हर वर्ष गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर भारत सरकार पद्म सम्मानों की घोषणा करती है। पद्म सम्मान उन लोगों को दिया जाता है जो अपने अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करते हैं। ये राष्ट्रीय सम्मान है। पिछले कुछ वर्षों से पद्म सम्मान ऐसे लोगों को दिए गए हैं जिससे इस सम्मान की प्रतिष्ठा बढ़ी है। कई बार इस पुरस्कार पर राजनीतिक कारणों से विवाद उठते रहते हैं। इस वर्ष के पद्म सम्मानों की घोषणा को लेकर भी विवाद उठा। भारत सरकार ने इस वर्ष कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता और बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को पद्मभूषण से सम्मानित करने की घोषणा की। इस घोषणा के चंद घंटे के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य की पार्टी की तरफ बयान आया कि उन्होंने पद्म सम्मान लेने से मना कर दिया है। एक और समाचार भी बंगाल से ही आया। बंगाली की मशहूर गायिका और बंगाल की लता मंगेशकर कही जानेवाली संध्या मुखर्जी की बेटी की तरफ से एक बयान आया। उसमें कहा गया कि उनकी मां ने पद्मश्री सम्मान लेने से मना कर दिया है। उस बयान के मुताबिक जब गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने उनकी सहमति लेने के लिए फोन किया तो उन्होंने ये कहकर इंकार कर दिया कि 90 वर्ष की अवस्था में पद्मश्री उनके लिए अपमान जैसा है। ये सम्मान अपेक्षाकृत कम उम्र के कलाकार को दिया जाना चाहिए। यह उनकी राय है जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। जब पद्म सम्मानों की सूची जारी हुई तो उसमें संध्या मुखर्जी का नाम नहीं था। संध्या मुखर्जी की पुत्री की तरफ से दिए गए बयान से एक बात स्पष्ट होती है कि पद्म सम्मान के पहले गृह मंत्रालय के अधिकारी संबंधित व्यक्ति को फोन कर उनकी सहमति लेते हैं।
अब एक बार फिर से लौटते हैं बुद्धदेव भट्टाचार्य के मामले पर। बुद्धदेव भट्टाचार्य का नाम पद्म सम्मान के लिए घोषित सूची में आया। कुछ घंटे के बाद उनकी तरफ से उनकी पार्टी ने सम्मान के अस्वीकार करने की बात कही। सवाल यही उठता है कि क्या बुद्धदेव भट्टाचार्य को सम्मानित करने के फैसले के पहले उनकी सहमति नहीं ली गई। क्या गृह मंत्रालय के किसी अधिकारी ने बुद्धदेव भट्टाचार्य को फोन नहीं किया। जब पद्मश्री से सम्मानित करने के लिए संध्या मुखर्जी की सहमति के लिए उनको फोन किया गया तो यह मानने की कोई वजह नहीं है कि सरकार की तरफ से बुद्धदेव भट्टाचार्य को फोन नहीं किया गया होगा। इस वर्ष पद्म सम्मान से सम्मनित होनेवालों में फिल्म निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी का भी नाम है। उन्होंने बताया कि गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने उनको सूची जारी होने के पहले फोन किया और पूछा कि क्या आप सम्मान ग्रहण करने की स्वकृति देते हैं। जब चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने सहमति दी तो उस अधिकारी ने अपना फोन नंबर भी दिया और कहा कि अगर कोई बात हो उनको सूचित करें । सहमति के बाद ही द्विवेदी का नाम पद्मश्री सम्मान के लिए घोषित किया गया। सवाल ये उठता है कि यही प्रक्रिया बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ भी अपनाई गई होगी। उनकी सहमति के लिए भी फोन किया गया होगा। उनके पास भी गृह मंत्रालय के अधिकारी ने फोन नंबर छोड़ा होगा। तो फिर पद्मभूषण अस्वीकार करने की बात सूची में नाम आने के बाद क्यों की गई? क्या पहले सहमति दी गई और जब कम्युनिस्ट पार्टी को ये बात पता चली तो उन्होंने बुद्धदेव बाबू का निर्णय बदलवा दिया? मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके नेता इस तरह के द्वंद्व के शिकार होते रहे हैं
1996 में बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया गया था। उस वक्त भी पार्टी के नेताओं ने ज्योति बसु पर दबाव बनाकर उनसे प्रधानमंत्री का पद अस्वीकार करवा दिया था। तब सीपीएम क नेताओं ने तर्क दिए थे कि गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री बनकर ज्योति बसु मार्क्सवादी एजेंडे को लागू नहीं करवा पाएंगे। ज्योति बाबू ने पार्टी के अनुशासित कार्यकर्ता की तरह उस निर्णय को स्वीकार कर लिया था लेकिन मन मसोस कर। चंद महीने बाद ही ज्योति बाबू का दर्द छलक आया था। उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं के निर्णय को ऐतिहासिक भूल करार दिया था। ज्योति बाबू लंबे समय तक बंगाल के मुख्यमंत्री रहे, पार्टी के अनुशासित कार्यकर्ता रहे लेकिन इस मसले पर उन्होंने पार्टी की आलोचना की थी। कहा जाता है कि ज्योति बाबू ने एक ही बार पार्टी के निर्णय को सार्वजनिक रूप से गलत बताया था। बाद में सीपीएम के कई नेताओं ने पार्टी के उस फैसले से असहमति जताते हुए गलती मानी। दरअसल सीपीएम अपने स्थापना काल से ही द्वंद्वात्मक राजनीति का शिकार होती रही है। स्वाधीनता के आंदोलन में जब बापू ने भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ किया था तब कम्युनिस्टों ने उसका विरोध किया था। इसी तरह से अमेरिका के साथ परमाणु करार के समय पार्टी की लाइन नहीं मानने पर सीपीएम ने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया था। ये हास्यास्पद फैसला था क्योंकि सोमनाथ चटर्जी उस समय लोकसभा के स्पीकर थे। स्पीकर किसी पार्टी का सदस्य नहीं होता है। बाद में सोमनाथ चटर्जी ने अपनी संस्मणात्मक पुस्तक कीपिंग द फेथ, मेमोयर्स आफ अ पार्लियामेंटेरियन में अपनी पूर्व पार्टी की द्वंद्वात्मक राजनीति पर विस्तार से लिखा। संभव है सीपीएम को कई सालों बाद बुद्धदेव के पद्मभूषण सम्मान लौटाने के फैसले पर अफसोस हो।
दूसरा विवाद उठा गुलाम नबी आजाद पद्म भूषण से सम्मानित करने के निर्णय को लेकर। इस सूचना के सार्वजनिक होते ही कांग्रेस के नेता और पूर्व मंत्री जयराम रमेश ने बुद्धदेव भट्टाचार्य के पद्मभूषण अस्वीकार के एक ट्वीट को रिट्वीट करते हुए लिखा कि वो आजाद रहना चाहते हैं गुलाम नहीं। उनकी इस टिप्पणी को गुलाम नबी आजाद पर सीधा हमला माना गया। उसके बाद पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार, कपिल सिब्बल के साथ साथ पूर्व मंत्री कर्ण सिंह भी गुलाम नबी आजाद के समर्थन में आ गए। कर्ण सिंह ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा कि राष्ट्रीय सम्मान को पार्टी के अंदरुनी कलह से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। विवाद के बीच कांग्रेस के एक नेता ने तो दूरदर्शन पर हुई एक चर्चा में गुलाम नबी आजाद को गद्दार तक कह दिया। गुलाम नबी पर बीजेपी से साठगांठ का आरोप तक जड़ दिया। जब कि कांग्रेस के नेता ये भूल गए कि पिछले ही वर्ष कांग्रेस के नेता और असम के मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई को मरणोपरांत पद्म सम्मान से सम्मानित किया गया था। कांग्रेस के ही नेता रहे नगालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री एस सी जमीर को भी पद्मभूषण से सम्मानित किया जा चुका है। इन दोनों को सम्मानित करने पर तो कांग्रेस के नेताओं को कोई आपत्ति नहीं हुई।
सवाल यह उठता है कि पद्म पुरस्कार को राजनीति के अखाड़े में क्यों घसीटा जाता है। पद्म पुरस्कार कोई दल या कोई व्यक्ति नहीं देता है। भारत के इस प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान को दलगत राजनीति से उपर उठकर देखा जाना चाहिए। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि पिछले कुछ सालों से जिस तरह के लोगों का चयन पद्म सम्मानों के लिए हो रहा है उसने इस सम्मान की प्रतिष्ठा बढ़ी है। उसको एक दो नामों के आधार पर विवादित करने या उसके आधार पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। आज पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। अमृत महोत्सव वर्ष में सभी दलों के नेताओं को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर समाज के अपने नायकों का सम्मान करना चाहिए। बुद्धदेव भट्टाचार्य या गुलाम नबी आजाद को पद्म सम्मान से सम्मानित करने के समावेशी निर्णय को स्वीकार करते हुए सभी दलों को सहिष्णुता का परिचय देना चाहिए था।