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Saturday, January 29, 2022

पद्म सम्मान पर सियासी विवाद


हर वर्ष गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर भारत सरकार पद्म सम्मानों की घोषणा करती है। पद्म सम्मान उन लोगों को दिया जाता है जो अपने अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करते हैं। ये राष्ट्रीय सम्मान है। पिछले कुछ वर्षों से पद्म सम्मान ऐसे लोगों को दिए गए हैं जिससे इस सम्मान की प्रतिष्ठा बढ़ी है। कई बार इस पुरस्कार पर राजनीतिक कारणों से विवाद उठते रहते हैं। इस वर्ष के पद्म सम्मानों की घोषणा को लेकर भी विवाद उठा। भारत सरकार ने इस वर्ष कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता और बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को पद्मभूषण से सम्मानित करने की घोषणा की। इस घोषणा के चंद घंटे के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य की पार्टी की तरफ बयान आया कि उन्होंने पद्म सम्मान लेने से मना कर दिया है। एक और समाचार भी बंगाल से ही आया। बंगाली की मशहूर गायिका और बंगाल की लता मंगेशकर कही जानेवाली संध्या मुखर्जी की बेटी की तरफ से एक बयान आया। उसमें कहा गया कि उनकी मां ने पद्मश्री सम्मान लेने से मना कर दिया है। उस बयान के मुताबिक जब गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने उनकी सहमति लेने के लिए फोन किया तो उन्होंने ये कहकर इंकार कर दिया कि 90 वर्ष की अवस्था में पद्मश्री उनके लिए अपमान जैसा है। ये सम्मान अपेक्षाकृत कम उम्र के कलाकार को दिया जाना चाहिए। यह उनकी राय है जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। जब पद्म सम्मानों की सूची जारी हुई तो उसमें संध्या मुखर्जी का नाम नहीं था। संध्या मुखर्जी की पुत्री की तरफ से दिए गए बयान से एक बात स्पष्ट होती है कि पद्म सम्मान के पहले गृह मंत्रालय के अधिकारी संबंधित व्यक्ति को फोन कर उनकी सहमति लेते हैं।

अब एक बार फिर से लौटते हैं बुद्धदेव भट्टाचार्य के मामले पर। बुद्धदेव भट्टाचार्य का नाम पद्म सम्मान के लिए घोषित सूची में आया। कुछ घंटे के बाद उनकी तरफ से उनकी पार्टी ने सम्मान के अस्वीकार करने की बात कही। सवाल यही उठता है कि क्या बुद्धदेव भट्टाचार्य को सम्मानित करने के फैसले के पहले उनकी सहमति नहीं ली गई। क्या गृह मंत्रालय के किसी अधिकारी ने बुद्धदेव भट्टाचार्य को फोन नहीं किया। जब पद्मश्री से सम्मानित करने के लिए संध्या मुखर्जी की सहमति के लिए उनको फोन किया गया तो यह मानने की कोई वजह नहीं है कि सरकार की तरफ से बुद्धदेव भट्टाचार्य को फोन नहीं किया गया होगा। इस वर्ष पद्म सम्मान से सम्मनित होनेवालों में फिल्म निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी का भी नाम है। उन्होंने बताया कि गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने उनको सूची जारी होने के पहले फोन किया और पूछा कि क्या आप सम्मान ग्रहण करने की स्वकृति देते हैं। जब चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने सहमति दी तो उस अधिकारी ने अपना फोन नंबर भी दिया और कहा कि अगर कोई बात हो उनको सूचित करें । सहमति के बाद ही द्विवेदी का नाम पद्मश्री सम्मान के लिए घोषित किया गया। सवाल ये उठता है कि यही प्रक्रिया बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ भी अपनाई गई होगी। उनकी सहमति के लिए भी फोन किया गया होगा। उनके पास भी गृह मंत्रालय के अधिकारी ने फोन नंबर छोड़ा होगा। तो फिर पद्मभूषण अस्वीकार करने की बात सूची में नाम आने के बाद क्यों की गई? क्या पहले सहमति दी गई और जब कम्युनिस्ट पार्टी को ये बात पता चली तो उन्होंने बुद्धदेव बाबू का निर्णय बदलवा दिया? मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके नेता इस तरह के द्वंद्व के शिकार होते रहे हैं

1996 में बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया गया था। उस वक्त भी पार्टी के नेताओं ने ज्योति बसु पर दबाव बनाकर उनसे प्रधानमंत्री का पद अस्वीकार करवा दिया था। तब सीपीएम क नेताओं ने तर्क दिए थे कि गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री बनकर ज्योति बसु मार्क्सवादी एजेंडे को लागू नहीं करवा पाएंगे। ज्योति बाबू ने पार्टी के अनुशासित कार्यकर्ता की तरह उस निर्णय को स्वीकार कर लिया था लेकिन मन मसोस कर। चंद महीने बाद ही ज्योति बाबू का दर्द छलक आया था। उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं के निर्णय को ऐतिहासिक भूल करार दिया था। ज्योति बाबू लंबे समय तक बंगाल के मुख्यमंत्री रहे, पार्टी के अनुशासित कार्यकर्ता रहे लेकिन इस मसले पर उन्होंने पार्टी की आलोचना की थी। कहा जाता है कि ज्योति बाबू ने एक ही बार पार्टी के निर्णय को सार्वजनिक रूप से गलत बताया था। बाद में सीपीएम के कई नेताओं ने पार्टी के उस फैसले से असहमति जताते हुए गलती मानी। दरअसल सीपीएम अपने स्थापना काल से ही द्वंद्वात्मक राजनीति का शिकार होती रही है। स्वाधीनता के आंदोलन में  जब बापू ने भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ किया था तब कम्युनिस्टों ने उसका विरोध किया था। इसी तरह से अमेरिका के साथ परमाणु करार के समय पार्टी की लाइन नहीं मानने पर सीपीएम ने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया था। ये हास्यास्पद फैसला था क्योंकि सोमनाथ चटर्जी उस समय लोकसभा के स्पीकर थे। स्पीकर किसी पार्टी का सदस्य नहीं होता है। बाद में सोमनाथ चटर्जी ने अपनी संस्मणात्मक पुस्तक कीपिंग द फेथ, मेमोयर्स आफ अ पार्लियामेंटेरियन में अपनी पूर्व पार्टी की द्वंद्वात्मक राजनीति पर विस्तार से लिखा। संभव है सीपीएम को कई सालों बाद बुद्धदेव के पद्मभूषण सम्मान लौटाने के फैसले पर अफसोस हो। 

दूसरा विवाद उठा गुलाम नबी आजाद पद्म भूषण से सम्मानित करने के निर्णय को लेकर। इस सूचना के सार्वजनिक होते ही कांग्रेस के नेता और पूर्व मंत्री जयराम रमेश ने बुद्धदेव भट्टाचार्य के पद्मभूषण अस्वीकार के एक ट्वीट को रिट्वीट करते हुए लिखा कि वो आजाद रहना चाहते हैं गुलाम नहीं। उनकी इस टिप्पणी को गुलाम नबी आजाद पर सीधा हमला माना गया। उसके बाद पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार, कपिल सिब्बल के साथ साथ पूर्व मंत्री कर्ण सिंह भी गुलाम नबी आजाद के समर्थन में आ गए। कर्ण सिंह ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा कि राष्ट्रीय सम्मान को पार्टी के अंदरुनी कलह से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। विवाद के बीच कांग्रेस के एक नेता ने तो दूरदर्शन पर हुई एक चर्चा में गुलाम नबी आजाद को गद्दार तक कह दिया। गुलाम नबी पर बीजेपी से साठगांठ का आरोप तक जड़ दिया। जब कि कांग्रेस के नेता ये भूल गए कि पिछले ही वर्ष कांग्रेस के नेता और असम के मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई को मरणोपरांत पद्म सम्मान से सम्मानित किया गया था। कांग्रेस के ही नेता रहे नगालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री एस सी जमीर को भी पद्मभूषण से सम्मानित किया जा चुका है। इन दोनों को सम्मानित करने पर तो कांग्रेस के नेताओं को कोई आपत्ति नहीं हुई। 

सवाल यह उठता है कि पद्म पुरस्कार को राजनीति के अखाड़े में क्यों घसीटा जाता है। पद्म पुरस्कार कोई दल या कोई व्यक्ति नहीं देता है। भारत के इस प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान को दलगत राजनीति से उपर उठकर देखा जाना चाहिए। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि पिछले कुछ सालों से जिस तरह के लोगों का चयन पद्म सम्मानों के लिए हो रहा है उसने इस सम्मान की प्रतिष्ठा बढ़ी है। उसको एक दो नामों के आधार पर विवादित करने या उसके आधार पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। आज पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। अमृत महोत्सव वर्ष में सभी दलों के नेताओं को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर समाज के अपने नायकों का सम्मान करना चाहिए। बुद्धदेव भट्टाचार्य या गुलाम नबी आजाद को पद्म सम्मान से सम्मानित करने के समावेशी निर्णय को स्वीकार करते हुए सभी दलों को सहिष्णुता का परिचय देना चाहिए था। 

Saturday, January 22, 2022

सम्राट अशोक पर अनावश्यक विवाद


बिहार के स्कूल में पढ़ाई के दौरान की एक स्मृति अबतक मानस पटल पर है। कक्षा में छात्रों से बात करते हुए हमारे प्राथमिक विद्यालय के मास्टर साहब कौवा और कान का उदाहरण देकर छात्रों को समझाया करते थे । वो हमेशा कहते थे कि अगर कोई कहे कि कौवा कान लेकर भाग गया तो कौवा के पीछे मत भागो पहले अपने कान को देखो। बिहार में इसका प्रयोग कहावत की तरह भी होता है। अपने गृह राज्य बिहार में सम्राट अशोक पर उठे विवाद के बाद अपने प्राथमिक विद्यालय के इस प्रसंग की लगातार याद आ रही है। बुजुर्ग लेखक दया प्रकाश सिन्हा को उनके नाटक सम्राट अशोक के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया। उनपर आरोप है कि उन्होंने सम्राट अशोक की तुलना मुगल आततायी औरंगजेब से की। उनके खिलाफ भारतीय जनता पार्टी के बिहार के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने केस दर्ज करवाया। अपनी शिकायत में उन्होंने आरोप लगाया है कि पुस्तक में सम्राट अशोक की तुलना औरंगजेब से की गई है। यह आश्चर्य का विषय है कि दया प्रकाश सिन्हा ने अपनी पुस्तक सम्राट अशोक में कहीं भी औरंगजेब का नामोल्लेख तक नहीं किया है। अब कोई ये बताए कि बगैर नामोल्लेख के अशोक की तुलना औरंगजेब से कैसे की जा सकती है। सिर्फ भारतीय जनता पार्टी ही नहीं बल्कि जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नेता उपेन्द्र कुशवाहा भी दया प्रकाश सिन्हा से पद्मश्री और साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लेने की मांग कर रहे हैं। उपेन्द्र कुशवाहा इन दिनों जेडीयू में हैं इसके पहले वो इस पार्टी में आते जाते रहे हैं। उपेन्द्र कुशवाहा 2014 से लेकर करीब चार साल तक केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) में राज्यमंत्री रह चुके हैं। उपेन्द्र कुशवाहा इस बात से खिन्न हैं कि दया प्रकाश सिन्हा ने सम्राट अशोक के बारे में आपत्तिजनक बातें लिखी हैं। 

दया प्रकाश सिन्हा ने अपने नाटक जिन बातों का उल्लेख किया है उसके बारे में इतिहासकार लंबे समय से लिखते रहे हैं। ए एल बैशम, राम शरण शर्मा, रोमिला थापर, डी एन झा, के एम श्रीमाली से लेकर रमाशंकर त्रिपाठी तक ने अपनी पुस्तकों में इन बातों का उल्लेख किया है। करीब चार साल तक उपेन्द्र कुशवाहा केंद्र में शिक्षा राज्य मंत्री रहे ।उनके मातहत एक संस्था है राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद। यहां से राम शरण शर्मा लिखित ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक एनसिएंट इंडिया प्रकाशित है। इसकी पृष्ठ संख्या 100-01 पर इस बात का उल्लेख है कि बौद्ध परंपरा के अनुसार अशोक अपनी आरंभिक जिंदगी में बहुत निर्दयी था और उसने राजगद्दी पाने के लिए अपने 99 भाइयों की हत्या की थी। हलांकि लेखक ये भी कहते हैं कि ये गलत भी हो सकता है क्योंकि बौद्ध लेखकों ने उनकी जीवनी में कई काल्पनिक बातें डाली हैं। सवाल ये उठता है कि अगर ये तथ्य गलत थे तो इसका उल्लेख क्यों किया गया ? छात्रों को सालों से ये क्यों पढाया जा रहा है? शिक्षा राज्य मंत्री रहते हुए उपेन्द्र कुशवाहा ने इसको पाठ्य पुस्तक से हटवाने का उपक्रम क्यों नहीं किया? 

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी माध्यम कार्यन्वयन निदेशालय की एक पुस्तक है प्राचीन भारत का इतिहास। इस पुस्तक के संपादक हैं इतिहासकार डी एन झा और के एम श्रीमाली। इस पुस्तक के एक लेख के अनुसार, अशोक के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के प्रमुख साधन उसके शिलालेख तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेख हैं। किंतु ये अभिलेख अशोक के प्रारंभिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इनके लिए हमें संस्कृत तथा पालि में लिखे हुए बौद्ध ग्रंथों पर निर्भर करना पड़ता है। परंपरानुसार अशोक ने अपने भाइयों का हनन करके सिंहासन प्राप्त किया था (पृ. संख्या 178)। ये पुस्तक पहली बार 1981 में प्रकाशित हुई थी। क्या शिक्षा राज्य मंत्री रहते हुए उपेन्द्र कुशवाहा ने दिल्ली विश्वविद्यालय को इस सबंध में कोई आपत्ति पत्र भेजा था। पहली बार 1942 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ एनशिएंट इंडिया में रमा शंकर त्रिपाठी भी लिखते हैं कि सिंहली परंपराओं के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या करने और खून की नदियां बहाकर गद्दी हासिल की थी। त्रिपाठी भी इस बात का उल्लेख करते हैं कि कुछ विद्वानों को इस पर संदेह है। अपनी पुस्तक ‘द वंडर दैड वाज इंडिया’ में इतिहासकार ए एल बैशम भी बौद्ध सूत्रों के आधार पर लिखते हैं कि अशोक ने विरोधियों की हत्या करके गद्दी हथियाई थी। एक तानाशाह के रूप में अपना शासन किया था (पृ संख्या 53)। बैशम भी यहां जोड़ते हैं कि अशोक के शिलालेखों में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता । 

रोमिला थापर ने 1963 में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम है ‘अशोक एंड द डिक्लाइन आफ द मौर्याज’। ये आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित है। अपनी इस पुस्तक में रोमिला थापर ने अशोक के बारे में विस्तार से लिखा है। इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 20 से लेकर 30 तक में रोमिला थापर ने विभिन्न बौद्ध सूत्रों के आधार पर अशोक के बारे में विस्तार से लिखा है। रोमिला थापर लिखती हैं कि अशोक अपने आरंभिक दिनों में सुंदर नहीं दिखते और उनके पिता बिंदुसार उनको पसंद नहीं करते थे। बाद के पृष्ठों पर लिखा है कि दिव्यावदान के मुताबिक जब अशोक के पिता बिंदुसार की मृत्यु हो रही थी तो वो अपने पुत्र सुसीम को राजा बनाना चाहते थे लेकिन उनके मंत्रियों ने अशोक को गद्दी पर बिठा दिया। महावंस और दीपवंस के अनुसार अशोक ने बिंदुसार की अन्य पत्नियों से जन्मे अपने 99 भाइयों की हत्या करवाई। तारानाथ के अनुसार अशोक ने अपने जीवन के आरंभिक वर्ष आनंद और मनोरंजन में व्यतीत किए जिसकी वजह से उनको कामाशोक आदि कहा गया। अपनी इस पुस्तक में रोमिला थापर ने विस्तार से अशोक के स्वभाव, महिलाओं के प्रति उनके व्यवहार,परिवार के सदस्यों के आपसी संबंधों आदि को बौद्ध सूत्रों के आधार पर पाठकों के समक्ष रखा है। रोमिला थापर की इस पुस्तक के दस से अधिक रिप्रिंट हो चुके हैं। रोमिला थापर ने ये पुस्तक 1963 में लिख दी थी अन्यथा अब तो उनको भी केस मुकदमा झेलना पड़ता।

इस देश में तो भगवान राम के बारे में भी जाने लोग क्या क्या कहते रहे हैं। सीता निर्वासन के प्रसंग को लेकर फूहड़ बातें भी लिखी गईं। एम एफ हुसैन तो देवी देवताओं के नग्न चित्र तक बनाते रहे। महात्मा गांधी के बारे में कितनी तरह की बातें कही जाती रही हैं। करीब दस साल पहले तेलुगू के एक लेखक वाई लक्ष्मण प्रसाद को साहित्य अकादमी ने उनकी पुस्तक द्रौपदी पर पुरस्कृत किया था। उस पुस्तक में द्रौपदी को लेकर अमर्यादित टिप्पणी की गई थी। भाषा बेहद निम्न स्तर की थी। जब इन मसलों का विरोध होता था तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों के पेट में दर्द होने लगता था। चूंकि दया प्रकाश सिन्हा कभी भारतीय जनता पार्टी से जुड़े रहे हैं तो अभिव्यक्ति के सारे पहरेदार अचानक खामोश हो गए हैं। दया प्रकाश सिन्हा ने अपने नाटक में सम्राट अशोक के बारे में कोई नई बात नहीं बात लिखी है। इतिहासकार ये लिखते रहे हैं।उनके विरोध की वजह अकादमिक न होकर राजनीतिक प्रतीत होती है। क्या बिहार की राजनीति में कुछ नया घटित होनेवाला है जिसकी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है या उपेन्द्र कुशवाहा अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए इस मुद्दे को हवा दे रहे हैं। इतिहास अशोक को सम्राट अशोक मानता है और अंग्रेजी में उनको ‘अशोक द ग्रेट’ कहा जाता है। उनके बारे में तमाम तरह के तथ्य खुलेंगे लेकिन अशोक ने जिस तरह से ‘दिग्विजय’ के स्थान पर ‘धम्मविजय’ के सिद्धांतों को अपनाया वो अतुलनीय है। 

Saturday, January 15, 2022

साहित्य में दयनीय महानता का दौर


इन दिनों हिंदी साहित्य में एक अजीब किस्म का सन्नाटा दिखाई देता है। कुछ रचनाकार कई बार अपने लेखन से तो कई बार अपनी टिप्पणियों से इस सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश करते हैं। वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा नियमित तौर पर फेसबुक पर कोई टिप्पणी लिखकर साहित्य के ठहरे पानी में कंकड़ फेंकती रहती हैं। कई बार उस पर विवाद भी होता है। बीच-बीच में लेखक संगठनों के नाम पर कुछ नए पुराने लेखक अपील आदि जारी करते रहते हैं लेकिन उसका भी कहीं कोई असर दिखाई नहीं देता है। ऐसी अधिकतर अपील किसी न किसी चुनाव के पहले ही जारी की जाती हैं। अब तो इसका असर इंटरनेट मीडिया पर भी नहीं होता।  जमीनी स्तर पर तो शायद अपील पहुंचती भी नहीं है। कुछ ऐसे भी लेखक हैं जो साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में फासीवाद को लेकर चिंतित ही नहीं रहते हैं बल्कि उसके खतरों से लोगों को आगाह भी करते रहते हैं। उधर सरकार के विभिन्न मंत्रालय और विभाग साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में वैचारिक विरोधियों को लगातार स्थान देती रहती है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय की पत्रिका आजकल के आवरण पर धुर वामपंथी कवि की तस्वीर छपती है। इसके पहले भी वामपंथी विचारधारा के लेखकों के चित्र आजकल पत्रिका के आवरण पर नियमित तौर पर छपते रहे हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार मोदी सरकार के घोषित विरोधियों को दिया जाता है। फिल्म फेस्टिवल से लेकर युवा महोत्सव तक में सरकार विरोधियों की फिल्में और वक्ता के तौर पर उनको आमंत्रित करके सरकार लगातार अपने लोकतांत्रिक होने का प्रमाण देने में जुटी है। बावजूद इसके विचारधारा विशेष के लेखकों को 2014 के बाद से ही फासीवाद का डर सता रहा है। 

अब वामपंथियों में एक नई प्रवृत्ति स्पष्ट दिखने लगी है। पहले वो अपनी विचारधारा से संबद्ध राजनीतिक दलों के लिए काम करते थे । पिछले तीन चार साल से हो रहे चुनावों में वामपंथी दलों की हालत बहुत खराब हो गई है। अब अधिकतर वामपंथी लेखकों को कांग्रेस में संभावना नजर आने लगी। वामपंथी लेखक अब खुलकर कांग्रेस पार्टी के लिए काम करते हुए नजर आने लगे हैं। इंटरनेट मीडिया पर उनके लिखे को देखने से ये स्पष्ट हो जाता है। उनको अब इंदिरा गांधी के फासीवाद की बिल्कुल याद नहीं आती। उनको आपातकाल के दौर की ज्यादातियों की भी याद नहीं आती। निर्मल वर्मा ने तमिल लेखक पी कृष्णन से एक बातचीत में स्पष्ट रूप से इंदिरा गांधी की फासीवादी नीतियों और हिंदी के लेखकों पर अपनी राय रखी थी। निर्मल वर्मा ने कहा था, सबसे अधिक चौंकानेवाली बात थी इंदिरा गांधी की अलोकतांत्रिक तथा अत्याचारी नीतियों का बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा जरा भी विरोध न किया जाना। वैसे तो इंदिरा गांधी की तानाशाही हल्की थी लेकिन इस हल्के संस्करण ने भी  हमारे बुद्धिजीवी वर्ग को खासा भयभीत कर दिया था और उन्होंने घुटने टेक दिए थे। इस क्रम में निर्मल ने रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती तक का नाम लिया था। निर्मल ने बहुत कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा था कि उन्हें इस बात का अंदाज नहीं था कि हिंदी के बड़े साहित्यकार इतने भंगुर और सारहीन सिद्ध होंगे। अब जब वामपंथी लेखक भय से नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से इंदिरा गांधी की विरासत की प्रशंसा कर रहे हैं। संभव है इस वजह से प्रभाव नहीं पैदा कर पा रहे हैं। 

साहित्य के राजनीतिक दांवपेंच से अलग हटकर अगर रचनात्मक स्तर पर भी देखें तो हिंदी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य बहुत आशाजनक नहीं लगता है। अब भी वरिष्ठ और बुजुर्ग साहित्यकार ही अपनी सक्रियता से रचनात्मक संसार को जीवंत बनाने के प्रयास में लगे हुए हैं, लेकिन उनकी अपनी सीमाएं हैं। हिंदी के अधिकतर युवा लेखक आत्ममुग्धता के शिकार हो गए हैं। छोटे-मोटे उपन्यास लिखनेवाले भी खुद को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानने लगा है। उसकी अपेक्षा भी होती है कि साहित्य समाज उनको प्रेमचंद से अधिक सम्मान भी दे। इसी अहंकार में वो आलोचना से लेकर समीक्षा विधा को खारिज करने लगते हैं। इंटरनेट माध्यम पर होनेवाली फूहड़ या प्रशंसात्मक चर्चा को सत्य मानकर वो अपनी कृति को महान समझ लेते हैं। कवियों के तो कहने ही क्या, वो तो खुद की रचनाओं पर मुग्ध रहते ही हैं। साहित्य के इस दौर को देखकर एक मित्र की टिप्पणी सटीक लगती है। उसने एक दिन कहा था कि हिंदी साहित्य में ये दयनीय महानता का दौर है। ,

आज अगर हिंदी साहित्य में किसी प्रकार का कोई विमर्श नहीं हो रहा है तो उसके पीछे के कारणों की पहचान करनी होगी। राजेन्द्र यादव से हमारा वैचारिक स्तर पर काफी विरोध रहता था लेकिन उनकी इस बात के लिए उनके विरोधी भी प्रशंसा करते थे कि वो साहित्य में अछूते प्रश्न उठाते थे। नामवर सिंह धुर वामपंथी थे, कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके थे लेकिन जब वो लिखते थे तो उससे साहित्य जगत में हलचल होती थी, उनके लिखे के पक्ष विपक्ष में बातें होती थीं। अशोक वाजपेयी भी जबतक वामपंथ की राजनीति में नहीं उलझे थे तबतक उनके लेखन में एक वैचारिक उष्मा होती थी। इनके बाद की पीढ़ी में भी देखें तो ज्ञानरंजन से लेकर रवीन्द्र कालिया तक के लेखन में कुछ ऐसे तत्व अवश्य होते थे जो पाठकों के बीच चर्चा की वजह बनते थे। नरेन्द्र कोहली के लेखन में लगातार प्रयोग होते थे जो पाठकों को नई तरह से सोचने का आधार देते थे। कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद को समझने की नई दृष्टि हिंदी साहित्य जगत को दी। इन लोगों में अहंकार नहीं था और वो अपने पूर्वज लेखकों को कभी खारिज नहीं करते थे। उनको साहित्य की परंपरा का भी ज्ञान था और उसपर वो गुमान भी करते थे। कविता में भी देखें तो आधुनिक काल के कवियों ने काफी प्रयोग किए। स्वाधीनता के बाद भी कवियों ने अपनी लेखनी के माध्यम से भारतीय समाज की जड़ता पर प्रहार किया। आज ज्यादातर कविताएं गद्य में लिखी जा रही हैं। पहले कवियों पर संपादक नाम की संस्था का एक फिल्टर होता था लेकिन अब इंटरनेट मीडिया ने उस फिल्टर को समाप्त कर दिया। परिणाम यह हो रहा है कि कविता के नाम पर अंट शंट लिखा जा रहा है। लेकिन अहंकार इतना कि खुद को दिनकर और बच्चन से कम मानने को राजी नहीं। 

एक जमाना होता था जब साहित्यकारों की निजी गोष्ठियां हुआ करती थीं। जिसमें साहित्य की प्रवृत्तियों से लेकर नए लिखे जा रहे पर चर्चा होती थी। लोग खुलकर नई रचनाओं पर अपनी बातें रखते थे। आलोचना या प्रशंसा दोनों होती थी। इसमें बैठनेवाले वरिष्ठ साहित्यकार नए लेखकों की टिप्पणियों को ध्यान से सुनते थे और अगर आवश्यकता होती थी तो उसमें सुधार भी करते थे। इसका फायदा ये होता था कि नए लेखकों की समझने की दृष्टि का विस्तार होता था।  इंटरनेट मीडिया के विस्तार के बाद इस तरह की गोष्ठियां कम हो गईं। लोगों में पढ़ने की भी आदत कम होती जा रही हैं। रचनाओं पर टिप्पणी के स्थान पर लाइक के बटन अधिक दबने लगे हैं। दूसरी एक बात जो युवा लेखकों में देखने को मिल रही है कि वो अपनी लेखकीय परंपरा से अनजान हैं, उनको इस बात का भान ही नहीं है कि वो जिस भारतीय लेखन परंपरा में आना चाह रहे हैं वो कितना समृद्ध है। जब अपनी परंपरा के वैराट्य का अनुमान नहीं होता है तो व्यक्ति अहंकार का शिकार हो जाता है। उसको लगता है कि उसने जो लिख दिया है वही सबसे अच्छा है। युवा लेखकों को अपनी इस कमी को दूर करना होगा तभी जाकर हिंदी साहित्य जगत का वैचारिक सन्नाटा दूर होगा।  

Saturday, January 8, 2022

भाषा के बीच की खाई भरती फिल्में


कोरोना की तीसरी लहर के आरंभ होने के पहले एक बड़ी हिंदी फिल्म रिलीज हुई, जिसका नाम है 83। रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण जैसे बड़े सितारों और कबीर खान जैसे निर्देशक के होने के बावजूद यह फिल्म बुरी तरह असफल रही। इतनी बड़ी स्टार कास्ट के बावजूद फिल्म का लागत भी नहीं निकाल पाना कई सवाल खड़े करता है। फिल्म समीक्षकों ने इस फिल्म को चार उसके अधिक स्टार दिए थे, लेकिन ये फिल्म नहीं चली। समीक्षा को फिल्म की सफलता से नहीं जोड़ा जा सकता है। मुझे याद है मैं बहुत छोटा था तब फिल्म शोले रिलीज हुई थी। उसकी प्रकाशित समीक्षा का शीर्षक अबतक याद है। शीर्षक था, शोले जो भड़क न सका। शोले ऐसा भड़का कि उसने सफलता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए थे। फिल्म 83 को समीक्षकों ने सर पर चढ़ाया लेकिन दर्शकों पर जादू नहीं चल सका। कुछ लोगों का तर्क है कि फिल्म 83, जो कि 1983 में भारत के क्रिकेट विश्व कप जीतने पर आधारित है, का क्लाइमैक्स दर्शकों को मालूम है इस वजह से फिल्म नहीं चली। इस तरह के तर्क देनेवालों के सामने रामलीलाओं के मंचन का उदाहरण है। रामलीला का क्लाइमैक्स सभी को पता है। बावजूद इसके रामलीला में भारी भीड़ उमड़ती है। इसलिए यह तर्क सही प्रतीत नहीं होता है कि क्लाइमैक्स पता होने की वजह से फिल्म नहीं चली। कुछ लोगों का तर्क है कि लोग क्रिकेट देखने सिनेमा हाल में नहीं जाते हैं और निर्देशक ने फिल्म में क्रिकेट बहुत अधिक दिखाई है। अलग अलग लोग अलग अलग तर्क। पर मुझे लगता है कि इसपर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या दिल्ली के जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रदर्शनकारियों के साथ खड़ी दीपिका की तस्वीर अब भी दर्शकों के मन पर अंकित है?  2020 के जनवरी में दीपिका की फिल्म छपाक आई थी तब वो अपने फिल्म के प्रमोशन को ध्यान में रखते हुए दीपिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रदर्शनकारी छात्रों के साथ जाकर खड़ी हो गई थी। तब उनकी फिल्म छपाक पिट गई थी। अब एक बार फिर 83 में दीपिका की उपस्थिति और फिल्म का असफल होना, कहीं कोई संकेत तो नहीं है? अगर ये संकेत सही है तो फिल्मी दुनिया के कलाकारों को सावधान हो जाना चाहिए। उनको ये बात समझ में आ जानी चाहिए कि फिल्म और राजनीति दोनों अलग अलग हैं। दोनों का घालमेल नुकसान पहुंचा सकता है।  

इसी समय एक दूसरी फिल्म आई पुष्पा, जो मूलरूप से तेलुगू में बनी है। इस फिल्म को हिंदी में डब करके रिलीज की गई। इस फिल्म को दर्शकों ने खूब पसंद किया। इसके नायक अल्लू अर्जुन हैं। फिल्म भले ही एक्शन ड्रामा है लेकिन पूरा परिवेश दक्षिण भारतीय है, फिर भी हिंदी के दर्शकों को भाया। इस फिल्म को दर्शकों ने 83 से अधिक पसंद किया। कमाई भी अधिक रही। वजह है फिल्म की कहानी और उसको कहने का अंदाज। पुष्पा फिल्म के निर्देशक सुकुमार ने फिल्म 83 के निर्देशक कबीर खान से बेहतर तरीके से अपनी कहानी को दर्शकों के सामने रखी। दर्शकों ने उसको पसंद किया। कबीर खान फिल्म 83 को भव्य और ग्लैमरस बनाने के चक्कर में कहानी को यथार्थ से दूर ले गए। नतीजा यह हुआ कि दर्शकों ने फिल्म को नकार दिया। दंगल हो या फिर सुल्तान दोनों फिल्में भव्य भी थीं, ग्लैमर भी था लेकिन निर्देशक ने यथार्थ की डोर नहीं छोड़ी। दूसरी एक बात जो फिल्म 83 को अति साधारण फिल्म बना देती है वो यह कि इस फिल्म से दर्शकों की भावनाएं नहीं जुड़ पाई। 1983 की विश्व कप जीत के बाद पैदा और जवान हुई पीढ़ी खुद को इस फिल्म के साथ आईडेंटिफाई नहीं कर पाई। निर्देशक इसमें चूक गए। फिल्म चक दे इंडिया के निर्देशक शमित अमीन अपनी फिल्म को दर्शकों की संवेदना से जोड़ने में सफल रहे थे। फिल्म भी सुपरहिट रही थी। 

फिल्म 83 के फ्लॉप होने की को दर्शकों की बदलती पसंद से जोड़कर भी देखा जा सकता है। ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म के लोकप्रिय होने के बाद से फिल्मी सितारों से अधिक लोग कहानी को पसंद करने लगे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अगर इसी तरह चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हिंदी फिल्मों से स्टार और सुपरस्टार वाली व्यवस्था खत्म हो जाएगी । दरअसल ओटीटी ने दर्शकों की रुचि का विस्तार किया है। अब हिंदी भाषी दर्शक अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्में अपेक्षाकृत अधिक देखने लगे हैं। ओटीटी के पहले ये विकल्प मौजूद नहीं था। पहले होता ये था कि तमिल भाषा की फिल्म सिर्फ तमिलनाडु या पडुचेरी में दिखाई जाती थी। अन्य प्रदेशों में उसको दिखाने के लिए उस प्रदेश की भाषा में डब करना पड़ता था। एक दौर में टीवी पर दक्षिण भारतीय भाषाओं की हिंदी में डब की गई फिल्में खूब दिखाई जाती थीं। ओटीटी के प्रचलन में आने के बाद से अब दर्शक मूल भाषा में फिल्में देखना पसंद करने लगे हैं। अभी पिछले दिनों एक रिपोर्ट आई थी जिसमें ये बताया गया था कि मलयालम में बनी फिल्म को केरल के बाहर के दर्शकों ने अधिक देखा। अब मलयालम या मराठी फिल्मों को गैर मलयाली और गैर मराठी दर्शक भी देख रहे हैं। जिनको पहले क्षेत्रीय फिल्में कहा जाता था आज वो मुख्यधारा की फिल्में बन रही हैं। अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा हो या मलयाली फिल्म कुरुथी हो या फिर तमिल फिल्म सरपता परमबराई हो। इन सबकी सफलता ने ये साबित किया है कि क्षेत्रीय फिल्में अपनी भौगोलिक सीमा से बाहर निकलकर दूसरी भाषा के लोगों को भी पसंद आ रही हैं। अमेजन प्राइम वीडियो के एक अधिकारी का बयान प्रकाशित हुआ था कि तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ फिल्म के पाचस प्रतिशत दर्शक उनके अपने प्रदेशों के बाहर के होते हैं। भाषाई फिल्मों की व्याप्ति बढ़ने से जो सबसे महत्वपूर्ण घटित हो रहा है वो ये कि भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्यता कम हो रही है। हिंदी को लेकर अन्य भारतीय भाषा के कुछ लोगों के मन में जो दुर्भाव था वो कम हो रहा है। जब इस तरह के लोग ये जानते पढ़ते हैं कि हिंदी भाषी लोग अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को उनसे अधिक संख्या में देख रहे हैं तो उनके मन से हिंदी प्रति दुर्भावना कम या खत्म हो रही है। इस तरह से अगर हम देखें तो भाषाई वैमनस्यता दूर करने में फिल्में अब बड़ी भूमिका निभा रही हैं।ये बहुत बड़ी बात है। 

अपनी तमाम कमियों और राजनीतिक एजेंडा के बावजूद ओटीटी पर दिखाई जानेवाले कंटेट ने मनोरंजन की दुनिया को पहले से अधिक समावेशी बनाया है। अब फिल्मों में पहले की अपेक्षा अधिक प्रयोग हो रहे हैं। एक और बात जो रखांकित की जानी चाहिए वो ये कि ओटीटटी पर भारतीय फिल्मों को वैश्विक दर्शक भी मिलने लगे हैं। इसके भी कई फायदे हैं। अब वैश्विक मंचों पर भारतीय फिल्मों की चर्चा होने लगी है। पूरी दुनिया का ध्यान भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की ओर जाने लगा है। भारत कहानियों का देश है, कथावाचकों का देश है। कहानियां भी हैं और कहने का अलग अलग अंदाज भी है। कहने के विविध अंदाज को भी वैश्विक दर्शक मिले हैं। कोरोना के संकट ने एक बार फिर से सिनेमा हाल के जरिए फिल्म के व्यवसाय को बाधित किया है। फिर से फिल्मों के ओटीटी पर दिखाने का दौर आरंभ होगा। ओटीटी पर आनेवाली फिल्मों के निर्माता और निर्देशकों को भारतीय दर्शकों की रुचियों में आ रहे बदलाव का ध्यान रखना होगा। कहानी को यथार्थ के रास्ते पर चलाकर ही प्रयोग करने होंगे। सफलता की कुंजी वहीं हैं।  


Saturday, January 1, 2022

रचनात्मकता से भरपूर होगा नववर्ष


नववर्ष 2022। हिंदी साहित्य और प्रकाशन जगत को इस वर्ष से बहुत उम्मीदें हैं। समकालीन साहित्यिक और प्रकाशन परिदृश्य से जिस तरह का समाचार प्राप्त हो रहा है वो बेहद उत्साहजनक है। इस समय हिंदी साहित्य में कई पीढ़ियां एक साथ सृजनरत हैं। एक तरफ रामदरश मिश्र और विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे बुजुर्ग लेखक हैं तो दूसरी तरफ नवीन चौधरी और भगवंत अनमोल जैसे युवा लेखक अपनी रचनाशीलता से हिंदी साहित्य जगत की रचनात्मकता को जीवंत रखे हुए हैं। इनके बीच में यतीन्द्र मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ, रजनी गुप्त, रत्नेश्वर और संजय कुंदन की पीढ़ी के लेखक भी लगातार लिख रहे हैं। मैत्रेयी पुष्पा और उषाकिरण खान की भी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। हिंदी साहित्य की रचनाशीलता के हिसाब से ये वर्ष बेहद आश्वस्तिकारक लग रहा है। वाणी प्रकाशन से वरिष्ठ लेखिका पुष्पा भारती की एक महत्वपूर्ण पुस्तक का प्रकाशन इस वर्ष होगा जिसका नाम है अमिताभ बच्चन एक जीवनगाथा। पुष्पा भारती हिंदी की समर्थ लेखिका और धर्मवीर भारती की पत्नी हैं। धर्मवीर भारती और हरिवंशराय बच्चन के परिवार में निकटता रही है। पुष्पा भारती ने अमिताभ बच्चन के संघर्ष और सफलता को बहुत करीब से देखा है। उनके इस पुस्तक की साहित्य जगत को उत्सुकता से प्रतीक्षा है। हिंदी फिल्मों से जुड़े एक और व्यक्तित्व पर पुस्तक इस वर्ष प्रकाशित होगी। गीतकार, पटकथा लेखक और निर्देशक गुलजार के जीवन पर यतीन्द्र मिश्र की बहुप्रतीक्षित पुस्तक का प्रकाशन भी वाणी प्रकाशन से ही होगा। यतीन्द्र मिश्र ने हिंदी में पुस्तक लेखन की एक शैली विकसित की है जिसमें वो किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से लंब समय तक बातचीत रिकार्ड करते हैं फिर उसके आधार पर पुस्तक लिखते हैं। गुलजार से भी यतीन्द्र पिछले 15 साल से उनके जीवन और फिल्मों पर बातचीत रिकार्ड कर रहे थे। पिछले दो साल से वो इसको पुस्तक का स्वरूप देने में लगे थे। अब इस वर्ष उसका प्रकाशन होता दिख रहा है। यतीन्द्र मिश्र के मुताबिक इस पुस्तक में गुलजार और उनकी कला के बारे में, उनके कवि रूप के बारे में पाठकों को कई नई जानकारियां मिलेंगी। गुलजार ने जो फिल्में बनाई हैं या जो गीत लिखे हैं उसमें उन्होंने अनेक प्रयोग किए हैं। यतीन्द्र ने उन प्रयोगों को अपनी इस पुस्तक में संजोया है। 

इक्कसवीं शताब्दी के आरंभ में हिंदी में कई महत्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुए थे। इसमें मैत्रेयी पुष्पा का अल्मा कबूतरी, चित्रा मुद्गल का आवां, असगर वजाहत का कैसी आगी लगाई आदि प्रमुख हैं। उसके बाद भी उपन्यासों का प्रकाशन होता रहा लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उपन्यास लेखन कम हुआ। नई वाली हिंदी के सत्य व्यास ने अपने उपन्यासों से हिंदी साहित्य जगत में एक सार्थक हस्तक्षेप किया। लेकिन लंबे समय तक याद रखे जानेवाले उपन्यासों की कमी को आलोचक लगातार रेखांकित करते रहे। इस वर्ष कई महत्वपूर्ण उपन्यास आनेवाले हैं। एक तो चित्रा मुदगल का उपन्यास नकटौरा जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाश्य है। लड़के के विवाह के लिए जब घर के पुरुष बारात चले जाते थे तो उस रात को घर की स्त्रियां नकटौरा आयोजित करती थीं। इसमें पास पड़ोस की स्त्रियां भी शामिल होती थीं। इसमें स्त्रियां एक तरह से स्वांग रचाती थीं और अपने मन की बातें किया करती थीं। कुछ महिलाएं, पुरुष का वेश बनाकर संवाद किया करती थीं। इसमें स्त्रियां उन प्रसंगों की चर्चा भी करती थीं जो आमतौर पर वो नहीं करती थीं। गाली से लेकर स्त्री पुरुष संबंध भी नकटौरा का विषय हुआ करती थी। नकटौरा में सिर्फ महिलाएं ही हुआ करती थीं। परंपरा ये थी कि जब सारे पुरुष बारात चले जाते थे तो नकटौरा के बहाने महिलाएं सारी रात जागती थीं ताकि किसी प्रकार की चौरी आदि की घटनाएं न हों। कुछ सालों पहले तक ये बेहद चर्चित परंपरा थी। चित्रा मुदगल के उपन्यास के नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इस पंरपरा को ही केंद्र में रखकर लिखा है। इस उपन्यास के कवर पर लिखा है कि हमारा समाज जैसा दिखाई पड़ता है वैसा है नहीं। वह अपने तमाम दुर्गुणों , विकृतियों, विडंबनाओं और विद्रूपताओं के बावजूद मनुष्यता के उच्चतम मूल्यों की परंपरा को पुरस्कृत करनेवाली विरासत का उत्तराधिकारी भी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि चित्रा मुदगल ने नकटौरा के बहाने अपने विरासत में से सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को खोजकर पाठकों के लिए पेश किया होगा। 

चित्रा मुदगल  के अलावा राजकमल प्रकाशन समूह से ह्रषिकेश सुलभ का एक उपन्यास दातापीर भी इस वर्ष प्रकाशित होगा। इस उपन्यास में सुलभ ने कब्रिस्तान में काम करनेवालों को केंद्र में रखा है। उस उपन्यास में पटना शहर के पुराने इलाकों की भी कहानी साथ चलती रहती है।  लंबे समय तक कहानी और नाटक लिखने वाले सुलभ का ये दूसरा उपन्यास है। रत्नेश्वर ने भी एक उपन्यास त्रयी लिखी है जिसका नाम है महायुग। इसका पहला खंड है 32000 साल पहले, दूसरा खंड होगा हिमयुग में प्रेम और तीसरा खंड होगा प्रार्थना का आरंभ। इसका प्रकाशन भी इस वर्ष संभव है। उषाकिरण खान हिंदी और मैथिली की ऐसी लेखिका हैं जो अपनी लेखनी के माध्यम से लगातार युवा लेखकों को टक्कर देती रहती हैं। रचनाकर्म में वो कई युवा लेखकों और लेखिकाओं से अधिक सक्रिय हैं। उषाकिरण खान का मैथिली में एक बहुत चर्चित उपन्यास है पोखरि रजोखरि। इस वर्ष सामयिक प्रकाशन से उसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित होने जा रहा है जिसका नाम है कथा रजोखर। मैथिली से इस उपन्यास का हिंदी में अनुवाद मीना झा ने किया है। रजोखर मिथिला का एक बड़ा जल स्त्रोत है जिसके माध्यम से मिथिला की सत्तर साल की दशा-दुर्शा की कथा कही गई है। पुस्तक के कवर पर ये बताया गया है कि उषाकिरण खान ने कथा रजोखर में स्वतंत्रता आंदोलन, नेहरू-गांधी के स्वप्न, चरखा, खादी ग्रामोद्योग का गठन और उसके विघटनकारी तत्व, स्वातंत्र्योत्तर मिथिला के नवनिर्माण की सरकारी योजनाएं और उसका परिणाम, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वार्थ की राजनीति, राजनीति का अपराधीकरण, छूआछूत, विधवा विवाह और पलायन जैसी समस्याओं पर सवाल उठाया है। 

एक और महत्वपूर्ण अनुवाद पुस्तक का प्रकाशन प्रभात प्रकाशन से होने जा रहा है। इस पुस्तक का नाम है छत्रपति शिवाजी महाराज। अंग्रेजी में ये पुस्तक शिवाजी द ग्रैंड रेबल के नाम से इस प्रकाशित है जिसके लेखक हैं डेनिस किनकेड। एक और रोचक पुस्तक प्रभात प्रकाशन से आ रही है रामायण से स्टार्टअप सूत्र, इसको लिखा है प्राची गर्ग ने। इसी कड़ी में एक और पुस्तक आएगी वेदांत व जीवन प्रबंधन जिसको कलमबद्ध किया है विक्रांत सिंह तोमर ने। पौराणिक ग्रंथों से प्रबंधन के सूत्र निकालकर पाठकों के सामने पेश करना एक श्रमसाध्य कार्य है। लेकिन ये हिंदी साहित्य के क्षितिज का विस्तार करनेवाली पुस्तकें हैं।

हिंदी के अलावा अगर हम अंग्रेजी की बात करें तो कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद की आत्मकथा भी इस वर्ष प्रकाशित होनेवाली है। इस पुस्तक की प्रतीक्षा राजनीति से जुड़े लोग उत्सुकता से कर रहे हैं। लंबे समय तक गांधी परिवार के साथ रहे गुलाम नबी आजाद का परिवार से मोहभंग हुआ। सब लोगों की निगाह इस पर टिकी है कि अपनी इस पुस्तक में वो राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के बारे में क्या लिखते हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन रूपा पब्लिकेशंस से होनेवाला है। दिल्ली विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के सौवें वर्ष में प्रवेश करनेवाला है। समाचारों के मुताबिक इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी के संपादन में दिल्ली विश्वविद्यालय पर केंद्रित एक पुस्तक प्रकाशित होगी जिसमें विश्विद्यालय के पूर्व छात्र अपने अनुभवों को लिखेंगे। अंग्रेजी में कई अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकों के प्रकाशन की खबर है, रामविलास पासवान और जार्ज फर्नांडिस की जीवनी के अलावा पत्रकार नीरजा चौधरी के राजनीतिक संस्मरणों की किताब भी इस वर्ष आएगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वर्ष 2022 रचनात्मकता से भरपूर होगा।