्धसैनिक बल के जवानों को अपमानित किया। दरअसल जिन लोगों का दिल गाड़ी पर बंधे पत्थरबाज के लिए पसीज रहा है उनको यह बात समझ में आनी चाहिए कि सेना किन मुश्किल परिस्थितियों में वहां काम कर रही है । उनको समझ तो ये भी आना चाहिए कि सेना वहां आतंकवादियों से मुकाबला कर रही है और ऐसे में अपनी और अन्य लोगों की जान बचाने के लिए अगर एक शख्स क गाड़ी के आगे बांध भी दिया गया तो आसमान नहीं टूट पड़ा है ।
कश्मीर के बिड़ते हालात को लेकर केंद्र सरकार गंभीर है । सरकार सख्ती और बातचीत दोनों रास्ते पर आगे बढ़ना चाह रही है। एक तरफ सेना को पत्थरबाजों और आतंकवादियों से निबटने क लिए खुली छूट दी गई है और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने साफ संदेश दिया है कि सेना और सुरक्षाबलों को अपने मान सम्मान से समझौता करने की जरूरत नहीं है । गड़बड़ी फैलानेवालों से निबटने के तरीके अपनाने के लिए सेना को छूट भी दी गई है और कहा गया है कि हिंसा को काबू में करने के लिए उपद्रवियों से सख्ती से पेश आएं। साथ ही गृह मंत्रालय ने सेना को यह भी निर्देश दिए हैं कि आम लोगों के साथ सुरक्षा बलों का व्यवहार संयत होना चाहिए। सुरक्षा बलों को ये भी हिदायत दी गई है कि उनको भड़काने की कोशिशें भी होंगी लेकिन उपद्रवियों पर कार्रवाई करते वक्त इस बात का ध्यान रखा जाए कि आम आदमी को परेशानी ना हो । पत्थरबाजों से निबटने के लिए भी सरकार ने अब पैलेट गन की बजे प्लासिट्क बुलेट का इस्तेमाल करने को कहा है लेकिन जरूरत पड़ने पर पैलेट गन के इस्तेमाल की इजाजत भी दी गई है। इसके अलावा केंद्र सरकार अब उन विकल्पों को भी तलाश रही है जिसमें अलवाहवादियों के किसी गुट से बातचीत हो सके। कश्मीर पर रणनीति बनाने के लिए सोमवार को गृह मंत्रालय में उच्चस्तरीय बैठक हुई जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल भी शामिल थे ।

दरअसल कश्मीर में जिस तरह से पाकिस्तान सक्रिय है और वहां के युवाओं को भड़काने में लगा है उसपर काबू करने के लिए सरकार को रणनीति बनानी होगी । सोमवार को जिस तरह से कॉलेज के छात्रों ने सड़तक पर उतरकर सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाना शुरू किया वो भी पाकिस्तान के उकसावे पर किया गया था। सुरक्षा बलों ने पुलवामा के एक क़लेज पर रेड डाली थी जिसके विरोध में सोमवार को छात्र उग्र हो गए। छात्रों ने तो सोपोर में सुरक्षाबलों के एक कैंप पर भी हमला कर दिया लेकिन सुरक्षाबलों ने धैर्य का परिचय देते हुए जवाबी कार्रवाई नहीं की। सवाल यही है कि छोटे-छोटे स्कूली बच्चों को कौन या किस तरह से भड़का रहा है। आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद भी आतंकवादियों ने स्कूलों को निशाना बनाया था । आतंकावादी चाहते हैं कि कश्मीरी छात्र तालीम हासिल ना करें क्योंकि जाहिलों को धर्म के नाम पर बरगलाना आसान होता है । कश्मीरियों को यह बात समझ में आनी चाहिए कि ये पूरी नस्ल को जाहिल करने की चाल है। छात्रों को भड़काने के लिए पाकिस्तान मैं बैठे सरगना व्हाट्सएप और अन्य चैट एप्स का सहारा लेता है और छात्रों को बीच उकसाने वाले संदेश भेजता रहता है । गलत सलत संदेश भेजकर पाकिस्तान छात्रों को ना सिर्फ अपनी आतंकवादी हरकतों में ढाल की तरह इस्तेमाल करता है बल्कि भारती सुरक्षाबलों के खिलाफ भी उनको भड़काकर अपनी रोटियां सेंकता है । पिछले दिनों ऐसे ही एक व्हाट्सएप मैसेज की जब पड़ताल की गई थी तब पता चला था कि वो मैसेज पाकिस्तान से शुरू हुआ था जिसमें कश्मीरियों से अपील की गई थी कि अमुक जगह पर सुरक्षाबलों की मुठभेड़ चल रही है और लोग वहां पहुंचकर सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकें । इन स्थितियों में सेना के पास विकल्प कम बचते हैं। सेना को आतंकवादियों के अलावा पत्थरबाजों से भी निबटना पड़ता है। ऐसे में अगर किसी शख्स को गाड़ी के आगे बांधकर हालात को सामान्य किया जा रहा हो या जान बचाईजा रही हो तो ये तो गोली चलाकर अपनी जान बचाने से बेहतर ही माना जाना चाहिए।  

Thursday, April 6, 2017

वोट के लिए आतंक का समर्थन!

कश्मीर में पत्थरबाजों से सरकार और सुरक्षाबल परेशान हैं, आतंकवादियों से मुठभेड के दौरान ढाल बनकर खड़े होने की पत्थरबाजों की चाल ने सुरक्षा बलों को खासा परेशान कर रखा है । सुरक्षा बलों के सामने दोहरी समस्या खड़ी हो गई है क्योंकि अगर वो पत्थरबाजों पर कार्रवाई करते हैं तो उनको आलोचना का सामना करना पड़ता है और अगर कार्रवाई नहीं करते हैं तो आतंकवादियों को बचकर निकल जाने का रास्ता मिल जाता है । कश्मीर में अपनी जानपर खेलकर देश की रक्षा करनेवाले इन सिपाहियों की जान की फिक्र सूबे के कई नेताओं को नहीं है । वो तो बस अपनी सियासत को चमकाने में लगे हैं । आगामी नौ अप्रैल को श्रीनगर लोकसभा सीट के लिए होनेवाले उपचुनाव में सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अबदुल्ला नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के साझा उम्मीदवार हैं । उन्होंने पत्थरबाजों को लेकर बेहद आपत्तिजनक बयान दिया है । उनका कहना है कि पत्थरबाज अपने वतन के लिए अपनी जान दे रहे हैं उनका पर्यटन से कुछ लेना देना नहीं है । दरअसल फारुख अबदुल्ला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस बयान पर प्रतिक्रिया दे रहे थे जिसमें नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि कश्मीरी युवा अपनी प्राथमिकता तय करें कि वो टूरिज्म चाहते हैं या टेरररिज्म । प्रधानमंत्री मोदी को जवाब देने के बहाने फारूख अबदुल्ला ने एक तीर से दो निशाना साधने की कोशिश की । एक तो उन्होंने नरेन्द्र मोदी को उत्तर दिया और दूसरे पत्थरबाजों को वतन के लिए लड़ने वाला करार दे दिया । फारूक अबदुल्ला चुनाव के दौरान पत्थरबाजों के वोट के लिए इस तरह के बयान दे रहे हैं । उनकी संवेदना पत्थबाजों के साथ नहीं है, ना ही उनकी प्रतिबद्धता कश्मीर समस्या के हल को लेकर है इस वक्त उनकी पहली प्राथमिकता लोकसभा उपचुनाव जीतना है । चुनाव के वक्त हर दल के लोग अलगाववादियों को खुश करने में लग जाते हैं ।
फारुख अबदुल्ला जैसे वरिष्ठ नेता जब पत्थरबाजों को वतन के लिए जान देनेवाला बताते हैं तो वो जाने अनजाने पाकिस्तान के हाथों में खेलना शुरू हो जाते हैं । पिछले साल जुलाई में आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से कश्मीर करीब छह महीने तक सामान्य नहीं रह पाया था । उस दौर में हिंसक प्रदर्शन में नब्बे लोग मारे गए थे । इसके बाद हालात कुछ सामान्य होने लगे थे । पर कश्मीर में हालात ठीक हों ये पाकिस्तान को गवारा नहीं हैं । जैसे मौसम गर्म होने लगता है तो पाकिस्तान की सेना और उसकी बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई सीमापार से आतंकवादियों के भारत में घुसपैठ को बढ़ावा देने में लग जाती है । पिघलती हुई बर्फ की वजह से आतंकवादियों को भारत में घुसने में आसानी होती है और पाकिस्तान इस दौर में सूबे के युवाओं को उकसाकर सुरक्षाबलों को उलझाने की चाल चलता है ताकि घुसपैठ में आसानी हो ।
सोशल मीडिया के विस्तार और इंटरनेट के बढ़ते घनत्व ने पाकिस्तान को एक ऐसा हथियार दे दिया है जिससे वो बेहद आसानी से कश्मीरी युवाओं को बहकाता रहता है । केंद्र सरकार ने भी माना है कि पाकिस्तान व्हाट्सएप के इस्तेमाल से कश्मीरी युवाओं को भड़काता रहता है । व्हाट्स एप पर ऑडियो संदेश भेजकर वो कश्मीरी युवाओं को किसी भी आतंकी मुठभेड़ की जगह की जानकारी देकर वहां पत्थरबाजी के लिए उकसाता है, इसमें बहुधा धर्म की आड़ भी ली जाती है । दस मार्च को जब पदगामपोरा में सुरक्षा बलों और आतंकवादियों के बीच एनकाउंटर हो रहा था व्हाट्सएप पर चंद पलों में युवाओं से मुठभेड़ स्थल पर पहुंचने को कहा गया । इतना ही नहीं इस मैसेज में आतंकवादी को बचाने के लिए पत्थरबाजी करने की अपील भी की गई थी । मामले के सामने आने के बाद जब मैसेज की जांच की गई तो पता चला कि ये मैसेज पाकिस्तान से जेनरेट हुआ था और चंद पलों में इसको इतना साझा किया गया कि वो वायरल हो गया । भारी संख्या में युवा वहां पहुंच गए और सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करने लगे । सुरक्षा बलों की तमाम सतर्कता के बावजूद एक बुलेट पंद्रह साल के लड़के को जा लगी और उसकी वहीं मौत हो गई । कश्मीरी युवाओं को समझना होगा कि पाकिस्तान उनका इस्तेमाल कर रहा है । बड़गांव में आतंकवादियों के साथ जब तीन पत्थरबाज की मौत हो गई तो जम्मू कश्मीर के डीजीपी एस पी वैद्य को कहना पड़ा था कि जो युवक आतंकवादियों और सुरक्षाबलों के साथ हो रहे मुठभेड़ की जगह पर जाते हैं और सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकते हैं वो खुदकुशी करने जाते हैं । एक तरफ राज्य का सबसे बड़ा पुलिस अधिकारी इस तरह की सख्त चेतावनी दे रहा है तो दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री पत्थरबाजों को वतन के लिए लड़ने वाला बता कर महिमामंडित कर रहा है । यही राजनीति कश्मीर में हालात सामान्य करने की राह में सबे बड़ी बाधा है ।
सिर्फ ये मानना बड़ी भूल होगी कि पाकिस्तान या फिर उसकी बदनाम खुफिया एजेंसी आईएआई कश्मीरी यावओं को बरगला कर अपना उल्लू सीधा कर रही है । दरअसल पाकिस्तान अपनी जिहादी मानसिकता से बाहर नहीं आ सकता है । परवेज मुशर्ऱफ कहा ही करते थे कि भले ही कश्मीर समस्या का हल हो जाए लेकिन भारत के खिलाफ जेहाद जारी रहेगा । हाल ही में एन आई ए की एक रिपोर्ट में ये बात सामने आई थी कि जुलाई दो हजार सोलह के बाद कश्मीर में हिंसा और गड़बड़ी फैलाने के लिए कई सौ करोड़ रुपए हिजबुल मुजाहीदीन के स्थानीय मददगारों को बांटे गए हैं । आईएसआई के टुकड़ों पर पलनेवाले नेताओं की कश्मीर में कमी नहीं है, इनमें से कइयों को तो भारत सरकार की सुरक्षा भी मिली हुई है । भारत सरकार की सुरक्षा में जीवन बसर करनेवाले नेता, जो भारतीय पासपोर्ट पर दुनियाभर घूमते हैं लेकिन वो भारत को अपना वतन नहीं मानते हैं, से सुरक्षा वापस लेकर उनको उनके हाल पर छोड़ने का वक्त आ गया है । भारतीय करदाताओं के पैसे पर इन दोहरे चरित्रवाले नेताओं को सुरक्षा और सुविधा दोनों देना उचित नहीं है ।  
भारत के सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने जब कहा था कि पत्थरबाज और आतंकी हमलों के बीच आनेवाले लोग आंतकी माने जाएंगे तब कांग्रेस के नेता पी चिंदबरम से लेकर कई लोगों ने विरोध जताया था । लेकिन अब क्या ? अब तो पत्थरबाज खुले आम आतंकवादियों को बचाने के लिए सुरक्षा बलों को घेरने लगे हैं, उनपर पत्थर बरसा रहे हैं । पहले कांग्रेस के नेता चिदंबरम और अब उनके राजनीतिक दोस्त फारुख पत्थरबाजों के समर्थन में हैं ।

कश्मीर के बिगड़ते हालात के बीच यह बात भी चिंताजनक है कि सूबे की खुफिया एजेंसियां क्या कर रही हैं । क्या वो पत्थरबाजों के खतरों से राज्य पुलिस या सुरक्षा बलों को पहले से आगाह करने में नाकाम रही है । महबूबा मुफ्ती सरकार को इसपर गंभीरता से विचार करना होगा और स्थानीय खुफिया एजेंसियों को जिम्मेदार बनाने के साथ साथ उनकी जिम्मेदारी भी तय करनी होगी । स्थानीय खुफिया एजेंसियां जितनी मजबूत होंगी, सुरक्षा बलों का काम उतना ही आसान होगा । अब वक्त आ गया है कि भारत सरकार को इस्लामिक कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के मेल से रचे जा रहे पाकिस्तानी षडयंत्र से उपजने वाले खतरे का सही से आंकलन करते हुए सख्त कदम उठाने होंगे । वोटबैंक की राजनीति के लिए कब तक सुरक्षा बलों की जान को दांव पर लगाते रहेंगे । कश्मीर में बेहद सख्ती के साथ कदम उठाने की जरूरत है क्योंकि वो चाहे किसी भी उम्र या मजहब को हो, अगर आतंकवादियों के साथ है तो उसके साथ आतंकवादियों जैसा व्यवहार ही किया जाना चाहिए । जरूरत पड़े तो फारूक जैसे दिग्गज नेता को भी कानून की ताकत का एहसास करवाना चाहिए । 

Tuesday, January 17, 2017

जायरा वसीम के मसले पर बौद्धिक पाखंड

कश्मीर की सोलह साल की लड़की जायरा वसीम ने फिल्म दंगल में अपनी भूमिका से लोगों का दिल जीत लिया था । गीता फोगट के बचपन का रोल करनेवाली जायरा ने अपने सशक्त अभिनय से ना केवल आमिर खान को प्रभावित किया था बल्कि दर्शकों पर भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी थी । हाल ही में जायरा नसीम जब फिल्म की सफलता के बाद जब अपने घर कश्मीर गईं तो सूबे की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से मिलीं । शनिवार को मुख्यमंत्री से उनकी मुलाकात की फोटो सोशल मीडिया पर आने के बाद उनको ट्रोल किया जाने लगा । परेशान जायरा वसीम ने सोशल मीडिया पर ही इस मुलाकात को लेकर पोस्ट लिखी और माफी मांगी । उन्होंने लिखा कि हाल ही में उनकी मुलाकात से कुछ लोग खफा हो गए हैं लिहाजा वो माफी मांगती हैं । उन्होंने दो पोस्ट लिखे और दोनों को बाद में डिलीट भी कर दिया । एक पोस्ट में तो उन्होंने यहां तक लिख दिया कि कश्मीरी युवा उनको रोल मॉडल नहीं मानें, सूबे में और भी लोग हैं । जायरा ने यह भी लिखा कि उनकी मंशा किसी को भी ठेस पहुंचाने की नहीं थी । इसके बाद सोशल मीडिया पर उनको घेरा जाने लगा तो उन्होंने एक और पोस्ट लिखी और अनुरोध किया इस मसले को तूल ना दिया जाए लेकिन इसके बाद अपने इस पोस्ट को भी डिलीट कर दिया । दरअसल कश्मीर में पिछले दिनों जिस तरह का बवाल रहा उसके बाद वहां के चंद लोगों ने जायरा को मुख्यमंत्री के बहाने से निशाने पर लिया । किसी ने यह सोचने की कोशिश भी नहीं की कि एक सोलह साल की बच्ची पर क्या गुजरेगी । अभी जिसने अपनी सफलता को ठीक से एंजॉय भी नहीं किया उसपर इस तरह का हमलावर रुख अख्तियार कर कश्मीरी अलगाववादी वहां के युवा को क्या संदेश देना चाहते हैं । जायरा वसीम को जान से मारने तक की धमकी दी गई । इस बच्ची का जुर्म क्या है । क्यों इसको राजनीति का शिकार बनाया जा रहा है । जायरा को जान से मारने की धमकी का मुद्दा जम्मू कश्मीर विधानसभा में भी उठा और आसन ने सरकार को इस मसले पर ध्यान देने का निर्देश दिया । शनिवार से जायरा वसीम के साथ यह सब घटित हो रहा है लेकिन इस बारे में छिटपुट प्रतिक्रिया ही देखने को मिल रही है । सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री इमर अबदुल्ला और लेखक गीतकार जावेद अख्तर ने जरूर ट्वीट कर इस मुद्दे पर जायरा को समर्थन दिया ।

सवाल समर्थन का तो है लेकिन उससे भी बड़ा सवाल है अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों की खामोशी का है। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बुक्का फाड़कर लेक्के रहेंगे आजादी चिल्लानेवाले भी खामोश हैं । उनकी जुबां पर ताला लग गया है । जायरा को कश्मीरी कट्टरपंथियों की तरफ से जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन खामोश हैं । जायरा वसीम एक कलाकार है और कलाकार को मिल रही धमकियों पर कलाकारों और लेखकों का खामोश रहना चिंता का सबब है । बात-बात पर देश में फासीवाद की आहट सुननेवाले भी जायरा पर जारी शोरगुल को सुन नहीं पा पा हैं । जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच भी तीन दिन बीत जाने के बाद भी इस घटना पर आधिकारिक प्रतिक्रिया देने से बच रहे हैं । ऐसा क्यों होता है इसको जब सूक्ष्मता से विश्लेषित करते हैं तो बौद्धिक पाखंड का बहुत ही वीभत्स और सांप्रदायिक रूप सामने आता है । जायरा को अगर इसी तरह की धमकी किसी अनाम से हिंदू संगठन से मिली होती तो फिर देखते ये लोग किस तरह से आसमान सर पर उठा लेते । पाठकों को याद होगा कि किस तरह से जेएनयू में उमर खालिद के मसले पर बड़े बड़े लेख लिखे गए थे । उस वक्त जिनको भी सामाजिक ताना-बाना टूटता नजर आ रहा था उनको भी जायरा को मिल रही धमकी दिखाई नहीं देती है । यह चुनी हुई चुप्पी देश के लिए तो खतरनाक है ही लोकतंत्र के लिए भी बेहद नुकसानदायक है । जब एक समुदाय यह देखता है कि दूसरे समुदाय के मसले पर अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन खामोश हो जाते हैं तो एक खास किस्म की प्रतिक्रिया घर करने लगती है जिसका विस्फोट तुरंत नहीं होता है लेकिन लंबे समय तक जब बार बार इस तरह की चुनी हुई चुप्पी देखी जाती है तो विरोध का स्वर मजबूत होने लगता है । ऐसे कई मौके आए जब खुद को गरीबों, शोषितों और वंचितों की मसीहा बताने वाली विचारधारा के पोषक चुनी हुई चुप्पी ओढ़ लेते हैं । पिछले दिनों जब केरल की सरकार ने लेखक कमल चवारा पर देशद्रोह का मुकदमा लगाया तब भी कमोबेश वामपंथी विचारधारा के ध्वजवाहक खामोश रहे । खामोश इस वजह से रहे कि वहां उनकी विचारधारा वाली पार्टी का शासन था, वर्ना अगर किसी अन्य विचारधारा वाली पार्टी का शासन होता तो फिर ये बताते नहीं थकते कि दिल्ली के बाद अब केरल में भी फासीवाद आ पहुंचा है । तमिल लेखक मुरुगन ने जब नहीं लिखने का ऐलान किया था और कहा था कि एक लेखक की मौत हो गई है तब भी देशभर के एक खास विचारधारा के लोगों ने जमकर शोरगुल मचाया था । जब कमल चवारा ने ये ऐलान किया कि अगर उनपर से देशद्रोह का मुकदमा नहीं हटाया गया तो अपनी सारी किताबें जला देंगे तो कहीं कोई स्पंदन तक नहीं हुआ । अब वक्त आ गया है कि देशभर के उन बौद्धिकों को अगर अपनी साख बचानी है तो समान भाव से सवाल खड़े करने होंगे बगैर विचारधारा या धर्म-संप्रदाय पर ध्यान दिए, वर्ना हाशिए पर जा चुके ये लोग इतिहास के बियावान में बिला जाएंगें ।