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Saturday, January 25, 2020

कुंठित मानसिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन

हिंदी फिल्मों के इतिहास में सलीम-जावेद की ऐतिहासिक जोड़ी को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। पंद्रह साल तक एक साथ फिल्में लिखने वाली जोड़ी जिसने ‘शोले’, ‘दीवार’, ‘जंजीर’ और ‘डॉन’ जैसी सुपर हिट फिल्में लिखीं। उस दौर में सलीम-जावेद की लिखी फिल्में सफलता की गारंटी मानी जाती थी। 1981 में ये जोड़ी टूटी और दोनों अलग हो गए। दोनों के करीबियों ने तरह-तरह की बातें बताईं, अंदाज लगे पर साफ सिर्फ यही हो पाया कि दोनों में मनभेद हो गया था जिसकी वजह से अलग हो गए। सलीम जावेद के बीच मतभेद तो स्क्रिप्ट को लेकर भी होते रहते थे और दोनों घंटो माथापच्ची करते थे। फिल्म ‘दीवार’ का वो प्रसिद्ध संवाद, ‘मेरे पास गाड़ी है, बंगला है...तुम्हारे पास क्या है’ के जवाब में ये लिखना कि ‘मेरे पास मां है’ को लेकर भी दोनों के बीच घंटों चर्चा हुई थी। सलीम खान ने कहीं लिखा भी है कि इस वाक्य पर पहुंचने के लिए दोनों ने मिलकर करीब पचास ड्राफ्ट फाड़े थे, तब जाकर ये पंक्ति निकल कर आ पाई थी।
पिछले करीब उनतालीस साल से सलीम खान और जावेद अख्तर की राय किसी मुद्दे या व्यक्ति पर एक रही हो ऐसा सार्वजनिक रूप से एक बार ही सामने आ पाया है। वो व्यक्ति हैं फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह। कुछ दिनों पहले एक साहित्य उत्सव में जावेद अख्तर ने नसीर के बारे में कहा था कि, ‘नसीर साहब को कोई सक्सेसफुल आदमी नहीं पसंद है, अगर कोई पसंद हो तो उसका नाम बताएं कि ये आदमी मुझे बहुत अच्छा लगता है हलांकि सक्सेसफुल है। मैंने तो आज तक सुना नहीं। वो दिलीप कुमार को क्रिटिसाइज करते हैं, अमिताभ बच्चन को क्रिटिसाइज करते हैं, हर आदमी जो सक्सेसफुल है वो उनको जरा भला नहीं लगता।‘  जावेद साहब ने ये तब कहा था जब नसीर ने राजेश खन्ना को औसत कलाकार कहकर मजाक उढाया था। उसी समय सलीम खान ने भी नसीरुद्दीन शाह को कुंठित और कड़वा व्यक्ति कहा था। इस पर सलीम-जावेद सहमत थे कि नसीरुद्दीन शाह कुंठित हैं। आप समझ सकते हैं कि ये मुद्दा कितना अहम होगा जिसपर सलीम खान और जावेद अख्तर एक बार फिर से सलीम-जावेद नजर आते हैं या ये बात सत्य के कितने करीब होगी जिसपर चार दशक तक एक दूसरे से दूरी रखनेवाले दो लेखक एक राय रख पाते हैं ।

हाल ही में नसीरुद्दीन शाह ने अभिनेता अनुपम खेर के बार में अनाप-शनाप बोलकर विवाद खड़ा करने की कोशिश की। नसीर ने कहा कि अनुपम खेर जोकर हैं और उनको गंभीरता से लेने की जरूरत हैं। खुशामद उनके स्वभाव में है। नसीरुद्दीन शाह ने अनुपम खेर के खून को भी सवालों के घेरे में लिया और बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी की। अनुपम खेर ने चंद घंटों में ही नसीर को आईना दिखा दिया। लेकिन जिस तरह की शब्दावली का उपयोग नसीरुद्दीन शाह ने किया वो निहायत घटिया है और वो नसीर के संस्कारों पर भी सवाल खड़े करती है। मैंने जब नसीरुद्दीन शाह का अनुपम को लेकर दिया बयान सुना तो मेरे जेहन में उनकी पुस्तक का एक प्रसंग कौंध गया। पुस्तक का नाम है ‘एंड दैन वन डे’। ये पुस्तक 2014 में प्रकाशित हुई थी। ये पुस्तक नसीरुद्दीन शाह की लगभग आत्मकथा है हलांकि इसको संस्मरण के तौर पर पेश किया गया है। इस पुस्तक में नसीर ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में रहने के दौरान के अपने से जुड़े प्रसंगों को विस्तार दिया है। इसके एक अध्याय ‘द वूमेन विद द सन इन हर हेयर’ में  उन्होंने स्वीकार किया है कि वहां उनको अपने से करीब पंद्रह साल बड़ी पाकिस्तानी लड़की परवीन से इश्क हो गया। इश्क की इस पूरी दास्तां को पढ़ने के बाद कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्ष रूप से नसीर ने ये लिखा है कि उस वक्त परवीन उनकी जरूरत थी। उनके अंदर विश्वास पैदा करने में, उनको गढ़ने में परवीन ने अहम भूमिका निभाई। नसीरुद्दीन और पुरवीन का इश्क परवान चढ़ने लगा था और नसीर हर दिन ये महसूस करने लगे थे कि परवीन उनके लिए और उनके करियर के लिए कितनी अहम है। पुरवीन उस वक्त अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय डॉक्टरी पढ़ रही थी और नसीर रंगकर्म की दुनिया में आगे बढ़ना चाहते थे। उन्हें किसी सहारे की जरूरत थी जो परवीन ने उन्हें दिया। इस सहारे को दोनों ने सहमति से रिश्ते में बदलने की बात सोची और दोनों ने शादी कर ली। अपने पिता की बेरुखी झेल रहे नसीरुद्दीन शाह को परवीन के रूप में एक समझदार पत्नी और उसकी मां के रूप में एक संवेदनशील महिला का सान्निध्य मिला।
शादी के बाद दोनों का दांपत्य जीवन ठीक-ठाक चल रहा था। दोनों की शादी के दस महीने के अंदर ही परवीन ने नसीर की बेटी को जन्म दिया । इस बीच नसीर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, दिल्ली पहुंच गए थे। परवीन अलीगढ़ में रह रही थी और नसीर दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अपने करियर को परवान चढ़ाने में लगे थे। नसीर ने अपनी इस किताब में माना है कि दिल्ली में रहने के उस दौर में वो बेहद असुरक्षित महसूस करते थे जिस वजह से उनका यह रिश्ता लंबा नहीं चल पाया। दिल्ली में रहनेवाले नसीर की प्राथमिकताएं बदल गई थीं, दोस्त भी। नए रिश्ते भी पनपने लगे थे। नसीर को लगने लगा था कि उनके करियर में शादी और बच्चे दोनों बाधा हो सकते हैं। अपने करियर को तमाम रिश्तों पर प्राथमिकता देनेवाले नसीर को नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा पहुंचने के बाद शादी और बच्चा दोनों बोझ लगने लगे थे, लिहाजा उन्होंने पुरवीन से दूरी बनानी शुरू कर दी। नसीर का यह रुख उसके व्यवहार में भी दिखने लगा था। उन्होंने अलीगढ़ जाना कम कर दिया था, परवीन के पत्रों के उत्तर देने कम कर दिए थे। जब परवीन उऩसे मिलने दिल्ली आई तब भी नसीर ने बहुत बेरुखी से उनसे बातचीत की। परवीन ने नसीर से प्रार्थना की कि एक बार फिर से पति-पत्नी के रिश्ते को हरा करने की कोशिश करते हैं लेकिन नसीर का रुख नकारात्मक ही रहा। वो इस शादी से मुक्ति चाहने लगे थे। उनके सामने करियर का जो नया द्वार खुल रहा था उसमें शादीशुदा जिंदगी उनको बोझ और बाधा दोनों लगने लगी थी। इस तरह की सोच जब किसी व्यक्ति के मानस में अंकुरित होती है तो फिर वो रिश्ते की परवाह कहां करता है। दोनों अलग हो गए। थोड़े समय के बाद पाकिस्तानी महिला परवीन अपनी बच्ची को लेकर लंदन चली गई और फिर नसीर बारह साल तक उससे नहीं मिल सके। नसीर को बारह साल तक अपनी बेटी की भी याद नहीं आई। जब पुस्तक लिखी या जब करियर के शीर्ष पर पहुंच गए तो याद सताने लगी।
नसीरुद्दीन शाह ने अभिनेत्री रत्ना पाठक से दूसरी शादी की। उसका जिक्र करते हुए भी वो ये कह जाते हैं रत्ना एक मजबूत स्त्री है जिसने नसीर को कई बार संभाला। कमाल है इस कलाकार का, इनको प्रेम उसी स्त्री से होता है जिसमें उऩको संभालने की संभावना नजर आती है। हो सकता है कि कुछ लोगों को ये नसीर के व्यक्ति संदर्भ लगें और इन सबका उल्लेख अनुचित। लेकिन जब व्यक्ति अपना जीवन सार्वजनिक तौर पर खोलता है या किसी संदर्भ या पुस्तक में उसकी जिंदगी खुलती है तभी उसकी मुकम्मल तस्वीर बनती है। नसीर की इस किताब में कई ईमानदार प्रसंग भी हैं लेकिन इसी पुस्तक के कई प्रसंग उनकी सोच, उनकी मानसिकता, अपनी करियर की सीढ़ी के तौर पर रिश्तों का इस्तेमाल करने की उनकी प्रवृत्ति भी खुलकर सामने आ जाती है। ऐसा इंसान जब दूसरों को जोकर, खुशामदी या चापलूस कहता है या दूसरों के खून के बारे में बात करता है तो सही में लगता है कि वो कुंठित हो चुका है। सही तो जावेद अख्तर भी प्रतीत होते हैं कि नसीर किसी सफल आदमी की तारीफ नहीं कर सकते। आज अनुपम खेर बेहद सफल हैं, अमेरिका में मिले काम की वजह से उनको अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक अभिनेता के तौर पर मान्यता मिल रही है वहीं नसीर मुंबई में बैठकर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। कभी उनको अपने बच्चों की फिक्र होती है, कभी वो राजेश खन्ना को कोसने लगते हैं। कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन किसी गंभीर कलाकार को किस कदर हास्यास्पद बना देती है, नसीर खुद को इसकी जीती जागती मिसाल बनकर रह गए हैं।

Wednesday, January 22, 2020

कविता पर नेहरू की चिंता


गणतंत्र दिवस पर लाल किला में कवि सम्मेलन की परंपरा बहुत पुरानी रही है, एक जमाने में इस कवि सम्मेलन की दिल्ली के साहित्यप्रमियों को प्रतीक्षा रहती थी और वहां श्रोताओं की संख्या काफी होती थी। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी इस कवि सम्मेलन में वहां जाया करते हैं। रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक लोकदेव नेहरू में कई जगह पर जवारलाल नेहरू के लाल किला पर होने वाले कवि सम्मेलन में जाने की बात लिखी है। कई दिलचस्प प्रसंग भी लिखे हैं। एक जगह दिनकर ने 1950 में लालकिले पर आयोजित कवि सम्मेलन के बारे में लिखा है, लाल किले का कवि सम्मेलन 26 जनवरी को हुआ था या 25 जनवरी को, यह बात मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है। किन्तु उस सम्मेलन में पंडित जी भी आए थे और शायद, उन्हीं की मौजूदगी को देखकर मैंने जनता और जवाहर कविता उस दिन पढ़ी थी। श्रोताओं ने खूब तालियां बजाईं, मगर पंडित जी को कविता पसंद आई या नहीं, उऩके चेहरे से इसका कोई सबूत नहीं मिला। पंडित जी कवियों का बहुत आदर करते थे, किन्तु कविताओं से वे बहुत उद्वेलित कभी भी नहीं होते थे। संसत्सदस्य होने के बाद मैं बहुत शीघ्र पंडित जी के करीब हो गया था। उनकी आंखों से मुझे बराबर प्रेम और प्रोत्साहन प्राप्त होता था और मेरा ख्याल है, वे मुझे कुछ थोड़ा चाहने भी लगे थे। मित्रवर फीरोज गांधी मुझे मजाक में महाकवि कहकर पुकारा करते थे। संभव है, पंडित जी ने कभी यह बात सुन ली हो, क्योंकि दो एकबार उन्होंने भी मुझे इसी नाम से पुकारा था। किन्तु आओ महाकवि कोई कविता सुनाओ ऐसा उनके मुख से सुनने का सौभाग्य कभी नहीं मिला।
दिनकर ने कवियों को लेकर जवाहरलाल के मन में चलनेवाले द्वंद को भी प्रसंगों के माध्यम से उजागर किया है। दिनकर के मुताबिक पंडित जी उन दिनों लिखी जा रही कविताओं को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहते थे और कई बार अपनी ये अपेक्षा जाहिर कर चुके थे कि हिंदी के कवियों को कोई ऐसा गीत लिखना चाहिए जिसका सामूहिक पाठ हो सके। एक कवि सम्मेलन में जवाहर लाल जी पहुंच तो गए लेकिन खिन्न हो गए। दिनकर के मुताबिक सन् 1958 ई. में लालकिले में जो कवि सम्मेलन हुआ उसका अध्यक्ष मैं ही था और मुझे ही लोग पंडित जी को आमंत्रित करने को उनके घर लिवा ले गए थे। पंडित जी आधे घंटे के लिए कवि सम्मेलन में आए तो जरूर मगर खुश नहीं रहे। एक बार तो धीमी आवाज में बुदबुदाकर उन्होंने यह भी कह दिया कि यही सब सुनने के लिए बुला लाए थे?’
जवाहर लाल नेहरू कवियों की सामाजिक भूमिका को लेकर भी अपनी चिंता यदा कदा प्रकट कर दिया करते थे। चाहे वो कोई गोष्ठी हो या कवि सम्मेलन नेहरू अपनी बात कहने से चूकते नहीं थे। दिनकर ने भी लोकदेव नेहरू में एक प्रसंग में इसका उल्लेख किया है, एक बार लालकिले के गणतंत्रीय कवि-सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए उन्होंने यह बात भी कही थी कि कवियों का जनता के समीप जाना अच्छा काम है। मगर कवि सम्मेलनों में वो कितनी बार जाएं और कितनी बार नहीं जाएं, यह प्रश्न भी विचारणीय है। दरअसल नेहरू ती चिंता यह भी थी कि कवि जब अधिक कवि सम्मेलनों में शामिल होने लगता है तो वो फिर रचनात्मकता या उसकी स्तरीयता का ध्यान नहीं रख पाता है और वो उस तरह की कविता लिखने लग जाता है तो तालियां बटोर सके। 1950-60 में कविता को लेकर नेहरू की जो चिंता थी क्या आज वो चिंता दूर हो पाई है, हिंदी साहित्य जगत को विचार करना चाहिए।   

Saturday, January 18, 2020

साहित्यिक मेले से बनती संस्कृति


जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल (जेएलए) एक ऐसा साहित्य महोत्सव है जो पूरी दुनिया के साहित्यप्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। हर वर्ष जनवरी के महीने में जयपुर के ऐतिहासिक डिग्गी पैलेस में आयोजित होनेवाले इस लिटरेचर फेस्टिवल में देश-विदेश के तमाम मशहूर लेखकों का जमावड़ा होता है जो साहित्य की विभिन्न विधाओं से लेकर राजनीति, खेल और सिनेमा लेखन की नई प्रवृत्तियों पर विमर्श करते हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखकों के अलावा दुनियाभर के प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित लेखकों के विचारों को सुनने का अवसर मिलता है। आज अगर पूरे देश के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं या कह सकते हैं कि पूरे देश में जो एक साहित्य महोत्सवों की संस्कृति का विकास हुआ है तो उसके पीछे जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता ही है। लगभग सभी साहित्य उत्सव जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की तर्ज पर ही आयोजित होते हैं। इस लिहाज से अगर देखा जाए तो देशभर में साहित्यिक संस्कृति को मजबूत करने में जेएलए ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है प्रत्यक्ष रूप से भी और परोक्ष रूप से भी।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन 23 से 27 जनवरी तक हो रहा है। यह उनके आयोजन का तेरहवां साल है। तेरह सालों में जेएलए ने अपने आप को इतनी मजबूती से स्थापित कर लिया कि वो अब देश से निकलकर ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भी आयोजित होने लगा है। 2008 में पहली बार जब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन हुआ था तो इसकी संकल्पना जयपुर विरासत फाउंडेशन के कर्ताधर्ताओं ने की थी। जयपुर विरासत फाउंडेशन ने राजस्थान की लोक संस्कृति के लिए बहुत काम किया है। उस वक्त इससे जुड़ी मीता कपूर के मुताबिक 2008 के इंटरनेशनल हेरिटेज फेस्टिवल के तहत ही उसके खंड के रूप में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत हुई थी। 2008 में ये आयोजन तीन दिनों का था और दिग्गी पैलेस के एक ही हॉल में इसका आयोजन हुआ था। उस वर्ष भी नमिता गोखले जेएलएफ से एडवाइजर के तौर पर जुड़ी थीं। मीता कपूर बाद में इस आयोजन से अलग हो गईं लेकिन एक परंपरा जो उन्होंने पहले संस्करण में शुरू की थी उसका निर्वाह आज तक कर रही हैं। वो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आने वाले सभी प्रतिभागियों और अन्य महत्वपूर्ण अतिथियों को अपने घर पर शाम को दावत देती हैं। इस रात्रिभोज में परोसे जानेवाला खाना वो खुद बनाती हैं या उनकी देखरेख में राजस्थानी खाना तैयार किया जाता है।
कहना ना होगा कि जेएलए के आयोजन की संरचना इस तरह से की गई ताकि साहित्यप्रेमियों के अलावा अन्य लोगों को भी अपनी ओर आकृष्ट कर सके। अलग अलग भाषा के लेखकों के साथ-साथ सिनेमा और खेल के सितारों को हर संस्करण में नियमत रूप से आमंत्रित करने से भी इसको मजबूती मिली। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में फिल्म से जुड़े लोगों और फिल्मी सितारों को बुलाने को लेकर कई बार सवाल भी खड़े होते रहे हैं। ऐसे सवाल सिर्फ जेएलएफ को लेकर ही नहीं उठे हैं बल्कि दुनिया में जहां भी साहित्य महोत्सवों में फिल्मी सितारों को बुलाया जाता है वहां वहां ऐसे सवाल खड़े होते रहे हैं। बेस्टसेलर उपन्यास चॉकलेट की ब्रिटिश लेखक जॉन हैरिस ने भी साहित्य महोत्सवों में फिल्मी सितारों को लेकर एक अलग ही तरह का प्रश्न उठाया था। उन्होंने कुछ सालों पहले कहा था कि कई लिटरेचर फेस्टिवल इन सितारों के चक्कर में लेखकों पर होनेवाले खर्चे में भारी कटौती करते हैं। आयोजकों को लगता है कि सितारों के आने से ही उनको हेडलाइन मिलेगी। उनका मानना था कि इससे आयोजकों को फायदा होता है पर साहित्य नेपथ्य में चला जाता है । बाजार के विषेषज्ञों का मानना है कि इस तरह के साहित्यिक आयोजन तभी सफल हो सकते हैं जब इसमें शिरकत करनेवालों में सितारे भी हों क्योंकि विज्ञापनदाता उनके ही नाम पर स्पांसरशिप देते हैं। विज्ञापनदाताओं की रणनीति होती है कि जितना बड़ा सितारा होगा उतनी बड़ी भीड़ जुटेगी और उनके उत्पाद का प्रचार बड़े उपभोक्ता वर्ग तक पहुंचेगा । परंतु सवाल यही है कि क्या इस तरह के आयोजनों में साहित्य या साहित्यकारों पर पैसे को तरजीह दी जानी चाहिए।अगर उद्देश्य साहित्य पर गंभीर विमर्श है, अगर उद्देश्य पाठकों को साहित्य के प्रति संस्कारित करने का है तो उसके साथ साथ इस सितारों को बुलाने में कोई हर्ज नहीं है। गुलजार, जावेद अख्तर, शाबाना आजमी, प्रसून जोशी तो लगभघ नियमित तौर पर ही इस आयोजन में आते रहे हैं। उनके अलावा काजोल, करन जौहर, सोमन कपूर, वहीदा रहमान जैसे कलाकार भी जेएलएफ की शान बढ़ा चुके हैं।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने में विवादों की बड़ी भूमिका रही है हलांकि इसकी फेस्टिवल डायरेक्टर नमिता गोखले हमेशा से कहती हैं कि उनका उद्देश्य इस आयोजन में किसी तरह के विवाद पैदा करना कभी भी नहीं रहा। पर 2012 में विवादित लेखक सलमान रश्दी के जेएलएफ में आने को लेकर भारी विवाद हुआ था। सलमान पर अपनी किताब द सैटेनिक वर्सेस में ईशनिंदा का आरोप है और उनके खिलाफ ईरान के सर्वोच्च नेता आयातुल्ला खोमैनी ने जान से मारने का फतवा भी जारी किया था। सलमान रश्दी के विवाद के केंद्र में रहने की वजह से अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी इस आयोजन की तरफ लोगों का ध्यान गया था। चार दिनों तक हुए विवाद के बाद आखिरकार सलमान को जयपुर आने की इजाजत नहीं मिली। मामला इतने पर ही नहीं रुका था उस वक्त की गहलोत सरकार ने वीडियो लिंक के जरिए सलमान को सत्र में भाग लेने की अनुमति नहीं दी थी। लेकिन इसके बाद भी विवाद रुका नहीं था। सलमान रश्दी के नहीं आने और वीडियो लिंक से सत्र में जुड़ने की अनुमति नहीं मिलने के बाद लेखक जीत थाईल, रुचिर शर्मा और हरि कुंजरू ने सलमान रश्दी की विवादित किताब के अंश पढ़ दिए थे। उसके बाद जीत थाईल पर जयपुर और अजमेर में आठ केस दर्ज किए गए थे। उसके बाद के वर्षों में आशीष नंदी के एक बयान को लेकर आशुतोष की आपत्ति पर भारी विवाद हुआ था। ये विवाद भी काफी दिनों तक चला और बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और वहां से निबटा। 2016 में फिल्मकार करण जौहर ने भी अपने बयान से छोटा ही सही पर विदा खड़ा किया था। जेएलएफ के आयोजन के पहले ही दिन करण जौहर ने लोकतंत्र को मजाक बता दिया था। उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था कि हमारे देश में फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन सबसे बड़ा जोक है और लोकतंत्र तो उससे भी बड़ा मजाक है । करण के मुताबिक अगर आप अपने मन की बात कहना चाहते हैं तो ये देश सबसे मुश्किल है। इसके अलावा तस्लीमा नसरीन के वहां पहुंचने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मनमोहन वैद्य के एक बयान को लेकर भी भारी विवाद हुआ था। इ
इन विवादों ने जेएलएफ को चर्चित करने में अवश्य मदद की यहां गंभीर साहित्यिक विमर्श भी होते हैं जो पाठकों को संस्कारित करते हैं। राजनीति से लेकर अर्थशास्त्र और औपनिवेशिक संस्कृति के सवालों से भी विद्वान वक्ता मुठभेड़ करते हैं जो पाठकों को उन विषयों को सोचने समझने की एक नई दृष्टि देते हैं। देश दुनिया के पाठकों के लिए ये पांच दिन ऐसे होते हैं जिनमें हर तरह की रुचि के विषयों पर विमर्श होता है और पाठकों को भी उसमें हिस्सा लेने का अवसर प्राप्त होता है। पहले संस्करण में एक हॉल से शुरु हुए इस आयोजन में अब पांच स्थानों पर समांतर सत्र होते हैं और श्रोताओं के लिए विकल्प होता है कि वो किस विषय पर किस वक्ता को सुनना चाहते हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पिछले तेरह सत्रों में अपने आयोजन के स्वरूप में भी लगातार बदलाव करता रहता है। इसमें सांगीतिक आयोजन जुड़े, जयपुर बुक मार्क के रूप में प्रकाशन जगत की हस्तियों को आपस में विचार विनिमय का एक मंच मिला जहां पुस्तकों के प्रकाशन अधिकार से लेकर प्रकाशन जगत की समस्याओं पर विमर्श होते हैं। कुल मिलाकर अगर हम देखें तो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल एक ऐसे आयोजन के तौर पर स्थापित हो चुका है जहां गंभीर साहित्यिक विमर्श के अलावा वहां जानेवालों के मनोरंजन से लेकर शॉपिंग तक के अवसर उपलब्ध होते हैं।
     

रणनीतिक चूक से असफल हुई फिल्म


अजय देवगन की फिल्म तान्हाजी ने एक बार फिर से ये साबित किया कि दर्शकों की अपने ऐतिहासिक चरित्रों में खासी रुचि है। ये फिल्म रिलीज के पहले ही सप्ताह में सौ करोड़ के कारोबारी आंकड़ें को पार करके अपनी सफलता का परचम लहरा चुकी है। जबकि इसके साथ ही दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक भी रिलीज हुई थी जिसको मेघना गुलजार जैसी मशहूर शख्सियत ने निर्देशित किया था। अपनी फिल्म की रिलीज के पहले दीपिका ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के आंदोलनकारी छात्रों को मूक समर्थन देकर मीडिया में सुर्खियां बटोरने का उपक्रम भी किया था। बावजूद इसके फिल्म छपाक को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। छपाक एक सप्ताह में लागत भी नहीं निकाल सकी और सप्ताह का कलेक्शन 26 करोड़ से नीचे रहा। बॉक्स ऑफिस की रिपोर्ट के मुताबिक दीपिका की फिल्प छपाक फ्लॉप हो गई है। सोशल मीडिया पर तमाम क्रांतिकारी शूरवीरों ने भी दीपिका की इस फिल्म को सफल बनाने की मुहिम चलाई थी लेकिन उस फिल्म को लेकर जो एक अवधारणा लोगों तक पहुंचनी चाहिए थी वो बन नहीं पाई। रिपोर्ट क मुताबिक छपाक ने बड़े शहरों में भी अच्छा बिजनेस नहीं किया और रिलीज होने के अगले शुक्रवार को उसका बिजनेस सवा करोड़ तक पहुंच गया। फिल्म छपाक का विषय अच्छा है लेकिन उसका ट्रीटमेंट और निर्देशन उस स्तर का नहीं है कि वो फिल्म से कोई छाप छोड़ सके। एसिड पीड़िता के दर्द को समाज में प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति महसूस करता है, इस हमले के खिलाफ उसके मन से प्रतिरोध की आवाज भी उठती रहती है लेकिन फिर भी लोग इस फिल्म को अपेक्षित संख्या में देखने नहीं गए। इसकी वजह यही रही कि ये फिल्म लोगों के बीच आपसी बातचीत का हिस्सा नहीं बन पाई। छपाक जैसी फिल्मों को कभी भी बंपर ओपनिंग नहीं मिली है और इस तरह की फिल्में धीरे-धीरे ही बेहतर कारोबार करती हैं। हाल ही में रिलीज हुई निर्देशक अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15 भी इसी रास्ते पर चलकर सफल हुईं। आर्टिकल 15 के बारे में उसके विषय के बारे में, उसके ट्रीटमेंट के बारे में, आयुष्मान खुराना के अभिनय के बारे में लोगों के बीच चर्चा शुरू हो गई और फिर धीरे-धीरे दर्शक इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमा हॉल जाने लगे और फिल्म सफल हो गई। लोगों के बीच चर्चा से फिल्म हिट होने का एक और सटीक उदाहरण है फिल्म शोले। 1975 में जब फिल्म शोले रिलीज हुई थी तब ना तो चौबीस घंटे के न्यूज चैनल थे, ना ही वेबसाइट्स और ना ही सोशल मीडिया। ट्विटर और फेसबुक का तो अता-पता ही नहीं था इस वजह से लाइव समीक्षा भी नहीं हो पाती थी फिल्मों की। तब अखबारों में विज्ञापन आया करते थे। फिल्म समीक्षा छपा करती थी। पोस्टरों से लोगों को फिल्मों की जानकारी मिलती थी या कई शहरों में तो रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगाकर फिल्म का प्रचार किया जाता था। जब अगस्त 1975 में शोले रिलीज हुई थी तो लगभग सभी अखबारों ने इसको फ्लॉप करार दे दिया था। समीक्षकों को ये फिल्म अच्छी नहीं लगी थी। एक अखबार में तो फिल्म समीक्षा का शीर्षक था- शोले जो भड़क न सका। लेकिन फिल्म को लेकर जब लोगों के बीच बातचीत शुरू हुई तो फिर माउथ पब्लिसिटी ने वो असर दिखाया जिसके आगे प्रचार के सारे माध्यम पिछड़ गए। शोले की सफलता की कहानी लिखने की आवश्यकता नहीं है। शोले की सफलता के पीछे भी दर्शकों में आपस में हुई बातचीत के फैलने का असर ही माना जाता है। ये एक कारक था लेकिन इसके अलावा इसका निर्देशन और सभी कलाकारों का अभिनय भी कमाल का था।
दीपिका की फिल्म छपाक को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने की एक वजह उनका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जाना भी रहा। वो छात्रों के बीच गईं, मौन रहीं लेकिन उनके आसपास जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार की उपस्थिति और वामपंथी विचारधारा के लोगों के दीपिका के पक्ष में आने से फिल्म के खिलाफ माहौल बन गया। जेएनयू जाकर दीपिका वामपंथियों के साथ खड़ी दिखी। इस स्तंभ में विस्तार से इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि दीपिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इस वजह से गई कि उनकी प्रचार टीम को दीपिका के इर्द गिर्द चर्चा चाहिए थी। प्रचार टीम इस बात का आकलन करने में चूक गई कि बाजार के औजार तभी सफल हो सकते हैं जब उसके साथ व्यापक जन समुदाय हो। बाजार उस विचारधारा के कंधे के पर नहीं चल सकता है जिस विचारधारा को पूरे देश ने लगभग नकार दिया। इसका प्रकटीकरण चुनाव दर चुनाव होता रहा। प्रचार टीम की इस रणनीतिक चूक का खामियाजा फिल्म को भुगतना पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक कोई फिल्म तभी सफळ मानी जाती है जबकि उसको देखने के लिए कम से कम पचास लाख लोग पहुंचें। इस पचास लाख की संख्या से एक तय फॉर्मूल के आधार पर धनार्जन देखा जाता है।
बाजार के स्वभाव को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि आमिर और शाहरुख खान की फिल्मों के फ्लॉप होने या उनकी चमक फीकी पड़ने के पीछे उनका 2014 के बाद दिया गया बयान रहा है। जन के मानस पर जो बात एक बार अंकित हो जाती है उसको कुछ लोग आक्रामक तरीके से प्रकट कर देते हैं जबकि ज्यादातर लोग खामोशी से उसका प्रतिरोध करते हैं। फिल्मों के वितरण के कारोबार से जुड़े लोगों का मानना है कि जनता के मन को समझते हुए ही शाहरुख और आमिर दोनों ने अपना रास्ता बदला और वो दोनों नरेन्द्र मोदी से मिलने का कोई मौका नहीं छोड़ते और प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात की तस्वीरों को प्रचारित भी करते हैं ताकि जनता को ये संदेश जा सके कि वो अब मोदी के विरोध में नहीं हैं। दूसरी बात ये कि देश की जनता खासकर हिंदी फिल्मों के दर्शक इस बात को पसंद नहीं करते हैं कि राजनीति को फिल्मों के सफल होने का उपयोग किया जाए। इस बात के दर्जनों उदाहरण हैं कि जब फिल्म के कलाकारों ने फिल्म रिलीज के पहले राजनीति का दांव चला है उसका फायदा नहीं हुआ उल्टे नुकसान हो गया।  
दीपिका के जेएनयू जाने से जो प्रतिरोध हुआ उसका फायदा अजय देवगन की फिल्म को मिला। आज जिस तरह से देशभर में राष्ट्रवाद को लोग पसंद कर रहे हैं और उसके खिलाफ सुनने को तैयार नहीं है। कोई भी देश अपने स्वर्णिम इतिहास और उस इतिहास के उन चरित्रों को बेद पसंद करते हैं जिन्होंने देश की गौरव गाथा लिखी और अपनी वीरता, शौर्य और अपने कृत्यों से देश का नाम रौशन किया। अपने अतीत को लेकर गौरव का उभार इस वक्त पूरी दुनिया में है। इस वैश्विक परिघटना से भारत भी अछूता नहीं है। अब भारत औपनिवेशिक गुलामी से मानसिक रूप से भी लगभग मुक्त हो चुका है। आजादी के बाद की फिल्मों को देखें तो उस दौर में फिल्मकार अंग्रेजों के जुल्म को दिखाते थे और फिर नायक उस जुल्म के खिलाफ खड़ा होता था। उसको देखने के लिए जनता की भारी भीड़ उमड़ती थी। ये क्रम काफी लंबे समय तक चलता रहा। क्रांति और लगान भी इसी थीम पर बनी और उसको दर्शकों का जबरदस्त प्यार मिला। इसके बाद भारत पाकिस्तान के युद्ध पर आधारित फिल्में बनीं। पाकिस्तानियों को हारते हुए देखकर लोग खूब ताली बजाते थे और टिकट खिड़की पर दर्शक टूट पड़ते थे।  
हिंदी फिल्मों में अब वो दौर बदल गया है। अब लोग भारत की गौरव गाथा को देखना चाहते हैं। चाहे वो खेल के मैदान में लिखी गई गौरव गाथा हो, विज्ञान की दुनिया की खास उपलब्धि हो या फिर आजाद भारत की सैन्य उपलब्धियां हों। चाहे वो अक्षय कुमार की फिल्म गोल्ड हो, उनकी ही फिल्म मिशन मंगल हो या फिर फिर विकी कौशल की फिल्म उरी हो। ये बदलाव इस बात को रेखांकित करता है कि भारत में सिनेमा के दर्शकों का मन और मिजाज दोनों बदल रहा है। सिर्फ फिल्म ही क्यों अगर हम वेब सीरीज की या ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर भी देखें तो ऐतिहासिक चरित्रों के इर्द गिर्द बनी सीरीज बेहद सफल हो रही है। ना सिर्फ सफल हो रही बल्कि लगातार इस तरह की सीरीज बनने की घोषणाएं भी हो रही हैं। नेटफ्लिक्स से लेकर अमेजन और जी फाइव से लेकर एमएक्स तक के प्लेटफॉर्म पर गौरव गाथाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। बाजार का अच्छा जानकार वही होता और माना जाता है जो देश के मूड को भांपते हुए जनता के मन मुताबिक चीज उसके सामने रखे। सफलता मिलती ही है नहीं तो फिर उसका छपाक हो जाता है।    

Wednesday, January 15, 2020

फिर भी रहेंगी निशानियां...

रितु नंदा एक ऐसी शख्सियत थीं जो दिल्ली के कारोबारी जगत से लेकर कला की दुनिया में अपने संवेदनशील स्वभाव की वजह से जानी जाती थीं। वो मसङूर अभिनेता और हिंदी फिल्मों के सबसे बड़े शो मैन राज कपूर की बेटी और एस्कॉर्ट कंपनी के मालिक राजन नंदा की पत्नी थीं। लेकिन इससे इतर भी उन्होंने अपनी एक पहचान बनाई थी। पेंटिग्स में उनकी गहरी रुचि थी और उन्होंने राज कपूर पर एक बेहतरीन पुस्तक भी लिखी थी जिसमें उन्होंने शुरू में ही ये स्वीकारा है कि- पापा ने बहुत अधिक पढ़ाई नहीं की थी और ना ही वो सिनेमा को बौद्धिक माध्यम मानते थे, वो एक रोमांटिक व्यक्तित्व थे और देश में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक असामनता को वो बौद्धिक नजरिए से नहीं बल्कि संवदेनशील नजर से देखते थे। इस एक पंक्ति से उन्होंने अपने पिता के व्यक्तित्व को व्याख्यायित कर दिया था। राज कपूर पर लिखी उनकी किताब का दूसरा संस्करण जब 2002 में प्रकाशित हो रहा था तब उनसे मिलने का मौका मिला था। वो तय समय पर टीवी स्टूडियो में आ गईं थी। उनको स्टूडियो के बाहर एक कमरे में बैठाया गया जहां वो किसी वजह से सहज नहीं हो पा रही थीं। उन्होंने अपनी परेशानी को जाहिर नहीं किया बल्कि मुझसे पूछा कि कार्यक्रम शुरू होने में कितना समय है। जब मैंने उनको कहा कि 15 मिनट तो फौरन बोलीं कि क्या आप थोड़ी देर मेरी गाड़ी में बैठकर कार्यक्रम के बारे में बात कर सकते हैं। हमलोग उनकी गाड़ी में बैठे बातें करने लगे ठीक बारह मिनट बाद उन्होंने बातचीत समाप्त की और हम स्टूडियो में चले गए। उनका ये बड़ा गुण था कि वो सामने वाले को बहुत महत्व देती थीं और जो अगर कुछ पसंद नहीं आता था उसको जाहिर नहीं करती थीं।
किताब पर बातें हुईं, उन्होंने राज कपूर के बारे में ढेर सारी यादें ताजा की। दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उनके भर्ती होने के समय का एक बेहद मार्मिक किस्सा सुनाया था। उन्होंने बताया था कि बहुत कम लोगों को मालूम है कि संगमफिल्म के लिए राज कपूर ने दिलीप कुमार को ऑफर दिया था जिसे करने से दिलीप साहब ने मना कर दिया था। ये वो दौर था जब दिलीप कुमार और राज कपूर के बीच प्रतिद्वंदिता थी। बावजूद इसके दोनों दोस्त थे। अपनी जिंदगी की आखिरी जंग लड़ रहे राज कपूर दिल्ली के एम्स के आईसीयू में भर्ती थे। दिलीप कुमार उनसे मिलने पहुंचे। राज कपूर अचेत थे। दिलीप कुमार ने उनका हाथ अपने हाथ में लिया और कहने लगे उठ जा राज! अब उठ जा, मसखरापन बंद कर। तू तो हमेशा से बढ़िया कलाकार रहा है जो हमेशा हेडलाइंस बनाता है। मैं अभी पेशावर से आया हूं और चापली कबाब लेकर आया हूं। याद है राज हम बचपन में पेशावर की गलियों में साथ मिलकर ये स्वादिष्ट कबाब खाया करते थे।बीस मिनट तक दिलीप कुमार राज कपूर का हाथ अपने हाथ में लेकर बोलते रहे थे।
रितु कपूर एक सफल उद्यमी भी थीं। इंश्योरेंस का उनका अपना कारोबार था जिसमें उनकी कंपनी देशभर में शीर्ष पर थीं। एक दिन में सबसे अधिक पॉलिसी बेचने का रिकॉर्ड उनके नाम पर ही था। न्य फ्रेंड्स कॉलोनी में उनका कार्यालय था जहां वो नियमित आती थीं। उनकी पेंटिग्स में भी गहरी रुचि थीं। एक बार अपने कार्यालय में उन्होंने मुझे एक पेंटिंग दिखाई जिसमें एक खाली कुर्सी रखी है जिसके सामने नीला आकाश था। उन्होंने इसको मानव मन के अकेलेपन से जोड़कर बेहतरीन व्याख्या की थी। 14 दिसंबर 2005 की इस मुलाकात के बाद उन्होंने अपनी पुस्तक दी उसपर लिखा- प्रिय अनंत, हम सभी मरने के लिए पैदा होते हैं। सिर्फ हमारे अच्छे काम बचे रह जाते हैं। बहुत प्यार के साथ आपको ये किताब भेंट कर रही हूं जो कि एक बेटी की अपने पिता और एक कलाकार को श्रद्धांजलि है, जिनका पूरा जीवन सिनेमा को समर्पित था। उसके बाद उन्होंने अपने पिता की फिल्म के एक गीत की दो पंक्ति लिखी- हम न रहेंगे, तुम ना रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां। अब जब 71 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया है तो उनकी ये पंक्तियां बहुत याद आ रही हैं। 

Saturday, January 11, 2020

विवाद से मुनाफा कमाने का दांव फुस्स


दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक रिलीज हो गई और फिल्म कारोबार के जानकारों के मुताबिक उसकी फिल्म को अपेक्षित ओपनिंग नहीं मिल पाई। फिल्म के दर्शकों के पसंद करने के पूर्वानुमान के आंकड़ों से भी कम की ओपनिंग मिली। पहले दिन की जो ओपनिंग मिली है वो भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती है। छपाक पहले दिन पांच करोड़ रु का बिजनेस भी नहीं कर पाई जबकि अनुराग कश्यप जैसे स्वनामधन्य सूरमा भी इस फिल्म के प्रमोशन के लिए कूद गए थे। वैसे भी अनुराग कश्यप फ्लॉप फिल्मों के ही निर्देशक बन कर रह गए हैं जो अपनी निजी कुंठा बेहद अमर्यादित तरीके से ट्वीटर पर निकालते रहते हैं। जिस तरह की गाली गलौच वो अपनी फिल्मों या वेब सीरीज में दिखाते-सुनाते हैं वो भी उसी मर्यादाहीन भाषा के शिकंजे में जकड़ते जा रहे हैं।  पहले दिन पांच करोड़ से नीचे रह जाना छपाक की टीम क लिए झटके जैसा है। मेट्रो शहरों के कुछ मल्टीप्लैक्स में इस फिल्म को देखने दर्शक पहुंचे लेकिन मेट्रो से बाहर इस फिल्म को अतिसाधारण ओपनिंग मिली। बिहार समेत कई मार्केट से इस तरह की खबरें आईं कि पहले शो में तो फिल्म छपाक को दर्शक ही नहीं मिले। पटना के एक सिनेमा हॉल में एक शो में तीन दर्शक के रहने की खबरें आई। दीपिका पादुकोण जैसी बड़ी स्टार और मेघना गुलजार जैसी मशहूर निर्देशक के होते हुए फिल्म छपाक को पहले दिन बॉक्स ऑफिस पर इतनी कम ओपनिंग मिलना चकित करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि दीपिका का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के बीच जाने की युक्ति भी काम नहीं कर पाई। 7 जनवरी की शाम जब दीपिका पादुकोण जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के आंदोलनकारी छात्रों के बीच पहुंची थीं तो उसके बाद एक वर्ग विशेष ने फिल्म के पक्ष में माहौल बनाना शुरू कर दिया था। टिकट खरीदने और उसका स्क्रीन शॉट ट्विटर पर पोस्ट करने की मुहिम भी चलाई गई थी। कई घंटे तक ये मुहिम चलती भी रही थी। लेकिन अब जब दीपिका की फिल्म छपाक को देखने के लिए अपेक्षित संख्या में दर्शक नहीं पहुंचे तो ये संकेत तो साफ हो गया है कि सोशल मीडिया पर चाहे जितना शोर मचा लो फिल्म को फायदा नहीं मिला। बल्कि इसका फायदा अजय देवगन की फिल्म तान्हाजी को हो गया। तान्हाजी को बॉक्स ऑफिस पर पहले ही दिन 15 करोड़ से अधिक की ओपनिंग मिली जो कि सफल फिल्म होने का संकेत देती है। फिल्म छपाक की रिलीज के तीन दिन पहले दीपिका पादुकोण का जेएनयू जाना और वहां आंदोलनकारी छात्रों के साथ खड़े होने की रणनीति फिल्म प्रमोशन के लिए थी लेकिन अब वो चौतरफा घिर गई हैं। राजनीतिक तौर पर भी उनके बयानों की लानत मलामत हो रही है। केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी ने उनके जेएनयू जाने को लेकर उनको घेरा है। लगता है फिल्म को सफल बनाने के लिए जेएनयू जाने की रणनीति उल्टी पड़ती नजर आ रही है।   
फिल्म इंडस्ट्री में कई बड़े निर्माता निर्देशक एक रिपोर्ट पर विश्वास करते हैं और फिल्म की रिलीज के पहले उसकी रिपोर्ट पर गंभीरता से विचार कर रणनीति बनाते हैं। एक कंपनी ऑरमैक्स, सिनेमैट्रिक्स रिपोर्ट जारी करती है जिसके आधार पर पहले दिन बॉक्स ऑफिस ओपनिंग (एफबीओ)  के बारे में अंदाज लगाया जाता है। ऑरमैक्स सिनेमैट्रिक्स निश्चित तारीख पर रिलीज होनेवाली फिल्मों के प्रमोशन कैंपन को चार आधार पर ट्रैक करती है ताकि पहले दिन फिल्म की ओपनिंग का अंदाज लगाया जा सके। ये चार आधार होते हैं बज़ (चर्चा), रीच (पहुंच), अपील और इंटरेस्ट (रुचि)। ये एक रियल टाइम रिपोर्ट होती है जो किसी भी फिल्म के प्रमोशन कैंपेन को रोजाना ट्रैक करती है। इसको फर्स्ट डे बॉक्स ऑफिस मॉडल कहते हैं। इसके आधार पर ना केवल फिल्म का प्रमोशन कैंपेन डिजायन किया जाता है बल्कि उसमें आवश्यकतानुसार बदलाव भी किया जाता है। इस व्यवस्था को भरोसेमंद बनाने के लिए फिल्मों के 29 मार्केट से जानकारियां जमा की जाती है। जानकारियों का विश्लेषण करने के बाद सिनेमैट्रिक्स रिपोर्ट तैयार की जाती है।
इस रिपोर्ट में फिल्मों पर असर डालनेवाले बाहरी कारकों के प्रभाव का भी ध्यान रखा जाता है। बाहरी कारक यानि फिल्म रिलीज की तारीख के दिन या उसके आसपास पड़नेवाले त्योहार,छुट्टियां,क्रिकेट मैच, परीक्षाएं या मौसम को विश्लेषित किया जाता है। गौरतलब है कि फिल्म धूम 3 के लिए एफबीओ रिपोर्ट साढे बत्तीस करोड़ रुपए की ओपनिंग की थी जबकि वास्तविक ओपनिंग 30.9 करोड़ रु की रही जो कि पूर्वानुमान के बहुत करीब थी। फिल्म आर..राजकुमार के लिए ओपनिंग का पूर्वानुमान 8.3 करोड़ रु का था जबकि वास्तविक ओपनिंग 8.8 करोड़ रुपए की हुई थी। कंपनी मानती है कि उसकी रिपोर्ट एकदम सटीक नहीं होती है और उसमें पांच फीसदी ऊपर नीचे की गुंजाइश होती है। कंपनी की बेवसाइट का दावा है कि फिल्म उद्योग के कई स्टूडियोज उनकी इस रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हैं।  
छपाक फिल्म की 7 जनवरी को दिन में ये रिपोर्ट आती है जिसमें वो उपर उल्लिखित चारों मापदंडों पर तीसरे स्थान पर आती है जबकि उसके रिलीज वाले दिन अजय देवगन-काजोल की फिल्म तान्हाजी, द अनसंग वॉरियर पहले स्थान पर थी। पहुंच में भी फिल्म छपाक, इसी दिन रिलीज होनेवाली फिल्म तान्हाजी, द अनसंग वॉरियरऔर 24 जनवरी को रिलीज होनेवाली फिल्म स्ट्रीट डांसर से पीछे थी। दर्शकों की रुचि में भी दीपिका की फिल्म तान्हाजी, द अनसंग वॉरियर से पीछे चल रही थी। इससे भी चिंता की बात ये थी कि एफबीओ में छपाक और तानाजी, द अनसंग वॉरियर की पहले दिन की ओपनिंग में बहुत अधिक फर्क थी तान्हाजी, द अनसंग वॉरियर को इस रिपोर्ट में छपाक से लगभग दुगनी ओपनिंग मिलने का पूर्वानुमान लगाया गया था। बताया जाता है कि इस रिपोर्ट के आते ही फिल्म छपाक का प्रमोशन देख रहे लोगों ने रणनीति बदली और उसके बाद ही दीपिका के जेएनयू जाने की योजना बनाई थी। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े जानकारों का कहना था कि ऐसा पहली बार हो रहा था कि दीपिका की किसी भी फिल्म की पहले दिन बॉक्स ऑफिस ओपनिंग (एफबीओ) का आंकड़ा इकाई में नहीं आया था। एफबीओ के सिंगल डीजिट में आने से भी आनन फानन में जेएनयू जाने की योजना बनी थी। दीपिका पादुकोण के जेएनयू जाने के दो दिन बाद सिनेमैट्रिक्स की 9 जनवरी की रिपोर्ट से पता लगा था कि छपाक को बहुत मामूली फायदा हुआ था। चार मापदंडों पर दीपिका के जेएनयू जाने का थोड़ा ही असर हुआ लेकिन फर्स्ट डे बॉक्स ऑफिस ओपनिंग के पूर्वानुमान पर जरा भी असर नहीं पड़ा। जबकि तान्हाजी, द अनसंग वॉरियर के एफबीओ में मामूली वृद्धि होती दिख रही है। दोनों फिल्में फिल्म रिलीज हो गई हैं तो ये साफ हो गया है कि सिनेमैट्रिक्स रिपोर्ट के आंकड़े फिल्म दर्शकों के बारे में तकरीबन सही अंदाज लगा पाती है।
दीपिका पादुकोण की फिल्म का प्रमोशन देख रहे लोगों ने सोचा होगा कि उनके जेएनयू जाने से छपाक के पहले भी उसी तरह का विवाद उठ खड़ा होगा जिस तरह का विवाद फिल्म पद्मावत के वक्त उठ खड़ा हुआ था। उनके जेएनयू पहुंचने पर विवाद शुरू तो हुआ लेकिन उसकी चंद घंटों में ही निकल गई। विवाद से मुनाफा कमाने की रणनीति का कोई फायदा नहीं हुआ। विवाद उठाकर मुनाफा कमाने की रणनीति अब पुरानी हो गई है। आमिर खान की जब भी कोई फिल्म रिलीज होती है तो वो विवाद उठाने से नहीं चूकते हैं। किसी फिल्म की रिलीज के पहले उनको गुजरात दंगों की याद आती है तो किसी फिल्म के पहले वो नर्मदा आंदोलन को लेकर विवादित बयान दे देते हैं। विवाद उठाकर मुनाफा कमाने में आमिर खान को महारत हासिल है। जब कोई फिल्म नहीं आ रही होती है तो वो आमतौर पर खामोश ही रहते हैं। किसी भी कलाकार को या फिल्म प्रोड्यूसर को अपने उपक्रम से मुनाफा कमाने का हक है लेकिन मुनाफा के लिए लोगों की भावनाएं भड़का कर उनको सिनेमा हॉल तक खींचने का उपाय करना कितना उचित है इसपर भी विचार करने की जरूरत है। दीपिका की फिल्म छपाक को जिस तरह से विवाद का कोई फायदा नहीं मिला उससे बॉलीवुड के इन सितारों को सीख तो मिली ही होगी। उल्ट इस बार तो दीपिका विवाद में चौतरफा घिर भी गईं हैं। हां जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के साथ जाकर खड़े होने का एक फायदा ये हुआ कि कुछ राज्यों में ये फिल्म टैक्स फ्री हो गईं।

Thursday, January 9, 2020

आंकड़ों ने बनाया आंदोलनकारी!


आज दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक रिलीज हो रही है। इसके दो दिन पहले अचानक शाम को ये खबर आई कि दीपिका पादुकोण जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के आंदोलनकारी छात्रों के बीच पहुंच गई। इस खबर के साथ ही सोशल मीडिया पर घमासान मच गया। ट्वीटर के बयानवीरों ने इसको दीपिका की हिम्मत के साथ जोड़कर उनकी शान में कशीदे पढ़ने शुरू कर दिए। कई लोग तो इतने जोश में आ गए कि उनकी इस बात के लिए तारीफ करनी शुरू कर दी कि इतनी बड़ी फिल्म को दांव पर लगाकर आंदोलनकारी छात्रों के साथ खड़ी हो गई। ट्वीटर पर जोशीले ट्वीट्स तूफानी अंदाज में लिखे जाने लगे। सोशल मीडिया पर ही दूसरा पक्ष विरोध में उठ खड़ा हुआ और दीपिका के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंचने को उनकी फिल्म के प्रमोशन से जोड़ दिया। दोनों पक्षों में सोशल मीडिया पर भिड़ंत हो गई। ट्वीटर पर छपाक फिल्म के पक्ष और विपक्ष में बनाया गया हैशटैग ट्रेंड करने लगा। बॉलीवुड के भी अनुराग कश्यप जैसे सूरमाओं को ये लगा कि उनके विरोध को दीपिका के साथ आने से ताकत मिली है। वो भी जोश में आ गए। लेकिन उऩको ये नहीं समझ आया कि दीपिका पादुकोण का वहां पहुंचने के पीछे की वजह एक रिपोर्ट थी।
दरअसल एक कंपनी ऑरमैक्स, सिनेमैट्रिक्स रिपोर्ट जारी करती है जिसके आधार पर पहले दिन बॉक्स ऑफिस ओपनिंग (एफबीओ)  के बारे में अंदाज लगाया जाता है। ऑरमैक्स सिनेमैट्रिक्स निश्चित तारीख पर रिलीज होनेवाली फिल्मों के प्रमोशन कैंपन को चार आधार पर ट्रैक करती है ताकि पहले दिन फिल्म की ओपनिंग का अंदाज लगाया जा सके। ये चार आधार होते हैं बज़ (चर्चा), रीच (पहुंच), अपील और इंटरेस्ट (रुचि)। ये एक रियल टाइम रिपोर्ट होती है जो किसी भी फिल्म के प्रमोशन कैंपेन को रोजाना ट्रैक करती है। इसको फर्स्ट डे बॉक्स ऑफिस मॉडल कहते हैं। इस रिपोर्ट के सब्सक्राइवर को इसके अलावा उनकी मांग के अनुरूप अन्य आंकड़े और जानकारियां भी दी जाती हैं। फिल्म जगत में इस रिपोर्ट पर बड़ी फिल्म निर्माता कंपनी काफी भरोसा करती हैं।इसके आधार पर प्रमोशन कैंपेन को डिजायन भी किया जाता है और उसमें बदलाव भी किया जाता है। इंडस्ट्री से जुड़े लोग इसको बखूबी जानते और समझते भी हैं। इस कंपनी की बेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इस व्यवस्था को भरोसेमंद और व्यापक बनाने के लिए फिल्मों के 29 मार्केट से जानकारियां उठाई जाती है। उन जानकारियों और सूटनाओं के आधार पर उसका विश्लेषण किया जाता है और फिर सिनेमैट्रिक्स रिपोर्ट तैयार की जाती है।
इस रिपोर्ट में फिल्मों पर असर डालनेवाले बाहरी कारकों का भी ध्यान रखा जाता है। इसके प्रभाव को भी इसमें शामिल किया जाता है। बाहरी कारक यानि फइल्म रिलीज की तारीख के दिन या उसके आसपास पड़नेवाले त्योहार,छुट्टियां,क्रिकेट मैच, परीक्षाएं या मौसम का भी ध्यान रखकर विश्लेषित किया जाता है और फिर रिपोर्ट तैयार की जाती है। गौरतलब है कि फिल्म धूम 3 के लिए एफबीओ रिपोर्ट साढे बत्तीस करोड़ रुपए की ओपनिंग की थी जबकि वास्तविक ओपनिंग 30.9 करोड़ रु की रही जो कि पूर्वानुमान के बहुत करीब थी। फिल्म आर..राजकुमार के लिए ओपनिंग का पूर्वानुमान 8.3 करोड़ रु का था जबकि वास्तविक ओपनिंग 8.8 करोड़ रुपए की हुई थी। कंपनी मानती है कि उसकी रिपोर्ट एकदम सटीक नहीं होती है और उसमें पांच फीसदी उपर नीचे की गुंजाइश होती है। बेवसाइट का दावा है कि फिल्म उद्योग के कई स्टूडियोज उनकी इस रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हैं।  
अब शुरू होती है दीपिका के जेएनयू पहुंचने की असली कहानी। जिस दिन दीपिका शाम को जेएनयू पहुंचती हैं उस दिन यानि 7 जनवरी को दिन में ये रिपोर्ट आती है जिसमें वो उपर उल्लिखित चारों मापदंडों पर तीसरे स्थान पर आती है जबकि आज ही रिलीज होनेवाली अजय देवगन-काजोल की फिल्म तानाजी, द अनसंग वॉरियर पहले स्थान पर थी। पहुंच में भी फिल्म छपाक, इसी दिन रिलीज होनेवाली फिल्म तानाजी, द अनसंग वॉरियरऔर 24 जनवरी को रिलीज होनेवाली फिल्म स्ट्रीट डांसर से पीछे थी। दर्शकों की रुचि में भी दीपिका की फिल्म तानाजी, द अनसंग वॉरियर से पीछे चल रही थी। इससे भी चिंता की बात ये थी कि एफबीओ में छपाक और तानाजी, द अनसंग वॉरियर की पहले दिन की ओपनिंग में बहुत अधिक फर्क था। टतानाजी, द अनसंग वॉरियरट को इस रिपोर्ट में छपाक से लगभग दुगनी ओपनिंग मिलने का पूर्वानुमान लगाया गया था। बताया जाता है कि इस रिपोर्ट के आते ही फिल्म छपाक का प्रमोशन देख रहे लोगों ने रणनीति बदली और उसके बाद ही दीपिका के जेएनयू जाने की योजना बनी।  दीपिका जेएनयू पहुंच गई। दीपिका के जेएनयू जाने को लेकर सोशल मीडिया पर भले ही हो हल्ला मचा हो लेकिन सिनेमैट्रिक्स की 9 जनवरी की रिपोर्ट बताती है कि इसका मामूली फायदा छपाक को हुआ। चार मापदंडों पर दीपिका के जेएनयू जाने का थोड़ा ही असर हुआ लेकिन फर्स्ट डे बॉक्स ऑफिस ओपनिंग के पूर्वानुमान पर कोई असर नहीं पड़ा। जबकि तानाजी, द अनसंग वॉरियर के एफबीओ में मामूली वृद्धि होती दिख रही है। आज दोनों फिल्म रिलीज होगी और उसके वास्तविक आंकड़ें आएंगे तो पता चलेगा कि दीपिका की जेएनयू जाने की रणनीति कितनी कामयाब रही और फिल्म को ओपनिंग में या कारोबार में कितना फायदा हो पाया या इसका कोई असर नहीं पड़ा।
दरअसल अगर हम फिल्मी कलाकारों को देखें तो विवादित विषयों को उठाकर या उनके साथ खड़े होकर फिल्म प्रमोशन की रणनीति बहुत पुरानी है। दीपिका पादुकोण की ही फिल्म पद्मावत को लेकर उठा विवाद अभी पाठकों और दर्शकों के मानस पर अंकित ही है।पूर्व में भी बॉलीवुड के हीरो इस तरह के विवादों को हवा देते रहे हैं, कभी किसी को डर लगने लगता है तो किसी की पत्नी को डर लगने लगता है तो कभी किसी अभिनेता को अपने बच्चों की चिंता सताने लगती है। कई बार फिल्म के उन अंशों को जानबूझकर लीक कर दिया जाता है जो विवाद पैदा कर सकते हैं। ऐसे भी उदाहरण हैं जब विवाद उठाने के बाद निर्माता सफाई देते हैं कि इस तरह का कोई प्रसंग इस फिल्म में नहीं है। कई बार इस तरह की रणनीति सफल होती है और कई बार असफल। दीपिका की फिल्म छपाक का प्रमोशन देख रही टीम ने इस बार आंदोलन के साथ जाकर फिल्म को सफल करने का दांव चला है। सफलता तो दर्शकों के हाथ में है, दांव पर तो सिनेमैट्रिक्स की रिपोर्ट की साख भी है।   

Saturday, January 4, 2020

शायरी की जमीन पर सियासत


पाकिस्तानी वामपंथी शायर फैज अहमद फैज एक बार फिर से चर्चा में हैं। ये चर्चा गैर साहित्यिक विवाद की वजह से शुरू हुई। इसमें साहित्य के कई विद्वान कूद गए और इसको एक अलग ही रंग देने की कोशिश शुरू कर दी। आईआईटी कानपुर में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन में फैज की वो नज्म पढ़ी गई जिसमें तख्त और ताज उछालने की बात तो है ही अल्लाह के राज कायम होने की बात भी है। विरोध प्रदर्शनों में कई बार फैज की ये नज्म पढ़ी जाती रही है। आईआईटी प्रशासन ने कैंपस में इस प्रदर्शन की जांच की बात की। जब जांच की घोषणा की जा रही थी तो एक प्रश्न आया कि क्या फैज के नज्म की भी जांच होगी। सभी पहलुओं के जाच की बात की गई। उसके बाद ये खबर आ गई कि आईआईटी इस बात की जांच करेगा कि फैज का नज्म हिंदू विरोधी या राष्ट्रविरोधी है या नहीं। सोशल मीडिया के इस दौर में ये खबर जंगल में आग की तरह फैल गई और इसपर प्रतिक्रियाएं आनें लगीं। जब खबर वायरल हो गई तो आईआईटी ने साफ किया कि फैज के नज्म की जांच जैसी कोई बात नहीं है। इस सफाई को इस मामले की फुटनोट की तरह भी नहीं देखा गया और तरह तरह की प्रतिक्रिया आनीं शुरू हो गई। बगैर आईआईटी की सफाई पर ध्यान दिए तरक्की पसंद शायर जावेद अख्तर इसमे कूद गए और उन्होंने ये कह डाला कि फैज की शायरी को हिंदू विरोधी कहा जाना बेतुका और मजाक है। जावेद साहब से पलटकर ये प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि किसने फैज की कविताओं को हिंदू विरोधी करार दिया। दरअसल काल्पनिक चीजों पर प्रतिक्रिया देने की प्रवृत्ति जावेद अख्तर जैसे तरक्कीपसंद या प्रगतिशील लेखकों के लिए आसान होता है। जो है नहीं उसके बारे में बोलो, उसपर इतनी गंभीरता से प्रतिक्रिया दो कि आम जनता में ये संदेश जाए कि कोई गंभीर मसला सामने आ गया है। इन तथाकथित प्रगतिशील लोगों की ये प्रविधि बहुत पुरानी हो गई है। इस पूरे मसले को हवा देने के पीछे देश में इस तरह का माहौल बनाना था कि भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक मुसलमानों के खिलाफ हैं और अब कविताओं को भी हिंदू मुस्लिम के चश्मे से देखा जाएगा। जावेद अख्तर ही क्यों बड़े बड़े प्रगतिशील माने जानेवाले लेखकों तक ने इसपर अपनी प्रतिक्रिया दे डाली और परोक्ष रूप से सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। जब सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें तेज होने लगीं तो सरकार के समर्थक भी पलटवार करने लगे। फैज की शायरी रणक्षेत्र बन गईं। एक एक शब्द को लेकर तर्क, वितर्क और कुतर्क सामने आने लगे। सोशल मीडिया पर किसी को भी कुछ भी कहने की छूट है लिहाजा दोनों तरफ से जो मन में आया लिखा गया, कई बार तर्कहीन और आधारहीन भी।
फैज की कविताओं को लेकर छिड़े इस संग्राम में उनके भारत भक्त होने की बात भी लोग कहने लगे। फैज को विभाजन के खिलाफ खड़े एक शायर के तौर पर भी प्रस्तुत किया जाने लगा। 1947 के अखबारों में छपे उनके लेखों को आधार बनाकर, कुछ पंक्तियों को संदर्भ से काटकर फैज की छवि चमकाने की कोशिश की जाने लगी। इन अबोध फैज समर्थकों को ये नहीं पता कि फैज की शायरी अपना बचाव करने में सक्षम है। अंध समर्थकों ने फैज को तानाशाही के खिलाफ खड़े एक कवि के तौर पर पेश करना शुरू किया। जियाउल हक के दौर की बात की जाने लगीं। ये ठीक है कि फैज की कविता में विद्रोह और विरोध के स्वर मुखरता के प्रस्फुटित होते हैं लेकिन जब फैज की व्यक्तिगत जिंदगी को लेकर उनकी साहित्यिक छवि को चमकाने की कोशिश की जाएगी तो फिर समग्रता में बात होनी चाहिए। फैज के 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के दौर के लेखन को भी देखा जाना चाहिए या फिर जब वो 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध पर लिख रहे थे उसको। फैज अगर इतने ही क्रांतिकारी और तानाशाही विरोधी थे तो उनके कवि मन पर पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी फौज के अत्याचार को लेकर किसी तरह की हलचल नहीं हो रही थी। फैज को समग्रता जानने समझने के लिए 1970 के आसपास के उनके लेखन को जिया उल हक के कार्यकाल में हुए दमन के विरोध के लेखन में मिलाकर देखा जाना चाहिए।
कवि भी काल और परिस्थिति से प्रभावित होता है। फैज भी थे। फैज, जुल्फिकार अली भुट्टो के दोस्त थे। जब उनको फांसी दी गई तो उनका कवि मन अपने दोस्त के लिए द्रवित हो गया और जब कवि मन द्रवित होता है तो कई बार विद्रोही हो जाता है। फैज भी हो गए। जिया की मौत के बाद क्या पाकिस्तान के हालात बदल गए या उसके बाद वहां फौज की तानाशाही कम हो गई लेकिन फैज का विद्रोह जरूर कुंद हो गया। यहां फैज के व्यक्तित्व के उस पहलू को भी याद करना चाहिए जहां उनकी राय को तवज्जो देते हुए अदालत ने मंटो की रचनाओं को साहित्य नहीं मानते हुए उनको सजा दी। मंटो ने खुद इस पूरे प्रसंग को लिखा है। फैज बड़े कवि हैं लेकिन उनको महामानव बनाने की जो कोशिश देश का प्रगतिशील खेमा कर रहा है वो उनकी राजनीति का हिस्सा है। साहित्य और शायरी से उनका कोई लेना देना है नहीं। 
फैज के बहाने के एक बार फिर से गंगा-जमुनी तहजीब की बात होने लगी। गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर चिंता जाहिर की जाने लगी। गंजा जमुनी तहजीब में दरार की बात होने लगी और इसके लिए परोक्ष रूप से, कई बार प्रत्यक्ष रूप से मौजूदा सरकार को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश भी की जा रही है। जबकि अगर हम इस गंगा जमुनी तहजीब को साहित्य की चौहद्दी में परखने की कोशिश करें तो ये आधुनिक भारत का बहुप्रचारित धोखा है। आज फैज की शायरी पर लहालोट होनेवाले भी इस तथ्य और सत्य को स्वीकार करेंगे कि अगर फैज की कविताएं देवनागरी में ना छपी होतीं तो क्या उनको इतनी व्याप्ति मिल पाती। क्या गालिब, मीर से लेकर जौन एलिया तक की शायरी अगर देवनागरी में नहीं प्रकाशित हुई होंती तो क्या उनको इतनी लोकप्रियता मिल पाती। इसकी तुलना में इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि हिंदी के तमाम कवि लेखकों का उर्दू या फारसी में कितना अनुवाद हुआ। उर्दू के विद्वानों ने निराला से लेकर मुक्तिबोध तक या दिनकर से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक, सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर महादेवी वर्मा तक कितने लेखकों या कवियों का अनुवाद अपनी भाषा में किया। इस बात को समझने और उसपर चर्चा करने की जरूरत है।
भाषा को राजनीति का औजार बनाने की कोशिश हिंदी और हिंदुस्तानी को लेकर भी की गई। हिंदी को सांप्रदायिकता की और हिन्दुस्तानी को धर्मनिरपेक्ष बताने की कोशिश हुई। हिंदी के खिलाफ हिन्दुस्तानी को खड़ा करने की कोशिश पहले भी हुई और अब भी प्रगतिशीलता के झंडाबरदार बीच बीच में हिन्दुस्तानी की बातें करने लग जाते हैं। हिंदी में दो लेखक हुए, एक राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद और दूसरे भारतेन्दु हरिश्चंद्र। राजा शिवप्रसाद सितारे-हिन्द हिंदी और उर्दू को मिलाकर हिन्दुस्तानी की पैरोकारी करते थे। दूसरे विद्वान भारतेन्दु हिंदी को लेकर चले। शिवप्रसाद सितारे-हिन्द इतिहास के बियावान के एक कोने में हैं वहीं भारतेन्दु की हिंदी आज भी सीनातान कर खड़ी है। हिन्दुस्तानी का आंदोलन तो गांधी जी ने भी चलाया लेकिन उनका भी विरोध हुआ। गांधी ने 18 मार्च 1920 को वी एस श्रीनिवास शास्त्री को लिखा हिन्दी और उर्दू के मिश्रण से निकली हुई हिन्दुस्तानी को पारस्परिक संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में निकट भविष्य में स्वीकार कर लिया जाए। अतएव, भावी सदस्य इम्पीरियल कौंसिल में इस तरह काम करने को वचनबद्ध होंगे, जिससे वहां हिन्दुस्तानी का प्रयोग प्रारंभ हो सके और प्रांतीय कौंसिलों में भी वे इस तरह काम करने को प्रतिज्ञाबद्ध होंगे। (संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड17)। गांधी जी जितनी मजबूती से हिन्दुस्तानी का साथ दे रहे थे, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सदस्य उतनी ही ताकत से उनका विरोध कर रहे थे । ये विरोध इतना बढ़ा था कि गांधी को 28 मई 1945 को सम्मेलन से अपना इस्तीफा देना पड़ा था। संविधान सभा में हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर भी लंबी चर्चा हुई थी। कांग्रेस पार्टी के अंदर भी हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर मत विभाजन हुआ था जिसमें हिंदी को बहुमत मिला था। बाद की कहानी तो सबके सामने है। फैज के विवाद के बहाने से जो लोग गंगा जमुनी तहजीब की बात कर रहे हैं उनको यह समझना होगा कि रानीति के लिए साहित्य की जमीन का उपयोग गलत है और इतिहास गवाह है कि जब जब ऐसा करने की कोशिश हुई तो जनता ने खुद ब खुद उनको हाशिए पर डाल दिया।   

Wednesday, January 1, 2020

हिंदी प्रकाशन जगत का कोना हुआ सूना

मुझे ठीक से याद है कि दिसंबर 1996 की बात है, मैंने एक दिन प्रभात प्रकाशन के बोर्ड नंबर पर फोन किया था। फोन उठानेवाले को बताया कि मैं एक साहित्यिक पत्रिका के लिए सालभर में छपी महत्वपूर्ण किताबों पर एक लेख लिख रहा हूं। मुझे प्रभात प्रकाशन के कर्ताधर्ता से बात करनी है। मुझे होल्ड करवाकर फोन ट्रांसफर किया गया। उधर से आवाज आई नमस्कार, मैं श्याम सुंदर बोल रहा हूं। मैंने अपना परिचय दिया और फोन करने का उद्देश्य बताया। श्याम सुंदर जी ने ध्यानपूर्वक मुझे सुना और फिर कहा कि कल कार्यालय आ जाइए, आपसे किताबों पर भी बात हो जाएगी और जो किताब आपको चाहिए वो मिल भी जाएगी। दिल्ली विश्वविद्लाय के पास विजय नगर इलाके में रहता था। बस से नियत समय पर आसफ अली रोड स्थित प्रभात प्रकाशन के कार्यलय पहुंच गया। श्याम सुंदर जी ने तुरंत बुला लिया और स्नेहपूर्वक बातचीत की। किताबों के बारे में लंबी चर्चा हुई। उस वर्ष प्रकाशित कई किताबें मंगवाकर सबके बारे में बताया और फिर कहा कि जो पुस्तकें चाहिए ले जाइए। कुछ पुस्तकें मेरी पढ़ीं हुई थीं तो उऩका कवर ले आया और उसके अलावा तीन पुस्तकें और लिया। उस दिन श्याम सुंदर जी ने इतना स्नेह दिया, पूरी बातचीत के दौरान मुझे इस बात का एहसास करवाते रहे कि मैं बहुत महत्वपूर्ण हूं। ये श्याम सुंदर जी की खासियत थी कि वो सामने वाले को बहुत सम्मान देते थे। इस मुलाकात के बाद मेरी उनसे बहुत ज्यादा मुलाकात नहीं हुई लेकिन फोन पर कई बार बातें हुईं। हर बार उनसे बात करके कुछ नया सीखने और समझने की दृष्टि मिलती थी।
श्याम सुंदर जी ने दिल्ली के चावड़ी बाजार इलाके से अपना कामकाज शुरू किया और 1958 में प्रभात प्रकाशन की शुरुआत की थी। चावड़ी बाजर के उस दफ्तर से लेकर 1996 में आसफ अली रोड के दफ्तर तक आने का सफर उनके संघर्ष की कहानी बयां करता है। जिस प्रभात प्रकाशन की शुरुआत श्याम सुंदर जी ने की थी आज वो हिंदी का शीर्ष प्रकाशक बन चुका है और हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं में भी पुस्तकों का प्रकाशन करता है। एक अनुमान के मुताबिक आज प्रभात प्रकाशन हर दिन एक नए पुस्तक का प्रकाशन करता है। श्याम सुंदर जी मथुरा के रहनेवाले थे लेकिन उऩकी पढ़ाई इलाहाबाद मे हुई। वहीं वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक के पूर्व सरसंघचालक रज्जू भैया के संपर्क में आए और स्वयंसेवक बने। जब उन्होंने दिल्ली आकर प्रभात प्रकाशन की शुरुआत की तो उन्होंने विश्व साहित्य से हिंदी जगत का तो परिचय करवाया ही बांग्ला और अन्य भारतीय भाषाओं की महत्वपूर्ण कृतियों का हिंदी में अनुवाद करवा कर प्रकाशित किया। श्याम सुंदर जी का एक बड़ा योगदान ये रहा कि उन्होंने हिंदू धर्म, संस्कृति और दर्शन की पुस्तकों का प्रकाशन कर पाठकों तक पहुंचाया और भारतीय ज्ञान परंपरा को मजबूत किया। 1971 में जब भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ तो उस वक्त देशभक्ति की भावना जगानेवाली पुस्तकों का प्रकाशन भी श्याम सुंदर जी ने किया किया। उनके इस कदम को फील्ड मार्शल जनरल मॉनेक शॉ ने बहुत सराहा था। श्याम सुंदर जी की साहित्य में गहरी अभिरुचि थी और वो इस बात की कमी शिद्दत से महसूस करते थे कि भारतीयता को केंद्र में रखकर कोई हिंदी साहित्यिक पत्रिका वहीं निकल रही है। उन्होंने ऐसी एक पत्रिका, साहित्य अमृत की योजना बनाई जिसको अटल बिहारी वाजपेयी और विद्या निवास मिश्र का सक्रिय सहयोग मिला। आज ये पत्रिका साहित्य जगत में बेहद समादृत है।
1 सितंबर 1927 के जन्मे श्याम सुंदर जी का 28 दिसंबर 2019 को 93 वर्ष की आयु में निधन हो गया। अपने काम को लेकर उनकी लगन को इस बात से समझा जा सकता है कि जिस दिन उऩका निधन हुआ उस दिन तक वो कार्यलय में आए थे। प्रकाशन जगत के इस पुरोधा को श्रद्धांजलि।