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Saturday, October 29, 2022

फिल्मों को सरदार ने दी थी जीवनी शक्ति


सरदार पटेल और फिल्म। सधारणतया इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। ऐसा कहने पर लोग चौंकते भी हैं। सरदार पटेल को स्वाधीनता के लिए संघर्ष करनेवाले अग्रिम पंक्ति के नेता, आधुनिक भारत के निर्माता,सख्त निर्णय लेनेवाले कुशल प्रशासक, राष्ट्रवाद के सजग प्रहरी आदि के तौर पर याद किया जाता है। लेकिन सरदार पटेल और फिल्म का बेहद गहरा नाता रहा है। स्वाधीनता आंदोलन के समय सरदार पटेल ने भारतीय फिल्मों के लिए एक ऐसा कार्य किया जिसने फिल्म जगत को लंबे समय तक प्रभावित ही नहीं किया बल्कि उसके विस्तार की जमीन भी तैयार कर दी। फिल्म को लेकर उनके योगदान की चर्चा करने से पूर्व यह जान लें कि उस समय फिल्मों को लेकर किस तरह का वातावरण था। स्वाधीनता संग्राम के दौरान तिलक भारतीय फिल्मों के प्रबल समर्थक थे। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि तिलक ने दादा साहब फाल्के की फिल्म राजा हरिश्चंद्र के समर्थन में लेख लिखा था। बाबू राव पेंटर का उनकी फिल्म ‘सैरंध्री’ के लिए सार्वजनिक अभिनंदन किया था। जवाहरलाल नेहरू भी फिल्मों के शौकीन थे। जब स्वाधीनता संग्राम में गांधी का प्रभाव बढ़ा तो अग्रिम पंक्ति के नेताओं के बीच फिल्मों को लेकर उदासीनता का भाव उत्पन्न हो गया। गांधी जी फिल्मों को पसंद नहीं करते थे। वो फिल्मों को समाज में बुराई फैलाने वाला माध्यम और नैतिकता विरोधी मानते थे। गांधी के इस सोच का असर कांग्रेस पर भी पड़ा था। उस दौर में हिंदी फिल्म जगत अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था। कई फिल्मकार अपने पुरुषार्थ के बल पर भारतीय सिनेमा को मजबूती देने में लगे थे। 

स्वाधीनता आंदोलन अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका था। इस बीच एक बेहद दिलचस्प घटना घटी। 1945 में फिल्मकार और अभिनेता किशोर साहू ने अपनी फिल्म वीर कुणाल पूरी कर ली थी। किशोर साहू चाहते थे कि इस फिल्म का जब प्रदर्शन हो तो उस अवसर पर कोई बड़ा नेता उपस्थित रहे। मुश्किल ये थी कि कांग्रेस के नेता फिल्मों को लेकर या फिल्मों से जुड़े समारोह को लेकर बिल्कुल उत्साहित नहीं रहा करते थे। उनके अंदर की इस झिझक के बारे में किशोर साहू को पता था, लेकिन उन्होंने ठाना कि कांग्रेस के नेताओं और फिल्मों के बीच जो एक खाई बनती जा रही है उसको रोका जाए। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘मन करने लगा कि कांग्रेस और कला के बीच की खाई को पाटने की कोशिश करूं। फिल्मों के प्रति कांग्रेसी नेताओँ के मन की झिझक को निकाल दूं।यह काम शेर की गुफा में जाकर शेर को नत्थी करने के समान था। पर मैंने कमर कस ली। उन दिनों कांग्रेस में कई शेर थे। मगर बब्बरशेर एक ही था- सरदार वल्लभभाई पटेल। मैंने तवज्जो इन पर दी।‘  फिल्म उद्योग से चंदा आदि जमा करने के सिलसिले में किशोर साहू का परिचय पुरुषोत्तमदास टंडन से था। टंडन जी जब बांबे (अब मुंबई) आते थे तो वो किशोर साहू को मिलने के लिए कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के आवास पर बुलाया करते थे। इस तरह से किशोर साहू का मुंशी और श्रीमती लीलावती मुंशी से परिचय था। 

किशोर साहू मुंशी जी के घर पहुंचे और लीलावती जी से पटेल से मिलवाने का अनुरोध किया। लीलावती जी ने किशोर साहू की सरदार पटेल से भेंट तय करवा दी। किशोर साहू नियत समय पर पटेल के मुंबई के घर पर पहुंच गए। पटेल की बेटी मणिबेन ने किशोर साहू को हिदायत दी कि पटेल साहब की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए पांच मिनट में बात समाप्त कर वो निकल जाएं। जब किशोर साहू पटेल के कमरे में पहुंचे तो वो सोफे पर लेटे हुए थे। बातचीत आरंभ हुई। किशोर साहू ने कांग्रेस पार्टी पर फिल्मवालों की अवहेलना का आरोप जड़ा। साथ ही फिल्म जगत की समस्याएं भी बताईं। इस बीच पांच मिनट खत्म हो गए थे। मणिबेन ने कमरे में घुसकर किशोर साहू को बातचीत समाप्त करने का संकेत दिया। जब दो तीन बार मणिबेन कमरे में आई तो पटेल समझ गए। उन्होंने मणिबेन को कहा कि इस व्यक्ति को बैठने दिया जाए। तब किशोर साहू ने अन्य समस्याओं के साथ पटेल के सामने विदेशी स्टूडियो के भारत में कारोबार आरंभ करने की योजना के बारे में बताया । उनको ये भी बताया कि विदेशी कंपनियों के पास इतनी अधिक पूंजी है कि वो भारतीय फिल्मों की व्यवस्या को खत्म कर सकती है। करीब घंटे भर बाद पटेल ने पूछा कि आप क्या चाहते हैं?  किशोर साहू ने उनसे कहा कि आप 1 दिसंबर (1945) को बांबे के नावेल्टी सिनेमा में मेरी फिल्म वीर कुणाल के प्रीमियर पर आएं और वहां से फिल्म जगत को आश्वासन दें कि कांग्रेस उनके साथ है। सरदार पटेल ने किशोर साहू को वचन दिया कि वो अवश्य आएंगे। जब उन्हें पता चला कि एक दिसंबर को कलकत्ता (अब कोलकाता) में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक है। अब दुविधा में थे लेकिन फिल्म के प्रीमियर में जाने के अपने वादे पर अटल थे। उन्होंने इसका हल निकाला। अपने सहयोगी को चार्टर प्लेन की व्यवस्था करने को कहा। जिससे वो प्रीमियर के बाद कलकत्ता जा सकें। किशोर साहू ने अपनी फिल्म के प्रीमियर को खूब प्रचारित किया। लोगों में आश्चर्य का भाव था कि कांग्रेस के नेता कैसे फिल्म के प्रीमियर पर पहुंच रहे हैं। उत्सकुकता सरदार पटेल के वक्तव्य को लेकर भी थी कि वो क्या बोलेंगे। एक दिसंबर को सिनेमाघर के बाहर हजारों की भीड़ जमा थी। समय पर सरदार सिनेमा हाल पहुंचे। फिल्म आरंभ होने के पहले उनको मंच पर ले जाया गया। किशोर साहू ने फिल्म जगत की समस्या उनके सामने रखी। अब बोलने की बारी सरदार की थी। उन्होंने सबसे पहले फिल्म की सफलता की शुभकामनाएं दीं लेकिन उसके बाद जो कहा उसका दूरगामी असर पड़ा। सरदार ने लंबा भाषण दिया और पहली बार फिल्मों से जुड़े लोगों को आश्वस्त भी किया कि कांग्रेस फिल्म विरोधी नहीं है। अंत में उन्होंने चेतावनी के स्वर में कहा, जिस दिन विदेशी पूंजीपतियों ने हमारे देश आकर स्टूडियो खोलने की कोशिश की, तो याद रखें वो विदेशी, और याद रखे ये बरतानवी सरकार, उस दिन कांग्रेस अपनी पूरी ताकत के साथ इसका विरोध करेगी। जिस तरह नमक सत्याग्रह हुआ था, उसी तरह इन विदेशी पूंजीपतियों के स्टूडियो पर सत्याग्रह होगा और इस सत्याग्रह का नेतृत्व मैं खुद करूंगा।‘  किशोर साहू ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग को अपनी आत्मकथा में लिखा है। भाषण के बाद सरदार पटेल ने मध्यांतर तक फिल्म देखी। उसके बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भाग लेने के लिए कलकत्ता चले गए। सरदार पटेल की इस चेतावनी के बाद विदेशी कंपनियों ने स्टूडियो खोलने की योजना रोक दी थी।

सरदार पटेल का वीर कुणाल के प्रीमियर पर दिया गया वक्तव्य फिल्मी के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया था। उस दौर में जब गांधी फिल्मों का विरोध कर रहे थे, सरदार पटेल ने फिल्मों का ना केवल समर्थन किया बल्कि उसको आगे बढ़ाने के लिए हर संभव मदद का भरोसा भी दिया। गांधी के मत के खिलाफ जाकर कदम उठाने का साहस पटेल ने दिखाया था। अगर सरदार पटेल भारतीय फिल्मों के समर्थन में खड़े नहीं होते तो आज भारतीय फिल्म जगत किस स्थिति में होती, कहना कठिन है। स्वाधीनता के पहले ही हमारे देश में विदेशी स्टूडियो खुल गए होते और स्वदेशी फिल्मों पर विदेशी पूंजी का ग्रहण लग चुका होता। स्वाधीनता के सालों बाद जब भारतीय फिल्म उद्गोय परिपक्व हुआ, विश्व सिनेमा की बराबरी पर खड़ा होने लगा, तब जाकर यहां विदेशी स्टूडियो को खोलने की अनुमति दी गई। भारतीय फिल्म जगत की वैश्विक सफलता के पीछे सरदार पटेल का सोच भी था। 

Saturday, October 22, 2022

विकास और विचार से लौटेगा वैभव

 श्रीनगर के डल झील का किनारा, किनारे स्थित शेर-ए-कश्मीर क्नवेंशन सेंटर का विशाल परिसर, परिसर के लान में एक तरफ सजा मंच और सामने बैठे देश के विभिन्न हिस्सों से आए लेखक, साहित्यकार, फिल्मकार और कलाकार। ये सब मिलकर एक ऐसे वातावरण की निर्मिति कर रहे थे जो आज से तीन साल पहले सोचा भी नहीं जा सकता था। कुमांऊ लिटरेचर फेस्टिवल ने दो दिनों तक कश्मीर संस्करण का आयोजन करके एक ऐतिहासिक पहल की है। श्रीनगर में लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन और श्रीनगर और शोपियां में सिनेमा हाल का खुलना कश्मीर के सांस्कृतिक वैभव की पुनर्वापसी की ओर उठाया कदम कहा जा सकता है। पिछले कई दशकों से श्रीनगर में गोली-बारूद की गंध और निर्दोष नागरिकों की हत्या से आतंक का वातावरण बना था। इस वातावरण ने कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को नेपथ्य में धकेल दिया था। कभी इसकी बात नहीं होती थी कि कश्मीर का शारदा पीठ, पूरी दुनिया में ज्ञान का ऐसा केंद्र था जिसके समांतर किसी और केंद्र का इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता है।
साहित्योत्सव के दौरान प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने शारदा पीठ का न केवल उल्लेख किया बल्कि जोर देकर कहा कि शारदा पीठ दुनिया का पहला विश्वविद्यालय भी था। बिबेक देवराय की इस बात पर चर्चा होनी चाहिए और विद्वानों को इसपर अपना अपना मत रखना चाहिए। कश्मीर के शारदा पीठ की अपने समय में बड़ी प्रतिष्ठा थी। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि पूरे देश के विद्वान जब किसी ग्रंथ की रचना करते थे तो वो उसकी स्तरीयता की परख के लिए शारदा पीठ आते थे। वहां के विद्वान उस ग्रंथ पर चर्चा करते थे और अगर उसमें मौलिक स्थापना होती थी तो उसको अपने तरीके से प्रमाणित करते थे। दुर्भाग्य से शारदा पीठ इस वक्त गुलाम कश्मीर का हिस्सा है।  

शारदा पीठ सिर्फ ज्ञान का केंद्र ही नहीं था बल्कि इस पीठ के नाम से एक लिपि भी उस दौर में प्रचलन में थी, जिसको शारदा लिपि के नाम से जानते हैं। ये माना जाता है कि शारदा लिपि का आरंभ दसवीं शताब्दी में हुआ था। कश्मीरी विद्वानों ने शारदा लिपि में विपुल लेखन किया था। शारदा लिपि में बहुत अधिक लिखा गया था और वहां के विद्वान लेखक अपनी रचनाओं को लेकर देश के अलग अलग हिस्सों में विमर्श के लिए गए भी थे। इसके अलावा देशभर के अलग अलग हिस्सों के विद्वान भी शारदा पीठ जाकर शारदा लिपि सीखकर अपने अपने क्षेत्रों में लौटते थे। फिर वो अपनी रचनाएं शारदा लिपि में लिखते थे। देशभर में कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां आज भी शारदा लिपि में लिखे गए ग्रंथ सहेजकर रखे हुए हैं। कश्मीर में सिर्फ शारदा लिपि ही नहीं बल्कि संस्कृत भाषा और उसमें रचना करनेवाले विद्वानों की लंबी सूची है। नीलमत पुराण में विस्तार इसकी चर्चा है कि कैसे कश्मीर में वहां की जनता उत्सवों के माध्यम से अपनी पंरपराओं को और अपनी ज्ञान परंपरा को जीवंत बनाए रखती थी। काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मट भी कश्मीर की धरती के ही सपूत थे। काव्यप्रकाश एक ऐसा ग्रंथ है जो अब भी साहित्य के अध्येताओं के सामने चुनौती बनकर खड़ा है। अबतक इस पुस्तक की असंख्य टीकाएं लिखी जा चुकी हैं लेकिन अब भी कई विद्वान इसमें वर्णित उल्लास और कारिकाओं की व्याख्या करने में लगे रहते हैं। बिबेक देवराय ने एक ऐसे मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित किया जिसके बारे में लगातार चर्चा होती है। संस्कृत के आलोचकों का कहना है कि इस भाषा में व्यंग्य साहित्य की कमी है। संस्कृत की इस कथित कमी को आलोचक इस भाषा के रचनात्मक लेखन की कमजोरी के तौर पर रेखांकित करते हैं। बिबेक ने इस संबंध में कश्मीर के ही एक लेखक क्षेमेन्द्र का नाम लिया और कहा कि उनकी रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में व्यंग्य उपस्थित है। 

कश्मीर के इतिहास और उसकी परंपराओं पर पुस्तक लिखनेवाले निर्मलेंदु कुमार ने लिखा है कि भारत के प्रांतो में एकमात्र कश्मीर ही है जिसका मध्यकाल का पूरा प्रामाणिक इतिहास वहीं के विद्वानों द्वारा लिखा हुआ मिलता है। भारतवर्ष के अन्य प्रदेशवासियों की अपेक्षा कश्मीरियों में विशेष इतिहास-प्रेम रहा, जिससे उन्होंने अपने देश का शृंखलाबद्ध इतिहास लिख रखा है। कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना की और उसके बाद जोनराज ने राजतरंगिणी का दूसरा खंड लिखा। आगे भी दो खंड लिखे गए। इस तरह से हम देखते हैं कि कश्मीर का साहित्यिक और सांस्कृतिक वैभव अपने जमाने में शिखर पर था। भारत के स्वतंत्रता के कुछ समय पहले से और उसके कुछ दिनों के बाद से कश्मीर में जिस तरह की राजनीति की गई उसने भी यहां की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की विकास यात्रा को अवरुद्ध कर दिया। स्वाधीन भारत में कश्मीर एक ऐसा मुद्दा बना रहा जिसपर हमेशा से राजनीति होती रही। राजनीति भी ऐसी जिसको न तो प्रदेश की विकास की फिक्र थी और न ही विचारों के निर्बाध प्रवाह की। विकास और विचार दोनों बाधित हुए। विकास और विचार को बाधित करने के बाद वहां आतंक को केंद्र में लाने का कुत्सित प्रयास हुआ। आतंकवाद ने लंबे कालखंड तक न केवल कश्मीर की जनता को परेशान किया बल्कि उसको देश दुनिया से काटकर रखा। एक समय तो ऐसा भी आ गया था जब लगने लगा था कि कश्मीर हाथ से निकलने वाला है। वहां के हालात बेकाबू थे। कश्मीरी हिंदुओं की हत्या और उनके पलायन ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। जो धरती कभी शैव मत के दर्शन को शक्ति प्रदान करनेवाली रही, वो धरती जहां के लोग शिव और विष्णु के उपासक थे उसी धरती से हिंदू धर्म को माननेवालों को या तो मार डाला गया या उनको उस धरती को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। इस तरह से कश्मीर की जनता को धर्म के आधार पर विभाजित करने का जो खेल स्वाधीनता के बाद से आरंभ हुआ था वो कश्मीरी हिंदुओं के पलायन के साथ अपने चरम पर पहुंचा। 

अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद से कश्मीर में जिस तरह से विकास के साथ साथ विचार का प्रवाह भी आरंभ हुआ है उसने एक उम्मीद जगाई है। कश्मीर में आयोजित कुमांऊ लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान स्थानीय कश्मीरी छात्रों की भागीदारी या स्थानीय लेखकों की उपस्थिति और सत्रों में हिस्सेदारी संतोषजनक रही। छात्रों में इस बात को जानने की उत्सुकता थी कि अन्य भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है। अन्य प्रदेशों में किन बिंदुओं पर विमर्श होते हैं और उन विमर्शों से क्या निकलकर आता है। उनके अंदर सिनेमा की बारीकियों और उनसे जुड़े किस्सों को सुनने की भी ललक दिखाई पड़ रही थी। जब राज कपूर के सहायक निर्देशक रहे और बाद में ‘बेताब’ और ‘लव स्टोरी’ जैसी फिल्में बनाने वाले राहुल रवैल के सत्र में कश्मीरी युवकों की प्रश्नाकुलता देखते ही बनती थी। वो ये जानना चाहते थे कि जिस फिल्म के नाम पर कश्मीर में बेताब वैली है उसके निर्माता के उस वक्त के अनुभव क्या थे। जब राहुल रवैल ने बताया कि ‘बाबी’ फिल्म का कुछ हिस्सा डल झील के किनारे शूट हुआ था तो युवकों की जिज्ञासा और बढ़ गई। राहुल रवैल साहब ने भी विस्तार से अपनी बात रखकर उपस्थित श्रोताओं की जिज्ञासा शांत करने की कोशिश की। कश्मीर में इस तरह के आयोजनों से न केवल वहां के युवाओं के मन में उठ रहे प्रश्नों का शमन होगा बल्कि उनकी रचनात्मकता को विस्तार मिलेगा। भारत सरकार और कश्मीर प्रशासन दोनों को ये सोचना चाहिए कि विकास के साथ विचार का भी अगर प्रवाह होगा तो वो लोगों के मन मस्तिष्क को खोलेगा जो किसी समस्या के हल के लिए आवश्यक अवयव है। 

Saturday, October 15, 2022

कला को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश


महाराष्ट्र के एक नेता हैं, नाम है शरद पवार। पहले कांग्रेस में थे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था। पराजित हुए थे। सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर कांग्रेस से अलग हो गए थे। अपनी पार्टी बनाई। फिर कांग्रेस के साथ हो लिए। महाराष्ट्र में दोनों पार्टियों ने मिलकर शासन किया। शिवसेना का विरोध करते रहे लेकिन शिवसेना के साथ भी सत्ता में साझेदारी की। शरद पवार की चर्चा का कारण है उनका हाल में दिया गया एक बयान। अपने इस बयान में शरद पवार ने कहा कि अगर हम कला, कविता और लेखन के बारे में बात करें तो अल्पसंख्यकों में इन क्षेत्रों में योगदान देने की अपार क्षमता है। उन्होंने ये कहने के बाद प्रश्न उठाया कि बालीवुड में सबसे अधिक योगदान किसका है। फिर उसका उत्तर दिया कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने सबसे अधिक योगदान किया, हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते। शरद पवार का ये बयान बेहद गंभीर और समाज को बांटनेवाला है। अबतक इस देश में कला और साहित्य को धर्म के आधार पर बांटने का प्रयास नहीं हुआ है लेकिन शरद पवार के इस बयान में ये दिखता है। 

शरद पवार दावा कर रहे हैं कि बालीवुड मे सबसे अधिक योगदान मुस्लिम अल्पसंख्यकों का है। देश का इतना बड़ा नेता जब इस तरह का बयान देते हैं तो उसके परिणाम की कल्पना की जा सकती है। इसलिए शरद पवार को ये बताना आवश्यक है कि बालीवुड में मुस्लिमों के सबसे अधिक योगदान का उनका जो दावा है वो न केवल प्रतिभा बल्कि आंकड़ों के हिसाब से भी हवाई है। ऐसा कहकर वो महाराष्ट्र के उन फिल्मकारों का भी अपमान कर रहे हैं जिन्होंने अपना जीवन होम करके फिल्म विधा को भारत में स्थापित और समृद्ध किया। शरद पवार शायद ये भूल गए कि दादा साहब फाल्के भी महाराष्ट्र के ही थे। उन्होंने जब फिल्म बनाया तो अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखे और फिल्म बनाने के दौरान उनकी आंखों पर बहुत बुरा असर पड़ा था। दादा साहेब फाल्के के बाद महाराष्ट्र के ही बाबूराव पेंटर ने सैरंध्री नामक फिल्म बनाई जिसको उस समय खूब सराहना मिली थी। भीम और कीचक की भूमिका में बाबूराव ने दो पेशेवर पहलवान, सरदार बाला साहब यादव और झुंझार राव पवार को लिया था। बाबू राव पेंटर को भारतीय फिल्मों की पहली मौलिक प्रतिभा के तौर पर फिल्म इतिहासकार देखते हैं। इस तथ्य को भी रेखांकित किया जाता रहा है कि बाबूराव पेंटर के साथ रहकर ही शांताराम, विनायक राव, भालजी पेंढरकर और विष्णुपंत गोविंद दामले ने फिल्म कला की बारीकियां सीखी थीं। शरद पवार की टिप्पणी कि बालीवुड में मुस्लिमों का सबसे अधिक योगदान है को अगर इन महानुभावों के योगदान के सामने रखकर देखेंगे तो शरद पवार की अज्ञानता साफ तौर पर नजर आती है। भारतीय फिल्मों के परिदृष्य पर नजर डालते हैं को वहां भी देवकी बोस, नितिन बोस प्रथमेश बरुआ, फणी मजूमदार, रायचंद्र बोराल, दुर्गा खोटे, देविका रानी, हिमांशु राय जैसे अनगिनत नाम हमारी स्मृतियों में आते हैं। हिमांशु राय ने भारतीय फिल्मों को वैश्विक स्वरूप प्रदान किया। अब अगर उस दौर से आगे बढ़ते हैं और स्वाधीनता के बाद के दौर के हिंदी फिल्मों को देखते हैं तो भी मुस्लिमों का सबसे अधिक योगदान नजर नहीं आता है। हिमांशु राय की फिल्म कर्मा लंदन और बर्मिंघम के सिनेमाघरों में 1933 में प्रदर्शित की गई थी। इस फिल्म का निर्माण भारत, ब्रिटेन और जर्मनी के निर्माताओं ने संयुक्त रूप से किया था। इसमें हिमांशु राय और देविका रानी थी। इस फिल्म के बारे में लंदन के समाचारपत्रों में कई प्रशंसात्मक लेख छपे थे। लेकिन शरद पवार अपनी टिप्पणी करते समय इन सबके योगदान को क्यों नहीं देख पाते हैं।

स्वाधीनता के बाद के दौर को भी देखें तो फिल्मों में मुसलमानों का योदगान सबसे अधिक नहीं दिखाई देता है। अशोक कुमार, राज कपूर, देवानंद, गुरु दत्त जैसे लोगों को शरद पवार बहुत आसानी से भूल जाते हैं। गुरु दत्त ने भारतीय सिनेमा को जो ऊंचाई प्रदान की उसको फिल्म के बारे में जानने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं भुला सकता है। प्यासा, कागज के फूल, साहब बीबी और गुलाम जैसी फिल्में बनानेवाले गुरु दत्त के बारे में कहा जाता है कि वो रूपहले पर्द पर पात्रों के माध्यम से कविता करते थे। बालीवुड में योगदान कि जब बात आती है तो क्या लता मंगेशकर को भुलाया जा सकता है या उनके किसी भी गायक की तुलना की जा सकती है। मराठा शरद पवार को लता मंगेशकर भी याद नहीं आई और उन्होंने एक बचकाना बयान दे दिया। याद तो शरद पवार को अमिताभ बच्चन भी नहीं आए जिनको सदी का महानायक कहा जाता है। जो पिछले पचास से अधिक वर्षों से फिल्मी दुनिया में न केवल सक्रिय हैं बल्कि फिल्म. टीवी और ओटीटी(ओवर द टाप) पर भी उनकी लोकप्रियता बरकरार है। जितेन्द्र से लेकर धर्मेन्द्र तक और अनिल कपूर से लेकर कार्तिक आर्यन तक की याद भी शरद पवार को नहीं आई। अभिनेत्रियों की भी लंबी सूची है जिसके बारे में बोलने के पहले शरद पवार ने विचार नहीं किया। 

अब जरा आंकड़ों पर गौर कर लेते हैं। 1967 से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिए जाने लगे इसके पहले इसको स्टेट अवार्ड फार फिल्म्स कहते थे। 1969 से भारतीय फिल्मों में विशिष्ट योगदान के लिए दादा साहब फाल्के सम्मान का आरंभ हुआ। 1969 में पहला दादा साहब फाल्के अवार्ड अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया। तब से लेकर अबतक 52 कलाकारों को दादा साहब फाल्के अवार्ड दिया जा चुका है इनमें से तीन, संगीतकार नौशाद, अभिनेता दिलीप कुमार और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ही मुस्लिम समुदाय से आते हैं। कला का यह बंटवारा उचित नहीं है लेकिन चूंकि शरद पवार ने यह बात उठाई है तो उनको यह बताना आवश्यक है कि सबसे अधिक योगदान का अर्थ क्या होता है। कम से 52 में से तीन तो नहीं ही होता है। कुछ लोग ये कह सकते हैं कि मदर इंडिया और मुगल ए आजम बनाकर महबूब खान और के आसिफ ने भारतीय सिनेमा का समृद्ध किया। यहां भी एक दिलचस्प तथ्य है। 1957 में मदर इंडिया सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। उस वर्ष के स्टेट अवार्ड फार फिल्म्स की सूची पर नजर डालते हैं तो उस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड फिल्म दो आंखें बारह हाथ के लिए व्ही शांताराम को मिला था जबकि महबूब खान की मदर इंडिया को सिर्फ प्रशंसा पत्र प्रदान किया गया था। अब जरा राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड की सूची पर भी नजर डाल लेते हैं। अबतक राष्ट्रीय फिल्म में 54 बार सर्वश्रेष्ठ फिल्म अभिनेता को पुरस्कृत किया गया है। कई बार संयुक्त रूप से भी दिया गया है। इन 54 में से सिर्फ तीन मुस्लिम अभिनेताओं नसीरुद्दीन शाह, सैफ अली खान और इरफान खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला है। बाकी 51 अभिनेता किस समुदाय से आते हैं  कहने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह से अबतक सिर्फ चार मुस्लिम अभिनेत्रियों नर्गिस, रेहाना, वहीदा रहमान और शबाना आजमी को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया है। 

शरद पवार तीन बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे और उनके मुख्यमंत्रित्व काल में सिर्फ एक मुस्लिम कलाकार दिलीप कुमार को दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया। तब शरद पवार ने तो कोई प्रश्न नहीं खड़ा किया। वो 2004 से 2014 तक केंद्र में मंत्री रहे। इस दौरान किसी भी मुस्लिम का दादा साहब फाल्के अवार्ड नहीं मिला। तब भी उन्होंने इस बात पर सार्वजनिक चिंता नहीं की। शरद पवार जैसे नेता जब कला और कलाकार के बारे में बोलते हैं तो उनको बहुत सोचविचार कर बोलना चाहिए। कला को हिंदू मुसलमान में बांटने का प्रयास नहीं करना चाहिए। 


Saturday, October 8, 2022

आदिपुरुष में कलात्मक अराजकता


पिछले दिनों रामनगरी अयोध्या में निर्देशक ओम राउत की फिल्म आदिपुरुष का एक उत्सुकता जगानेवाला अंश सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया। इस अंश में फिल्म के प्रमुख पात्रों को दिखाया गया है।ये फिल्म रामायण महाकाव्य पर आधारित होने का दावा किया जा रहा है। इसमें राम, सीता, रावण, हनुमान आदि के किरदार और उनकी वेशभूषा की झलक मिलती है। संवाद और दृष्यों की भी। इस फिल्म में प्रभु श्रीराम, हनुमान और रावण की वेशभूषा को लेकर विवाद हो गया है। जिस तरह से प्रभु श्रीराम का गेटअप तैयार किया गया है उससे ये स्पष्ट है कि फिल्मकार ने लोक में व्याप्त उनकी छवि से अलग जाकर उनको चित्रित किया है। भारतीय जनमानस पर श्रीराम की जो छवि अंकित है वो बेहद सौम्य, स्नेहिल और उदार है। तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में उनकी इस छवि पर पद लिखे। ‘‘नवकंज-लोचन कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं/ कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनिल नीरद सुंदरं, पटपीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं।‘ अर्थात उनके नयन खिले कमल की तरह हैं। मुख, हाथ और पैर भी लाल रंग के कमल की तरह हैं। उनकी सुंदरता की अद्भुत छटा अनेकों कामदेवों से अधिक है। उनके तन का रंग नए नीले जलपूर्ण बादल की तरह सुंदर है। पीतांबर से आवृत्त मेघ के समान तन, विद्युत के समान प्रकाशमान है। सिर्फ विनय पत्रिका में ही नहीं तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस से लेकर अपनी अन्य रचनाओं में भी श्रीराम को इसी रूप में प्रस्तुत किया है। वाल्मीकि ने भी।  इन्हीं के आधार पर राजा रवि वर्मा ने श्रीराम की तस्वीर बनाई जो विश्व में प्रचलित है। इसके अलावा गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका में भी श्रीराम और राम दरबार की तस्वीरें प्रकाशित हुआ करती थीं। कवर की दूसरी तरफ प्रकाशित इन चित्रों को बी के मित्रा, जगन्नाथ प्रसाद और भगवान नाम के तीन चित्रकार बनाया करते थे। इन चित्रों को लोग इतना पसंद करते थे कि उस पृष्ठ को काटकर फ्रेम करवा कर सहेज लेते थे। रामानंद सागर ने जब रामायण टीवी धारावाहिक का निर्माण किया था तो पंडित नरेन्द्र शर्मा की सलाह पर उन्होंने अपने पात्रों की वेशभूषा तय करने के पहले इन चित्रों का गहन अध्ययन किया था। इस वजह से रामायण धारावाहिक में टीवी पर ये पात्र आए तो ये लोक में व्याप्त छवि से मेल खाते हुए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्म आदिपुरुष के निर्देशक ने इस बात का ध्यान नहीं रखा। तकनीक के बल पर श्रीराम को सुपरमैन बना दिया। सौम्यता को आक्रामकता से विस्थापित करने का प्रयास हुआ।  

अयोध्या में जो टीजर जारी किया गया है उसमें रामसेतु पर लंका की ओर बढ़ते श्रीराम को दिखाया गया है। नेपथ्य से आवाज आती है, ‘आ रहा हूं मैं, आ रहा हूं मैं, न्याय के दो पैरों से अन्याय के दस सर कुचलने।‘रामकथा में तो इस तरह की आक्रामकता है ही नहीं। श्रीराम तो लंका की धरती पर पहुंचकर अपने सहयोगियों से पूछते हैं कि अब क्या करना चाहिए। इतने लोकतांत्रिक हैं श्रीराम। तुलसीदास लिखते हैं कि जब ये तय हो जाता है कि अंगद को दूत के रूप में रावण के दरबार में जाना है तो श्रीराम कहते हैं कि इस तरह से संवाद करना कि मेरा भी कल्याण हो और रावण का भी। वाल्मीकि ने लिखा है कि जब श्रीराम लंका की धरती पर पड़ाव डालते हैं तो रावण अपने जासूसों को उनके शिविर में भेजता है। श्रीराम के साथी रावण के उन जासूसों को पकड़ कर मारते पीटते हैं। जब श्रीराम को पता चलता है तो वो उनको वापस रावण के पास भेज देते हैं। ये जासूस भी रावण के पास पहुंचकर प्रभु श्रीराम की दयालुता का वर्णन करते हैं। राम के चरित्र के साथ आक्रामकता जोड़कर अकारण उनको सुपरमैन बनाने की कोशिश की गई है जबकि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वो कोई अफगानिस्तान से आनेवाले आक्रांता नहीं कि चीखते चिल्लाते युद्ध के लिए बढ़े जा रहे हैं। कहानी और संवाद लिखते समय राम के इस उद्दात चरित्र का ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक और निर्देशक ने दृश्यों को अति नाटकीय बनाने के चक्कर में श्रीराम की चारित्रिक विशेषताओं और गुणों का ध्यान नहीं रखा। ऐसा या तो अज्ञानता के कारण हुआ या विदेशी फिल्मों में तकनीक से पात्रों को आक्रामक और बलशाली दिखाने की नकल के कारण। 

दूसरा पात्र है रावण। जिसकी भूमिका में हैं अभिनेता सैफ अली खान। फिल्म आदिपुरुष के अंश में रावण को देखकर कुछ लोग ये कह रहे हैं कि ये रावण कम खिलजी ज्यादा लग रहा है। खितुलसीदास, वाल्लमीकिजी लगे या कोई और लेकिन रावण की लोक में प्रचलित छवि से बिल्कुल अलग है। रावण के गुणों के बारे में वाल्मीकि और तुलसीदास दोनों ने विस्तार से लिखा है। लंकेश इतना बड़ा और पराक्रमी राजा था कि उसने तीनों लोक को जीता था। वो बहुत बड़ा शिव भक्त था, तपस्वी था लेकिन अहंकारी था। फिल्म आदिपुरुष में जो रावण बनाया गया है वो अहंकारी तो बिल्कुल नहीं दिखता है, हां उसके चेहरे पर, उसकी संवाद अदायगी या हावभाव में कमीनापन अवश्य दिखता है। रावण अहंकारी अवश्य था लेकिन उसके कमीनेपन का चित्रण न तो वाल्मीकि ने किया है और न ही तुलसीदास ने। आदिपुरुष फिल्म के निर्देशक ने किस तरह से रावण के चरित्र को गढ़ा है, उनका सोच क्या था ये तो वही बता सकते हैं। लोक में व्याप्त लंकेश की छवि को इस तरह से भ्रष्ट करना और फिर उसका हास्यास्पद तरीके से बचाव करके फिल्म से जुड़े लोग अपनी अक्षमता को ढंकने का प्रयास कर रहे हैं। प्रभु श्रीराम और रामकथा के पात्रों को लेकर वाल्मीकि का जो सोच था या जो तुलसी की अवधारणा थी उसका शतांश भी इस फिल्म में नहीं दिखाई दे रहा है। फिल्म में हनुमान की वेशभूषा  को भी आधुनिक बनाने के चक्कर में निर्माता- निर्देशक ने क्या गड़बड़ियां की हैं ये फिल्म प्रदर्शित होने के बाद पता चलेगी। फिलहाल तो जो कुछ दृश्य है जिसको लेकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां भी गड़बड़ी हुई है।     

कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर पौराणिक आख्यानों के चरित्रों को इस तरह से प्रदर्शित कर अपमानित करने की छूट नहीं दी जा सकती है। लोक में व्याप्त छवि से छेड़छाड़ करके फिल्में सफल नहीं हो सकती हैं। कुछ दिनों पूर्व प्रदर्शित फिल्म सम्राट पृथ्वीराज में भी लोक में प्रचलित छवि से अलग दिखाया गया। परिणाम सबके सामने है। अगर उस फिल्म में चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने लोक में व्याप्त कथाओं के आधार पर पृथ्वीराज का चरित्र गढ़ा होता तो सफल हो सकते थे। चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने तो पृथ्वीराज रासो पर खुद को केंद्रित रखा लेकिन आदिपुरुष के लेखक और निर्देशक न तो वाल्मीकि के करीब जा सके और न ही तुलसी के। संभव है कि उन्होंने अंग्रेजी की कोई फिल्म देखी होगी और उनको लगा होगा कि तकनीक का प्रक्षेपण करके हिंदी में भी इस तरह की फिल्म बनाई जाए। इन दिनों हिंदू पौराणिक आख्यानों पर आधारित फिल्में दर्शकों को पसंद आ रही है। निर्माताओं ने सोचा होगा कि रामकथा को तकनीक के सहारे कहा जाए तो सफलता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त किए जा सकते हैं। इस फिल्म से जुड़े लोग ये भूल गए कि राम का जो उद्दात चरित्र भारतीय जनमानस पर अंकित है उसके विपरीत जाने से अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेगा। अगर गंभीरता से फिल्मकार काम करना चाहते थे तो उनको गीताप्रेस गोरखपुर स्थित लीला चित्र मंदिर जाकर वहां लगी तस्वीरों को देखना चाहिए था, इससे उनकी फिल्म के पात्रों को प्रामाणिकता मिलती और लोक को संतोष और उनको सफलता।    


Saturday, October 1, 2022

वैश्विक आयोजन की सार्थकता पर सवाल


विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर हिंदी जगत में चर्चा होती रहती है। 2018 में जब मारीशस में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था तो उस वक्त ही ये तय हो गया था कि अगला यानि 12वां विश्व हिंदी सम्मेलन फिजी में आयोजित होगा। चार वर्ष बीत जाने के बाद भी अबतक तिथि की आधिकारिक घोषणा नहीं हो पाई है। जोहानिसबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित हुआ था कि दो विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजन के बीच यथासंभव अधिकतम तीन वर्ष का अंतराल हो । इसके पहले ये व्यस्था थी कि विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजन के बीच कोई भी अंतराल निश्चित नहीं था । सरकारों की इच्छा और अफसरों की मर्जी पर विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन होता रहा है। आधिकिक घोषणा नहीं होने के कारण इस वर्ष के मध्य में चर्चा ने जोर पकड़ा था कि फिजी में होनेवाला विश्व हिंदी सम्मेलन इस वर्ष हिंदी दिवस यानि 14 सितंबर को आयोजित किया जा रहा है। 14 सितंबर की तिथि आई और निकल गई लेकिन इस आयोजन के बारे में अटकलें ही लगती रहीं। 

विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन विदेश मंत्रालय करता है। हिंदी दिवस के चार दिनों बाद विदेश मंत्रालय का एक पोस्टर ट्वीट किया गया जिसमें बारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन के लोगो डिजाइन प्रतियोगिता के आयोजन की घोषणा की गई थी। इसके बाद फिजी में आयोजित होनेवाली तिथियों को लेकर एक बार फिर से हिंदी समाज में अटकलें लगाई जाने लगीं। अब इस बात की संभावना जताई जा रही है कि फिजी में आयोजित होनेवाला विश्व हिंदी सम्मेलन फरवरी के मध्य में होगा। दरअसल भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की तरफ से किसी घोषणा के नहीं होने से इस तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। फरवरी के पहले एक बार इस बात की भी चर्चा हुई थी कि इस वर्ष दिसंबर में इस सम्मेलन का आयोजन हो सकता है। फिजी में इस वर्ष के अंत तक आम चुनाव होने हैं। फिजी की राजनीति को जाननेवालों का मत है कि अगर इस वर्ष वहां हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया जाता है तो इसको आमचुनाव में भारतवंशी राजनेताओं के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है। संभव है कि इन बातों के मद्देनजर ही भारत सरकार ने हिंदी सम्मेलन को अगले वर्ष फरवरी में करवाने की योजना बनाई हो। 

प्रश्न आयोजन की तिथियों को लेकर नहीं हैं। तिथियां तो सबकुछ देख समझकर तय कर दी जाएंगी। प्रश्न ये है कि फिजी में विश्व हिंदी सम्मेलन क्यों आयोजित हो रहा है। तर्क ये दिया जाता है कि फिजी में हिंदी भाषा भाषियों की संख्या अधिक है। फिजी की आधिकारिक भाषाओं में से एक हिंदी है। इसलिए फिजी में हिंदी सम्मेलन के आयोजन को लेकर उत्साह होगा, स्थानीय लोग भी हमारी भाषा से जुड़ाव महसूस करेंगे। लेकिन अगर गंभीरता से विचार करें तो ये तर्क उचित नहीं प्रतीत होते हैं। विश्व हिंदी सम्मेलन का प्राथमिक उद्देश्य पूरी दुनिया में हिंदी का प्रचार प्रसार और इस भाषा के प्रति अहिंदी भाषियों के मन में आकर्षण पैदा करना है। मारीशस, फिजी, सूरीनाम में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन करके हम किस तरह से इस सम्मेलन के उद्देश्यों को पूरा करने का उपक्रम कर रहे हैं, इसपर भारत सरकार विशेषकर विदेश मंत्रालय में इस आयोजन से जुड़े लोगों को विचार करना चाहिए।

अबतक 11 विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हो चुका है। पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 1975 में नागपुर में आयोजित हुआ था। तब से लेकर अबतक तीन बार मारीशस में, नागपुर के अलावा भोपाल और दिल्ली में, एक सूरीनाम में, एक त्रिनिदाद और टोबैगो में आयोजित हो चुका है। इसके अलावा लंदन , न्यूयार्क और जोहानिसबर्ग में आयोजन हुआ है। ग्यारह में से आठ तो हिंदी से परिचित और हिंदी मूल के लोगों को बीच ही विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ। यह विचारणीय है कि क्या विश्व हिंदी सम्मेलन के प्राथमिक उद्देश्य तक पहुंचने के लिए गंभीरता से प्रयास हो रहे हैं। हिंदी को वैश्विक स्तर पर लेकर जाने के लिए क्या ये उचित नहीं होता कि इसका आयोजन चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी आस्ट्रेलिया, इटली जैसे देशों में होता। इसका एक लाभ ये होता कि इन देशों की भाषाओं के साथ हिंदी का संवाद बढता और एक दूसरे की भाषा को जानने का अवसर भी प्राप्त होता। अनुवाद के अवसर भी उपलब्ध हो सकते थे जिससे हिंदी की कृतियों को वैश्विक मंच पर एक पहचान मिलती। विश्व हिंदी सम्मेलन भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अन्य देशों को बताने का एक मंच भी बन पाता। अगर समग्रता में इसकी योजना बनाकर कार्य किया जाए तो ये सम्मेलन भाषाई कूटनीति का एक माध्यम बन सकता है। विदेश मंत्रालय में तमाम विद्वान कूटनीतिज्ञ बैठे हैं और अगर वो गंभीरता से इस आयोजन को लेकर कोई नीति बनाएं तो निश्चित रूप से उसमें सफलता मिल सकती है। आवश्यकता सिर्फ अपनी भाषा हिंदी को मजबूत करने के लिए इच्छाशक्ति की है। 

1975 में जब पहली बार नागपुर में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था तब से ही ये सम्मेलन हिंदी के नाम पर ठेकेदारी करनेवालों की नजर में आ गया। उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस बात को समझा था और उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा को इस आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका दी थी। उस समय इस निर्णय को लेकर दिल्ली हिंदी प्रादेशिक साहित्य सम्मेलन से जुड़े गोपाल प्रसाद व्यास और काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सुधाकर पांडे नाराज हो गए थे। उनको लगा था कि इस तरह के आयोजन में उनकी भूमिका होनी चाहिए थी। बाद में सुधाकर पांडे, रत्नाकर पांडे और श्रीकांत वर्मा की तिकड़ी ने अपनी स्थिति मजबूत की और मारीशस में हुए दूसरे विश्व हिंदी सम्मेलन में केंद्रीय भूमिका में आ गए। उस वक्त के साहित्यकार एक बेहद मजेदार किस्सा सुनाते हैं। मारीशस जाने के लिए पत्रकार और दुनियाभर में रामायण सम्मेलनों के आयोजन से जुड़े लल्लन प्रसाद व्यास दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंचे। जब वो इमीग्रेशन की पंक्ति में खड़े थे तो उनके पास एक अधिकारी आया। उनको बताया गया कि उनके पासपोर्ट की जांच होनी है ताकि विदेश में उनको किसी प्रकार की कोई दिक्कत न हो। कहते हैं कि उनको पासपोर्ट तब वापस दिया गया जब मारीशस जानेवाले विमान का गेट बंद हो गया। कहा तो यहां तक जाता है कि कवि श्रीकांत वर्मा ने ही ये करवाया था। इस तरह की बातों का कोई प्रमाण नहीं होता। इसका भी नहीं है। जब विमान मारीशस के पोर्टलुई हवाई अड्डे पहुंचा तो उस समय के वहां के प्रधानमंत्री शिवसागर रामगुलाम स्वयं हिंदी सम्मेलन के प्रतिभागियों की अगवानी के लिए उपस्थित थे। उन्होंने प्रतिनिधिमंडल के सदस्य कर्ण सिंह से पूछा था कि लल्लन नहीं दिखाई दे रहे हैं। उनके पास कोई उत्तर नहीं था। लल्लन प्रसाद व्यास हिंदी सम्मेलन की तैयारियों के सिलसिले में तीन बार मारीशस जा चुके थे इसलिए शिवसागर जी उनके बारे में जानना चाहते थे। लल्लन को इस वजह से रोका गया क्योंकि वो पहले विश्व हिंदी सम्मेलन में आयोजक मधुकर राव चौधरी के साथ सक्रिय थे। उनको सबक सिखाना था। जबतक विश्व हिंदी सम्मेलन साहित्यकारों की राजनीति से मुक्त होकर भाषाई कूटनीति का माध्यम नहीं बनेगा तबतक इस आयोजन की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह लगते रहेंगे। इस वक्त देश के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पूरी दुनिया में भारत का सर गर्व से ऊंचा किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वो विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर भी कोई ऐसी ही युक्ति सोचेंगे जिससे हमारी राजभाषा के बारे में विदेश में एक उत्सुकता का वातावरण बने।