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Saturday, October 27, 2018

संस्कृति को अज्ञानता की चुनौती


आधीरात को सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक को छुट्टी पर भेजे जाने के केंद्र सरकार के फैसले के बाद जिस तरह का घटनाक्रम चला उसमें एक महत्वपूर्ण बहस दब गई। केंद्र सरकार के इस फैसले के ठीक पहले केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने मुंबई में एक बयान दिया था जो सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के संदर्भ में था। स्मृति ईरानी ने कहा कि उनका इस बात में विश्वास है कि उनको प्रार्थना या पूजा का अधिकार है लेकिन अपवित्र करने का अधिकार नहीं है।अपनी इस बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने यह भी सवाल पूछा था कि क्या कोई रजस्वला स्त्री अपने दोस्त के घर सैनिटरी नैपकिन लेकर जाती है। ईरानी की पूरी बात को समग्रता में समझे बगैर उसपर हंगामा मचा दिया गया। खुद को प्रगतिशील कहनेवाली चंद महिलाओं ने इस बयान को इस तरह के पेश किया जैसे कि रजस्वला स्त्री को अपवित्र कहा जा रहा है। ये किसी भी बात को संदर्भ से काटकर पेश करने का नमूना था। संदर्भ सबरीमला मंदिर का था जहां से इस तरह की खबरें आ रही थीं कि कुछ महिला कार्यकर्ता सैनिटरी नैपकिन लेकर मंदिर में प्रवेश करने की जुगत में थीं। दरअसल सबरीमला मंदिर को लेकर यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही थी कि वहां 10 से 50 साल की किशोरियों और महिलाओं को प्रवेश नहीं होता था। लेकिन 28 सितंबर के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी आयुवर्ग की महिलाओं को सबरीमला मंदिर में प्रवेश की इजाजत दे दी थी। उसके बाद से मंदिर में प्रवेश को लेकर केरल में काफी विवाद हो रहा है। मंदिर में प्रवेश को लेकर ये विवाद काफी लंबे समय से चल रहा है, माना यह जाता रहा है कि इस तय आयुवर्ग में किशोरियां और महिलाएं रजस्वला हो जाती हैं तो उस दौर में मंदिर में ही नहीं जाना चाहिए। अब इसको परंपरा कह लें या रूढ़ियां कि ये आम भारतीय परिवारों में माना जाता है कि रजस्वला स्त्रियां पूजा पाठ नहीं करती हैं। स्त्रियां इसको स्वयं मानती हैं और उन दिनों में उसी के अनुसार काम करती हैं। दरअसल परंपरा और रूढ़ियों से ज्यादा ये मसला संस्कार और संस्कृति का है।   
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद महिला अधिकारों के झंडाबरदार काफी आगे चली गईं। उनको लगने लगा कि ये महिला अधिकारों का हनन है, स्त्री स्वातंत्र्य का गला घोंटा जा रहा है। उनको अगर ये महसूस हो रहा है तो यह उनका अधिकार है, लेकिन भारतीय समाज में स्त्रियों के जो संस्कार हैं या उनके त्याग के जो उदाहरण हैं वो अप्रतिम हैं। वो अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए अपने अंग तक काट सकती हैं और कई उदाहरण तो ऐसे हैं कि स्त्रियों ने अपने प्राण भी त्याग दिए। पौराणिक कथा है जिसको देखा जाना आवश्यक है। कहानी के मुताबिक उत्तरापथ जनपद में उत्पलावती नाम का एक शहर था। उस शहर में भयंकर अकाल की वजह से लोगों का जीना कठिन हो गया था, भोजन मिलना अत्यंत मुश्किल था। उस दौर में वहां रूपावती नाम की एक बेहद सुंदर स्त्री रहती थी। एक बार रूपावती शहर घूमने निकली और घूमते घूमते एक घर में पहुंची जहां एक स्त्री ने बच्चे को जन्म दिया था। जन्म देनीवाली स्त्री इतनी भूखी थी कि उसने अपने जन्म दिए हुए बच्चे को ही खाने की इच्छा जताई। यह जानकर रूपावती ने उससे पूछा कि ये क्या कर रही हो। उस स्त्री ने कहा कि बहुत भूखी हूं इस वजह से अपने बच्चे के मांस से ही भूख मिटाना चाहती हूं। रूपावती ने फिर पूछा कि क्या तुम्हारे घर में अन्न नहीं है, क्या क्योंकि संतान तो दुर्लभ होती है। स्त्री ने रूपावती को उत्तर दिया कि मेरे घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है और संसार में सबसे दुर्लभ तो जीवन है। रूपावती उसको भरोसा देती है कि वो अपने घर जाकर खाने का कुछ सामान लेकर आती है, लेकिन वो स्त्री भूख से इतनी व्याकुल थी कि उसने कहा कि जब तक तुम घर जाकर खाना लाओगी तबतक मेरी मृत्यु हो जाएगी। अब रूपावती के सामने संकट था। वो सोच रही थी कि अगर बच्चे को लेकर गई तो स्त्री भूख से मर जाएगी और अगर बच्चे को छोड़कर गई तो ये स्त्री उसको खा लेगी। उसी वक्त रूपावती सोचती है कि अगर वो अपने आत्मतेज, बल और उत्साह का सहारा लेकर इस स्त्री को अपने मांस से तृप्त कर दे तो दोनों की जान बच जाएगी। रूपावती ने उस स्त्री से पूछा कि तुम्हारे घर में कोई हथियार है। उस स्त्री ने उसको वह जगह बताई जहां कटार रखी थी। रूपावती ने उस तीखी कटार से अपने दोनों स्तन काटकर उस स्त्री को रक्त और मांस से तृप्त कर दिया। उसके बाद रूपावती ने उस स्त्री से वादा लिया कि वो जबतक अपने घर से उसके लिए खाने का सामान लेकर आती है तबतक वो अपने बच्चे को सुरक्षित रखेगी। रूपावती अपने घर पहुंची को उसके शरीर से रक्त बहता देख पति ने पूछा कि क्या हुआ तो उसने पूरा वाकया बताया और अनुरोध किया कि खाना लेकर उसके घर जाओ।
यह सुनकर उसके पति ने कहा कि भोजन लेकर तो तुम ही जाओगी। रूपावती के पति ने सत्य की शपथ की और कहा कि तेरे जिस सत्य वचन से इस प्रकार का आश्चर्यमय अभूतपूर्व धर्म हुआ है वह कभी ना तो देखा गया और ना ही कभी सुना गया। उस सत्य की महिमा से तेरे दोनों स्तन पूर्ववत हो जाएं। सत्य के शपथ के उच्चारण के साथ ही महिला के दोनों स्तन पूर्ववत हो गए। कहा जाता है कि रूपावती के इस त्याग को देखकर इंद्र का सिंहासन भी हिल उठा था। इंद्र भेष बदलकर रूपावती के मन की थाह लेने पहुंचे और पूछा कि तुम्हारे मन में क्या विचार आए थे जो तुमने ऐसा किया। रूपावती ने कहा कि उसने उसने जो किया वो न तो राज्य के लिए, न भोगों के लिए , न इंद्रपद के लिए और न चक्रवर्ती राजाओं जैसे साम्राज्य के लिए था।
दरअसल सच्चे कार्यकर्ता का जो त्याग होता है उसका ध्येय यही होता है कि जो बंधन में हैं वो बंधन मुक्त हो जाएं, जो निराश हैं उनके अंदर आशा का संचार हो और मुष्य के अंदर के दुख को समाप्त किया जाए। उसके लिए भाव महत्वपूर्ण हैं।
भारतीय संस्कृति में भाव बेहद महत्वपूर्ण हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद भी इस भाव को देखा जाना आवश्यक है और मुझे तो कई बार लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय को अपने फैसले के बाद इन घटनाओं पर भी नजर रखना चाहिए। होना ह चाहिए कि कोर्ट के फैसले के बाद कोई रजस्वला स्त्री अगर चाहे जो जाए और पूजा और दर्शन करके लौट आए। यही भाव होना चाहिए। अपने रजस्वला होने का प्रदर्शन करते हुए पूजा करने जाना तो मंशा पर सवाल खड़े करता ही है। जब कोई स्त्री अपने रसजस्वला होने का प्रदर्शन कर मंदिर जा रही होती तो उसका भाव पूजा का या भगवान के दर्शन का नहीं होता है बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि वो प्रदर्शन के लिए जा रही हैं। स्मृति ईरानी का बयान इसी भाव को ध्यान में रखकर दिया गया प्रतीक होता है। उन्होंने तो इस बयान के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव भी साझा किए। उनके बयान को छद्म-प्रगतिशीलता के आईने में देखा गया और बेवजह वितंडा खड़ा करने की कोशिश की गई। अगर बयान के भाव को समझा गया होता, अगर भारतीय संस्कृति और संस्कार का ध्यान रखा जाता तो इस तरह से विवाद खड़ा नहीं होता। विवाद खड़ा के लिए आवश्यक था कि बयान के साथ साथ पूरे मसले को इस तरह से पेश किया जाए कि इससे स्त्री का अपमान हुआ है। और यह कोई नई बात नहीं है, इस तरह से भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने की पहले भी कोशिश हुई है। स्मृति ने कहीं ऐसा नहीं कहा कि मंदिर में रजस्वला स्त्री को नहीं जाना चाहिए। उसने कहीं नहीं कहा कि रजस्वला स्त्री अपवित्र होती है लेकिन इसको प्रचारित इसी तरह से किया गया। स्त्री को अधिकार दिलाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि किसी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाई जाए, सैकडों सालों से चली आ रही मान्यताओं पर प्रहार किया जाए। कुरीतियों पर प्रहार जरूरी है लेकिन कुरीति, रूढ़ी और परंपरा में अंतर है और इस अंतर को जब प्रगतिशीलता का झंडा उठानेवाले लोग समझ जाएंगें तो इस तरह के अज्ञानतापूर्ण विवाद खड़े नहीं होंगे।

Friday, October 26, 2018

दुर्लभ पुस्तकों और चित्रों का खजाना


दिल्ली के फिरोजशाह रोड पर रवीन्द्र भवन में साहित्य अकादमी का कार्यालय 1961 में आया, इसके पहले अकादमी का दफ्तर कनॉट प्लेस से चलता था। जब 1961 में अकादमी रवीन्द्र भवन में शिफ्ट हआ तो वहां एक पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी। उस पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान लोगों की तरफ से ये राय आई कि यहां एक स्थायी पुस्तकालय होना चाहिए और उसी वर्ष साहित्य अकादमी पुस्तकालय की स्थापना की गई। इस वक्त साहित्य अकादमी पुस्तकालय में एक लाख तेरासी हजार पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों में खास बात ये है कि गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की सारी पुस्तकें यहां मौजूद हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कृतियों और साहित्य अकादमी प्रकाशनों के अलावा हर भाषा की पुस्तक यहां मौजूद है। इस पुस्तकालय में अलग अलग भाषाओं के 32 समाचार पत्र हर दिन आते हैं । इसके अलावा विभिन्न विषयों और आवर्तिता की दो सौ पत्रिकाएं भी साहित्य अकादमी पुस्तकालय में आती हैं। इस पुस्तकालय में हिंदी की करीब पचास हजार पुस्तकें उपलब्ध हैं। पुस्तकों के इतने बड़े भंडार में से अपनी पसंद की पुस्तकें ढूंढना आसान है क्योंकि सभी जानकारी कंप्यूटरीकृत हैं। पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं के अलावा यहां फोटो का विशाल भंडार है। साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों की तस्वीरें यहां सहेज कर रखी जाती हैं। पचास सालों से अधिक अवधि के महत्वपूर्ण फोटो यहां देखे जा सकते हैं। अकादमी के लाइब्रेरियन डॉ सूफियान अहमद ने बताया कि अकादमी के अन्य केंद्रों की लाइब्रेरी भी कंप्यूटर के माध्यम से दिल्ली केंद्र से जुड़े हैं और कोई किताब अगर मुंबई या बेंगलुरू में उपलब्ध है और सदस्य को चाहिए तो उसको मंगावा दिया जाता है।पिछले दिनों साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष गोपीचंद नारंग ने निजी पुस्तकों का संग्रह अकादमी को दिया। इस संग्रह में उर्दू की कई दुर्लभ किताबें हैं।
साहित्य अकादमी की लाइब्रेरी की सदस्यता बहुत आसान है। यहां कोई भी व्यक्ति जिसके पास वैध पहचान पत्र हो, दो हजार रुपए जमा करवाकर लाइब्रेरी का सदस्य बन सकता है। ये दो हजार रुपए गारंटी के तौर पर अकादमी के पास जमा रहेंगे और जब आप सदस्यता छोड़ेंगे तो आपको वापस मिल जाएंगे। अकादमी के पुस्तकालय की सदस्यता का सालाना रिन्यूल होता है जिसके लिए दो सौ रुपए देने होते हैं। वरिष्ठ नागरिकों के लिए सालाना शुल्क सौ रुपए ही है। लाइब्रेरी में एक बेहतरीन रीडिंग रूम भी है जहां बैठकर करीब सौ लोग पढ़ सकते हैं। अगर सदस्य चाहें तो किताबें इश्यू करवाकर घर भी ले जा सकते हैं। सदस्यों के लिए यहां प्रतिदिन एक घंटे तक मुफ्त इंटरनेट की व्यवस्था भी है। इस वक्त साहित्य अकादमी के साढे तेरह हजार सदस्य हैं जिनमें से 300-400 लोग रोजाना यहां आते हैं।  साहित्य अकादमी की लाइब्रेरी तक पहुंचना भी बहुत आसान है। मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन से पैदल चलकर वहां पहुंचा जा सकता है। फिरोजशाह रोड पर साहित्य अकादमी की गेट पर ही बस स्टैंड भी है। यहां दिल्ली के विभिन्न इलाकों से बसें आती हैं। साहित्य अकादमी की लाइब्रेरी के पास एक कैंटीन भी है जहां भोजन और चाय-नाश्ते का प्रबंध भी है। अकादमी की लाइब्रेरी सोमवार से शुक्रवार तक खुली रहती है और इसका समय सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक है।

Saturday, October 20, 2018

विवाद से बिक्री बढ़ाने की जुगत


अंग्रेजी में प्रकाशित ज्यादातर आत्मकथात्मक पुस्तकों के प्रकाशन के पहले एक उत्सुकता का वातावरण बनाया जाता है या फिर किताब को लेकर सकारात्मक-नकारात्मक चर्चा की रणनीति तैयार की जाती है। चर्चा के लिए सबसे आसान होता है पुस्तक के किसी विवादास्पद हिस्से को प्रकाशन के पहले जारी कर देना। ये ट्रेंड पूरी दुनिया में है। पिछले कुछ सालों की पुस्तकों पर नजर डालें तो तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाती है। जब ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की आत्मकथा अ जर्नी प्रकाशित होनेवाली थी तो प्रकाशकों ने उसके रसभरे प्रसंगो के चुनिंदा अंश लीक कर दिए। ये रणनीति जोरदार बिक्री का आधार बनी और प्रकाशन के चार हफ्ते के अंदर उसके छह रिप्रिंट करने पड़े। इसी तरह से न्यूयॉर्क टाइम्स के पूर्व कार्यकारी संपादन जोसेस लेलीवेल्ड की गांधी पर लिखी किताब ग्रेट सोल महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया प्रकाशित होनेवाली थी तो लंदन के एक अखबार में लेख छपा था जिसका शीर्षक था, गांधी लेफ्ट हिज वाइफ टू लिव विद मेल लवर। लंदन के अखबार में छपी खबर के आधार पर मुंबई के एक समाचारपत्र ने लेख छाप दिया। जमकर विवाद हुआ। तब गुजरात विधानसभा में राज्य में पुस्तक पर प्रतिबंध का प्रस्ताव पास हो गया था। बाद में जब किताब आई तो पता चला कि गांधी और उनके जर्मन मित्र हरमन कैलबाख के पत्रों के आधार पर लेखक ने ये संकेत देना चाहा कि गांधी समलैंगिक थे। प्रचारित ये किया गया कि गांधी के बारे में जोसेफ लेलीवेल्ड ने कोई नया तथ्य उद्घाटित किया है। किताब को पढ़ने के बाद ये साफ हुआ कि ये पुरानी बात है, लेकिन तबतक पुस्तक हिट हो चुकी थी। इसी तरह से अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति कैनेडी पर मिमी अल्फर्ड की किताब वंस अपॉन अ सीक्रेट, माई अफेयर विद जॉन एफ कैनेडी एंड इट्स ऑफ्टरमाथ प्रकाशित होनेवाली थी तो पुस्तक के चुनिंदा अंश लीक करके किताब की बिक्री बढ़ाने का उपक्रम किया गया था।
हाल ही में जब भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल रहे और अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर जमीरउद्दीन शाह की किताब द सरकारी मुसलमान प्रकाशित होनेवाली थी तो 2002 के गुजरात दंगों को लेकर एक विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई। 2002 के गुजरात दंगों के वक्त शाह वहां सेना की अगुवाई कर रहे थे। अपनी पुस्तक में उन्होंने एक जगह लिखा है कि 1 मार्च को सुबह सात बजे तक अहमदाबाद एयरपोर्ट पर सेना के तीन हजार जवान पहुंच गए थे। राज्य सरकार ने सूबे के अलग अलग हिस्लों में सेना के जवानों की तैनाती के लिए गाड़ी आदि मुहैया करवाने में एक दिन की देरी की। लेखक का दावा है कि उन्होंने उस वक्त के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सुबह दो बजे तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की मौजूदगी में अनुरोध किया था, बावजूद इसके सेना की तैनाती में देरी हुई।  इसको लेकर विवाद होना ही था, हुआ भी लेकिन यह भी पुस्तक की बिक्री का एक ट्रिक ही साबित हुआ क्योंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एसआईटी इस मामले में पहले ही सरकार को क्लीन चिट दे चुकी है।

उत्सवधर्मिता को बचाए रखने की चुनौती


भारतीय संवत्सर में दो नवरात्र धूमधाम से मनाए जाते हैं, एक चैत्र मास में और दूसरा आश्विन मास में। इन दोनों नवरात्र में शक्ति की पूजा की जाती है जो भारतीय समाज की विशेषता है। दो दिन पहले आश्विन नवरात्र खत्म हुआ है। नवरात्रों में शक्ति की पूजा की जाती है और दोनों शक्ति पर्व के पूर में मनाए भी जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से दुर्गा पूजा को लेकर अप्रिय विवाद खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। वर्ग विशेष के लोग देवी दुर्गा और महिषासुर को लेकर जिस तरह की बातें करते हैं वो व्यर्थ है। नाहक विवाद से समाज में कटुता पैदा होती है। आस्था पर प्रहार से समाज में वैमनस्य होता है। दुर्गा और काली की प्रतिमाओं पर टिप्पणी करने वालों को भारतीय समाज में धर्म और उससे जुड़े दर्शन के बारे में पता नहीं होता है। दुर्गा और काली को लेकर समाज के हर वर्ग में कितनी आस्था है और वो आस्था कितनी गहरी है इसको मापने का पैमाना शायद उपलब्ध नहीं है। जब दुर्गा और काली को किसी वर्ग विशेष की देवी और महिषासुर को किसी वर्ग विशेष का बताकर टिप्पणियां पढ़ता हूं तो लगता है कि ये लोग भारतीय समाज के यथार्थ से कितने कटे हुए हैं। इस तरह की टिप्पणियों को पढ़ते हिए मुझे बिहार के अपने शहर जमालपुर की याद आने लगती है। जमालपुर-मुंगेर जुड़वां शहर हैं। मुंगेर, कर्ण के दान करने के स्थल कर्णचौरा और मीरकासिम के किले की वजह से प्रसिद्ध है तो जमालपुर रेलवे कारखाना की वजह से। किसी जमाने में इस कारखाने में भाप इंजन बनाए जाते थे। इन दोनों शहरों में दुर्गा पूजा बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। यहां स्थापित होनेवाली काली और दुर्गा की प्रतिमाओं को या तो नंबर से या फिर इलाके के नाम से जाना जाता है।
जमालपुर में काली की एक प्रतिमा स्थापित होती हैं जिनका नाम है नंबर एक काली। नंबर एक काली का मतलब यह माना जाता है कि शहर में सबसे पहले इसी स्थान पर काली की प्रतिमा स्थापित हुई होगी। इस काली का नाम ही सिर्फ नंबर एक नहीं है बल्कि इस स्थान को पूजा से लेकर विसर्जन तक में नंबर एक होने का सम्मान और प्रतिष्ठा भी हासिल है। विसर्जन के वक्त भी जब शहर की सारी प्रतिमाएं जुलूस की शक्ल में निकलती हैं तो नंबर एक काली सबसे आगे रहती हैं। काली की इस प्रतिमा के विसर्जन के बाद ही अन्य प्रतिमाओं का विसर्जन सालों से होता आ रहा है। नंबर एक काली के बारे में एक और बताना आवश्यक है । काली की इस प्रतिमा की स्थापना बाबूलाल नाम के एक सफाई कर्मचारी के पूर्वजों ने की थी। बाबूलाल जमालपुर नगरपालिका में सफाई कर्मचारी हुआ करते थे और वहां वो मुनादी का काम करते थे। बाबूलाल ने अपने पूर्जवों द्वार स्थापित कालीस्थान को मंदिर का स्वरूप दिया और उसको व्यवस्थित किया जिसकी वजह से उसको बाबूलाल की काली कहा जाने लगा।  बाबूलाल की काली को शहर में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा और मान्यता प्राप्त है। आजादी के पहले का समाज, उसमें सफाई कर्मचारियों की स्थिति, जहां कई बार उनको मंदिरों में प्रवेश की इजाजत नहीं दी जाती थी, वैसे माहौल में सफाई करनेवाले समाज से आनेवाले एक परिवार ने जमालपुर में काली की प्रतिमा स्थापित की। सभी वर्गों ने उसको स्वीकार ही नहीं किया बल्कि आस्था के साथ सर भी झुकाया। यहां यह भी बाताना जरूरी है कि इस कालीस्थान में पूजा-पाठ का काम बाबूलाल और उसके परिवार के लोग ही करते रहे हैं। इसी तरह से जमालपुर में सदर बाजार पुलिस फांड़ी के पास अंग्रेजों के जमाने का एक विशाल कुंआ होता था। उस कुंए पर विजय भगत नाम के एक व्यक्ति ने काली मंदिर बनवाया। उस मंदिर का वो पुजारी भी बना। इसमे भी कहीं से जात-पात आड़े नहीं आया। किसी ने कभी कोई आपत्ति नहीं की। काली माता प्रमुख रहीं बाकी सब गौण। अब इसको देखते हुए लगता नहीं है कि काली और दुर्गा वर्ग विशेष की देवी हैं, जैसा कुछ लोग प्रचारित करना चाहते हैं।
भारतीय समाज में बहुत कुरीतियां रही हैं, छुआछूत तक भी रहा है, जाति व्यवस्था अपने विद्रूप रूप में भी मौजूद रही है लेकिन बाबू लाल की काली मंदिर जैसे उदाहरण भी रहे हैं। जमालपुर में तो देवी स्थान की पहचान भी इलाके के हिसाब से है। जोगमाया दुर्गा या जिसे बड़ी दुर्गा भी कहते हैं को छोड़कर सभी दुर्गा इलाके या समुदाय के हिसाब से भी जानी जाती हैं। मुंगरौड़ा दुर्गा, दलहट्टा दुर्गा, आशिकपुर दुर्गा, बंगाली दुर्गा, मारवाड़ी दुर्गा आदि। इसमे किसी प्रकार का ना तो कोई भेदभाव है और ना ही हमारे-तुम्हारे का एहसास।  
दरअसल हमें यह सोचना होगा कि भारतीय समाज में जिस तरह की उत्सवधर्मिता थी, त्योहारों के समय जो अपनत्व छलक कर बाहर आता था वो कम क्यों होता जा रहा है। हमारा भारतीय समाज उत्सवी समाज है, यहां हर अवसर के लिए उत्सव और गीत है, जन्म से लेकर मृत्यु तक। आधुनिकता के दबाव में हमारे समाजी की ये उत्सवधर्मिता खत्म होती जा रही है। उत्सवधर्मिता के खत्म होने का परिणाम ये हो रहा है कि हमारा समाज संकुचित होता जा रहा है, हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे है। त्योहार पर जिस तरह की उत्सव होते थे उससे सामाजिक समरसता तो बढ़ती ही थी रोजगार के अवसर भी पैदा होते थे। मुझे अपना बचपन याद आता है। दुर्गापूजा के मौके पर चार पांच दिन का उत्सव होता था उसमें अलग अलग तरह के मिट्टी के खिलौने बिकते थे, डमरू और बासुरी बिका करती थी, अलग अलग रंगों और आकार के गुब्बारे, किसी में गैस भरी जाती थी तो किसी में पंप से हवा डालकर फुलाया जाता था। इन सब चीजों की खूब बिक्री होती थी। अब जब से उत्सव का स्वरूप बदला है तो इन चीजों की बिक्री पर असर पड़ा है। मिट्टी के खिलौने तो लगभग खत्म ही होते जा रहा हैं, चूंकि बिक्री होती नहीं है लिहाजा इसके कारीगर तैयार नहीं हो रहे है। ये भी संभव है कि आनेवाले वर्षों में ये कला ही समाप्त हो जाए। बांसुरी जगह माउथ-आर्गन ने ले ली है। विसर्जन के समय युद्ध कला का भी प्रदर्शन होता था। लाठियां भांजी जाती थी, तलवारबाजी का प्रदर्शन होता था, छल्ले को लेकर कलाकारी होती थी आदि आदि। ये सब विसर्जन के जुलूस में प्रतिमा के आगे हुआ करता था। ये इतना रोमांचक होता था कि इसको देखने के लिए लोग रात भर जागकर सड़क किनारे की इमारतों पर जाकर बाठ जाते थे। धीरे-धीरे इन कलाओं की जगह डीजे और नाच गाने ने ले ली है। स्थानीय कला का प्रदर्शन लगभग खत्म हो गया है। संभव है इऩ वजह से भी लोगों की रुचि कम होने लगी हो। चार-पांच दिनों तक दुर्गापूजा का जो मेला लगता था, उसमें हमें घर से सभी बड़े लोग पैसे देते थे मेला घूमने के लिए। हम पैसे लेकर दुर्गास्थान और उसके आसपास लगे कठघोड़वा और चरखी पर बार-बार चढ़ने जाते थे। काठ की चरखी और काठ के घोड़े पर गोल-गोल घूमने के लिए बच्चों और किशोरों मे दीवानगी लक्षित की जा सकती थी। कठघोड़वा और चरखी लानेवालों की मेले में खूब कमाई होती थी। जाइंट व्हील में वो मजा कहां जो काठ की छोटी चरखी में होती थी।
ये सब ऐसी चीजें होती थीं, जो पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचाती थी। चरखी और कठघोड़वा हाथ से चलाए जाते थे, मिट्टी के खिलौने से पर्यावरण को नुकसान नहीं होता था, यही हाल बांसुरी और डमरू का होता था। अब इन मेलों में इस तरह के सामानों की बिक्री होती है जिनमें से ज्यादातर प्लास्टिक से बने होते हैं जो पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है। पूजा के दौरान मेले में कानफाड़ू शोर भी नहीं मचा करता था, फिल्मी गानों की तर्ज पर भक्ति गीत-संगीत का शोर भी सुनने को नहीं मिलता था। इतनी आतिशबाजी नहीं होती थी। पूजा और मेले में पंडाल के नहीं होने से शक्ति प्रदर्शन जैसी कोई बात भी नहीं होती थी। हमने जिस तरह से बचपन में पूजा के दौरान मेला और उसका स्वरूप देखा है उसका स्वरूप बदलता जा रहा है। बदलते वक्त के साथ सकारात्मक बदलाव होने चाहिए, अपनी परंपराओं को कायम रखते हुए और रूढ़ियों को छोड़ते हुए उत्सवधर्मिता को कायम रखना होगा। क्योंकि हमारे समाज से उत्सवधर्मिता का खत्म होना खतरनाक है क्योंकि विविध धर्म, जाति, संप्रदाय वाले हमारे देश में उत्सवधर्मिता ही हमें जोड़ती है। उत्सवधर्मिता ही वह साझा सूत्र है जो पूरे भारत को एक करती है। मौजूदा पीड़ी का ये दायित्व है कि वो आनेवाली पीढ़ियों को उत्सवधर्मी बनाए ताकि हमारी सांस्कृतिक विरासत बची रह सके।

Saturday, October 13, 2018

नग्नता और यौनिकता का बोलबाला

हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान जब वेब सीरीज पर चर्चा हो रही थी, तो एक श्रोता ने उसके कंटेंट पर सवाल खड़े करते हुए वक्ताओ से ये सवाल पूछा कि क्या यहां दिखाई जानेवाली सामग्री पर किसी तरह का नियमन होना चाहिए? वहां बैठे ज्यादातर लोगों के उत्तर नकारात्मक थे। मंच पर बैठे एक वक्ता ने ये तो यहां तक कह दिया कि एक जगह तो छोड़ दो जहां सरकार का दखल नहीं हो। एक दूसरे वक्ता ने इस प्रश्न के उत्तर को कलाकारों की कलात्मक अभिव्यक्ति से जोड़ दिया। तीसरे वक्ता ने सेंसर बोर्ड का हवाला देते हुए कहा कि अगर सरकार का दखल होगा तो बेव सीरीज भी संस्कारी हो जाएंगे। लेकिन प्रश्नकर्ता डटा हुआ था और वो इस विषय पर संवाद की मांग कर रहा था। खैर सत्र का समय नियत था और वो उसके प्रश्न के साथ ही खत्म हो गया। लेकिन उस श्रोता के प्रश्न इतने वाजिब थे सत्र खत्म होने के बाद भी उसपर चर्चा होती रही। दरअसल हाल के दिनों में जो चर्चित बेव सीरीज आए हैं उनमें जिस तरह की सामग्री आई है उसको लेकर भारतीय समाज में चर्चा होनी चाहिए। उसको यह कहकर उचित नहीं ठहराया जा सकता है कि वो कलात्मक स्वतंत्रता है। एक सीरीज आई थी लस्ट स्टोरीज। इसमें चार अलग अलग कहानियों का चार अलग अलग निर्देशकों ने बनाया था। अनुराग कश्यप, जोया अख्तर, दिबाकर बैनर्जी और करण जौहर। अब अगर उसकी सामग्री को देखें तो जिस तरह से यौन प्रसंगों को दिखाया गया है, वो प्रश्न तो खड़े करता है। इसी तरह से एक और बेव सीरीज चर्चित रही सेक्रेड गेम्स। अनुराग कश्यप अपनी फिल्मों में गाली-गलौच वाली भाषा के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने यही काम इस सीरीज में भी किया है।  इसके अलावा सेक्रेड गेम्स में सेक्स प्रसंगों की भरमार है, अप्राकृतिक यौनाचार के भी दृश्य हैं, नायिका को टॉपलेस भी दिखाया गया है। हमारे देश में इंटरनेट पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर पूर्व प्रमाणन जैसी कोई व्यवस्था नहीं है लिहाजा इस तरह के सेक्स प्रसंगों को कहानी में ठूंसने की छूट है। सेक्रेड गेम्स के लगभग हर एपिसोड में इस तरह से दृश्य हैं और ये सबसे सस्ता तरीका है दर्शकों को अपनी ओर खींचने का और उनकी उत्सुकता जगाने का । यौन-प्रसंगो में जिस तरह की नग्नता का चित्रण होता है और हिंसा के बाद जो शारीरिक विकृतियां दिखाई गई हैं वो जुगुप्साजनक हैं। ये कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर अराजकता है। इन दो बेव सीरीज के बाद एक और सीरीज आई घोउल। इसमें भी वही सब रिपीट किया है। इसमें इतनी हिंसा और खून खराबा है जो किसी विकृत मानसिकता को ही संतुष्ट कर सकती है। इस तरह के कई विदेशी सीरीज पर इन प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध हैं।
दरअसल जब हम इस तरह क बेव सीजीज पर विचार करते हैं तो मुझे ऑल्ट बालाजी का गूगल पर दिखाई देनेवाला पेज याद आ जाता है। अगर आप गूगल पर ऑल्ट बालाजी सर्च करेंगे तो जो पेज खुलता है उसमें ये बताया गया है कि ये प्लेटफॉर्म मुख्यधारा की मनोरंजन का विकल्प है। लेकिन उसके नीचे लिखा है रागिनी एमएमएस, गेट हॉट विद रागिनी। उसके नीचे लिखा है हॉट, वाइल्ड एंड लस्टफुल बैयल (सुंदरी)। इसके आगे कहने को कुछ रह नहीं जाता है। इससे मंशा साफ हो जाती है कि प्लेटफॉर्म अपने दर्शकों को क्या दिखाना चाहता है। यहां आपको सुभाष बोस के बारे में भी समाग्री उपलब्ध है, लेकिन ये भी है। ये नाम इस लिहाज से ले रहा हूं कि ये चर्चित रहे हैं। इससे ये संदेश नहीं जाना चाहिए कि इनको ही लक्षित करके लिखा जा रहा है। कमोबेश सभी जगह यही हालात है। सवाल यही है कि फिल्मों में तो गाली को भी बीप करो और बेव सीरीज में गाली को फिल्मा कर दिखाओ। फिल्मों में अश्लीलता के नाम पर लंबे चुबंन दृश्यों पर आपत्ति लेकिन बेव सीरीज में नायिका को टॉपलेस दिखाने की छूट। फिल्मों में हिंसा को देखते ही सेंसर बोर्ड की कैंची तैयार लेकिन हिंसा की विकृतियों को चित्रित करने की बेव सीरीज को छूट। यह कैसी विडंबना है, यह कैसा दोहरा रवैया है, इस पर विचार तो होना ही चाहिए। अगर हम बेव सीरीज पर किसी भी प्रकार की नियमन की बात करें तो हमे केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की आधारभूत संरचना को देखना होगा। सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 के तहत सेंसर बोर्ड का गठन किया । 1983 में इसका नाम बदलकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड कर दिया गया। उसके बाद भी इस एक्ट के तहत समय समय पर सरकार गाइडलाइंस जारी करती रही है । जैसे पहले फिल्मों की दो ही कैटेगरी होती थी ए और यू । कालांतर में दो और कैटेगरी जोड़ी गई जिसका नाम रखा गया यू ए और एस । यू ए के अंतर्गत प्रमाणित फिल्मों को देखने के लिए बारह साल से कम उम्र के बच्चों को अपने अभिभावक की सहमति और साथ आवश्यक किया गया ।एस कैटेगरी में स्पेशलाइज्ड दर्शकों के लिए फिल्में प्रमाणित की जाती रही हैं । फिल्म प्रमाणन के संबंध में सरकार ने एक और गाइडलाइंस 6 दिसबंर 1991 को जारी की थी जिसके आधार पर ही लंबे समय तक कामकाज चल रहा है।
सिनेमेटोग्राफी एक्ट की धारा 5 बी (1) के मुताबिक किसी फिल्म को रिलीज करने का प्रमाण पत्र तभी दिया जा सकता है जब कि उससे भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता पर कोई आंच ना आए।मित्र राष्ट्रों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी ना हो । इसके अलावा तीन और शब्द हैं पब्लिक ऑर्डर, शालीनता और नैतिकता का पालन होना चाहिए। अब इसमें सार्वजनिक शांति या कानून व्यवस्था तक तो ठीक है लेकिन शालीनता और नैतिकता की व्याख्या अलग अलग तरीके से की जाती रही है। बदलते वक्त के साथ शालीनता और नैतिकता की परिभाषा भी बदलती चली गई। जब अरुण जेटली के पास सूचना और प्रसारण मंत्री का प्रभार था तो उन्होंने श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी जिसने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानि सीबीएफसी में सुधारों को लेकर रिपोर्ट सौंपी थी। उस समिति ने कई सुझाव दिए थे जो अब तक फाइलों में बंद है। यथास्थितिवाद के इस दौर में उस समिति की सिफारिशों पर आगे बढ़ने की सूरत नजर नहीं आती है। अब अगर बेवसीरीज के कंटेंट पर कलात्मक स्वतंत्रता की बात करें तो यह तर्क गले नहीं उतरता है। कलात्मक आजादी के नाम पर जिस तरह से नग्नता और विकृत हिंसा को परोसा जा रहा है उसके आलोक में दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जे डी कपूर का आठ अप्रैल दो हजार चार के फैसले मैं साफ कर दिया था कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी परोसना गलत है। अपने फैसले में उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी के साथ साथ जिम्मेदारी भी तय की थी। उन्होंने एम एफ हुसैन के एक मामले में कहा था कि याचिकाकर्ता ने महाभारत की पात्र द्रोपदी, जिन्हें हिंदू धर्म को मानने वाले लोग इज्जत की नजरों से देखते हैं, को भी पूरी तरह से निर्वस्त्र चित्रित किया है, जबकि चीरहरण के वक्त भी द्रोपदी निर्वस्त्र नहीं हो पाई थी । इस पेंटिंग में जिस तरह से द्रोपदी का चित्रण हुआ है वह साफ तौर से हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचानेवाला और नफरत पैदा करनेवाला है ।
बेवसीरीज में परोसेजानीवाली नग्नता और हिंसा को लेकर निर्माताओं को पहले तो स्वनियमन के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें भारतीय समाज को ध्यान में रखते हुए, यहां के रिश्तों की संरचना को ध्यान में रखते हुए सीरीज बनानी चाहिए। भारतीय समाज अभी पश्चिम के उन देशों की तरह नहीं हो पाया हा जहां नग्नता पूरी तरह से स्वीकार्य है, जहां की फिल्मों में शारीरिक संबंधों का चित्रण आम बात हो। स्वनियमन अगर नहीं संभव है तो फिर सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म पर जिस तरह से थोड़े देसी और बहुतायत में विदेशी कंटेट उपलब्ध हो रहे हैं उसपर निगरानी की जरूरत है। अगर सरकार को लगता है कि इसपर नियमन की जरूरत नहीं है तो फिर फिल्मों पर नियंत्रण के लिए बनाई गई संस्था सीबीएफसी का भी कोई औचित्य है नहीं क्योंकि अगर इंटरनेट के माध्यम से नग्नता परोसने की छूट है तो फिर फिल्मवालों को क्यों नहीं? सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इस दिशा में पहल करनी चाहिए और इस प्लेटफॉर्म पर केंटेट बनानेवालों के साथ बैठकर मंछन करना चाहिए। उसके बाद इसपर देशव्यापी बहस होनी चाहिए, हर पक्ष की राय को सामने लाने का उपक्रम हो ताकि सबकी सहमति से कोई हल निकाला जा सके।  

Saturday, October 6, 2018

विवाद से उठते बड़े सवाल


हिंदी साहित्य को लेकर फेसबुक पर बहुधा ऐसे विवाद उठते रहते हैं जिनका लक्ष्य किसी लेखक को नीचा दिखाना होता है। फेसबुकिया विवादों से साहित्यिक सवाल कम ही उठते रहे हैं। हिंदी साहित्य में वाद-विवाद का इतिहास काफी पुराना है। अगर हम विवादों के इतिहास पर नजर डालें तो पहले के विवादों और अब के विवादों में जमीन आसमान का अंतर नजर आता है। पहले रचनात्मक बहसें हुआ करती थीं। किसी खास रचना को लेकर, किसी स्थापना को लेकर विवाद हुआ करता था।  हिंदी में स्वस्थ साहित्यिक विवादों की परंपरा रही है, हलांकि उन्नीस सौ नब्बे के बाद के दौर को याद करें तो यह पाते हैं कि उस दौर में साहित्यिक विवादों का स्तर गिरने लगा था और साहित्यिक सवाल गौण होने लगे थे। व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप प्रमुख होते चले गए। उस वक्त जो प्रमुख विवाद उठे उसमें कवि उपेन्द्र कुमार की कहानी झूठ का मूठ को लेकर उठा विवाद था। उसी दौर में पहल पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन ने एक पुस्तिका छापी थी उसको लेकर भी खूब विवाद हुआ था। पहल पर लगे आरोपों पर ज्ञानरंजन ने जो सफाई दी थी उसकी भाषा देखिए, प्रोफेसर कॉलोनी भोपाल में शराब पीकर एक रमणी के घर के पास कार भिड़ा देने की खबरें भी अखबारों में हैं, पर हमको इसको पीली पत्रकारिता का हिस्सा मानते हैं।...एक कुलपति अपार राशि सालों तक केवल पत्रिकाएं निकालने, गोष्ठियां करने, अपना व्याख्यान जगह जगह करवाने, स्वागत करने में खरच् करता रहा। अपनी साहित्यिक हवस को पूरा करने में लगाता रहा। अपने कुनबे के लोगों को यहां वहां विभिन्न प्रकार के लाभ देने में लगाता रहा, वह अपने क़लम में सार्वजनिक कोषों का प्रगतिशील वामपंथी संगठनों या पत्रिकाओं द्वारा उपयोग की बात लिखते शरमाता भी नहीं। स्पष्ट है कि ये टिप्पणी अशोक वाजपेयी पर थी। जो अगले हिस्से में ज्ञानरंजन ने स्पष्ट भी कर दिया था। उसके बाद उन्होंने राजेन्द्र यादव पर मुलायम सिंह यादव से विज्ञापन और लालू यादव से पुरस्कार लेने की बात को रेखांकित किया था। लब्बोलुआब ज्ञानरंजन ये कहना चाहते थे कि यादव होने का फायदा राजेन्द्र जी ने बखूबी उठाया। ज्ञानरंजन ने उस वक्त प्रभाष जोशी पर भा हमला बोला था। उन्होंने लिखा था कि प्रभाष जोशी वही हिंदू हैं जिन्होंने देवराला सती कांड का प्रबल समर्थन करनेवाला संपादकीय लिखा था। जिन्होंने सती कांड को महिमामंडित किया और कभी उसको रिग्रेट नहीं किया। थकान और वृद्धत्व की वजह से ये लोग इस सचाई को शायद भूल गए। इसका विरोध लगभग एक सैकड़ा लेखकों ने किया, इसकी निंदा भी की थी। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि प्रभाष जोशी आर एस एस हेडक्वार्टर महाल नागपुर के सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति थे और वहां दिन रात उनके लिए दरवाजे खुले रहते थे। वहां प्रभाष जोशी की सत्ता थी। लेकिन राज्यसभा में जाने में मदद न करने की वजह से वे आखिरकार नाराज हुए, दूर हुए। रातोरात कोई परिवर्तन नहीं हो गया। मित्रों आपको शायद पता कि प्रभाष जी ही हरिशंकर परसाईं के घोर विरोधी थे। ज्ञानरंजन यहीं नहीं रुके थे उन्होंने नामवर जी पर भी हमला बोला था सारे प्रघानमंत्रियों से मैत्री के बावजूद वे न तो दूतावासों में जा सके, न राज्यपाल बन सके, न राज्यसभा में प्रवेश पा सके। साहित्य अकादमी अलग निकल गई। अब नोचे जाने के लिए हमलोग बचे हैं। अंत में उनकी टिप्पणी थी नामवर जी का ठंडा कसाईपन, मुद्रा राक्षस की कालिखी उमंग और राजेन्द्र यादव की जो हमसे टकराएगा चूर चूर हो जाएगा वाली धमकी हमारे लिए संघर्ष की नई राह खोलती है। इस तरह के शब्दों में व्यक्तिगत हमले शुरू हो गए थे। बकायदा पुस्तिका छाप कर क्योंकि तब फेसबुक जमाना नहीं था।
ये वही दौर था जब राजेन्द्र यादव के लेख होना/सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ को लेकर भी साहित्य जगत में जमकर वाद विवाद हुए थे। यहां यह बताना जरूरी है कि जब साहित्य अकादमी के चुनाव में महाश्वेता देवी और गोपीचंद नारंग के बीच मुकाबला हुआ था तो उस वक्त हिंदी जगत ने एक बेहद अप्रिय विवाद देखा था। गोपीचंद नारंग पर जिस तरह के आरोप लगाए गए थे वो बेहद घटिया थे। कहा गया था कि अगर नारंग अध्यक्ष बन गए तो साहित्य अकादमी संस्कार भारती की सैटेलाइट बन जाएगी। उस वक्त अपने सारे मतभेदों को भुलाकर नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र यादव एक हो गए थे। गोपीचंद नारंग के खिलाफ साहित्यिक महागठबंधन बना था। महागठबंधन बना तो जरूर था लेकिन उसका फायदा महाश्वेता देवी को नहीं हो सका था और नारंग पर तमाम घटिया आरोपों के बावजूद उनकी जीत हुई थी और साहित्यिक महागठबंधन हार गया था।  इस तरह के कई विवादास्पद किस्से हैं। और अभी हाल मे जिस तरह से विश्वनाथ त्रिपाठी प्रकरण में साहित्यिक गरिमा तार तार हुई वो सबसे सामने है।
ताजा विवाद उठा हिंदी की वरिठ लेखिका उषाकिरण खान की एक टिप्पणी से जो उन्होंने उपन्यासकार रजनी गुप्त के हाल में प्रकाशित उपन्यास किशोरी बिन्नू का ब्लर्ब लगा कर लिखी। ऊषा किरण खान ने लिखा- मैत्रेयी पुष्पा जी ने सच कहा कि किशोरी बिन्नू बुंदेलखंड के हर गाँव में मिलेगी। मैं कहती हूँ भारत के सभी गांव में रहती है ऐसी स्त्री। यहां तक तो सब सामान्य था लेकिन इस पोस्ट पर मैत्रेयी की टिप्पणी से विवाद की ज्वाला भड़क गई। मैत्रेयी ने लिखा- किशोरी बिन्नू नामक रजनी गुप्त के उपन्यास का फ्लैप मैंने नहीं लिखा है। यह इस उपन्यास की लेखिका की धोखाधड़ी है। मेरे नाम का इस्तेमाल करना कानूनन अपराध है। ऐसी लेखिकाएं ही आज के लेखन को संदेहास्पद बनाती हैं। मैत्रेयी पुष्पा की इस टिप्पणी पर रजनी गुप्त ने सफाई दते हुए मैत्रेयी को संबोधित टिप्पणी की। उसमें लिखा- यह उपन्यास किशोरी का आसमां के नाम से पहले छपा था जिसकी भूमिका आपने ही लिखी थी। रजनी गुप्त ने फिर कई टिप्पणियां की जिसमें वो लगातार ये जताने की कोशिश करती रही कि ये वही पुराना उपन्यास है सिर्फ शीर्षक बदला है। कुछ बचकानी दलीलें भी दीं कि ये दूसरा संस्करण है, सिर्फ शीर्षक ही तो बदला है। जब उनपर ये आरोप लगा कि ये पाठकों के साथ छल है तो उन्होंने कहा कि नए उपन्यास में पहले पृष्ठ पर ये साफ तौर पर लिखा है कि ये उपन्यास पहले फलां नाम से छप चुका है। विवाद इतना बढ़ा कि मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा कि रजनी गुप्त झूठ और धोखेबाजी की मास्टर हैं। फिर क्या था अन्य लोग भी इसमें कूद पड़े । कुछ रजनी के पक्ष में मैत्रेयी को कोसने लगे तो कुछ ने रजनी को नसीहत दी कि आपको मैत्रेयी को बताना चाहिए थे। मारने पीटने तक की अमर्यादित बातें हुईं। कुछ लोगों ने मजे लिए तो कुछ ने गंभीरता से सवाल उठाए। इस पूरे प्रकरण में सबसे अच्छी भूमिका प्रकाशक की रही, प्रकाशन ने फौरन खेद प्रकट किया, मैत्रेयी जी से माफी मांगी और फ्लैप को बाजर से वापस लेने का एलान कर दिया।
इस पूरे प्रकरण को देखने समझने के बाद मेरे मन में कुछ सवाल उठ रहे हैं। पहली बात तो ये कि जो उपन्यास एक दशक पहले किसी अन्य प्रकाशन से छपा हो उसको नए प्रकाशक से दूसरे नाम से छपवाने का औचित्य क्या है। अगर छपवाना ही था तो नाम क्यों बदला गया? नाम बदला गया तो पुराने फ्लैप लेखक को सूचित क्यों नहीं किया गया। नए उपन्यास किशोरी बिन्नू में फ्लैप पर जो छपा है उसको देखने पर लगता है कि पूर्व में लिखे से छेड़छाड़ की गई। नए फ्लैप में लिखा है साहित्य जगत में लेखिका का नाम नया नहीं है, लेकिन प्रस्तुत उपन्यास का तेवर नया है, जिसका नाम है किशोरी बिन्नू। अब सवाल यही है कि अगर मैत्रेयी ने किशोरी का आसमां का फ्लैप लिखा था तो उसमें जाहिर सी बात है किशोरी का आसमां लिखा होगा, वो यहां वो किशोरी बिन्नू कैसे हो गया। इस बात का उत्तर तो रजनी गुप्त को देना चाहिए। अगर उन्होंने इसको बदला है तो इस बात की सूचना मैत्रेयी पुष्पा को दिया जाना चाहिए था। जो कि इस केस में नहीं हुआ प्रतीत होता है। यह क्या है इसको परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल हिंदी में प्रोफेशनलिज्म का घोर अभाव है और कोई किसी का नाम कहीं भी इस्तेमाल करते वक्त ये भूल जाता है कि आने वाले दिनों में ये समस्या हो सकती है। इस समस्या से जो विवाद उठता है वो इतना विद्रूप होता है जो साहित्य जगत को शर्मिंदा करने के लिए काफी होता है। इस पूरे प्रकरण में भी यही हुआ। झूठ, फरेब, मक्कारी से लेकर बीहड़ में ले जाकर मारने पीटने जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ, शर्मसार तो हिंदी साहित्य ही हुआ। पता नहीं कब हिंदी में प्रोफेशनलिज्म आ पाएगा?