आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए कुछ
छोटे, मंझोले और तथाकथित बड़े फिल्मकारों और फिल्म से जुड़े लोगों ने देश की जनता
से भारतीय जनता पार्टी को वोट नहीं देने की अपील की है। भारतीय जनता पार्टी को वोट
नहीं देने की अपील करनेवाले फिल्मों से जुड़े ये लोग ‘सेव डेमोक्रेसी’ के बैनर
तले जमा हुए हैं। अपील करनेवालों में आनंद पटवर्धन, देवाशीष मखीजा, सनल कुमार
शशिधरन जैसे लोग शामिल हैं। उनका तर्क है कि भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में घृणा
और ध्रुवीकरण की राजनीति की जा रही है, गाय के नाम पर समाज को बांटा जा रहा है।
अल्पसंख्यकों और दलितों को सायास हाशिए पर डाला जा रहा है। जाहिर सी बात है कि जब
इस तरह की बात होगी तो फासीवाद की बात भी होगी। इनमें से कई लोग पिछले पांच सालों
में फासीवाद को महसूस करने की बात कर रहे हैं। इनका एक तर्क ये भी है मोदी सरकार
ने पिछले पांच सालों में जानबूझकर संस्थाओं को कमजोर किया है। उनका आरोप है कि कोई
भी व्यक्ति अगर मोदी सरकार के खिलाफ बोलता है तो उसको देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी
करार दे दिया जाता है। फिल्मों से जुड़े ये लोग कोई नई बात नहीं कह रहे हैं। ये
तमाम बातें 2015 से ही की जा रही हैं। इनमें से कुछ फिल्मकार पुरस्कार वापसी के
दौर में भी सक्रिय थे और अब भी सक्रिय हैं। तब भी अपील आदि की गई थी। दरअसल ये कला और संस्कृति की आड़ में राजनीति
करते हैं और अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए इस तरह की बयानबाजी करते हैं।
ये चुनाव के मौके पर विशेष तौर पर सक्रिय होते हैं।
फिल्मों से जुड़े ये लोग जब संस्थाओं को खत्म
करने और फासीवाद की बात करते हैं तो वो बेहद हास्यास्पद लगते हैं। इस संबंध में एक
ही उदाहरण काफी होगा। झारखंड की बीजेपी सरकार ने 7 मार्च 2019 को एक अधिसूचना जारी
की और झारखंड फिल्म तकनीकी सलाहकार समिति को भंग कर उसके स्थान पर फिल्म डेवलपमेंट
काउंसिल ऑफ झारखंड का गठन किया। इसके अध्यक्ष पद पर मेघनाथ नाम के एक वृत्तचित्र
निर्माता को नामित किया गया। उनके अलावा पंद्रह और सदस्यों को भी मनोनीत किया गया।
माना जा सकता है कि यह नियमित नामांकन और कमेटी का गठन है, लेकिन इस सूची पर नजर
डालने से साफ हो जाता है कि इसमें नामित कई सदस्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और
भारतीय जनता पार्टी के घोर विरोधी हैं। इसके अध्यक्ष मेघनाथ के फेसबुक पोस्ट और
साझा किए जानेवाली सामग्री को देखकर इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि वो
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और भारतीय जनता पार्टी के किस हद तक विरोधी
हैं बल्कि ये कहना ज्यादा उचित होगा कि वो इनसे घृणा करते है। अमित शाह और
नरेन्द्र मोदी पर व्यक्ति हमले और अमर्यादित टिप्पणियों को वो नियमित तौर पर अपने
फेसबुक वॉल पर साझा करते रहे हैं। इसके अलावा मेघनाथ की संस्था ‘अखड़ा’ के साथी भी इसमें
नामित हुए हैं। इतना ही नहीं पिछले वर्ष के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के वक्त जब
कुछ कलाकारों ने विरोध प्रदर्शन किया था तो उसके पीछे भी मेघनाथ की भूमिका थी। वो
सक्रिय रूप से उस प्रदर्शन में शामिल होकर तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री
स्मृति ईरानी के खिलाफ बयानबाजी कर रहे थे। बाववूद इसके उनको झारखंड की रघुवर दास
के नेतृत्व वाली सरकार ने नामित किया। एक और तथ्य पाठकों को जानना आवश्यक है कि झारखंड
सरकार ने जिस झारखंड फिल्म तकनीकी सलाहकार समिति को भंग किया उसके अध्यक्ष अनुपम
खेर थे। तो अगर फासीवाद होता तो मेघनाथ और उनके साथियों का नामांकन कैसे हो पाता? इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं जहां भारतीय जनता
पार्टी सरकार ने अपने विरोधियों को जगह दी। अभी हाल ही में दिल्ली के नेशनल स्कूल
ऑफ ड्रामा ने अपने एक कार्यक्रम में कपिला वात्स्यायन को अतिथि के तौर पर बुलाया।
तो आनंद पटवर्धन जैसे लोग जब फासीवाद की बात करते हैं वो खोखले लगते हैं। दरअसल ये
दर्द तब झलकता है जब उनको लगता है कि सरकारी संस्थाओं में उनको जगह नहीं मिलेगी।
तमाम मिथ्या आरोपों को उछालकर वो सरकार के खिलाफ माहौल बनाना चाहते हैं।
अब अगर हम फिल्मी दुनिया की बात करें तो वहां भी
विचित्र स्थिति दिखाई पड़ती है। खासतौर पर अगर हम हिंदी फिल्मों की बात करें तो यह
याद नहीं पड़ता कि पिछले कई सालों में कोई ऐसी फिल्म आई हो जो लोकतंत्र को मजबूत
करने की बात करती हो। जो वोट की ताकत को शिद्दत के साथ रेखांकित करती हो। पिछले तीस-चालीस
साल में कई राजनीतिक फिल्में बनीं, उनमें से ज्यादातर बहुत हिट रहीं लेकिन ज्यादातर
में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए मतदान की महत्ता के बारे में नहीं बताया गया। किसी
में ये नहीं कहा गया कि राजनीतिक सिस्टम को ठीक करने के लिए जनता के हाथ में वोट
का अहिंसक हथियार है जो बगैर किसी शोर-शराबे के सरकार बदल और बना सकती है। ज्यादातर
फिल्मों में हिंसा का सहारा लिया गया। 1984 में अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी की
प्रमुख भूमिका वाली फिल्म ‘इंकलाब’ आई थी। इस फिल्म
में अमिताभ बच्चन पुलिस इंसपेक्टर की भूमिका में थे। परिस्थियां ऐसी बदलीं कि वो
चुनाव लड़ते है, जीतने के बाद सरकार चलाने के लिए अपने सहयोगियों को चुनने के लिए
पहुंचते है। वहां पहुंचकर वो सबका कत्ल कर देते हैं। सिस्टम को ठीक करने का हिंसक
और क्रूर तरीका। अलोकतांत्रिक भी। ऐसा सिर्फ फिल्म ‘इंकलाब’ में ही नहीं होता है। उसी वर्ष एक और फिल्म आई
थी ‘आज का एम एल ए रामअवतार’। इस फिल्म के क्लाइमैक्स में राजेश खन्ना
समाजवाद पर लंबा भाषण देते हैं लेकिन जनता के साथ खड़े शत्रुघ्न सिन्हा जब संतुष्ट नहीं होते हैं तो भीड़ को मंच पर बैठे
नेताओं को मार डालने के लिए उकसाते हैं. उनका मानना है कि सभी भ्रष्ट नेताओं को
खत्म करके ही सिस्टम ठीक होगा। इस फिल्म में भी मतदाताओं को ये नहीं बताया जाता कि
उनके पास वोट की ताकत है। बाद में भी ऐसी कई हिट फिल्में बनीं लेकिन ज्यादातर में
फिल्मकारों ने हिंसक लोकतंत्र की वकालत की। ‘नायक’ फिल्म में भी मुख्यमंत्री के किरदार को सिस्टम
को ठीक करने के लिए मारपीट का ही सहारा लेना पड़ता है। मुख्यमंत्री ना केवल
छापेमारी करता है बल्कि गुंडों और मवालियों को पीटता भी है। फिल्म ‘रंग दे बसंती’ में भी यही सब होता
है। भ्रष्टाचारी मंत्री की मौत को जब शहादत में बदला जाता है तो ऑल इंडिया रेडियो
पर कब्जा करके जनता को सचाई बताए जाने का ड्रामा रचा जाता है। खूनी क्रांति की तो
बात की जाती है लेकिन कहीं से वोट की ताकत पर कोई नहीं बोलता। फिल्म ‘दामुल’, ‘राजनीति’, ‘शूल’ से लेकर ‘न्यूटन’ तक में हिंसा को ही
लोकतंत्र के हथियार के तौर पर अहमियत दी गई है कहीं भी वोट की ताकत या उसकी महिमा
को नहीं बताया गया है।
शायद ही तथाकथित सार्थक सिनेमा के दौर में भी ऐसी
कोई फिल्म बनी हो जिसमें जनता को ये संदेश देने की कोशिश की गई हो कि अहिंसक तरीके
से यानि वोट के जरिए भी सिस्टम को ठीक किया जा सकता है। अपने पसंद के नेता को चुना
जा सकता है। सरकार बदली जा सकती है। ये तर्क दिया जा सकता है कि ये काल्पनिक
कहानियां हैं और फिक्शन के आधार पर बनाई जानेवाली फिल्मों से इस तरह की अपेक्षा
व्यर्थ है। कई ऐसी फिल्में हैं जिसमें राजनीतिक रूप से अहम टिप्पणियां बगैर किसी
संदर्भ के की जाती है। उसके पीछे राजनीतिक नैरेटिव बनाने की मंशा होती है। अनुराग
कश्यप की फिल्म आई थी ‘मुक्काबाज’। उसमें एक पंक्ति
ऐसी कही गई जिसका कोई संदर्भ या मायने नहीं था। फिल्म चल रही थी अचानक से एक संवाद
आता है कि ‘वो आएंगे, भारत माता की जय बोलेंगे और हत्या करके
चले जाएंगे’। परोक्ष रूप से यह एक नैरेटिव खड़ा करने की
कोशिश है। किसी दल या विचारधारा के विरोध में माहौल बनाने की कोशिश है जिससे कि
फिल्मकार की विचारधारा और उससे जुड़े राजनीतिक दल को फायदा हो सके। फिल्मों का
समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है और यह एक ऐसा माध्यम है जिसके जरिए बहुत कुछ
सार्थक किया जा सकता है बशर्ते कि करने की मंशा हो। जब फिल्मों के जरिए राजनीति हो
सकती है, जब फिल्मों के जरिए किसी दल विशेष के पक्ष या विपक्ष में माहौल बनाने की
कोशिश हो सकती है तो क्यों नहीं लोकतंत्र के पक्ष में, उसकी आधारभूत अवधारणा को
मजबूत करने के लिए कोई फिल्म बनाई जा सकती है। हिंदी फिल्मों के इस हिंसक लोकतंत्र से
निर्माताओं को जबरदस्त कमाई हो सकती है, हुई भी लेकिन इससे लोकतंत्र को मजबूती
नहीं मिलती बल्कि वो परोक्ष रूप से कमजोर ही होता है।