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Saturday, January 27, 2024

चरित्र और संवाद के माध्यम से राजनीति


फिल्मों के माध्यम से पहले भी और अब भी एक विचारधारा विशेष को प्रमोट करने की युक्ति चल रही है। उसका विस्तार भी हो रहा है। जब भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ तो स्वाधीनता के बाद जब उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कर दिया था कि फिल्म इंडस्ट्री नए बने राष्ट्र की प्राथमिकता में नहीं है नेहरू के इस बान के बाद इंडस्ट्री से जुड़े लोग चिंतित हो गए थे। उस समय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों ने सरकार को प्रसन्न करने के लिए नेहरू की विचारधारा के अनुसार फिल्में बनाने का उपक्रम आरंभ किया था। नेहरू साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थे। फिल्मकारों को लगा कि अगर साम्यवादी विचारधारा की कहानियों पर फिल्में बनाई जाएं तो नेहरू खुश होंगे। उनको खुश करने के लिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने मार्क्स के बहुविध स्त्रोत से निर्माण के सिद्धांत को अपना लिया। इस प्रविधि में अलग अलग क्षेत्र के विशेषज्ञ अलग अलग भाग का निर्माण करते हैं और उन सबको एक जगह जमा करके या जोड़ करके एक पूरी फिल्म बना ली जाती थी। परिणाम यह हुआ कि पूंजीवादी व्यवस्था से फिल्में बनने वाली फिल्मों की निर्माण प्रक्रिया साम्यवादी रही। लेखन में भी साम्यवादी व्यवस्था धीरे धीरे हावी होने लगी। 

जब नेहरू से मोहभंग का युग आरंभ हुआ तो हिंदी फिल्मों में साम्यवादी और पूंजीवादी धारा दोनों दिखाई देने लगी। फिर इंदिरा गांधी का दौर आया। उस दौर में हिंदी फिल्मों में साम्यवादी व्यवस्था और मजबूत हुई। इस कालखंड में साम्यवादी व्यवस्था में एक और रसायन मिलाया गया वो था हिंदू मुस्लिम एकता का। हिंदू महिला को उसके पुत्र के मुस्लिम दोस्त का खून चढ़ाकर बचाने जैसे दृष्य फिल्मों का हिस्सा बनने लगे। देश के विभाजन के समय हिंदू मुसलमान के बीच जो एक खाई बनी थी उसको पाटने की आड़ ली गई। इंदिरा जी ने देश में इमरजेंसी लगाई और संविधान की प्रस्तावना में मनमाने तरीके से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जोड़ा गया। संविधान की प्रस्तावना में संशोधन का असर भी फिल्मों पर भी पड़ा। अब हिंदू मुसलमान दोस्ती की मिसाल देनेवाली कहानियों पर फिल्में बनने लगीं। संवाद में कथित गंगा-जमुनी तहजीब की झलक दिखाई जाने लगी। साझा संस्कृति की बात होने लगी। इसके बाद असल खेल आरंभ होता है वो है फिल्मों में सनातन या हिंदू धर्म को नीचा दिखाना और अन्य धर्मों को बेहतर दिखाने की प्रवृत्ति का आरंभ। नायक भगवान को कोसते नजर आने लगे। देश में जब आतंकवाद का दौर आया तो उसका असर फिल्मों पर भी दिखा। स्वाधीनता के बाद फिल्मों में साम्यवाद का प्रभाव था तो उस दौर की फिल्मों में नायकों के अपराधी बनने को जमींदारों या दबंगों के अत्याचार से जोड़कर दिखाया गया था। इसी तरह से मुसलमानों के आतंकवादी बनने को पुलिस प्रशासन की ज्यादतियों से जोड़ा जाने लगा। कश्मीर के आतंकवादियों को लेकर भी हिंदी के कई फिल्मकारों ने यही उक्ति अपनाई। चाहे वो आमिर खान और काजोल अभिनीत फिल्म फना हो या संजय दत्त और ह्रतिक रोशन की फिल्म मिशन कश्मीर हो। इस तरह की फिल्मों की सूची लंबी है, जहां हिंदी फिल्मकारों ने आतंकवादियों को लेकर रोमांटिसिज्म दिखता है। धीरे धीरे ये प्रवृत्ति बढ़ती ही चली गई। 

जब ओवर द टाप (ओटटीटी) प्लेटफार्म प्रचलन में आए तो वहां दिखाई जानेवाली वेबसीरीज में भी इस तरह का रोमांटिसिज्म दिखा। संवाद में आतंकवादियों ने वो बातें कहीं जो विचारधारा विशेष की राजनीति के अनुकूल थीं। हाल ही में एक वेब सीरीज आई है जिसको मशहूर फिल्मकार रोहित शेट्टी ने बनाई है। सात भागों में बनी इस वेब सीरीज का नाम है द इंडियन पुलिस फोर्स। इसमें भी मुस्लिम आतंकवादियों को लेकर एक विशेष प्रकार का रोमांटिसिज्म दिखता है। इंडियन मुजाहिदीन के लिए काम करनेवाले आतंकवादी जरार का चित्रण मानवीय तरीके से किया गया है।वेबसीरीज में दिखाया जाता है कि आतंकवादी जरार का परिवार कानपुर का रहनेवाला है। दंगाइयों ने उसकी फैक्ट्री में जिंदा जला दिया। उसका चाचा भी उस आग में जिंदा जल गया। प्रतिशोध के लिए में वो आतंकवादी बनता है। ये चित्रण आतंक और आतंकवाद को जस्टिफाई करने जैसा है। 

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि संवादों के माध्यम से भी उन स्थितियों को बल दिया जाता है जिसमें जरार जैसे लोग आतंकवादी बनते हैं। द इंडियन पुलिस फोर्स में एक मुसलमान पुलिस अफसर जब आतंकवादी जरार को पकड़ लेता है तो दोनों के बीच का संवाद उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। आतंकी जरार पुलिस अफसर कबीर से कहता है, एक बात बताइए कबीर साहब! अपनी कौम पर होते जुल्म को देखकर भी रात को आसानी से नींद आ जाती है आपको? कैसा लगता है खुदा से नाशुक्री करके, कैसा लगता है इन काफिरों का कुत्ता बनकर। इतना सुनकर कबीर उसके पास पहुंचता है और उससे कहता है कि इस्लाम तेरे ... का है, तू ठेकेदार है खुदा का। वो मेरा नहीं है, नफीसा का नहीं है जिसकी जिंदगी तुमलोगों ने बरबाद की । तुम लोग सिर्फ मजहब की आड़ में अपनी कमजोरी, नाकामी, फ्रस्टेसन गुस्सा निकालनेवाले लोग हो। सिर्फ अपना उल्लू सीधा करनेवाले खूनी। आतंकवादी। और कुछ नहीं। फिर रोष में जरार बोलता है कि आप सुनना चाहते हैं कि आतंकवादी कौन है। उसके बाद वो अपने बचपन की खौफनाक कहानी कहता है जिसमें कानपुर में उसके परिवार पर जुल्म होता है। गुड मुस्लिम- बैड मुस्लिम का संवाद चलता रहता है। इस सीरीज में कई जगह इस प्रकार के संवाद हैं। ये ठीक है कि सीरीज को समग्रता में देखें तो अच्छाई की बुराई पर जीत होती है। परंतु दर्शकों के मन में एक सवाल तो छोड़ ही देती है। अगर कानपुर कं दंगे में जरार की फैक्ट्री न जलाई जाती या उस दंगे में उसके चाचा को जिंदा न जला दिया गया होता तो वो आतंकवादी नहीं बनता। इसका ट्रीटमेंट उसी प्रकार है जब पहले की फिल्मों में दिखाया जाता था कि बीहड़ में कोई डकैत बनता था तो उसके पीछे दबंगों का जुल्म होता था।

प्रश्न सिर्फ द इंडियन पुलिस फोर्स की कहानी या संवाद का नहीं है बल्कि उस प्रवृत्ति का है जिसके अंतर्गत हिंदी फिल्मों की दुनिया से जुड़े लोग इस तरह की बातों को न केवल दिखाते हैं बल्कि प्रमुखता से उसको प्रचारित भी करते हैं। वेब सीरीज के माध्यम से ओटीटी पर चलनेवाली फिल्मों के माध्यम से जिस तरह की एजेंडा आधारित सामग्री दिखाई जाती है उसको लेकर समाज को ही विचार करना होगा। पिछले दिनों एक तमिल फिल्म आई थी अन्नपूर्णी। नेटफ्लिक्स पर प्रसारित इस फिल्म में दिखाया गया था एक ब्राह्मण लड़की देश का श्रेष्ठ शेफ बनना चाहती है। बताया गया कि इसके लिए उसको मांसाहारी खाना भी बनाना होगा। इसके संवाद में प्रभु श्रीराम को मांसाहारी बताया गया। हिंदू लड़की को नमाज पढ़ते हुए दिखाया गया। तर्क ये दिया गया कि उसने बिरयानी बनाना एक मुस्लिम महिला से सीखा था इसलिए आभार प्रकट करने के लिए उसने नमाज पढ़ी। ये फिल्म सिनेमाघरों में एक दिसंबर को रिलीज हुई और महीने भर बाद ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आई। ओटीटी प्लेटफार्म पर आने के बाद इसके संवाद और दृष्य पर केस हुआ। केस के बाद इसके निर्माता कंपनी ने क्षमा मांगी और नेटफ्लिक्स से इसको हटाया गया। ये सब कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हुआ। पर इस फिल्म की टाइमिंग देखिए। अयोध्या में 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होनी थी। कुछ राजनीतिक दल और साम्यवादी बौद्धिक इसका विरोध कर रहे थे। उसी समय पर राम को मांसाहारी बतानेवाली फिल्म ओटीटी पर रिलीज की गई। ओटीटी प्लेटफार्म की लोकप्रियता या व्याप्ति जैसी है उसको ध्यान में रखना होगा। मनोरंजन को लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए लेकिन धर्म की आड़ में राजनीतिक खेल बंद होना चाहिए। 


Saturday, January 20, 2024

अकारण विवाद,आधारहीन तर्क


अयोध्याजी में श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में एक दिन शेष है। राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के पहले कुछ भगवाधारियों ने प्राण प्रतिष्ठा के समय को लेकर प्रश्न उठाए तो कुछ ने अर्धनिर्मित मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए। इन भगवाधारियों की आलोचना की आड़ में एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हुआ और इनको बड़ा संत महात्मा और सनातन का ज्ञाता मानते हुए सरकार और प्रधानमंत्री की आलोचना आरंभ कर दी। इससे जनमानस में ये शंका हुई कि आलोचना योजनाबद्ध ढंग से आरंभ किया गया। सनातन या हिंदू धर्म में हर किसी को प्रश्न करने का अधिकार है। ये एक मात्र ऐसा धर्म है जिसमें अपनी श्रद्धा के अनुसार अपने भगवान चुनने तक की स्वतंत्रता है। आप चाहें जिस भगवान की पूजा करें, जिसके भक्त बनना चाहें उसके बनें। हिंदू धर्म समग्रता में एक भगवान और एक किताब वाले धर्मों से अलग है। अगर उत्तर आधुनिक शब्दावली में कहें तो हिंदू धर्म पूरी दुनिया का एकमात्र लोकतांत्रिक धर्म है। लोकतंत्र में नागरिकों को जितना अधिकार है उससे अधिक अधिकार हिंदू धर्म अपने अनुयायियों को देता है। इसलिए इन भगवाधारियों के प्रश्नों का कोई विरोध नहीं है। लेकिन जिस प्रकार से सरकार विरोधी इकोसिस्टम ने इस विरोध को प्रतिकार का स्वरूप दिया उसकी आलोचना तो होनी ही चाहिए। प्रश्न और प्रतिकार के अंतर को समझना होगा। राममंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर प्रश्न उठाते हैं तो एक संवाद का जन्म होता है। भारतीय संस्कृति में संवाद का अपना एक महत्व रहा है और रहेगा। प्रश्न से आगे जाकर जब प्रतिकार आरंभ होता है तो तो वो आस्था का प्रतिकार होता है। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति का जो संघर्ष रहा है वो इसी आस्था के प्रतिकार से जुड़ा रहा। श्रीरामजन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में भी इस आस्था का सम्मान किया गया। यह बात इकोसिस्टम से जुड़े लोगों को समझ नहीं आ रही है। केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध करने की उसकी जो योजना है उसमें वो आस्था पर प्रहार करके उसको खंडित करने का प्रयत्न करते नजर आने लगे हैं। मोदी विरोध से राम विरोध तक पहुंच गए हैं। यहीं पर उनका अज्ञान और भारतीय जनमानस को समझने की कमजोरी उजागर होती है। 

श्रीराम से जुड़े दो ग्रंथ वाल्मीकि रचित रामायण और तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस को महत्वपूर्ण माना जाता है। तुलसी के श्रीरामचरितमानस की व्याप्ति किसी भी धर्मग्रंथ से कम नहीं है। उपरोक्त प्रश्नों के आलोक में इन दो ग्रंथों में वर्णित प्रसंगों पर दृष्टि डालते हैं। सबसे पहले मुहुर्त की बात करते हैं और देखते हैं कि वाल्मीकि रामायण में श्रीराम ने मुहुर्त के बारे में क्या कहा है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के चतुर्थ सर्ग में मुहुर्त की चर्चा है। जब श्रीराम वानर सेना के साथ समुद्र तट पर पहुंचते हैं और हनुमान उनको लंकापुरी का वर्णन सुनाते हैं। उस वर्णन को सुनकर श्रीराम कहते हैं कि हनुमन! मैं तुमसे सच कहता हूं-तुमने उस भयानक राक्षस की जिस लंकापुरी का वर्णन किया है उसे मैं शीघ्र नष्ट कर डालूंगा। हनुमान से बात समाप्त करने के बाद श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, अस्मिन् मुहुर्ते सुग्रीव प्रयाणमभिरोचय/ युक्तो मुहूर्ते विजये प्राप्तो मध्यं दिवाकर:। अर्थ ये हुआ कि – सुग्रीव! तुम इसी मुहुर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। सूर्यदेव दिन के मध्य भाग में जा पहुंचे हैं, इसलिए इस विजय नामक मुहुर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त होगी। श्रीराम जिस विजय मुहुर्त की बात कर रहे हैं उसके बारे में व्याख्या ये है कि दिन में दोपहरी के समय अभिजित मुहूर्त होता है इसी को विजय मुहूर्त भी कहते हैं । लंका प्रस्थान के लिए श्रीराम ने स्वयं दोपहर के इस मुहुर्त को चुना था तो श्रीरामजन्मभूमि पर बने मंदिर में भव्य समारोह के लिए इस मुहुर्त पर प्रश्न उठाना उचित नहीं प्रतीत होता है। ज्योतिष रत्नाकर में इस मुहूर्त में दक्षिणयात्रा निषिद्ध है लेकिन यहां तो किसी प्रकार की यात्रा की ही नहीं जा रही है। श्रीराम ने जब लंका विजय के प्रस्थान के लिए अभिजित मुहूर्त चुना था तो उससे अधिक पवित्र और सटीक मुहूर्त क्या हो सकता है। 

अब श्रीरामचरितमानस का वो प्रसंग देखते हैं जब श्रीराम समुद्र के किनारे शिव जी की पूजा करना चाहते हैं। यह प्रसंग भी लंका कांड का है। श्रीराम और उनकी सेना के सामने लंका जाने के लिए समुद्र को पार करने की समस्या थी। जामवंत ने नल नील को बुलाकर कहा कि मन में श्रीराम जी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, कुछ भी परिश्रम नहीं होगा। फिर उन्होंने वानरों के समूह से वृक्षों और पर्वतों के समूह को उखाड़ लाने को कहा, धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा।।सुनि कपि भालु चले करि हूहा।जय रघुबीर प्रताप समूहा।। वानर भालू अपना काम करके वृक्षों और पर्वतों के समूह ले आते हैं और नल नील उनको सेतु का आकार देने लगते हैं। सेतु की सुंदर रचना देखकर कृपा सिंधु श्रीराम कहते हैं- परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहीं बरनी।। करिहउं इहां संभु थापना। मोरो ह्रदयं परम कलपना।। श्रीराम को सुनकर सुग्रीव ने अपने दूत भेजे और ऋषियों को समुद्र तट पर बुलाया। फिर वहीं पर श्रीराम ने शिवलिंग की स्थापना करके उनकी पूजा अर्चना की। लंका कांड में तुलसीदास जी ने लिखा है- सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिवर सकल बोलि लै आए।। लिंग थापि विधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।। अगर इस प्रसंग को देखे तो भगवान की पूजा के लिए कहां किसी मंदिर या स्थान की आवश्यकता पड़ी। श्रीराम ने समुद्र किनारे शिवलिंग की स्थापना की और मुनियों की उपस्थिति में उनकी पूजा की। शिवलिंग भी पूजा के पहले ही बनाया गया। कथित शंकराचार्य आदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना इस आधार पर कर रहे हैं कि वो अर्धनिर्मित मंदिर में पूजा कर रहे हैं। आलोचना करनेवाले इन भगवाधारियों को रामायण और श्रीरामचरितमानस में वर्णित इन प्रसंगों को देखना चाहिए। कहां कोई मंदिर कहां कोई शिखर। बस सागर का किनारा, श्रेष्ठ मुनियों की उपस्थिति और भगवान शंकर के प्रति आस्था। शिवलिंग की स्थापना भी हुई और पूजा भी। निर्मित- अर्धनिर्मित की कोई बात ही नहीं है। जहां हमारे ग्रंथों में इस तरह की बातें हो वहां मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को लेकर उठनेवाले प्रश्नों को इन प्रसंगो के आलोक में देखना चाहिए। प्रश्न करनेवालों को प्रभु श्रीराम के इस वचन का भी ध्यान रखना चहिए- होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।भगति मोरि तेहि संकर देहहि।। मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।। जो छल छोड़कर निष्काम होकर श्रीरामजी की सेवा करेंगे उन्हें शंकर जी मेरी भक्ति देंगे। श्रीराम के वचन सबको अच्छा लगा और शंकर जी की पूजा के पश्चात सभी ऋषि मुनि अपने अपने आश्रमों में लौट गए।

अयोध्या धाम में श्रीराम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में प्रश्न खड़ा करनेवाले यहां तक कह रहे हैं कि संविधान की शपथ लेनेवाले प्रधानमंत्री प्राण प्रतिष्ठा नहीं कर सकते। होता यह है कि जब विरोध के लिए विरोध करना हो तो ऐसे ऊलजलूल तर्क ढूंढे जाते हैं जो कई बार हास्यास्पद हो जाते हैं। संविधान की शपथ का तर्क भी ऐसा ही है। एक सज्जन ने तो यहां तक कह दिया कि नव्य मंदिर जन्म स्थान से तीन किलोमीटर दूर बन रहा है। आधारहीन, तथ्यहीन बयान। प्रश्न करनेवाले की मंशा और उसके ज्ञान पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। श्रीराम और उनका चरित इस देश के लोक मानस में अंकित है। उसका प्रतिकार देश की जनता को शायद ही मंजूर हो। सोमवार को दोपहर विजय या अभिजित मुहूर्त में नव्य मंदिर में प्रभु श्रीराम की मनोहारी मूर्ति की स्थापना हो रही है। उनके साथ पूर्व में स्थापित रामलला विराजमान भी होंगे। मंगल की कामना होनी चाहिए।  


Saturday, January 13, 2024

रामकथा प्रसंगों से भरी हिंदी फिल्में


श्रीरामजन्मभूमि पर अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है। 22 जनवरी को मंदिर में श्रीराम के बालस्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। पूरे देश के सनातनी इस समय रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर उत्साहित हैं। ऐसे वातावरण में श्रीरामचरित पर, श्रीराम कथा पर अन्य भाषाओं में लिखे रामायण के विभिन्न आयामों पर चर्चा हो रही है। नई-नई पुस्तकें आ रही हैं। बच्चों के लिए रामकथा और श्रीरामजन्मभूमि पर कामिक्स का प्रकाशन हो रहा है। फिल्मों और सीरियल्स का निर्माण हो रहा है। ऐसे वातावरण में मन में सहज ही एक प्रश्न उठा कि श्रीराम कथा का हिंदी फिल्मों पर क्या प्रभाव रहा है। जब इस दिशा में विचार करने लगा तो सामने आया कि रामकथा से जुड़े विभिन्न प्रसंगों को लेकर हिंदी के फिल्मकारों ने फिल्में बनाई। फिल्म या पटकथा लिखनेवालों ने रामकथा से प्रसंग उठाए। उन प्रसंगों को आधार बनाकर आधुनिक परिवेश और पात्रों की रचना की और उनको कथासूत्र में पुरो दिया। ये बहुत ही रोचक विषय लगा । इसको सोचते हुए सचिन भौमिक और राजकपूर से जुड़ा एक किस्सा याद आ गया। सचिन भौमिक हिंदी फिल्मों से जुड़े सफलतम कहानीकारों में से एक हैं। उनकी लिखी कहानियों पर बनी फिल्में निरंतर सुपर हिट होती रही हैं। उनकी सफल फिल्मों की लंबी सूची है जिसमें अनुराधा, आई मिलन की बेला, जानवर, आया सावन झूम के, अराधना, गोल-माल, कर्ज, नास्तिक, झूठी, सौदागर, ताल आदि प्रमुख हैं। इन सफल फिल्मों में उन्होंने किसी की कहानी लिखी तो किसी फिल्म की पटकथा, लेकिन लेखक के रूप में वो बेहद सफल रहे हैं। बताया जाता है कि एक जमाने में निर्माताओं की वो पहली पसंद थे। कहना न होगा कि सलीम जावेद की जोड़ी से ज्यादा हिट फिल्में सचिन भौमिक के नाम पर दर्ज है। तो बात कर रहा था एक किस्से की। वो किस्सा है सचिन भौमिक और राज कपूर से जुड़ा। सचिन भौमिक कोलकाता (तब कलकत्ता) से मायानगरी मुंबई (तब बांबे) पहुंचे थे। उनकी इच्छा राज कपूर से मिलने की थी। वो इसके लिए प्रयत्न कर रहे थे। एक दिन वो राज कपूर से मिलने आर के स्टूडियो पहुंच गए। उन्होंने गेट पर अपना परिचय दिया लेकिन किसी कारणवश उस दिन राज कपूर से उनकी भेंट नहीं हो सकी। उनको अगले दिन के लिए मुलाकात का समय मिल गया। अगले दिन नियत समय पर सचिन भौमिक फिर से चेंबूर स्थित आर के स्टूडियो पहुंचे। उनको राज कपूर के कमरे में ले जाया गया। अभिवादन आदि के बाद राज कपूर ने उनसे मुलाकात का प्रयोजन जानना चाहा। सचिन भौमिक ने खुल कर अपनी इच्छा बताई और कहा कि वो उनके लिए फिल्म की कहानी लिखना चाहते हैं। राज कपूर ने धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनी और कहानी भी। जब बातचीत खत्म हो गई तो राज कपूर ने कहा कि आप हिंदी फिल्मों के लिए कहानियां लिखते हो, अच्छी बात है, लिखते रहो लेकिन इतना ध्यान रखना कि हिंदी फिल्मों में कहानी तो एक ही होती है, ‘राम थे, सीता थीं और रावण आ गया।‘ सचिन भौमिक ने एक साक्षात्कार में बताया था कि राज कपूर की ये बात उन्होंने गांठ बांध ली थी और वो कोई भी कहानी लिखते थे तो उनके अवचेतन में रामकथा अवश्य चल रही होती थी।

राज कपूर ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी लेकिन उतनी ही महत्वपूर्ण बात  सचिन भौनिक ने भी कही कि कहानी लिखते समय उनके अवचेतन रामकथा होती थी। इस अवचेतन मन की छाप आपको कई फिल्मों पर दिखेगी। अगर आप सुपरहिट फिल्म शोले पर विचार करें तो श्रीरामकथा का एक प्रसंग आपको उसमें दिखाई देगा। श्रीरामकथा में जब राक्षसों ने ऋषियों को बहुत तंग करना आरंभ कर दिया, यज्ञ आदि में बाधा डालने लगे तो विश्वामित्र ने राजा दशरथ से जाकर ये बातें बताईं। उनसे राक्षसों से मुक्ति के लिए राम और लक्ष्मण को साथ भेजने का आग्रह किया। राजा दशरथ पहले घबराए लेकिन फिर राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दिया। दोनों भाइयों ने राक्षसों का वध करके ऋषियों के यज्ञादि में आनेवाले विघ्न को दूर किया। अब फिल्म शोले की कहानी को देखिए तो आपको इस प्रसंग की छाया वहां दिखाई देगी। ठाकुर बलदेव सिंह और उनकी बहू को छोड़कर डकैत गब्बर सिंह ने उनके परिवार के सभी सदस्यों की हत्या कर दी थी। रामगढ़ इलाके में उसका आतंक था। गब्बर के आतंक को खत्म करने के लिए ठाकुर जय और वीरू को रामगढ़ लेकर आते हैं। कहानी में तमाम तरह के मोड़ आते हैं और अंत में गब्बर के आतंक का अंत होता है। अब यहां अगर हम देखें तो विश्वामित्र वाले प्रसंग को कहानीकार ने उठाया और नए परिवेश और पात्रों को बदलकर कहानी में पिरो दिया। यहां हम सिर्फ विश्वामित्र के लिए राक्षसों को खत्म करने के लिए राम और रावण को ले जाने की बात कर रहे हैं। श्रीराम कथा में वर्णित दोनों भाइयों के चरित्र के बारे में बिल्कुल ही बात नहीं कर रहे हैं। इसी तरह से एक और फिल्म आई, कभी खुशी कभी गम। इसमें भी श्रीरामकथा का प्रसंग आपको दिखाई देगा। राजा दशरथ के वचन की रक्षा करने के लिए प्रभु श्रीराम चौदह वर्षों के वनवास पर चले गए। इस फिल्म में भी अपने पिता यशवर्धन रायचंद के कहने पर उनका ज्येष्ठ पुत्र राहुल घर छोड़कर अपनी पत्नी के साथ विदेश चला जाता है। राहुल की माता नंदिनी को बहुत कष्ट होता है। वो घुटती रहती है। अब इस छोटे से प्रसंग को उठाकर करण जौहर ने बिल्कुल ही आधुनिक परिवेश और पात्रों के साथ फिल्म बना दी। यहां एक बार फिर से स्पष्ट करना चाहता हूं कि इसमें न तो श्रीराम के चरित्र का अंश है और ना ही उनका मर्यादित आचरण की झलक। बस प्रसंग वहीं से उठाए गए हैं। हिंदी फिल्मों में इस तरह के सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। कई फिल्मों के गीतों में भी रामकथा के प्रसंग आपको दिख जाएंगे। स्वदेश फिल्म का गीत याद करिए, पल पल है भारी वो विपदा है आई, मोहे बचाने अब आओ रघुराई। आओ रघुवीर आओ, रघुपति राम आओ, मोरे मन के स्वामी, मोरे श्रीराम आओ। इतना ही नहीं कई फिल्मी गीत तो इतने लोकप्रिय हुए उसको सुनकर आम जनता के मन में श्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। फिल्म नीलकमल का गाना- हे रोम रोम में बसनेवाले राम, जगत के स्वामी, हे अंतर्यामी, मैं तुमसे क्या मांगू। या फिर 1961 की फिल्म घराना का गीत, जय रघुनंदन जय सियाराम से ऐसा ही प्रभाव उत्पन्न होता है। 

दरअसल श्रीराम कथा और उनका चरित्र इतना विराट है कि उससे जुड़े किसी प्रसंग को कहानीकार उठाते हैं और फिर उसकी पृष्ठभूमि में अपनी कथा रच लेते हैं। रामकथा तो गंगा है जो सदियों से बहती आ रही है और हर कोई अंजुलि भर जल वहां से लेता है। अपनी श्रद्धानुसार उसका उपयोग करता है। इसी तरह से रामकथा रूपी गंगा से फिल्मी कथाकार अंजुलि भर भर कर प्रसंग उठाते रहते हैं और अपनी शैली में, अपनी भावभूमि पर उसका उपयोग करते रहते हैं। श्रीराम कथा के मूल में है अर्धम पर धर्म की विजय और जितनी भी सुखांत हिंदी फिल्में हैं उसमें यही दिखता है। तमाम बाधाओं के बाद अधर्म का नाश होता है और धर्म की स्थापना होती है। यहां धर्म को व्यापक संदर्भ में देखे जाने की आवश्यकता है। अब जबकि कई विश्वविद्यालयों में फिल्म अध्ययन केंद्र खुल गए हैं तो जरूरत इस बात की है कि वहां श्रीराम कथा के हिंदी फिल्मों पर व्यापक प्रभाव पर शोध हो, चर्चा हो और उसको जनता के सामने रखा जाए। कथाकारों के अवचेतन को समझा जाए।     


Saturday, January 6, 2024

भारतीय स्थापत्य कला का परम वैभव


अयोध्या के नव्य श्रीराममंदिर में प्रथम तल का कार्य लगभग पूर्ण होने को है। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ने निर्माणाधीन मंदिर के प्रवेश द्वार पर स्थापित गज, सिंह और गरुड़ जी की मूर्तियों के चित्र साझा किए हैं। ये सीढ़ियों के दोनों तरफ लगाए गए हैं। ये मूर्तियां राजस्थान के वंसी पहाड़पुर के हल्के गुलाबी रंग के बलुआ पत्थर से बनी है। श्रीरामजन्मभूमि मंदिर में राजस्थान के बंसी पहाड़पुर इलाके में मिलनेवाले गुलाबी पत्थर का काफी उपयोग हुआ है। श्रीराम मंदिर की इन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ेंगे तो इन मूर्तियों में भारतीय परंपरा के अनुरूप गज की सूंढ़ में पुष्पमाला दिखेगी जो भारतीय स्थापत्य कला को दर्शाता है। भारतीय परंपरा में जिसे शार्दूल कहते हैं उस सिंह को सीढ़ियों के किनारे स्थापित किया गया है। ये सकारात्मक संभावनाओं को बढ़ानेवाला स्वरूप माना जाता है। सीढ़ियों के तीसरे सतह पर हनुमान जी दक्षिणाभिमुख हाथ प्रणाम की मुद्रा में खड़े हैं और उनके सम्मुख गरुड़ जी की उत्तराभिमुख हाथ जोड़े मुद्रा में प्रतिमा स्थापित की गई है। मंदिर के गर्भगृह के पहले तीन मंडप बनाए गए हैं। सीढ़ियों से जब आप गर्भगृह की तरफ बढ़ेंगे तो सबसे पहले नृत्य मंडप है। नृत्य मंडप की छतरी आठ स्तंभों पर टिकी हुई है। इन आठ स्तंभों पर भगवान शिव की विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करते हुए मनोहारी चित्र उकेरे गए हैं। इसमें भगवान शिव का परम कल्याणकारी रूप सदाशिव, शिव और पार्वती के अलावा नंदी पर सवार शिव की मूर्तियां बनाई गई हैं। एक स्तंभ पर शिव अपने पूरे परिवार के साथ विराजमान हैं। शिव के इन विभिन्न स्वरूपों को भी पत्थरों पर बारीकी से उकेरा गया है और ये मूर्तियां बहुत ही जीवंत वातावरण का निर्माण करती हैं। 

नृत्यमंडप से जब भक्तगण गर्भगृह की ओर बढ़ते हैं तो एक और मंडप मिलता है जिसका नाम है रंगमंडप। नृत्यमंडप और रंगमंडप के बीच आरंभ के चार स्तंभों पर गणपति जी की विशिष्ट और विभिन्न मुद्राएं उकेरी गई हैं। गणपति को अभय मंगल और शुभ का देवता माना जाता है। ये सभी स्तंभ पत्थरों से निर्मित किए गए हैं और इनमें किसी प्रकार के लोहे का उपयोग नहीं किया गया है। जब आप रंगमंडप से आगे बढ़ेंगे तो आपको गुड़ी मंडप या सभा मंडप मिलेगा। रंगमंडप और गुड़ी मंडप के बीच के चार स्तंभों पर भी गणपति की मूर्तियां उकेरी गई हैं। गुड़ी मंडप में प्रभु श्रीराम के बालरूप से लेकर यौवनावस्था तक के विभिन्न रूपों की मूर्तियां दीवारों और स्तंभों पर बनाई गई हैं। इसके अलावा इन्हीं स्तंभों और दीवारों पर विष्णु के दशावतार की मूर्तियां भी बनाई गई हैं। श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र से मिली जानकारी के अनुसार मंदिर के विभिन्न मंडपों के खंभों और दीवारों पर अनेक देवी देवताओं और देवांगनाओं की मूर्तियां उकेरी जा रही हैं। गुड़ी मंडप की बाईं ओर प्रार्थना मंडप और दाईं ओर कीर्तन मंडप बनकर लगभग तैयार है। गुड़ी मंडप के ठीक सामने गर्भगृह बनाया गया है। 

गर्भगृह के मुख्य द्वार पर जय विजय की मूर्ति द्वारपाल के रूप मे लगाई गई है। सनातन परंपरा में जय विजय स्वर्ग के द्वारपाल माने जाते हैं। अबतक आप गुलाबी पत्थर पर इन मूर्तियों को देख रहे थे लेकिन जहां से गर्भगृह आरंभ होता है वहां से सफेद संगमरमर का काम दिखने लगता है। सभी स्तंभ और दीवारें सफेद हैं। मूर्तियां भी इन सफेद संगमरमर शिलाओं पर ही उकेरी गई हैं। गर्भगृह के चौखट पर दोनों तरफ चंद्रधारी गंगा यमुना की बहुत ही सुंदर मूर्तियां बनाई गई हैं। एक तरफ गंगा जी हाथ में कलश लिए हुए मकरवाहिनी स्वरूप में हैं तो दूसरी तरफ यमुना जी कूर्मवाहिनी स्वरूप में स्थापित की गई हैं। गर्भगृह की बाईं तरफ बड़े से मंडप में एक ताखे पर गणेश जी की मूर्ति है और उसके ऊपर रिद्धि सिद्धि और शुभ लाभ के चिन्ह बनाए गए हैं। यहां आकर गर्भगृह के पहले ही भक्तों को भारतीय परंपरा और लोक में प्रचलित देवी देवताओं के दर्शन होते हैं। एक ताखे में हनुमान जी की प्रणाम मुद्रा की मूर्ति के ऊपर अंगद, सुग्रीव और जामवंत की मूर्तियां बनाई गई हैं। इनसे गर्भगृह तक पहुंचते पहुंचते भक्त पूरी तरह से रामकथा में डूब जाते हैं । 

गर्भगृह के मुख्यद्वार के ठीक ऊपर समस्त सृष्टि के पालक विष्णु भगवान की शेषनाग पर लेटी मुद्रा को पत्थर पर उकेरा गया है। भगवान राम और कृष्ण को विष्णु भगवान का ही अवतार माना जाता है। इस कारण से गर्भगृह के मुख्यद्वार पर शेषशायी भगवान विष्णु का चित्र उकेरा गया है। शेषनाग के विग्रह की शैया पर लेटे हुए भगवान विष्णु के मस्तक पर मुकुट है। उनके पांव के पास धन और वैभव की देवी लक्ष्मी जी बैठी हुई हैं। हमारे पौराणिक और धर्मिक ग्रंथों में भगवान के तीन स्वरूप बताए गए हैं, ब्रह्मा विष्णु और महेश। ब्रह्मा जी इस समस्त सृष्टि के निर्माता, विष्णु जी समस्त सृष्टि के पालनकर्ता और शिवजी यानि महेश को सृष्टि का संहारक कहा जाता है। गर्भगृह के मुख्यद्वार के ऊपर शेषशैया पर लेटे विष्णु भगवान के साथ ब्रह्माजी और शिवजी की मूर्तियां भी बनाई गई हैं। गर्भगृह के द्वार के ऊपर जहां ये मूर्तियां बनाई गई हैं वो एक अर्धचंद्राकार क्षेत्र है। इस अर्धचंद्राकार की परिधि पर ही सूर्य, चंद्रमा और गरुड़ जी की मूर्तियां बनाई गई हैं। 

नव्य श्रीराम मंदिर पूरा गर्भगृह सफेद संगमरमर के पत्थरों से बना है और नागर शैली में बने इस मंदिर के गर्भगृह की गोलाकार छत में बेहद सुंदर अलंकरण किया गया है। गोलाकार छत के ठीक नीचे प्रभू श्रीराम के नव्य विग्रह के लिए एक चबूतरा बनाया है जो तीन स्तर का है। चबूतरे के सबसे पीछे वाले हिस्से में भगवान श्रीराम के बाल्यवस्था की मूर्ति लगाई जाएगी। ये मूर्ति पांच फीट की है जिसमें 51 इंच पर प्रभु श्रीराम का मस्तक है। मंदिर का डिजाइन इस प्रकार से बनाया गया है कि प्रत्येक रामनवमी पर श्रीराम के मस्तक पर सूर्यकिरण का अभिषेक होगा। अब तक जो सूचनाएं आ रही हैं उसके अनुसार कर्नाटक के मूर्तिकार अरुण योगीराज ने ये मूर्ति बनाई है। अरुण योगीराज की बनाई मूर्ति शास्त्रों में वर्णित प्रभु श्रीराम के रूपरंग के अनुरूप श्यामल रंग की है। इस मूर्ति को भी कर्नाटक के पत्थर से तैयार किया गया है। नव्य प्रतिमा के लिए वस्त्र और आभूषण तैयार किए जा रहे हैं। गर्भगृह के इस चबूतरे के दूसरे हिस्से पर श्रीराम का जो विग्रह इस समय अस्थायी मंदिर में है उसको स्थापित किया जाएगा। उनके साथ वहां लक्ष्मण जी और भरत जी के विग्रह भी स्थापित होंगे। तीसरे सतह पर श्रीराम के पूजा पाठ की सामग्री और घंटियां आदि रखी जाएंगी। मंदिर के द्वितीय तल पर भव्य रामदरबार होगा। 22 जनवरी को होनेवाले प्राण प्रतिष्ठा के समय तक प्रथम तल ही तैयार हो पाएगा। 

मंदिर के लोअर प्लिंथ यानि भूतल से पांच फीट ऊपर तक गुलाबी पत्थरों पर वाल्मीकि रामायण के आधार राम जन्म से लेकर राम राज्याभिषेक तक की मूर्तियां उकेरी जाएंगीं। इन मूर्तियों को संस्कार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रख्यात चित्रकार वासुदेव कामत के चित्रों के आधार पर तैयार किया जाएगा। इनमें से दो प्रसंग का आधार श्रीरामचरितमानस भी होगा, पहला अयोध्या का राजदरबार और चित्रकूट का बनवासी प्रसंग। इस तरह से देखें तो प्रभु श्रीराम के मंदिर में जिस प्रकार का स्थापत्य, चित्रकारी और मूर्तिकला का उपयोग किया जा रहा है वो पूरी तरह से भारतीय परंपराओं और कलाओं से जुड़ा है। जिस प्रकार मंदिर निर्माण की पूरी तकनीक भारतीय है उसी प्रकार से मंदिर में निर्मित सभी प्रसंग सनातनी हैं। कई जगह इसका उल्लेख मिलता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने जिस राममंदिर का निर्माण करवाया था वो कसौटी पत्थर के चौरासी स्तंभों तथा सात कलशों वाला विशाल मंदिर था। उस मंदिर के अवशेष ही मिले थे लेकिन अब श्रीराघवेंद्र सरकार को जो मंदिर बन रहा है वो भी भव्यता में कम नहीं है। श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र के अनुसार पूरे मंदिर में 392 स्तंभ होंगें जो मंदिर और अयोध्या के वैभव को पुनर्स्थापित करेंगे। 


भक्ति ज्ञान और सदाचार की त्रिवेणी


अयोध्या में श्रीराम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के पहले देश के अनेक शहरों में दैनिक जागरण श्रीरामोत्सव की चर्चा कवि चेतन कश्यप से हो रही थी। बातचीत के क्रम में उन्होंने बताया कि गायक मुकेश ने श्रीरामचरितमानस को आज से 50 वर्ष पूर्व गाया था। मुकेश के गाए चौपाइयों का पहला एलपी रिकार्ड एचएमवी से 1973 में आया था। ये बालकांड पर आधारित था। तब एचएमवी ने ये घोषणा की थी कि तुलसी रामायण, भारत व्यापी मानस चतु:शताब्दी समारोह में एचएमवी के योगदान स्वरूप एक विशिष्ट एल्बम के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। पहले एल्बम को पहला पुष्प बताया गया था। मानस की चतु:शताब्दी के शुभ अवसर पर मानस के रचयिता का पुण्य स्मरण स्वाभाविक था। कहा गया था कि गोस्वामी तुलसीदास हिंदी भाषा के तो सर्वश्रेष्ठकवि हैं ही संसार भर में वो सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित महाकवि माने जाते हैं। उनका सबसे महान ग्रंथ रामचरितमानस है जिनकी चौपाइयां और दोहे शिलालेख और सुभाषित पुष्प बन गए हैं। उन्होंने जनता के मनोराज्य में रामराज्य के आदर्शों को सदा के लिए प्रतिष्ठित कर दिया है। 1974 में उन्होंने मानस के सभी खंडों को गाया था जिसका रिकार्ड भी तब आया था, जो आज भी बेहद लोकप्रिय है। आज भी मुकेश के गाए इन चौपाइयों का अपना अलग महत्व और लोकप्रियता है। कहनेवाले तो यहां तक कहते हैं कि अगर मुकेश के एक काम को याद किया जाएगा तो वो है उनका ये गायन। तुलसी रामायण के नाम से आए इस रिकार्ड का जो कवर था उसके ऊपर एक टिप्पणी भी प्रकाशित थी, ‘तुलसी रामायण की कथावस्तु रामचरितमानस से संकलित है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस का शुभारंभ विक्रम संवत 1631 में रामनवमी के दिन अयोध्या में किया था। विगत चार सौ वर्षों में रामचरितमानस की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा निरंतर बढ़ती रही है। किसान का कच्चा मकान हो या आलीशान राजमहल , गृहस्थ का घर हो या महात्मा का आश्रम, देश हो या विदेश, सर्वत्र रामचरितमानस हिंदी भाषा का सर्वोत्तम और सर्वमान्य पवित्र ग्रंथ माना जाता है। निरक्षर श्रोता हो शास्त्री वक्ता ,सामानय जन हो या अतिविशिष्ट व्यक्ति, हिंदी भाषी हो या अहिंदी भाषी, देशी भाष्यकार हो या विदेशी अनुवादक, सबने रामचरितमानस से महत्व को शिरोधार्य किया। अनेक देशी और विदेशी भाषा में ये ग्रंथ अनुदित है। किंतु सर्वोपरि महत्व तो रामचरितमानस का यह है कि इसकी पावन वाणी कोटि-कोटि जन के मन में भक्ति ज्ञान और सदाचार की त्रिवेणी बनी है। विगत चार सौ वर्षों से रामचरितमानस जनमानस में राम भक्ति का कमल खिलानेवाले सूर्य के समान प्रकाशित रहा है।‘ आज से 50 वर्ष पूर्व जो एल्बम आया था उसमें मुकेश के अलावा वाणी जयराम, कृष्णा कल्ले, पुष्पा पागदरे, प्रदीप चटर्जी, सुरेन्द्र कोहली और अंबर कुमार की आवाज भी थी। इसकी संगीत रचना मुरली मनोहर स्वरूप ने की थी और संकलन पंडित नरेन्द्र शर्मा ने किया था। इस समय जब पूरा देश राममय हो रहा है तब मुकेश के साथ इन कलाकारों के योगदान का स्मरण भी किया जाना चाहिए। उस दौर में जब तकनीक इतनी उन्नत नहीं थी तब भी मुकेश के गाए तुलसी रामायण हर उस घर में गूंजती थी जिस घर में रिकार्ड प्लेयर होता था। 

श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता का कारण कई वामपंथी विचारक इसका धर्म से जुड़ा होना मानते हैं। उनका मत है कि तुलसीदास ने चूंकि धर्म और भगवान पर लिखा इस कारण श्रीरामचरितमानस लोकप्रिय है। ऐसे विचारक जब इस तरह की टिप्पणी करते तो यह भूल जाते हैं कि यदि भगवान, धर्म और भक्ति ही किसी रचना का आधार होती तो भक्तिकाल के लगभग सभी कवि लोकप्रिय होते। उस काल के सभी कवियों ने इन्हीं को आधार बनाकर लिखा। लेकिन न तो सूरदास, न केशवदास न ही नाभादास जैसे भक्तिकाल के कवियों को तुलसीदास और उनकी कृति श्रीरामचरितमानस जैसी लोकप्रियता मिल पाई। विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है कि ‘तुलसीदास की लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने अपनी कविता में अपने देखे हुए जीवन का बहुत गहरा और व्यापक चित्रण किया है। उन्होंने राम के परंपरा प्राप्त रूप को अपने युग के अनुरूप बनाया। उन्होंने राम की संघर्ष कथा को अपने समकालीन समाज और अपने जीवन के संघर्ष कथा के आलोक में देखा। उन्होंने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुन:स्थापित नहीं किया है, अपने युग के राम को चित्रित किया है। उनके दर्शन और चित्रण के राम ब्रह्म हैं लेकिन उनकी कविता के राम लोक-नायक हैं।‘ त्रिपाठी ने जो लोक-नायक शब्द उपयोग किया है उसका जो लोक है उसमें ही तुलसी के रामचरित की लोकप्रियता के कारण हैं। लोक में राम या कह सकते हैं कि लोक के राम। राम का जो चरित्र चित्रण तुलसी ने किया है उसमें कहीं भी अहंकार नहीं है। लोक कभी भी अहंकारी नायकों को पसंद नहीं करता है। इसके अलावा राम का जो समर्पण दिखता है वो अप्रतिम है। जब वो छात्र होते हैं तो अपने गुरू के लिए समर्पित होते हैं, जब पुत्र होते हैं तो पिता के लिए, उनके वचन के लिए राज का त्याग कर वन गमन कर जाते हैं। कहीं किसी प्रकार का मलाल नहीं, क्षोभ नहीं। जब पति होते हैं तो पत्नी की हर इच्छा को पूरी करने का समर्पण दिखता है। पत्नी के खिलाफ हुए अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए अयोध्या से सेना नहीं बुलाते, अपने दम पर अपनी सेना बनाते हैं और रावण को सबक सिखाते हैं। जब मित्र होते हैं तो सुग्रीव के साथ खड़े होते हैं। 

यह अकारण नहीं है कि प्रेमचंद भी कहते हैं कि उनके आदर्श राम और कृष्ण हैं। 1932 में प्रेमचंद ने एक निबंध लिखा था जाग्रति। उसमें वो लिखते हैं कि ‘हमारे जीवन का उद्देश्य प्रभुत्व की प्राप्ति नहीं बल्कि परमार्थ संचय है। हमारे जीवन का आदर्श स्वार्थ की अंधी उपासना नहीं संसार की निधि को समेटकर अपनी थैली में भर लेना नहीं वरन संसार में इस तरह रहना है कि हमसे किसी को हानि न हो। किसी को कष्ट न हो किसी का गला न दबे। हमारे आदर्श चरित्र नेपोलियन जैसे नहीं जो संसार पर अधिकार प्राप्त करना चाहता था न क्लाइब और क्रामबेल जैसे न ही लेनिन और मुसोलिनी जैसे। हमारे आदर्श चरित्र कृष्ण और राम और अशोक जैसे राजा अर्जुन और भीष्म जैसे योद्धा और गांधी जैसे गृहस्थ हैं। हमारा विश्वास संघर्ष में नहीं सहयोग में है। प्रेमचंद की इन पंक्तियों में हमें तुलसी के राम का चरित स्पष्ट रूप से दिखता है। बाल्यकाल से लेकर राज्याभिषेक तक श्रीराम कहीं भी संघर्ष के लिए उद्यम करते नहीं दिखते। रामचरित में सहयोग का भाव है। इसलिए जब मुकेश रामचरित को गाते हैं तो लोगों के दिल को छूते हैं। पंति नरेन्द्र शर्मा का सहयोग भी इस एल्बम में मिला था। नरेन्द्र शर्मा ऐसे कवि गीतकार थे जिन्होंने भारतीय परंपरा और शब्द संपदा का उपयोग अपने गीतों में किया और लोकप्रियता भी हासिल की। लता मंगेशकर जब ‘राम रतन धन पायो’ नाम का एल्बम तैयार कर रही थीं तब नरेन्द्र शर्मा ने उनसे कहा कि ‘राम ऐसे अकेले भगवान हुए हैं कि अगर कोई उनकी तन मन से सेवा करे तो तो उसका सारा कार्य सिद्ध होता है। राम ही वो ईश्वर हैं जो सत्य के छोर पर खड़े होकर आपको अंत में निर्वाण की दशा में ले जाते हैं। नरेन्द्र शर्मा की इस बात का लता पर इतना असर हुआ कि उनकी राम में श्रद्धा बढ़ने लगी थी। लता ने माना था कि ‘तभी से मैं राम भक्त हूं और मैं मानती हूं कि उनके जैसा चरित्र बल किसी दूसरे पौराणिक किरदार में नहीं मिलेगा। राम और उनके चरित की लोक में इतनी व्याप्ति है कि हर कोई उनमें अपना आदर्श ढूंढ लेता है।