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Saturday, April 29, 2023

कला की आड़ में राजनीति


गुनीत मोंगा की डाक्यूमेंट्री द एलिफेंट व्हिसपर्रस को आस्कर पुरस्कार मिला। इसके पहले कान फिल्म फेस्टिवल में आल दैट ब्रीद्स को गोल्डन आई अवार्ड से सम्मानित किया गया। माना जा रहा है कि इन दो डाक्यूमेंट्री के अंतराष्ट्रीय मंच पर सम्मानित होने के बाद देश में दर्शकों का रुझान डाक्यूमेंट्री की तरफ बढ़ा है। ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म्स की लोकप्रियता के कारण भारत में बनने वाली डाक्यूमेंट्रीज को वैश्विक मंच मिला ओटीटी पर किसी प्रकार के प्रमाणन की भी बाध्यता नहीं है। अगर कोई डाक्यूमेंट्री निर्माता उसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करके सिर्फ ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रदर्शित करना चाहता है तो उसको केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के पास भी नहीं जाना होता है ।इसने डाक्यूमेंट्रीज के लिए एक ऐसा मंच खोल दिया जहां वो किस भी प्रकार की सामग्री और किसी भी प्रकार का संवाद दर्शकों के सामने पेश कर सकते हैं। इस विधा को राजनीतिक औजार के रूप में उपयोग में ला सकते हैं। कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर किसी विचारधारा विशेष को नीचा दिखा सकते हैं और किसी को उठा सकते हैं। 

जब कान फिल्म फेस्टिवल में आल दैट ब्रीद्स को पुरस्कृत किया गया तो चर्चा इस बात की हुई कि वो दिल्ली के दो भाइयों मोहम्मद और नदीम की कहानी है जो घायल पक्षियों को उपचार देने का काम करता है। इस डाक्यूमेंट्री में उन दोनों भाइयों के संघर्ष को रेखांकित किया गया। ये बताया गया कि किस तरह से दो मुस्लिम भाई दिल्ली के वजीराबाद इलाके में एक बेसमेंट में घायल पक्षियों विशेषकर चीलों को उपचार देते हैं। कान फिल्म फोस्टिवल में पुरस्कृत होने के शोरगुल के बीचतब इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया कि ये डाक्यूमेंट्री केवल घायल पक्षियों के देखभाल तक सीमित नहीं है। इस डाक्यूमेंट्री में सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) और नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजन्स (एनआरसी) पर भी टिप्पणी है। संवाद में चर्चा इस बात की भी है कि उनको फारेन कंट्रीव्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए) के अंतर्गत विदेश से धन लेने की अनुमति नहीं मिलती है और सरकार इसका कार भी नहीं बताती हैजबकि ऐसा होता नहीं है। सरकार अगर किसी के आवेदन को अस्वीकार करती है तो उसका कारण अवश्य बताती हैडाक्यूमेंट्री निर्माता इतने पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि वो दिल्ली के दंगों पर भी टिप्पणी करते चलते हैं। पृष्ठभूमि से लेके रहेंगे आजादी जैसे नारे भी लगते रहते हैं। इतना ही नहीं एक पत्रकार की आवाज भी गूंजती है जिसमें वो बताता है सीएए के पास होने पर पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान के मुसलमानों को वहां प्रताड़ित होने की दशा में भारत में नागरिकता नहीं मिलेगी जबकि अन्य धर्म के लोगों को मिलेगी।इस समाचर के अंश के प्रसारित होने के बाद परिवार में इस बात पर चर्चा होती है कि अगर नाम में स्पेलिंग गलत हो जाए तो भी दिक्कत आ सकती है। एक संवाद है जिसमें घर का बेटा अपनी पत्नी से पूछता है कि रिफ्यूजी बनकर कहां जाना चाहती हो, पाकिस्तान, बंगलादेश या अफगानिस्तान। वो जब कहती है कि क्या कहीं और नहीं जा सकते तो उत्तर मिलता है कि अगर कहीं और जाना है तो सरकार के निकालने के पहले जाना होगा। सरकार के निकालने के बाद पाकिस्तान जाने पर वहां पाकिस्तानी होने का सबूत मांगा जाएगा इस पूरे संवाद पर विचार करना चाहिए कि इसमें घायल पक्षियों की देखभाल और उनके संघर्ष से क्या लेना देना है। 

इसी तरह से इस संवाद के पहले नेपथ्य ये किसी का भाषण प्रसारित होता है। कहा जा रहा होता है कि एक बात का हमेशा ध्यान रखिए कि ये लड़ाई शांति और अहिंसा की है। ये लड़ाई विचार और विचारहीनता की है।..हमें इस देश के संविधान को बचाना है। इसी तरह से एक अन्य जगह कहा जाता है कि बहुमत का अर्थ क्या है? देश की चालीस प्रतिशत जनता। बहुमत हमेशा सही नहीं सोचती है या बहुमत का निर्णय सदैव सही नहीं होता है। फिर दिल्ली के दंगों की रिपोर्टिंग के दौरान की आवाजें और एक मीनारनुमा इमारत पर झंडा फहराने के लिए चढ़ता एक व्यक्ति। दंगों की चपेट में आए इलाकों की तस्वीरें। नेपथ्य से आवाज, दंगे कोई नई बात नहीं है। हम छत पर खेला करते थे और पता चलता था कि नीचे दंगा हो रहा है। पर इस बार अलग है। इस बार सिर्फ नफरत नहीं है चारों तरफ घिन फैली हुई है। इस तरह के संवादों से निर्माता निर्देशक की मंशा स्पष्ट हो जाती है। 

इसी तरह की एक और डाक्यूमेंट्री सीरीज आई है, डासिंग आन द ग्रेव। ये डाक्यूमेंट्री 1991 में बेंगलुरू में हुए चर्चित रिचमंड रोड केस पर आधारित है। इसमें एक हिंदू स्वामी श्रद्धानंद और एक मुस्लिम महिला की प्रेम कहानी और उसके बाद मर्डर मिस्ट्री है। शाकिरा खलीली मैसूर के दीवान की बेटी थी जो अपने पहले पति को छोड़कर स्वामी से शादी कर लेती है। उस समय ये प्रम विवाह काफी चर्चित हुआ था क्योंकि तब महा चार बच्चों की मां थी। 1991 में अचानक शाकीरा गायब हो जाती है। पहले पति से उसकी बेटी अपनी मां की तलाश में जुटती है। तीन साल बाद पता चलता है कि शाकिरा के पति स्वामी श्रद्धानंद ने ही उसको माकर अपने घर के आंगन में दफना दिया था। इस डाक्यूमेंट्री में सबकुछ है। विवाहित महिला का प्रेम है, हिंदू संत हैं, अकूत संपत्ति है, ड्रग है, मर्डर है और फिर स्वामी को अपनी पत्नी की हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा है। इस डाक्यूमेंट्री को बनाया है पैट्रिक ग्राहम ने। अब जरा पैट्रिक ग्राहम के बारे में जान लेते हैं। इसके पहले पैट्रिक घोउल वेब सीरीज लिख और निर्देशित कर चुके हैं। इस सीरीज में भयानक हिंसा थी। इसके अलावा पैट्रिक वेब सीरीज लैला की टीम के साथ भी जुड़े रहे हैं। इस डाक्यूमेंट्री के संवाद में भी और दृष्यों में भी आपको स्पष्ट रूप से एक एजेंडा दिखाई देगा। हिंदू धर्म के खिलाफ एजेंडा। एक संवाद है जिसमें कहा गया कि मुझे लगता था कि वो ऐसे इंसान हैं जिसे दिव्य शक्ति प्राप्त है। वह भगवान का दूत लगता था। संवादों के अलावा अगर दृष्यों की बात करें तो जब स्वामी श्रद्धानंद की शादी शाकीरा खलीली की शादी हिंदी रीति रिवाज से होती है तो उसको बहुत विस्तार से दिखाया जाता है। हाथों में बंधे कलावा तक पर फोकस किया गया है। दृश्यों और संवादों से एक अलग तरह का माहौल बनाने का प्रयास किया गया है। पहले वेब सीरीज में इस तरह के संवाद आदि होते थे लेकिन जब उसको लेकर शोरगुल मचा तो अब वेब सीरीज में कम डाक्यूमेंट्रीज में अधिक होने लगा। 

इस तरह की डाक्यूमेंट्रीज में प्रत्यक्ष रूप से विषय कुछ और होता है लेकिन उसके अंदर परोक्ष रूप से कुछ और कहा जा रहा होता है। यह बेहद खतरनाक है क्योंकि मनोरंजन और कलात्मकता को राजनीति के औजार के तौर पर उपयोग में लाया जाता है। इसमें जिस तरह से राजनीतिक टिप्पणियां की जाती हैं वो दर्शकों के अवचेतन मन में धंसी रह जाती है जो लंबे समय तक अपना असर दिखाती रहती है। चीलों को बचाने के नाम पर संविधान को बचाने की बात हो, सीएए और एनआरसी के खिलाफ भ्रामक बातें हों या अपराध कथा में हिंदू धर्म प्रतीकों का उपयोग इस तरह के किया जाए जिसका अर्थ कुछ और निकले ऐसे में नीति निर्धारकों को इसके व्यापक असर के बारे में सोचना चाहिए।। विचार तो इस बात पर भी करना चाहिए कि क्या ओटीटी प्लेटफार्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री के लिए कोई व्यावहारिक और प्रभावी नियमन हो। लंबे समय से इसको लेकर बातें हो रही हैं। स्व नियमन जैसी व्यवस्था है भी लेकिन ये प्रभावी नहीं है। 

 

Saturday, April 22, 2023

इतिहास से अनभिज्ञ राहुल

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व सांसद राहुल गांधी पिछले कई महीनों से चर्चा में बने हुए हैं। पहले अपनी पैदल यात्रा को लेकर, फिर वीर सावरकर पर की गई टिप्पणियों को लेकर, फिर ब्रिटेन में अलग अलग जगहों पर दिए गए अपने वक्तव्यों को लेकर, और फिर मानहानि के केस में सजा और उसके बाद की घटनाओं को लेकर। पैदल यात्रा खत्म होते ही इसकी चर्चा कम हो गई। वीर सावरकर पर की गई टिप्पणियों पर शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जो कांग्रेस की सहयोगी पार्टियां हैं, ने आपत्ति जताई। उसके बाद वीर सावरकर पर कोई टिप्पणी नहीं आई है। ब्रिटेन में उन्होंने कई तरह की टिप्पणी की जिनमें से एक थीं भारत के लोकतंत्र को लेकर। वहां उन्होंने जो कहा था उससे ये ध्वनित हो रहा था कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है और लोकतंत्र के रखवाले कहां हैं। उनके इस बात पर पर्याप्त चर्चा हो रही थी फिर सूरत की अदालत का निर्णय आ गया। मानहानि के एक केस में उनको दो साल की सजा हो गई। सजा होते ही संसद से उनकी सदस्यता समाप्त हो गई। फिर कानूनी दांव-पेंच और अब सजा पर रोक की उनकी याचिका खारिज होने के कारण निरंतर चर्चा में बने हुए हैं। इन बातों की चर्चा करने का उद्देश्य केवल इतना है कि भारत में लोकतंत्र को लेकर राहुल गांधी ने जिस तरह से ब्रिटेन की धरती पर अपनी बात रखी और जिस तरह से लोकतंत्र के कथित पहरेदारों को ललकारा उसपर पर्याप्त चर्चा नहीं हो सकी। न्यूज चैनलों की डिबेट में शोरगुल के बीच इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर गंभीर और तथ्यपरक चर्चा की जगह राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप ज्यादा हुआ। 

अब राहुल गांधी के उस अपेक्षा की चर्चा करते हैं जो उन्होंने ब्रिटेन की धरती से विश्व के लोकतांत्रिक देशों से की। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है, अगर यहां लोकतंत्र का पतन होता है तो इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। हम तो उसको झेल लेंगे लेकिन उसका असर आप पर भी पड़ेगा। इस चेतावनी में एक भाव ये भी है कि दुनिया के देशों विशेषकर यूरोप और अमेरिका को भारत के लोकतंत्र पर नजर रखनी चाहिए। इसके पतन के आसन्न खतरों को देखते हुए उसको बचाने का प्रयत्न भी करना चाहिए। इस भाव को लेकर जमकर राजनीति हुई लेकिन इस आलेख में इस बात की चर्चा करेंगे कि क्या ब्रिटेन और अमेरिका लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए कार्य करते रहे हैं या फिर लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर दुनियाभर के देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की जुगत में रहते हैं। अमेरिका ने इराक में लोकतंत्र के नाम पर क्या किया वो जगजाहिर है। इस मसले पर अमेरिका का इतिहास देखे जाने की जरूरत थी। अब जरा ब्रिटेन की भी चर्चा कर लेते हैं। राहुल गांधी को या उनके सलाहकारों को तो ये याद होगा कि ब्रिटेन ने लंबे समय तक हमें गुलाम बनाकर रखा था। उनके नाना और नाना के पिता ने अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन में हिस्सा लिया था। उनकी दादी भी अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता आंदोलन में शामिल रही थीं। इंदिरा जी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान अमेरिका और वहां के राष्ट्रपति का बर्ताव कैसा रहा था, इसको देश की जनता ने अभी तक भुलाया नहीं है। 

ब्रिटेन की धरती पर जब लोकतंत्र को लेकर राहुल गांधी चर्चा कर रहे थे तो संभवत: उनको जलियांवाला बाग नरसंहार की याद नहीं रही होगी। वही जलियांवाला बाग जहां सैकड़ों निर्दोष भारतीयों को अंग्रेज सिपाहियों ने गोलियों से भून दिया था। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला नरसंहार हुआ था। इस ब्रितानवी नरसंहार के एक सौ चार वर्ष बाद एक पुस्तक आई है गांधी,जलियांवाला बाग विचार कोश। इसके लेखक हैं कमल किशोर गोयनका। कमल किशोर गोयनका की ख्याति प्रेमचंद के अध्येता के तौर पर रही है और उन्होंने प्रेमचंद के लेखन और उनके व्यक्तित्व के बारे में विपुल लेखन ही नहीं किया है बल्कि प्रेमचंद को लेकर जिस तरह की भ्रांतियां फैलाई गईं थी उसका निषेध भी किया था। अब अपनी इस नई पुस्तक गांधी, जलियांवाला विचार कोश में कमल किशोर गोयनका ने श्रमपूर्वक इस नरसंहार से जुड़े दस्तावेजों पर आधारित ऐतिहासिक तथ्यों को जुटाकर गांधी और के विचारों और योजनाओं की तस्वीर प्रस्तुत की है। कमल किशोर गोयनका ने बरतानवी अधिकारियों और उनके प्रतिनिधियों की रिपोर्ट, उनके आदेश को भी समेटा है। इतना ही नहीं गोयनका ने उस दौर के पत्रकारों, लेखकों और समाजेवियों के लिखे या उनके रिकार्डेड वक्तव्यों को भी आधार बनाया है। इनमें ब्रिटेन की वो मानसिकता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है जो उनके लोकतंत्र प्रेम को एक्सपोज कर देती है। जलियांवाला बाग की नृशंसता के बाद पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सर माइकल ओ डायर ने अपनी गवाही में कहा था कि मेरे निजी अनुभव के अनुसार शांति का अर्थ है जब कोई गोरा आदमी , बड़े साहब से लेकर आर्डिनरी टामी तक, बिना शस्त्र के हिंदुस्तान के किसी भी स्थान पर अकेला सैर कर सके और सुरक्षित रहे। कोई उसे बुरी नजर से न देखें, इस डर से कि उसकी आंखे निकाल ली जाएंगी, हाथापाई करने पर हाथ काट दिए जाएंगे और उपद्रव करनेवालों के गांव जला दिए जाएंगे। प्रकृति का सच है कि ताकतवर राज करते हैं। इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद ब्रिटेन से किसी प्रकार की अपेक्षा शेष नहीं रहती है। आज भी स्थिति बदली नहीं है। इस हत्याकांड के सौ वर्ष बाद ब्रिटेन की संसद में इसपर बहस होती है। इस नरसंहार पर क्षमा मांगने को लेकर चर्चा होती है लेकिन अबतक ऐसा नहीं करके ब्रिटेन ने जता दिया है कि वो एक राष्ट्र के तौर पर अब भी नरसंहार को लेकर न तो शर्मिंदा है और न ही क्षमा मांगना चाहते हैं। इस पुस्तक में ऐसे सैकड़ों दृष्टांत हैं। जलियांवाला को लेकर महात्मा गांधी के विचारों को भी समग्रता में पेश किया गया है जो कि शोधार्थियों को लिए एक नई जमीन तैयार करती है। गांधी की एक नई छवि भी सामने आती है। 

कमल किशोर गोयनका अपनी इस पुस्तक में साबित करते हैं कि ब्रिटेन का शासन नस्ली था, क्रूर था। क्रूर इस वजह से कि जलियांवाला में गोलियां बरसाने के बाद जिस तरह की स्थितियां बनीं वो ब्रिटेन के दामन पर काला धब्बा है। जनरल डायर और माइकल ओ डायर के कृत्यों का जिस तरह से ब्रिटेन में बचाव होता रहा है उससे ये तो साबित होता है कि वहां का मानस कैसा है। ऐसे मानस वाले राष्ट्र से लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए आगे आने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। राहुल गांधी जब ब्रिटेन की धरती पर जाकर ऐसी बातें करते हैं तो इतिहास से अनभिज्ञ नजर आते हैं। उनको भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को ठीक तरह से आत्मसात करना चाहिए क्योंकि वैश्विक मंचों पर वो भारत के प्रमुख विपक्षी दल के नेता के तौर पर बोलते हैं। उनको लोग गंभीरता से सुनते हैं। अगर वो वैश्विक मंचों पर इस तरह की बातें करेंगे तो उनके बारे में अलग राय बनेगी। उनकी पार्टी के नेता तो उनकी प्रशंसा करेंगे ही लेकिन जब समर्थक पत्रकार भी सुर में सुर मिलाने लगते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि उनके समर्थकों का इतिहास बोध कितना कमजोर है। कुछ लोगों को राहुल गांधी के इन वक्तव्यों में उनका गांभीर्य दिखा था,अपने राष्ट्र को लेकर उनकी चिंता दिखी थी। उनके अपने तर्क थे लेकिन ऐतिहासिक तथ्य और घटनाएं तो कुछ अलग ही कहती हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के विपक्ष के नेता से ये अपेक्षा तो की जा सकती है कि वो वैश्विक मंच के अपने भाषण में उठाने वाले बिंदुओं पर बोलने के पहले समग्रता में विचार कर लें।  

Friday, April 21, 2023

स्वाद और एबियंस का काकटेल


जब भी उत्तर भारतीय खाने की बात आती है तो लोग दाल मखनी या बटर चिकन और तंदूरी रोटी की बात करने लगते हैं। उत्तर भारत के खान-पान परंपरा को देखें तो इसका दायरा दाल मखनी और बटर चिकन आदि से काफी विस्तृत है। उत्तर भारत की जो प्राचीन खान-पान परंपरा है उसका स्वाद मसालों के साथ साथ उनको बनाने की विधि पर निर्भर करता था। धीमी आंच पर खाना पकाने की पद्धति उसके स्वाद को कई गुणा बढ़ा देती है। धीमी आंच पर बनी दाल, लोहे की कड़ाही में बना मटन इसका स्वाद ही अलग होता है। दिल्ली के चाणक्यपुरी में सरदार पटेल मार्ग पर स्थित ताज पैलेस होटल में एक रेस्तत्रां है लोया। ताज पैलेस में घुसते ही ताज समूह की सिगनेचर स्टाइल की साज सज्जा। लेकिन जैसे ही आप लोया रेस्तत्रां में प्रवेश करते हैं तो वहां की साज सज्जा बिल्कुल ही अलग है। रेस्तत्रां के बीच में बार और उसके सामने और दोनों तरफ करीने से लगी मेज और कुर्सियां। वहां बैठकर आप न सिर्फ भोजन कर सकते हैं बल्कि बार टेंडर को कलात्मक तरीके से ड्रिंक्स तैयार करते और शेफ को किचन में खाना बनाते भी देख सकते हैं। इसके मेन्यू और डेकोरेशन में भी एक थीमैटिक जुड़ाव है। इस रेस्तरां की विशेषता है कि ये उत्तर भारत के अलग अलग इलाकों में प्रचलित खाने को उसी अंदाज में बनाते हैं जैसे कि वहां वर्षों पहले बनाई जाती थीं। उत्तर भारत का मतलब हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, जम्मू कश्मीर आदि। इनका पूरा ध्यान खाने के स्वाद और उसको बनाने के तरीके पर होता है।

इस रेस्तरां में कटहल और बैंगन का भर्ता बहुत स्वादिष्ट है। लोया के शेफ गगन सिक्का ने इसकी रेसिपी बताई। किस तरह से बैंगन को रोस्ट करके और फिर कटहल और मसाले के साथ मिक्स करके ये स्वादिष्ट डिश तैयार किया जाता है। सर्व करने के पहले थोड़ी देर तक इसको धीमी आंच पर चढ़ा कर रखते हैं। इसी तरह से हिमाचल की प्रसिद्ध दाल का स्वाद उसको बनाने के तरीके से खास हो जाता है। गगन सिक्का के अनुसार यहां के स्वाद में दादी और नानी के नुस्खों का खास ख्याल रखा जाता है। उसी तरह से मसालों को पीसकर वेज नानवेज में डाला जाता है जिस तरह से पुराने जमाने में डाला जाता था। वेज की तरह नानवेज पसंद करनेवालों के लिए भी कई तरह के स्वादिष्ट डिसेज उपलब्ध हैं। दम नल्ली का स्वाद भी नानवेज खानेवालों को बेहद पसंद आता है। धीमी आंच पर काफी देर तक पकाने के कारण मसालों का स्वाद टेंडर मटन के अंदर तक चला जाता है। इसी तरह से कांगड़ा खोड़िया गोश्त, मलेरकोटला कीमा छोले आदि भी क्षेत्र विशेष की रेसिपी के हिसाब से बनाकर परोसे जाते हैं। लोया के खाने में देसी खुशबू महसूस होती है। लोये के मेन्यू में स्वीट डिश के लिए मिट्ठा शब्द का प्रयोग किया गया है। यहां भी उत्तर भारत में प्रचलित मीठे को करीने से बनाकर पेश किया जाता है। अगर आप दूध जलेबी खाना चाहते हैं तो करीने से कांसे के ट्रे में तीन छोटे ग्लास में पिस्ता, छुहारा और केसर मिल्क और उनके ऊपर रखी गई एक एक जलेबी। इसी तरह से गुड़ की रोटी और खीर की डिश भी उन दिनों की याद दिलाते हैं जब गांवों में बच्चे रात को गुड़ की रोटी खाने की जिद करते थे और दादी मां उनको मीठी रोटी खिलाकर संतुष्ट कर देती थी। कई बार ये कहा जाता है कि फाइव स्टार का खाना काफी महंगा होता है लेकिन लोया में पांच छह हजार रु में दो लोग आराम से स्वादिष्ट भोजन कर सकते हैं।

Saturday, April 15, 2023

भाषाई गुलामी से मुक्त होती व्यवस्था


हाल में दिल्ली पुलिस कमिश्नर संजय अरोरा ने एक परिपत्र जारी कर आदेश दिया है कि किसी भी अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के समय सरल शब्दों का प्रयोग किया जाए। दिल्ली पुलिस का ये आदेश दिल्ली उच्च न्यायालय के एक आदेश के आलोक में जारी किया गया है। उच्च न्यायालय ने एक मामले में ये आदेश दिया था कि प्राथमिकी शिकायतकर्ता के शब्दों में होनी चाहिए। बहुत अधिक जटिल भाषा, जिसका अर्थ शब्दकोशों की मदद से खोजा जाता है, प्राथमिकी में इस्तेमाल नहीं किया जाना है। पुलिस अधिकारी बड़े पैमाने पर आम जनता के लिए काम कर रहे हैं और उन लोगों के लिए नहीं जो उर्दू, हिंदी या फारसी भाषा में डाक्टरेट के पदवी धारक हैं। जहां तक संभव हो प्राथमिकी में सरल शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। न्यायालय के इस आदेश के अनुपालन में दिल्ली पुलिस ने कई कठिन शब्दों की एक सूची तैयार की और उसके सरल हिंदी शब्द की सूची भी परिपत्र के साथ जारी की। दिल्ली पुलिस के इस कदम को लेकर कुछ लोगों ने व्यंग्यात्मक शैली में अपनी बात की तो कइयों ने इसको उर्दू के खिलाफ कदम माना। भाषा की राजनीति करनेवाले इसको लेकर सक्रिय हुए। हिंदी उर्दू के परस्पर संबंधों की दुहाई दी गई। गंगा-जमुनी तहजीब की बात की गई। लेकिन आलोचना करनेवालों से एक चूक हो गई। उन्होंने उर्दू और अरबी फारसी को लेकर घालमेल कर दिया। फारसी और उर्दू का घालमेल करनेवालों और दिल्ली पुलिस के इस कदम की आलोचना करनेवालों को डा सैयद अली बिलग्रामी का कथन याद रखना चाहिए। उन्होंने कहा था कि शिक्षा की दृष्टि से मुसलमानों की पिछड़ी हुई दशा का प्रधान कारण दोषपूर्ण फारसी वर्णमाला है जो उनके बच्चों को बर्षों तक उलझाए रखती है। उनको सरल और व्यवस्थित नागरी वर्णमाला स्वीकार कर लेनी चाहिए जिसे छह ही महीनों में सीखा जा सकता है। इन दिनों उर्दू कू सबसे बड़ी चिंता यही है कि उसकी लिपि में लिखने पढ़नेवाले निरंतर कम होते जा रहे हैं।

दिल्ली पुलिस के इस परिपत्र को देखने के बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल के एक लेख की कुछ पंक्तियां याद आ गई। रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी के समर्थन में लीडर पत्रिका में एक लेख लिखा था। उसमें एक अदालती नोटिस का उल्लेख है जो देवनागरी लिपि में लिखी गई थी, इसको देखा जाना चाहिए- लिहाजा बजरिय :  इस तहरीर के तुम रामपदारथ मजकूर को इत्तला दी जाती है कि अगर तुम जर मजकूर यानि मुबलिग पंद्रह रुपए छह आने, जो अजरुए डिगरी वाजिबुल अदा है, इस अदालत में अंदर पंद्रह रोज तारीख मौसूल इत्तलानामा हाजा से अदा करो वरन :  वजह जाहिर करो कि तुम मुंदर्जी जैल खेतों से जिनके बावत बकाया डिगरी शुदा बाजिबुल अदा है, बेदखल क्यों न किए जाओ। आचार्य शुक्ल ने लिखा कि उपरोक्त नोटिस में क्रियाओं और सर्वनामों के अतिरिक्त सभी शब्द फारसी और अरबी के हैं और जिन लोगों ने मौलवी का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है उनकी समझ से पूर्णत: बाहर है। सरल बनाने के लिए इसको हिंदी में इस प्रकार से लिखा जा सकता है- सो इस लेख से तुमको जताया जाता है कि तुम ऊपर कहा हुआ रुपया जिसकी तुम्हारे ऊपर डिगरी हो चुकी है इस नोटिस को पाने के पंद्रह दिन के भीतर इस अदालत में चुकता करो, नहीं तो कारण बतलाओ कि तुम नीचे लिखे खेतों में से जिनके ऊपर डिगरी का रुपया आता है, क्यों न बेदखल किए जाओ। भले ही ये अदालती नोटिस है लेकिन किसी भी थाने में जो प्राथमिकी दर्ज की जाती है वो भी लगभग ऐसी ही भाषा में लिखी जाती है जो समझ से परे है। दिल्ली पुलिस ने जो शब्दों की जो सूची जारी की है वो भी इस तरह की कहानी ही कहते हैं। सूची को देखें तो उसमें भी अदम पता (जिसका पता न चले), अदम शनाख्त (जिसकी पहचान न हुई हो), अरसाल (प्रस्तुत है), काबिल दस्त अंदाजी (संज्ञेय अपराध) जैल (निम्न), ततीमा (अतिरिक्त), फर्द मकबूजगी (किसी वस्तु को कब्जे में लेने के लिखित दस्तावेज) आदि जैसे शब्द हैं। इनको भी समझने के लिए या तो शब्दकोश की आवश्यकता होगी या मौलवी का प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति की सहायता की।

दिल्ली पुलिस के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि न्याय व्यवस्था की पहली सीढ़ी तो पुलिस थाना या चौकी ही है। किसी भी तरह के अपराध की पहली रिपोर्ट तो वहीं दर्ज की जाती है। न्यायालय में तो केस बाद में जाता है। थाना या पुलिस चौकी में जिस भाषा में अपराध की शिकायत दर्ज की जाती है उसके अधिकतर शब्द अरबी या फारसी के होते हैं। इससे शिकायत दर्ज करवानेवाला अपनी शिकायत के बारे में समझ नहीं पाता है कि उसने जो शिकायत लिखवाई वो सही से प्राथमिकी में दर्ज हुई या नहीं। अगर राजनीति से अलग हटकर बात करें तो पूरे देश में एक सामान्य भाषा को लेकर लोग बात भी करने लगे हैं और उसको साकार करने का प्रयत्न भी। भारत की लगभग सभी भाषाएं शब्दों के लिए हिंदी की तरह ही संस्कृत के द्वार पर जाती हैं। हिंदी, मराठी, गुजराती, बंगाली आदि में इतनी अधिक समानता है कि इससे एक भाषाई गठबंधन बनने की प्रबल संभावना है। कहीं पढ़ा था कि उर्दू को संस्कृत से परहेज है और वो संस्कृत से नहीं बल्कि फारसी और अरबी से शब्द उधार लेती है। इस कारण उर्दू न केवल दुरूह होती चली गई बल्कि भारतीय भाषाओं से एक दूरी भी बना ली। बाद में उर्दू के कई पैरोकार मुस्लिम विद्वानों औरर रहनुमाओं ने हिंदी को लेकर अनर्गल टिप्पणियां की। बावजूद इसके हिंदी का फैलाव होता रहा और उर्दू सिकुड़ती चली गई। इन कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। फारसी के दुरूह शब्दों का उपयोग कम करने से उर्दू कमजोर नहीं होगी बल्कि उर्दू को ताकत ही मिलेगी और वो भारतीय भाषाओं के गठबंधन के करीब आ सकेगी। यहां के लोगों में उसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी।

दिल्ली पुलिस के इस कदम पर भाषा की राजनीति करना व्यर्थ और अनुचित है। यह भारत सरकार के भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने की व्यापक योजना को हिस्सा तो है ही न्यायिक व्यवस्था को सुगम बनाने का उपक्रम भी। गृह मंत्री अमित शाह निरंतर भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के कार्य में लगे हैं। गृह मंत्रालय के अधीन ही राजभाषा विभाग आता है जो हिंदी को लेकर गंभीरता से काम कर रहा है। दिल्ली पुलिस भी गृह मंत्रालय के अधीन है। अभी कुछ दिनों पूर्व गृह मंत्रालय ने केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल में जनरल ड्यूटी के सिपाहियों की भर्ती के लिए हिंदी और अंग्रेजी समेत 13 अन्य भारतीय भाषाओँ में परीक्षा आयोजित करने का आदेश दिया। इसमें उर्दू भी शामिल है। इससे इन भाषा के प्रभाव वाले क्षेत्र के युवकों को अपनी मातृभाषा में परीक्षा देने का अवसर मिलेगा। केंद्रीय बलों में उनकी भागीदारी भी बढ़ेगी। अगर बिना किसी राजनीतिक चश्मे के भाषा को लेकर उठाए गए कदमों का समग्रता में विश्लेषण करें तो यह महत्वपूर्ण कदम नजर आता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी भारतीय भाषाओं को महत्व दिया गया है। शिक्षा से लेकर रोजगार तक अगर भारतीय भाषाओं को महत्व मिल रहा है तो प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में भी भारतीय भाषा को प्राथमिकता मिलनी ही चाहिए। आक्रांताओं की भाषा को कब तक ढोते रहेंगे। स्वाधीनता के अमृत काल में तो स्वभाषा का उपयोग बढ़ाने का प्रयास हर स्तर पर होना चाहिए। सरकारी भी और गैर सरकारी संस्थाओं को भी आगे आकर भारतीय भाषाओं को सुदृढ़ करने के कार्य में लगना चाहिए। उर्दू के लिए भी बेहतर स्थिति यही होगी कि वो अरबी और फारसी की जगह भारतीय भाषाओं के शब्दों को उपयोग में लाए।

Saturday, April 8, 2023

भ्रांतियां दूर करने की चुनौती


पिछले दिनों एक सेमिनार में हिस्सा लिया था। वहां मुगलों और अंग्रेजों पर बात हो रही थी। एक वक्ता ने मंच से कहा कि भारत में कई सारी चीजें मुगल और कई अंग्रेज लेकर आए। इन चीजों और प्रथाओं ने भारतीय समाज को अपेक्षाकृत आधुनिक बनाया। यहां से होते हुए बात हिंदी-उर्दू पर चली गई और वहां से भारतीय पहरावा और खान-पान पर। मंच से ये तक कहा गया कि भारत में सिले हुए वस्त्र मुगलों के साथ आए और उसके पहले यहां के लोग सिले हुए वस्त्रों से परिचित ही नहीं थे। इस संबंध में उन्होंने चीनी यात्री फाहयान के यात्रा वृत्तांत का उदाहरण देते हुए ये साबित करने की कोशिश की मध्यकाल के पहले भारत में सिले हुए वस्त्रों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। कुछ देर तक इसके पक्ष-विपक्ष में बहस चलती रही लेकिन मुगलों और अंग्रेजों के पक्ष में तर्क रख रहे सज्जन ने विदेशी लेखकों के नाम गिनाने आरंभ किए तो सभागार में बैठे लोगों को लगा कि उनकी बातों में दम है। सत्र समाप्त हुआ। इसके बाद भी लोगों के बीच इस विषय पर चर्चा होती रही। लोग पक्ष विपक्ष में तर्क देते रहे लेकिन चूंकि हमारी शिक्षा पद्धति में इस तरह की बातों को उतना महत्व नहीं दिया इस कारण नई पीढ़ी तक बातें पहुंच नहीं पाई। विदेशियों की पुस्तकों के उद्धरणों और विदेशी विद्वानों के लिखे को अंतिम सत्य मानने वाले विद्वानों ने उनके आधार पर निरंतर ये भ्रम फैलाया कि भारत में सिले हुए वस्त्रों से परिचय मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण के बाद हुआ। विदेशी लेखक बकनन हैमिल्टन ने अपनी पुस्तक ईस्टर्न इंडिया में ये कहा है प्राचीन हिंदू जाति सिले हुए वस्त्र के व्यवहार से पूर्णतया अनभिज्ञ थी, उका प्रचार मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात हुआ। उनके इसी कथन को म्योर और वाटसन जैसे यूरोपीय विद्वानों ने आधार मानकर इस धारणा को आगे बढ़ाया। जिन लोगों ने सिर्फ इन विद्वानों को पढ़ा है उनको लगता है कि ये बात सही है। जबकि भारतीय लेखन में इसका कई बार प्रमाण सहित प्रतिकार किया जा चुका है। 

हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सरस्वती पत्रिका में 1902 में एक लेख लिखकर प्रमाण सहित बताया था कि प्राचीन भारत में सिले हुए वस्त्रों और सुई का प्रमाण उपलब्ध है। आचार्य शुक्ल ने अपने लेख में प्राचीन ग्रंथों और प्राचीन मूर्तियों के सहारे ये स्थापित किया कि सिले हुए वस्त्रों का चलन भारत में बहुत पहले से था। उन्होंने ऋगवेद का उदाहरण दिया जहां सुई और सीने का उल्लेख है। सिव्यतु अपच शुच्य छेद्यमानय, 2(288)। वो कहते हैं कि ‘मूल शब्द शूचि है जिसके लिए ये अनुमान बांधना कि उससे कांटे या और किसी नोकीली वस्तु से अभिप्राय है, उपहासजनक होगा। यह भी विचार करने का स्थल है कि प्राचीन आर्य लोहे के शस्त्र इत्यादि बनाने में कुशल होकर भी सुई से पूरे अनभिज्ञ बने रहते।‘  उन्होंने कर्नल टेलर के इस कथन का भी सोदाहरण निषेध किया है कि प्राचीन हिंदू जाति में दर्जी का होना प्रमाणित नहीं है और न ही उनकी भाषा में इसके लिए कोई शब्द है। इस संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल अमरसिंह के अमर कोष का संदर्भ देते हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि अमरसिंह का अमरकोष ईसा से पूर्व का माना जाता है। अमरसिंह के कोष में दर्जी के लिए दो शब्द प्रयोग किए गए हैं। एक है तन्तुवाय और दूसरा है सौचिक। (तन्तुवाय: कुविंद: स्यात्तुन्नवायस्तु  सौचिक:-अमरकोष)। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने लेख में इस बात को भी रेखांकित किया है कि पाणिनी के सूत्रों में भी इस शब्द का उल्लेख है। रामायण और महाभारत के अलावा भी संस्कृत के अन्यान्य ग्रंथों में इस तरह के पहिरावों का उल्लेख है जो बगैर सुई और सीने के बन नहीं सकते। उदाहरण के तौर पर कंचुक, कंचुलिक, अंगिका, चोलक, चोल, कुर्पासक। 

इन शब्दों को अर्थ और उसके प्रयोग को देखते हैं तो इस बात के प्रमाणिक संकेत मिलते हैं कि प्राचीन काल में भारत में सुई और सिले हुए वस्त्रों की परंपरा रही है। ऐसे वस्त्र पहने जाते थे तो सिलकर ही तैयार हो सकते थे। अब अगर कंचुक शब्द के अर्थ को ही देखें तो इसका अर्थ होता है सैनिकों का कुर्ते जैसा एक विशेष वस्त्र। कई जगह ‘सन्नाह’ शब्द का प्रयोग लोहे के कवच और सूत के बने वस्त्रों के लिए भी किया जाता है। सन्नाह को कंचुक का पर्यावाची मानकर कई कोष में उसका अर्थ वाणों से बचाव के लिए लोहे से निर्मित पहिराव के तौर पर किया गया है। रामचंद्र शुक्ल इस बात को प्रमाणित करते हैं कि प्रचीन काल में कंचुक का अभिप्राय सूत से बने वस्त्रों के लिए भी किया जाता था। इस संदर्भ में वो महाभारत का उदाहरण देते हैं कि युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के समय ऋषियों का कंचुक और पगड़ी धारण करने का उल्लेख है। (विवशुस्ते सभां दिव्यां सोष्णीषां धृतकंचुका:)। अब एक और शब्द को देखते हैं। अंगिका एक प्रकार की कुर्ती होती थी जिसको हिंदी में अंगिया कहते हैं। अंगिया शब्द संस्कृत के अंगिका का अपभ्रंश है। इस बात को प्रमाणित करता है कि प्राचीन काल में सिले हुए वस्त्र पहने जाते थे। एक शब्द है नीवी। नीवी कहते हैं इजारबंद को जो घाघरे में डाला जाता है। अगर प्राचीन काल में घाघरे नहीं थे तो नीवी का क्या काम था। 

रामचंद्र शुक्ल ने शब्दों के अलावा अपने उस लेख में मूर्तियों और उसपर उकेरे गए वस्त्रों के आधार पर इस बात को प्रमाणित किया कि प्राचीन काल में भारत में सिले हुए वस्त्रों का चलन था। उन्होंने अमरावती और ओडिशा की प्राचीन मूर्तियों और वस्त्रों को आधार बनाया है। अमरावती में कई मूर्तियां नग्नावस्था और अर्धनग्नावस्था में हैं लेकिन उनके बीच कई मूर्तियां ऐसी भी हैं जिनके वस्त्र उस काल में दर्जी के अस्तित्व के संकेत करते हैं। पुस्तक ‘एंटिक्स आफ ओडीशा’ में उदयगिरी की गुफाओं में चट्टानों से काटकर बनाई मूर्ति को एक चुस्त चपकन पहने दिखाया गया है। इस मूर्ति की अवस्था करीब 2300 साल पूर्व की मानी जाती है।ये चपकन जामे के जैसा है। पुरुषों के अलावा अगर स्त्रियों की बात करें तो इस बात के कई प्रमाण धर्मशास्त्र से लेकर बौद्धग्रंथों में भी उपलब्ध हैं कि स्त्रियां पर्याप्त वस्त्र पहनती थीं। स्त्रियों में साड़ी का प्रचलन था। संपन्न घरों की स्त्रियां घाघरा और कुर्ती और उसके उपर से कभी कभार अंगिया धारण करती थीं। आचार्य शुक्ल ने उक्त लेख के अंत में बहुत ही दिलचस्प बात कही है वो ये कि बंगाल इत्यादि प्रांतों में अधिकांश दर्जी समूह मुसलमान हैं जिसकी वजह से हेमिल्टन समेत कई लेखक भ्रमित हो गए कि दर्जी की अवधारणा भारतीय नहीं है। परंतु पूरे भारतवर्ष में ऐसा नहीं था। शेरिंग ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू कास्ट एंड ट्राइव्स आफ बनारस’ में हिंदुओं के दर्जी होने का उल्लेख किया है।ये भी बताया है कि हिंदुओं में किस जाति के लोग दर्जी का काम करते थे। 

अगर भारत के प्राचीन गंथों को और उस समय के विदेशी लेखकों के लेखन को समग्रता में देखें तो कई प्रकार की भ्रांतियां दूर होती हैं। आवश्यकता इस बात है कि हमारे देश में जो देसी विद्वानों ने जो लिखा उसको प्रचारित प्रसारित किया जाए। उसको नई पीढ़ी को बताया और पढ़ाया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए नए पाठ्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं। नई पुस्तकें तैयार की जा रही हैं। इस कार्य में उन विद्वानों को लगाना चाहिए जो सिर्फ ग्रंथों से परिचित ना हों बल्कि उन ग्रंथों को समग्रता से देखकर छात्रों के पाठ को तैयार कर सकें। अगर ऐसा हो पाता है तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सार्थकता स्थापित होगी और ये बदलाव का वाहक बन सकेगा। 


Saturday, April 1, 2023

महापुरुषों के कृतित्व का स्मरण काल


स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद अब हम अमृतकाल में प्रवेश कर चुके हैं। अमृतकाल में इतिहास की जमीन पर विज्ञान के सहयोग से एक शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र बनाने का संकल्प हर भारतीय का है। इसके लिए आवश्यक है कि उन महापुरुषों के कृतित्वों का स्मरण किया जाए जिन्होंने भारत में शिक्षा से लेकर संस्कृति तक को शक्ति देने में अपना जीवन लगा दिया। अमृत महोत्सव के दौरान पूरे देश ने उन महापुरुषों को याद किया जिन्होंने स्वाधीनता पाने के लिए अपना सर्वस्व गंवा दिया। लेकिन इस विशाल भारत भूमि पर ऐसे अनेक सपूत पैदा हुए जिन्होंने स्वाधीनता की न केवल जमीन तैयार की बल्कि लोगों के मन में एक विश्वास पैदा किया कि वो स्वाधीन हो सकते हैं। विदेशी आक्रांताओं ने हमारे देश की शिक्षा पद्धति तो तहस-नहस किया। सामाजिक सरोकारों के केंद्र रहे मंदिरों को नष्ट किया। ऐसे में जनमानस को स्वाधीनता के लिए तैयार करने के लिए आवश्यक था कि उनके मन घर कर गई दास भावना का शमन किया जाए। इस तरह के कार्य भी अनेकों महापुरुषों ने किए। स्वाधीनता के बाद इतिहासकारों ने जिस तरह से आधुनिक भारत का इतिहास लेखन किया उसमें उत्तर भारत की घटनाओं और स्वाधीनता सेनानियों को वरीयता दी गई। दक्षिण और पश्चिम भारत पर भी लिखा गया लेकिन पूर्वोत्तर पर बहुत कम लिखा गया। कह सकते है कि इतिहास लेखन में पूर्वोत्तर की घटनाओं और वहां के लोगों के योगदान की उपेक्षा की गई।

पिछले दिनों असम के डाउन टाउन विश्वविद्यालय में हरिनारायण दत्त बरुआ की स्मृति में आयोजित समारोह में जाने का अवसर मिला। समारोह का निमंत्रण मिलने के बाद हरिनारायण दत्त बरुआ के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। उनके बारे में बहुत ही कम जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है। असम जाकर कुछ पुस्तकें मिलीं जिनसे पता चला कि हरिनारायण दत्त बरुआ ने असमिया साहित्य को संजोने और उसको समृद्ध करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। हरिनारायण दत्त बरुआ स्कूली शिक्षक थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन असमिया साहित्य के संरक्षण और उसके पुर्नप्रकाशन में लगा दिया। शिक्षा के क्षेत्र में किया गया उनका कार्य अनुकरणीय है। 1885 में उनका जन्म हुआ था। जब वो शिक्षक बने तो उनको असमिया भाषा में पाठ्य पुस्तकों की कमी का अनुभव हुआ। उन्होंने कई छात्रोपयोगी पुस्तकें लिख डालीं। कुछ अपने नाम से तो कुछ बिना लेखक का  नाम दिए। उस समय पूर्वोत्तर में शिक्षा की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। असमिया में पुस्तकों और उसके विक्रेताओं की कमी थी। इस कमी को पूरा करने के लिए हरिनारायण दत्त बरुआ ने अपने भाई के साथ मिलकर असम के नलबाड़ी में एक पुस्तक की दुकान खोली। यहां भी एक समस्या खड़ी हो गई। पुस्तकें बहुत कम संख्या में मिलती थीं और उनको बाहर से मंगवाना पड़ता था। इस कारण लागत अधिक हो जाती था। इस बीच उन्होंने 1932 में अपने पिता के नाम पर एक बालिका विद्यालय की स्थपना की। पुस्तकों की मांग इससे और बढ़ गई। किसी तरह से पांच छह साल तक पुस्तकों की आपूर्ति करते रहे। जब पुस्तकों की मांग बहुत अधिक बढ़ने लगी और बाहर से उतनी संख्या में पुस्तकें नहीं मिलने लगी तो उन्होंने तय किया कि एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की जाए। लेकिन अर्थ का संकट। उस समय असम जैसे प्रदेश में प्रिंटिंग प्रेस लगाना बेहद मुश्किल और खर्चीला था। जब उद्देश्य पवित्र होता है तो राह आसान हो जाती है। उन्होंने 1938 में अपनी मां के नाम पर उमा प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। प्रिटिंग प्रेस की स्थापना के बाद ये संकट उत्पन्न हुआ कि कौन सी पुस्तकें प्रकाशित की जाएं। उन्होंने छात्रोपयोगी पुस्तकों के साथ साथ असमिया भाषा में लिखी गई प्राचीन पुस्तकों का प्रकाशन आरंभ किया। हरिनारायण दत्त बरुआ की लिखी और संरक्षित पुस्तकों से प्राचीन असमिया साहित्य और इतिहास के सूत्र मिलते हैं। उनकी लिखी पुस्तकों में असम के साथ-साथ भारत के इतिहास की भी कई अनकही कहानियां दर्ज हैं। आवश्यकता इस बात की है कि उनको भारतीय भाषाओं में अनूदित करवा कर पूरे देश के लोगों तक पहुंचाया जाए। 

श्रीमंत शंकरदेव की कई कृतियों को हरिनारायण दत्त बरुआ ने न केवल संरक्षित किया बल्कि उसके मूल स्वरूप में प्रकाशित करने का बेहद महत्वपूर्ण कार्य भी किया। कुछ लोगों का मत है कि श्रीमंत शंकरदेव के व्यक्तित्व के कुछ आयामों से दत्त बरुआ ने जनता का परिचय करवाया। असम के प्रसिद्ध संत श्रीमंत शंकरदेव का जन्म 1449 में हुआ था। उनके बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार मात्र 13 वर्ष की आयु में उन्होंने पंडित महेंद्र कंदली की पाठशाला में विद्याध्ययन के लिए प्रवेश लिया था। मात्र चार वर्ष में हिंदू धर्म ग्रंथों का अध्ययन पूर्ण कर भगवद चिंतन में लग गए थे। घरवालों ने ये देखकर शंकरदेव का विवाह करवा दिया लेकिन वो भगवद चिंतन में ही रमा रहा। ये वो समय था जब कुछ लोग हिंदू धर्म के नाम पर तंत्र विद्या के विकृत रूप को चलाने में लगे हुए थे। जब शंकरदेव ने ये महसूस किया कि इससे हिंदू धर्म के बारे में गलत बातें फैल रही हैं तो उन्होंने हस्तक्षेप किया। उन्होंने एक ईश्वर में ध्यान लगाने के मत का प्रचार आरंभ किया। वो जनता के बीच जाकर ‘कलिका परम धर्म हरिनाम है’ का प्रचार करने लगे। उनकी वकतृत्व और तर्कशक्ति से प्रभावित होकर कई लोग धर्म प्रचारक बन गए जो कालांतर में धर्माचार्य कहलाए। शंकरदेव ने अपनी नीतियों में अहिंसा,छुआछूत, मद्य निषेध आदि को शामिल किया। वो श्रीकृष्ण को परमब्रह्म मानकर प्रचारित करने लगे। वो कहते थे कि एक कृष्ण की ही शरण लेकर उसी का नाम, गुण तथा श्रवण कीर्तन करने से सर्वसिद्धि प्राप्त होगी। इस कारण ही उनके प्रचारित मत को ‘एक शरण धर्म’ कहा गया। उनके शिष्य श्रीमंत माधवदेव की भी असम में बहुत ख्याति है। 

हरिनारायण दत्त बरुआ ने श्रीमंत शंकरदेव की रचनाओं को श्रमपूर्वक खोजकर निकाला और उसको प्रकाशित करवा कर जनता के बीच पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। श्रीमंत शंकरदेव के ‘चित्र भागवत’ का प्रकाशन एक ऐसी घटना है जिसको अगर ठीक से व्याख्यायित और प्रचारित किया जाए तो चित्रकला के बारे में बहुत सारी भ्रांतियां दूर होंगी। भारतीय चित्रकला का एक नया रूप सामने आएगा। हरिनारायण दत्त बरुआ ने 1946 में चित्र भागवत के प्रकाशन की प्रक्रिया आरंभ की थी और चार साल बाद उसका प्रकाशन हो सका था। अब ये पुस्तक मूल चित्रों की प्रतिलिपि के साथ प्रकाशित है। इस पुस्तक में चित्रों के साथ जो टिप्पणियां हैं वो असमिया, हिंदी और अंग्रेजी यानि तीन भाषाओं में प्रकाशित हैं। आज जब तमिलनाडू के मुख्यमंत्री दही के पैकेट पर हिंदी में दही लिखे जाने पर आगबबूला हो रहे हैं ऐसे में उनको हरिनारायण दत्त बरुआ से सीख लेनी चाहिए। जिन्होंने भाषा की दीवार को तोड़कर श्रीमंत शंकरदेव की कृतियों को व्यापक जनता तक पहुंचाने का स्वप्न देखा था। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा पर जोर दिया जा रहा है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनेक प्रकार की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। ऐसे में असम की सरकार को हरिनारायण दत्त बरुआ के बारे में देश की जनता को बताने का अभियान चलाना चाहिए। इससे न सिर्फ हरिनारायण दत्त बरुआ के योगदान के बारे में देश को पता चलेगा बल्कि अगर उनकी पुस्तकें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर प्रकाशित हो गईं तो श्रीमंत शंकरदेव की कृतियों से भी देश का परिचय होगा। असम में लोग हरिनारायण दत्त बरुआ के नाम के पहले साहित्यरत्न लगाते हैं लेकिन उनको सिर्फ साहित्य की चौहद्दी में नहीं बांधा जाना चाहिए। वो सच्चे अर्थों में भारत भूमि के ऐसे सपूत थे जिन्होंने शिक्षित भारत का ना केवल स्वप्न देखा बल्कि उसको साकार करने के लिए अंतिम दम तक लगे रहे।