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Saturday, June 24, 2023

औपनिवेशिक ताकतों का प्रतिकार


गीता प्रेस, गोरखपुर को गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा होते ही इंटरनेट मीडिया और अन्य समाचार माध्यमों में सकारात्मक और नकारात्मक टिप्पणियां देखने को मिलने लगीं। कांग्रेस पार्टी ने तो एक पुस्तक की आड़ लेकर गीता प्रेस की तुलना गोडसे से कर डाली। कांग्रेस की इस तुलना के बाद मामले ने तूल पकड़ा और गीता प्रेस के साथ-साथ इससे जुड़े हनुमानप्रसाद पोद्दार के बारे में भी अनाप-शनाप लिखा जाने लगा। किसी ने उनको हिंदू सांप्रदायिकता से जोड़ा, किसी ने उनके संपादन में निकलनेवाली पत्रिका कल्याण में मुस्लिम लेखकों की खोज आरंभ कर दी, किसी ने उनको राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ का एजेंडा चलानेवाला व्यक्ति बताया। हनुमानप्रसाद पोद्दार जी के बारे में विभिन्न प्रकार की टिप्पणियां पढ़ते हुए स्वर्गीय नरेन्द्र कोहली की एक बात याद आई। जब भी श्रीरामचरितमानस या महाभारत के बारे में कोई पाठक उनसे मूर्खतापूर्ण प्रश्न करता था तो वो हंसते हुए कहते थे कि अज्ञान असीमित होता है जबकि ज्ञान की सीमा होती है। हुनमानप्रसाद पोद्दार के बारे में भी अधिकतर टिप्पणीकारों ने असीमित अज्ञान का ही प्रदर्शन किया है। दरअसल होता ये है कि जब आप पूर्वाग्रह से भर कर किसी का आकंलन करते हैं या किसी एजेंडा के तहत किसी व्यक्तित्व या संस्थान का मूल्यांकन करते हैं तो उनके योगदानों को एकांगी होकर देखते हैं। गीता प्रेस और हनुमानप्रसाद पोद्दार पर टिप्पणी करते समय भी कई लोग इस दोष के शिकार हो गए। एक तो अज्ञान दूसरे एजेंडा। कांग्रेस ने क्यों हनुमानप्रसाद पोद्दार की तुलना गोडसे से की ये वही जानें लेकिन मुझे लगता है कि कांग्रेस पार्टी में हिंदुत्व और हिंदू महापुरुषों को लेकर एक भ्रम की स्थिति है जिसका प्रदर्शन उस पार्टी के नेता नियमित अंतराल पर करते रहते हैं। खैर हम राजनीति की बात नहीं करके पुस्तक और कल्याण पत्रिका को केंद्र में रखकर चर्चा करेंगे। 

गीता प्रेस की स्थापना 1923 में हुई। उस समय को याद करना चाहिए। भारत अंग्रेजों के अधीन था। उसके पहले हमारा देश मुगलों और अन्य आक्रांताओं की यातनाओं को झेल चुका था। भारतीय संस्कृति को लगातार मिटाने के प्रयास मुगलकाल में भी हुए और अंग्रेजों ने भी उसको आगे बढ़ाया। ऐसे कठिन समय में गीता प्रेस की स्थापना हुई। हिंदू धार्मिक ग्रंथों के इस प्रकाशन गृह ने हिंदुओं को बेहद सस्ते दामों पर अपने पौराणिक ग्रंथों से परिचय करवाया। गीता प्रेस के योगदान को इस दृष्टि से भी देखे जाने की आवश्यकता है कि इसने स्वाधीनता संग्राम के लिए देश के जनमानस को तैयार किया। भारतीय पौराणिक ग्रंथों का प्रकाशन और उसको जन-जन तक पहुंचाकर गीता प्रेस ने जो कार्य किया है उसके समांतर विश्व इतिहास में कम उदाहरण मिलते हैं। इन ग्रंथों को पढ़कर, धर्म के प्रति, न्याय के प्रति, अपने अधिकारों के प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति जनता के मन जो भावना जाग्रत हुई उसके आकलन के बिना गीता प्रेस और उसके योगदान पर लिखा नहीं जा सकता है। यह तो भारतीय इतिहास लेखन की दोषपूर्ण पद्धति रही है कि उसने हिंदू धर्म से जुड़ी संस्थाओं और संस्थानों के योगदानों की चर्चा तक नही की। अगर कहीं उल्लेख करने की मजबूरी हुई तो एक पंक्ति में लिख दिया। आज फ्रांस के प्रकाशक गालीमर की चर्चा पूरी दुनिया में होती है क्योंकि उस देश के लेखकों ने इस प्रकाशन गृह के बारे में, उसके योगदान के बारे में लिखा लेकिन गीता प्रेस को धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन करार देकर उसको हाशिए पर डालने का प्रयास हुआ। 

गीता प्रेस से प्रकाशित पत्रिका कल्याण में प्रेमचंद से लेकर निराला तक ने लेख लिखे हैं। वामपंथी इतिहासकारों ने इसकी चर्चा तक नहीं की। यहां तक की जब इन लेखको का मूल्यांकन करते हुए आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी गईं तो कल्याण में प्रकाशित उनके लेखों  की उपेक्षा की गई। अगर निराला और प्रेमचंद के कल्याण में प्रकाशित लेखों को सामने रखा जाता तो उनको वामपंथी विचार का लेखक सिद्ध करने में परेशानी होती। वो भारतीय विचारों के लेखक के तौर पर देश के सामने होते। प्रेमचंद ने कल्याण के कृष्णांक में जो लेख लिखे थे वो गीता प्रेस से पुस्तकाकार प्रकाशित है और अब भी बाजार में उपलब्ध हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े नंददुलारे वाजपेयी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, चतुरसेन शास्त्री और बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे दिग्गज रचनाकार कल्याण पत्रिका के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार के संपर्क में थे। नंददुलारे वाजपेयी ने तो 24.12.1931 के अपने पत्र में लिखा भी, कल्याण के द्वारा आप समाज की जो सेवा कर रहे हैं वो मुझे बहुत अच्छी लगती है। आपने महर्षि शंकराचार्य आदि के मूल्यावान ग्रंथों की प्रकाशन व्यवस्था करके हिंदी पर बड़ा उपकार किया है। 

गीता प्रेस और कल्याण पत्रिका ने सनातन संस्कृति को बल देने का कार्य भी किया। देश सैकड़ों वर्षों से गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था। सनातन पर दूसरी संस्कृति को थोपने के लगातार प्रयास हो रहे थे। ऐसे वातावरण में सनातनी ग्रंथों का प्रकाशन और सनातनी विचारों से पूर्ण पत्रिका कल्याण के द्वारा गीता प्रेस ने औपनिवेशिक ताकतों का प्रतिकार किया। कल्याण पत्रिका ने न केवल सनातनी संस्कृति को बल दिया बल्कि उसने हिंदी भाषा के क्षितिज का भी विस्तार किया। जब देश में अंग्रेज शासक उर्दू को बढ़ावा दे रहे थे तो कल्याण के जरिए और अपने प्रकाशनों के जरिए गीता प्रेस हिंदी को मजबूती प्रदान कर रही थी। 1932 के 12 मार्च को बनारसीदास चतुर्वेदी ने हनुमान प्रसाद पोद्दार को एक पत्र लिखकर कहा कि कल्याण के 16 हजार ग्राहक हैं। यदि आप उसके मूल्य में चार आने की भी वृद्धि कर दें और उस चार हजार रुपयों से हिंदी के लेखकों से अच्छे लेख लिखाने और अनुवाद आदि कराने में व्यय करे तो अनेक लेखकों का आप उद्धार कर सकते हैं। अपने इसी पत्र में चतुर्वेदी जी ने हनुमानप्रसाद पोद्दार जी को स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी का अनुसरण करने की सलाह दी और लिखा, स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी को मैं सच्चा आस्तिक और भक्त मानता हूं। इस पंक्ति से भी एजेंडा लेखन की पोल खुलती है जो गणेश शंकर विद्यार्थी को वामपंथी सिद्ध करते रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि गीता प्रेस गोरखपुर के योगदान का मूल्यांकन समग्रता में किया जाए। 

इस पूरे प्रकरण से एक बात और स्पष्ट हो गई है कि वर्तमान समय में जो विचारधारा का संघर्ष चल रहा है उसमें पुस्तकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। कर्नाटक चुनाव के पहले देवारुण महादेव की एक पतली सी पुस्तक आई थी आरएसएस, द लांग एंड शार्ट आफ इट। इस पुस्तक का फोरवर्ड रामचंद्र गुहा ने आफ्टरवर्ड योगेन्द्र यादव ने लिखा था। कवर पर हिंदी लेखिका गीतांजलिश्री की टिप्पणी प्रकाशित थी। कन्नड में लिखी गई इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया गया। चुनाव के पहले प्रदेश में माहौल बनाने के लिए इस पुस्तक को चर्चित करने और पाठकों तक पहुंचाने का उपक्रम किया गया। जैसा कि इस पुस्तक के नाम से जाहिर है कि इसका केंद्रीय विषय राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ है। इसमें लेखक ने राष्ट्रीय संव्यंसेवक संघ के कार्यक्रमों की आलोचना की। कुछ गलत तथ्यों के साथ भी। जब देश के तथाकथित बड़े लेखक और इतिहासकार उसकी चर्चा करते हैं तो आम पाठकों के बीच उस पुस्तक को लेकर एक उत्सुकता पैदा होती है। यह सही है कि पुस्तकों का चुनावी राजनीति पर सीधा असर नहीं होता है लेकिन पुस्तकों में प्रकाशित विचार मतदाताओं को परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इस वक्त विचारधारा विशेष के लेखक और बुद्धीजीवी पुस्तकों के माध्यम से राजनीति करने में लगे हैं और उनको हिंदी और अंग्रेजी के कुछ प्रकाशकों का साथ भी मिल रहा है। वैकल्पिक विचारधारा के लेखकों को भी पुस्तक का उत्तर पुस्तक से ही देना होगा।    


Saturday, June 17, 2023

उद्देश्य बदलने की आवश्यकता


आज देश की राजनीति में नेहरू से जुड़ा कोई प्रसंग अगर आता है तो उसपर फौरन राजनीति आरंभ हो जाती है। पक्ष विपक्ष के बीच बयानों के तीर चलने लगते हैं। कुछ दिनों के बाद मामला शांत हो जाता है। ताजा मामला नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय से जुड़ा हुआ है। दिल्ली के इस परिसर का नाम बदलकर प्रधानमंत्री संग्रहालय और पुस्तकालय कर दिया गया है। उसी परिसर में नेहरू समेत भारत के सभी प्रधानमंत्रियों का एक विश्वस्तरीय संग्रहालय बनाया गया था। इसके आधार पर ही नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय सोसाइटी के सदस्यों ने इसका नाम बदलने का निर्णय लिया। कांग्रेस के नेता सोसाइटी के इस कदम से आगबबूला हैं। कांग्रेस अध्यक्ष ने लंबा ट्वीट लिखकर इसपर अपनी आपत्ति जताई और भारतीय जनता पार्टी को निशाने पर लिया। ये तो हुई राजनीति की बातें। जब भी किसी जिले, शहर, भवन या रोड आदि का नाम बदला जाता है उसपर विवाद उठते ही रहते हैं। बयानबाजी और राजनीति भी होती ही है। ये तो स्वाधीनता के बाद से ही चलता आया है। कांग्रेस की इस बात लेकर आलोचना होती रही है कि देशभर में सैकड़ों सड़कों, भवनों, संस्थानों आदि के नाम नेहरू, इंदिरा, राजीव और संजय गांधी के नाम पर रखे गए। बाद की सरकारों ने भी अपने नेताओं या अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों के नाम पर भवनों, सड़कों आदि के नाम रखे। कभी कम तो कभी अधिक विवाद हुए। लेकिन आज हम बात कर रहे हैं नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय के नाम बदले जाने पर उठे विवाद की। 

पहले जान लेते हैं कि नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय किन परिस्थियों में और किन उद्देश्यों को लेकर बनाया गया था। नेहरु की कैबिनेट में शिक्षा मंत्री रहे मोहम्मदअली करीम छागला की आत्मकथा है रोजेज इन दिसंबर। ये पुस्तक भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित है। इसमें छागला ने नेहरू के कालखंड की बहुत सारी स्मृतियों को सहेजा है। उन्होंने स्वाधीन भारत में इतिहास लेखन आरंभ करने के प्रसंग पर भी लिखा है। छागला औपनिवेशिक इतिहासकारों के लिखे से संतुष्ट नहीं थे। देश के इतिहास को नए सिरे से लिखवाने के लिए उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में लेक्चरर रहीं मिस थापर को चुना था। छागला के मुताबिक मिस थापर तर्कवादी और आधुनिक सोच वाली महिला थीं। पूर्वाग्रह से भी मुक्त। उन्होंने इतिहास की दो पुस्तकें तैयार की। इसके अलावा वो नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की स्थापना की कहानी भी बताते हैं। लिखते हैं कि, ‘नेहरू के निधन के बाद मैंने ये व्यवस्था की कि तीन मूर्ति भवन का एक हिस्सा उसी तरह से संजोया जाए जिस तरह  नेहरू के जीवित रहते हुआ करता था। मैं चाहता था कि पूरे भारवर्ष से लाखों लोग आएं और इस घऱ को राष्ट्र मंदिर के तौर पर देखें। उस वक्त के राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने एक भव्य समारोह में तीनमूर्ति भवन को इस उद्देश्य के लिए समर्पित किया। लेकिन मैं ये नहीं चाहता था कि ये सिर्फ एक संग्रहालय के तौर पर रहे मृतप्राय स्थिति में रहे बल्कि मेरी इच्छा थी कि ये विचार और आदर्श के जीवंत केंद्र के रूप मे विकसित हो। इसको ध्यान में रखते हुए वहां एक पुस्तकालय की स्थापना की गई। इस पुस्तकालय में आधुनिक भारत की प्रगति से संबंधित पुस्तकें और सामग्री रखने की योजना बनी। इसको ध्यान में रखते हुए इस विषय से संबंधित उपलब्ध पुस्तकों को जुटाया गया। छात्रों को पुस्तकें लिखने के लिए प्रेरित किया गया। उन लोगों के अनुभवों को टेप पर रिकार्ड किया गया जो नेहरू से मिले थे। अब समस्या थी एक ऐसे निदेशक को खोजने की जो इस तरह के कार्यों में रुचि रखता हो। फिर मेरी नजर रेल मंत्रालय में काम करनेवाले श्रीमान नंदा पर नजर गई। उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखी थीं, जो मैंने देखी थीं। मैंने उनको नेहरू संग्रहालय में नियुक्त कर दिया।‘ इस प्रसंग को बताने के क्रम में वो ये भी स्वीकार करते हैं कि नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की स्थापना के बाद देश में इतिहास लेखन को प्रोत्साहन मिला।

छागला की आत्मकथा के इस प्रसंग के कई बातें ध्वनित होती हैं जो नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की स्थापना के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हैं। एक तो ये कि उस वक्त की सरकार नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय को राष्ट्र मंदिर के तौर पर स्थापित करना चाहती थी। एक ऐसा राष्ट्र मंदिर जहां नेहरू देवता के तौर पर स्थापित हों और देश की जनता उनको और उनके विचारों की पूजा करे। छागला ने जो लिखा है उससे स्पष्ट है कि इस केंद्र को इतिहास लेखन के केंद्र के रूप में विकसित करने की भी योजना बनी। इतिहास लिखा भी गया। किस तरह का इतिहास लिखा गया ये सबको पता है। अगर आप किसी व्यक्ति को केंद्र में रखकर राष्ट्र मंदिर बनाएंगे तो वहां लिखा जाने वाला इतिहास भी तो उस व्यक्ति की महत्ता को स्थापित करने के कार्य में जुटेगा। ठीक से याद नहीं है लेकिन किसी अन्य पुस्तक में इस बात भी उल्लेख है कि इंदिरा गांधी भी चाहती थीं कि तीन मूर्ति किसी भी कीमत पर सरकार के पास नहीं जाए और वहां नेहरू से जुड़ी चीजें आदि रखी जाएं। रही बात इसको आदर्श वैचारिक केंद्र बनाने की तो वो ये केंद्र कभी बन नहीं पाया। यहां के जो भी निदेशक हुए उनमें से अधिकतर ने जो कार्य करवाए उसके केंद्र में नेहरू और कांग्रेस रही। ज्यादा पीछे नहीं जाते हुए एक उदाहरण देता हूं। 2011 में कांग्रेस पार्टी के इतिहास पर केंद्रित दो खेंडो में पुस्तक आई। नाम था कांग्रेस एंड द मेकिंग आफ द इंडियन नेशन। इस पुस्तक के प्रधान संपादक थे प्रणब मुखर्जी और इसको तैयार करने में मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी और अन्य की भूमिका थी। अब जरा जान लीजिए कि मृदुला मुखर्जी कौन हैं। वो नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की निदेशक थीं। उनको सोनिया गांधी का आशीर्वाद प्राप्त था। जब रामचंद्र हुहा के नेतृत्व में उनको नेहरू मेमोरियल के निदेशक पद से हटाने की मुहिम चली थी तो उन्होंने एक प्रसंग में कहा था कि उनको सोनिया गांधी का मैंडेट प्राप्त है। तब ये प्रश्न मुखरता से नहीं उठा था कि सोनिया गांधी ने किस हैसियत से नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय के निदेशक को मैंडेट दिया था। इस प्रसंग का उल्लेख इस कारण कर रहा हूं कि छागला ने जिस सोच के साथ नेहरू स्मारक औऐर संग्रहालय की स्थापना की थी उसको कालांतर में खाद पानी डालकर पोसा गया। नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय के अलावा नेहरू स्मारक निधि भी उसी परिसर से चलता है। इस निधि से शोध करने के लिए भी धन दिया जाता है। इस निधि से शोध करनेवाले शोधार्थियों की सूची और उनके विषयों पर नजर डाल लीजिए पता चल जाएगा कि कैसे एक परिवार और पार्टी विशेष को केंद्र में रखकर इसको चलाया जा रहा था। 

अभी तो नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय का नाम बदला गया है। सोसाइटी को ये निर्णय करना चाहिए कि भारत के सभी प्रधानमंत्रियों के कालखंड में देश को प्रभावित करने या दिशा देनेवाली घटनाएं घटी हैं उनपर शोध हो। उनका दस्तेवाजीकरण किया जाए। उन घटनाओं से जुड़े लोगों के साक्षात्कार रिकार्ड करवाकर इस पुस्तकालय में रखे जाएं ताकि आनेवाली पीढ़ियों के शोधार्थियों को देश के सभी प्रधानमंत्रियों के योगदान के बारे में जानकारी उपलब्ध हो सके। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाले इस संस्थान को इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। देश के सभी प्रधानमंत्रियों ने इस राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दिया है। उनके विचारों को और उनके समय की परिस्थियों को जानने का अधिकार हर भारतीय को है। अगर ऐसा हो पाता है तो इस संग्रहालय के नाम बदलने की सार्थकता सिद्ध होगी अन्यथा तो बस राजनीति और बयानों के भंवर में ये मुद्दा खो जाएगा.

Saturday, June 10, 2023

कर्तव्यनिष्ठा के प्रतीक पर राजनीति


नई संसद के उद्घाटन को करीब एक पखवाड़ा होने को आया लेकिन सेंगोल पर प्रश्न अब भी उठ रहे हैं। स्वाधीनता के समय सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर सेंगोल को लार्ड मांउटबैटन को सौंपा गया था।फिर उनसे लेकर समारोहपूर्वक जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। सरकार का तर्क है कि सेंगोल को सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सलाह पर बनाया गया था। विपक्ष इसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। कांग्रेस इस प्रसंग को कालपनिक बता रही है। 14 अगस्त 1947 का एक चित्र भी उपलब्ध है जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथ में सेंगोल है और उनके साथ थिरूवावडुथुरई अधीनम के कुमारस्वामी तम्बीरमन खड़े हैं। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सलाह पर सेंगोल तैयार करने का दायित्व थिरूवावडुथुरई अधीनम को अनुरोधपूर्वक सौंपा गया था। जिस जूलर ने सेंगोल बनया था उसने भी इसको प्रमाणित कर दिया। अभी थिरूवावडुथुरई अधीनम की तरफ से एक लिखित बयान जारी किया गया है जिसमें कहा गया है कि उन्हें इस बात का गर्व है कि वो 1947 के सेंगोल समारोह का हिस्सा रहे हैं। सरकार के आमंत्रण पर थिरूवावडुथुरई अधीनम से संतों का एक समूह सेंगोल लेकर दिल्ली गया था। वहां सबसे पहले सेंगोल को लार्ड मनाउंटबेटन को सौंपा गया। माउंटबेटन से वापस लेकर सेंगोल का गंगाजल से अभिषेक करवाया गया। अभिषेक के बाद सेंगोल को जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। 

थिरूवावडुथुरई अधीनम के मुताबिक हाल ही में अधीनम का इतिहास प्रकाशित हुआ है। उस पुस्तक में सेंगोल सिरापु नाम से एक अध्याय है जिसमें भी इस बात का उल्लेख है कि सेंगोल को पहले लार्ड माउंटबेटन को सौंपा गया और उसके बाद जवाहरलाल नेहरू को। थिरूवावडुथुरई अधीनम से जुड़े मसीलामणि पिल्लै इस पूरे घटनाक्रम को अपनी आंखों से देख चुके हैं। वो इस वक्त 96 वर्ष के हैं और इस पूरे घटनाक्रम को सही बता रहे हैं। पिल्लै ने ये भी बताया कि सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण का पूरा कार्य चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पहल पर हुआ था। इस बात के भी प्रमाण हैं कि 1947 में मद्रास के कलेक्टर थिरूवावडुथुरई अधीनम आए थे और उन्होंने सेंगोल की व्यवस्था के कार्य को परखा था। कुछ लोग प्रश्न उठा रहे हैं कि अगर माउंटबेटन को सेंगोल सौंपा गया था तो उसकी कोई तस्वीर क्यों नहीं है। अधीनम ने उसका भी उत्तर दिया है कि माउंटबेटन से मिलने संतों का जो समूह गया था उसमें कोई कैमरामैन नहीं था। सवाल ये उठता है कि थिरूवावडुथुरई अधीनम के दावों पर प्रश्न क्यों उठाए जा रहे हैं। जब उस पूरी घटना के दो जीवित गवाह हैं जो ये कह रहे हैं कि माउंटबेटन को सेंगोल सौंपा गया था उसके बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। उनके बयान के बाद संदेह की गुंजाइश बचती कहां है। सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण की परंपरा चोल राजवंश में थी उसको स्वतंत्र भारत में सनातन से जोड़कर अपनाया गया। समाज के उस हिस्से को सेंगोल बनाने और सत्ता हस्तांतरण समारोह की जिम्मेदारी दी गई जो गैर ब्राह्मण थे, लेकिन शिव और सनातन में उनकी आस्था थी। थिरूवावडुथुरई अधीनम तमिलनाडू के शिवभक्तों का एक बड़ा और प्रभावशाली समूह है। इस समुदाय को स्वाधीन देश से जोड़ने का चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का सोच था जिसको माउंटबेटन से लेकर नेहरू तक ने माना था।   

सेंगोल की कहनी पर प्रश्न उठ रहे हैं तो पंडित नेहरू से जुड़ा एक और प्रसंग याद आ रहा है। उस प्रसंग को बताने के पहले नेहरू के बारे में आधुनिक भारत के इतिहासकारों की राय देखते हैं। लगभग सभी इतिहासकारों ने इस बात पर बल दिया है कि नेहरू धर्म को शासन से अलग रखना चाहते थे। उनकी छवि भी इसी प्रकार से गढ़ी गई कि वो सरकारी कामों से धर्म को अलग रखना चाहते थे। इतिहासकारों से इस आकलन में चूक हुई। नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए इस तरह का कार्य किया करते थे। जब उनको लगता था कि सत्ता के लिए या राजनीति के लिए धर्म का उपयोग आवश्यक है तो वो बिल्कुल नहीं हिचकते थे। अब उस प्रसंग पर आते हैं जिससे ये बात साफ भी हो जाएगी। तिथि 14 अगस्त 1947। शाम के समय डा राजेन्द्र प्रसाद के घर पूजा और हवन आदि का आयोजन किया गया। हिंदू पुरोहितों को बुलाया गया था कि वो हवन आदि करवाएं। भारत की नदियों से पवित्र जल मंगवाए गए थे। डा राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे और वहां उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। फिर नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन आदि किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने सार्वजनिक रूप से ये स्टैंड लिया था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। नेहरू इस हिंदू तरीके को अपनाने को तैयार हो गए। इसका उल्लेख ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’ नाम की पुस्तक में मिलता है। कई अन्य जगहों पर भी। बावजूद इसके आधुनिक भारत के अधिकतर इतिहासकारों ने नेहरू के व्यक्तित्व को धर्म से निरपेक्ष व्यक्तित्व के तौर पर गढ़ा। 

नेहरू से जुड़ा एक और किस्सा है। 1952 में लोकसभा का चुनाव चल रहा था। नेहरू उत्तर प्रदेश के फूलपुर में एक स्थान पर चुनावी सभा कर रहे थे। तभी उसी रास्ते से स्थानीय राजा अपने हाथी पर सवार होकर निकले। नेहरू की सभा के कारण राजा और उनके हाथी को रोक दिया गया। राजा नाराज हो गए। मंच पर बैठे नेहरू को जब इस बात का पता चला तो वो वहां से उतरकर राजा के पास पहुंचे। वहां पहुंचकर नेहरू ने महाराज की जय हो कहकर उनका अभिवादन किया। राजा खुश हो गए। हाथी से उतरकर नेहरू के साथ मंच पर गए और सभा में उपस्थित जनता से नेहरू को वोट देने की अपील कर दी। उसके बाद राजा वहां से चले गए। राजा के जाने के बाद नेहरू ने उस अधिकारी को समझाया कि राजा को जयकारे की जरूरत थी और और मुझको वोट की। मैंने राजा की इच्छा पूरी की और उन्होंने मेरी। इसी तरह से लेनार्ड मोस्ले की 1961 में प्रकाशित पुस्तक द लास्ट डेज आफ ब्रिटिश राज में इस बात का उल्लेख मिलता है कि नेहरू रेडक्लिफ को भारत पाकिस्तान के सीमा निर्धारण के लिए अधिक समय देने के पक्ष में नहीं थे। उनको लगता था कि जल्द से जल्द भारत की स्वाधीन सरकार बने। सीमा निर्धारण बाद में दोनों देश आपसी सहमति से कर लेंगे। परिणाम सबके सामने है। 

सेंगोल प्रकरण में प्रश्न तो ये उठाया जाना चाहिए कि भारत के इतिहास का इतना महत्वपूर्ण अध्याय क्यों दब या दबा दिया गया। सेंगोल जैसा महत्वपूर्ण प्रतीक राष्ट्रीय संग्रहालय में न होकर प्रयागराज के संग्रहालय में क्यों और कैसे पहुंचा। सनातन को मानने वाले समाज के पिछड़े वर्ग के समूह अधीनम को प्रतिनिधित्व देने के राजा जी की इंक्लूसिव सलाह को इतिहास के पन्नों में गुम करने का षडयंत्र किसने रचा। देश इन प्रश्नों का उत्तर चाहता है। कहानियों में उलझाने से बेहतर है कि इन प्रश्नों पर बात हो। 

Saturday, June 3, 2023

नसीरुद्दीन शाह का बुढ़भस


तीन-चार वर्ष पूर्व की बात है।फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने एक साहित्योत्सव में कहा था कि वो फिल्मों में इस कारण आए थे क्योंकि वो लोकप्रिय होना चाहते थे। नसीरुद्दीन शाह इतने पर ही नहीं रुके थे बल्कि यहां तक कहा था कि वो फिल्मों के माध्यम से कला की सेवा करने के उद्देश्य से इस क्षेत्र में नहीं आए थे बल्कि वो तो लोकप्रियता चाहते थे। जो लोग फिल्मों में आने का कारण कला की सेवा बताते हैं वो झूठ बोलते हैं। सचाई ये है कि लोग फिल्मों में धन कमाने और प्रसिद्ध होने के लिए आते हैं। ये वो व्यक्ति बोल रहा था जिनको श्रेष्ठ कलाकार और कला को नई ऊंचाई पर पहुंचानेवाला अभिनेता आदि कहा जाता रहा है। नसीरुद्दीन शाह के इस वक्तव्य के कुछ महीनों पहले उनकी पुस्तक आई थी। दरअसल देश में पिछले कई वर्षों से एक ट्रेंड चल रहा है कि जिन फिल्मी कलाकारों को काम नहीं मिलता है या कम काम मिलता है वो पुस्तक लिख देते हैं। पुस्तक लिखने का एक फायदा यह होता है कि उनको बुद्धीजीवी मान लिया जाता है और दूसरा कि उनको साहित्योत्सवों में आमंत्रित किया जाने लगता है। साहित्योत्सवों से एक अलग प्रकार की लोकप्रियता मिलती है। तो नसीरुद्दीन शाह को जब काम कम मिलने लगा तो उन्होंने भी पुस्तक लिख दी। कई साहित्योत्सवों में बुलाए गए। वहां विवादित बयान देकर चर्चित हुए। पुस्तक भी खूब बिकी। इस बात को भी कई वर्ष बीत गए। उनकी कोई दूसरी पुस्तक नहीं आई तो साहित्योत्सवों से आमंत्रण मिलना बंद हो गया। अब उन्होंने चर्चित होने का एक नया तरीका निकाला। समय समय पर विवादित बयान देने लगे। कभी देश में डर का माहौल बताने लगे तो तो कभी इस भय के वातावरण के कारण अपने बच्चों की चिंता जताने लगे। कभी अनुपम खेर को जोकर कह दिया तो कभी अन्य साथी कलाकारों पर घटिया टिप्पणी कर दी। इंटरनेट मीडिया के इस युग में इस तरह के विवादित बयानों को प्रचलित होते देर नहीं लगती है और पक्ष विपक्ष में बयानवीर खड़े हो जाते हैं। 

जब नसीर को फिल्मों में कम काम मिलने लगा तो उन्होंने ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म्स की ओर रुख किया। जब उनकी कोई बेव सीरीज रिलीज होती तो फिर वो सामने आते और विवादित बातें कहकर चर्चा में बने रहने का प्रयास करते। अभी जब उनकी वेब सीरीज ताज,रेन आफ रिवेंज आई तो एकबार फिर से नसीर को इंटरव्यू आदि देने का अवसर मिला। इस बार नसीरुद्दीन शाह को तो डर नहीं लगा बल्कि इस बार वो इस बात को रेखांकित करते दिखे कि हिंदी फिल्मों के बड़े कलाकार भयभीत हैं। इसके अलावा वो नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का भी उपहास उड़ाते नजर आए। नसीर ने प्रश्न उठाया कि नए संसद के उद्घाटन के समय इस तरह के भव्य समारोह की क्या आवश्यकता थी। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम लिए बिना यहां तक कह दिया कि देश के सुप्रीम नेता स्वयं के लिए स्मारक बनवा रहे हैं। उनको इस बात पर भी आपत्ति है कि संसद के शुभारंभ समारोह में नरेन्द्र मोदी हाथ में धर्म दंड लिए पुजारियों से क्यों घिरे हुए थे। उपहास के अंदाज में कहा कि ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे ब्रिटेन का राजा बिशपों के साथ चल रहा हो। अब नसीरुद्दीन शाह को भारतीय परंपराओं के बारे में कौन समझाए। जब उनका मूल उद्देश्य ही प्रचार पाना हो तो वो उस प्रकार की बातें ही करते हैं जो हेडलाइन बने और इंटरनेट मीडिया पर प्रचलित हो सके। उनको शायद ये ज्ञात नहीं होगा कि जब देश को स्वाधीनता मिली थी तो जवाहरलाल नेहरू ने भी डा राजेन्द्र प्रसाद के घऱ पर पूजा पाठ की थी। देशभर की नदियों के जल का छिड़काव करवाया गया था। पूजा-पाठ के उस कार्यक्रम के बाद जवाहरलाल नेहरू, डा राजेन्द्र प्रसाद और अन्य स्वाधीनता सेनाननियों के साथ संविधान सभा की बैठक में भाग लेने गए थे। जब आपको अपने देश की परंपरा का बोध न हो और आलोचना करके प्रसिद्धि हासिल करना उद्देश्य हो तो इस तरह के अनर्गल बातें ही की जा सकती हैं। जब उनसे ये पूछा गया कि शाह रुख खान ने तो संसद भवन और उसकी भव्यता की प्रशंसा की तो उन्होंने खामोशी ओढ़ ली।

नसीरुद्दीन शाह मुंह खोलें और डर की बात न करें ये तो संभव ही नहीं है। शाह रुख और आमिर जैसे अभिनेताओं को भी 2014 के बाद इस देश में डर लगा था लेकिन अब वो भयमुक्त होकर काम कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी का विरोध करनेवाले आमिर खान न केवल प्रधानमंत्री मोदी से मिलते हैं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों से मिलने-जुलने में उनको किसी प्रकार का परहेज नहीं है। एक नसीरुद्दीन शाह बचे हैं जिनको अब भी लगता है कि हिंदी फिल्मों के जिन लोगों की बातों में वजन है वो किसी डर से चुप हैं। नसीरुद्दीन शाह इस बात को लेकर चिंतित नजर आते हैं कि इस समय देश में एजेंडा और प्रोपगैंडा वाली फिल्में बन रही हैं और हिंदी फिल्मों के दिग्गज किसी अनजान डर से इसके विरोध में चुप हैं। नसीर साहब इस बात को भूल गए कि जब वो समांतर सिनेमा के दौर में प्रसिद्धि पा रहे थे तो उन फिल्मों में किस विचारधारा का एजेंडा चल रहा था। उस समय तो वो सफल थे, उनकी बातों का वजन और असर होता। तब तो उनको न तो एजेंडा दिखा और न ही प्रोपेगैंडा। उस दौर के पहले जाएं तो जब ख्वाजा अहमद अब्बास के नेतृत्व में अभिनेताओं की टीम सोवियत रूस जाकर वहां कार्यक्रमों में हिस्सा लेती थे। वहां की सरकार के आतिथ्य का आनंद उठाती थी और लौटकर उनकी विचारधारा के आधार पर फिल्में बनाती थी। उसके बारे में कभी नसीरुद्दीन शाह ने कुछ नहीं बोला। इसको कहते हैं चुनिंदा चुप्पी या चुनिंदा मसलों पर प्रतिक्रिया देना। इस तरह की बातें अब देश की जनता समझने लगी है। समझ तो इनका एजेंडा भी आ गया है। 

नसीरुद्दीन शाह के बारे में जावेद अख्तर और सलीम खान की राय एक है। दोनों का मानना है कि नसीर कुंठा में इस तरह के बयान देते हैं। दरअसल कुछ वर्षों पूर्व नसीरुद्दीन शाह ने राजेश खन्ना को औसत कलाकार कहकर उनका मजाक उड़ाया था। तब जावेद अख्तर ने स्पष्टता के साथ कहा था कि ‘नसीर साहब को कोई सक्सेसफुल आदमी पसंद नहीं है। अगर कोई पसंद हो तो नाम बताएं कि ये आदमी मुझे अच्छा लगता है क्योंकि वो सक्सेसफुल है। मैंने तो आज तक नहीं सुना। वो दिलीप कुमार को क्रिटिसाइज करते हैं, अमिताभ बच्चन को क्रिटिसाइज करते हैं, हर आदमी जो सक्सेसफुल है उनको अच्छा नहीं लगता है।‘ लगभग उसी समय सलीम खान ने भी नसीरुद्दीन शाह को कुंठित और कड़वा व्यक्ति कहा था। ऐसा प्रतीत होता है कि सलीम खान और जावेद अख्तर का नसीरुद्दीन शाह पर दिया गया बयान ठीक था। वो इस बात से कुंठित हो सकते हैं कि उनकी ही आयु के अनुपम खेर इस वक्त भी अलग अलग तरह की भूमिकाएँ कर रहे हैं और व्यस्त हैं। उनसे बड़ी आयु के अमिताभ बच्चन को अब भी काम मिल रहा है जबकि नसीरुद्दीन शाह को फिल्म इंडस्ट्री में बहुत कम लोग पूछ रहे हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया इस मायने में बहुत ही निर्मम है कि अगर किसी अभिनेता को दर्शक पसंद नहीं कर रहे हैं या उनकी फिल्में सफल नहीं हो पा रही हैं तो उनकी तरफ देखते भी नहीं हैं, उनके साथ फिल्म करना तो बहुत ही दूर की बात है। नसीर को ये समझना होगा। 


Friday, June 2, 2023

मिलन की वो रैना


3 जून 1973 को फिल्मों के महनायक और अभिनेत्री जया बच्चन की शादी हुई थी। 50 वर्ष पहले बांबे (अब मुंबई) में दोनों परिणय सूत्र में बंधे थे। अमिताभ की शादी में हरिवंश राय बच्चन के कुछ मित्र शामिल हुए थे। अमिताभ के दोस्त संजय गांधी भी। बारात निकलने के पहले पंडित नरेन्द्र शर्मा ने कहा कि दूल्हे को काजल का दिठौना लगना चाहिए। अमिताभ की मुंहबोली बहन नीरजा खेतान तैयार थीं। पुष्पा भारती ने लिखा है कि नीरजा ने जैसे ही काजल की डिबिया में अपनी ऊंगली डाली, उसकी आंखों में एक शरारती चमक तैर गई। तेजी जी ने उसको भांपते हुए कहा कि तेरा नेग तुझे मुंहमांगा मिल जाएगा, कोई शरारात मत करना। छोटा सा दिठौना लगा। बच्चन जी के अमिताभ को तिलक लगाने के बाद बारात मालाबार हिल के लिए चल पड़ी। संयोग ये था कि हिंदी के प्रसिद्ध लेखक भगवती चरण वर्मा बच्चन जी की शादी समारोह में भी थे और अब अमिताभ और जया को आशीर्वाद देने के लिए भी उपस्थित थे। 

बारात चली तो अजिताभ और संजय गांधी अपनी गाड़ी को लेकर बहुत तेज चलने लगे। पीछे की गाड़ियां भी तेज रफ्तार पकड़ने लगी तो भगवती बाबू ने एकदम से कहा कि बारात को धीरे-धीरे चलना चाहिए। उनके इतना कहते ही धर्मवीर भारती ने गाड़ी धीरे चलानी शुरू कर दी। आराम से मालाबार हिल्स पहुंचे। द्वारपूजा के बाद हल्की बारिश शुरु हो गई तो किसी ने कहा कि लगता है कि जया ने बचपन में कड़ाही की खुरचन चाटी है तभी ब्याह के समय पानी बरसने लगा है। खुशनुमा माहौल था। जया के मुंहबोले भाई गुलजार भी अपनी नई नवेली दुल्हन राखी के साथ मौजूद थे। छत पर बने विवाह मंडप में रस्में होने लगीं। जब अग्नि के फेरे का समय आया तो जया की बहन नीता अपनी बहन का लहंगा संभालने के चक्कर में दो फेरे लगा गईं। ये देख तेजी बच्चन ने कहा अगर नीता इस तरह से सात फेरे ले लेगी तो उसपर भी अमित का हक हो जाएगा। इतना सुनते ही मंडप ठहाकों से गूंज उठा और नीता ने फौरन जया का लहंगा छोड़ा और बैठ गई। एक और दिलचस्प वाकया हुआ। मंडप पर धान की रस्म के समय दुल्हन के भाई गुलजार की खोज शुरु हुई लेकिन वो कब के निकल चुके थे। पुष्पा जी ने लिखा था, नई नवेली खूबसूरत पत्नी और मौसम की पहली फुहार। इतनी देर तक कहां...। विवाह संपन्न हुआ। बारात के पहले बहन ने भाई को काजल का जो दिठौना लगाया था उसने आजतक भाई को बुरी नजर से बचाकर रखा है।