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Sunday, November 29, 2020

विकल्पहीन नहीं है साहित्य


कोरोनाकाल में कई संस्थाएं और व्यक्तियों ने साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया। जब साहित्यिक कार्यक्रम स्थगित होने लगे तो लोगों ने नए रास्तों की खोज प्रारंभ की। साहित्य में नई राह के अन्वेषण की बातें हर कालखंड में होती रही हैं लेकिन कोविड काल में चुनौती नई थी और साहित्य और साहित्यकारों को जोड़कर रखने की बड़ी चुनौती थी। कोलकता की संस्था प्रभा खेतान फाउंडेशन और उसके कर्ताधर्ता संदीप भूतोड़िया ने भी साहित्य और भाषा के क्षेत्र में इस चुनौती से निबटने के लिए कई पहल की। फाउंडेशन के उपक्रमों पर उनसे मैंने बातचीत की ।  

प्रश्न- इस वर्ष जब फरवरी के अंत और मार्च के आरंभ में भारत में कोरोना वायरस का खतरा बढने लगा था तो आपके मन में ऑनलाइन कार्यक्रम करने की बात कैसे आई ?

संदीप- हमारे देश में जब कोरोना का संकट उत्पन्न हुआ तो हमारे फाउंडेशन का सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम ‘कलम’ सबसे अधिक प्रभावित हुआ। सबसे पहले फरवरी में मुंबई से आने वाले एक लेखक ने अपना कार्यक्रम स्थगित किया। फिर लगातार हमारे कार्यक्रम स्थगित होने लगे या लेखक कार्यक्रमों में आने-जाने से हिचकने लगे। तब पहली बार हमारे दिमाग में ऑनलाइन कार्यक्रम करने की बात आई और सोचा कि इस माध्यम को विकसित किया जाए। पर ये होगा कैसे? मुझे मालूम नहीं था। कार्यक्रम में भागीदारी के लिए लोगों को कैसे राजी किया जाएगा, ये भी समझ नहीं आ रहा था। ये भी डर था कि अगर लोग ऑनलाइन कार्यक्रमों  में नहीं जुटे तो हमारा और हमारी टीम का मनोबल टूट जाएगा। लेकिन चुनौती को हमने स्वीकार किया क्योंकि अपनी भाषा को आगे बढ़ाने का उपक्रम रोकने का प्रश्न ही नहीं था। 

प्रश्न- जरा विस्तार से बताइए कि कार्यक्रमों को ऑनलाइन आयोजित करने में आपको किन और किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

संदीप- हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि पाठक लेखक संवाद बाधित न हो पाए। जैसा कि आपको पता है कि हमारे कार्यक्रमों में लेखक को अपनी कृतियों और समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर बातचीत का मौका मिलता है। हम हिंदी और अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषाओं में भी ‘आखर’ के नाम से कार्यक्रम करते हैं। ‘कलम’ में हम किसी लेखक से उनकी रचनाओं और अनुभवों पर बात करते हैं। इस बीच लॉकडाउन की घोषणा हो गई। संकट और बढ़ गया। ऑनलाइन में सबसे बड़ी चुनौती थी कि हम अलग अलग शहरों में किताबें नहीं पहुंचा सकते थे क्योंकि प्रकाशकों के कार्यालय बंद, कूरियर कंपनियां बंद, होटल बंद, एयरलाइंस बंद, रेल बंद।  कार्यक्रम में आने वाले साहित्य प्रेमियों को किताबें भेंट में नहीं दे सकते थे। लेकिन हमने चुनौती को स्वीकार किया और कुछ लेखकों को इस तरह के साहित्यिक ऑनलाइन कार्यक्रम के लिए तैयार किया। हमें भी तकनीक सीखने का मौका मिला। जूम और सिस्को पर अपने सहोगियों के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम किए। 

प्रश्न- जब लेखक ऑनलाइऩ आने के लिए तैयार हो गए तो फिर अन्य लोगों को कैसे तैयार किया। 

संदीप- हमने देश के अलग अलग शहरों में महिलाओं का एक समूह तैयार किया हुआ है जिसे ‘अहसास वूमेन’ कहते हैं। जैसे दिल्ली के समूह को ‘अहसास वूमेन ऑफ दिल्ली’ कहते हैं, इसी तरह से ‘अहसास वूमेन ऑफ लखनऊ’ आदि। पुस्तकप्रेमियों को ऑनलाइऩ कार्यक्रमों में जोड़ने के लिए हमने ‘अहसास वूमेन’ को तैयार किया और सभी ने बहुत उत्साह के साथ इस काम को हाथ में लिया। सभी तकनीक के उपयोग को लेकर उत्साहित थीं। हमारा काम इसलिए भी थोड़ा आसान था कि हमारे कार्यक्रमों में प्रतिभागियों की संख्या 35 से 40 ही होती है। हमने कार्यक्रम शुरु किया तो ये सफल होने लगा। लोगों ने इसको अपनाया। आपको बताऊं कि ‘कलम’ और ‘राइट सर्कल’ जैसे हमारे ऑनलाइन कार्यक्रमों की संख्या लॉकडाउन के दौरान बढ़ गई। छह शहरों में तो हमारे इवेंट दुगने हो गए। हमारे सहयोगियों ने भी साथ दिया। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब और हरियाणा में दैनिक जागरण और छत्तीसगढ़ में नईदुनिया हमारे सहयोगी हैं। उनका भी साथ उत्साहवर्धक रहा।   

प्रश्न- पर आपके कार्यक्रमों में पुस्तकप्रेमियों को पुस्तकें नहीं मिल पाने से आपका पुस्तक संस्कृति के विकास का उद्देश्य तो पूरा नहीं हो पा रहा। 

संदीप- आप ठीक कह रहे हैं। हमने कोशिश की हमारे कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले लोगों को ईबुक्स खरीदकर भेंट दे सकें। लेकिन ये संभव नहीं हो सका। आप ईकॉमर्स प्लेटफॉर्म से एक ही पुस्तक की आनलाइन कई प्रतियां नहीं खरीद सकते। किंडल पर भी एक ही पुस्तक की कई प्रतियां खरीद कर गिफ्ट नहीं कर सकते। हम चाहते थे कि किसी पुस्तक की ईबुक्स की सौ प्रतियां खरीद लें और उनको प्रतिभागियों को भेंट कर दें लेकिन ये संभव नहीं हो सका। फिर हमने एक नया तरीका निकाला कि श्रेष्ठ प्रश्न पूछनेवालों को अमेजन का गिफ्ट वाउचर देना शुरु किया ताकि वो पुस्तकें खरीद लें। 

प्रश्न- ऑनलाइन कार्यक्रमों के अलावा और क्या किया कोविड काल में आपलोगों ने। 

संदीप- देखिए हम लोगों के पांच उद्देश्य हैं, साहित्य कला को बढ़ावा देना, स्थानीय खान-पान को बढ़ावा देना, स्थानीय हस्तकला को प्रोत्साहित करना, महिला सशक्तीकरण और शहर विशेष में साहित्य और भाषा के प्रति माहौल बनाना। हम जब एक्चुल कार्यक्रम करते थे तो किताबों पर बात होती थी, प्रतिभागियों को पुस्तकें भेंट करते थे। आमंत्रित लेखकों को स्थानीय हस्तकला का उपहार देते थे। आमंत्रित अतिथियों को स्थानीय व्यंजन खिलाते थे। जैसे पंजाब के कार्यक्रम में टिकिया और लस्सी, कहीं कचौड़ी छाछ आदि। आज 29 शहरों में महिलाएं ही इस कार्यक्रम को संचालित करती हैं, महिला सशक्तीकरण का उद्देश्य पूरा हो रहा है। 

प्रश्न- आपने ऑनलाइन प्रतियोगिताएं भी कीं। 

संदीप- जी, जब हम ऑनलाइन कार्यक्रम करने की प्रक्रिया में थे और तकनीक की बारीकियों को सीख और समझ रहे थे उस वक्त हमने ट्विटर और इंस्टाग्राम पर हिंदी के लेखकों से जुड़ी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिताएं आयोजित कीं। ये काफी सफल रहीं और काफी लोग इसमें जुड़े। इसमें हम सही उत्तर देनेवालों को उसी लेखक की पुस्तकें भेंटस्वरूप देते थे। इसके अलावा आपको एक और बताऊं हमने हिंदी के लेखकों और ‘अहसास वूमन’ को जोड़ने के लिए ऑनलाइन अंताक्षरी कार्यक्रम भी किए। अंताक्षरी के कार्यक्रम में उषा उत्थुप भी शामिल रहीं। साहित्य से इतर हमने जो कार्यक्रम किए उसमें बिरजू महाराज, हरिप्रसाद चौरसिया जी, शुभा मुदगल जी जैसे कलाकारों से भी संवाद के कार्यक्रम किए। 

प्रश्न- क्या आप ऑनलाइन कार्यक्रमों को विस्तार देने के बारे में सोच रहे हैं। 

संदीप- ऑनलाइन कार्यक्रमों ने साहित्य और कला के क्षितिज को विस्तार दिया है। पहले ‘कलम’ का कार्यक्रम सिर्फ लंदन में होता था, अब हमारा कार्यक्रम न्यूयॉर्क और ओस्लो में शुरू हो गया है। विदेशी विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से हमारे देश के लेखकों और हिंदी की रचनात्मकता को जोड़ने का काम हमने शुरू किया है। यह आपदा में अवसर की तरह है। मेरठ में बैठकर कोई लेखक अब बहुत आसानी से न्यूयॉर्क के ऑडियंस से बात कर सकता है। 

प्रश्न- अंत में आपसे ये पूछना चाहता हूं कि ऑनलाइन कार्यक्रमों में किस तरह की दिक्कतें आईं

संदीप- बहुत विनम्रता के साथ एक बात कहना चाहता हूं, हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों में अपेक्षाकृत कम प्रोफेशनलिज्म है। जिस तरह से अंग्रेजी के प्रकाशक अपने लेखकों को सपोर्ट करते हैं, हिंदी के प्रकाशक नहीं करते। अन्य भारतीय भाषाओं में भी हम कार्यक्रम करते हैं, उन भाषाओं के प्रकाशक भी अपने लेखकों के लिए बहुत प्रयास करते हैं। हमें अंग्रेजी की किताबें अपने प्रतिभागियों को भेजने में परेशानी नहीं होती है लेकिन हिंदी की किताबों को भेजने में बहुत तरह की बाधाएं खड़ी हो जाती हैं। पर हम आशान्वित हैं कि जल्द ही हिंदी के प्रकाशक भी इसको अपना लेंगे। 


आभासी दुनिया में जीवंत होगी कलाएं


कोरोना के संकट से हमारा पूरा समाज प्रभावित हुआ। समाज को सहज होने और वातावरण को सामान्य होने में समय लगेगा। इस दौर में कलाओं के प्रदर्शन में भी बाधाएं आ रही हैं। कई महत्वपूर्ण और महात्वाकांक्षी योजनाओं को आकार लेने में विलंब हो रहा है। लेकिन कुछ लोग होते हैं जो विकल्पपहीनता को चुनौती की तरह लेते हैं और जहां चाह वहां राह की उक्ति को चरितार्थ करने में जुट जाते हैं। ऐसी  ही एक शख्सियत हैं अभिषेक पोद्दार और उपक्रम है म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी (एमएपी)। बेंगलुरू में इस वर्ष दिसंबर में म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी का शुभारंभ होनेवाला था लेकिन कोरोना संकट की वजह से इसमें देरी हो रही थी। अभिषेक पोद्दार ने आपदा को अवसर में बदलते हुए ये तय किया गया कि म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी को आभासी दुनिया यानि डिजीटल फॉर्मेट में लांच किया जाए। उनका मानना है कि बेंगलुरू की एक इमारत में संग्रहालय को जितने लोग देख सकते हैं उससे कहीं अधिक लोग इसको डिजीटल फॉर्मेट में देख सकते हैं। उन्होंने दैनिक जागरण को बताया कि इस आभासी संग्रहालय को लांच करने के पहले उन्होंने ऑनलाइन ऑडियंस के साथ कई तरह के प्रयोग किए। उसके सकारात्मक नतीजे मिले। म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी के संस्थापक ट्रस्टी अभिषेक पोद्दार खुद देश के जाने-माने कला संग्रहकर्ता और संरक्षक हैं। अभिषेक पोद्दार पिछले पैंतीस साल से कलाकृतियों का संग्रह कर रहे हैं। उनका मानना है कि म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी का डिजीटल लॉंच उनके अपने लक्ष्य को हासिल करने की शुरुआत है। अभिषेक के मुताबिक ‘इस चुनौतीपूर्ण समय में संग्रहालय और सांस्कृति संस्थाओं को अपने आप को प्रासंगिक बनाने के बारे में विचार करना चाहिए। म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी का डिजीटल लॉंच एक नए म्यूजियम के साथ एक नए युग का भी सूत्रपात करेगा। दक्षिण भारत के इस पहले निजी कला संग्रहालय की स्थापना का उद्देश्य देश में एक ऐसी संस्कृति विकसित करना है जहां लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को देख सकें। कला और संस्कृति से आत्मीय तादात्मय स्थापित कर सकें। इस संग्रहालय का उद्देश्य कला को अपने देश के लोगों के अलावा पूरी दुनिया तक पहुंचाना है। ‘आनेवाले दिनों में संग्रहालय के डिजीटल प्लेटफॉर्म पर हिंदी और कन्नड़ भाषा का विकल्प भी मौजूद रहेगा। जिससे अधिक लोग इससे जुड़ सकेंगे।

म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी  के डिजीटल शुभारंभ के अवसर पर एक सप्ताह का एक कार्यक्रम भी आयोजित किया जा रहा है। अभिषेक पोद्दार ने बताया कि वो इस कार्यक्रम के माध्यम से कला और साहित्य का उत्सव मनाने जा रहे हैं। जिसके माध्यम से लोगों को ये बताया जाएगा कि कला उऩके दैनंदिन जीवन का एक अंग है। ‘आर्ट इज लाइफ’ के नाम से 5 से 11 दिसंबर तक आयोजित होनेवाले इस वर्चुअल कार्यक्रम में संगीत, नृत्य, कविता, तकनीक जैसे विषयों पर विषय विशेषज्ञों के साथ संवाद होगा। इसमें गीतकार जावेद अख्तर, अभिनेत्री शबाना आजमी और नंदिता दास, रंगमंच की दुनिया से अरुंधति नाग, नृत्यांगना मालविका सरुक्काई, बिजनेस से किरण मजूमदार शॉ, लेखिका सुधा मूर्ति और इतिहासकार विलियम डेलरिंपल जैसी हस्तियां शामिल होंगी। म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी की निदेशक कामिनी साहनी के मुताबिक ‘आर्ट इज लाइफ की शुरुआत इस बात से होगी कि कैसे कलाएं एक दूसरे से जुड़ी होकर एक दूसरे को समृद्ध करती हैं।‘ आर्ट इज लाइफ के शुभारंभ के साथ ही ‘म्यूजियम विदाउट बॉर्डर’ की शुरुआत भी होगी। इसके तहत पचास विदेशी संस्थाओं के साथ साझेदारी की जाएगी। 

Saturday, November 28, 2020

प्रगतिशीलता के नाम पर बौद्धिक अपराध


इन दिनों एक वेब सीरीज को लेकर विवाद जारी है। विवादों के केंद्र में एक बार फिर ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) नेटफ्लिक्स और उसपर दिखाई जा रही सीरीज ‘अ सुटेबल बॉय’ है। ये सीरीज विक्रम सेठ की 1993 में इसी नाम से प्रकाशित औपन्यासिक कृति पर आधारित है। उपन्यास में भारत विभाजन के बाद की कहानी कही गई है, जाहिर है कि वेब सीरीज में भी इसी कहानी को चित्रित किया गया है। विवाद इस वजह से उठा कि इस सीरीज की नायिका लता और उसके मित्र कबीर के बीच मंदिर प्रांगण में चुंबन दृश्य दिखाया गया है। इस वेब सीरीज के खिलाफ रीवा में पहली शिकायत दी गई। शिकायत में कहा गया कि सीरीज में मध्य प्रदेश के महेश्वर घाट के शिव मंदिर प्रांगण में तीन बार एक मुस्लिम लड़के ने हिंदी लड़की का चुंबन लिया है जो हिंदू समाज की भावनाओं को आहत करती है। पुलिस और प्रशासन से मांग की गई कि नेटफ्लिक्स की दो अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाए। पुलिस ने आरंभिक जांच के बाद केस दर्ज कर लिया और जांच कर रही है। कानून अपना काम करेगी। इस शिकायत के बाद देश-विदेश में इस बात को लेकर चर्चा आरंभ हो गई। विदेशी अखबारों में इसकी आलोचना करते हुए लेख लिखे जा रहे हैं। अपने यहां भी इंटरनेट मीडिया पर खुद को प्रगतिशील और लिबरल समझनेवाले कथित ‘विद्वानों’ ने ‘अ सुटेबल बॉय’ के चुंबन दृश्य के चित्र को खजुराहो के मंदिर की मूर्तियों के चित्र के साथ लगाकर टिप्पणियां करनी शुरू कर दीं। अब इन तथाकथित प्रगतिशीलों को कौन समझाए कि चित्रों या फिल्मों के दृश्यों की प्रभावोत्पादकता का आकलन संदर्भों के बगैर अनुचित है। अगर ‘अ सुटेबल बॉय’ के चुंबन दृश्य और खजुराहो के चित्रों पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करें तो दोनों चित्रों के संदर्भ अलग हैं, लेकिन प्रगतिशीलों की बगैर संदर्भों को समझे या जानबूझकर किसी भी चीज को संदर्भ से काटकर प्रस्तुत करने की प्रविधि पुरानी है। 

पूरे देश ने एम एफ हुसैन के मामले में भी प्रगतिशीलों की इस प्रविधि को देखा था। हुसैन जब हिंदू देवी देवताओं के नग्न चित्र बना रहे थे तो उसको कला का उत्कृष्ट नमूना बताया गया था। उस वक्त भी उसकी तुलना खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर बनाई गई मूर्तियों से की गई थीं। उस वक्त भी इस बात को छिपा लिया गया था कि हुसैन जब किसी को अपमानित करना चाहते थे तो उसका नग्न चित्र बनाते थे। जबकि ये बात स्वयं हुसैन ने कही थी। हुआ ये था कि हुसैन ने एक बार महात्मा गांधी, कार्ल मार्क्स, आइंस्टीन और हिटलर की पेंटिंग बनाई थी। उस पेंटिंग में उन्होंने सिर्फ हिटलर को नग्न दिखाया था। जब इस बारे में उनसे सवाल पूछा गया कि पेंटिंग में उन्होंने सिर्फ हिटलर को ही नग्न क्यों चित्रित किया तो हुसैन ने साफ तौर पर कहा था कि किसी को अपमानित करना का उनका ये तरीका है। जब उनके हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाने पर विरोध हो रहा था तब खुद को उदारवादी माननेवाले या कलात्मक अभिव्यक्ति की पैरोकारी करनेवालों ने हुसैन के इस कथन को छुपा लिया था ।वो खजुराहो मंदिर की मूर्तियों के बहाने से पूरे देश को कलात्मकता की परिभाषा समझाने में जुट गए थे। उद्देश्य ये था कि हुसैन का बचाव किया जाए और उनका विरोध करनेवालों को अपनी परंपरा से अनभिज्ञ करार दिया जाए। अब एक बार फिर जब ये मसला उठा है तो खजुराहो की मंदिर की मूर्तियों की आड़ लेकर इस वेब सीरीज का बचाव किया जा रहा है। 

समग्रता में नेटफ्लिक्स पर दिखाई जानेवाली वेब सीरीज पर विचार करें तो एक पैटर्न दिखाई देता है। इस प्लेटफॉर्म पर दिखाई जानेवाली सीरीज में हिंदू धर्म या हिंदू देवी-देवताओं या हिंदू धर्म प्रतीकों का अपमानजनक तरीके से चित्रण किया जाता रहा है। वेब सीरीज ‘लैला’ से लेकर ‘द सूटेबल बॉय’ तक में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ये दिखता है। नेटफ्लिक्स ही क्यों अन्य ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर भी हिंदू धर्म प्रतीकों का अक्सर ही मजाक उड़ाया जाता है। संवादों में भी भावनाएं आहत करनेवाली टिप्पणियां की जाती हैं। पात्रों के नाम भी इस तरह से रखे जाते हैं जो इनकी मंशा को साफ तौर पर उजागर करते हैं। प्राइम वीडियो पर एक वेब सीरीज आई थी ‘पाताल लोक’ उसमें पालतू कुतिया का नाम सावित्री रखा गया था। अब इसके पीछे की मंशा क्या हो सकती है, समझा जा सकता है। यूट्यूब पर मसखरी करनेवाले कई हास्य कलाकार भी हिंदू देवी देवताओं को लेकर कैसी भी बात बोल जाते हैं। शंकर भगवान को लेकर जाने कैसी कैसी फूहड़ बातें कही जाती हैं बगैर शिव के व्यक्तित्व को समझे। हनुमान जी को लेकर भी उलजलूल टिप्पणियां की जाती हैं। हमारे पौराणिक ग्रंथ में वर्णित चरित्रों को लेकर भी अपमानजनक बोल बोले जाते हैं। इन सब बातों को लेकर किसी को आपत्ति हो और वो भारतीय संविधान के अंतर्गत कानून का सहारा लेता है तो देश को आहत भावनाओं का गणतंत्र करार दे दिया जाता है। ये सिर्फ वेब सीरीज आदि में ही नहीं दिखता है, फिल्मों में बहुधा इस तरह की बातें दिख जाती हैं। फिल्म ‘पीके’ से लेकर ‘ओ माई गॉड’ तक के संवाद और दृश्य देखे जा सकते हैं।

इसका एक दूसरा पक्ष भी है। जब भी किसी फिल्म में किसी मुस्लिम चरित्र को खलनायक के तौर पर पेश किया जाता है तो उसपर भी आपत्ति शुरू हो जाती है। यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि फिल्म ‘पद्मावत’ में खिलजी के चरित्र चित्रण पर भी कई लोगों को आपत्ति हुई थी।  फिल्म में खिलजी के चरित्र चित्रण को इतिहास के मलबे में दबे दुर्गुणों को पेश करने जैसा बता दिया गया था। तब मलिक मुहम्मद जायसी लिखित काव्य पद्मावत की व्याख्या की जाने लगी थी। कई लोगों ने इस बात को भी रेखांकित किया कि फिल्म में हिंदू राजा को अच्छा और मुस्लिम राजा को बर्बर दिखाया गया था। तब दक्षिण एशियाई साहित्य के विदेशी विद्वान थॉमस ड ब्रूइन की पुस्तक ‘रूबी इन द डस्ट’ का सहारा लिया गया था। इस पुस्तक में ब्रूइन ने जायसी की कृति पद्मावत की व्याख्या की है। जब भी किसी फिल्म में मुसलमानों को आक्रांताओं के तौर पर दिखाया जाता है तो ये कथित प्रगतिशील तबका येन केन प्रकारेण उसकी आलोचना में जुट जाते हैं और इधर उधर से तर्क जुटाने की कोशिश करते हैं। इस बात की पैराकारी भी करने लगते हैं कि इतिहास को धर्म के आधार पर व्याख्यायित करना गलत होगा। इसी तरह से जब फिल्म ‘मणिकर्णिका’ के एक सीन में अंग्रेज सैनिक बछड़े को पकड़कर कर उसका मांस खाने की तैयारी में होते हैं तो रानी लक्ष्मीबाई बछड़े को अंग्रेज सैनिकों के चंगुल से छुड़ाती हैं। वहां रानी लक्ष्मीबाई का एक संवाद है कि ‘जिस धरती पर तुम लोग खड़े हो वहां के लोगों और उनकी भावनाओं का सम्मान करना सीखो।‘ इस दृश्य और संवाद में कुछ गलत नहीं था लेकिन इसको हिंदू राष्ट्रवाद से जोड़ दिया गया। ये भी याद दिलाने की कोशिश की गई कि रानी लक्ष्मीबाई और आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय अंग्रेजों के खिलाफ उस लड़ाई में साथ थे। इस तरह के ढेरों उदाहरण हैं जहां एक ही तरह की स्थिति में हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग अलग मानदंड हैं। एक ही तरह की स्थितियों को देखने के लिए अलग अलग प्रिज्म है। ये एक तरह का बौद्धिक अपराध है जिसके लिए किसी कानूनी सजा का प्रावधान नहीं है इसको तो बौद्धिकता के अखाड़े में ही चुनौती देनी होगी। 


Saturday, November 21, 2020

ज्ञान से लव जिहाद का प्रतिकार संभव


वर्तमान में एक बार फिर से लव जेहाद को लेकर बहस छिड़ी हुई है। उत्तर प्रदेश के कानपुर और अन्य इलाकों में लव जिहाद की कई घटनाओं ने लोगों का इस ओर ध्यान खींचा। इन घटनाओं के बाद उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश समेत कुछ अन्य राज्य लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने की तैयारी में हैं। इस बीच राजस्थान के मुख्यमंत्री ने इसके खिलाफ अपनी राय सामने रख दी। लव जिहाद पर जारी इस बहस के बीच खुद के प्रगतिशील होने का दावा करनेवाले विश्लेषकों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी की शादी को लेकर भी लव जिहाद के खिलाफ कानून की बात करनेवालों का उपहास करना शुरू कर दिया। यहां वो ये भूल गए कि जिस लव जिहाद के खिलाफ कानून की बात हो रही है उसके मूल में धोखा देकर या नाम बदलकर विवाद करने का मामला है। न तो नकवी ने नाम बदलकर प्रेम किया और न ही शाहनवाज ने नाम बदलकर शादी की। ये अवांतर प्रसंग है लेकिन यहां ये उल्लेख करना आवश्यक है कि प्रगतिशीलता और निष्पक्षता का बाना धारण करनेवाले तथाकथित बुद्धिजीवी हर मसले में घालमेल करने में सिद्धहस्त हैं।लव जिहाद पर बनने वाले कानून को अगर वो प्रेम और प्यार की राह में बाधा से जोड़ दें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। खैर..इस पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल बात लव जिहाद पर ।

इन दिनों लव जिहाद एक बेहद गंभीर सामाजिक समस्या के तौर पर उपस्थित हुआ है जिसका फायदा आपराधिक मनोवृत्ति के लोग उठा रहे हैं। धोखा देकर लड़कियों को अपने प्रेम के जाल में फंसाना और फिर शादी कर लड़की का धर्मांतरण करवाना आ उसके लिए दबाव बनाना ही लव जिहाद के मूल में है। कहीं पढ़ा था कि किसी भी सामाजिक परिवर्तन की रफ्तार अगर धीमी रहती है तो उसको सुधार कहकर परिभाषित किया जाता है और अगर वो सामाजिक परिवर्तन काफी तेजी से होता है तो उसको क्रांति कहा जाता है। इसी तरह से अगर कोई सामाजिक बुराई धीमी गति से फैलती है तो उसपर अंकुश लगाने के लिए दीर्घकालिक योजना की जरूरत होती है लेकिन अगर सामाजिक बुराई तीव्र गति से फैलने लगती है तो उसको कानून के डंडे और सामाजिक जागृति से काबू में लाया जाता है।

पिछले दिनों जिस तरह से लव जिहाद के मामले बढ़े हैं उसको रोकने के लिए कानून बनाने की सोच उचित प्रतीत होती है। लव जिहाद जैसी सामाजिक बुराई को सिर्फ कानून बनाकर दूर नहीं किया जा सकता है। इसके लिए संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में भी काम करना आवश्यक होगा। दरअसल हमारे देश में गंगा-जमुनी तहजीब का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया गया उसका निषेध करना होगा। ऐसी कोई संस्कृति हमारे देश में नहीं है। गंगा जमुनी तहजीब के साथ साथ इस अवधारणा को भी दूर करने का उपक्रम करना होगा कि भारत विविध संस्कृतियों का देश है। हमारे देश की संस्कृति एक ही है, एक ऐसी संस्कृति जहां हम तमाम तरह की विविधताओं का उत्सव मनाते हैं। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है कि वो सबको अपने अंदर समाहित करता चलता है। भारतीय संस्कृति के सामाजिक रूप पर अगर विचार करें तो यह पाते हैं कि आर्यों और आर्येतर जातियों ने साथ मिलकर एक संस्कृति को मजबूत किया जिसे हिंदी संस्कृति के तौर पर जाना गया। मुसलमानों के भारत में आगमन के पहले जब तुर्क और मंगोल आदि भारत आए तो उन्होंने यहां की संस्कृति को अपनाया। नतीजा यह हुआ कि विविधता और बढ़ गई। इस अवधारणा को पुष्ट करने के लिए विद्यालय स्तर पर काम करने की जरूरत है। अभी हाल ही में पेश की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात के संकेत तो हैं लेकिन बहुत स्पष्ट रूप से इसको सामने रखने की जरूरत है। स्पष्टता के साथ नीति सामने आएगी तो फिर उसके क्रियान्वयन के लिए प्रयास करना होगा। 

नैतिक शिक्षा की बात बार-बार की जाती है और तथाकथित प्रगतिशील तबका उसका उपहास करती रही है, लेकिन आज की सामाजिक समस्या को ध्यान में रखते हुए नैतिक शिक्षा की आवश्कता एक बार फिर से महसूस होने लगी है। सामाजिक और पारिवारिक संस्कार शिक्षा के मूलाधारों में से एक होना चाहिए। कथित प्रगतिशील तबका भारतीय संस्कृति या यों कहें कि हिंदू संस्कृति का ये कहकर मजाक उड़ाती रही है कि यहां लोक से अधिक परलोक को प्रधानता दी गई है। ऐसा कहने के पीछे उनका उद्देश्य यह होता है कि वो ये साबित करें कि हिंदू संस्कृति जिंदगी को जीने या संघर्ष करने की प्रेरणा नहीं देता है बल्कि पलायन की राह दिखाता है। ऐसे कथित प्रगतिशील विद्वानों को ये नहीं पता कि उनके इन तर्कों का आधार उनका अज्ञान है। हम वैदिक धर्म का सूक्षमता से अध्ययन करें तो पाते हैं कि वहां संन्यास की नहीं बल्कि गृहस्थधर्म की प्रधानता है। ऋगवेद में तो इस बात का उल्लेख मिलता है कि ऋषि वैराग्य की कामना वहीं करते बल्कि वो इंद्र से ये कहते हैं कि ‘हमारे घोड़ों को पुष्ट करो, हमारी संततियों को बलवान बनाओ, हमारे शत्रुओं को कमजोर करो आदि आदि।‘ ऋगवेद में समाज और संस्कृति की जो रेखा दिखाई देती है उसका ही विस्तार रामायण और महाभारत में भी दिखता है। गीता में भी कर्मयोग पर जोर दिया गया है। ये सारी बातें विस्तार से नई पीढ़ी को बतानी होगी। उनको पौराणिक ग्रंथों में वर्णित ज्ञान से संस्कारित करना होगा। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय मिलकर एक समेकित योजना पर काम करें। इसके लिए किसी नए संस्थान बनाने की जरूरत भी नहीं बल्कि जो संस्थाएं पहले से काम कर रही हैं उनकी कार्यप्रणाली को ठीक करके उनसे ये काम करवाया जा सकता है। बस संस्कृति और उसको मजबूत करने में रुचि की होनी चाहिए।

शिक्षा और संस्कृति को मजबूत करके हम समाज में अपने युवाओं को इस तरह से संस्कारित कर सकते हैं जिससे वो सभ्यता के दुर्गुणों के पीछे नहीं भागें। दिनकर ने सभ्यता और संस्कृति को बहुत कायदे से परिभाषित किया है। उनके अनुसार ‘सभ्यता वह वस्तु है जो हमारे पास है, संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं। प्रत्येक सुसभ्य व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं होता क्योंकि संस्कृति का निवास मोटर, महल और पोशाक में नहीं, मनुष्य के ह्रदय में होता है।‘ नई शिक्षा नीति में संस्कृति को लेकर जो चीजें छूट गई हैं उसको राष्ट्रीय संस्कृति नीति बनाकर शामिल किया जा सकता है। आजाद भारत के इतिहास में अबतक हमारे देश की कोई संस्कृति नीति नहीं बनी। संस्कृति के क्षेत्र में जो लोग सक्रिय रहे उनकी सोच के हिसाब से काम होता रहा। पहले पुपुल जयकर और बाद के दिनों में कपिला वात्स्यायन की सोच सरकारी की संस्कृति को लेकर बनने वाली नीतियों को प्रभावित करती रही। इमरजेंसी के बाद के दौर में वामपंथियों की सोच ने भी भारत सरकार की नीतियों को प्रभावित किया। विदेश से आयातित विचारों के आधार पर भारतीय संस्कृति को सिर्फ व्याख्यायित ही नहीं किया गया बल्कि उसको प्रभानित करने की नापाक कोशिश भी हुई।समग्रता में संस्कृति नीति के बारे में कभी सोचा गया हो ऐसा ज्ञात वहीं है। अब जब सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की दिशा में ठोस कदम उठाया है तब देश के लिए एक समग्र सांस्कृतिक नीति को लेकर भी विचार करना चाहिए। अगर मौजूदा सरकार इस देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ साथ एक समग्र संस्कृति नीति बनाने और उसको लागू करने पर विचार करती है तो लव जिहाद जैसी सामाजिक समस्याएं न्यून हो सकती हैं।

Friday, November 13, 2020

नियमन से सकारात्मक बदलाव की आस


मेरा बचपन गांव में बीता है। अपने गांव में सुना करता था कि मंदिर के पास की जमीन गैर-मजरुआ है। गैर-मजरुआ का शाब्दिक अर्थ भले ही ये होता है कि जो जमीन जोती न जाती हो या कृषि योग्य न हो। लेकिन गांव में रहते हुए ये समझ आया था कि गैर-मजरुआ जमीन वो होती है जिसपर किसी का मालिकाना हक नहीं होता है। इस जमीन का कोई दस्तावेज किसी के पास नहीं होता था। ये गांव की एक ऐसी जमीन होती है जिसके बारे में किसी को नहीं पता वो किसकी है। जो भी ताकतवर होता था वो उस जमीन पर कब्जा कर लेता था या फिर जिस तरीके से मन होता था उसका उपयोग करता था। इस तरह की जमीन को लेकर गांव में बहुधा झगड़ा-झंझट भी होता रहता था। कई बार मेरे गांव के बड़े बुजुर्ग मिल बैठकर ये तय कर देते थे कि इस जमीन का उपयोग सबलोग करेंगे लेकिन ये समझौता ज्यादा दिन चल नहीं पाता था। फिर से उस जमीन को लेकर मनमानी शुरू हो जाती थी। धीरे धीरे उस जमीन के आसपास रहनेवाले लोग भी उसपर अपनी दावेदारी जताने लगते थे। सरकार को मालगुजारी देकर भी गैर-मजरुआ जमीन पर फर्जी तरीके से मालिकाना हक की बात भी हम बचपन में सुनते थे। किसी भी गैर-मजरुआ जमीन को लेकर जब विवाद बढ़ता था तो जिलाधिकारी या उनका प्रतिनिधि इसका भविष्य तय कर देता था।  

पिछले तीन चार साल से ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स को देखकर हमेशा से ये लगता था कि ये गैर-मजरुआ जमीन की तरह है। वैसे तो हमारे देश में 2008-09 में ही ओटीटी प्लेटफॉर्म की शुरुआत हो गई लेकिन 2015 में जब स्टार इंडिया ने हॉटस्टार लांच किया तो पूरे देश का ध्यान इस माध्यम की ओर गया। इसके बारे में इस वजह से भी ज्यादा चर्चा हुई थी क्योंकि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के प्रसारण का अधिकार स्टार इंडिया के पास था । आईपीएल के मैच को हॉटस्टार पर भी देखा जा सकता था। इसके एक साल बाद नेटफ्लिक्स ने भी हमारे देश में अपने प्लेटफॉर्म को लांच किया। अब तो दर्जनों ओटीटी प्लेटफॉर्म देश के दर्शकों के लिए उपलब्ध हैं। ज्यादातर ओटीटी प्लेटफॉर्म एक तय शुल्क पर ग्राहकों को अपनी सेवा देते हैं लेकिन कुछ मुफ्त भी उपलब्ध हैं। इन प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाने वाले कंटेंट को लेकर पिछले तीन-चार साल से देशभर में बहस चल रही है। इस स्तंभ में भी कई बार ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर लिखा जा चुका है। वापस लौटते हैं इन प्लेटफॉर्म और गैर-मजरुआ जमीन की तुलना वाली बात पर। दरअसल ओटीटी प्लेटफॉर्म पर परोसी जानेवाली सामग्री को देखकर यही भान होता था कि इसकी हालत भी गैर-मजरुआ जमीन जैसी है। किसी को पता नहीं था कि इस तरह के प्लेटफॉर्म किस कानून या किस मंत्रालय के अधीन हैं। चूंकि इन प्लेटफॉर्म्स के प्रशासनिक अधिकार को लेकर बहुत स्पष्टता नहीं थी। इसपर दिखाए जानेवाले कंटेंट को लेकर किसी प्रकार की कोई कानूनी सीमा नहीं है। इसको रेगुलेट करनेवाली कोई संस्था नहीं है लिहाजा यहां लगभग अराजकता जैसा माहौल है। जिसको जो मन हो रहा है वो दिखाया जा रहा है। धर्म और धार्मिक प्रतीकों को किसी खास एजेंडे के तहत व्याख्यायित किया जा रहा है। हिंदू या सनातन धर्म को लेकर इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है जैसे भारत बस हिंदू राष्ट्र बनने ही जा रहा है। 

2018 में नेटफ्लिक्स पर प्रसारित एक सीरीज ‘लैला’ में तो चालीस साल बाद हिंदुओं की काल्पनिक कट्टरता को उभारने के उपक्रम की कहानी दिखाई गई थी। परोक्ष रूप से एक फेक नैरेटिव खड़ा किया गया था। उस वेब सीरीज में भविष्य के भारत की जो तस्वीर दिखाई गई थी उसमें हिन्दुस्तान नहीं होगा, उसकी जगह आर्यावर्त होगा। वहां राष्ट्रपिता बापू नहीं होंगे बल्कि एक आधुनिक सा दिखने वाला शख्स जोशी उस राष्ट्र का भाग्य-विधाता था। आर्यावर्त के लोगों की पहचान उनके हाथ पर लगे चिप से होती थी। लोग एक दूसरे का अभिवादन ‘जय आर्यावर्त’ कहकर करते थे। आर्यावर्त में दूसरे धर्म के लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी।  कुल मिलाकर एक ऐसी तस्वीर रची गई थी जो ये साफ तौर पर बताती थी कि भविष्य का भारत हिंदू राष्ट्र होगा और तमाम कुरीतियां मौजूद होंगी। ‘आर्यावर्त’ में अगर कोई हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से शादी करती है तो उसके पति की हत्या कर लड़की को आर्यावर्त के ‘शुद्धिकरण केंद्र’ ले जाया जाता है। धर्म के अलावा वहां सामाजिक विद्वेष को बढ़ानेवाला जातिगत भेदभाव को पेश किया गया था। इस सीरीज के अलावा कई अन्य वेब सीरीज में खास राजनीति एजेंडे के तहत विचारधारा विशेष को महिमामंडित और दूसरे का निंदाख्यान पेश किया जाता है। किसी में पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था पर अनर्गल आरोप की शक्ल में उनका चित्रण किया जा रहा है। कहीं जुगुप्साजनक हिंसा और यौनिकता, अप्राकृतिक यौनाचार का फिल्मांकन किया जा रहा है। एक सीरीज में तो खुलेआम यौन प्रसंगों के लंबे लंबे दृश्य बेहद घटिया तरीके से दिखाया गया। संवादों में निम्नतम स्तर की गालियों का उपयोग तो वेबसीरीज की पहचान ही बन गई है। गालियां भी जबरदस्ती ठूंसे हुए प्रतीत होते हैं। जिन भौगोलिक इलाकों की कहानियां होती हैं, उन इलाकों में चाहे उस तरह की गालियों का प्रयोग हो या न हो, इन वेबसीरीज उस तरह की गालियों की भरमार रहती हैं। ओटीटी पर चलनेवाले एक वेबसीरीज में भारतीय वायुसेना और कश्मीर को लेकर भी देशहित के विपरीत कहानियां गढ़ी गई और उसको इन अराजक प्लेटफॉर्म पर दर्शकों के सामने पेश किया जाता रहा है।

स्थिति चूंकि स्पष्ट नहीं थी कि ये प्लेटफॉर्म किस मंत्रालय के दायरे में आते हैं तो किसी प्रकार की कोई कार्रवाई हो नहीं पाती थी। वेब सीरीज में आपत्तिजनक मामले के खिलाफ अदालतों में कई मुकदमे हुए। मंत्रालयों को अदालती नोटिस गए। उस समय तक स्थिति साफ नहीं थी कि ओटीटी के लिए संचार और सूचना प्रोद्योगिकी मंत्रालय जिम्मेदार है या सूचना और प्रसारण मंत्रालय। अब जाकर केंद्र सरकार ने ये तय कर दिया है कि ओटीटी का मामला सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आएगा। अब जबकि ओटीटी नाम के इस गैर-मजरुआ जमीन का मालिकाना हक तय कर दिया गया है तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वो इसके लिए यथोचित नियम कानून बनाए।

पिछले तीन साल से सूचना और प्रसारण मंत्रालय ओटीटी के लिए निमयन बनाने की दिशा में काम भी कर रहा था। ओटीटी प्रदाता कंपनियों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के कई दौर भी हुए थे। कई प्रस्ताव भी तैयार हुए लेकिन उसपर सहमति नहीं बन पाई थी। इस वर्ष सितंबर में भी 15 बड़े ओटीटी प्लेटफॉर्म ने स्वनियमन का एक प्रस्ताव तैयार किया था। इसमें कंटेंट का वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया था लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसको खारिज कर दिया था। ओटीटी के बारे में नियमन तय करने के पहले यहां पेश किए जानेवाले कंटेंट पर समग्रता में विचार करना चाहिए। कुछ ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जो भारतीय समाज और यहां की संस्कृति को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए। इस बात का ङी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कंटेंट में हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को उसका मूल आधार न बताया जाए। समाज को बांटने वाली बातें न हो, देश की व्यवस्था के खिलाफ जनता के मन में जहर भरने का परोक्ष उपक्रम न हो। परोक्ष रूप से संवाद में इस तरह की बातें न हों जो किसी विचारधारा विशेष का पोषण करती हों। विदेशी सीरीज को भी हमारे देश में जस का तस दिखाए जाने को लेकर विचार किया जाना चाहिए। वैश्विक श्रृंखला के नाम पर नग्नता और जुगुप्साजनक हिंसा को दिखाए जाने की प्रवृत्ति को सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाना चाहिए। इस बात पर भी विचार हो कि क्या हमारा समाज कुछ पश्चिमी देशों की तरह की नग्नता के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए तैयार है। भारतीय सेना को दिखाते समय इस बात का ध्यान रहे कि राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय मंच पर उसकी बदनामी न हो और उनके मनोबल पर इसका असर न पड़े। 

कुछ लोग अभी से आशंकित हैं। ओटीटी के आसन्न नियमन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर इसकी आलोचना के संकेत देने लगे हैं। उनको पता होना चाहिए कि हमारे देश में मनोरंजन सेक्टर को लेकर पहली बार नियमन नहीं होगा। उदारीकरण के दौर में जब देश में निजी टीवी चैनलों का आगमन हुआ था तब भी कई मनोरंजन चैनलों पर अंतराष्ट्रीय कंटेंट या प्रोग्राम दिखाने को लेकर देशव्यापी बहस हुई थी। भारतीय संस्कृति को और समाज को ध्यान में रखते हुए उस वक्त की सरकार ने भी 1995 में केबल टेलीविजन नेटवर्क रेगुलेशन एक्ट बनाया था। अंतराष्ट्रीय चैनलों के हमारे देश में प्रसारण के लिए अनुमति देने के पहले डाउनलिंकिंग लाइसेंसिंग की व्यवस्था की गई थी। उन नियमनों के बाद हमारी संस्कृति और समाज की संवेदनाओं को ध्यान में रखकर स्थानीय स्तर पर ही प्रोग्राम बनने लगे। नतीजा यह हुआ कि आज हमारे देश का टीवी उद्योग बेहद समृद्ध है। अगर समाचार पत्र, न्यूज चैनल, मनोरंजन चैनल या सिनेमा के लिए नियमन है तो फिर ओटीटी को लेकर क्यो नहीं। किसी भी तरह का अनुशासन उस क्षेत्र के विकास में ही सहायक होता है। अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय के सामने चुनौती ये है कि ओटीटी को लेकर वो जो नियमन की व्यवस्था बनाए वो इस क्षेत्र को मजबूत करनेवाला हो बाधित करनेवाला नहीं।   

Saturday, November 7, 2020

वैचारिक तंत्र और राजाश्रय का संबंध


इन दिनों न्यूज चैनल और उसके क्रियाकलाप खूब चर्चा में हैं। पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद की कवरेज को लेकर, फिर फिल्मी दुनिया और ड्रग्स को लेकर, टीआरपी सिस्टम में घोटाले की खबरों को लेकर और अब न्यूज चैनल रिपब्लिक के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर। जहां भी चार पांच लोग बैठते हैं तो मीडिया और खबरों की चर्चा शुरू हो जाती है। कोरोना काल में लंबे समय के बाद लोगों का मिलना जुलना शुरू हुआ है। एक मित्र की पुस्तक आई थी, उसने उसके बहाने से मिलने जुलने का कार्यक्रम रखा था। हम सबलोग तय स्थान पर पहुंचे, पुस्तक के प्रकाशन पर बधाई आदि का दौर चला। बातों-बातों में किसी ने अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी की चर्चा छेड़ दी। एक मित्र ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी वाले खुलकर अर्नब के समर्थन में आ गए हैं, कई मंत्रियों ने उनके समर्थन में ट्वीट किया है। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता भी उनके समर्थन में प्रदर्शन आदि कर रहे हैं। अर्नब और बीजेपी की चर्चा हो ही रही थी कि दूसरे मित्र ने बात काट दी और कहा कि ये कैसा समर्थन जिसमें सिर्फ ट्वीट पर अपनी बात कहकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ ले। उनको किसी प्रकार की सहायता हुई हो ऐसा तो दिख नहीं रहा। राइट विंग के समर्थकों से बेहतर तो लेफ्ट विंग के लोग हैं जो अपने समर्थकों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। बहस में दोनों की आवाज ऊंची होने लगी थी। लेकिन बाकी मित्र मजे ले रहे थे। चर्चा जब शुरू हुई तो किसी को अंदाज नहीं था कि अर्नब की गिरफ्तारी से शुरू हुई ये चर्चा वैचारिक धरातल पर चली जाएगी।

अब बहस इस बात पर होने लगी थी कि लेफ्ट और राइटविंग के लोगों में क्या अंतर है। बातचीत राजनीति से इतर कला संस्कृति और पत्रकारिता के क्षेत्र को लेकर हो रही थी। एक मित्र ने बेहद आक्रामक तरीके से चर्चा में दखल दिया और कहने लगे कि लेफ्ट का जो इकोसिस्टम है वो राइट के लोग कभी बना ही नहीं पाएंगें या उसको बनाने में दशकों लगेंगे। लेफ्ट ने अपना जो इकोसिस्टम (तंत्र) बनाया, विकसित किया और उसको मजबूत किया उसके पीछे उनको सालों से मिला सत्ता का संरक्षण है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक और फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस सालों तक लेफ्ट इकोसिस्टम को खाद पानी मिलता रहा। ना सिर्फ खाद पानी मिला बल्कि उन्होंने अपने लोगों को बड़ा और मजबूत बनाने का उपक्रम भी चलाया। पत्रकारिता की ही बात करें तो वहां कार्य कर रहे लोगों को विभिन्न तरीकों से मजबूती प्रदान की। बगैर किसी हिचक के या ये सोचे कि कौन क्या कहेगा। नतीजा ये है कि आज भी उनके इकोसिस्टम के लोग नियमत रूप से अपनी विचारधारा को समर्थन देने और उस विचारधारा से उत्पन्न राजनीति का पोषण करते दिख जाएंगे। इसके अलावा वो तमाम लोग वाम विचारों के विरोधी दक्षिणपंथी विचारधारा के विरोध में भी हमेशा एकजुट दिखते हैं। वो इतने पर ही नहीं रुका उसने कहा कि अर्नब की गिरफ्तारी के समय लोगों ने इसको अच्छी तरह से देखा। जिस तरह से पुलिस सुबह छह बजे अर्नब को गिरफ्तार करने पहुंची और उसके परिवार के सामने उनके साथ धक्कामुक्की की, अगर ऐसा किसी लेफ्टविंग के समर्थक पत्रकार के साथ होता तो कल्पना कीजिए क्या होता! उत्तर प्रदेश सरकार ने एक संपादक को गलत तथ्यों के साथ अपनी वेबसाइट पर लेख प्रकाशित करने के लिए सिर्फ नोटिस भेजा था तो लोगों ने आसमान सर पर उठा लिया था। इंटरनेट मीडिया पर लेख लिखे जाने लगे थे। फेसबुट ट्विटर पर टिप्पणियां आने लगीं थीं। अंतराष्ट्रीय लॉबियां सक्रिय हो गई थीं कि उनकी गिरफ्तारी ना हो। गिरफ्तारी नहीं हुई। लेकिन अर्नब के केस में पूरी दुनिया देख रही है। उनकी पत्नी और बेटे पर भी केस कर दिया गया। लेकिन इंटरनेट मीडिया पर ट्वीट्स के अलावा क्या हुआ? उसको कहां से कितनी मदद मिली। क्या कोई लॉबी उसको जमानत दिलवाने के लिए सक्रिय हुई? कम से कम सार्वजनिक रूप से तो ऐसा ज्ञात नहीं हो सका। जिन न्यूजरूम से सरकारें बनाई जाती थीं, मंत्रियों के विभाग तय किए जाते थे वहां काम करनेवाले लोग आज भी नैतिकता के झंडाबरदार बने हुए हैं। 

हमारी चर्चा में शामिल मित्रों में से एक मित्र वामपंथी रुझान का भी था। उसने इस गर्मागर्म चर्चा को अपनी बातों से और भड़का दिया। उसने कहा कि तुम राइटविंग के लोगों की दिक्कत ये है कि अब भी तुमलोग हमसे ही स्वीकृति चाहते हो। मैं कई ऐसे उदाहरण दे सकता हूं जहां दक्षिणपंथी लेखक या सांस्कृतिक संस्थाओं के मुखिया की ये आकांक्षा रहती है कि वामपंथी खेमे से उनके लिखे को या उनके काम को स्वीकृति या मान्यता मिल जाए। मेरे दक्षिणपंथी मित्र ने हल्का सा विरोध करने जैसा कुछ कहा लेकिन उसकी बात पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। वामपंथी मित्र बोले चले जा रहा था कि जबतक लेफ्ट से मान्यता या स्वीकार की आकांक्षा की प्रवृत्ति रहेगी तबतक न तो कोई वैकल्पिक नैरेटिव खड़ा हो सकेगा और ना ही कोई वैकल्पिक इकोसिस्टम बना पाओगे। फिर मजे लेने के लिए तो उसने यहां तक कह दिया कि वामपंथी लेखकों, पत्रकारों या अकादमिक जगत के लोगों को जितना राजाश्रय मिला था उतना दक्षिणपंथी लेखकों आदि को कहां मिलता है। वामपंथी मित्र मजे भी ले रहा था, उसने पूछा कि अच्छा चलो ये बताओ कि किस राइटविंग पत्रकार को सैंतीस साल की उम्र में पद्मश्री मिला?  

उसने कहा कि काम कैसे होता है, ये मैं बताता हूं आप लोगों को, ध्यान से सुनिए और कहीं कह सकते हों तो कहिए भी। आपलोग याद करो जब मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की पराजय के बाद कमलनाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने एक आदेश से पूरे सूबे की उन समितियों आदि को भंग कर दिया जो शिक्षा, कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी थी। इसी तरह से 2004 में जब केंद्र में यूपीए सरकार आई थी तो संगीत नाटक अकादमी से सोनल मानसिंह को और सेंसर बोर्ड से अनुपम खेर को हटा दिया गया था। याद करो तब कोई हो-हल्ला मचा था क्या? कोई भी इकोसिस्टम इसी तरह से साल दर साल मजबूत किया जाता है। अपने लोगों बिठाओ और विरोधियों को हटाओ। आपके यहां क्या होता है, उन पदों को भी सरकार नहीं भर पाती है जो सालों से खाली पड़े हैं, समितियों के सदस्यों की तो बात ही अलग है। संस्कृति से जुड़े तीन मंत्रालयों में कम से कम दो दर्जन संस्थान हैं जिनके मुखिया का पद खाली है। कांग्रेस को इकोसिस्टम बनाना होता है तो वो अशोक वाजपेयी के लिए वर्धा में एक विश्वविद्यालय स्थापित कर देती है और वहां उनको कुलपति बना देती है। पांच साल तक वो दिल्ली में रहते हुए वर्धा का विश्वविद्यालय चलाते हैं। आपके यहां क्या होता है कि बहुत मेहनत से एक  भारतीय भाषा के विश्वविद्यालय की संकल्पना को मूर्त रूप देने का उद्यम किया जाता है और नया मंत्री आकर उसको खारिज कर देता है। वामपंथी मित्र बोल रहा था और आमतौर पर आक्रामक रहनेवाले मेरे अन्य मित्र खामोश थे। ऐसा लग रहा था कि वो उसकी बातों से सहमत हो रहे हों। एक मित्र जिसको सबलोग घोर राइटविंगर कहते हैं, खामोशी से सब सुन रहा था। जब वामपंथी मित्र बोलते बोलते थोड़ा रुका तो वो जोर से बोल पड़ा हां ठीक है गलती मेरी ही है कि मैं राइट विंग का समर्थक हूं। बंद करो ये सब। और वो उठकर चला गया। सभा समाप्त हो गई।