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Friday, May 28, 2010

शर्म इनको मगर....

गोवा के मुख्यमंत्री दिगंबर कामत महिलाओं के एक सम्मेलन में बोलते-बोलते जोश में होश खो बैठे । यह जानते हुए भी कि वो जिस पार्टी के सदस्य हैं उसकी अध्यक्षा एक महिला है- कामत ने महिलाओं के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कर डाली । कामत ने यह टिप्पणी यह जानते हुए भी की कि उनकी पार्टी के एजेंडे में महिलाओं को लोकसभा और राज्यसभा में आरक्षण दिलाना प्राथमिकता पर है । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी यूपीए- 2 के दो साल पूरे होने पर महिलाओं को पंचायतों में आरक्षण देने पर सरकार की पीठ ठोंकी । लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि गोवा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री को यह सब चीजें याद नहीं है । महिलाओं के सम्मेलन में कामत ने कहा कि महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । अब यह बात तो कामत ही बता सकते हैं कि किस तरह के नकारात्मक प्रभाव की बात वो कर रहे हैं । लेकिन उनके भाषण का जो भाव था वह महिलाओं को लेकर उनकी घटिया मानसिकता को प्रदर्शित कर गया ।

दिगंबर कामत यह भूल गए कि भारत का लोकतांत्रिक इतिहास इस बात का गवाह है कि महिलाओं ने राजनीति में अमिट छाप छोड़ी है । चाहे वो दिगंबर कामत की पार्टी की इंदिरा गांधी हों, राजकुमारी अमृत कौर, सुचेता कृपलानी, गीता मुखर्जी हों, या फिर पूर्व मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा, कृष्णा शाही हों । अब के परिदृश्य में भी सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज, मीरा कुमार, मायावती, जयललिता से लेकर कई महिला नेत्री हैं जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और भारत के राजनीतिक परिदृश्य इनकी मजबूत उपस्थिति है । भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं के योगदान को गिनाने की जरूरत नहीं है, लंबे समय से राजनीति से जुड़े कामत याहब को संभवत: यह पता होगा ।

गोवा के मुख्यमंत्री राजनीति में महिलाओं के आने के नकारात्मक प्रभाव पर ही बोलकर नहीं रुके । वो आगे बढ़े और यहां तक कह गए कि- “राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है । समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए ।“ बोलने के उत्साह में कामत जो कह गए उससे उनकी राजनीति और उनके करियर पर दूरगामी असर पड़ सकता है । लेकिन सवाल यह उठता है कि किसी राज्य का एक चुना हुआ मुख्यमंत्री एक सार्वजनिक समारोह में इस तरह के वक्तव्य कैसे दे सकता है । एक सूबे के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठा आदमी, जिसने संविधान के नाम पर शपथ लेकर पद संभाला है वह इस तरह का अपमानजनक वक्तव्य देने के बाद भी अपने पद पर बना हुआ है । क्या कामत की संविधान में आस्था खत्म हो गई है । कामत शायद यह भूल गए हैं कि आज वो एक महिला की कृपा की वजह से ही गोवा के मुख्यमंत्री हैं, विधायकों की पसंद की वजह से नहीं ।

दरअसल कामत का यह बयान एक घोर सामंती व्यवस्था की पुरुषवादी मानसिकता का बेहद कुरुप चेहरा है । उस व्यवस्था का जहां महिलाएं बच्चा पैदा करने की मशीन हैं, बच्चा पालना उनका परम धर्म है । परिवार की देखभाल और अपने पति की हर तरह की जरूरतों पर जान न्योछावर करने की घुट्टी उसे जन्म से पिलाई जाती है । उस आदिकालीन वयव्स्था में महिलाएं गुलाम हैं जिनका परम कर्तव्य है अपने स्वमी की सेवा और स्वामी है पुरुष । इस पाषाणकालीन व्यवस्था में यकीन रखनेवाले पुरुषों को यह कतई मंजूर नहीं है कि महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर काम करें । महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक और दर्जा मिले । महिलाएं देश की नीति नियंता बने । गोवा के मुख्यमंत्री इसी सामंती और पुरुष प्रधान व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष हैं । उनका वक्तव्य पुरुषों के महिला विरोधी मानसिकता के मनोविज्ञान का नमूना है । ।

महिला विरोधी इसी मनोविज्ञान और मानसिकता में मुलायम सिंह भी कह जाते हैं कि अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला तो सीटियां बजेंगी । इसी मनोविज्ञान के तहत मुस्लिम धर्म गुरू कल्बे जब्बाद भी महिलाओं के प्रति अपमानजनक बोल बोलते हैं । यही मनोविज्ञान है जो तुलसीलास से भी लिखवा लेता है – ढोल, गंवार...पशु नारी ये सब है तारण के अधिकारी । तो महिलाओं का जो विरोध है वह किसी सिद्धांत, धर्म, आस्था, विश्वास या वाद के परिधि से परे है । जब भी महिलाओं की बेहतरी की बात होती है तो सभी सिद्धांत, वाद, समुदाय, धर्म धरे रह जाते हैं । प्रबल हो जाता है कठोर पुरातनपंथी विचारधारा जो महिलाओं को सदियों से दबा कर रख रहा है और आगे भी चाहता है कि वो उसी तरह दासता और पिछड़ेपन की बेड़ियों में जकड़ी रहें । लेकिन अब वक्त काफी आगे बढ़ गया है पर पीछे छूट गए हैं इस तरह के सामंती और दकियानूसी विचारधारा के लोग ।

Friday, May 21, 2010

कांग्रेस का माइनरिटी प्लान

हाल के दिनों में भारतीय राजनीति में कई ऐसी घटनाएं घटी जिसे अगर हम सिलसिलेवार ढंग से देखें तो केंद्र में शासन कर रही कांग्रेस पार्टी का एक गेमप्लान सामने आता है । यह गेम प्लान अगले दो तीन सालों में सूबों में होनेवाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर तैयार किया गया प्रतीत होता है। दरअसल इन कड़ियों को जोड़ने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा । कुछ महीनों पहले पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह आजमगढ़ के संजरपुर पहुंचकर बाटला हाउस एनकाउंटर पर सवाल खड़े देते हैं । इशारों-इशारों में दिग्विजय सिंह ने बटला हाउस एनकांउटर के फर्जी होने की बात कर डाली । बटला हाउस एनकाउंटर में मारे गए आतंकवादियों के फोटोग्राफ्स की बिनाह पर उन्होंने दावा किया कि एनकाउंटर में उस तरह से सर में गोली लगना नामुमकिन है। सवाल यह भी उठा कि बटला हाउस एनकांटर पर सवाल खड़े करने के लिए दिग्विजय सिंह ने संजरपुर को क्यों चुना । इस बयान के कुछ ही दिनों बाद ही पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों के फोटोग्राफ्स और उनकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट लीक की गई जिसको आधार बनाकर बटला हाउस एनकाउंटर पर मीडिया में सवाल खड़े किए गए और एनकाउंटर को शक के दायरे में ला दिया गया । वोट की ओछी राजनीति के लिए दिल्ली पुलिस के जाबांज इंसपेक्टर मोहनचंद शर्मा की शहादत को भुला दिया गया । गौरतलब है कि मोहन चंद्र शर्मा को कांग्रेस पार्टी ने ही मरणोपरांत देश का सर्वोच्च सम्मान दिया था । एक बार फिर से बटला हाउस का जिन्न बोतल से बाहर आ गया और साथ ही आजमगढ़ भी सुर्खियों में आ गया । जाहिर सी बात है इस पूरे घटना क्रम को अगर हम चंद महीनों पहले दिग्विजय सिंह के संजरपुर में दिए गए बयान से जोड़कर देखें तो तस्वीर कुछ साफ होती नजर आती है । अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए फेंका गया यह पहला चारा था ।
इसमें सफलता पाने के बाद कांग्रेस ने अपना निशाना बनाया गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को । गुजरात दंगों के बाद मोदी को भारतीय मुसलमानों के बीच खलनायक की तरह पेश किया गया और उनकी छवि घोर सांप्रदायिक बना दी गई । सचाई चाहे जो हो वो तो अदालत से तय होगा लेकिन आज की तारीख में देश का मुसलमान मोदी के बारे में बेहद खराब राय रखता है । तो कांग्रेस ने फिर से देश के अल्पसंख्यकों के बीच मोदी के बहाने एक संदेश देने की कोशिश की, संदेश यह कि जो भी मोदी के साथ है वो हमारा दुश्मन है । आपको याद होगा कि मुंबई में एक समारोह में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण एक मंच पर साथ दिखे थे जिसके बाद पार्टी में अशोक चव्हाण के खिलाफ मोर्चा खुल गया था । उनको उस अमिताभ के साथ बैठने के लिए आलोचना का शिकार होना पड़ा जो गुजरात पर्यटन के ब्रांड अंबेस्डर हैं और नरेन्द्र मोदी के साथ भी मंच शेयर करते हैं । लेकिन इस आलोचना के पीछे की असली वजह वो नहीं है जो सतह के उपर दिखाई देती है बल्कि वजह वह है जो सतह के नीचे है । कांग्रेस पार्टी अशोक चव्हाण और अमिताभ बच्चन के बहाने देश के अल्पसंख्यकों को यह संदेश देना चाहती थी कि जो भी मोदी के साथ है वो हमें बर्दाश्त नहीं है और पार्टी यहां भी सफल रही क्योंकि अमिताभ का नाम आने से मीडिया में उक्त घटना को लगातार कई दिनों तक प्रमुखता से कवरेज मिलता रहा ।
तीसरी घटना जो हुई वो जुड़ी तो हुई है आईपीएल और ललित मोदी से लेकिन उसके पीछे भी नरेन्द्र मोदी का ही नाम है । आईपीएल में जब तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर और आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी के बीच जुबानी जंग जारी था तो उस विवाद में अचानक से कोच्चि टीम में हिस्सेदारी को लेकर गुजरात के उद्योगपतियों के साथ नरेन्द्र मोदी का नाम भी उछला । जैसे ही नरेन्द्र मोदी, वसुंधरा राजे और ललित मोदी के तार जुड़ते नजर आए अचानक से वित्त मंत्रालय के अधीन काम करनेवाला आयकर विभाग सक्रिय हो गया और देशभर में ताबड़तोड़ छापे डाले जाने लगे । ललित मोदी को भी बीजेपी कनेक्शन मंहगा पड़ा । यहां भी कांग्रेस देश के अल्पसंख्यकों को यह संदेश देने में सफल हो गई कि जो भी नरेन्द्र मोदी के साथ वह हमें बर्दाश्त नहीं ।
कांग्रेस की तरफ से देश के अल्पसंख्यकों को लगातार यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि सिर्फ वही इकलौती पार्टी है जो उनके हितों का ख्याल रख सकती है । इसका एक और उदाहरण अभी सामने आया है- पार्टी में अल्पसंख्यकों के नए-नए बने पैरोकार दिग्विजय सिंह ने अब मालेगांव, गोवा, जयपुर और हैदराबाद धमाकों की सुनवाई के लिए विशेष अदालत गठित करने का राग छेड़ा हुआ है । यह इसलिए कि इन जगहों पर धमाका कराने का शक कुछ हिंदूवादी संगठनों पर है और उन संगठनों से जुड़े लोग या तो जेल में हैं या फिर पुलिस हिरासत में । उनके ट्रायल के लिए दिग्विजय सिंह को भारतीय न्यायिक वयवस्था की रफ्तार पर भरोसा नहीं हो रहा है और वह इसके लिए तेज गति से सुनवाई चाहते हैं । दिग्विजय सिंह या उनकी पार्टी ने कभी भी देश भर में हुए आतकंवादी हमलों के लिए अलग से अदालत की मांग की हो ऐसा सुनने में नहीं आया । यहां भी अल्पसंख्यकों को संदेश देने की कोशिश ना कि आतंकवादी गतिविधियों पर काबू पाने की ईमानदार कोशिश ।
अब अगर हम उपर के सभी वाकयों को जोड़ते हैं तो एक मुकम्मल तस्वीर सामने आती है । यह तस्वीर बनती है कांग्रेस पार्टी द्वारा देश के अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पाले में लाने की कोशिश और इस कोशिश का लक्ष्य है बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव । इस साल बिहार में, अगले साल पश्चिम बंगाल में और उसके अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं । कांग्रेस इस प्रयास में है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जिस तरह से अल्पसंख्यक समुदाय उनसे बिदक गया था उसे लुभाकर, रिझाकर अपने पाले में लाया जाए । दो हजार एक की जनगणना के आधार पर अगर हम देखें तो ये तीन ऐसे राज्य हैं जहां मुसलमानों की संख्या की संख्या काफी ज्यादा है । दो हजार एक के जनगणना के मुताबिक देश की कुल मुस्लिम आबादी का बाइस फीसदी उत्तर प्रदेश में है । बिहार में तकरीबन दस फीसदी और पश्चिम बंगाल में ---फीसदी मुस्लिम आबादी है । उत्तर प्रदेश की अस्सी लोकसभा सीटों में से 17 के भाग्य का फैसला मुस्लिम वोटर करते हैं जहां कि उनकी आबादी तकरीबन बीस फीसदी है । इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में बीस ऐसे जिले हैं जहां की मुस्लिम आबादी बीस फीसदी से ज्यादा है । आजमगढ़, बहराइच, गोंडा, श्रावस्ती, वाराणसी और डुमरियागंज के अलावा पश्चिम उत्तर प्रदेश के अमरोहा, मुजफ्फरनगर, मोरादाबाद में तो उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला मुस्लिम वोटों के आधार पर ही होता है ।
बिहार में भी सात जिलों में यही हालत है, किशनगंज, कटिहार अररिया और पूर्णिया में तो पैंतीस फीसदी से ज्यादा आबादी है जो दर्जनों विधानसभा क्षेत्र के नतीजों को प्रभावित करते हैं । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मुसलमान एकमुस्त वोट करते हैं । पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मुसलमानों ने कांग्रेस के पक्ष में वोट डालकर उसको बीस सीटों का आंकड़ा हासिल करने में मदद की । पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में भी मुसलमानों की निर्णायक संख्या है । क्लासलेस और कास्टलेस सोसायटी का दावा करनेवाली पश्चिम बंगाल प्रगतिशील सरकार ने भी इन्हीं वोटों को ध्यान में ऱखकर बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को सूबे से बाहर निकाल दिया । अब सरकार को यह डर सता रहा है कि मुस्लिम वोट बैंक ममता बनर्जी की ओर जा रहा है तो उसे फिर से अपने पाले में लाने के लिए तमाम हथकंडे अपना रही है । उधर कांग्रेस भी उन्हें अपनी तरफ खींचने की जुगत में लगी है ।
सवाल यह उठता है कि आजादी के बाद से दशकों तक मुस्लिम वोट कांग्रेस को जाता रहा लेकिन उनके उत्थान के लिए कितना और क्या किया गया । मुस्लिम समुदाय में शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए कितनी कोशिश की गई । मुस्लिम इलाकों में कितने सरकारी स्कूल खोले गए । अगर ये सारे आंकड़े सामने आ जाएं तो कांग्रेस की पोल खुल जाएगी । इस देश में उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति तो मुसलमान बन सकता है लेकिन उनका सरकारी दफ्तर में चपरासी बनना मुश्किल है । यह एक कड़वी सचाई है जिसके लिए सिर्फ और सिर्फ इस देश में आजादी के बाद पांच दशक तक राज करनेवाली पार्टी जिम्मेदार है । मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करनेवाली कांग्रेस पर क्या इस समुदाय के समुचित विकास की जिम्मेदारी नहीं है । अब वक्त आ गया है कि देश की अल्पसंख्यक जनता को ऐसी पार्टियों की राजनीति और हमदर्दी के झूठे दिखावे को समझना चाहिए और मौका मिलने पर उनको सबक भी सिखाना चाहिए ।

Monday, May 17, 2010

शीला, श्लाका और छीछालेदार

हिंदी के वरिष्ठ और बेहद प्रतिष्ठित लेखक कृष्ण बलदेव वैद के अपमान का संगीन इल्जाम झेल रही दिल्ली की हिंदी अकादमी ने आखिरकार अपना पुरस्कार वितरण समारोह आयोजित कर ही लिया । लेकिन इस बार पुरस्कार अर्पण समारोह की भव्यता और लोगों की सहभागिता के बगैर आयोजित की गई । राजधानी के सबसे बड़े ऑडिटोरियम में से किसी एक में आयोजित होने वाला अकादमी का यह सालाना समारोह इस बार दिल्ली सचिवालय के एक कमरे में आयोजित हुआ। सबकुछ बेहद सरकारी और गुपचुप तरीके से किया गया । हिंदी अकादमी की यह परंपरा रही है कि वो किसी भी कार्यक्रम के लिए दिल्ली के लेखकों-पत्रकारों को आमंत्रित करती है । अकादमी की अपनी एक मेलिंग लिस्ट है जिनको हर कार्यक्रम में आमंत्रित किया जाता है । लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ । यहां तक कि अकादमी के गवर्निंग वॉडी के सदस्यों तक को सिर्फ कार्ड भेजकर रस्म अदायगी कर ली गई । नतीजा यह हुआ कि जन कार्यक्रम होने की बजाए यह आयोजन सरकारी कार्यक्रम में तब्दील होकर रह गया । वरिष्ठ साहित्यकार और हंस के संपादक ने बेहद सटीक टिप्पणी की और कहा कि अगर अकादमी को पुरस्कार वितरण की रस्म अदायगी ही करनी थी तो लेखकों को कूरियर से चेक और स्मृति चिन्ह भेज देती । समारोह में शीला दीक्षित ने हिंदी अकादमी की स्वायत्ता को लेकर बड़ा लंबा चौड़ा भाषण दिया लेकिन अकादमी की स्वायत्ता का जिस तरह से गला घोंटा गया उसके लिए शीला दीक्षित ही जिम्मेदार हैं । दरअसल हिंदी अकादमी अब पूरी तरह से सरकार का भोंपू बनकर रह गया है । हिंदी के प्रचार प्रसार की आड़ में सरकार के मंत्रियों और विधायकों को खुश करने और जनता के बीच उनकी छवि बनाने का काम होता है । इसके अलावा बड़े और रसूखदार लोगों की साहित्यिक लिप्सा को भी दिल्ली की हिंदी अकादमी संतुष्ट करती है । इसका एक उदाहरण आपको देते चलें । इसी पुरस्कार वितरण समारोह में हिंदी अकादमी की पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती के एक अंक का लोकार्पण भी किया गया । इस अंक में एक बड़े बिल्डर को खुश करने के लिए अंत समय में हिंदी के एक वरिष्ठ कवि की कविता हटाकर उनकी कविता प्रमुखता से छाप दी गई । इस खेल का अंदाज तो पाठक स्वयं लगा सकते हैं कि बिल्डर की कविता को अंत समय में क्यों शामिल किया गया । अगर कविता उतनी ही अच्छी थी तो क्या अगले अंक का इंतजार नहीं किया जा सकता था । तो अकादमी में जिस तरह के खेल चल रहे हैं उसको देखते हुए यह कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं कि ये सरकार की छवि को बिगाड़ने का काम ज्यादा कर रहे हैं, बनाने का कम ।
दरअसल इस पूरे विवाद को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा । वर्ष 2008-09 के लिए अकादमी की कार्यकारिणी ने हिंदी के वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक कृष्ण बलदेव वैद को श्लाका सम्मान देने की संस्तुति की थी । उसके बाद अकादमी की अध्यक्ष की हैसियत से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने तत्कालीन कार्यकारिणी के फैसलों पर मुहर लगा थी । लेकिन बाद के दिनों में हिंदी अकादमी में प्रशासनिक अराजकता की वजह से उस वर्ष के सम्मान नहीं दिए जा सके । लेकिन अब जब अकादमी ने वर्ष 2009-10 के पुरस्कारों के साथ 2008-09 के पुरस्कारों का ऐलान किया तो 2008-09 के लिए श्ललाका सम्मान के लिए किसी का नाम घोषित नहीं किया गया । सूची से कृष्ण बलदेव वैद का नाम गायब था । बताया जा रहा है कि एक अनाम से कांग्रेसी नेता ने अकादमी की अध्यक्ष दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पत्र लिखकर कृष्ण बलदेव वैद को श्लाका सम्मान नहीं देने का अनुरोध किया था । कांग्रेसी नेता का आरोप है कि वैद के उपन्यास नसरीन में कई जगह अश्लील शब्दों और स्थितियों का चित्रण किया गया है । कांग्रेसी नेता की आपत्ति को तरजीह देते हुए शीला दीक्षित की अध्यक्षता वाली कमिटी ने वैद जी का नाम रोक दिया ।
कृष्ण बलदेव वेद को श्ललाका सम्मान नहीं दिए जाने पर हिंदी साहित्य में विरोध के स्वर उठने लगे थे । हिंदी के आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल, पुरुषोत्तम अग्रवाल की चिट्ठी के बाद 2009-10 के श्ललाका कवि केदारनाथ सिंह ने भी पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया । केदार जी के इस कदम के बाद तो जैसे पुरस्कार ठुकरानेवालों की लाइन लग गई । कवि-पत्रकार विमल कुमार, कवि पंकज सिंह, कवयित्रि और स्वर्गीय निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल, रेखा जैन ने भी हिंदी अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कार लेने से मना कर दिया है । लेकिन हैरानी की बात है कि पहले सार्वजनिक तौर पर विरोध जताने के बाद भी गगन ना केवल समारोह में पहुंची बल्कि मंच पर शीला दीक्षित के हाथों पुरस्कार भी ग्रहण किया । तमाम हिंदी दैनिकों ने गगन गिल की तस्वीर को प्रमुखता से छापा । गगन गिल का वहां पहुंचान हैरानी की बात थी क्योकि उनको अशोक वाजपेयी खेमे का माना जाता है और वैद जी भी उसी स्कूल ऑफ राइटर्स हैं । गगन के अलावा असगर वजाहत भी पुरस्कार लेने पहुंचे । असगर वजाहत ने शुरू से ही अपना स्टैंड साफ रखा था इस वजह से उनकी मौजूदगी को लेकर किसी को हैरानी नहीं हुई ।
इस पुरस्कार वितरण समारोह के आयोजन से कुछ बेहद अहम और बड़े सवाल खड़े हिंदी के साहिय और साहित्यकार के सामने खड़े हो गए हैं । हिंदी लेखकों का ढुलमुल चरित्र एक बार फिर से उजागर हुआ है । अकादमी के कर्ताधर्ताओं को यह मालूम है कि हिंदी के लेखकों का विरोध फौरी होता है और वो ज्यादा समय तक अपने स्टैंड पर कायम नहीं रह सकते हैं । इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब अशोक चक्रधर को हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाने पर हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने घोर आपत्ति जताई थी । अशोक चक्रधर को मसखरा और मंचीय कवि कहकर खिल्ली उड़ाई थी, लेकिन चंद दिनों बाद वही साहित्यकार अशोक चक्रधर के सानिध्य में मंचासीन नजर आने लगे थे । चाहे वो राजेन्द्र यादव हों या फिर नामवर सिंह या फिर कोई और वरिष्ठ लेखक । वजह ये थी कि अशोक चक्रधर सत्ता प्रतिष्ठान के करीब है, हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के अलावा वो केंद्रीय हिंदी संस्थान के भी कर्ता-घर्ता हैं । हिंदी के लेखक सरकारी लाभ का चाहे जितना विरोध करें लेकिन वो इसका लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं । छोटे –मोटे फायदे के लिए बड़े सिद्धांतो को तिलांजलि देने में इन्हें वक्त नहीं लगता । वैद जी का अपमान पूरे साहित्य जगत का अपमान है और हिंदी समाज को पूरी ताकत के साथ इसका विरोध करना चाहिए था । अफसोस की बात है कि हिंदी के लेखक पुरजोर तरीके से शीला दीक्षित सरकार का विरोध नहीं कर सके और सरकार ने अपनी मनमानी कर ली । लेकिन इससे दिल्ली सरकार की जमकर किरकिरी हुई । आज नहीं तो कल शीला दीक्षित को इस बात का एहसास होगा लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी होगी ।

Wednesday, May 5, 2010

विश्वास के कातिल गुरू

अभी एक छोटी सी पर अहम खबर अखबारों में आई जो देश से गद्दारी करनेवाली माधुरी गुप्ता के कवरेज में गुम होकर रह गई । केरल के कोझीकोड जिले के छोटे से कस्बे पुलियाकावू के एक प्राइमरी स्कूल के शिक्षक को चौथी क्लास में पढ़नेवाली छह लड़कियों के यौन शोषण करने का दोषी पाया गया और उसे तीस साल की जेल और बीस हजार रुपये का जुर्माने की सजा सुनाई गई । दरअसल उनतालीस साल के इस गुनहगार ने आज से तेरह साल पहले चौथी क्लास की लड़कियों के साथ क्लारूम और कंप्यूटर लैब में छेड़छाड़ की थी और उन्हें अपने हवस का शिकार बनाने की कोशिश की थी । शिक्षा के मंदिर की पवित्रता को अपनी हरकतों से बदनाम करनेवाले इस शख्स का जब राज खुला था तो केरल में तूफान उठ खड़ा हुआ था । तेरह साल बाद उन छह मासूम लड़कियों को इंसाफ मिला है । संभवत देश का यह पहला मामला है जहां यौन शोषण के मामले में किसी आरोपी को तीस साल की कैद और बीस हजार रुपये का जुर्माना किया गया है । अदालत के इस तरह के रुख से इस तरह की घिनौनी हरकत करनेवालों पर लगाम लगाने में मदद मिल सकती है या फिर इस तरह के कुंठित लोग कानून के खौफ की वजह से इस तरह की नापाक हरकतों को अंजाम ना दें ।
हाल के दिनों में इस तरह की बेचैन करनेवाली खबरें लगातार आने लगी हैं । प्राइमरी स्कूल से लेकर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय तक से शिक्षकों के अपने छात्र-छात्राओं के यौन शोषण की खबरें लगातार सुर्खियां बनती रही हैं । जिस दिन केरल की अदालत में यौन शोषण के जुर्म में आरोपी को तीस साल की सजा की खबर छपी उसी दिन ये खबर भी आई कि देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से एक - जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में एक शिक्षक ने एक विदेशी छात्रा के साथ जोर-जबरदस्ती करने की कोशिश की । जब छात्रा ने इसका विरोध किया तो उक्त शिक्षक ने मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की, लेकिन मामला पुलिस तक पहुंच गया । इसके पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में एक दलित छात्रा के यौन शोषण के जुर्म में हिंदी विभाग के एक शिक्षक को विश्वविद्यालय ने नौकरी से हटा दिया था । दिल्ली विश्वविद्यालय के ही एक अन्य कॉलेज के एक शिक्षक पर छात्रों के यौन शोषण का आरोप लगा जिसे विश्विद्यालय की कमेटी ने सही पाया और उस केस में भी प्रोफेसर के खिलाफ कार्रवाई हुई ।
दरअसल इस तरह के मामले जब राजधानी दिल्ली या फिर कुछ बड़े शहरों में होते हैं तो मीडिया की नजरों में आ जाते हैं और फिर प्रशासन कार्रवाई को मजबूर हो जाता है । लेकिन देश के सूदूर इलाकों में शिक्षकों के इस तरह की नापाक हरकत उजागर ही नहीं हो पाते हैं और यौन शोषण की शिकार लड़कियां और बच्चियां चुप रह जाती हैं । इस देश में गुरू को भगवान या फिर उससे भी उंचा दर्जा प्राप्त है । गुरू को मां-बाप से भी ज्यादा इज्जत इस देश में बख्शी जाती है । छुटपन से ही बच्चों को यह सिखाया जाता रहा है कि – गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पांय. बलिहारी बा गुरू की जिमि गोविंद दियो बताए । यानि कि गुरु भगवान से भी बड़ा होता है और भगवान या गुरू एक साथ खड़े हों तो पहले गुरू को प्रणाम करना चाहिए क्योंकि गुरू ही भगवान के बारे में बताते हैं । लड़कियों के मां-बाप शिक्षकों पर इसी अटूट आस्था और विश्वास के तहत अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं कि वहां उनकी औलाद महफूज है । लेकिन कुछ स्कूलों में सेक्स कुंठित शिक्षकों की वजह से समाज का शिक्षा के इन मंदिरों पर से विश्वास दरकने लगा है , असुरक्षा की भावना घर करने लगी है, उनके अवचेतन मन में हमेशा अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर एक चिंता व्याप्त रहती है । अब जरूरत इस बात की है कि एक तरफ तो स्कूलों और कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में इस तरह की घटनाओं से निबटने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं और सरकार के कर्ताधर्ता भी मासूमों के यौन शोषण करनेवालों के खिलाफ और सख्त कानून बनाए और उसे जल्दी और सख्ती से लागू करने का मैकेनिज्म भी विकसित करे । वर्ना भगवान से उपर का दर्जा प्राप्त इन गुरुओं को शैतान का दर्जा मिलते देर नहीं लगेगी ।
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Monday, May 3, 2010

स्त्री के विद्रोह की कहानियां

बात अस्सी के शुरुआती दशक की है । उस वक्त मैं बिहार के जमालपुर के रेलवे हाई स्कूल का छात्र था । यह वो दौर था जब टेलीविजन सूदूर शहरी और ग्रामीण इलाकों में नहीं पहुंच पाया था । खबरों के लिए हमलोग आकाशवाणी के पटना और दिल्ली केंद्र पर निर्भर रहते थे । शाम साढे़ सात बजे पटना आकाशवाणी से प्रादेशिक समाचार का प्रसारण होता था, जिसे हमारे घर में नियमित सुना जाता था । इसके अलावा रात पौने नौ बजे राष्ट्रीय समाचार आता था जिसे सुनकर हमलोग सो जाते थे । लेकिन आकाशवाणी से ज्यादा हमारा भरोसा उस वक्त बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा पर था । वक्त ठीक से याद नहीं है लेकिन अगर मेरा स्मृति ठीक है तो शाम सात बजकर चालीस मिनट पर बीबीसी से हिंदी में खबरों का प्रसारण होता था । ओंकार नाथ श्रीवास्तव, रमा पांडे आदि की आवाज में खबरों का जब प्रसारण होता था तो उनके बोलने के अंदाज से खबरों में गहराई आ जाती थी । आकाशवाणी के समाचार वाचको की आवाज भी बेहद अच्छी और डिक्शन एकदम साफ होता था लेकिन बीबीसी में प्रसारण का तरीका और बैकग्राउंड म्यूजिक से प्रस्तुतिकरण जानदार हो जाती थी । तो हमारी शाम खबरों को सुनकर बीता करता था ।

बीबीसी की हिंदी सेवा से एक और रोचक याद जुड़ी हुई है । साल के अंत और नए वर्ष के शुरुआत में प्रसारण के वक्त समाचारवाचक ये ऐलान करता था कि अगर आपको बीबीसी का कैलेंडर चाहिए तो अमिक पते पर हमें लिखें । ये दिल्ली का पता होता था और पोस्ट बॉक्स नंबर लिखना होता था । मैंने भी जब इसको सुना तो सोचा क्यों ना एक पोस्टकार्ड लिख दिया जाए । उस वक्त पोस्टकार्ड पांच पैसे का आता था । मैंने बेहद विनम्रता से कैलेंडर भेजने का अनुरोध पत्र बीबीसी के बताए पते पर भेज दिया । लगभग दस दिनों के बाद ए फोर साइज के एक खूबसूरत लिफाफा मेरे पते पर आया जिसमें प्रेषक की जगह बीबीसी हिंदी सेवा का नाम लिखा था । जब मैं स्कूल से लौटा तो अपने कमरे में वो लिफाफा देखकर बेहद खुश हुआ । जल्दबाजी में उसे खोला तो एकदम चमकदार कागज पर एक पन्ने का कैलेंडर था । उपर एक ग्रुप फोटो था जिसमें बीबीसी हिंदी सेवा से जुड़े लोगों की तस्वीर थी । लगभग तीन दशक बाद स्मृति में अब दो ही नाम हैं- ओंकार नाथ श्रीवास्तव और रमा पांडे । तत्काल लिफाफे से निकालकर उसे स्टडी टेबल के सामने लगा लिया । लेकिन फिर एक खुराफात सूझा कि अगर एक पांच पैसे के पोस्टकॉर्ड भेजने पर इतने खूबसूरत कागज पर छपा कैलेंडर मिल सकता है तो क्यों ना कुछ और अनुरोध पत्र भेजकर और कैलेंडर मंगवा लिए जाएं और दोस्तों में बांटकर रौब गालिब किया जाए । फिर तो मुझे याद है कि अपने परिवार के हर व्यक्ति के नाम से अनुरोध पत्र बीबीसी हिंदी सेवा को भेज दिया । चूंकि अनुरोध पत्र एक साथ नहीं भेजकर थोड़े अंतराल पर भेजा था इसलिए उसी हिसाब से कुछ अंतराल के बाद कैलेंडर मिलने शुरू हो गए । पहले तो डाकिया भी चौंका कि हर एक दो दिन बाद लंदन के पते से मेरे घर क्या आ रहा है । दबी जुबान से वो ये दरियाफ्त भी करने की कोशिश करने लगा कि इस लिफाफे में होता क्या है । एक दिन मैंने उसकी जिज्ञासा खत्म करते हुए उसके सामने ही लिफाफा कोलकर उपहार स्वरूप वो कैलेंडर उसे ही दे दिया । अब तो ये हर साल का नियम सा बन गया था ।

कैलेंडर में चश्मा लगाए ओंकार नाथ श्रीवास्तव और बेहद खूबसूरत रमा पांडे अपने बोलने के अंदाज की वजह से भी याद हैं । अभी जब मित्र जयप्रकाश पांडे ने बताया कि रमा पांडे के कथा संग्रह की डीवीडी लंदन के नेहरू ऑडिटोरियम में जारी हुई है तो मैं चौंका, कहानी संग्रह की डीवीडी । बातों –बातों में ही जय प्रकाश जी ने यह भी बताया कि रमा पांडे गायिका इला अरुण और पियूष पांडे की बहन हैं । बात आई गई हो गई । लेकिन अभी कुछ दिनों पहले किसी रेफरेंस के लिए एक किताब ढूंढने में जुटा था तो अचानक फैसले पर नजर गई । लेखिका रमा पांडे थी और दिल्ली के मंजुलिका प्रकाशन से छपी थी किताब । उसे निकालकर अलग रख लिया । फिर उसे पढ़ना शुरू किया । स्त्री विमर्श के इस दौर में पिछले वर्ष प्रकाशित इस किताब की साहित्य जगत में नोटिस ली जानी थी लेकिन अफसोस कि हिंदी के कर्ताधर्ताओं की नजर इस अहम किताब पर नहीं गई । मुस्लिम महिलाओं को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानियां इनके संघर्ष और वयवस्था के खिलाफ उठ खडे़ होने की कहानी है । रमा पांडे बहुआयामी प्रतिभा की धनी हैं । वो देश की पहली महिला प्रोड्यूसर हैं जिन्होंने लंबे अरसे तक दूरदर्शन के लिए काम करते हुए अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ी ।

जैसा कि मैंने उपर बताया कि फैसले देश की मुस्लिम महिलाओं की संघर्ष की दास्तां है । इसकी एक कहानी दौड़ती हिरणी की नायिका रमा पांडे की दोस्त है । रमा पांडे बताती हैं कि स्कूल के दिनों में राबिया उनकी दोस्त थी और बेहद प्रतिभाशली एथलीट थी । लेकिन नवी कक्षा में जाते ही राबिया के परिवारवालों ने उसके खेल में भाग लेने पर इसलिए रोक लगा दी क्योंकि वो राबिया का निकाह करना चाहते थे । रमा पांडे तो जब इस बात का पता चला तो उसने राबिया की अम्मी से ये बात करने की कोशिश की लेकिन उसके हाथ नाकामी लगी । राबिया के परिवारवाले टस से मस होने को तैयार नहीं थे और परिवार के दबाव में राबिया कोई भी कदम उठाने को तैयार नहीं थी । जब रमा ने उसे अपने पांव पर खड़े होने की सलाह दी तो उसका जबाव था – जब दौड़ नहीं सकती तो अपने पांव पर क्या खडी होउंगी । लेकिन फिर भी राबिया ने हौसला नहीं छोड़ा और राष्ट्रीय खेल में भाग लिया । कई वर्षों तक रमा और राबिया नहीं मिले । लेकिन वर्षों बाद जब वो मिले तो राबिया की उम्र बयालीस की हो चुकी थी और उसने शादी नहीं करने का फैसला कर लिया था । यह एक ऐसी लड़की का विद्रोह था जो एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार से आती थी । लेखिका पर इस बात का गहरा असर पड़ा और दौड़ती हिरणी इसी असर के परिणामस्वरूप सामने आया । फैसले में और भी कई कहानियां हैं जिसे लेखिका ने बेहद करीब से इपनी आंखों के सामने घटते हुए देखा है । चाहे वो उनके खुद के रिश्तेदार कू पैरा-जंपर से एक स्कूल के हेडमिस्ट्रेस बनने की कहानी हो या फिर हैदराबाद की शाइस्ता की कहानी हो । फैसले संग्रह की अमूनन सारी कहानियां यथार्थ का चित्रण हैं । इस कहानी संग्रह में जो एक बात रेखांकित की जा सकती है वो है नायिकाओं का समाज और वयवस्था के प्रति विद्रोह । रमा पांडे की भाषा में शास्त्रीयता नहीं है जो इसे बोझिल बनाने की बजाए पठनीय बनाती है । स्त्री विमर्श के झंडाबरदारों के लिए रमा की कहानियां एक चुनौती की तरह हैं और मुजे लगता है कि देर सबेर उन्हें इस संग्रह का नोटिस लेना ही पड़ेगा ।