वर्ष 2022 में सिनेमा और वेब सीरीज की सफलता और असफलता के बीच उसके कंटेंट को लेकर जमकर चर्चा हुई। फिल्मों की असफलता और वेबसीरीज की सफलता के बीच इस बहस ने और जोर पकड़ा जब ये बताया जाने लगा कि वेबससीरीज ने कंटेंट यानि विषयवस्तु के स्तर पर दर्शकों को संतुष्ट किया और उनके नजदीक गए। कटेंट इज किंग का जुमला बार-बार सुनाई देने लगा। फिल्म निर्माण के संबंध में इस बात को निरंतर रेखांकित किया जा रहा है कि अगर किसी फिल्म की विषयवस्तु रोचक होगी तो ही फिल्म सफल होगी। कहानी को लेकर भी कई तरह की बातें कही गईं। इस संदर्भ में बरेली की बर्फी, जोर लगा के हइशा, विक्की डोनर जैसी फिल्मों का नाम लिया जाता है। इस वर्ष जिन तमिल, तेलुगु और कन्नड़ फिल्मों ने अपार लोकप्रियता हासिल की उसकी सफलता का श्रेय भी फिल्मों की विषय वस्तु को ही दिया गया। कहा गया कि कहानी ने दर्शकों को बांधे रखा। अधिकतर समीक्षकों ने फिल्मों की समीक्षा करते समय कटेंट को ही ध्यान में रखा। समीक्षा में फिल्मों को तारे देते समय समीक्षकों ने प्रमुखता से कटेंट को और कलाकारों के अभिनय को ध्यान में रखा। गाहे बगाहे फिल्मों के गाने की चर्चा हुई। प्रश्न ये उठता है कि क्या कंज्यूमर इज द किंग की अवधारणा पर आधारित कंटेंट इज द किंग फिल्मों के लिए या फिल्म निर्माण की कला के लिए कितना उचित है।
अगर हम आक्सफोर्ड शब्दकोश में देखें तो किसी भी पुस्तक, लेख, टेलीविजन प्रोग्राम आदि का मुख्य विषय या आयडिया को कंटेंट बताया गया है। ये कई अन्य अर्थों में से एक अर्थ है। अब अगर इस अर्थ के आधार पर विचार करें तो क्या कोई फिल्म सिर्फ अपने मुख्य विषय या आयडिया के आधार पर सफल हो सकती है। ये एक कारण हो सकता है लेकिन कंटेंट को ही एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता है। फिल्म निर्माण के कई आयाम होते हैं और सफल फिल्मकार वही होता है जो इन सारे आयामों को साधकर विषय के साथ न्याय करे। पिछले दिनों फिल्मकार बिमल राय के बारे में पढ़ रहा था। फिल्म निर्माण को लेकर उनका सोच अलग ही स्तर पर था। वो फिल्मों के एक एक दृश्य को लेकर काफी मेहनत करते थे। साथी कलाकारों के साथ विमर्श करते थे, लेकिन फिल्म निर्देशन के समय वो अपने हिसाब से कैमरा के कोण से लेकर संवाद अदायगी और दृश्यों की लाइटिंग पर बेहद बारीकी से ध्यान देते थे।
अगर हम 1959 की बिमल राय की फिल्म सुजाता के एक दृश्य को याद करें। उस दृष्य में अधीर (सुनील दत्त) सुजाता(नूतन) से मिलने पहुंचते हैं तो सुजाता पौधों के बीच होती हैं। जब सुनील दत्त वहां आते हैं तो नूतन मुड़ती है। जब वो मुड़ती हैं उनकी साड़ी का आंचल लाजवंती के पौधे को छूती है। उस वक्त नूतन के चेहरे पर जो भाव हैं उसको कैमरे ने कितनी खूबसूरती से पकड़ा है। इस तरह के सीक्वेंस में कैमरे से बिमल राय जो प्रयोग करते हैं वो कटेंट को बेहद संवेदनशील और अविस्मरणीय बना देता है। अब इस एक दृष्य को फिल्माने के लिए बिमल राय ने चार दिन तक शूट किया था। पंखों से लाजवंती के पौधे पर हवा दी जा रही थी लेकिन उनके मन मुताबिक दृश्य पकड़ में नहीं आ रहा था। चौथे दिन अचानक से बिमल राय अपने मन मुताबिक दृष्य का फिल्मांकन कर पाए। आज के जमाने में जब अक्षय कुमार चालीस दिनों में एक पूरी फिल्म शूट कर लेते हैं तो इस तरह के शाट्स की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। प्रोफेशनलिज्म और अनुशासन के नाम पर आज फिल्म मेकिंग को बहुत ही ज्यादा मैकेनिकल बना दिया गया है। तकनीक के उपयोग से आपत्ति नहीं होनी चाहिए, है भी नहीं लेकिन तकनीक से कई बार उस तरह की प्रभावोत्पकदता पैदा नहीं होती है जो मानवीय गुणों के कारण आती है।
सिर्फ बिमल राय ही नहीं बल्कि कई ऐसे फिल्मकार हुए हैं जिन्होंने विषयवस्तु को अपनी कला और हुनर से इतना समृद्ध किया कि वो कालजयी हो गया। चाहे वो सत्यजित राय हों, के आसिफ हों या वी शांताराम हों। मुगले आजम की कहानी तो दर्शकों को ज्ञात थी। उस कहानी पर पहले भी फिल्म बन चुकी थी। लेकिन के आसिफ ने जब मुगले आजम बनाई तो उसके कंटेंट को इतना समृद्ध कर दिया कि आज भी जब हिंदी फिल्मों की चर्चा होती है तो बासठ साल पहले रिलीज हुई इस फिल्म को याद किया जाता है। वी शांताराम की एक फिल्म है दहेज। इस फिल्म का एक दृश्य जिसमें ठाकुर (पृथ्वीराज कपूर) की बाहों में उनकी बेटी चंदा (जयश्री) दम तोड़ती है। ये दृष्य अविस्मरणीय बन पड़ा है। इसमें क्लोजअप शाट्स के जरिए जो प्रयोग वी शांताराम करते हैं उसकी चर्चा आजतक होती है। फिल्म निर्माण के छात्रों को बार-बार ये दृष्य दिखाया जाता है। कहना न होगा कि निर्देशक का कौशल और हुनर कटेंट को समृद्ध करके दर्शकों के मानस को प्रभावित करता है।
इन दिनों दक्षिण भारतीय फिल्मों कि सफलता की भी चर्चा रही। आरआरआर से लेकर कंतारा तक जिन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया उनपर बारीकी से नजर डालने पर ये स्पष्ट होता है कि कहानी दिखाने का उनका अंदाज दर्शकों को पसंद आ रहा है। आरआरआर में जो भव्यता है या आरआरआर के जो संवाद हैं वो उस कहानी को एक अलग ही स्तर पर ले जाकर खड़ा कर देती है। कंटेंट किसी फिल्म का आधार होती है लेकिन उसपर अगर भव्य इमारत खड़ी करनी हो तो उसमें कई अन्य अवयवों की संरचना भई करनी होती है।फिल्मों की कहानी को लेकर राज कपूर कहा करते थे कि हिंदी फिल्मों में तो एक ही कहानी होती है कि राम थे, सीता थी और रावण आ गया। इसी कहानी को कई बार दोहराया गया और कई निर्देशकों ने उसको अलग अलग तरीके से दिखाया। कई निर्देशकों को सफलता मिली और कइयों को दर्शकों ने नकार दिया। फिल्म देवदास के कई वर्जन बन चुके हैं, उसमें कंटेंट तो सबका लगभग एक जैसा ही है लेकिन कहानी को हने का अंदाज औऐर निर्देशक की रचनात्मकता किसी फिल्म को सफल बना देती है और किसी को असफल। एक और चीज जो कंटेंट को समृद्ध बनाती है वो है कलाकारों का चयन और संवाद लेखन। मन्नू भंडारी की कहानी यही सच है पर जब बासु चटर्जी ने रजनीगंधा फिल्म बनाई। मूल कहानी को पढ़ने के बाद फिल्म स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद पता चलता है कि निर्देशक ने कैसे उसको अपनी कल्पनाशीलता से ऊंचाई प्रदान कर दी।
सिर्फ कहानी ही किसी फिल्म को हिट करवा सकती तो प्रेमचंद की कहानी पर बनी फिल्म हिट ही हो जाती। प्रेमचंद तो फिल्म को लेकर इतने आहत हो गए थे कि 1934 में उन्होंने बांबे (अब मुंबई) में रामवृक्ष बेनीपुरी से कहा था कि अगर तुम मेरी इज्जत करते हो तो मेरी फिल्म मजदूर मत देखना। उन दिनों बेनीपुरी जी कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने बांबे गए हुए थे। प्रेमचंद से उनके फिल्म मजदूर के पोस्टर देखकर चर्चा की थी। अगर सिर्फ गानों से फिल्में हिट हो जाती तों सुमित्रानंदन पंत कुछ ही गाने लिखकर बांबे से वापस क्यों लौट आए थे। कंटेंट इज किंग कहकर सिर्फ उसको ही किसी फिल्म की सफलता के लिए जिम्मेदार बतानेवालों को फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र पर विचार करना चाहिए। दृश्यांकन, संवाद, गीत, संगीत, कहानी कहने का अंदाज, कलाकारों का चयन, कलाकारों का अभिनय, उनकी संवाद अदायगी और निर्देशक की कल्पनाशीलता एक फिल्म को ऊंचाई प्रदान करती है। इनमें से किसी एक की कमजोरी भी फिल्म को फ्लाप करवा सकती है।