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Saturday, October 16, 2021

चमकीली दुनिया का ‘नशीला’ यथार्थ


हिंदी फिल्मों के जानेमाने अभिनेता शाह रुख खान के पुत्र इन दिनों नशाखोरी के आरोप में जेल में हैं। उनकी जमानत याचिका पर कई बार सुनवाई होने के बाद अदालत ने फैसला सुरक्षित कर लिया है। यह एक व्यस्थागत प्रक्रिया है जिसका संवैधानिक अधिकार अदालत को है। अदालत ने उसी प्रक्रिया और अधिकार के अंतर्गत ऐसा किया है। इस घटना से कई प्रश्न खड़े हो रहे हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया, जिसको बालीवुड भी कहा जाता है, से पिछले दिनों नशे को लेकर कई सनसनीखेज खबरें आती रही हैं। सुशांत सिंह राजपूत के असामयिक निधन और उसके बाद की घटनाओं की याद अभी देश के मानस में ताजा हैं। उस दौर में ही प्रख्यात अभिनेत्री दीपिका पादुकोण, श्रद्धा कपूर जैसी कई अन्य अभिनेत्रियों से ड्रग्स के मामले में पूछताछ हुई थीं। ये ऐसी घटनाएँ हैं जो इस ओर संकेत करती हैं कि बालीवुड की चमकीली दुनिया का यथार्थ कितना काला है या ड्रग्स के दलदल में फिल्मी दुनिया कितनी गहरे धंस चुकी है। फिल्मी दुनिया से जुड़े कई लोग पहले भी ड्रग्स के मकड़जाल में फंसे हैं। संजय दत्त का केस तो बहुचर्चित रहा है। अभिनेता फरदीन खान और विजय राज के नाम ड्रग्स मामले में न केवल सार्वजनिक हुए बल्कि उनको तो जेल भी जाना पड़ा था। इसके अलावा भी कई ऐसे नाम हैं जिनके बारे में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोग जानते हैं लेकिन कभी सामने नहीं आए । 2012 में जुहू में एक रेव पार्टी पर पुलिस ने छापा मारा था तो टेलीविजन के कई कलाकार और कई फिल्मी सितारों के बच्चे पकड़े गए थे। उस रेव पार्टी की खूब चर्चा हुई थी। शाह रुख खान के पुत्र की गिरफ्तारी के बाद एक बार फिर से फिल्मी दुनिया और ड्रग्स कनेक्शन पर बात हो रही है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद भोजपुरी अभिनेता और भारतीय जनता पार्टी के सांसद रवि किशन ने संसद में फिल्म इंडस्ट्री में नशाखोरी पर चिंता जताते हुए अपना बयान दिया था। उस वक्त समाजवादी पार्टी की सांसद और अभिनेत्री जया बच्चन ने उनपर पलटवार किया था। जया बच्चन ने तो रवि किशन पर इशारों इशारों में जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं, जैसा आरोप लगाया था। बहस रवि किशन की बात से हटकर जया बच्चन के बयान पर केंद्रित हो गई थी। बालीवुड में ड्रग्स का मामला दब गया था। 

आज जब शाह रुख खान का बेटा ड्रग मामले में फंसा है तो बालीवुड की तमाम हस्तियां खामोश हैं। अभिनेता ऋतिक रोशन ने जरूर एक बयान दिया लेकिन बाकी सभी बड़े स्टार चुप्पी साधे हुए हैं। बालीवुड के ट्वीटरवीर अभिनेता और निर्देशक भी इस मसले पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। कुछ लोग बोल रहे हैं तो आर्यन खान की जमानत में हो रही देरी पर आवाज उठा रहे हैं। एक ने तो यहां तक कह दिया कि चूंकि शाह रुख खान ‘मुस्लिम सुपरस्टार’ हैं इसलिए उनको परेशान किया जा रहा है। शाह रुख खान को मुसलमान सुपरस्टार के तौर पर देखने वालों की मानसिकता किस स्तर की हो सकती है, उनकी सोच कितनी सांप्रदायिक है या फिर वो जिन्ना का सोच को अपनाते हुए फिर से समाज को बांटने का उपक्रम कर रहे हैं। इसपर विचार करना चाहिए। आपको याद होगा जब क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान अजहरुद्दीन पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था तब उन्होंने कहा था कि उनको मुसलमान होने की वजह से परेशान किया जा रहा है। ऊल-जलूल लिखकर अपनी बौद्धिक पहचान के लिए लगातार संघर्ष कर रही एक अभिनेत्री ने शाह रुख को परेशान करने का आरोप लगाया। अब उनको कौन समझाए कि अदालतें आर्यन के मामले की लंबी-लंबी सुनवाई कर रही हैं। हर पक्ष को पूरा समय दिया जा रहा है। अदालत अपने विवेक का उपयोग कर रही हैं। क्या किसी अन्य साधारण नागरिक के ड्रग्स केस में फंसने पर ऐसा होता। पता तो ये भी लगाया जाना चाहिए कि आर्यन की जमानत पर सुनवाई की वजह से क्या अन्य केस की सुनवाई स्थगित हुई या उनको कोई दूसरी तारीख मिली। समग्रता में विचार किए बगैर व्यवस्था पर प्रश्न उठाना उचित नहीं है। कुछ उत्साही लोग लखीमपुर खीरी में गृह राज्य मंत्री के बेटे और शाह रुख खान के बेटे की तुलना करते हुए न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। अच्छी बात है, लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है लेकिन जब तुलनात्मक आधार पर कोई तर्क प्रस्तुत किया जाता है तो तुलना का आधार एक होना चाहिए या कम से कम एक जैसा होना चाहिए। लखीमपुर खीरी के मामले में भी कानून अपना काम कर रही है और आर्यन खान के मामले में भी कानून अपने हिसाब से काम कर रही है। ये सब लोग वही काम कर रहे हैं जो जया बच्चन ने पिछले साल किया था, जब बालीवुड में ड्रग्स के मामले को अपने बयान से भटका दिया था। 

शाह रुख खान के पुत्र इस वक्त जेल में हैं। एक पिता के साथ सबकी संवेदना होनी चाहिए। हर उस पिता को सोचना चाहिए जिसका बच्चा आर्यन की उम्र का है। बजाए इसके कई लोग इस घटना को अपनी राजनीति का औजार बनाकर प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं। शाह रुख खान के बेटे की आड़ में कुछ लोग नरेन्द्र मोदी पर भी हमले कर रहे हैं। कल्पना की उड़ान ऐसी कि वो इस पूरे प्रकरण को शाह रुख को चुप कराने की साजिश करार दे रहे हैं। ऐसे चतुर सुजान ये भूल जाते हैं कि आर्यन खान का केस महाराष्ट्र में चल रहा है। जहां भारतीय जनता पार्टी का शासन नहीं है। वहां तो कांग्रेस, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस के गठबंधन की सरकार है। दूसरे वो ये भूल रहे हैं कि पिछले दिनों जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोग प्रधानमंत्री मोदी से मिलने आए थे तो उसमें शाह रुख खान भी शामिल थे और दोनों बेहद गर्मजोशी से मिले थे। दूसरे इन दिनों शाह रुख खान की कोई फिल्म भी हिट नहीं हो रही है। उनका फोकस राजनीति पर है भी नहीं। वो तो अपने कारोबार में ही व्यस्त रहते हैं। इसलिए इस मामले में इस तरह की बातें अर्थहीन ही नहीं बल्कि मूल समस्या से देश का ध्यान भटकाने वाली भी हैं। 

यह एक ऐसा मसला है जिसके बारे में पूरे देश को एकजुट होकर सोचना पड़ेगा। नशे का चक्रव्यूह ऐसा है कि आज शाह रुख खान का बेटा उसमें फंसा है कल किसी और का बेटा या बेटी उसमें फंस सकती है।जरूरत इस बात की है कि बालीवुड के तमाम दिग्गज सामने आकर इस खतरे के खिलाफ आवाज बुलंद करें, इसको रोकने के उपाय पर बात करें नहीं तो ये नशे का ये राक्षस पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर सकता है। अपने आसपास जब हिंदी फिल्मों से जुड़े बच्चे पार्टी का माहौल देखते हैं जहां किसी एक कोने में ‘विशेष’ व्यवस्था रहती है तो वो उस ओर आकर्षित होते हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया में अथाह पैसा है, ग्लैमर है लेकिन अकेलापन भी है। माता-पिता अपने करियर में डूबे रहते हैं, बच्चों के पास समय होता है, पैसे होते हैं लेकिन माता पिता के साथ के लिए वो तरसते हैं। इसी अकेलेपन के दंश में वो नशे की ओर जाते हैं। उन लोगों को भी सोचना चाहिए जो संस्कार या संस्कारी शब्द का हैशटैग बनाकर इंटरनेट मीडिया पर उसका उपहास करते हैं। संस्कारी शब्द तो हिंदी फिल्मों की दुनिया में मजाक बन गया है जबकि परवरिश और संस्कार ही बच्चों को नशे के इस खतरे से बचाने के लिए कवच का काम कर सकता है।


Saturday, October 24, 2020

फिर विवादों के भंवर में महेश भट्ट


हिंदी फिल्म जगत और ड्रग्स का मामला थमता नजर नहीं आ रहा है। अभी सुशांत सिंह राजपूत के केस में ड्रग्स का मामला उछला था और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने दीपिका पादुकोण समेत कई अभिनेत्रियों से घंटों तक पूछताछ की थी। अभी ये मामला शांत भी नहीं हुआ था कि एक दूसरे मामले में निर्देशक महेश भट्ट का नाम ड्रग्स के आरोपों से जुड़ गया है। फिल्म ‘कजरारे’ की अभिनेत्री लवीना लोध ने एक मिनट अड़तालीस सेंकेंड का एक वीडियो जारी कर महेश भट्ट पर सनसनीखेज आरोप लगाया है। लवीना ने इंस्टाग्राम पर पोस्ट विडियो में कहा है कि ‘मेरी शादी महेश भट्ट के भांजे सुमित सभलवाल के साथ हुई थी और मैंने उनके खिलाफ डायवोर्स केस फाइल किया है क्योंकि मुझे पता चल गया था कि वो ड्रग सप्लाई करते हैं एक्टर्स को...उनके फोन में भी अलग अलग किस्म की लड़कियों की तस्वीरें होती हैं जो वो डायरेक्टर्स को दिखाते हैं...और इन सारी बातों की जानकारी महेश भट्ट को है। महेश भट्ट सबसे बड़ा डॉन है इंडस्ट्री का। ये पूरा सिस्टम वही ऑपरेट करता है और अगर आप उनके हिसाब से नहीं चलते हैं तो वो आपका जीना हराम कर देते हैं। महेश भट्ट ने कितने लोगों की जिंदगी बर्बाद कर दी है, कितने एक्टर्स, डायरेक्टर्स को उन्होंने काम से निकाल दिया है, वो एक फोन करते हैं पीछे से और लोगों का काम चला जाता है। लोगों को पता भी नहीं चलता है। ऐसे उन्होंने बहुत जिंदगियां बर्बाद की हैं। और जबसे मैंने उनके खिलाफ केस फाइल किया है वो हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गए हैं। अलग अलग तरीके से मेरे घर में घुसने की कोशिश कर रहे हैं, पूरी कोशिश की उन्होंने मुझे इस घर से निकालने की। जब मैं पुलिस स्टेशन में शिकायत (एनसी) लिखाने जाती हूं तो कोई मेरी शिकायत भी नहीं लेता। बहुत मुश्किल के बाद अगर मैं शिकायत लिखा भी देती हूं तो कोई एक्शन नहीं होता।‘ लवीना लोध यहीं पर नहीं रुकती हैं और वो ये भी कहती हैं कि अगर कल कोई हादसा उनके या उनके परिवार के साथ होता है तो सिर्फ महेश भट्ट, मुकेश भट्ट सुमित सभरवाल, आदि उसके लिए जिम्मेदार होंगे। लवीना का कहना है कि वो ये वीडियो इस लिए भी बना रही हैं कि लोगों को पचा चले कि बंद दरवाजे के पीछे इन लोगों ने कितनी जिंदगियां बर्बाद की हैं और ये क्या क्या कर सकते हैं। वो अपनी बात इस वाक्य पर खत्म करती हैं कि महेश भट्ट बहुत ही ताकतवर और प्रभावशाली हैं। अगर एक मिनट को इसको पारिवारिक कलह भी मान लिया जाए तो इसमें जो ड्रग्स की बात सामने आ रही है या अन्य आरोप लगे हैं उसकी जांच तो की जा सकती है। लवीना ने तो जिन एक्टर्स को ड्रग्स की सप्लाई की जाती है उनके नाम भी इस वीडियो में लिए हैं। 

सुशांत सिंह राजपूत के केस में रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी भी आरोपों के आधार पर ही हुई थी। दीपिका पादुकोण, श्रद्धा कपूर, सारा अली खान और रकुलप्रीत जैसी मशहूर अभिनेत्रियों से घंटों पूछताछ भी सिर्फ आरोपों के आधार पर हुई थी। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस तत्परता के साथ नारकोटिक्स कंट्रोल बोर्ड ने इतनी मशहूर और प्रतिष्ठित अभिनेत्रियों से पूछताछ की थी वैसी ही सक्रियता लवीना के आरोपों पर भी दिखाई जाएगी? अगर ये नहीं होता है तो क्या ये माना जाए कि अभिनेत्री लवीना की उन बातों में दम है कि महेश भट्ट बेहद ताकतवर और प्रभावशाली हैं। महेश भट्ट पहले भी कई तरह के व्यक्तिगत और अन्य विवादों में घिरते रहे हैं। अगर उस दौर की फिल्मी और अन्य पत्रिकाओं के लेखों को देखें तो उनके और परवीन बॉबी के रिश्ते को लेकर बहुत कुछ लिखा गया था। कहा गया  था कि परवीन से अफेयर की वजह से उनका पारिवारिक कलह हुआ था। उन्होंने अपनी पहली पत्नी किरण भट्ट और बेटी पूजा को छोड़कर परवीन के साथ रहना शुरू कर दिया था। परवीन जब सिजोफ्रेनिया की गिरफ्त में आईं तो वो उनको छोड़कर अपने परिवार के पास लौट आए थे। कई इंटरव्यू में महेश भट्ट ने परवीन बॉबी के साथ अपने रिश्ते को माना भी है। इसके अलावा उनका बेटा राहुल भट्ट भी मुंबई हमले की साजिश के आरोपी डेविड हेडली से संपर्कों की वजह से शक की जद में आया था। तब ये आरोप लगा था कि डेविड हेडली ने राहुल भट्ट को ये कहा था कि वो हमले वाले दिन दक्षिणी मुंबई की ओर नहीं जाए। राहुल भट्ट जब संदेह के घेरे में थे तो उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में महेश भट्ट पर भी निशाना साधा था। खैर ये मुद्दे अब खत्म हो चुके हैं लेकिन अतीत बहुत जल्द पीछा छोड़ते नहीं।

बात बॉलीवुड और ड्रग्स की करते हैं। लगातार दो मामलों में ड्रग की बात सामने आने के बाद, खासतौर पर सुशांत सिंह राजपूत केस में जिस तरह से हिंदी फिल्मों की दुनिया शक के घेरे में आई उसको साफ करना जरूरी है। ये जिम्मेदारी बॉलीवुड को ही उठानी होगी। सुशांत सिंह केस के दौरान सुपरस्टार अक्षय कुमार ने एक वीडियो जारी कर माना था कि कई ऐसे मुद्दे हैं जिनपर बॉलीवुड को खुद के गिरेबां में झांकने की जरूरत है। नारकोटिक्स और ड्रग्स की बात करते हुए भी उन्होंने कहा था कि कैसे दिल पर हाथ रखकर कह दें कि ये समस्या नहीं है,ये समस्या है। तब अक्षय ने पूरी इंडस्ट्री को बदनाम दुनिया की तरह नहीं देखने की अपील भी की थी। अक्षय ने ठीक कहा था, सबको एक ही रंग से रंगना उचित नहीं है। हर जगह अच्छे और बुरे लोग होते हैं। इस कड़ी में ही बॉलीवुड की कई प्रोडक्शन कंपनियों और उनके संगठनों ने दिल्ली हाईकोर्ट में दो चैनलों की रिपोर्टिंग के खिलाफ गुहार लगाई थी। यहां ये रेखांकित करना जरूरी लगता है कि हाईकोर्ट से गुहार लगानेवाली इन प्रोडक्शन कंपनियों में महेश भट्ट की कंपनी शामिल नहीं हैं। बॉलीवुड के जिन लोगों ने अदालत से गुहार लगाई है उनको महेश भट्ट पर लग रहे आरोपों पर भी अपनी बात रखनी चाहिए। प्रोड्यूसर गिल्ड को कम से कम ये बयान तो जारी करना चाहिए कि अभिनेत्री लवीना के आरोपों की जांच हो, ड्रग्स सप्लाई के आरोपों को लेकर भी एजेसियां कानूनसम्मत ढंग से काम करें।

अगर गिल्ड या प्रोडक्शन कंपनियों का ऐसा कोई बयान नहीं आता है या वो कोई पहल नहीं करते हैं तो एक बार फिर से उनकी साख पर सवाल उठेगा और लोगों को बॉलीवुड पर आरोप लगाने का मौका। चुनी हुई चुप्पी और चुनिंदा मामलों में बोलना दोनों ही किसी भी संगठन या इंडस्ट्री की साख पर असर डालते हैं। हमने अपने देश में देखा है कि वामपंथियों ने सालों तक इस चुनी हुई चुप्पी या सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म को अपनाया। आज इस वजह से उनको कितना नुकसान हुआ ये सबके सामने है। उनकी राजनीतिक जमीन देखते देखते उनके नीचे से खिसक गई। उनकी साख इस कदर छीज गई है कि अकादमिक दुनिया ने भी उनको गंभीरता से लेना कम कर दिया है। बॉलीवुड में ड्रग्स का नाम भी आता है तो वहां काम कर रहे संगठनों को बहुत मुखरता के साथ उसका प्रतिरोध करना होगा। इससे लोगों के बीच बॉलीवुड की साख और मजबूत होगी अन्यथा लोगों को ये लगेगा कि फिल्मी दुनिया के बड़े और गंभीर मानी जानेवाली आवाज भी चुनिंदा लोगों के आरोपों पर ही अपनी बात सामने रखती है। 


Wednesday, February 12, 2020

बल्लीमारान के ‘प्राण’


उर्दू के मशहूर शायर गालिब और हिंदी फिल्मों के शानदार अभिनेता प्राण दिल्ली की मिट्टी जोड़ती है। अपनी शादी के बाद गालिब अब के पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान में रहने चले आए थे वहीं अपनी शादी के बाद प्राण बल्लीमारान छोड़कर लाहौर चले गए थे। बल्लीमारान के एक खानदानी रईस परिवार में प्राण का जन्म हुआ था। प्राण के पिता लाला केवल कृष्ण सिकंद पेशे से सिविल इंजीनियर थे और ब्रिटिश हुकूम के दौरान सरकारी निर्माण का ठेका लिया करते थे। केवल कृष्ण सिकंद को सरकारी इमारतों, सड़कों और पुल बनाने का विशेषज्ञ माना जाता था और जहां भी सरकार को इस तरह का काम करवाना होता था तो वो उनको बुलाकर ठेके देती थी। सिकंद परिवार की बल्लीमारान ही क्या पूरी दिल्ली में बहुत प्रतिष्ठा थी और वो आर्थिक रूप से बहुत संपन्न थे। प्राण की जन्म तिथि को लेकर भी एक दिलचस्प कहानी है। प्राण बताते थे कि उनकी बुआ कहा करती थीं कि तुम्हारा जन्म 1920 के फरवरी के तीसरे सप्ताह में हुआ था। प्राण जब ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने पहुंचे तो फॉर्म में जन्मतिथि का कॉलम था लेकिन उनको तिथि पता नहीं थी। अपनी बुआ की फरवरी के तीसरे सप्ताह वाली बात याद करके उन्होंने 20 फरवरी की तारीख फॉर्म में भर दी, जो उनकी आधिकारिक जन्मतिथि बन गई। इस बीच प्राण एक अभिनेता के तौर पर मशहूर होने लगे थे और पत्र-पत्रिकाओँ में उनके बारे में छपने लगा था।
अचानक एक दिन प्राण को बल्लीमारान के एक निवासी का पत्र मिला। उन्होंने प्राण को लिखा कि एक लेख में मैंने आपकी जन्मतिथि 20 फरवरी 1920 पढ़ी है लेकिन मेरे पास इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि आपकी जन्मतिथि 12 फरवरी 1920 है। पत्र पढ़ने के बाद प्राण की उत्सुकता बढ़ी और उन्होंने पत्र का उत्तर लिखा और थोड़े चुनौती भरे अंदाज में उनसे पूछा कि आपके पास क्या प्रमाण है। कुछ दिन बीत गए। प्राण इस बात को भूल गए थे अचानक एक दिन वो अपनी डाक देख रहे थे तो एक लिफाफा में उनको अपना मूल जन्म प्रमाण पत्र दिखा जिसपर उनके जन्म की तिथि 12 फरवरी 1920 लिखी थी। प्रमाण पत्र के साथ उसी व्यक्ति का एक पत्र भी था जिसमें उन्होंने बताया था कि वो नगरपालिका का कर्मचारी था और उसने प्राण का जन्म प्रमाण पत्र देखा था। प्राण ने उस व्यक्ति को धन्यवाद का पत्र लिखा और तब से उनकी जन्मतिथि 12 फरवरी 1920 हो गई। 12 फरवरी 2020 को प्राण के सौ साल पूरे हो गए।
प्राण के पिता के पेशे की वजह से उनका स्थान परिवर्तन होता रहता था। जब भी कोई नया ठेका मिलता तो वो परिवार के साथ वहां शिफ्ट कर जाते। प्राण ने रामपुर के स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की। लेकिन प्राण का पढ़ाई में मन नहीं लगता था। मैट्रिक पास करने के बाद एक दिन उनके पिता ने बुलाकर पूछा कि आगे क्या पढ़ोगे तो प्राण ने कहा कि वो अब पढ़ना नहीं चाहते हैं और फोटोग्राफी सीखना चाहते हैं। कुछ दिनों तक सोचविचार करने के बाद प्राण के पिता लाला केवल कृष्ण सिकंद ने बेटे को अपने मन की करने की अनुमति दे दी लेकिन साथ ही एक शर्त भी लगा दी वो कनॉट प्लेस स्थित ए दास एंड फोटोग्राफर्स में प्रशिक्षण लें। प्राण को मालूम था कि ए दास एंड फोटोग्राफर्स के मालिक उनके पिता के दोस्त हैं तो वो भी तैयार हो गए। प्राण ने वहां फोटोग्राफी की ट्रेनिंग के साथ साथ फिल्म को डेवलप और प्रिंट करने की कला भी सीखी। अब यहां से नियति प्राण को अभिनय की ओर ले गई। ए दास एंड कंपनी ने शिमला में एक शाखा खोली तो प्राण को वहां भेज दिया। शिमला में रहकर प्राण ने फोटोग्राफी में निपुण तो हुए ही वहां ही पहली बार अभिनय भी किया। वहां आयोजित होनेवाली वार्षिक रामलीला में उन्होंने सीता का अभिनय किया। उस रामलीला में उनके साथ राम की भूमिका मदनपुरी ने निभाई थी जो बाद में हिंदी फिल्मों के मशहूर अभिनेता बने।
शिमला में अपने कारोबार से उत्साहित होकर ए दास एंड कंपनी ने लाहौर में अपनी दुकान खोली और प्राण को वहां भेज दिया। लाहौर की रामलुभाया की पान दुकान पर उस समय फिल्म यमला जट लिख रहे लेखक वली मुहम्मद वली ने प्राण को पान खाते देखा और उनका अंदाज इतना भाया कि उन्होंने वहीं उनको फिल्म का ऑफर दे दिया। प्राण ने ए दास कंपनी की सौ रुपए की नौकरी छोड़कर पंचोली आर्ट स्टूडियो की पचास रुपए की नौकरी कर ली। इस बीच ये खबर बल्लीमारन में रहनेवाले उनके पिता तक पहुंची। वो थोड़े झुब्ध हो गए क्योंकि उस वक्त फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। प्राण के पिताजी ने उनको दिल्ली बुला लिया और फिल्म छोड़कर कोई और काम करने को कहा। प्राण फिर से ए दास एंड कंपनी से जुड़े लेकिन उनका मन नहीं लग रहा था। फिर घर के बड़े लोगों ने मिलकर तय किया कि उनकी शादी कर दी जाए। दिल्ली के ही एक संपन्न अहलूवालिया परिवार की लड़की से उनकी शादी तय कर दी गई। इस बीच उनके पिता का निधन हो गया। पिता के निधन के बाद प्राण फिर से फिल्मों में काम करने के लिए बल्लीमारान की गलियां छोड़कर लाहौर जा पहुंचे। लेकिन शादी तो तय हो चुकी थी। लड़की वाले प्राण के फिल्मों में काम करने को लेकर थोड़े सशंकित थे लेकिन उनकी लड़की और प्राण दोनों पहले मिल चुके थे और कह सकते हैं कि प्रेम भी अंकुरित हो चुका था। 1945 में प्राण की शादी हुई। शादी के बाद प्राण ने दिल्ली जरूर छोड़ा लेकिन पहले लाहौर और फिर मुंबई में रहते हुए वो बल्लीमारान को नहीं भूल पाए थे, उसकी गलियों को याद करते थे और याद तो वो कनॉट प्लेस में बिताए अपने दिनों को भी करते थे। ये भी कौन जानता था कि सीता जैसी महिला के किरदार से अभिनय की शुरुआत करनेवाले प्राण इस तरह के रोल करेंगे कि कोई अपने बच्चे का नाम प्राण नहीं रखेगा। खालिस दिल्ली की मिट्टी की खुशबू के साथ पला बढ़ा ये अभिनेता भारतीय सिनेमा में अपने दमदार अभिनय के बूते पर आज भी याद किया जाता है।  

Tuesday, January 20, 2009

बॉलीवुड पर बाजार हावी

आज अगर बॉलीवुड और वहां बनने वाली फिल्मों पर नजर डालें इसपर बाजारवाद पूरी तरह से हावी नजर आ रहा है । बाजार और मार्केटिंग के खेल ने ग्लैमर से भरी इस दुनिया की राह ही बदल दी है । बाजार पैसा चाहता है और उसके लिए वो अपने रास्ते में आनेवाली तमाम बाधाओं को इस तरह से दरकिनार कर डालता है । भारतीय फिल्म उद्योग के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ । ग्लैमर के इस धंधे से होनेवाली बड़ी आमदनी को ध्यान में रखकर पहले मुंबई के अंडरवर्ल्ड डॉन अपना काला पैसा इस यहां लगाया करते थे । हाजी मस्तान से लेकर वरदाराजन मुदलयार, करीम लाला से लेकर दाऊद इब्राहिम और उसके गुर्गों के पैसे लेने की बात गाहे-बगाहे सामने आती रहती है । यहां किसी भी फिल्म निर्माता या कलाकार का नाम लेना उचित नहीं होगा लेकिन साठ और सत्तर के दशक में दर्शकों के दिलों पर राज करनेवाले शोमैन की हाजी मस्तान के सामने मत्था टेकती तस्वीर अब भी लोगों के जेहन में है । अनुपमा चोपड़ा ने कुछ दिन पहले शाहरुख खान पर लिखी अपनी किताब में किंग खान को अंडरवर्ल्ड के गुर्गे की धमकी का विस्तार से जिक्र है । इन सबसे ये साबित होता है कि अंडरवर्ल्ड और बॉलीवुड में पैसे को लेकर गहरे रिश्ते रहे हैं और ये सिर्फ तत्काल लाभ कमाने के उद्देश्य से किया गया निवेश था । लेकिन अंडरवर्ल्ड से गठजोड़ में फिल्म निर्माताओं पर एक खतरा तो बना ही रहता था । इस गठजोड़ पर रोक लगाने के लिए सरकार ने सन् उन्नीस सौ पतहत्तर में राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम की स्थापना की और फिर उन्नीस सौ अस्सी में इंडियन मोशन पिक्चर एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन और फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन को इसमें समाहित कर दिया । इस संस्था का उद्देश्य बेहतर फिल्मों के लिए धन मुहैया करना भी था । ये संस्था कहां है और क्या कर रही है, किन फिल्मकारों को ये मदद दे रही है ये किसी को नहीं पता । अन्य सरकारी संस्ताओं की तरह ये भी लालफीताशाही का शिकार हो गई और बड़े नौकरशाहों का ऐशगाह बनकर रह गई है ।
लेकिन नब्बे के दशक में जब आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की तो उसका असर फिल्म उद्योग पर भी दिखने लगा ।
आर्थिक उदारीकरण के दूसरे दौर में या यों कहें कि बीसबीं शताब्दी के आखिरी सालों में बॉलीवुड पर पूंजी की बरसात होने लगी । फिल्मों पर बड़ी अंतराष्ट्रीय कंपनियों ने दांव और पैसा लगाना शुरु कर दिया । अनिल अंबानी की ऐडलैब्स से लेकर सोनी इंटरनेशनल और इरोज इंटरनेशनल ने भारतीय फिल्मों पर एक सोची समझी रणनीति के तहत पैसा लगाना शुरु कर दिया और मोटी कमाई की । पिछले दिनों संजय लीला भंसाली की फिल्म कंपनी एसएलबी में सोनी इंटरटेनमेंट ने तीस से चालीस करोड़ रुपये लगाए और लगभग इससे दुगनी रकम की कमाई की । ये पहली भारतीय फिल्म थी जिसमें बॉलीवुड की कंपनी का पूरा पैसा लगा । खबर तो ये भी है कि सोनी ने इसके अलावा तीन और फिल्मों के लिए संजय लीला भंसाली की कंपनी के साथ कारार किया है । शाहरुख खान की कंपनी रेड चिली की फिल्म ओम शांति ओम पर भी लगभग तीस-चालीस करोड़ रुपये लगे, इस फिल्म का वितरण भी विदेशी कंपनी इरोज इंटरनेशनल के साथ मिलकर किया और कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले । भारतीय फिल्म बाजार की अपार संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए कई अन्य विदेशी कंपनियों की नजर भी भारतीय फिल्म बाजार पर है और अगर बॉलीवुड के जानकारों की मानें तो आनेवाले दिनों में और भी कई करार देखने को मिल सकते हैं । विदेशी कंपनियों के पैसे पर बनने वाली फिल्मों में मार्केटिंग के लिए एक बड़ा बजट होता है और उस पैसे से एक ऐसी व्यूह रचना की जाती है जिसमें दर्शकों को फांसने का सारा खेल किया जाता है । हाल में आई कुछ फिल्में मार्केटिंग के बूते हिट रही हैं । बाजार का पहला शिकार कला और संस्कृति ही बनती है और भारत में भी ऐसा ही होता नजर आ रहा है । अभी कुछ दिनों पहले अमेरिका के पूर्व अटार्नी भारत के दौरे पर थे । उन्होंने कोलकाता में एक साक्षात्कार में कहा कि उपभोक्तावाद और बाजारवाद, साम्राज्यवाद से ज्यादा खतरनाक है ।
भारतीय फिल्मों के इस कॉर्रपोरेटाइजेशन का सबसे बड़ा नुकसान सार्थक सिनेमा को हुआ । अब सामाजिक विषयों पर फिल्में बननी लगभग बंद हो गई । मंडी, अर्थ, पार, सारांश, मिर्च मसाला, अंकुश, तमस जैसी फिल्मों का दौर खत्म होता सा लग रहा है । इस बीच कम बजट की कुछ अच्छी फिल्में- हैदराबाद ब्लूज से लेकर भेजा फ्राई, वेलकम टू सज्जनपुर - बनी, लेकिन ये फिल्में भी एक खास दर्शकवर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई और उन दर्शकों ने इन फिल्मों को पसंद भी किया । ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या भारत से सार्थक सिनेमा का दौर खत्म हो गया है या यों कहें कि सामाजिक विषयों को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली फिल्मों को बाजार ने लील लिया है । क्या मार्केटिंग की वजह से घटिया फिल्में हिट होती रहेंगी और जो फिल्में कम बजट की होने के कारण अपनी मार्केटिंग नहीं कर पा रही हैं वो बेहतर होने के बावजूद पिटती रहेंगी । ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब फिल्म उद्योग से जुडें लोगों को शिद्दत से ढूढना ही होगा ।