Translate

Showing posts with label सुप्रीम कोर्ट. Show all posts
Showing posts with label सुप्रीम कोर्ट. Show all posts

Saturday, October 27, 2018

संस्कृति को अज्ञानता की चुनौती


आधीरात को सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक को छुट्टी पर भेजे जाने के केंद्र सरकार के फैसले के बाद जिस तरह का घटनाक्रम चला उसमें एक महत्वपूर्ण बहस दब गई। केंद्र सरकार के इस फैसले के ठीक पहले केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने मुंबई में एक बयान दिया था जो सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के संदर्भ में था। स्मृति ईरानी ने कहा कि उनका इस बात में विश्वास है कि उनको प्रार्थना या पूजा का अधिकार है लेकिन अपवित्र करने का अधिकार नहीं है।अपनी इस बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने यह भी सवाल पूछा था कि क्या कोई रजस्वला स्त्री अपने दोस्त के घर सैनिटरी नैपकिन लेकर जाती है। ईरानी की पूरी बात को समग्रता में समझे बगैर उसपर हंगामा मचा दिया गया। खुद को प्रगतिशील कहनेवाली चंद महिलाओं ने इस बयान को इस तरह के पेश किया जैसे कि रजस्वला स्त्री को अपवित्र कहा जा रहा है। ये किसी भी बात को संदर्भ से काटकर पेश करने का नमूना था। संदर्भ सबरीमला मंदिर का था जहां से इस तरह की खबरें आ रही थीं कि कुछ महिला कार्यकर्ता सैनिटरी नैपकिन लेकर मंदिर में प्रवेश करने की जुगत में थीं। दरअसल सबरीमला मंदिर को लेकर यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही थी कि वहां 10 से 50 साल की किशोरियों और महिलाओं को प्रवेश नहीं होता था। लेकिन 28 सितंबर के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी आयुवर्ग की महिलाओं को सबरीमला मंदिर में प्रवेश की इजाजत दे दी थी। उसके बाद से मंदिर में प्रवेश को लेकर केरल में काफी विवाद हो रहा है। मंदिर में प्रवेश को लेकर ये विवाद काफी लंबे समय से चल रहा है, माना यह जाता रहा है कि इस तय आयुवर्ग में किशोरियां और महिलाएं रजस्वला हो जाती हैं तो उस दौर में मंदिर में ही नहीं जाना चाहिए। अब इसको परंपरा कह लें या रूढ़ियां कि ये आम भारतीय परिवारों में माना जाता है कि रजस्वला स्त्रियां पूजा पाठ नहीं करती हैं। स्त्रियां इसको स्वयं मानती हैं और उन दिनों में उसी के अनुसार काम करती हैं। दरअसल परंपरा और रूढ़ियों से ज्यादा ये मसला संस्कार और संस्कृति का है।   
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद महिला अधिकारों के झंडाबरदार काफी आगे चली गईं। उनको लगने लगा कि ये महिला अधिकारों का हनन है, स्त्री स्वातंत्र्य का गला घोंटा जा रहा है। उनको अगर ये महसूस हो रहा है तो यह उनका अधिकार है, लेकिन भारतीय समाज में स्त्रियों के जो संस्कार हैं या उनके त्याग के जो उदाहरण हैं वो अप्रतिम हैं। वो अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए अपने अंग तक काट सकती हैं और कई उदाहरण तो ऐसे हैं कि स्त्रियों ने अपने प्राण भी त्याग दिए। पौराणिक कथा है जिसको देखा जाना आवश्यक है। कहानी के मुताबिक उत्तरापथ जनपद में उत्पलावती नाम का एक शहर था। उस शहर में भयंकर अकाल की वजह से लोगों का जीना कठिन हो गया था, भोजन मिलना अत्यंत मुश्किल था। उस दौर में वहां रूपावती नाम की एक बेहद सुंदर स्त्री रहती थी। एक बार रूपावती शहर घूमने निकली और घूमते घूमते एक घर में पहुंची जहां एक स्त्री ने बच्चे को जन्म दिया था। जन्म देनीवाली स्त्री इतनी भूखी थी कि उसने अपने जन्म दिए हुए बच्चे को ही खाने की इच्छा जताई। यह जानकर रूपावती ने उससे पूछा कि ये क्या कर रही हो। उस स्त्री ने कहा कि बहुत भूखी हूं इस वजह से अपने बच्चे के मांस से ही भूख मिटाना चाहती हूं। रूपावती ने फिर पूछा कि क्या तुम्हारे घर में अन्न नहीं है, क्या क्योंकि संतान तो दुर्लभ होती है। स्त्री ने रूपावती को उत्तर दिया कि मेरे घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है और संसार में सबसे दुर्लभ तो जीवन है। रूपावती उसको भरोसा देती है कि वो अपने घर जाकर खाने का कुछ सामान लेकर आती है, लेकिन वो स्त्री भूख से इतनी व्याकुल थी कि उसने कहा कि जब तक तुम घर जाकर खाना लाओगी तबतक मेरी मृत्यु हो जाएगी। अब रूपावती के सामने संकट था। वो सोच रही थी कि अगर बच्चे को लेकर गई तो स्त्री भूख से मर जाएगी और अगर बच्चे को छोड़कर गई तो ये स्त्री उसको खा लेगी। उसी वक्त रूपावती सोचती है कि अगर वो अपने आत्मतेज, बल और उत्साह का सहारा लेकर इस स्त्री को अपने मांस से तृप्त कर दे तो दोनों की जान बच जाएगी। रूपावती ने उस स्त्री से पूछा कि तुम्हारे घर में कोई हथियार है। उस स्त्री ने उसको वह जगह बताई जहां कटार रखी थी। रूपावती ने उस तीखी कटार से अपने दोनों स्तन काटकर उस स्त्री को रक्त और मांस से तृप्त कर दिया। उसके बाद रूपावती ने उस स्त्री से वादा लिया कि वो जबतक अपने घर से उसके लिए खाने का सामान लेकर आती है तबतक वो अपने बच्चे को सुरक्षित रखेगी। रूपावती अपने घर पहुंची को उसके शरीर से रक्त बहता देख पति ने पूछा कि क्या हुआ तो उसने पूरा वाकया बताया और अनुरोध किया कि खाना लेकर उसके घर जाओ।
यह सुनकर उसके पति ने कहा कि भोजन लेकर तो तुम ही जाओगी। रूपावती के पति ने सत्य की शपथ की और कहा कि तेरे जिस सत्य वचन से इस प्रकार का आश्चर्यमय अभूतपूर्व धर्म हुआ है वह कभी ना तो देखा गया और ना ही कभी सुना गया। उस सत्य की महिमा से तेरे दोनों स्तन पूर्ववत हो जाएं। सत्य के शपथ के उच्चारण के साथ ही महिला के दोनों स्तन पूर्ववत हो गए। कहा जाता है कि रूपावती के इस त्याग को देखकर इंद्र का सिंहासन भी हिल उठा था। इंद्र भेष बदलकर रूपावती के मन की थाह लेने पहुंचे और पूछा कि तुम्हारे मन में क्या विचार आए थे जो तुमने ऐसा किया। रूपावती ने कहा कि उसने उसने जो किया वो न तो राज्य के लिए, न भोगों के लिए , न इंद्रपद के लिए और न चक्रवर्ती राजाओं जैसे साम्राज्य के लिए था।
दरअसल सच्चे कार्यकर्ता का जो त्याग होता है उसका ध्येय यही होता है कि जो बंधन में हैं वो बंधन मुक्त हो जाएं, जो निराश हैं उनके अंदर आशा का संचार हो और मुष्य के अंदर के दुख को समाप्त किया जाए। उसके लिए भाव महत्वपूर्ण हैं।
भारतीय संस्कृति में भाव बेहद महत्वपूर्ण हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद भी इस भाव को देखा जाना आवश्यक है और मुझे तो कई बार लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय को अपने फैसले के बाद इन घटनाओं पर भी नजर रखना चाहिए। होना ह चाहिए कि कोर्ट के फैसले के बाद कोई रजस्वला स्त्री अगर चाहे जो जाए और पूजा और दर्शन करके लौट आए। यही भाव होना चाहिए। अपने रजस्वला होने का प्रदर्शन करते हुए पूजा करने जाना तो मंशा पर सवाल खड़े करता ही है। जब कोई स्त्री अपने रसजस्वला होने का प्रदर्शन कर मंदिर जा रही होती तो उसका भाव पूजा का या भगवान के दर्शन का नहीं होता है बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि वो प्रदर्शन के लिए जा रही हैं। स्मृति ईरानी का बयान इसी भाव को ध्यान में रखकर दिया गया प्रतीक होता है। उन्होंने तो इस बयान के साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव भी साझा किए। उनके बयान को छद्म-प्रगतिशीलता के आईने में देखा गया और बेवजह वितंडा खड़ा करने की कोशिश की गई। अगर बयान के भाव को समझा गया होता, अगर भारतीय संस्कृति और संस्कार का ध्यान रखा जाता तो इस तरह से विवाद खड़ा नहीं होता। विवाद खड़ा के लिए आवश्यक था कि बयान के साथ साथ पूरे मसले को इस तरह से पेश किया जाए कि इससे स्त्री का अपमान हुआ है। और यह कोई नई बात नहीं है, इस तरह से भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने की पहले भी कोशिश हुई है। स्मृति ने कहीं ऐसा नहीं कहा कि मंदिर में रजस्वला स्त्री को नहीं जाना चाहिए। उसने कहीं नहीं कहा कि रजस्वला स्त्री अपवित्र होती है लेकिन इसको प्रचारित इसी तरह से किया गया। स्त्री को अधिकार दिलाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि किसी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाई जाए, सैकडों सालों से चली आ रही मान्यताओं पर प्रहार किया जाए। कुरीतियों पर प्रहार जरूरी है लेकिन कुरीति, रूढ़ी और परंपरा में अंतर है और इस अंतर को जब प्रगतिशीलता का झंडा उठानेवाले लोग समझ जाएंगें तो इस तरह के अज्ञानतापूर्ण विवाद खड़े नहीं होंगे।

Saturday, March 25, 2017

सबूतों से आस्था की इमारत मजबूत

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण । यह देश के हिंदुओं के लिए संवेदना से आगे जाकर आस्था का सवाल है । आजादी के बाद और खासकर अस्सी के दशक के बाद यह मुद्दा इतना संवेदनशील रहा है कि इसने लोगों को गहरे तक प्रभावित किया । राम जन्मभूमि को लेकर देश ने आंदोलनों का ज्वार देखा, बाबरी मस्जिद का विध्वंस देखा, सरकारों की बर्खास्तगी देखी, इस मुद्दे को देश की सियासत की धुरी बनते देखा, प्रचंड बहुमत से जीते राजीव गांधी की सरकार के दौर में मंदिर का ताला खुलते और विवादित स्थल के बाहर शिलान्यास होते देखा और अब देख रहे हैं अदालतों में चल रही लंबी कानूनी लड़ाई । अगर यह मुद्दा पिछले सत्त साल से लोगों को लगातार मथ रहा है तो समझना चाहिए कि यह जनमानस में कितने गहरे तक पैठा हुआ है । सितंबर दो हजार दस में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मसले में फैसला दिया और जमीन को तीन हिस्से में बांटने का हुक्म दिया तो सभी पक्षकार सुप्रीम कोर्ट चले गए और इस फैसले के खिलाफ अपील कर दी । तब से यह मसला वहां लंबित है । हाल ही में बीजेपी सांसद सुब्रह्ण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि वो इस मसले पर रोजाना सुनवाई कर अपना फैसला सुनाएं । स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने जो टिप्पणी की उसपर पूरे देश में एक बार फिर से सियासत गर्मा गई है । सर्वेच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहर ने अपनी टिप्पणी में कहा कि धर्म और आस्था से जुड़े मसले आपसी सहमति से सुलझाए जांए तो बेहतर रहेगा । सर्वसम्मति से किसी समाधान पर पहुंचने के लिए आप नए सिरे से प्रयास कर सकते हैं । अगर आवश्यकता हो तो आपको इस विवाद को खत्म करने के लिए मध्यस्थ भी चुनना चाहिए । अग इस केस के पक्षकार की रजामंदी हो तो मैं भी मध्यस्थों के साथ बैठने के लिए तैयार हूं । चीफ जस्टिस ने इसके साथ ही अपने साथी जजों के सेवाओं की पेशकश भी की । राम मंदिर के मसले पर यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं है सिर्फ टिप्पणी है लेकिन इस टिप्पणी में मुख्य न्यायाधीश ने एक बेहद अहम बात कह दी है जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है । जस्टिस खेहर ने कहा कि धर्म और आस्था के मसले में बातचीत का रास्ता बेहतर होता है। क्या यह माना जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया है कि राम मंदिर का मुद्दा धर्म के साथ साथ आस्था का भी है । अगर कोर्ट ऐसा मानती है तो फिर बातीचत की सूरत नहीं बनने पर उससे इसी आलोक में फैसले की अपेक्षा की जा सकती है ।  
हलांकि इस पूरे विवाद में सुब्रह्ण्यम स्वामी ना तो पक्षकार हैं और ना ही किसी पक्षकार के वकील लेकिन फिर भी उन्होंने इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में अपनी बात रखी है, जिसपर कोर्ट ने उक्त टिप्पणी करते हुए उनको इकतीस मार्च को फिर बुलाया है । कोर्ट के इस प्रस्ताव को लगभग सभी पक्षकारों ने ठुकरा दिया है और कोर्ट से आग्रह किया है कि वो फैसला करें जो सभी पक्षों को मान्य होगा । श्रीराम जन्मभूमि न्यास के महंत नृत्य गोपालदास ने साफ किया है कि उनको किसी भी तरह की मध्यस्थता स्वीकार नहीं है । उनका तर्क है कि विवादित स्थल पर सभी पुरातात्विक साक्ष्य मंदिर के पक्ष में है । उधर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्डसमेत कई मुस्लिम संगठन अदालत के बाहर इस मसले के समाधान को लेकर आशान्वित नहीं हैं ।   दरअसल अगर हम देखें तो बातचीत से सुलग इस वजह से भी संभव नहीं है क्योंकि इसमें कुछ लेना और कुछ देना पड़ता है, जिसकी ओर सुप्रीम कोर्ट ने भी इशारा किया था । जिस देश में राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में आदर्श मानकर पूजे जाते हों वहां उनके जन्मस्थल को लेकर लेन देन होना अफसोसनाक तो है ही करोड़ों लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ भी है । और फिर सवाल सिर्फ आस्था का नहीं है, आस्था तो लंबी अदालती लड़ाई के दौर में सबूतों की जमीन पर और गहरी होती चली गई है । अगर हम दो हजार दस के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को देखें तो उसमें भी उस जगह को राम जन्मभूमि मान लिया गया था । इसके अलावा पुरातत्व विभाग की रिपोर्टों भी इसके पक्ष में ही है । दस हजार पन्नों के अपने फैसले में कोर्ट ने जमीन के मालिकाना हक का फैसला कर दिया था । हाईकोर्ट के इस फैसले के पहले भी सात या आठ बार बातचीत से इसको हल करने की नाकाम कोशिशें हुई थीं । शिया पॉलिटिकल कांफ्रेंस के सैयद असगर अब्बास जैदी ने भी कोशिश की थी और प्रस्ताव दिया था कि जहां रामलला विराजमान हैं वहां राम का भव्य मंदिर बने मुस्लिम समुदाय के लोग पंचकोशी परिक्रमा के बाहर मस्जिद बना लें । लेकिन यह मुहिम परवान नीं चढड सकी थी । दो हजार चार के बाद जस्टिस पलोक बसु ने भी इस दिशा में प्रयास किया था लेकिन वो भी सफल नहीं हो सका । चंद्रशेखर से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों ने भी इस दिशा में गंभीर कोशिश की थी लेकिन कभी मंदिक समर्थकों ने तो कभी मंदिर विरोधियों ने इस मुहिम को सफल नहीं होने दिया। दो हजार एक में तो कांची के शंकराचार्य ने भी मध्यस्थता की कोशिश की थी लेकिन उस वक्त विश्व हिंदू परिषद के विरोध की वजह से शंकराचार्य ने अरने कदम पीछे खींच लिए ।

मध्यस्थता की बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है लेकिन मामला इतना जटिल है कि इस तरह का कोई फॉर्मूला सफल हो ही नहीं सकता है । अगर किसी हाल में बातचीत की सूरत बनती भी है तो स्वामी और ओवैशी जैसे अलग अलग कौम के अलग अलग रहनुमा सामने आ जाएंगे जिससे पेंच फंसना तय है । मध्यस्थता की बजाए इस मसले पर देश के मुस्लिम समुदाय को बड़ा दिल दिखाना चाहिए और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए आगे आकर उदाहरण पेश करना चाहिए । इससे दोनों समुदायों के बीच आपसी सद्भाव बढ़ेगा क्योंकि यह तो तय है कि भारत के मुसलमानों के लिए भी आक्रमणकारी औरंगजेब से ज्यादा राम उनके अपने हैं । क्या इस देश में कोई मुसलमान ऐसा होगा जो अपने को औरंगजेब के साथ कोष्टक में रखना चाहेगा । अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर सोमनाथ मंदिर की तर्ज पर सरकार को कदम उठाकर राम मंदिर के निर्माण का रास्ता प्रशस्त करना चाहिए ।   

Sunday, May 17, 2015

दूरगामी असर का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आजादी पर अपने ताजा ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि किसी भी व्यक्ति को इस मसले पर पूर्ण आजादी नहीं है । अदालत के मुताबिक संविधान ने इस आजादी के साथ कुछ सीमाएं भी निर्धारित की हैं । अदालत के मुताबिक धारा 19(1) और 19(2) को एक साथ मिलाकर देखने पर स्थिति साफ होती है । सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में कहा कि कलात्मक अजादी के नाम पर लेखकों और कलाकारों को भी अपने माहापुरुषों के बारे में अभद्र और अश्लील टिप्पणी की छूट नहीं मिल सकती । लेखकों को भी शालीनता के समसामयिक सामुदायिक मापदंडों की सीमा लांघने की अनुमति नहीं दी जा सकती । दरअसल ये पूरा मामला 1994 में महात्मा गांधी पर छपी एक कविता को लेकर उठे विवाद पर दिया गया है । सुप्रीम कोर्ट के महात्मा गांधी पर लिखी एक कविता के ताजा फैसले के संदर्भ में मराठी के मशहूर लेखक श्रीपाद जोशी की आत्मकथा का 1939 का एक प्रसंग याद आ रहा है । एक अक्तूबर 1939 को महात्मा गांधी ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस से वर्धा से दिल्ली जा रहे थे । उनके डिब्बे में अचानक एक युवक पहुंचता है  जिसके हाथ में गोविंद दास कौंसुल की अंग्रेजी में लिखी एक किताब महात्मा गांधी, द ग्रेट रोग ( Rogue) ऑफ इंडिया थी । वो गांधी जी से अपने गुरू कौंसुल की किताब पर प्रतिक्रिया लेना चाहता था । गांधी के साथ बैठे महादेव देसाई ने जब किताब का शीर्ष देखा तो गुस्सा हो गए और उसे भगाने लगे । शोरगुल होता देख बापू ने उस युवक को अपने पा बुलाया और उसके हाथ से वो किताब ले ली और पूथा कि आप क्या चाहते हैं । युवक ने गांधी जी को बताया कि वो इस किताब पर उनका अभिप्राय लेना चाहता है । गांधी जी ने कुछ देर तक उस किताब को उलटा पुलटा और फिर उसपर लिखा- मैंने इस किताब को पांच मिनट उलट पुलटा है, अभी इस किताब पर निश्चित रूप से पर कुछ पाना संभव नहीं है । लेकिन आपको अपनी बात अपने तरीके से कहने का पूरा हक है । उसके बाद उन्होंने किताब पर दस्तखत किया और उसको वापस कर दिया। ठीक इसी तरह से जब 1927 में अमेरिकन लेखक कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया लिखी और उसमें भारत के बारे में बेहद अपमानजनक टिप्पणी की तब भी गांधी जी ने उस किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग का समर्थन नहीं किया था । गांधी जी ने उस किताब की विस्तृत समीक्षा लिखकर मेयो के तर्कों को खारिज किया था और अपना विरोध जताया था । उसी वर्ष अंग्रेजों ने भारतीय दंड संहिता में सेक्शन 295 ए जोड़ा तो उसको अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात के तौर पर देखा गया था और उसका जमकर विरोध हुआ था । लाला लाजपत राय ने पुरजोर तरीके से इसका विरोध करते हुए कहा था कि यह धारा आगे चलकर अकादमिक कार्यों में बाधा बनेगी और सरकारें इसका दुरुपयोग कर सकती हैं ।
दरअसल अगर हम देखें तो लाला लाजपत राय की बातें आगे चलकर सही साबित हुईं । संविधान के पहले संशोधन, जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी के दुरुपयोग की बात जोड़ी गई, के वक्त उसको लेकर जोरदार बहस हुई थी । तमाम बुद्धिजीवियों के विरोध के बावजूद उस वक्त वो संशोधन पास हो गया था । अब हालात यह हो गई है कि संविधान के पहले संशोधन और 295 ए मिलकर अभिव्यक्ति की आजादी की राह में एक बड़ी बाधा बन गई है । इन दोनों को मिलाकर किसी भी किताब या रचना पर पाबंदी लगाने का चलन ही चल पड़ा है । हमारे यहां लोगों की भावनाएं इस कदर आहत होने लगीं कि हम रिपब्लिग ऑफ हर्ट सेंटिमेंट की तरफ कदम बढ़ाते दिखने लगे । अब सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से देश के महापुरुषों को लेकर टिप्पणी करने को गलत ठहराया है उससे और बड़ी समस्या खड़ी होनेवाली है । एक पूरा वर्ग अब इस फैसले की आड़ में मिथकीय चरित्रों या देवी देवताओं पर टिप्पणी, उनके चरित्रों के काल्पनिक विश्लेषण की लेखकीय आजादी पर हमलावर हो सकता है । संविधान सभा की बहस के दौरान बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि उदारतावादी गणतंत्र बनाने के सपने के अपने खतरे हैं । उन्होंने उस वक्त कहा था कि अगर हम इस तरह का गणतंत्र चाहते हैं तो सामाजिक पूर्वग्रहों के उपर हमें संवैधानिक मूल्यों को तरजीह देनी होगी । सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले के बाद एक बार फिर से सवाल खड़ा हो गया है कि क्या संविधान की व्याख्या करते वक्त सामाजिक मानदंडों का ध्यान रखना जरूरी है ।


Thursday, December 19, 2013

अब बिलंब केहि कारण कीजै

गोस्वामी तुलसी दास जी रामचरित मानस में एक जगह कहते हैं साखामृग कै बड़ी मनुसाई, साखा ते साखा पर जाई । मतलब कि बंदर का बस यही पुरुषार्थ है कि वो एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है । संदर्भ लंका दहन के बाद हनुमान और राम का संवाद है । लेकिन इस वक्त हमारे देश में कानून की हालत साखामृग जैसी हो गई है । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ए के गांगुली पर लगे यौन शोषण के आरोपों में कानून और उसका पालन करवाने वाले भी साखामृग की तरह एक डाल से दूसरी डाल पर कूदने में ही अपना पुरुषार्थ समझ रहा है । पीड़ित इंटर्न, अब वकील, का हलफनामा सामने आने के बाद मामले की गंभीरता और बढ़ जाती है । अपने उपर लगे आरोपों के बाद जस्टिस गांगुली ने सफाई दी थी कि पीड़िता उनकी बच्ची की तरह है । उनकी सफाई और इंटर्न के हलफनामे में दर्ज उसकी आपबीती को मिला दें तो जस्टिस गांगुली का अपराध और बढ़ जाता है । शराब पीने की जिद करना, अपने कमरे में रात गुजारने की गुजारिश करना, शराब पिलाकर गले में हाथ डालना और हाथों पर चुंबन करना- क्या यह सब कोई अपने बच्चे के साथ करता है । इतना सब कुछ होने के बावजूद जस्टिस गांगुली पर अबतक केस दर्ज कर कार्रवाई नहीं करना उससे भी बड़ा अपराध है । दरअसल इस पूरे मामले अंग्रेजी का कहावत - यू शो मी द फेस, आई विल शो यू द लॉ सही प्रतीत हो रहा है । बड़े और ताकतवर लोगों के लिए कानून की परिभाषा और उसके निहितार्थ बदल कर उसकी व्याख्या की जा रही है । कानून अपनी तरह से काम करेगा के जुमले सुनने में आ रहे हैं लेकिन कानून का तरीका अलहदा है । पुलिस भी इस मामले में कार्रवाई करने में हिचकती नजर आ रही है । इस केस की जांच और कार्रवाई शुरू से ही धीमी गति से चल रही है । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ए के गांगुली का नाम लिए बगैर जब एक लड़की ने अपने साथ हुए वाकए को एक ब्लॉग के जरिए सार्वजनिक किया तो पूरे देश में हडकंप मच गया । इस तरह के केस में आगे बढ़कर पीड़ि्तों को न्याय दिलाने के लिए जोर शोर से मुद्दे को उठाने वाली मीडिया भी शुरुआत में सहमी नजर आई । संभवत सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज के आरोपी होने की वजह से मीडिया सावधानी से आगे बढ़ना चाह रहा था । धीरे ही सही लेकिन मीडिया ने इस मुद्दे को उठाए रखा । यह वही वक्त था जब तरुण तेजपाल का अपने ही एक सहयोगी से यौन शोषण का मामला सुर्खियों में था । दबी जुबान में ही सही सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पर यौन शोषण का आरोप भी सुर्खियों में आने लगा । मामले के चर्चित होते ही सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले की जांच के लिए तीन जजों की कमेटी बना दी । अब सवाल यह उठता है कि इन तीन जजों की कमेटी किस कानून और किस आधार पर बनाई गई । सुप्रीम कोर्ट को यह बात सार्वजनिक करनी चाहिए कि उसने किस कानून के तहत तीन जजों की जांच कमेटी बनाई । भारत के पूर्व एडिशनल सॉलिसीटर जनरल विकास सिंह ने तो एक टेलिविजन कार्यक्रम में यौन शोषण के आरोप की जांच के लिए बनाई गई सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की समिति को गैरकानूनी करार दिया । अपराध की जांच का काम पुलिस का होता है । किसी मामले की न्यायिक जांच की आवश्कता होती है तो कार्यपालिका इस बारे फैसला लेती है । कार्यपालिका के अनुरोध पर न्यायपालिका का मुखिया न्यायिक जांच के लिए न्यायाधीश तय करते हैं । लेकिन इस केस में तो कोर्ट ने स्वत: ये फैसला ले लिया की जांच तीन जजों की कमेटी करेगी । सवाल यही है कि किस कानून के तहत ।
सुप्रीम कोर्ट के जजों की समिति जब इंटर्न यौन शोषण मामले की जांच करने लगी तो पुलिस को इसकी आड़ मिल गई और उसने जांच शुरू नहीं की । तर्क ये दिया गया कि जब सुप्रीम कोर्ट के तीन जज इस मामले को देख रहे हैं तो पुलिस को इंतजार करना चाहिए । लिहाजा कोई मुकदमा भी दर्ज नहीं हुआ । जबकि तरुण तेजपाल के केस में पुलिस ने दो ईमेल के आधार पर मुकदमा दर्ज कर तफ्तीश शुरू कर दी थी । कालांतर में तरुण की गिरफ्तारी भी हुई । इंटर्न यौन शोषण मामले में भी पीड़िता ने लिखकर अपने साथ हुए पूरे वाकए का विवरण दिया था । बाद में सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के सामने हलफनामा भी दिया जो अब सबते सामने हैं । सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की समिति ने पीड़िता के बयान भी दर्ज किए । इस सारी कार्यवाही के बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सताशिवम ने एक बयान जारी किया । उस बयान में माना गया कि रिटायर्ड जस्टिस ए के गांगुली पर प्रथम दृष्टया गलत यौन व्यवहार का मामला लगता है । उसी बयान में यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये मामला जिस वक्त है उस वक्त ना तो जस्टिस ए के गांगुली सुप्रीम कोर्ट में थे और ना ही वो इंटर्न सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही थी । लिहाजा कोर्ट इस इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है । सवाल यह उठता है कि कोर्ट अगर कार्रवाई नहीं कर सकता है तो भी अगर प्रथम दृष्टया केस बनता है तो रजिस्ट्रार जनरल को केस दर्ज करवाने का आदेश तो दियाजा सकता था । या फिर पुलिस को जांच हुक्म दियया जाता है । इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी साफ आदेश नहीं दिया ना ही जस्टिस गांगुली के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी दी । इस पूरे मामले में पूरा देश सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ओर बड़ी अपेक्षा से देख रहा था । अपेक्षा ऐतिहासिक फैसले की थी । ऐसा नहीं होने से देश निराश हुआ ।

इसी बयान के बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चौतरफा सवाल खड़े होने लगे । कानून मंत्री कपिल सिब्बल और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता है । लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट खामोश है । आदर्श स्थिति तो यह होती कि उच्चतम न्यायालय की समिति को जब जस्टिस गांगुली के यौन व्यवहार में गलती दिखाई दी थी तो उनको उचित एजेंसी को यह निर्देश देना चाहिए था कि वो कानून सम्मत तरीके से काम करे । सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा भी नहीं किया । सुप्रीम कोर्ट से किसी तरह की कार्रवाई का आदेश या कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं आने से जस्टिस ए के गांगुली के हौसले को बल मिला और उन्होंने पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया । चौतरफा दबाव के बावजूद जस्टिस गांगुली पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के सदस्य बने हुए हैं । मामला संसद में उठ चुका है । गृह मंत्रालय कानून मंत्रालय की राय ले रहा है । सबसे बड़ी चुनौती जांच एजेंसियों यानि पुलिस की है । सुप्रीम कोर्ट से अपेक्षित आदेश नहीं मिलने के बाद पीड़िता के साथ साथ महिला अधिकारों की वकालत और संघर्ष करनेवालों का भरोसा भी अब पुलिस पर ही है । इस मामले में प्रधानमंत्री को फौरन दखल देकर राष्ट्रपति से जस्टिस गांगुली को बरखास्त करने की सिफारिश करनी चाहिए और पुलिस को केस दर्ज कर जस्टिस गांगुली से पूछताछ करनी चाहिए जरूरत पड़ने पर गिरफ्तारी भी । क्योंकि पीड़िता के हलफनामे के सार्वजनिक होने के बाद बिलंब की कोई वजह बच नहीं जाती है । अगर ऐसा होता है तो इससे कानून में लोगों की आस्था प्रगाढ़ होगी  नहीं तो फिर चेहरा देखकर कानून की बात और व्याख्या का मुहावरा सही साबित होगा । 

Friday, December 13, 2013

क्या मिलेगा न्याय

अंग्रेजी में एक कहावत है यू शो मी द फेस, आई विल शो यू द लॉ । इस मुहावरे का प्रयोग बड़े और सक्षम लोगों के लिए किया जाता है जिनके लिए कानून की परिभाषा और उसके निहितार्थ बदल कर उसकी व्याख्या की जाती है । यह कहावत सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ए के गांगुली के केस में सही होता हुआ प्रतीत हो रहा है । कानून की अलग अलग तरह से व्याख्या हो रही है । कानून अपनी तरह से काम करेगा के जुमले सुनने में आ रहे हैं लेकिन कानून का जो अपना तरीका है वो अलहदा है । पुलिस भी इस मामले में कार्रवाई करने में हिचकती नजर आ रही है । इस केस की जांच और कार्रवाई शुरू से ही धीमी गति से चल रही है । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ए के गांगुली का नाम लिए बगैर जब एक लड़की ने अपने साथ हुए वाकए को एक ब्लॉग के जरिए सार्वजनिक किया तो पूरे देश में हडकंप मच गया । इस तरह के केस में आगे बढ़कर पीड़ि्तों को न्याय दिलाने के लिए जोर शोर से मुद्दे को उठाने वाली मीडिया भी शुरुआत में सहमी नजर आई । संभवत सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज के आरोपी होने की वजह से मीडिया सावधानी से आगे बढ़ना चाह रहा था । धीरे ही सही लेकिन मीडिया ने इस मुद्दे को उठाए रखा । यह वही वक्त था जब तरुण तेजपाल का अपने ही एक सहयोगी से यौन शोषण का मामला सुर्खियों में था । दबी जुबान में ही सही सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पर यौन शोषण का आरोप भी सुर्खियों में आने लगा । मामले के चर्चित होते ही सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले की जांच के लिए तीन जजों की कमेटी बना दी । अब सवाल यह उठता है कि इन तीन जजों की कमेटी किस कानून और किस आधार पर बनाई गई । सुप्रीम कोर्ट को यह बात सार्वजनिक करनी चाहिए कि उसने किस कानून के तहत तीन जजों की जांच कमेटी बनाई । इस बात के साफ होने से सुप्रीम कोर्ट पर उठ रहे सवालों पर भी विराम लग जाएगा । भारत के पूर्व एडिशनल सॉलिसीटर जनरल विकास सिंह ने तो एक टेलिविजन कार्यक्रम में यौन शोषण का जांच करने के लिए बनाई गई सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की समिति को ही गैरकानूनी करार दे दिया था । किसी भी अपराध की जांच का काम पुलिस का होता है । अगर किसी भी मामले की न्यायिक जांच की आवश्कता होती है तो कार्यपालिका इस बारे फैसला लेती है । कार्यपालिका के अनुरोध पर न्यायपालिका का मुखिया न्यायिक जांच के लिए न्यायाधीश तय करते हैं । लेकिन इस केस में तो कोर्ट ने स्वत: ये फैसला ले लिया की जांच तीन जजों की कमेटी करेगी । सवाल यही है कि किस कानून के तहत ।
सुप्रीम कोर्ट के जजों की समिति जब इंटर्न यौन शोषण मामले की जांच करने लगी तो पुलिस को इसकी आड़ मिल गई और उसने जांच शुरू नहीं की । तर्क ये दिया गया कि जब सुप्रीम कोर्ट के तीन जज इस मामले को देख रहे हैं तो पुलिस को इंतजार करना चाहिए । लिहाजा कोई मुकदमा भी दर्ज नहीं हुआ । जबकि तरुण तेजपाल के केस में पुलिस ने दो ईमेल के आधार पर मुकदमा दर्ज कर तफ्तीश शुरू कर दी थी । कालांतर में तरुण की गिरफ्तारी भी हुई । लेकिन इंटर्न यौन शोषण मामले की जांच शुरू नहीं हुई । यहां भी पीड़िता ने लिखकर अपने साथ हुए पूरे वाकए का विवरण दिया था । मेरा मकसद इस केस की तुलना तरुण तेजपाल के केस से करने की नहीं है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की समिति की वैधता पर तो सवाल खड़े होते ही हैं । सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की समिति ने पूर्व जस्टिस ए के गांगुली, पीड़िता आदि के बयान दर्ज किए । उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सताशिवम के हस्ताक्षऱ से एक बयान जारी हुआ । उसमें माना गया कि रिटायर्ड जस्टिस ए के गांगुली पर प्रथम दृष्टया गलत यौन व्यवहार का मामला लगता है । उसी बयान में यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये मामला जिस वक्त है उस वक्त ना तो जस्टिस ए के गांगुली सुप्रीम कोर्ट में थे और ना ही वो इंटर्न सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही थी । लिहाजा कोर्ट इस इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है । सवाल यह उठता है कि कोर्ट अगर कार्रवाई नहीं कर सकता है तो भी अगर प्रथम दृष्टया केस बनता है तो जांच का आदेश तो दिया ही जा सकता है । इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी साफ आदेश देने से इंकार कर दिया । प्रथम दृष्टया गलती पाने के बाद भी जस्टिस गांगुली के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी भी नहीं दी गई । जस्टिस गांगुली के व्यवहार को लेकर भी कुछ नहीं कहा गया । इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की तरफ पूरा देश एक बड़ी अपेक्षा के साथ देख रहा था कि वहां से कोई ऐतिहासिक फैसला या कोई ऐतिहासिक निर्णय आएगा । लेकिन ऐसा नहीं होने से देश के लोगों में निराशा हुई ।

इसी बयान के बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चौतरफा सवाल खड़े होने लगे । कानून मंत्री कपिल सिब्बल और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता है । लेकिन अबतक इस पूरे मामले पर सुप्रीम कोर्ट खामोश है । आदर्श स्थिति तो यह होती कि उच्चतम न्यायालय की समिति को जब जस्टिस गांगुली के यौन व्यवहार में गलती दिखाई दी थी तो उनको उचित एजेंसी को यह निर्देश देना चाहिए था कि वो कानून सम्मत तरीके से काम करे । सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा भी नहीं किया । सुप्रीम कोर्ट से किसी तरह की कार्रवाई का आदेश या कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं आने से जस्टिस ए के गांगुली के हौसले को बल मिला और उन्होंने पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया । अब सबसे बड़ा सवाल है कि पीड़िता एक भरोसे के तहत जस्टिस गांगुली से मिलने गई थी । उसके मुताबिक वहां उसके साथ बदसलूकी हुई । अब सबसे बड़ी चुनौती जांच एजेंसियों यानि पुलिस की है । सुप्रीम कोर्ट से अपेक्षित आदेश नहीं मिलने के बाद पीड़िता के साथ साथ महिला अधिकारों की वकालत और संघर्ष करनेवालों का भरोसा भी अब पुलिस पर ही है । नहीं तो फिर चेहरा देखकर कानून की बात और व्याख्या का मुहावरा सही साबित होगा ।   

Sunday, August 11, 2013

साख पर सवाल

लोकतंत्र के इस संक्रमण काल में देश की संवैधानिक संस्थाएं एक एक करके राजनेताओं की कारगुजारियों की शिकार हो रही है । इस माहौल में भी देश की न्यायपालिका और न्यायमूर्तियों में देश का भरोसा बरकरार है । निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की बातें गाहे बगाहे समाने आती रहती हैं लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को अब भी कमोबेश भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद से मुक्त माना जाता है । कोई भी संस्थान को जनता का यह भरोसा जीतने में सालों लग जाते हैं, पीढियां गुजर जाती है । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से देश के सर्वोच्च न्यायालय और चीफ जस्टिस के बारे में खबरें छप रही हैं वो बेहद चिंता जनक हैं । सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस अल्तमस कबीर के रिटायर होने के पहले उनकी बहन की कलकत्ता हाईकोर्ट में नियुक्ति को लेकर खबर छपी, वो चौंकानेवाली थी । उस वक्त कलकत्ता हाई कोर्ट के जज रहे और अभी गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस भास्कर भट्टाचार्य ने अल्तमस कबीर पर बेहद संगीन इल्जाम लगाते हुए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस बारे में खत लिखा था । भास्कर भट्टाचार्य ने आरोप लगाया कि उन्होंने जस्टिस कबीर की बहन के कलकत्ता हाईकोर्ट में नियुक्ति का विरोध किया था जिसकी वजह से कबीर ने उनके सुप्रीम कोर्ट में प्रमोशन में अडंगा लगाया । जस्टिस भट्टाचार्य ने अपने खत में बेहद कड़े शब्दों में कबीर की बहन की नियुक्ति का विरोध किया था । भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर एक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस का आरोप लोगों के विश्वास को हिला गया । इस बीच सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस अल्तमस कबीर रियाटर हो गए । उसके बाद एक और खबर ने सवाल खड़े कर दिए । खबर ये थी कि अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में जस्टिस कबीर ने कोलोजियम की बैठक बुलाकर सुप्रीम कोर्ट में एक जज की नियुक्ति को हरी झंडी दिलवाने की कोशिश की थी, लेकिन नए बनने वाले चीफ जस्टिस सताशिवम के विरोध के बाद ये नहीं हो सका था । चीफ जस्टिस के पद से रिटायर होने के बाद कबीर ने जस्टिस भट्टाचार्य के आरोपों और अंतिम दिन जस्टिस की नियुक्ति के प्रयासों पर लिखित सफाई दी और आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया ।
यह विवाद अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि जस्टिस कबीर का एक और जजमेंट आया । वह था कॉमन मेडिकल टेस्ट कराने के मेडिकल काउंसिल के अधिकार को खत्म करने का । इस फैसले पर भी विवाद हुआ और स्वास्थय मंत्री गुलाम नबी आजाद ने फैसले की शाम ही रिव्यू पिटीशन की बात की । विवाद इस बात को लेकर भी हुआ कि जजमेंट के चंद घंटे पहले ही एक बेवसाइट ने फैसले की जानकारी सार्वजनिक कर दी थी । इस फैसले से प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों को राहत मिली । उसके बाद जस्टिस कबीर की ही एक बेंच ने एक निजी कंपनी पर सौ करोड़ के जुर्माने के हिमाचल हाईकोर्ट के फैसले पर बगैर स्टे दिए कंपनी को जुर्माने की राशि की किश्त जमा कराने की डेडलाइन में ढील दे दी । खबरों के मुताबिक जस्टिस सताशिवम ने चीफ जस्टिस का पद संभालने के बाद इस फैसले पर कड़ा एतराज जताया । हलांकि इस मामले में जस्टिस कबीर ने फिर से सफाई देते हुए एक इंटरव्यू दिया । मामला चाहे जो भी रहा हो लेकिन इस तरह की बातें सार्वजनिक होने से न्यायपालिका की साख और उसकी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े हो गए । अखबारों में खबर छपने के बाद उसपर विमर्श भी शुरू हो गया है । ज्यूडिशियरी की साख को लेकर यह कोई पहला मामला नहीं है । इसके पहले भी दो हजार नौ में कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पी डी दिनकरन को लेकर एक अप्रिय प्रसंग खड़ा हो गया था । बाद में जब उनपर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने लगी तो उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया । उनपर जमीन पर कब्जे के आरोप लगे थे । इसी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र मोहन पर भी महाभियोग चला । उनपर भी संगीन इल्जाम लगे थे । पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव जब आरोपों के घेरे में आई तो उन्हें कोलिजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया । फिलहाल जस्टिस निर्मल यादव पर केस चल रहा है ।
भारत के लोगों को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों पर अगाध आस्था है, उनकी ईमनादारी और इंटीग्रिटी की मिसालें दी जाती हैं । यही आस्था हमारे लोकतंत्र को लंबे समय से मजबूती प्रदान करती रही है । लेकिन जब उच्च न्यायपालिका से इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, जजों के फैसलों को लेकर सवाल खड़े होते हैं, तो देश की जनता का न्याय के मंदिर पर से आस्था डिगने लगती है। किसी भी न्यायधीश के आचरण की वजह से अगर ज्यूडीशियरी की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो परिणामस्वरूप देश के लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचती है । देश की सवा सौ करोड़ से ज्यादा जनता के इस विश्वास की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए । इसके लिए देश की न्यायपालिका को सरकार के साथ मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे । जनता के इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकेगी जब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को बेहद पारदर्शी बनाया जाए । दरअसल हमारे देश में उच्च न्यायपालिका में जजों को नियुक्त करने के लिए जो कोलिजियम सिस्टम है वह लंबे समय से सवालों के घेरे में हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाने के फैसले की जमकर आलोचना हुई थी । लीगल सर्किल में यह माना जाता था कि जस्टिस शाह इंपेकेबल इंटिग्रिटी के न्यायाधीश हैं । उनको सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति नहीं देना, हैरान करनेवाला फैसला था । दबी जुबान में इस तरह के फैसलों की आलोचना होती है लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है । समय समय पर देश के कई कानून मंत्री ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड एंड अकाउंटिबिलिटी बिल को लेकर उत्साह दिखाते रहे हैं लेकिन कानून मंत्रियों के उत्साह के बावजूद वह बिल अबतक ठंडे बस्ते में ही है । अब वक्त आ गया है कि उक्त बिल पर जल्द से जल्द गहन विचार-विमर्श हो और उसमें अपेक्षित बदलाव करके उसको संसद से पास करवाकर कानून बना दिया जाए । यह काम जितना जल्द होगा न्यायपालिका की साख के लिए वह उतना ही अच्छा होगा ।    

Monday, July 15, 2013

फैसलों के निहितार्थ

देश में राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने दो बेहद अहम फैसले दिए हैं । पहला फैसला तो यह दिया कि जिस किसी को भी दो साल की या उससे ज्यादा की सजा होगी उनकी संसद, विधानसभा या विधान परिषद की सदस्यता फैसले के फौरन बाद खत्म हो जाएगी । आठ साल तक सुप्रीम कोर्ट में चली सुनवाई और विद्वान वकीलों और संविधान विशेषज्ञों की राय के बाद सुप्रीम कोर्ट ने ये ऐतिहासिक माना जानेवाला फैसला सुनाया । इसके अलावा दूसरा फैसला यह है कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव के वक्त जेल या हिरासत में होगा तो उसको चुनाव लड़ने का हक नहीं मिलेगा। इस फैसले का आधार यह बताया गया है कि जिस व्यक्ति को वोट देने का अधिकार नहीं है वह चुनाव लड़ने के योग्य कैसे हो सकता है । सुप्रीम कोर्ट के दोनों फैसले तत्काल प्रभाव से लागू हो गए हैं । इन दोनों फैसलों का देश के कमोबेश सभी हलकों में जोरदार स्वागत हो रहा है । सियासी दलों ने भी इन फैसलों का आमतौर पर स्वागत ही किया है । मीडिया में इन दो फैसलों को राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाने की दिशा में एक बड़़ा कदम बताया जा रहा है । है भी । कहा और माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद राजनीतिक पार्टियां दागी उम्मीदवारों पर दांव नहीं लगाएंगी । उन्हें इस बात का डर होगा कि फैसले के बाद क्या होगा । फैसले के बाद तरह तरह की बातें शुरु हो गईं और उन नेताओं की सूची सामने आने लगी जिनपर इन फैसलों के बाद तलवार लटक गई है । सूची बेहद लंबी है जिसमें लालू, मुलायम, मायावती से लेकर जयललिता और कनिमोड़ी से लेकर राजा और मारन तक शामिल हैं ।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इन दोनों फैसलों में कुछ ऐसे बिंदु हैं जिनपर आनेवाले दिनों में विमर्श की जरूरत महसूस की जाएगी । दो साल की सजा के फौरन बाद सदस्यता खत्म होने का फैसला किसी भी व्यक्ति को प्राकृतिक न्याय के दायरे से बाहर रखती है । भारतीय संविधान के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को निचली अदालतों के फैसले के खिलाफ उपरी अदालतों में अपील करने का अधिकार है । अपील के बाद अगर उपरी अदालत को केस में मेरिट दिखाई देता है और निचली अदालत के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस होती है तो उसपर रोक लगा दी जाती है । कई बार सजा पर तो कई बार उसके अमल पर रोक लगा दी जाती है । लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले के बाद अपील के अधिकार के बीच कार्रवाई हो चुकी होगी । अगर किसी संसद सदस्य के खिलाफ कोई केस होता है और उसमें निचली अदालत से उनको तीन साल की सजा हो जाती है । संविधान से मिले अधिकार के तहत जब तक सांसद महोदय हाईकोर्ट में अपील करेंगे तब तक उनकी संसद की सदस्यता जा चुकी होगी । लेकिन उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब हाई कोर्ट निचली अदालत के उस फैसले पर रोक लगा देता है । सुनवाई के बाद निचली अदालत के फैसले को पलट देती है और सांसद महोदय को राहत मिल जाती है । लेकिन तबतक उनकी संसद की सदस्यता जा चुकी होगी । अगर सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले के आलोक में इस स्थिति को देखें तो यह स्थित न्याय के अधिकार पर सवाल खड़े करती है । संविधान सभा की बहस के दौरान भी इस तरह के हालात पर चर्चा हुई थी । संविधान सभा के सदस्य एस एल सक्सेना ने उन्नीस मई दो हजार उनचास को हुई बहस में संविधान के ड्राफ्ट में संशोधन नंबर 1590 पेश किया था । सक्सेना ने कहा था कि अगर किसी संसद सदस्य को सजा हो जाती है तो अपील पर फैसला होने तक उसकी सदस्यता को मुअत्तल रखा जाए और सदन की कार्रवाई में भाग लेने और वोट करने के अधिकार पर भी उस दौरान रोक रहे । संविधान सभा ने सक्सेना के संशोधन को खारिज कर दिया था । इस केस में याचिकाकर्ता ने इसको भी आधार बनाया था ।
इसके अलावा कई ऐसी स्थितियां भी आ सकती हैं जिसमें उपरी अदालत के फैसले के बाद विवाद खड़ा हो सकता है । सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब किसी सदन का कोई सदस्य निचली अदालत से दो साल या उससे अधिक की सजा होती है और उसकी सदस्यता चली जाती है । वो  उपरी अदालत में अपील करता है । अपील पर सुनवाई होने के दौरान उस खाली हुई सीट पर चुनाव आयोग उपचुनाव करवाएगा । चुनाव होने तक अपील पर कोई फैसला नहीं हो पाता है और उसमें किसी और अन्य उम्मीदवार की जीत होती है । उसके बाद उपरी अदालत का फैसला निचली अदालत के विपरीत आता है । सजा रद्द कर दी जाती है । जिसकी सदस्यता गई उसकी भारपाई कौन करेगा । बगैर किसी दोष के उसकी सदस्यता जाने का जिम्मेदार कौन होगा । भारतीय न्याय व्यवस्था में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जहां निचली अदालतों के फैसलों को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया है । निचली अदालत से सजा पाए लोग हाईकोर्ट से बाइज्जत बरी होते रहे हैं । हमारे देश की न्यायिक प्रणाली में माना जाता है कि एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए चाहे कितने भी मुजरिम छूट जाएं । आदर्श स्थिति यह होती कि जबतक अपील पर फैसला ना आए तबतक उपचुनाव नहीं हो और उसकी संसद सदस्यता सस्पेंड रखी जाए और अंतिम फैसले का इंतजार किया जाए ।
दूसरे फैसले में जेल में रहनेवाले के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का फैसला आया है। इसका तर्क भी सही है कि जिस परिस्थित में कोई शख्स वोट नहीं डाल सकते है उसी परिस्थिति में चुनाव कैसे लड़ सकता है । लेकिन इस फैसले को भी देस के मौजूद राजनीति हालात के मद्दनजर कसौटी पर कस कर देखा जाना होगा । शासक वर्ग द्वारा इस फैसले के दुरुपयोग की भी आशंका है । राजनीतिक दुश्मनी के चलते अपने विरोधियों को चुनाव के दौरान जेल में ठूंसकर उसे चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है । इस फैसले की आड़ में अपने राजीतिक विरोधियों को निबटाने का खेल भी खेला जा सकता है । इसके अलावा जैसा कि उपर के केस में है कि किसी वजह से कोई शख्स जेल में है और उस दौरान वो चुनाव नहीं लड़ सकता लेकिन बाद में अदालत उसे बाइज्जत बरी कर देता है तो फिर क्या होगा । इन दोनों फैसलों का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन इन फैासलों से जो सवाल खड़े हो रहे हैं या इनके दुरुपयोग की जो आशंकाएं हैं उसका निराकरण भी होना चाहिए । सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को इसपर विचार करना चाहिए ।
 

Monday, April 12, 2010

जज, जस्टिस और भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार के आरोप में महाभियोग की प्रक्रिया झेल रहे कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी डी दिनाकरन ने सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को आईना दिखा दिया है । उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली जजों की कमिटी की लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह ठुकरा दी । सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे और अपने पद के दुरुपयोग के आरोप में महाभियोग की प्रक्रिया झेल रहे जस्टिस दिनाकरन लंबे समय से न्यायिक कामकाज नहीं देख रहे थे वो सिर्फ कर्नाटक हाई कोर्ट का प्रशासनिक कामकाज संभाल रहे थे । महाभियोग का आरोप झेल रहे जस्टिस के प्रशासनिक कामकाज संभालने पर उनके ही एक साथी जज ने अपनी नाराजगी का खुले आम इंतजार किया था । इस असमंजस की हालत में न्यायमूर्ति दिनाकरन को उनके पद से हटाने की कवायद काफी देर से शुरू की गई । काफी समय बाद शुरू की गई इस कोशिश के तहत सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने जस्टिस दिनाकरन को लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह दी थी और उनकी जगह दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस मदन लोकुर को वहां का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। लेकिन कॉलेजियम की इस सलाह को जस्टिस दिनाकरन के ठुकराने के बाद उनका तबादला सिक्किम हाई कोर्ट कर दिया गया है ।
अगर हम कानूनी बारिकियों को देखें तो किसी भी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या न्यायमूर्ति लंबी छुट्टी पर जाने के कॉलेजियम की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है । लेकिन न्यायिक परंपरा के मुताबिक उच्च न्यायालय के जस्टिस कॉलेजियम की सलाह को आमतौर पर ठुकराते नहीं हैं । लेकिन दिनाकरन के इस कदम के बाद एक बार फिर से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की प्रक्रिया की खामियां और उसकी सीमाएं दोनों उजागर हो गई हैं ।
कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली जजों वाली समिति की सलाह मानने से जस्टिस दिनाकरन के इंकार के बारे में पूछे जाने पर कहा था कोई जज भी कानून से उपर नहीं है । दरअसल यह पूरा मामला बेहद ही पेचीदा है । संविधान के अनुच्छेद दो सौ तेइस,जिसका हवाला कानून मंत्री दे रहे हैं, के मुताबिक – जब किसी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त है या जब ऐसा मुख्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति के कारण वह अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तब कोर्ट के अन्य जजों में से एक जज जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त कर, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा । लेकिन स्वतंत्र भारत न्यायिक इतिहास में ऐसा कोई मौका अबतक आया नहीं जबतक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रहते किसी और को उसी न्यायलय में कार्यकारी मुख्य न्यायधीश बनाया जाए । लेकिन ऐसी नौबत आई नहीं और दिनाकरन को सिक्किम भेज दिया गया ।
जस्टिस दिनाकरन के इस तबादले ने एक बार फिर से कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं । सवाल यह उठता है कि अगर कोई न्यायाधीश एक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारी निभाने के लायक नहीं हैं तो वो दूसरे हाईकोर्ट में उन्ही जिम्मेदारियों को कैसे निभा सकते हैं । अगर जस्टिस दिनाकरन पर भ्रष्टाचार के इल्जाम हैं और वो कर्नाटक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर सकते हैं तो सिक्किम उच्च न्यायालय में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन बगैर किसी लाभ-लोभ के कैसे कर सकते हैं । ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब किसी के पास नहीं है । ना तो सरकार के पास और ना ही कॉलेजियम के पास ।
इसके पहले भी जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव पर आरोप लगे थे तो उन्हें कॉलेजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया था और जब मामला शांत हुआ तो उनका तबादला पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट से उत्तरांचल हाईकोर्ट कर दिया गया । इसी तरह जब जनवरी दो हजार सात में गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस पी बी मजुमदार ने अपने ही साथी जस्टिस बी जे सेठना पर बदतमीजी का आरोप लगाया था तो जस्टिस बी जे सेठना का तबादला सिक्किम और पी बी मजुमदार का तबादला राजस्थान कर दिया गया था । हलांकि तब न्यायमूर्ति सेठना ने सिक्किम जाने से इंकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था ।
ये कुछ ऐसे उदाहरण है जो भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के मामलों को निबटने की कमियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं । हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायधीश देश की न्यायिक व्यवस्था का प्रशासनिक मुखिया होता है । वो जजों का तबादला तो कर सकता है लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सिर्फ और सिर्फ महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है । लेकिन संविधान के मुताबिक महाभियोग की प्रक्रिया बेहद जटिल है और उसका अंजाम तक पहुंचना अत्यंत मुश्किल है । जस्टिस रमास्वामी के मामले में पूरा देश इस जटिल प्रक्रिया को देख चुका है । जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ भी महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राज्यसभा के सभापति की मंजूरी के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज वी एस सिरपुकर की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की कमेटी इस बारे में तथ्यों की पड़ताल करेगी । न्यायिक इतिहास में यह तीसरा मौका है जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है । इसके पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली थी लेकिन कांग्रेस के सांसदों के सदन से वॉक आउट करने के बाद ये प्रस्ताव गिर गया था ।
दूसरी ओर हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के क्रियाकलापों पर भी सवाल खड़े हुए हैं । दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति ना दिए जाने के कॉलेजियम के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगा था । जस्टिस शाह की छवि बेदाग थी और ये माना जा रहा था कि उनको सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाएगा । लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें आई कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णनन की अध्यक्षता वाली कॉलेजियम के एक सदस्य जस्टिस शाह के प्रोन्नति के खिलाफ थे, इस वजह से उनका सुप्रीम कोर्ट का जज बनना संभव नहीं हो सका ।
मेरा मानना है कि देश की सवा सौ करोड़ जनता का देश की न्यायिक प्रक्रिया और न्यायाधीशों पर अटूट विश्वास है । जब किसी एक न्यायधीश के आचरण की वजह से अदालत और अदालत की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो सवा सौ करोड़ लोगों के विश्वास को भी ठेस पहुंचाती है । हमारा मानना है कि जनता के इस विश्वास की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए । इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकती है जब हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो और उसका एक तय स्वरूप हो । इसके लिए सरकार को पर्याप्त इच्छाशक्ति दिखानी होगी । सालों से ज्यूडिशियल स्टैंर्ड और अकाउंटिबिलिटी बिल पर बहस चल रही है लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है । अब वक्त आ गया है कि इस बिल में अपेक्षित बदलाव करके संसद में पेश किया जाए और जल्लद से जल्द कानून बनाकर न्यायपालिका की साख को बचाया जाए ।
------------------------