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Saturday, December 15, 2018

बौद्धिक समाज से विमर्श का चक्रव्यूह



तीन राज्यों के चुनावी नतीजों के कोलाहल और मुख्यमंत्रियों के चयन की गहमागहमी के बीच साहित्य और राजनीति के बीच घटी एक महत्वपूर्ण घटना लगभग अलक्षित रह गई। माना यह जाता है कि बुद्धिजीवी किसी विचार से प्रेरित होकर उसके करीब जाते हैं, कोई मार्क्सवाद से प्रभावित होता है तो उसका झुकाव कम्युनिस्ट पार्टियों की तरफ होता है। किसी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा में विश्वास होता है तो वो भारतीय जनता पार्टी की ओर दिखाई देता है। इसी तरह से पूंजीवाद से लेकर समाजवाद तक से बुद्धिजीवी प्रभावित होते रहे हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उससे जुड़ी विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को समर्थन करते रहे हैं। इस तरह के सैकड़ों उदहरण भारतीय राजनीति में हैं जब साहित्यकार, कलाकार या रंगकर्मी विचारधारा विशेष से प्रभावित होकर दलों के साथ खड़े नजर आए हैं। पर इस तरह के उदाहरण कम हैं जब राजनीतिक दल बुद्धिजीवियों को अपने पाले में लाने और सीधे सक्रिय राजनीति में उतरने के लिए उनसे सार्वजनिक रूप से अनुरोध करते हों। लेकिन अभी हाल ही में ऐसा हुआ, नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल युनाइटेड के महासचिव पवन वर्मा ने पटना के छोटे-बड़े और मंझोले सभी लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को एक आमंत्रण भेजा। पवन ने अपने पत्र में लिखा कि वो और उनके दल के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों, कवियों आदि से मिलना चाहते हैं। इसमें ये साफ तौर पर लिखा था कि ये एक विशेष कार्यक्रम के तौर पर आयोजित किया जा रहा है। ये बैठक 2 दिसंबर को आयोजित की गई थी। फिर अचानक इसकी तिथि बदल दी गई और बताया गया कि सिमरिया में जारी सांस्कृतिक आयोजन की वजह से तिथि में बदलाव करके 13 दिसंबर कर दिया है। हलांकि इसमें भी कुछ लोगों का कहना है कि चुनाव नतीजों की तारीखों की वजह से ये बदलाव किया गया। उनका तर्क है कि सिमरिया में आयोजित सांस्कृतिक महोत्सव इतना अहम नहीं था कि उसके लिए किसी कार्यक्रम की तिथि आगे बढ़ाई जाए। खैर ये अलग विषय है, इसपर चर्चा फिर कभी।
बदली हुई तिथि को जब ये कार्यक्रम हुआ तो पटना के बड़े साहित्यकारों में शुमार आलोक धन्वा, अरुण कमल, ह्रषिकेश सुलभ, उषाकिरण खान, अवधेश प्रीत, अनिल विभाकर शामिल नहीं हुए। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय या राज्य-स्तरीय पहचान रखनेवाले एक दो लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को छोड़कर इस बैठक में शामिल नहीं हुए। यह तो है इस आयोजन की पूर्व-कथा। लेकिन कार्यक्रम के दौरान जिस तरह से वहां उपस्थित युवाओं ने सकारात्मक आक्रामकता के साथ अपनी बात कही उससे पता चला कि बिहार के कलाकारों में भी अभी सत्ता से सामने सच कहने का साहस बचा हुआ है। मंच पर जदयू के महासचिव पवन वर्मा और जदयू के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर थे। शुरुआत पवन वर्मा ने की और इस कार्यक्रम का मकसद बौद्धिक समाज से संवाद की शुरुआत बताया। उसके बाद प्रशांत किशोर ने अपनी बात रखी। प्रशांत ने इस बात से ही शुरुआत की कि उनका लक्ष्य अगले दो सालों में एक लाख लोगों को सक्रिय राजनीति में लाना है। वहां मौजूद लोगों के मुताबिक प्रशांत ने साफ किया कि वो लोगों को चुनावी राजनीति के माध्यम से मुखिया, जिला परिषद सदस्य,विधायक, सांसद आदि बनाना चाहते हैं। प्रशांत किशोर की इस बात का ये मतलब निकलता है कि राजनीति की वैसी पाठशाला जहां उपरोक्त पदों के लिए योग्य व्यक्ति तैयार किए जा सकें। जदयू उपाध्यक्ष ने कहा कि उनका उद्देश्य राजनीति में अच्छे लोगों को लाना है। यहां तक सब ठीक चल रहा था लेकिन प्रश्नोत्तर के दौर में युवा रंगकर्मी और अपने प्रखर विचारों के लिए मशहूर अनीश अंकुर ने बहुत बुनियादी सवाल खड़े कर प्रशांत किशोर को असहज कर दिया। अनीश ने सरकार और संस्कृतिकर्मियों, लेखकों और कलाकारों के बीच अविश्वास को रेखांकित किया। इसके अलावा उन्होंने प्रशांत किशोर की राजनीति की पाठशाला को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। उनका तर्क था कि बगैर संगठन में काम किए, बगैर जनता को जाने विधायक-सांसद बनने की बात एक तरह का प्रलोभन है। उन्होंने कड़े शब्दों में प्रशांत किशोर की बातों को मूर्खतापूर्ण करार दे दिया। इसके बाद असहज प्रशांत किशोर अपने तमाम उत्तर में मूर्खतापूर्ण पर सफाई देते रहे। हिंदी भवन को प्रशासनिक गुलामी से मुक्त करवाने को लेकर भी कोई ठोस उत्तर नहीं आया। करीब दस साल पहले पटना में हिंदी भवन का निर्माण करवाया गया था जिसको फणीश्वरनाथ रेणु भवन नाम दिया गया। पहले इसमें एक प्रबंधन संस्थान चला, फिर उसमें बाढ़ राहत सामग्री रखी जाने लगी इसके बाद वहां जिला कार्यालय बना दिया गया। इस बात को लेकर पटना के हिंदी प्रेमियों में बहुत क्षोभ है।
इसी तरह का एक महत्वपूर्ण वाकया है। पिछले साल जब पटना पुस्तक मेला का आयोजन हुआ था जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कमल के फूल में रंग भरे थे जो काफी चर्चित रहा था। उस दौरान मुख्यमंत्री ने आयोजकों को इस वर्ष अंतराष्ट्रीय स्तर का पुस्तक मेला आयोजित करने की अपील की थी। नीतीश कुमार ने ये भरोसा भी दिया था कि आयोजन में बिहार सरकार आयोजकों को हर संभव मदद करेगी। उस वक्त जो खबरें छपी थी उसके मुताबिक नीतीश ने कहा था कि पटना पुस्तक मेला ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। 2018 में इसका आयोजन अंतराष्ट्रय स्तर का होना चाहिए, इसमें राज्य सरकार आयोजकों को पूरा मदद करेगी। लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेला तो दूर की बात इस वर्ष सामान्य पुस्तक मेला भी आयोजित नहीं हो पाया। देश का दूसरे सबसे बड़े पुस्तक मेले का पच्चीसवां संस्करण आयोजित नहीं हो पाया। बताया जा रहा है कि आयोजकों ने मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क की कोशिश की लेकिन वो संभव नहीं हो पाया। बिहार सरकार से मदद तो दूर की बात संयोग ऐसा कि जहां पुस्तक मेला आयोजित होता है उसका किराया भी बढ़ा दिया। ज्ञानभवन में आयोजन का किराया पहले एक लाख रुपए प्रतिदिन था। अब इसमें बदलाव कर दिया गया है एक दिन के लिए डेढ़ लाख रुपए कर दिया गया है और एक दिन  अधिक लेने पर ढाई लाख रुपए कर दिया गया है। पटना पुस्तक मेला चूंकि करीब दस दिनों का आयोजन होता था, लिहाजा आयोजन स्थल का किराया पच्चीस लाख रुपए तक जा पहुंचा। इतना महंगा किराया देख-सुनकर आयोजकों ने हाथ पीछे खींच लिया और पटना की पहचान पुस्तक मेले का आयोजन नहीं हो सका। पिछले साल बिहार सरकार के संस्कृति विभाग ने पुस्तक मेले के आयोजकों को किराए की राशि अनुदान के तौर पर दी थी।
ये सारी बातें उस बैठक के दौरान उठीं जिसका उत्तर प्रशांत के पास नहीं था। एक कुशल राजनेता की तरह एक समिति बनाकर सुझाव देने का प्रस्ताव देकर प्रशांत ने अपना पल्ला झाड़ा। दरअसल बौद्धिक जगत से संवाद करने के लिए आयोजनकर्ताओं को भी सतर्क रहना होता है और आसन्न प्रश्नों को भांपकर खुद को तैयार करना होता है। पवन वर्मा लेखक हैं, उनको लेखकों की संवेदनाओं का पता होना चाहिए था। वो बिहार के मुख्यमंत्री के सांस्कृतिक सलाहकार रह चुके हैं, लिहाजा उन्हें कम से कम पटना की सांस्कृतिक नब्ज का पता तो होना चाहिए था। प्रशांत किशोर तो नई तरह की राजनीति के लिए जाने जाते हैं जहां आंकड़ों और लक्ष्य के आधार पर हर तरह की रणऩीति बनाई जाती है, कई बार सफलता भी  मिल जाती है तो कई बार रणनीति औंधे मुंह गिरती भी है। लेकिन साहित्य और संस्कृति में आंकड़ों के आधार पर राजनीति नहीं हो सकती। वहां जातिगत समीकरणों के आधार पर भी रणनीति नहीं बनाई जा सकती है, बहुधा लेखकों, कवियों और कलाकारों को प्रलोभन देकर राजनीति में लाया भी नहीं जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पवन वर्मा के सामने अशोक वाजपेयी का मॉडल रहा होगा, उनको लगा होगा कि जिस तरह से बिहार विधानसभा चुनाव के पहले अशोक वाजपेयी ने पुरस्कार वापसी अभियान चलाकर देशभर में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ माहौल बनाया था, उसी तरह से लोकसभा चुनाव के पहले पटना के साहित्यकारों के साथ बैठकर नीतीश कुमार के पक्ष में माहौल बनाया जा सकता है। पर ऐसा हो नहीं पाया। उल्टे लेने के देने पड़ गए। एक तो वरिष्ठ लेखक कलाकार बैठक में पहुंचे नहीं, दूसरे कला और संस्कृति को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया गया। जदयू में आपराधिक छवि वाले नेताओं से लेकर कला और भाषा अकादमियों की बदहाली पर सवालों की ऐसी बौछार हुई कि पवन और प्रशांत दोनों कार्यक्रम खत्म होने की बात करने लगे। कार्यक्रम खत्म भी हुआ लेकिन अनीश ने जिन सवालों को उठाया था उनके ठोस उत्तर सरकार को देने चाहिए, हलांकि प्रशांत ने कहा कि वो ठोस करके ही अगली बार बुद्धिजीवियों की बैठक में आएंगे। देखना होगा कि कला संस्कृति को लेकर बिहार सरकार कितनी गंभीर हो पाती है।

2 comments:

Ramdeo Singh said...

बढ़िया लेख। लेकिन संवाद की संभावनाएं अभी है। नितीश लेखकों, बुद्धिजीवी को प्रलोभन न देकर कुछ ऐसा करें जिससे उन्हें उनका विश्वास मिले । पुस्तक मेला का आयोजन न हो पाना अपने आप में संवाद हीनता ही है ।

Sonu maurya said...

Sahitya ke sajag prahri. thanks