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Saturday, December 24, 2022

निर्देशकों का कौशल सफलता की कुंजी


वर्ष 2022 में सिनेमा और वेब सीरीज की सफलता और असफलता के बीच उसके कंटेंट को लेकर जमकर चर्चा हुई। फिल्मों की असफलता और वेबसीरीज की सफलता के बीच इस बहस ने और जोर पकड़ा जब ये बताया जाने लगा कि वेबससीरीज ने कंटेंट यानि विषयवस्तु के स्तर पर दर्शकों को संतुष्ट किया और उनके नजदीक गए। कटेंट इज किंग का जुमला बार-बार सुनाई देने लगा। फिल्म निर्माण के संबंध में इस बात को निरंतर रेखांकित किया जा रहा है कि अगर किसी फिल्म की विषयवस्तु रोचक होगी तो ही फिल्म सफल होगी। कहानी को लेकर भी कई तरह की बातें कही गईं। इस संदर्भ में बरेली की बर्फी, जोर लगा के हइशा, विक्की डोनर जैसी फिल्मों का नाम लिया जाता है। इस वर्ष जिन तमिल, तेलुगु और कन्नड़ फिल्मों ने अपार लोकप्रियता हासिल की उसकी सफलता का श्रेय भी फिल्मों की विषय वस्तु को ही दिया गया। कहा गया कि कहानी ने दर्शकों को बांधे रखा। अधिकतर समीक्षकों ने फिल्मों की समीक्षा करते समय कटेंट को ही ध्यान में रखा। समीक्षा में फिल्मों को तारे देते समय समीक्षकों ने प्रमुखता से कटेंट को और कलाकारों के अभिनय को ध्यान में रखा। गाहे बगाहे फिल्मों के गाने की चर्चा हुई। प्रश्न ये उठता है कि क्या कंज्यूमर इज द किंग की अवधारणा पर आधारित कंटेंट इज द किंग फिल्मों के लिए या फिल्म निर्माण की कला के लिए कितना उचित है। 

अगर हम आक्सफोर्ड शब्दकोश में देखें तो किसी भी पुस्तक, लेख, टेलीविजन प्रोग्राम आदि का मुख्य विषय या आयडिया को कंटेंट बताया गया है। ये कई अन्य अर्थों में से एक अर्थ है। अब अगर इस अर्थ के आधार पर विचार करें तो क्या कोई फिल्म सिर्फ अपने मुख्य विषय या आयडिया के आधार पर सफल हो सकती है। ये एक कारण हो सकता है लेकिन कंटेंट को ही एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता है। फिल्म निर्माण के कई आयाम होते हैं और सफल फिल्मकार वही होता है जो इन सारे आयामों को साधकर विषय के साथ न्याय करे। पिछले दिनों फिल्मकार बिमल राय के बारे में पढ़ रहा था। फिल्म निर्माण को लेकर उनका सोच अलग ही स्तर पर था। वो फिल्मों के एक एक दृश्य को लेकर काफी मेहनत करते थे। साथी कलाकारों के साथ विमर्श करते थे, लेकिन फिल्म निर्देशन के समय वो अपने हिसाब से कैमरा के कोण से लेकर संवाद अदायगी और दृश्यों की लाइटिंग पर बेहद बारीकी से ध्यान देते थे। 

अगर हम 1959 की बिमल राय की फिल्म सुजाता के एक दृश्य को याद करें। उस दृष्य में अधीर (सुनील दत्त) सुजाता(नूतन) से मिलने पहुंचते हैं तो सुजाता पौधों के बीच होती हैं। जब सुनील दत्त वहां आते हैं तो नूतन मुड़ती है। जब वो मुड़ती हैं उनकी साड़ी का आंचल लाजवंती के पौधे को छूती है। उस वक्त नूतन के चेहरे पर जो भाव हैं उसको कैमरे ने कितनी खूबसूरती से पकड़ा है। इस तरह के सीक्वेंस में कैमरे से बिमल राय जो प्रयोग करते हैं वो कटेंट को बेहद संवेदनशील और अविस्मरणीय बना देता है। अब इस एक दृष्य को फिल्माने के लिए बिमल राय ने चार दिन तक शूट किया था। पंखों से लाजवंती के पौधे पर हवा दी जा रही थी लेकिन उनके मन मुताबिक दृश्य पकड़ में नहीं आ रहा था। चौथे दिन अचानक से बिमल राय अपने मन मुताबिक दृष्य का फिल्मांकन कर पाए। आज के जमाने में जब अक्षय कुमार चालीस दिनों में एक पूरी फिल्म शूट कर लेते हैं तो इस तरह के शाट्स की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। प्रोफेशनलिज्म और अनुशासन के नाम पर आज फिल्म मेकिंग को बहुत ही ज्यादा मैकेनिकल बना दिया गया है। तकनीक के उपयोग से आपत्ति नहीं होनी चाहिए, है भी नहीं लेकिन तकनीक से कई बार उस तरह की प्रभावोत्पकदता पैदा नहीं होती है जो मानवीय गुणों के कारण आती है।

सिर्फ बिमल राय ही नहीं बल्कि कई ऐसे फिल्मकार हुए हैं जिन्होंने विषयवस्तु को अपनी कला और हुनर से इतना समृद्ध किया कि वो कालजयी हो गया। चाहे वो सत्यजित राय हों, के आसिफ हों या वी शांताराम हों। मुगले आजम की कहानी तो दर्शकों को ज्ञात थी। उस कहानी पर पहले भी फिल्म बन चुकी थी। लेकिन के आसिफ ने जब मुगले आजम बनाई तो उसके कंटेंट को इतना समृद्ध कर दिया कि आज भी जब हिंदी फिल्मों की चर्चा होती है तो बासठ साल पहले रिलीज हुई इस फिल्म को याद किया जाता है। वी शांताराम की एक फिल्म है दहेज। इस फिल्म का एक दृश्य जिसमें ठाकुर (पृथ्वीराज कपूर) की बाहों में उनकी बेटी चंदा (जयश्री) दम तोड़ती है। ये दृष्य अविस्मरणीय बन पड़ा है। इसमें क्लोजअप शाट्स के जरिए जो प्रयोग वी शांताराम करते हैं उसकी चर्चा आजतक होती है। फिल्म निर्माण के छात्रों को बार-बार ये दृष्य दिखाया जाता है। कहना न होगा कि निर्देशक का कौशल और हुनर कटेंट को समृद्ध करके दर्शकों के मानस को प्रभावित करता है।  

इन दिनों दक्षिण भारतीय फिल्मों कि सफलता की भी चर्चा रही। आरआरआर से लेकर कंतारा तक जिन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया उनपर बारीकी से नजर डालने पर ये स्पष्ट होता है कि कहानी दिखाने का उनका अंदाज दर्शकों को पसंद आ रहा है। आरआरआर में जो भव्यता है या आरआरआर के जो संवाद हैं वो उस कहानी को एक अलग ही स्तर पर ले जाकर खड़ा कर देती है। कंटेंट किसी फिल्म का आधार होती है लेकिन उसपर अगर भव्य इमारत खड़ी करनी हो तो उसमें कई अन्य अवयवों की संरचना भई करनी होती है।फिल्मों की कहानी को लेकर राज कपूर कहा करते थे कि हिंदी फिल्मों में तो एक ही कहानी होती है कि राम थे, सीता थी और रावण आ गया। इसी कहानी को कई बार दोहराया गया और कई निर्देशकों ने उसको अलग अलग तरीके से दिखाया। कई निर्देशकों को सफलता मिली और कइयों को दर्शकों ने नकार दिया। फिल्म देवदास के कई वर्जन बन चुके हैं, उसमें कंटेंट तो सबका लगभग एक जैसा ही है लेकिन कहानी को हने का अंदाज औऐर निर्देशक की रचनात्मकता किसी फिल्म को सफल बना देती है और किसी को असफल। एक और चीज जो कंटेंट को समृद्ध बनाती है वो है कलाकारों का चयन और संवाद लेखन। मन्नू भंडारी की कहानी यही सच है पर जब बासु चटर्जी ने रजनीगंधा फिल्म बनाई। मूल कहानी को पढ़ने के बाद फिल्म स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद पता चलता है कि निर्देशक ने कैसे उसको अपनी कल्पनाशीलता से ऊंचाई प्रदान कर दी। 

सिर्फ कहानी ही किसी फिल्म को हिट करवा सकती तो प्रेमचंद की कहानी पर बनी फिल्म हिट ही हो जाती। प्रेमचंद तो फिल्म को लेकर इतने आहत हो गए थे कि 1934 में उन्होंने बांबे (अब मुंबई) में रामवृक्ष बेनीपुरी से कहा था कि अगर तुम मेरी इज्जत करते हो तो मेरी फिल्म मजदूर मत देखना। उन दिनों बेनीपुरी जी कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने बांबे गए हुए थे। प्रेमचंद से उनके फिल्म मजदूर के पोस्टर देखकर चर्चा की थी। अगर सिर्फ गानों से फिल्में हिट हो जाती तों सुमित्रानंदन पंत कुछ ही गाने लिखकर बांबे से वापस क्यों लौट आए थे। कंटेंट इज किंग कहकर सिर्फ उसको ही किसी फिल्म की सफलता के लिए जिम्मेदार बतानेवालों को फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र पर विचार करना चाहिए। दृश्यांकन, संवाद, गीत, संगीत, कहानी कहने का अंदाज, कलाकारों का चयन, कलाकारों का अभिनय, उनकी संवाद अदायगी और निर्देशक की कल्पनाशीलता एक फिल्म को ऊंचाई प्रदान करती है। इनमें से किसी एक की कमजोरी भी फिल्म को फ्लाप करवा सकती है। 

Saturday, December 10, 2022

कला पर भारी अभिनेताओं की छवि


वर्ष 2022 समाप्त होने को है। हिंदी सिनेमा के इतिहास में इस वर्ष को हिंदी फिल्मों पर आए संकट के तौर पर याद किया जाएगा। इस संकट के कारणों को लेकर भी वर्ष भर चर्चा हुई। सिनेमा हाल में दर्शकों की कमी पर लगातार चिंता प्रकट की जा रही है। फिल्मों के जानकार अलग अलग कारणों की पड़ताल करने में जुटे हुए हैं। अभिनय के अलावा कहानी, पटकथा, निर्देशन से लेकर एडिटिंग की कमजोरी तक को हिंदी फिल्मों के नहीं चल पाने की वजह बताई जा रही है। कलाकारों के अभिनय में अति नाटकीयता को भी कुछ फिल्म समीक्षक रेखांकित कर रहे हैं। जो लेखक-समीक्षक हिंदी फिल्मों में कलाकारों की अति नाटकीयता को रेखांकित कर रहे हैं वो दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्मों के हिट होने की कारणों को जब गिनाते हैं तो उसमें कलाकारों की अति नाटकीयता को नजरअंदाज कर देते हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों में अति नाटकीयता आम है। हिंदी फिल्मों को किसी एक कारण से कम दर्शक नहीं मिल रहे हैं बल्कि उसके अनेक कारण हैं। 

हिंदी फिल्मों के निर्माण के दौरान पहले निर्देशक अपने साथी कलाकारों के साथ फिल्म की कहानी, उसके संवाद, उसके गीत और दृष्यों को लेकर खूब चर्चा करते थे। अपने साथी कलाकारों के साथ चर्चा करने से फिल्म की शूटिंग के दौरान अभिनेता और निर्देशक के बीच एक सहज रिश्ता कायम हो जाता था। चूंकि अभिनेता या अभिनेत्री फिल्मों के दृष्यों पर या संवाद पर चर्चा में शामिल रहते थे इस वजह से उनके अभिनय में एक खास किस्म की स्वाभाविकता दिखाई देती थी। आर के स्टूडियो में राज कपूर की कुटिया में होने वाली बैठकी प्रसिद्ध है। पूरी पूरी रात वो अपने साथी कलाकारों के साथ फिल्म निर्माण पर, फिल्म के संगीत पर, फिल्म के संवाद पर बातें करते थे। इससे साथी कलाकारों और निर्देशकों के बीच एक रागात्मक संबंध विकसित होता था। सभी का सोच एक ही दिशा में जाता था। निर्देशक जिस फिल्म की परिकल्पना करता था, साथी कलाकार उस कल्पना को साकार करने में जुटते थे। वी शांताराम जैसे प्रसिद्ध निर्देशक भी अपने साथ काम करनेवाले कलाकारों के साथ फिल्म को लेकर लगातार बैठकें करते थे। के आसिफ जब मुगल ए आजम बना रहे थे तो उस दौरान अभिनेता चंद्रमोहन का निधन हो गया। प्रोड्यूसर सिराज अली हाकिम ने पाकिस्तान जाने का निर्णय किया जिसके कारण शूटिंग बंद हो गई थी। कई वर्षों के के बाद जब के आसिफ को दूसरे प्रोड्यूसर मिले और फिल्म पर नए सिरे से नए कलाकारों के साथ काम आरंभ हुआ तो तय किया गया कि फिल्म को अंग्रेजी और तमिल में भी बनाया जाएगा। आसिफ ने निणय लिया कि फिल्म की पटकथा नए सिरे से लिखी जाएगी। उन्होंने हिंदी फिल्म के लिए एहसान रिजवी, कमाल अमरोही, अमान और वजाहत मिर्जा को हिंदी पटकथा के लिए अनुबंधित किया। ये कलाकारों के साथ बैठकर मंथन का ही परिणाम था कि फिल्म मुगल ए आजम में जोधाबाई के संवाद के लिए हिंदी और उर्दू के शब्दों के साथ ब्रजभाषा के भी कई शब्दों का उपयोग किया गया। इस तरह के संवाद ने जोधाबाई के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिया था। जब फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई थी तो उसके पहले पृथ्वीराज कपूर के चलने के शाही अंदाज पर भी चर्चा हुई थी। तय किया गया था कि वो सीना तान कर अपेक्षाकृत धीरे-धीऱे चला करेंगे। इससे अकबर के व्यक्तित्व के चित्रण में सहायता मिली थी। हिंदी फिल्मों से जुड़े इस तरह के कई किस्से पुस्तकों में दर्ज हैं।    

अब हिंदी फिल्म निर्माण में स्थितियां लगभग पूरी तरह से बदल गई हैं। निर्देशकों और कलाकारों के साथ बैठक की परंपरा धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों से फिल्म मेकिंग की कला सीखकर आए निर्देशकों ने फिल्म निर्माण की बारीकियां तो सीखी हीं फिल्म निर्माण का कथित प्रोफेशनल अप्रोच भी सीख लिया। अब हो ये रहा है कि निर्देशक फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को एक्सेल शीट पर बनाते हैं। इसको काल शीट कहते हैं। काल शीट में तिथि के अनुसार फिल्म निर्माण की गतिविधियां दर्ज होती हैं। कितने बजे कौन आएगा, कौन सा दृष्य फिल्माया जाएगा। अभिनेता कौन है, वो कितने बजे आएंगे, मेकअप में कितना समय लगेगा, कितने बजे शूट आरंभ होगा, कास्ट्यूम क्या होगा आदि के अलावा नजदीकी अस्पताल, एंबुलेंस के नंबर के साथ साथ सूर्योदय और सूर्यास्त का समय भी लिखा होता है। फिल्म निर्माण में अनुशासन और खर्च को व्यवस्थित करने के लिए काल शीट आवश्यक है। लेकिन जब काल शीट के अनुसार अभिनेताओं को अभिनय करने पर मजबूर किया जाता है तो उसका असर फिल्म पर पड़ता है। इस दौर के प्रसिद्ध अभिनेता ने एक किस्सा सुनाया। एक बार उनको काफी बुखार था। काल शीट के अनुसार उनको बारह बजे सेट पर पहुंचना था। उनपर काफी दबाव बनाया गया कि वो शूटिंग के लिए पहुंचे। सेट पर डाक्टर और एंबुलेंस की व्यवस्था रहेगी। वो दवा लेकर सेट पर पहुंचे। हर शाट के बीच डाक्टर उनकी नब्ज देखते थे और कहते थे कि सब ठीक है आप शूटिंग करिए। दवा खाकर तीन घंटे तक काल शीट के अनुसार उन्होंने अभिनय किया। बुखार का असर अभिनय पर फिल्म बनने के बाद भी दिखा। सुपर स्टार्स ने इसकी काट निकाल ली है। जब वो काल शीट के अनुसार नहीं आ पाते हैं तो कई शाट्स के लिए वो निर्माताओं से कहते हैं कि बाडी डबल का उपयोग कर लें। बाद में फेस रिप्लेसमेंट की तकनीक का उपयोग करके उसको स्वाभाविक दिखा दिया जाता है। 

हिंदी फिल्मों के निर्माण को जो एक दूसरी बात नुकसान पहुंचा रही है वो है स्टारडम। बड़े स्टार अब निर्देशकों की नहीं सुनते हैं। वो अपनी मर्जी से स्क्रिप्ट से लेकर सीन तक में बदलाव करवा लेते हैं। इतना ही नहीं वो इससे आगे जाकर अपनी वेशभूषा के बारे में भी निर्णय करने लगे हैं। कई सुपरस्टार को तो सेट पर निर्देशकों को निर्देशित करते हुए देखा जा सकता है। वो निर्देशक को बताते हैं कि फलां सीन को इस तरह से शूट किया जाए। इसका नुकसान ये होता है कि निर्देशक ने फिल्म के बारे में जो समग्र सोच बनाया है उसको सुरस्टार बाधित कर देते हैं। कुछ सुपर स्टार तो फिल्म के एडिट होने के बाद उसमें दृष्य जुड़वाते और कटवाते तक हैं। ये पहले भी होता था लेकिन उस समय अधिकतर सुपरस्टार अपने साथी कलाकारों के चयन में हस्तक्षेप करते थे। वो अपने मन मुताबिक नायिका का चयन करने के लिए निर्माता निर्देशक पर दबाव डालते थे। कई बार लोकेशन को लेकर भी। पर फिल्म निर्माण में दखल कम होता था। अब तो इन सुपरस्टार्स का दखल लगातार बढ़ता जा रहा है। उनको लगता है कि दर्शक उनके अभिनय को पसंद कर रहे हैं तो वो फिल्म को भी अपने हिसाब से बनवाएं। फिल्म निर्देशक बेचारगी में हथियार डाल देते हैं। उनको भी बड़ा बैनर और बड़ी फिल्म का नाम चाहिए होता है।  

आज जब आमिर खान और अक्षय कुमार जैसे सुपरस्टार्स की फिल्में एक के बाद एक फ्लाप हो रही हैं तो निर्माताओं को इन कारणों पर ध्यान देने की जरूरत है। खुद को फिल्म में सबसे उत्तम दिखने की सुपरस्टार्स की मानसिकता निर्देशकों को महत्वहीन कर रही है। इस प्रवृत्ति को कम करना होगा। निर्देशकों को छूट देनी होगी कि वो अपने हिसाब से फिल्म बनाएं। काल शीट को लचीला बनाया जाए, कलाकारों के साथ फिल्म निर्माण को लेकर, उसको बेहतर बनाने को लेकर संवाद हो। सुपरस्टार्स निर्देशकों की सुनें और अपनी मनमानी कम करें। ये फिल्म जगत के लिए भी अच्छा होगा और कलाकारों के लिए भी। इन प्रवृत्तियों पर बात होनी चाहिए।