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Sunday, October 22, 2017

फिक्शन और वैचारिकी का द्वंद्व

वर्ष 2017 के लिए जब मैन बुकर प्राइज अमेरिकी लेखक जॉर्ज सांडर्स को उनके उपन्यास लिंकन इन द बार्डो को दिया गया तो एक बार फिर से जूरी के सदस्यों ने पुरस्कार के उच्च मानदंडों को मजबूक किया । पांच लेखक इस पुरस्कार के लिए शॉर्ट लिस्ट थे जिनमें से जॉर्ज सांडर्स को ये पुरस्कार दिया गया। मैन बुकर प्राइज को लेकर पूरी दुनिया में एक उत्सकुता का माहौल रहता है और माना जाता है कि इसकी जूरी उसी कृति का चुनाव करती है जिसने सचमुच साहित्य की दुनिया में नई जमीन तोड़ी है। नया भाषागत प्रयोग, नया फॉर्म, नया विषय या नया ट्रीटमेंट वाले लेखक ही मैन बुकर प्राइज हासिल कर पाते हैं। इस वर्ष के जूरी के सदस्यों ने भी इस परंपरा को कायम रखा और अपने बयान में कहा कि सैंडर्स का उपन्यास उनके सामने एक चुनौती की तरह था। उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था कि मैन बुकर प्राइज किसी और को दिया जाए। जूरी की अध्यक्ष ने इस कृति तो असाधारण करार दिया। तीन साल पहले इस पुरस्कार को अमेरिकी लेखकों के लिए भी खोला गया था और उसके बाद से दो अमेरिकी लेखकों को ये पुरस्कार मिल चुका है। पॉल बेयटी को भी उनके उपन्यास पर पचास हजार डॉलर का मैन बुकर प्राइज मिल चुका है। अगर हम जॉर्ज सैंडर्स के उपन्यास को देखें तो इसका विषय और उस विषय का ट्रीटमेंट भी अलग है। जॉर्ज सैंडर्स का उपन्यास लिंकन इन द बार्डो एकदम नए विषय और सही घटना पर आधारित है। लिंकन इन द बार्डो में उपन्यासकार ने 1862 में अब्राहम लिंकन के ग्यारह वर्षीय बेटे की मौत के बाद वाशिंगटन डीसी के कब्रिस्तान में दफनाने की घटना से उठाया है। मैन बुकर प्राइज मिलने के बाद सैंडर्स ने बताया कि अब्राहम लिंकन के बेटे के दफनाने की घटना को जब उन्होंने सुना और उनको पता चला कि लिंकन बार बार कब्रगाह जाया करते थे तो उनके जेहन में इस उपन्यास ने आकार लेना शुरू कर दिया था । लेकिन उसको लिखन में काफी वक्त लगा और लंबे अंतराल के बाद जब ये उपन्यास प्रकाशित हुआ तो अपनी विषयगत नवीनता को लेकर पाठकों और आलोचकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। लेखक ने डर को और फिर उस डर से निबटने के मनोविज्ञान और स्थितियों को अपने इस उपन्यास का केंद्रीय थीम बनाया है। पुरस्कार मिलने के बाद उन्होंने स्वीकार भी किया कि हम एक अजीबोगरीब समय में रह रहे हैं जहां डर से छुटकारा पाने के लिए या तो हम हिंसा की ओर जाते हैं या फिर बहिष्कार का रास्ता अपनाते हैं। सैंडर्स को लगता है कि जिस तरह से पहले डर को प्यार से जीतने की कोशिश होती थी वो अब नहीं हो रही है।अपने डर को लोग दूसरों को डराकर या हराकर दूर करना चाहते हैं। तमाम तरह की ऐसी घटनाएं उनके उपन्यास में प्रतिबिंबित होती हैं। लिंकन के बेटे की कब्र से कहानी को उठाकर लेखक बौद्ध धर्म में वर्णित मृत्यु और उसके बाद पुनर्जन्म के बीच के काल को समेटता चलता है। उपन्यास का कालखंड वो है जब अब्राहम लिंकन अमेरिका में अपनी पहचान को लेकर संघर्ष कर रहे थे। लिंकन के समय का संघर्ष भी इस उपन्यास में बार बार लौट कर आता है। लिंकन इन द बार्डो में सांडर्स ने कई पुरानी घटनाओं का, पत्रों का, इतिहास की पुस्तकों का हवाला भी दिया है। यह उपन्यास अमेरिकी साहित्य जगत में मील का पत्थर साबित होगा।
जब गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के प्रकाशन के बीस साल बाद अरुंधति का दूसरा उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस। छपा था तब से इस बात की चर्चा शुरू हो गई थी कि उनके नए उपन्यास को मैन बुकर प्राइज मिल सकता है।  अरुंधति राय ने पिछले दो दशकों में अपने एक्टिविज्म से एक अलग ही तरह का वैश्विक पाठक वर्ग तैयार किया है। अरुंधति राय का पहला उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स उन्नीस सौ सत्तानवे में आया था, जिसपर उन्हें मैन बुकर पुरस्कार मिला था। यह भारत में रहकर लेखन करनेवाले किसी लेखक को पहला बुकर था। पूरी दुनिया में अरुंधति राय के नए उपन्यास का इंतजार था, भारत में भी उनके पाठकों को और उनकी विचारधारा के लोगों को भी। दो उपन्यासों के प्रकाशन के अंतराल के बीच अरुंधति ने कश्मीर समस्या, नक्सल समस्या, भारतीय जनता पार्टी खासकर नरेन्द्र मोदी के उभार पर बहुत मुखरता से अपने विचार रखे थे। उनके इस तेवर को आधार बनाकर ही उनके समर्थकों ने उनको वैश्विक स्तर का विचारक करार दिया। अरुंधति का अपना एक पक्ष है, उनके अपने तर्क हैं, जिससे सहमति या असहमति एक अलहदा मुद्दा है लेकिन वो बहुधा विचारोत्तेजक होते हैं । इस वैचारिक मुखरता की वजह से उनकी एक रचनात्मक लेखक के रूप में उपस्थिति थोड़ी कमजोर पड़ गई । जितनी मुखरता से वो भारत की उपरोक्त समस्याओं पर अपने विचारों को प्रकट करती रही हैं, तो यह लाजमी था कि ये सब विचार किसी ना किसी रूप में उनके उपन्यास में आएं। आए भी हैं। द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस के पात्रों की पृष्ठभूमि इन्हीं इलाकों से है। पात्रों के संवाद के केंद्र में भी बहुधा इन समस्याओं को लेखिका जगह देती चलती हैं।
अरुंधति का यह उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस रोचक तरीके से शुरू होता है । शुरुआत एक लड़के की कहानी से होती है कि किस तरह से उसके अंदर स्त्रैण गुण होता है और अंतत: वो किन्नरों के समूह में शामिल हो जाता है। अगर हम जॉर्ज सैंडर्स की उपन्यास से इस उपन्यास की तुलना करें तो शुरुआत में दोनों में एक मजबूत टक्कर दिखाई देती है, लेकिन जॉर्ज सैंडर्स अपने उपर अपने विचारों को हावी नहीं होने देते हैं, जबकि अब्राहम लिंकन के वक्त अमेरिका में काफी उथल पुथल थी, वैचारिक टकराहट भी जमकर हो रहे थे। लेकिन सैंडर्स की तुलना में अरुंधति ने अपने उपन्यास में वैचारिकी को हावी होने दिया। नतीजा यह हुआ कि अरुंधति का एक्टिविस्ट उनके लेखक पर हावी होता चला गया। किन्नरों के बीच के संवाद में यह कहा जाता है कि दंगे हमारे अंदर हैं, जंग हमारे अंदर है, भारत-पाकिस्तान हमारे अंदर है आदि आदि। अब इस तरह के बिंबों के बगैर भी बात की जा सकती थी, रोचक और दिलचस्प तरीके से किन्नरों के अंदर और बाहर का संघर्ष दिखाया जा सकता था। लेकिन कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है तो लेखक पर एक्टिविस्ट पूरी तरह से हावी हो जाता है। फिक्शन की आड़ लेकर जब अरुंधति कश्मीर के परिवेश में घुसती हैं तो उनकी भाषा बेहद तल्ख हो जाती है, बहुधा फिक्शन की परिधि को लांघते हुए वो अपने सिद्धांतों को सामने रखती नजर आती हैं। कश्मीर के हालात और कश्मीरियों के दुखों का विवरण देते हुए वो पाठकों को उस भाषा से साक्षात्कार करवाती हैं जिस भाषा से कोफ्त हो सकती है क्योंकि पाठक फिक्शन समझ कर इस पुस्तक को पढ़ रहा होता है। कश्मीर के परिवेश की भयावहता का वर्णन करते हुए वो लिखती हैं मौत हर जगह है, मौत ही सबकुछ है, करियर, इच्छा, कविता, प्यार मोहब्बत सब मौत है। मौत ही जीने की नई राह है । जैसे जैसे कश्मीर में जंग बढ़ रही है वैसे वैसे कब्रगाह भी उसी तरह से बढ़ रहे हैं जैसे महानगरों में मल्टी लेवल पार्किंग बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह की भाषा बहुधा वैचारिक पुस्तकों या लेखों में पढ़ने को मिलती है। यहीं आकर जॉर्ज सैंडर्स आगे बढ़ते चले गए और प्राथमिक सूची में आने के बावजूद अरुंधति का उपन्यास अंतिम पांच में भी जगह नहीं बना पाया।
अरुंधति का यह उपन्यास, दरअसल, कई पात्रों की कहानियों का कोलाज है। शुरुआत होती है अंजुम के किन्नर समुदाय में शामिल होने से। उसके बाद कई कहानियां एक के बाद एक पाठकों के सामने खुलती जाती हैं। केरल की महिला तिलोत्तमा की कहानी जो अपनी सीरियन क्रश्चियन मां से अलग होकर दुनिया को अपनी नजरों से देखती है। इस पात्र को देखकर अरुंधति के पहले उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स की ममाची की याद आ जाती है क्योंकि दोनों पात्र रंगरूप से लेकर हावभाव और परिवेश तक में एक है। अपने उपन्यास में अरुंधति ने ये बहताने की कोशिश की है कि किस तरह परिस्थियों के चलते श्मीरी युवक आतंकवादी बन जाते हैं। यहां पर एक बार फिर से संवाद के जरिए कश्मीर की ऐतिहासिकता को लेकर अरुंधति के विचार प्रबल होने लगते हैं । पाठकों पर जब इस तरह के विचार लादने की कोशिश होती है तो उपन्यास बोझिल होने लगता है, उसके विषय का ट्रीटमेंट गड़बडाने लगता है । एक बार फिर से यह बात पुख्ता हुई कि फिक्शन में ज्यादा वैचारिकी चलती नहीं है। यही हाल हिंदी के भी ज्यादातर उपन्यासों का है जहां वैचारिकी फिक्शन पर हावी होने लगती है।  



Saturday, October 14, 2017

'मैं' और 'मेरा' के चक्रव्यूह में सृजन

आज के साहित्यक परिदृष्य पर अगर नजर डालें तो मैं, मेरा और मेरी की ध्वनियों का कोलाहल सुनाई देता हैं। ज्यादातकर लेखक अपनी किताब की प्रशंसा कर रहे होते हैं तो कोई अपनी कहानी की तारीफ कर रहा होता है तो कोई अपने कविता संग्रह को लेकर सार्वजनिक रूप से खुद ही उसको बेहतरीन बताकर प्रशंसा बटोरने में लगा है। हिंदी साहित्य में इस तरह के माहौल को देखते हुए यह बात सहज रूप से सामने आती है कि कृति का महत्व गौण होता चला जा रहा है। वयक्ति जो कि लेखक है वो ज्यादा प्रबल होता जा रहा है । रचना बोलेगी लेखक नहीं की प्रवृत्ति नेपथ्य में चली गई है। सृजन का महत्व या सृजनात्मकता की चर्चा कितनी और क्यों कम होती जा रही है इसपर बात करने और गौर करने की आवश्यकता है। समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में मैं और मेरा के साहित्यक माहौल को देखते हुए मुझे नामवर सिंह जी का एक व्याख्यान याद आ रहा है जो उन्होंने 18 अप्रैल 1982 को जबलपुर में मध्यप्रदेश साहित्य के एक आयोजन में दिया था। तब नामवर सिंह जी ने कहा था- शायद 1920 और 1930 के दौरान यह मैंसाहित्य में ज्यादा अर्थ के साथ गूंजता था। जब निराला ने तुम और मैं कविता लिखी थी तो तुम तो खैर रहा ही होगा, लेकिन मैं जितने गर्व के साथ और गर्वीले स्वर में बोलता था, उसका अंदाजा आज भी आप उस कविता को पढ़कर लगा सकते हैं। हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान एक विशेष प्रकार की कविता लिखी गई थी और वह बड़ी मैं प्रधान कविता हुआ करती थी, जिसे राजनीतिक चिन्तन के लोग व्यक्तिवाद का दौर कह सकते हैं। साहित्य में एक जमाने में मैं की बहुत प्रधानता थी और उसमें सार था, तत्व था। व्यक्ति अपनी अस्मिता को पहली बार इस रूप में महसूस कर रहा था कि उसे व्यक्त कर सके। धीरे धीरे असलियत का पता चला और मालूम हुआ कि मैं उतना बड़ा विराट हिमालय के समान नहीं है। उसके पीछे जो शक्ति थी- राष्ट्रीय शक्ति थी, सामाजिक शक्ति थी। लेकिन इस वक्त साहित्य में जो मैं और मेरा गूंज रहा है उसके पीछे सिर्फ सिर्फ आत्ममुग्धता है। पिछले दिनों एक हिंदी आलोचक से इस विषय पर ही बात हो रही थी तो उन्होंने बेहद तल्ख शब्दों में हिंदी साहित्य की मौजूदा पीढ़ी को हिंदी साहित्य की आत्ममुग्ध पीढ़ी तक करार दे दिया था। इसके पीछे उनके अपने तर्क थे जिसपर बहस तो हो सकती है पर उसको सिरे से खारिज करना मुश्किल लग रहा था।  
मैं और मेरा का नतीजा यह है कि आज के लेखक अपने वरिष्ठ लेखकों को पढ़कर उनकी रचनाओं से आगे जाने का कोई उपक्रम करते दीख नहीं रहे हैं, वो तो बस अपनी ही पीढ़ी के लेखकों के कंधों पर पांव रखकर आगे निकल जाने की होड़ में शामिल हैं। साहित्य की जिस परंपरा की बात लगातार होती रहती है उस परंपरा को भी देखने समझने की कोशिश नहीं दिखाई देती है। परंपरा को रूढ़ि मानकर ग्रहण करने की बजाए त्यागने की प्रवृत्ति जोर मारती दिखाई देती है। त्यागने से ज्यादा नकारने की । लेकिन यह नकार लॉजिकल नहीं है बल्कि सिर्फ खुद की तारीफ में किया जाने वाला है। हिंदी कहानी में अब तक तो सिर्फ परंपरा को ही समकालीन बनाकर पेश किया जाता रहा है। अगर हम निर्मल वर्मा और फणीश्वर नाथ रेणु को छोड़ दें तो हिंदी कहानी की परंपरा को किसी ने भी झकझोरने की कोशिश नहीं की। लीक से हटकर चलने या फिर अपनी राह बनाने की बात करना तो दूर की बात है। आज के ज्यादातर लेखक अपने समकालीन को तो नहीं ही पढ़ते हैं अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों की रचनाओं को भी नहीं पढ़ते हैं । उनका तर्क यह होता है कि दूसरे लेखकों की रचनाओं को पढ़ने से उनकी रचनात्मकता प्रभावित होती है । अगर एक मिनट के लिए इस तर्क को मान भी लिया जाए तो समकालीन रचनाकारों को पढ़ने में क्या दिक्कत है ।
दूसरी जो प्रवृत्ति इस आत्ममुग्धता के पीछे है वो है पुरस्कृत होने की चाहत।ज्यादातर लेखक पुरस्कृत होना चाहता है, छोटा बड़ा, मंझोला किसी भी प्रकार का कोई पुरस्कार मिल जाए। पुरस्कार के लिए जब आकांक्षा जोर मारती है तो उसके पीछे यह मनोविज्ञान काम करता है कि वो निर्मल और रेणु या फिर निराला और दिनकर के समकक्ष हो गया है, उतना ही महान लेखन कर रहा है। पुरस्कार पाने की चाहत में सारे तरह के दंद फंद अपनाए जाने लगते हैं और रचनात्मक कहीं पीछे छूटती चली जाती है। आज की इस आत्ममुग्ध पीढ़ी के रचनाकारों में एक खास किस्म का एरोगैंस भी दिखाई देता है, बदतमीजी की हद तक । वो खुद को विद्वान ही नहीं मनाते बल्कि यह अपेक्षा भी रखते हैं कि दूसरे भी उनको ज्ञानी मानें और उसी हिसाब से उनके साथ बर्ताव किया जाए ।मन में इस तरह का भाव झूठी और प्रायोजित प्रशंसा से उपजता है। और इस भाव के पैदा होते ही लेखक की रचनात्मकता बाधित होनी शुरू हो जाती है ।बाधित रचनात्मकता को जब छद्म विद्वता बोध का साथ मिलता है तब उससे जन्मती है पुरस्कृत होने की चाहत और इस चाहत के वशीभूत होकर शुरू होता है पुरस्कार पाने की गोलबंदी । तय मानिए कि जब साहित्य में गोलबंदी या घेरेबंदी शुरू हो जाए तो उसका संक्रमण काल शुरू हो जाता है । इस संक्रमण काल को आप उस दौर की रचनाओं में आसानी से लक्षित कर सकते हैं ।
जरूरत इस बात की है कि आज की आत्ममुग्ध पीढ़ी के रचनाकार अपने समकालीनों और पूर्ववर्तियों को पढ़ें और उनको रचनात्मक स्तर पर चुनौती पेश करें । अगर ऐसा हो पाता है तो समकालीन साहित्य का परिदृश्य बदल सकता है और कुछ अच्छी रचनाएं सामने आ सकती हैं । उन्हें यह बात समझ में नहीं आती है कि साहित्य लंबे समय तक चलनेवाली एक ऐसी साधना है जिसमें फल कब मिलेगा यह तय नहीं होता है। इन दिनों जो लोग कहानी या उपन्यास लिख रहे हैं उनमें से ज्यादातर को साहित्य साधना से कोई लेना देना नहीं है वो तो तप के पहले ही वरदान के आकांक्षी हुए जा रहे हैं। कुछ नए नवेले प्रकाशकों ने हल्के और लोकप्रिय विषयों पर लिखवाकर ऐसे लेखकों की आकांक्षाओं को और बढ़ावा दिया है। कुछ दिन पहले एक साहित्यक पत्रिका में एक लेखिका ने अपने साक्षात्कर में अपनी ही रचनाओं को महान करार दिया था और अपने से वरिष्ठ और अपेक्षाकृत ज्यादा लोकप्रिय लेखक के उपन्यास को फ्लॉप तक कह डाला था। यह आत्ममुग्धता ही तो है । यही नहीं है बल्कि साहित्य में तो अब तारीफ के लिए भी यत्न प्रयत्न किए जाते हैं। पूरा का पूरा समूह साथ होकर तारीफ के पुल बांधता चलता है। कई साहित्यक पत्रिकाओं के संपादक एक पूरी पीढ़ी को आत्ममुग्ध पीढ़ी बनाने के मुजरिम भी माने जा सकते हैं।
मैं और मेरा के चक्कर मे रचनाएं काफी कमजोर हो रही हैं। पिछले दस साल की कितनी कहानियां पाठकों को याद हैं । कहानी का स्तर कितना गिरा है। दो चार कहानीकारों को छोड़ दें तो कहानी के नाम पर किस तरह की सामग्री पाठको को पेश की जा रही है, इसको लेकर चिंतित होने की जरूरत है। कहानी की दुनिया में कहानीकार धूमकेतु की तरह प्रकट होते है, एक दो कहानियों से चमकते हैं और फिर धूमकेतु की ही तरह साहित्यक परिदृश्य से बिला जाते है। आज कहानियां थोख के भाव से लिखी जा रही हैं लेकिन लगभग सभी कहानियों को पढ़ने के बाद निराशा होती है । हर युग में अच्छी कहानियां लिखी जाए यह आवश्यक नहीं है लेकिन कहानी को लेकर जो विवेक है उसका बचना जरूरी है। यही विवेक आज खतरे में है । आज के कहानीकारों के अनुभव बहुत सीमित दिखाई पड़ते हैं। चालू और तुरत-फुरत लोकप्रियता हासिल करनेवाली रचनाएं ज्यादा आ रही हैं। क्लासिक का फैसला तो खैर समय के साथ होता है लेकिन कालजयी रचना के संकेत तो मिलने ही लग जाते हैं। इस तरह के संकेतों वाली रचनाओं का नहीं होना हिंदी साहित्य के लिए चिंता का सबब है। इस चिंता को दूर करने के लिए जरूरी है कि नए लेखकों और पुराने लेखकों के बीच संवाद हो। इस तरह के संवाद के लिए साहित्यक आयोजन बेहतर मंच हो सकते हैं। संवाद से ही परंपरा को मजबूती मिलती रही है और मुझे लगता है कि अगर एक बार साहित्य में पीढ़ियों के बीच संवाद शुरू हो गया तो तमाम तरह की बाधाएं तो दूर होंगी ही, मैं और मेरा से भी साहित्य को आजादी मिलेगी क्योंकि संवाद में मैं मैं ज्यादा देर तक चल नहीं पाता है उसके लिए एकालाप की आवश्यकता होती है।  



Saturday, October 7, 2017

कॉपीराइट के तिलिस्म में हिंदी के लेखक

पिछले वर्ष हिंदी के शीर्षस्थ आलोचक नामवर सिंह का नब्बेवां जन्मदिन धूमधाम के साथ दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में मनाया गया था। दिनभर चले इस कार्यक्रम में कई विद्वान लेखकों, विचारकों और केंद्रीय मंत्रियों के भाषण आदि भी हुए थे। नामवर जन्मोत्सव के दिन ही महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन का नामवर सिंह पर केंद्रित भारी भरकम विशेषांक विमोचित हुआ था। पत्रिका की चर्चा हुई, उसमें छपे लेखों की चर्चा हुई। अब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने बहुवचन के नामवर सिंह पर केंद्रित अंक को पुस्तकाकार प्रकाशित करवाया है जिसके संपादक विश्वविद्यालय के कुलपति गिरीश्वर मिश्र और उसी विश्वविद्यालय के हिंदी और तुलनात्मक साहित्य विभाग के विभागाध्यक्ष कृष्ण कुमार सिंह हैं । पुस्तक के प्राक्कथन में गिरीश्वर मिश्र ने स्वीकार किया है कि यह सामग्री बहुवचन के एक विशेष अंक में प्रकाशित हुई । शीघ्रता में उसमें कुछ त्रुटियां रह गई थीं। उसका लोकार्पण दिल्ली में 28 जुलाई को आयोजित गोष्ठी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के संस्कृति संवाद में किया गया। तभी यह लगा कि यह सामग्री ऐतिहासिक महत्व की है और इसे पुस्तकाकार प्रकाशित करना उपयोगी होगा। आशा है हिंदी के नामवर नामवर जी के बहाने हिंदी की आलोचना यात्रा, उसकी संस्कृति, विकृति और निष्पत्ति को समझने में सहायक होगी।
यहां तक तो सबकुछ सामान्य लग रहा है। विश्वविद्लाय की एक पत्रिका ने विशेषांक छापा और फिर उसे पुस्तकाकार प्रकाशित करवा दिया गया। लेकिन सतह पर यह जितना सामान्य दिख रहा है उतना है नहीं। पुस्तक प्रकाशन में लेखकों के साथ छल है। पत्रिका के लिए लिखवाए गए लेख को पुस्तकाकार छापने के पहले लेखकों से लिखित अनुमति लेनी चाहिए थी, जो नहीं ली गई। दूसरे जब प्रकाशित पुस्तक मेरे पास पहुंची तो देखा कि इस पुस्तक का कॉपीराइट महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पास है। जबकि कानूनन इस पुस्तक की कॉपीराइट लेखकों के पास होनी चाहिए। अगर लेखकों से कॉपीराइट विश्वविद्यालय ने ली है तो उसके एवज में लेखकों को भुगतान किया जाना चाहिए था। वो भी नहीं हुआ। महात्मा गांधी के नाम पर बने एक केंद्रीय विश्वविद्लाय के कुलपति के संपादन में निकली पुस्तक में कानून का पालन नहीं होना हैरान करनेवाला है। अगर कुलपति ने यह महसूस किया था कि बहुवचन के विशेषांक में प्रकाशित सामग्री ऐतिहासिक महत्व की है और उसको पुस्तकाकार प्रकाशित करवाना चाहिए तो फिर उनको पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए था। विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया और उसका व्यावसायिक उपयोग होगा, क्योंकि पुस्तक पर मूल्य के तौर पर सात सौ पचास रुपए अंकित है। लेखकों से पत्रिका के लिए लिखवाकर, बगैर उनकी अनुमति के व्यावसायिक उपयोग के छापी गई यह पुस्तक कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन है। यह शीघ्रता में त्रुटि का केस भी नहीं है। यह मानना भी मुश्किल है कि किसी विश्वविद्लाय के कुलपति से इस तरह की लापरवाही हो गई, क्योंकि लापरवाही से कॉपीराइट विश्वविद्यालय के पास नहीं पहुंच सकता है। अगर कॉपीराइट लेखकों के पास होता तब भी माना जा सकता था कि किसी स्तर पर लापरवाही या जानकारी के आभाव में ऐसा हुआ लेकिन यहां तो ऐसा प्रतीत होत है कि सबकुछ जानते बूझते किया गया है। नियमों का पालन करते हुए भी इस ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक का प्रकाशन किया जा सकता था। यह पुस्तक महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा और संपादक द्वय के माथे पर एक ऐसा धब्बा है जिसमें लेखकों के अधिकारों का हनन चिन्हित है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बात के प्रकाश में आने के बाद विश्वविद्यालय अपनी गलती सुधार लेगा।
दरअसल महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से प्रकाशित ये पुस्तक तो एक उदाहरण मात्र है, हिंदी प्रकाशन जगत में इस तरह के छल छद्म बहुत हो रहे है। साहित्यक पत्रिकाओं के विशेषांकों की पुस्तकें फौरन बाजार में आ जाती हैं। लेखकों की अनुमति आदि की फिक्र होती ही नहीं है। राजेन्द्र यादव के संपादन में प्रकाशित हंस के कई विशेषांक पुस्तकाकार प्रकाशित हुए जिनकी कॉपीराइट लेखकों के पास नहीं है। सिर्फ हंस ही क्यों, अन्य साहित्यक पत्रिकाओं के संपादकों ने भी ये काम किया। कई साहित्यक पत्रिकाएं तो पुस्तक को ध्यान में रखकर ही अपने विशेषांकों की योजना बनाती हैं और उसको प्रकाशित करती हैं। बगैर किसी मेहनत के पुस्तक तैयार। अगर कुछ बिक-बिका गई तो बल्ले-बल्ले। इस काम में इन साहित्यक पत्रिकाओं के संपादकों को कुछ प्रकाशकों का भी सहोग मिलता है। हासिल क्या होता है यह तो पता नहीं लेकिन साहित्य में गैरे पेशेवर रवैये को बढ़ावा अवश्य मिलता है।
पत्रिकाओं के अलावा जो दूसरा बड़ा साहित्यक घपला है वो है संचयन प्रकाशित करने का। संचयन में किसी भी लेखक की रचनाओं से चुनकर कुछ रचनाओं को संकलित और प्रकाशित किया जाता है। चयन और संकलन के लिए एक अदद संपादक भी होता है। कई बार लेखक तो कई बार संपादक को कॉपीराइट मिल जाता है। अब यहां इसको समझने की जरूरत है। किसी लेखक की कुछ किताबें किसी प्रकाशक के पास है, कुछ किताबें किसी अन्य प्रकाशक के पास हैं और फिर जब संचयन छपता है तो वो तीसरे प्रकाशक के यहां से प्रकाशित होता है। होता यह है कि लेखक संचयन छपने की अनुमति तो दे देता है लेकिन वो अपने मूल प्रकाशक से उसकी अनुमति नहीं लेता है। दरअसल संचयन छापकर ना तो पाठकों का भला होता है और ना ही मूल प्रकाशकों का, हां, जो प्रकाशक संचयन छापता है उसको अवश्य फायदा हो जाता है कि अमुक बड़े लेखक की किताब उसके पास से प्रकाशित हुई है। बिक्री भी हो जाती है, उसका भी लाभ मिलता है वो अलग। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी संचयिता के प्रकाशन के वक्त भी महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्विद्यालय को कानूनी पचड़े में फंसना पड़ा था। राधावल्लभ त्रिपाठी के संपादन में पुस्तक का प्रकाशन हो गया था। इसी दौरान द्विवेदी जी के बेटे ने विश्वविद्यालय पर केस कर दिया था। बाद में प्रकाशक की सूझबूझ से दोनों पक्षों में समझौता हुआ था।
हिंदी में कॉपीराइट को लेकर अजीब सी अराजक स्थिति है। हिंदी पाठकों के सामने इस तरह के कहानी संग्रह आते रहें हैं जिनके नाम हैं- मेरी श्रेष्ठ कहानियां, मेरी सर्वश्रेष्ठ कहानियां, मेरी प्रिय कहानियां, मेरी पांच कहानियां, मेरी पसंदीदा कहानियां आदि और उसके बाद मेरी संपूर्ण कहानियां। और तो और अब तो गौरतलब कहानियां भी प्रकाशित होने लगी हैं। इन सारे संग्रहों में घूम फिर कर वही कहानियां छपती रहती हैं, जो अलग अलग प्रकाशकों के यहां से अलग अलग नामों से छपती रही हैं। लेखक को थोड़ी बहुत रॉयल्टी सबके यहां से मिलती होगी लेकिन हर प्रकाशक खुश रहता है। पाठकों के साथ छल होता रहता है। अगर नाम देखकर पाठक ने कोई संग्रह खरीद लिया तो उसको निराशा हाथ लग सकती है। लेखक और प्रकाशक दोनों इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। हिंदी में ज्यादातर लेखकों की प्रिय, अप्रिय, पसंदीदा कहानियां जैसे संग्रह हैं। कॉपीराइट की फिक्र ना लेखक को और ना ही प्रकाशक को। एक और विषम स्थिति तब उत्पन्न होती है जब किसी लेखक को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलते ही अन्य भारतीय भाषाओं में पुरस्कृत लेखक की कृति का प्रकाशन होता है। उस वक्त भी कई बार कॉपीराइट को लेकर लेखक उसके मूल प्रकाशक और अकादमी के बीच विवाद खड़ा हो जाता है।

दरअसल अगर हम देखें तो हिंदी प्रकाशन जगत में प्रोफेशनलिज्म की बहुत आवश्यकता है। चंद प्रकाशकों को छोड़ दें तो अब भी लेखक और प्रकाशक के बीच एग्रीमेंट नहीं होता है। लेखक-प्रकाशक के बीच के एग्रीमेंट का कोई मानक नहीं है, और वो समय के साथ अपडेट होता है इस बारे में मुझे पक्की जानकारी नहीं है लेकिन संदेह है कि ऐसा होता होगा। कॉपीराइट कानून को लेकर भी लेखकों और प्रकाशकों में जागरूकता होनी चाहिए। होना तो ये चाहिए कि साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी और राज्य अकादमियों जैसी संस्थाएं इन विषयों पर भी सेमिनार, गोष्ठी आदि करे जिसमें कॉपीराइट कानून के जानकारों को बुलाकर उनके व्याख्यान करवाए जाएं। इस तरह के आयोजन नियमित अंतराल पर किए जाने चाहिए ताकि हर पीढ़ी के लेखकों और प्रकाशकों को कॉपीराइट के बारे में जानकारी हो, वो दोनों अपने-अपने अधिकारों को समझ सकें और उसके लिए बातचीत कर सकें। हिंदी प्रकाशन जहत के लिए प्रोफेशनलिज्म बहुत आवश्यक है क्योंक् अगर हिंदी को विश्व भाषा बनाने के संकल्प है तो फिर उसमें प्रकाशकों की बड़ी भूमिका होनेवाली है। विश्वविद्यालयों से उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि वहां कब क्या और कैसे हो जाता है यह किसी को पता नहीं रहता। नामवर पर जो ऐतिहासिक महत्व की सामग्री को पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है उसकी जिम्मेदारी किसकी है, किसे मालूम

Friday, October 6, 2017

केरल में शाह का ब्रह्मास्त्र

चंद महीनों पहले तक केरल की सियासत में बीजेपी का नाम सीरियस प्लेयर के तौर पर नहीं लिया जाता था। पिछले विधानसभा चुनाव में भी पहली बार बीजेपी का एक विधायक वहां चुना गया था लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति के बाद अब केरल में बीजेपी प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर जमीनी संघर्ष करती दिखाई दे रही है। अमित शाह ने 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव को लेकर जो रणनीति तैयार की है उनमें केरल उनकी प्रथामिकता में है। केरल में बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता दौरा कर चुके हैं। 29 जुलाई को केरल में आरएसएस के कार्यकर्ता राजेश की हत्या के बाद अगस्त में वित्त मंत्री अरुण जेटली खुद केरल पहुंचकर बीजेपी की स्ट्रैटजी के बारे में संकेत दे गए थे। वित्त मंत्री जेटली ने उस वक्त केरल की वाम सरकार पर संघ के कार्यकर्ताओं के हत्यारों को परोक्ष रूप से मदद करने का आरोप लगाया था। उन्होंने राजेश के परिवारवालों से मुलाकात पार्टी कैडर में को एक भरोसा भी दिया था। केरल को लेकर बीजेपी को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का भी साथ मिल रहा है और दिल्ली में संघ के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होस्बोले की मौजूदगी में विरोध प्रदर्शन भी किया गया था। उसके बाद भी सेमिनार आदि करके भी केरल में संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ जनमत तैयार किया जा रहा है।  
केरल की सियासी लड़ाई में उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ को उतारकर अब बीजेपी ने इसको नई धार देने की कोशिश की है। योगी आदित्यनाथ को केरल ले जाना बीजेपी की रणऩीति का यूटर्न भी है। पिछले विधानसभा चुनाव के पहले बीजेपी ने वहां सॉफ्ट हिंदुत्व को ध्यान में रखा था क्योंकि केरल में 46 फीसदी मतदाता अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। उस वक्त बीजेपी इन 46 फीसदी वोटरों को टार्गेट कर रही थी। पर उस रणनीति का परिणाम बेहतर नहीं रहा था और 140 सीटों की विधानसभा में बीजेपी को सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा था। अब योगी आदित्यनाथ को मैदान में उतारकर बीजेपी हार्डकोर हिदुत्व की लाइन पर चलती दिख रही है। 15 दिनों तक चलनेवाली जनरक्षा यात्रा में रेड जेहादी के मुद्दे को उठाने के साथ साथ बीजेपी अपने कॉडर की हत्या के मुद्दे को लेकर भी केरल की जनता के बीच जा रही है। योगी आदित्यनाथ ने केरल पहुंचकर लव जेहाद का मुद्दा तो उठाया ही साथ ही उन्होंने लगातार हो रही राजनीतिक हत्या के लिए भी मौजूदा सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। जनरक्षा यात्रा में योगी आदित्यनाथ के अलावा कई अन्य केंद्रीय मंत्रियों को भी शामिल होना है। जाहिर है कि दोनों तरफ से जुबानी जंग जारी रहेगी । सालों बाद केरल में ऐसा पहली बार हो रहा है कि सत्ताधारी दल को विपक्षी दल इतनी गंभीरता से चुनौती दे रही है।  
बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 12 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। इस वक्त लोगों को ये टार्गेट बहुत ज्यादा लग रहा है क्योंकि जब से बीजेपी बनी है यानि 1980 से तब से लेकर अबतक बीजेपी ने वहां से कोई लोकसभा सीट जीती नहीं है। योगी आदित्यनाथ के वहां पहुंचने और लव जेहाद और आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे को उठाकर बीजेपी हिंदू और क्रिश्चियन दोनों वोटरों को एक संदेश दे रही है। क्रिश्चियन वोटरों का विश्वास जीतने के लिए असफांस को केंद्र में पर्यनट मंत्री का पद भी दिया गया। मंत्री बनने के बाद अलफांस ने केरल कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस के चीफ के अलावा भी अन्य चर्चों के मुखिया से मुलाकात की थी। इसके अलावा राजनीतिक हत्या को मुद्दा बनाकर वामपंथ के अंतर्विरोधों को भी जनता के सामने रखा जा रहा है। केरल में सबसे ज्यादा राजनीतिक हत्या कन्नूर जिले में होती है जहां से मुख्यमंत्री विजयन आते हैं। केरल में राजनीति हत्याओं का बहुत पुराना इतिहास रहा है लेकिन अबतक इस स्तर पर ले जाकर किसी दल ने इसको मुद्दा नहीं बनाया। दरअसल मार्क्सवादियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि उनकी दीक्षा ही हिंसा और हिंसक राजनीति में होती हैउन्नीस सौ साठ में विभाजन के बाद सीपीआई तो लोकतांत्रिक आस्था के साथ काम करती रही लेकिन सीपीएम तो सशस्त्र संघर्ष के बल पर भारतीय गणतंत्र को जीतने के सपने देखती रही  चेयरमैन माओ का नारा लगानेवाली पार्टी चीन के तानाशाही के मॉडल को इस देश पर लागू करने करवाने का जतन करती रही  चीन में जिस तरह से राजनीतिक विरोधियों को कुचला डाला जाता है , विरोधियों का सामूहिक नरसंहार किया जाता है वही इनके रोल मॉडल बने  उसी चीनी कम्युनिस्ट विचारधारा की बुनियाद पर बनी पार्टी भारत में भी लगातार कत्ल और बंदूक की राजनीति को जायज ठहराने में लगी रही । केरल में तो मार्क्सवादी नेता खुले आम सार्वजनिक सभा में हिंसा और मरने मारने की बात भी करते रहे हैं। वहां राजनीति हत्याओं को रोकने के लिए सरकार के ठोस कदम दिखाई भी नहीं देते है।
यह अकारण नहीं है कि हॉवर्ड फास्ट जैसे मशहूर लेखक अपनी कृति दे नेकेड गॉड में कहते हैं कि –कम्युनिस्ट पार्टी एक ऐसी मशीन है जिसमें प्रायअच्छे लोग प्रवेश करते हैं जो अन्नतबुरे लोगों में परिवर्तित हो जाते हैं । सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों में इस प्रक्रिया से बच पाना आमतौर पर जान देने की कीमत पर ही होता है ।‘ अब अगर हम हॉवर्ड फास्ट के विचारों का विश्लेषण करें तो लगता है कि कम्युनिस्ट विचारधारा फासिस्ट है जो अपना जनतांत्रिक विरोध भी बर्दाश्त नहीं कर पाती है। फासिज्म का डर दिखाकर फलती फूलती रहती है। बंगाल चुनावों में एक के बाद एक हार के बाद केरल ही उऩका अंतिम गढ़ बचा है लेकिन जिस तरह से बीजेपी ने वहां अपनी मुहिम को परवान चढ़ाया है तो ये देखना दिलचस्प होगा कि 2019 में वामपंथ का किला बच पाता है या उसमें भी सेंध लग जाती है।


Sunday, October 1, 2017

साजिश, गॉसिप और साहित्य

इन दिनों सहिष्णुता और असहिष्णुता की बातें बहुधा सुनाई देती हैं। लेखक पर हमला हो जाए तो , पत्रकार पर हमला हो जाए तो, किसी का लेख किसी भी वजह से ना छप पाए तो, ट्वीटर के कमेंट पर कोई ट्रोल हो जाए तो, फेसबुक पर किसी बात पर विवाद हो जाए तो ये शब्द हवा में गूंजने लगता है। लेकिन हमारे साहित्यकार अपने व्यवहार में कितने असहिष्णु हो गए हैं उसपर किसी का ध्न नहीं जाता, उसको कोई रेखांकित नहीं करता। आप फेसबुक पर आधे घंटे का वक्त बिताएं तो आपको पता चल जाएगा कि साहित्य जगत में कितनी असहिष्णुता है। पुराने लेखकों में नए लेखकों को लेकर सम्मान भाव के दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं, वरिष्ठ लेखकों में भी अपने से अपेक्षाकृत कनिष्ठ पीढ़ी के लेखकों को लेकर सदाशयता की कमी देखने को मिलती है। जनवरी में विश्व पुस्तक मेले के दौरान मैत्रेयी पुष्पा और अपेक्षाकृत युवा लेखिकाओं के बीच जिस तरह का अप्रिय विवाद हुआ था उसकी गूंज अब भी गाहे बगाहे फेसबुक पर दिख जाती है। ये तो सिर्फ एक उदाहरण मात्र है, ऐसे कई मसले साहित्य में दिखते रहते हैं जहां सहि।णुता के कम होते जाने का संकेत मिलता रहता है। पहले भी दो पीढ़ियों के लेखकों के बीच साहित्.क विवाद होते रहे हैं, रचनात्मकता के स्तर पर उसका जवाब दिया जाता रहा है लेकिन व्यक्तिगत टिप्पणियां नहीं होती थीं। अब तो हालात बहुत अलग हो गए हैं।
नई और पुरानी पीढ़ी का द्वंद भी हर दौर में देखने को मिलता रहा है । नई पीढ़ी खुद को परंपरा या विरासत के डंडे से हांके जाने को लेकर विरोध भी प्रकट करती रही है कभी उग्र होकर तो कभी शांति से विरोध करके तो कभी अपनी रचनाओं से पुरानी पीढ़ी से लंबी लकीर खींचकर । इस परिपाटी का निर्वाह कमोबेश हर युग में हुआ है लेकिन समकालीन साहित्यक परिदृश्य में एक अलग ही किस्म की रस्साकशी देखने को मिल रही है । हिंदी साहित्य में आमतौर पर यह माना जाता है कि दस साल में लेखकों की एक नई पीढ़ी सामने आ जाती है । लेखकों की जो नई पीढ़ी सामने आती है वो अपने से पुरानी पीढ़ी के लेखन का अपनी रचनात्मकता से विस्तार करती है । अबतक तो यही होता आया है कि अपेक्षाकृत नई पीढ़ी अपने से पहले वाली पीढ़ी को रचनात्मक स्तर पर चुनौती देती रही है । चाहे वो नई कहानी का दौर रहा हो या या फिर बीटनिक पीढ़ी का किसी भी अन्य पीढ़ी को देखें तो यह साफ तौर पर नजर आती है ।युवावस्था की दहलीज को पार चुकी पीढ़ी खुद को परंपरा और विरासत के नाम पर हांके जाने के खिलाफ तो नजर आती है लेकिन उसको अपने से पुरानी पीढ़ी को रचनात्मकता के नाम पर नकारने की बेचैनी नहीं दिखाई देती है । ऐसी स्थिति में अंतोनियो ग्राम्शी का एक कथन याद आता है कि- युद्ध क्षेत्र में दुश्मन के सबसे कमजोर मोर्चे पर हमला करके जीत हासिल कर लेना भले ही सफल रणनीति हो, पर बौद्धिक क्षेत्र में सबसे मजबूत और मुश्किल मोर्चे पर विजय ही असली विजय है। बीच की पीढ़ी को सबसे मजबूत मोर्चे पर फतह के बारे में सोचना होगा।
अगर हम भारतेन्दु युग से लेकर अबतक के परिदृश्य पर नजर डालें तो लगभग इसी तरह की प्रवृत्ति को रेखांकित किया जा सकता है । तो अब क्यों कर ऐसा हो रहा है कि रचनात्मक स्तर पर अपेक्षित यह पीढ़ियों का संघर्ष एक अलग ही रूप लेता जा रहा है । रचनाओं के माध्यम से होनेवाले संघर्ष की बजाए यह व्यक्तिगत संघर्ष में तब्दील हो गया है जो साहित्यक माहौल में एक अलग ही किस्म की कटुता के वातावरण का निर्माण कर रहा हो जो चिंता का विषय है । साहित्य की इस प्रवृत्ति पर विचार करने की आवश्यकता है । दस साल में अगर पीढ़ियों के बदल जाने या नई पीढ़ी के साहित्यक परिदृश्य पर आगमन के सिद्धांत को मानें तो इस वक्त हिंदी साहित्य में करीब आठ पीढ़ियां सक्रिय हैं । नामवर सिंह और रामदरश मिश्र जैसे नब्बे पार लेखकों से लेकर श्रद्धा थवाइत तक ।इसको हम हिंदी की रचनात्मकता की ताकत मान सकते हैं ।
फिर इसकी क्या वजह है कि बीच की दो तीन पीढ़ी अपनी मौजूदगी को लेकर या साहित्यक परिदृश्य में अपनी उपस्थिति को लेकर इतनी संवेदनशील हो रही है । उसको अपने से वरिष्ठ पीढ़ी से अपने लेखन की वैधता पर मुहर क्यों चाहिए । क्या यही वजह है कि एक पत्रिका वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा से साहित्यक विरासत को संभालने वाले लेखकों की एक सूची जारी करवाती है। मैत्रेयी पुष्पा से उनकी दो पीढ़ी बाद की लेखिकाओं को प्रमाण-पत्र क्यों चाहिए। बीच की पीढ़ी की कुछ लेखिकाओं के अंदर मिड एज क्राइसिस जैसी रचनात्मक क्राइसिस जैसा कुछ दिखाई देता है। उस पीढ़ी के लेखकोंलेखिकाओं को अपने लेखन पर भरोसा करते हुए साहित्यक विरासत या वसीयत की फिक्र नहीं करनी चाहिए। अगर हम संजीदगी से इसपर विचार करते हैं तो यह लगता है कि यह मामला इतना सरल नहीं है और इसको इस तरह से देखने पर यह समस्या के विश्लेषण का सरलीकरण हो सकता है । बीच की पीढ़ी के लेखकों के बीच अपनी रचनाओं की मान्यता को लेकर जो बेचैनी दिखाई देती है दरअसल वो इस वजह से है कि उस पीढ़ी के पास अपना कोई आलोचक नहीं है । आज के दौर के ज्यादातर लेखक आलोचकों को नकारने में लगे रहते हैं । बहुधा मुक्तिबोध की पंक्ति तोड़ने ही होंगे सारे गढ़ और मठ को नारे की तरह इस्तेमाल करते हुए । आलोचकों को नकराने की यह प्रवृति इन दिनों ज्यादा बढ़ गई है ।

आलोचना की अपनी दिक्कतें हैं, वो सतही हो गई है, उसमें पूर्वग्रह ज्यादा दिखाई देता है आदि आदि । बावजूद इसके साहित्य में इस विधा की अपनी एक अहमियत है जिसको नकारने की ना तो आवश्यकता है और ना ही गढ़ और मठ तोड़ने की नारेबाजी की । आलोचना की गलत प्रवृत्तियों पर रचनात्मक तरीके बात होनी चाहिए । वैसे भी हिंदी आलोचना के इतने बुरे दिन नहीं आए हैं कि उसको रचनाकारों से किसी भी तरह के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता हो । बावजूद इसके आलोचना के खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा है वह साहित्य की हर विधा के लिए नुकसानदेह हो सकती है । जो पीढ़ी इन दिनों अपने से पुरानी पीढ़ी से विरासत और वसीयत की मांग कर रही है अगर उस पीढ़ी के लेखकों की रचनाओं पर गंभीरता से विचार होता तो यह दिक्कत नहीं आती । सालों से लिख रहे लेखकों/लेखिकाओं के रचनाकर्म पर गंभीरता से विचार करनेवाला कोई आलोचक सामने नहीं आ रहा है । जो खुद के आलोचक होने का दावा करते हैं वो उतनी तैयारी के साथ इस कर्म में नहीं उतरते हैं । आलोचना के लिए जिस अध्ययन की आवश्यकता होती है या फिर जिस तरह से वैश्विक प्रवृत्तियों के बरक्श देसी रचनाओं को रखकर तुलनात्मक विश्लेषण की आवश्यकता होती है उसका सर्वथा अभाव दिखता है । जिन लोगों के सर पर युवा आलोचक की कलगी लगाई जा रही है उनके लेखन को देखकर भी निराशा होती है । या तो वो मार्क्सवाद के भोथरे औजारों से आलोचना करने में लगे हैं या फिर अलग अलग लेखकों से समीक्षानुमा टिप्पणी लिखवाकर किताब का संपादन कर आलोचक बने बैठे हैं । मामला यहीं तक नहीं रुकता है । कई बार आलोचनात्मक लेखों को पढ़ने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि आलोचक की राय क्या है । होता यह है कि वो लिखना शुरू करते ही उद्धरण देना शुरू कर देते हैं । नेम ड्रापिंग कर कर के अपने लेख को वजनदार बनाने के चक्कर में उनका खुद का कोई मत सामने आ नहीं पाता है । इसका सबसे ज्यादा नुकसान उस लेखक का होता है जिसकी रचनाओं पर उस लेख में विचार किया जाता है । ना तो रचना पर बात हो पाती है ना ही रचना के क्राफ्ट आदि पर । अगर कोई आलोचक सामने आकर उक्त पीढ़ी की लेखिकाओंलेखकों पर गंभीरता से विचार करेगा तो पीढ़ीगत संघर्ष दिखाई नहीं देगी । इसके अलावा उस पीढ़ी को यह भी करना होगा कि वो अपनी बी पीढ़ी के साथी लेखकों की रचनाओं पर लिखना शुरू करे । इसका एक फायदा ये होगा कि उनकी रचनाओं पर बात शुरू हो जाएगी । राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की त्रयी ने भी ये किया था जिसका उनके लेखन को कितना फायदा हुआ ये तो इतिहास में दर्ज है । अपने साथी लेखकों की रचनाओं को खारिज करने की बजाए वो उसपर विमर्श की शुरुआत करें, कटुता भी घटेगी और स्वीकार्यता भी बढ़ेगी। आवश्यकता तो इस बात की भी है कि साहित्यक साजिशों, गॉसिपों से आगे जाकर रचनात्मक विमर्श को तवज्जो दी जाए ताकि कुछ सकारात्मक निकले और बाद की पीढी के सामने एक मिसाल पेश हो ।