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Sunday, March 29, 2020

आपदा को अवसर में बदलते किरदार


इस वक्त पूरी दुनिया में एक तिलिस्मी वायरस कोरोना का खौफ जारी है। अपने देश में भी कोरोना की वजह से लॉकडाउन चल रहा है. आवश्यक सेवाओं को छोड़कर सबकुछ बंद कर दिया गया है। सड़कों पर सन्नाटा का साम्राज्य है लेकिन देश की जनता का मनोबल ऊंचा है। सबके मन में बस एक ही बात चल रही है कि कैसे इस वायरस को मात देनी है। कोरोना वायरस घातक है, जानलेवा है लेकिन हम भारतीयों के हौसले के आगे, हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे, हमारे संकल्प की शक्ति के आगे उसका झुकना ही होगा। हम भारतीयों की इस ताकत का, दृढ़ इच्छाशक्ति का दर्जनों फिल्मों में चित्रण हुआ है। जहां फिल्म निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के माध्यम से ऐसे चरित्रों को पेश किया है जो अपनी जिजीविषा के दम पर दर्शकों के दिलोदिमाग पर अमिट छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं.
ह्रषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ का आखिरी सीन है, जहां अस्पताल में अमिताभ बच्चन अपने दोस्त राजेश खन्ना को झकझोरते हुए कहते हैं ‘उठो आनंद उठो’ लेकिन वो तो चिरनद्रा में लीन हो चुके थे। ये चल ही रहा था कि कमरे में चल रहे टेप से एक आवाज आती है, ‘बाबू मोशाय! जिंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है जहांपनाह, जिसे न तो आप बदल सकते हैं न ही मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपरवाले की ऊंगलियों से बंधी हैं. कब कौन कैसे उठेगा कोई नहीं बता सकता है।‘ इसके बाद चंद पलों तक जोरदार ठहाका गूंजता रहता है। साउंड टेप टूटने के बाद आवाज रुक जाती है। फिर स्क्रीन पर गुब्बारा उड़ता है और बैकग्रुंड से आवाज आती है, ‘आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं।‘ हिंदी फिल्मों के इतिहास में इस फिल्म को इसके पात्र ‘आनंद’ की जिजीविषा के लिए याद किया जाएगा। राजेश खन्ना ने अपने शानदार अभिनय से ‘आनंद’ के चरित्र को जीवंत कर दिया था। ये चरित्र इतना सकारात्मक है जिसने अपने इस गुण से अपना इलाज कर रहे डॉक्टर तक की मानसिकता को बदल दिया। उसके अंदर की नकारात्मकता और निराशा को खत्म कर दिया। आनंद को पता था कि उसको कैंसर है और वो छह महीने से अधिक जिंदा नहीं रह सकेगा. बावजूद इसके वो अपनी जिंदगी को भरपूर जिंदादिली से जीता है। उसक इलाज कर रहे डॉक्टर भास्कर के मन में इस बात की निराशा होती है कि वो अपने सभी मरीजों को ठीक नहीं कर पाता है लेकिन जब वो आनंद के संपर्क में आता है तो उसमें बदलाव आता है और उसकी नकारात्मकता खत्म होने लगती है और जिंदगी को देखने का उसका नजरिया बदलने लगता है। आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं के जरिए इस फिल्म के निर्देशक ह्रषिकेश मुखर्जी समाज के एक संदेश देते हैं। इसको अगर इस तरह से व्याख्यायित करें कि आनंद (प्रसन्नता) मरा नहीं, आनंद (फिल्म का पात्र) मरते नहीं, तो संदेश साफ पकड़ में आ जाता है।
इसी तरह की अदम्य जिजीविषा वाले चरित्रों का चित्रण किया संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म ब्लैक में। इसमें एक मूक बधिक लड़की और उसका संघर्ष तो है ही उसको शिक्षित करनेवाले शिक्षक का जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण भी है। इस फिल्म में बहुत छोटी बच्ची मूक बधिर बच्ची को जीवन का रंग सिखाने में लगे हैं। अमिताभ बच्चन ने जिस शिक्षक देवराज की भूमिका निभाई है वो खुद उम्रदराज और सनकी है । लेकिन तमाम अपमान सहते हुए भी एक दृष्टि बाधित लड़की को पढ़ाने का संकल्प लेता है, उसको पूरा भी करता है। जो लड़की बेहद आक्रामक थी वो भी इस अपने शिक्षक की प्रेरणा से सीखना शुरू करती है। लंभ संघर्ष के बाद मिशेल नाम की लड़की को स्नातक में दाखिला भी मिल गया। तमाम झंझावातों को झेलते हुए करीब बारह साल बाद वो बीए पास करती है। अपने अबिनय के गांभीर्य की वजह से रानी मुखर्जी ने दृष्टिबाधित लड़की के चरित्र को नई ऊंचाई दी है, उसके संघर्ष को यथार्थ के बेहद करीब ले गई। उधर अमिताभ बच्चन बढ़ती उम्र की वजह से अल्जाइमर की गिरफ्त में आ जाते हैं लेकिन कहते हैं न कि मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए। इस फिल्म के अंत में भी आखिरी सीन में नेपथ्य से संवाद चलता है जिसमें रानी मुखर्जी कहती है, वो दुनिया का सबसे महान टीचर है, जिसने आज फिर से साबित कर दिया कि दुनिया में नामुमकिन कुछ भी नहीं, जिसने फिर से मुझे सिखाया कि दूसरों के लिए जीने को ही जीना कहते हैं। यहां भी फिल्म निर्देशक ने इस संवाद के जरिए पूरे समाज को एक संदेश दिया है और फिल्म के माध्यम से ये बताया है कि अंधेरा चाहे कितना भी घना हो लेकिन उम्मीद की किरण जलाकर उस अंधेरे को उजाले में बदला जा सकता है।
आज जब कोरोना की दहशत में लोग घरों के अंदर रहने को मजबूर हैं वैसे ही प्लेग की वजह से लोग पलायन को मजबूर हो गए थे। उसकी ही पृष्ठभूमि पर 1966 में एक फिल्म बनी थी ‘फूल और पत्थर’। इस फिल्म में बीमार शांति, जिसके किरदार को मीना कुमारी को ने निभाया है, के घरवाले अकेले छोड़कर चले जाते हैं। शाका, जिसकी भूमिका धर्मेन्द्र ने निभाई है, जो एक अपराधी की भूमिका में हैं जो उसी घर में घुसते हैं जहां के लोग बीमार शांति को मरने के लिए छोड़कर चले जाते हैं। फिल्म की कहानी कई मोड़ लेती है लेकिन अपराधी की भूमिका निभा रहे धर्मेन्द्र ने सबकुछ छोड़कर बीमार शांति की सेवा की और वो स्वस्थ हो गईं। फिर फिल्म में शांति के घर-परिवार का विरोध, समाज का विरोध आदि आदि है लेकिन इस फिल्म के माध्यम से निर्देशक ओ पी रल्हन ने साफ तौर पर ये संकेत दिया है मदद करनेवाला कोई भी हो सकता है। जान बचाने के लिए कोई भी आ सकता है। साथ ही ये संदेश भी है कि जीवन जीने की इच्छाशक्ति सबसे बड़ी दवाई है। इस संदेश को रल्हन ने शांति के चरित्र के माध्यम से रेखांकित किया है।
एक और फिल्म 1982 में बनी थी जिसे सुनील दत्त ने निर्देशित किया था, ‘दर्द का रिश्ता’। अगर हम इस फिल्म को ऊपरी तौर पर देखें तो इसमें कई इत्तफाक दिखाई देते हैं जो दर्शकों को चौंकाते हैं लेकिन ये फिल्म कैंसर जैसी बीमारी से लोहा लेने की और उसको मात देने की कहानी कहती है। सुनील दत्त, स्मिता पाटिल, रीना रॉय और खुशबू ने इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय किया है। इसमें ग्यारह साल की बच्ची अपनी जन्म के साथ ही अपनी मां को खोती है, फिर ग्रह साल की उम्र में कैंसर दबोच लेता है. अपने डॉक्टर पिता के साथ भारत से लेकर अमेरिका तक के अस्पतालों में वो इस बीमारी से जूझती है। अपनी सकारात्मकता और खुशमिजाजी से सफलतापूर्वक मुकाबला करती है। कहने का अर्त ये है कि हिंदी फिल्मों में कई ऐसे किरदार गढ़े गए जिन्होंने विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला किया। इनमें से कई चरित्र तो यथार्थ के बिल्कुल करीब हैं या फिर सत्य घटनाओं पर आधारित या उनसे प्रेरित हैं। जब भी इस तरह की फिल्में बनीं तो दर्शकों ने उसको खूब पसंद किया। धर्मेन्द्र-मीना कुमारी की फिल्म फूल और पत्थर कई सप्ताह तक सिनेमाघरों में चलती रही थीं, इसी तरह से ब्लैक ने तो पूरी दुनिया में ही धूम मचा दी थी। ‘आनंद’ और ‘दर्द का रिश्ता’ ने भी सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। कहना न होगा कि दृढ्ता और संकल्पशक्ति के साथ ना केवल आप निजी जिंदगी में सफल हो सकते हैं बल्कि आपदा को भी अवसर में बदल सकते हैं।   

Saturday, March 28, 2020

मीना कुमारी और अकेलेपन का दंश


इस वक्त पूरे देश में लॉकडाउन चल रहा है। ये लॉकडाउन कोरोना वायरस की वजह से किया गया है ताकि इसके फैलाव को रोका जा सके। सरकार के इस फैसले के बाद लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे हैं। सारा देश कोरोना को रोकने के आह्वान की वजह से लगभग ठप है। लगभग इस वजह से कह रहा हूं कि आवश्यक सेवाएं जारी हैं। बड़े-बुजुर्ग, महिलाएं-पुरुष, बच्चे-किशोर सभी घरों में ही रह हैं। वो बाहर बिकुल नहीं निकल रहे हैं। महानगरों में जहां फ्लैट की संस्कृति है, जहां संयुक्त परिवारों का चलन लगभग नहीं है, वहां लोग अकेले अपने घरों में रह रहे हैं। शहरों के अलावा कस्बों और गांवों में भी ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या है जो अपने घरों में अकेले रहकर कोरोना के इस संकट को मात देने में लगे हैं। इसके लिए धैर्य और संकल्प की जरूरत है। अपने घरों में इक्कीस दिनों तक अकेले रहना बेहद मुश्किल है। जो लोग वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं उनको तो बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं हो रही है लेकिन जो लोग कारोबारी हैं, जिनका अपना काम है, जो छात्र हैं ऐसे लोगों को घर में बहुत अधिक काम नहीं है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि कई बार अकेलापन लोगों को अवसाद की ओर भी ले जाता है।
हिंदी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी की आगामी 31 मार्च को पुण्यतिथि है। इस माहौल में उनकी जिंदगी की कहानी याद आती है कि किस तरह से अकेलापन एक बिंदास शख्सियत को अवसाद की ओर ले कर चला गया था। उनतालीस साल की अपनी छोटी सी उम्र में जब-जब मीना कुमारी ने अपना अकेलापन दूर करने की कोशिश की वो जिंदगी के तमाम रंगों को अपने व्यक्तित्व में उतारने में सफल रहीं। अपनी निजी जिंदगी में भी और अपने प्रोफेशन में भी। जब-जब अकेलापन उनपर भारी पड़ा तब-तब वो अवसाद में गईं और उनका और पूरे कलाजगत का नुकसान हुआ।
इस संदर्भ में मशहूर अभिनेत्री नर्गिस ने एक प्रसंग लिखा है, राजेश खन्ना और मीना कुमारी अभिनीत फिल्म दुश्मन की शूटिंग खत्म हो चुकी थी। उसकी एडिटिंग शुरू हो चुकी थी। इस फिल्म की डबिंग का काम नरगिस के घर पर स्थित छोटे से थिएटर में शुरू हो चुका था। एक दिन फिल्म की डबिंग के लिए मीना कुमारी वहां पहुंची। उन्हें पता था कि ये थिएटर नर्गिस के घर में ही है। उन्होंने किसी से कहा कि जाओ देखकर आओ नर्गिस है कि नहीं। जब उनको पता चला कि नर्गिस घर पर हैं तो उन्होंने अपने स्टॉफ को नर्गिस के पास इस अनुरोध के साथ भेजा कि वो उनसे मिलना चाहती हैं। नर्गिस किसी काम में व्यस्त थीं लेकिन मीना कुमारी के अनुरोध को वो ठुकरा नहीं सकती थीं क्योंकि दोनों में काफी दोस्ती हो चुकी थी। मीना कुमारी को नर्गिस मंजू कहती थीं और वो नर्गिस को बाजी के नाम से बुलाती थी। दोनों के बीच की दोस्ती फिल्म मैं चुप रहूंगी की शूटिंग के दौरान अंतरंगता में बदल गई थी। जब इस फिल्म की शूटिंग चेन्नई में चल रही थी तो उसका शेड्यूल काफी लंबा हो गया था। सुनील दत्त साहब ने नर्गिस को फोन कर अपने दोनों बच्चों संजय और नम्रता के साथ वहां बुला लिया था। तब संजय दत्त ढाई साल के थे और नम्रता दो महीने की थी। ये सभी लोग जब चेन्नई पहुंचे तो वहां होटल ओसनिक में रुके थे। उनके कमरे के बगल के कमरे में ही मीना कुमारी भी रह रही थीं। वहीं दोनों की दोस्ती परवान चढ़ी थी। एक दिन शाम को सुनील दत्त ने चाइनीज खाने का प्रोग्राम बनाया तो नर्गिस ने मीना कुमारी को भी साथ चलने का निमंत्रण दिया। मीना कुमारी उस दिन शूटिंग करते हुए बहुत थक गई थी इसलिए उसने साथ जाने में असमर्थता जताई। लेकिन मीना कुमारी ने नर्गिस के सामने एक प्रस्ताव रखा कि वो उनके दोनों बच्चों को अपने साथ रख लेंगी ताकि वो और दत्त साहब अकेले डिनर पर जा सकें। नर्गिस और सुनील दत्त को मीना कुमार का ये प्रस्ताव भाया और वो दोनों बच्चों को उनके पास छोड़कर चाइनीज खाने का आनंद लेने चले गए। जब वो लौटकर आए तो दोनों बच्चे मीना कुमारी से चिपटकर सो रहे थे। नर्गिस ने लिखा कि उस वक्त मीना कुमारी के चेहरे पर सुखद संतुष्टि का भाव था और उसका एक हाथ संज और एक हाथ नम्रता के ऊपर था
हम बात कर रहे थे दुश्मन फिल्म की डबिंग के दौरान मीना कुमारी का नर्गिस को अपने पास बुलाने की। नर्गिस जब वहां पहुंची तो मीना कुमारी ने वहां मौजूद सभी कर्मचरियों से अनुरोध किया कि वो ग थोड़ी देर के लिए कहीं चले जाएं, दोनों अकेले में कुछ बातें करना चाहते हैं। जैसे ही लोग वहां से निकले तो मीना कुमारी ने अपना सर नर्गिस के कंधे पर रख दिया और सुबकने लगी। अचानक मीना कुमारी के इस बर्ताव से नर्गिस हतप्रभ रह गईं। मीना कुमारी लगातार रोए जा रही थीं और नर्गिस उनके पीठ पर हाथ फेरते हुए उनको सांत्वना दे रही थी। रोते-रोते मीना कुमारी ने नर्गिस से कहा बाजी, मैं कितनी अभागन हूं कि कोई भी मुझे प्यार नहीं करता, आप भी नहीं। आप भी मुझसे महीनों नहीं मिलती हैं, कोई मुझसे बात नहीं करता, मैं किसको अपने मन की बात कहूं। इतना सुनते ही नर्गिस भी भावुक हो गईं और उन्होंने मीना कुमारी को बच्चों की तरह अपने सीने से लगा लिया और समझाना शुरू कर दिया। नर्गिस के भरोसे के बाद मीना कुमारी बेहद खुश दिखीं और उन्होंने नर्गिस से वादा लिया कि वो पाकीजा के प्रीमियर पर जरूर आएंगी। इस पूरे प्रसंग को बताने का मकसद इतना है कि मीना कुमारी के अवसाद में जाने की वजह उनका अकेलापन था। वो इस बात को लेकर खुद को अभागन तक मानने लगी थीं कि कोई न तो उनसे बात करता है न ही उनकी बात सुनता है। अकेलापन को लेकर लोगों में मतैक्य नहीं है। कई लोग इसको रचनात्मकता बढ़ानेवाला मानते हं तो कई इसको अवसाद का रास्ता। पर ज्यादातर केस में देखा गया है कि अकेलापन लोगों को अवसादग्रस्त करता है। ग्रेट ब्रिटेन के ब्रिटिश रॉयल कॉलेज ऑफ जनरल प्रैक्टिशनर्स के मुताबिक अकेलापन एक गंभीर बीमारी है. पूरी दुनिया में डायबिटीज से जितनी मौत होती है उतनी ही मौत अकेलेपन के शिकार लोगों की होती है।
अगर हम मीना कुमारी के जिंदगी को ही देखें तो एक इतनी कामयाब अभिनेत्री जिसने बैजू बावरा से लेकर पाकीजा जैसी बेहतरीन फिल्में की। अभिनय की जिन ऊंचाइयों को उन्होने अपनी निभाई भूमिकाओं में छुआ उसने उनको कला के शिखर तक पहुंचा दिया था। मीना कुमारी जब भी तन्हा होती थी तो उनकी व्यक्तिगत जिंदगी उनको परेशान करती थीं। जब भी उनकी जिंदगी में तन्हाई दूर होती थी तो उनकी जिंदगी सतरंगी हो जाती थी। आज जब सभी लोगो कोरोना वायरस से बचने के लिए अपने घरों में बंद हैं तो इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि आप अकेलापन के शिकार न हों। शारीरिक दूरी इस भयंकर बीमारी को रोकने के लिए जरूरी है लेकिन अपनी सामाजिकता को बाधित न होने दें। फोन, इंटरनेट और अन्य आभासी माध्यम से अपने संपर्कों को जीवंत रखें। दोस्तों से अपने मन की बात कहें और दोस्तों के मन की बात सुनें। मीना कुमारी जब भी किसी वजह से परेशान होकर घर बैठ जाती थीं तो वो अकेलेपन का शिकार हो जाती थीं क्योंकि वो खुद को घर में सबसे दूर कर लेती थीं। लेकिन जब-जब को किसी रिलेशनशिप में रहीं या किसी काम में व्यस्त रहीं तो उनकी जिंदगी बेहतरीन हो जाती थीं। जब वो अपनी व्यक्तिगत जिंदगी के संघर्षों से बाहर निकलकर पाकीजा फिल्म करने के लिए वापस तैयार हुईं तो भी वो इस अकेलेपन से मुक्त हो गईं, उनके जीवन का खालीपन भर गया। लेकिन फिल्म पाकीजा के रिलीज होने के बाद वो फिर से अकेलेपन की गिरफ्त में चली गईं। नाम, इज्जत शोहरत, काबिलियत, रुपया-पैसा हासिल करने के बाद कई बार लोगों को लगता है कि उन्होंने अपनी जिंदगी के सभी लक्ष्य हासिल कर लिया है। सारी भौतिक सुख सुविधाएं हासिल कर लेने के बाद भी जिंदगी पूर्ण नहीं होती। मीना कुमारी की जिंदगी इस बात का उदाहरण है कि तमाम चीजें हासिल करने के बाद भी इंसान अगर अकेला है तो वो उसकी जिंदगी अधूरी है। आप भी अपने जीवन में अकेलेपन को आने न दें।

Saturday, March 21, 2020

यथास्थितिवाद के चक्रव्यूह में संस्कृति


जब आम बजट की तैयारी हो रही थी तो उस वक्त एक महत्वपूर्ण घटना घटी थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यालय में देश के बड़े उद्योगपतियों के साथ बैठक की थी और उनके विचार जाने थे। जिस दिन प्रधानमंत्री इन बड़े उद्योगपतियों के साथ बैठक कर रहे थे उसी दिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमरण एक दूसरी बैठक में थीं। वो भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में थिंक टैंक के प्रतिनिधियों, भारतीय जनता पार्टी की पत्रिका कमल संदेश के संपादकीय विभाग से जुड़े लोगों और शिक्षा संस्कृति के क्षेत्र में काम करनेवालों के साथ बैठक कर रही थीं। उस दिन सोशल मीडिया पर दोनों बैठकों की फोटो लगाकर कई लोगों ने तंज भी कसा था। यहां तक कहा गया कि बजट को लेकर महत्वपूर्ण चर्चा से वित्त मंत्री को बाहर रखा गया। जब बजट पेश किया गया तो इसका असर दिखा। वित्त मंत्री निर्मला सीतामरण ने जो बजट पेश किया उसमें शिक्षा और संस्कृति पर खासा ध्यान दिया गया। शिक्षा के बजट में पांच फीसदी की बढ़ोतरी की गई। संस्कृति मंत्रालय को 2018-19 की तुलना में करीब 200 करोड़ रुपए अधिक आवंटित किए गए। इसका मतलब है कि शीर्ष स्तर पर संस्कृति को लेकर एक सोच है। इस बजट में ही इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज एंड कन्जरवेशन बनाने की घोषणा भी की गई। घोषणाएं भी हुई और बजट में अधिक धन भी मिला लेकिन संस्कृति को लेकर क्या हालात है इसपर विचार करने की आवश्यकता है।
इस स्तंभ में संस्कृति को लेकर कई बार चर्चा भी की जा चुकी है और इस बात पर भी विस्तार से लिखा जा चुका है कि संस्कृति से जुड़े कई संस्थानों में अहम पद खाली हैं। खाली पदों की संख्या बढ़ती जा रही है, नियुक्तियों में देरी हो रही हैं या नियुक्ति हो नहीं रही है। दरअसल जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो हमें सिर्फ संस्कृति मंत्रालय मात्र को ही नहीं देखना चाहिए। इसमें कई मंत्रालय आते हैं जिसको लेकर संस्कृति का वृत्त पूरा होता है। इन सबके सामूहिक प्रयत्नों से ही संस्कृति को मजबूती मिल सकती है या एक नई संस्कृति का विकास हो सकता है। इसमें प्रमुख रूप से संस्कृति मंत्रालय के अलावा सूचना प्रसारण मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और विदेश मंत्रालय आते हैं। संस्कृति मंत्रालय और उससे संबद्ध संस्थाओं में खाली पड़े पदों की चर्चा कई बार हो चुकी है। उसमें संगीत नाटक अकादमी का अध्यक्ष पद और जुड़ गया है क्योंकि शेखर सेन का कार्यकाल खत्म हो गया और नई नियुक्ति हुई नहीं।
इस बार हम सूचना और प्रसारण मंत्रालय पर नजर डालते हैं जिसके अंतर्गत संस्कृति का एक बेहद अहम हिस्सा फिल्म और उससे जुड़ी कलात्मक दुनिया आती है। फिल्म से जुड़ी कई संस्थाएं इस मंत्रालय के अंतर्गत आती हैं जो देश में फिल्म संस्कृति के विकास और उसको मजबूत करने में अहम भूमिका निभाती हैं। सबसे पहले हम बात करते हैं फिल्म समारोह निदेशालय की। इस निदेशालय की स्थापना 1973 में की गई थी। भारतीय फिल्मों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई थी। इसको ही फिल्मों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार देने की जिम्मेदारी भी दी गई थी जिसके अंतर्गत निदेशालय हर वर्ष अलग अलग श्रेणियों में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार देते हैं। इसके अलावा इस संस्था के पास अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के आयोजन का जिम्मा भी है। कई अन्य काम करना भी इसके उद्देश्यों मे शामिल है। अब जरा इस संस्था पर गौर करते हैं। 11 अप्रैल 2018 को सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसके निदेशक सी सेंथिल राजन को वापस उनके कैडर में भेज दिया था और उनकी जगह दूरदर्शन में अतिरिक्त महानिदेशक चैतन्य प्रसाद को इस पद का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया था। करीब दो साल बीतने को आए लेकिन अबतक ये संस्था पूर्णकालिक अध्यक्ष की बाट जोह रहा है। चैतन्य प्रसाद दूरदर्शन और मंत्रालय के अपने दायित्व के अलावा इस काम को भी देख रहे हैं। जब कोई भी व्यक्ति किसी काम को अतिरिक्त रूप से संभालता है तो जाहिर सी बात है कि वो अपनी प्रथामिक जिम्मेदारी के बाद बचे हुए समय में ही अतिरिक्त जिम्मेदारी का निर्वाह कर पाता है।
पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान लगी आचार संहिता की वजह से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह का आयोजन टला था। इस पुरस्कार को हर वर्ष तीन मई को दिए जाने की परंपरा रही है। ये परंपरा असाधारण परिस्थियों में ही कभी टूटी होगी। पर पिछले वर्ष ये परंपरा टूटी। जो पुरस्कार तीन मई को दिए जाने थे उसकी घोषणा ही अगस्त में हुई जबकि चुनाव नतीजे 23 मई को आ गए थे। पुरस्कार दिसंबर में प्रदान किए जा सके। इस वर्ष भी अबतक पुरस्कारों के लिए जूरी की बैठक शुरू नहीं हो सकी है। पहले ये बैठक 5 मार्च से होने की बात सामने आई थी जूरी बनने में देरी होने की वजह से इसको 15 मार्च तक के लिए टाल दिया गया। अब तो कोरोना की वजह अनिश्चितकाल के लिए टल गया है। इसके अलावा फिल्म समारोह निदेशालय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करता है जिसके लिए पिछले दो साल से कोई फेस्टिवल डायरेक्टर नहीं है। दो साल पहले सुनीत टंडन फेस्टिवल डायरेक्टर थे।
फिल्म समारोह निदेशालय के अलावा सूचना और प्रसारण मंत्रालय से संबद्ध फिल्म की अन्य संस्थाओं की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के चेयरमैन नहीं हैं, प्रबंध निदेशक भी नहीं हैं। चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी इंडिया में भी चेयरमैन का पद खाली है। भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान पुणे को जो सोसाइटी चलाती है उसमें भी कई सदस्य नहीं हैं। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सीईओ का पद भी लंबे समय से रिक्त है। ये सूची हो सकता है और लंबी हो। ये सब संस्थान ऐसे हैं जो किसी भी देश में फिल्म संस्कृति के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकते हैं। और तो और प्रसार भारती में भी इस वक्त को कोई चेयरमैन नहीं है और इसके पांच बोर्ड सदस्यों का पद भी खाली हैं। फिल्मों से इतर एक और संस्था भारतीय जन संचार संस्थान, जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आता है, में भी डायरेक्टर जनरल का पद खाली है। लंबे समय से चयन की प्रक्रिया चल रही है लेकिन अबतक नतीजा सामने नहीं आया है।
ये सब वही संस्थाएं हैं जिसको वामपंथियों ने अपने और अपनी विचारधारा को मजबूत करने और उसका दायरा बढ़ाने में उपयोग किया। इमरजेंसी में समर्थन के एवज में इंदिरा गांधी ने वामपंथियों को इन संस्थाओं को आउटसोर्स कर दिया था। उसके बाद से ही वामपंथियों ने इनको अपनी विचारधार को बढ़ाने के औजार के तौर पर उपयोग करना शुरू कर दिया। इसका फल भी उनको मिला। 2014 में जब केंद्र में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी तो वामपंथियों को ये आशंका सताने लगी थी कि इन संस्थाओं से उनका कब्जा खत्म हो सकता है। हलांकि ऐसा हुआ नहीं। लेकिन सवाल ये उठता है कि संस्कृति के लिए अहम इन संस्थाओं को लेकर केंद्र सरकार उदासीन क्यों हैं। बहुत संभव है कि अफसरशाही इस काम को होने नहीं देना चाहती है। अगर इन संस्थाओं में पूर्णकालिक चेयरमैन, निदेशक या अन्य पदों पर भर्तियां हो जाएंगीं तो अफसरों का दबदबा खत्म हो जाएगा। अफसरशाही तो हमेशा से चाहती है कि यथास्थितिवाद बना रहे और अगर उनके यथास्थितिवाद के मंसूबों को संरक्षण मिलता है तो फिर वो यथास्थितिवाद के देवता बन जाते हैं। नरेन्द्र मोदी की जब सरकार आई तो उसके बाद जिस तरह के फैसले होने लगे थे तो उनको डिसरप्टर कहा गया था। डिसरप्टर मैनेजमेंट में उपयोग होनेवाला एक ऐसा सकारात्मक शब्द है जिसका उपयोग उसके लिए किया जाता है जो यथास्थितिवाद को चुनौती देता है। डिसरप्टर कोई व्यक्ति भी हो सकता है, कोई संस्था हो सकती है या कोई नई शुरुआत भी हो सकती है। हैरानी तब होती है जब राजनीतिक डिसरप्टर की अगुवाई में ही कुछ मंत्रालयों में यथास्थितिवाद जड़ जमाकर बैठा है। क्या इन संस्थाओं में नियमित अध्यक्ष, निदेशक, प्रबंध निदेशक आदि की नियुक्ति रोकने के पीछे कोई संगठित मंशा है। क्या वामपंथ की ओर झुकाव रखनेवाले अफसर इस काम को येन-केन-प्रकारेण रोक रहे हैं। इस बात पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए प्रशासनिक स्तर भी और राजनीतिक स्तर पर भी क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से भले ही फिल्म और उससे जुड़ी बातें राजनीति को प्रभावित नहीं करती हों लेकिन परोक्ष रूप से वो राजनीति को भी और समाज को भी प्रभावित करती हैं।       

Saturday, March 14, 2020

फूहड़ संवाद और दृश्यों की फिल्म ‘गिल्टी’


ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध सामग्री को लेकर लंबे समय से विमर्श हो रहा है। इंटरनेट के फैलते दायरे को देखते हुए इसपर विमर्श कभी तेज होता है तो कभी वो नेपथ्य में चला जाता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय भी इस प्लेटफॉर्म पर पेश किए जानेवाले वेब सीरीज और फिल्मों की कथावस्तु से लेकर उसके संवादों और दृश्यों को लेकर नजर बनाए हुए है। मंत्रालय की पहल पर कई दौर की बातचीत भी हो चुकी है। लेकिन अबतक ये बातचीत के स्तर पर ही है। कोई ठोस फैसला नहीं लिया जा सका है। इस बीच इन प्लेटफॉर्म पर वेब सीरीज के अलावा फिल्में भी आ रही हैं। अभी एक फिल्म आई है नेटफ्लिक्स पर जिसका नाम है गिल्टी। इस फिल्म को करण जौहर की कंपनी धर्माटिक इंटरटेनमेंट ने पेश किया है। पिछले साल सितंबर में करण जौहर की कंपनी और नेटफ्लिक्स के बीच करार हुआ था। ये कंपनी नेटफ्लिक्स के लिए फिल्मों और वेब सीरीज का निर्माण कर रही है। गिल्टी फिल्म के प्रोड्यूसर करण जौहर हैं। इस महीने के शुरुआत में ये फिल्म नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध हुई। करण जौहर का नाम जुड़ा होने की वजह से इस फिल्म को पर्याप्त प्रचार मिला, दर्शकों के बीच एक उत्सकुकता का माहौल भी बना। करण जौहर पारिवारिक और रोमांटिक फिल्मों के निर्माता के तौर पर जाने जाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि वो बहुत हद तक साफ सुथरी फिल्में भी बनाते हैं। इस वजह से भी लोगों में एक उत्सुकता थी कि करण की कंपनी जब फिल्म बना रही है तो वो बेहतर फिल्म होगी। इस फिल्म का निर्देशन रुचि नारायण ने किया है जो इसके पहले कल, यस्टरडे एंड टुमारो नाम की फिल्म का निर्देशन कर चुकी हैं। हलांकि ये फिल्म कुछ खास अच्छा नहीं कर पाई थी। उनके निर्देशन में ये दूसरी फिल्म है।
हम फिल्म गिल्टी की समीक्षा नहीं कर रहे बल्कि इस फिल्म के माध्यम से उस प्रवृत्ति या ट्रेंड की तरफ इशारा करना चाह रहे हैं जिसने वेब सीरीज या ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर चलने वाले कंटेंट को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। ओटीटी पर पेश किए जानेवाले कंटेंट को लेकर किसी तरह का कोई नियमन नहीं है। वहां निर्माता-निर्देशकों को खुलकर कुछ भी दिखाने की छूट है और ये प्लेटफॉर्म इस छूट का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। किसी भी तरह का नियमन नहीं होने की वजह से भरपूर यौनिक दृश्य, जुगुप्साजनक और लंबे यौनिक संवाद, अश्लीलता की सीमा पार करनेवाली गालियां आम बात हो गई है। इसके अलावा इन वेब सीरीज के माध्यम से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विचारधारा को आगे बढ़ाने की कोशिश भी कई बार होती है,धर्म को बदनाम करने की कोशिश भी। कुछ वेब सीरीज में तो भारतीय सेना का भी आपत्तिजनक तरीके से चित्रण किया गया है। इस बारे में इस स्तंभ में समय-समय पर लिखा भी गया है। पहले के वेब सीरीज की सामग्रियों को छोड़ भी दें तो अब भी जो पेश किया जा रहा है उसपर भी यथास्थितिवादियों का ध्यान नहीं जा रहा है।
हम गिल्टी फिल्म की ही बात करें तो इसमें जिस तरह के दृश्य और संवाद हैं उसपर बहुत ही संजीदगी से ध्यान देने की जरूरत है। इस फिल्म की कहानी मी टू के इर्द गिर्द घूमती है। कॉलेज के छात्रों के बीच एक छात्रा का रेप होता है और फिर सोशल मीडिया और मीडिया पर उठे बवंडर के मध्य कहानी चलती है। कियारा आडवाणी ने बेहतरीन अभिनय करते हुए पात्र को जीवंत कर दिया है। लेकिन एक तरफ वो लड़की बेहतरीन कविताएं लिखती है, फैज अहमद की शायरी सुनती है लेकिन संवाद इतने घटिया हैं कि वो उस जीवंतता पर ग्रहण लगा देते हैं। छात्रों की आपसी बातचीत में इतनी गालियां और घटिया और अश्लील शब्द आते हैं जो निर्देशक या संवाद लेखकों की कुंठा को ही प्रदर्शित करते हैं। संवाद में जितनी गालियां आती हैं वो बिल्कुल ही ठूंसे हुए लगते हैं। यौनिक दृश्यों की बहुतायत भी कॉलेज छात्रों को अपमानित करने जैसा है। क्या ऐसी फिल्में या सीरीज बनानेवाले ये मानते हैं कि देश के युवाओं की भाषा इतनी घटिया है। फिल्म को यथार्थ के करीब ले जाने की कोशिश में निर्देशक इसको यथार्थ से बहुत दूर ले जाती है। इस पूरी फिल्म को देखने के बाद यही लगता है कि फिल्मकारों को छात्र जीवन के बारे में जानकारी नहीं है या किसी तीसरी दुनिया के छात्रों के बारे में बात हो रही है। कम से कम भारतीय समाज में अभी छात्र इतने घटिया स्तर पर संवाद नहीं करते हैं। एक बेहतरीन फिल्म को,कियारा के बेहतरीन अभिनय को संवाद के घटियापन ने सतही और फूहड़ बना कर रख दिया। भारत अभी भी भारत है, इसकी अपनी एक संस्कृति है।   
दरअसल भारत में बनने वाले वेब सीरीज या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर चलनेवाली फिल्मों को लेकर एक अजीब सी धारणा विकसित होती जा रही है। मानसिक रूप से विपन्न एक निर्माता और निर्देशक ने जिस तरह की शुरुआत की थी वो एक ट्रेंड के तौर पर विकसित हो रहा है। मानसिक रूप से विपन्न और कुंठित उस निर्देशक ने अपने एक वेब सीरीज में मुंबई की दुनिया दिखाने के चक्कर में जिस तरह की भाषा और दृश्य का उपयोग वेब सीरीज में किया था, वो उनके अपने जीवन का प्रतिबंब हो सकता है, समाज का तो कतई नहीं है।ये मानसिक विपन्नता और कुंठा उनकी सार्वजनिक टिप्पणियों में बहुधा दिखती भी है। वेब सीरीज के निर्माताओं को लगता है कि गालियों के बगैर दर्शक नहीं मिलेंगे। यहीं पर सरकार की भूमिका स्पष्ट होनी चाहिए। कुछ लोगों के तर्क हैं कि ओटीटी पर दिखाए जानेवाले इस तरह के कंटेंट में छोटा सा लिखा होता है कि ये अठारह साल से अधिक उम्र के लोगों के देखने के लिए है। लेकिन क्या ये लिख भर देने से किसी माध्यम को अश्लील दृश्य या बर्बरता पूर्ण हिंसा दिखाने की अनुमति मिल जाती है। क्या कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर युवा पीढ़ी के सामने अश्लीलता परोसने की इजात दी जा सकती है। कलात्मक अभिव्यक्ति की भी एक सीमा तो तय करनी चाहिए।
इसके अलावा एक तर्क और दिया जाता है कि इन प्लटफॉर्म पर वही जा सकते हैं जो जाना चाहते हैं। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाणित फिल्में दर्शक सामूहिक रूप से देखते हैं लेकिन ओटीटी पर निजी तौर पर देखते हैं। ये तर्क बचकाना है। लाख आधुनिकता के दावे किए जाएं लेकिन यहां के लोग अब भी पारिवारिक संस्कार या सामाजिक मर्यादा के बंधन में बंधे हैं। ये अमेरिका नहीं है कि जहां लोक-लाज के लिए कोई जगह नहीं है। दरअसल ये ऑनलाइन बाजार पर कब्जा और उससे मुनाफा कमाने की होड़ है। पिछले दिनों कई रिपोर्ट आईं जो यह बताती हैं कि भारत में इंटरनेट का फैलाव बहुत तेज गति से हो रहा है और इंटरनेट पर वीडियो देखनेवालों की संख्या में इजाफा हो रहा है। लोग देर तक इंटरनेट पर वीडियो देखने लगे हैं। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पिछले दो साल में वीडियो कंटेंट देखने के समय में दोगुने से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। दो साल पहले उपभोक्ता दिनभर में ग्यारह मिनट वीडियो देखता था जो अब बढ़कर चौबीस मिनट हो गया है। जैसे जैसे स्मार्ट फोन के उपभोक्ता बढ़ेंगे वैसे वैसे ये समय और बढ़ेगा। एक और अंतराष्ट्रीय रिपोर्ट ये कहती है कि हमारे देश में अभी प्रति उपभोक्ता औसत करीब 10 जीबी डेटा की खपत है जिसके 2024 तक अठारह जीबी प्रतिमाह प्रति उपभोक्ता होने का अनुमान है। इस तरह से हम देखें तो ये एक बड़े बाजार का आकार ले रहा है। यहां पेश किए जानेवाले वीडियो कटेंट की व्याप्ति बहुत अधिक होनेवाली है। जाहिर सी बात है कि व्याप्ति का सीधा संबंध मुनाफे से है।
अब वक्त आ गया है कि सरकार इस बारे में शीघ्र कोई फैसला ले। स्वनियम की बात लंबे समय से चल रही है। इसके लिए एक ड्राफ्ट भी तैयार किया जा चुका है लेकिन कई प्लेटफॉर्म इसको मानने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसी खबरें आई हैं कि सूचना और प्रसारण मंत्री ने इन प्लेटफॉर्म्स को सौ दिन का समय दिया है ताकि वो किसी प्रकार के नियमन के बारे में अंतिम निर्णय पर पहुंच सकें। लेकिन उससे भी बड़ा सवाल है कि क्या मुनाफा कमाने के लिए कलात्मक अभिव्यक्ति की आड़ को सरकार स्वीकार करेगी। स्वनियमन को एक प्रयोग के तौर पर देखा जा सकता है लेकिन जिस तरह का ट्रेंड है उसमें ओटीटी कंटेंट के प्रमाणन की व्यवस्था बनाने की दिशा में ही सरकार को सोचना होगा। आज नहीं तो कल।

Friday, March 13, 2020

असमय चला गया प्रतिभाशाली कथाकार

हिंदी के प्रतिभाशाली लेखक, कहानीकार और संपादक प्रेम भारद्वाज ने बहुत ही कम उम्र में दुनिया छोड़ दी। हिंदी साहित्य में जब राजेन्द्र यादव के संपादन में साहित्यिक पत्रिका हंस अपनी कहानियों और पत्रिका में उठाए गए विवादों की वजह से चर्चा बटोर रहा था तब प्रेम भारद्वाज ने पाखी के संपादन का बीड़ा उठाया था। अपने संपादकीय कौशल की वजह से प्रेम भारद्वाज ने पाखी को हिंदी साहित्य की एक ऐसी पत्रिका के रूप में स्थापित किया जो हंस को चुनौती देने लगा था। राजधानी के साहित्य जगत में बहुधा इस बात की चर्चा होती थी साहित्य में अब नोएडा और दरियागंज के बीच मुकाबला है। हंस का प्रकाशन दरियागंज से होता था जबकि पाखी नोएडा से निकलती है। प्रेम भारद्वाज भी अपने संपादकीयों में अक्सर विवाद उठाने की कोशिश करते थे लेकिन वो राजेन्द्र यादव की तरह खुलकर नहीं खेलते थे। वो परोक्ष रूप से अपनी बात कहते थे। प्रेम भारद्वाज आज से करीब बीस-बाइस साल पहले पटना से दिल्ली आए थे। पाखी में उन्होंने लंबे समय तक काम किया। साहित्यिक पत्रिका में संसाधनों की कमी की बात हमेशा सामने आती है लेकिन बावजूद इसके प्रेम भारद्वाज ने पाखी की स्तरीयता को कभी कम नहीं होने दिया। पाखी में उन्होंने नए लेखकों को जोड़ा।
मुझे याद पड़ता है कि पिछले वर्ष के विश्व पुस्तक मेला में प्रेम भारद्वाज की मांग सबसे अधिक थी। हमलोग मजाक में कहते भी थे कि वो घंटे के हिसाब से कार्यक्रमों में उपस्थित हो रहे हैं। लगातार किताबों पर होनेवाले कार्यक्रमों का संचालन करना या फिर नई किताबों पर बोलना यह साबित करता था कि प्रेम भारद्वाज के अध्ययन का दायरा बहुत विस्तृत था। कुछ सालों पहले उनकी पत्नी का निधन हो गया। फिर अप्रिय परिस्थियों में उनको पाखी छोड़ना पड़ा था जिसके बाद उन्होंने दिल्ली से ही भवन्ति नाम की साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था। इस पत्रिका के शुरुआती अंकों ने काफी चर्चा बटोरी थी। अचानक एक दिन खबर आई थी कि प्रेम भारद्वाज नोएडा के मेट्रो अस्पताल में भर्ती हो गए हैं। बाद मे पता चला था कि कैंसर ने उनको अपनी चपेट में ले लिया है। नोएडा-दिल्ली और अहमदाबाद में उनका इलाज चला और वो ठीक होने लगे थे। सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हो गए थे और उन्होंने पाठकों को भरोसा दिया था कि जल्द ही भवन्ति का नया अंक सामने होगा। अचानक एक दिन खबर फैली की उनको ब्रेन हेमरेज हो गया। उसके चंद दिनों बाद प्रेम भारद्वाज के निधन की खबर से हिंदी जगत सन्न रह गया। उऩका कहानी संग्रह फोटो अंकल काफी चर्चित रहा था। प्रेम भारद्वाज ने सबरंग साहित्य के लिए कई बार लिखा था। उनको श्रद्धांजलि।

Saturday, March 7, 2020

असाधारण विद्रोह अब भी प्रासंगिक


इन दिनों फिल्म थप्पड की बहुत चर्चा हो रही है। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने बेहतर फिल्म बनाई है। अनुभव सिन्हा से विचारधारा के स्तर पर असहमत लोग भी इस फिल्म की कथावस्तु को लेकर उनकी सराहना कर चुके हैं। केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति इरानी ने तो साफ तौर पर कहा भी और लिखा भी कि कितने लोगों ने सुना है कि औरत को ही एडजस्ट करना पड़ता है। कितने लोग सोचते हैं कि मार पिटाई सिर्फ गरीब औरतों के ही पति करते हैं। कितने लोगों को ये विश्वास होगा कि पढ़े लिखे लोग कभी हाथ नहीं उठाते। कितनी महिलाएं अपनी लड़कियों को या बहुओं को कहती हैं कि कोई बात नहीं बेटा ऐसा तो हमारे साथ भी हुआ लेकिन देखो आज कितने खुश हैं। इंस्टाग्राम पर अपनी पोस्ट में आगे स्मृति इरानी ने लिखा कि मैं निर्देशक की राजनीतिक विचारधारा को समर्थन नहीं करती हूं, कुछ कलाकारों से कुछ मुद्दों पर मेरी असहमति हो सकती है लेकिन ये ऐसी कहानी है जिसको देखूंगी और उम्मीद करती हूं कि लोग भी इसको देखेंगे। किसी भी महिला को मारना उचित नहीं है, एक भी थप्पड़। इस टिप्पणी के दो बिंदुओं पर ध्यान देना खास है।एक तो वो जब खुश रहने की बात कही जाती है और दूसरा तब जब महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बात आती है।
आज विश्व महिला दिवस है और महिलाओं के खिलाफ होनेवाली हिंसा या उनकी पसंद को तवज्जो देने के मसले पर बात करने का उचित अवसर भी है। जब फिल्म थप्पड़ को लेकर बात हो रही थी तो ये बात भी जेहन में आई कि हमारे देश में कई महिलाएं ऐसी भी हुईं जिन्होंने हिंसा के अलावा भी अन्य मुद्दों पर पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ संघर्ष किया। अपने संघर्ष में उनको बहुधा अपमानित भी होना पड़ा लेकिन पुरुष प्रधान समाज में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पिछले दिनों सुधीर चंद्र की पुस्तक रख्माबाई, स्त्री अधिकार और कानून पढ़ रहा था। रख्माबाई की कहानी और उनके संघर्ष को सरसरी तौर पर सुन चुका था लेकिन उनके संघर्ष को पढ़ते हुए लगातार ये लग रहा था कि 1884 में जो मुकदमा चला था और उसको रख्माबाई ने जिस जिजीविषा से लड़ा वो अतुलनीय है। उस समय के हिसाब से रख्माबाई का विद्रोह एक असाधारण घटना थी, मेरे जानते इससे पहले किसी भारतीय स्त्री ने कानूनी तौर पर ग्यारह साल की उम्र में हुए विवाह को मानने से इंकार नहीं किया था। रख्माबाई ने किया। वो बाल विवाह के चक्रव्यूह से निकलना चाहती थी। दरअसल अन्य कारणों के अलावा जिस बात को लेकर रख्माबाई सबसे परेशान थी वो ये कि बाल विवाह के बाद उसका स्कूल जाना बंद हो गया था। वो पढ़ना चाहती थी लेकिन वो संभव नहीं हो रहा था। उन्होंने बाद में लिखा भी कि- मैं उन अभागी स्त्रियों में हूं जो बाल विवाह की प्रथा से जुड़े अवर्णनीय कष्टों को चुपचाप झेलते रहने के लिए विवश हैं। सामाजिक रूप से बेहद गलत इस प्रथा ने मेरे जीवन की खुशियों को समाप्त कर दिया। यह मेरे और उन चीजों के बीच आ खड़ी हुई है जिन्हें मैं सबसे ज्यादा मूल्यवान मानती हूं- अध्ययन और मानसिक विकास। मेरा कोई दोष न होते हुए भी मुझे समाज से अलग-थलग जीने का शाप झेलना पड़ रहा है। अपने अज्ञानी बहनों से ऊपर उठने की मेरी हर आकांक्षा को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
रख्माबाई ने बाल विवाह को ही चुनौती दे दी थी और अपने पति के घऱ जाने से इंकार कर दिया था। लगातार अपमानित होने, अदालतों में वकीलों के अपमानजनक प्रश्नों का सामने करने, सामाजिक दुत्कार को झेलने के बावजूद भी रख्माबाई ने हिम्मत नहीं हारी। वो पढ़ना चाहती थी, अपने तरीके से अपनी मर्जी की जिंदगी जीना चाहती थी। उसको ये मंजूर नहीं था कि वो अपने उस पति के लिए अपना सर्वस्व होम कर दे जिसकी नजर उसकी संपत्ति पर थी। जो उससे ज्यादा प्यार पच्चीस हजार रुपये कीमत की संपत्ति के साथ करता था जो रख्माबाई को विरासत में मिली थी। इसको हासिल करने के लिए रख्माबाई के पति ने अपने वैवाहिक अधिकारों के लिए केस किया। रख्माबाई ने जमकर केस लड़ा और पहला निर्णय उसके पक्ष में आया। लेकिन रख्माबाई के पति अपील में चले गए जहां से रख्माबाई को निर्देश मिला कि वो अपने पति के साथ रहने जाए या छह महीने जेल की सजा भुगते। रख्मबाई ने साहस के साथ छह महीने जेल की सजा भुगतने को चुना था। पर रख्माबाई ने हार नहीं मानी थी और अदालत के फैसले के खिलाफ क्वीन विक्टोरिया के पास अपील कर दी थी। क्वीन ने ना सिर्फ उनकी अपील को स्वीकार किया था बल्कि थोड़े समय विचार करने के बाद रख्माबाई के बाल विवाह को रद्द कर दिया था। लीं कानूनी लड़ाई के बाद रख्माबाई की जीत हुई थी।  दरअसल अगर हम देखें तो इस पूरे केस में इस बात पर बहस हुई थी कि एक महिला अपने पति से संबंध बनाने की सहमति या असहमति दे सकती है या नहीं। रख्माबाई ने अपने पति के साथ शारीरिक संबंध बनाने से इंकार कर दिया था। उधर पति इसको अपना अधिकार मानते हुए अदालत चला गया था। अलग अलग अदालतों ने अलग अलग फैसले दिए थे। सबसे पहले जिस अदालत में ये मुकदमा चला उसके जज पिनी ने अपने फैसले में साफ किया- कानून के अनुसार, मैं वादी को उसके द्वारा मांगी गई राहत प्रदान करने के लिए और इस बाइस वर्षीय युवा महिला को उसके साथ उसके घऱ में रहने का आदेश देने के लिए, ताकि वादी उक्त महिला के साथ उसके बचपन में हुए अपने विवाह को परिणति तक पहुंचा सके, बाध्य नहीं हूं।बाद में अपलीय अदालत ने इस फैसले को पलट दिया था।
जब ये केस चल रहा था तो समाज में इसको लेकर व्यापक बहस हुई थी। हिंदू मान्यताओं, परंपराओं से लेकर कानून तक को आधार बनाकर पूरे देश के उस वक्त के समाचार पत्रों ने लेख छपे थे। पूरा समाज इस केस पर बंटा हुआ था। इस दौर में नैतिकता और कानून के जटिल संबंधों को लेकर भी वंदा-विदा हुआ था। उस दौर में भी रख्माबाई ने छद्म नाम और द हिंदू लेडी के नाम से अखबारों में लेख लिखकर उस बहस में हिस्सा लिया था। रख्माबाई के उस दौर में लिखे गए लेख इस महिला की क्रांतिकारी सोच को सामने लाते है। रख्माबाई के चरित्र के खिलाफ जब लेख छपा तो भी वो डिगी नहीं और उसने उसका भी लिखित जवाब दिया था।
उस समय के लिहाज से रख्माबाई का विद्रोह एक बहुत बड़ी सामाजिक घटना थी। इस केस के इर्द गिर्द कई रूढ़िवादियों ने इसमें धर्म को घुसाने का भी प्रयत्न किया। इसको हिंदू धर्म के खिलाफ, हिन्दू मान्यताओं और परंपराओं के खिलाफ बताने की कोशिश भी की गई। बावजूद इसके रख्माबाई दबाव में नहीं आई और अपने निश्चय पर दृढ़ रही। इस केस में रख्माबाई ने प्रत्यक्ष रूप से बाल विवाह को तो चुनौती दी ही, परोक्ष रूप से इस बात को भी सामने रखा कि महिला किसके साथ संबंध बनाए, कब बनाए. विवाह होने के बाद भी ये उसका अपना फैसला होगा। सहमति और असहमति के इस विमर्श पर ही फिल्म पिंक बनी। महिला अधिकारो या महिलाओं के संघर्ष पर कई फिल्में बनी हैं लेकिन अनुभव ने थप्पड़ में जिस तरह से एक मामूली घटना को महिला के स्वाभिमान से जोड़ दिया और उसके इर्द गिर्द पूरी कहानी बुन दी उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। आज जब सौ करोड़, दो सौ करोड़ के मुनाफे की होड़ लगी हो तो ऐसे दौर में इस तरह की संवेदनशील फिल्मों का निर्माण एक तरह की आश्वस्ति भी देता है। आश्वस्ति कला की, आश्वस्ति क्राफ्ट की और आश्वस्ति सोच की भी।
रख्माबाई के संघर्ष को याद करने, समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ उस महिला के अदम्य साहस को रेखांकित करने और नई पीढ़ी को अपने समाज की ऐसी साहसी महिला के बारे में बताने के लिए महिला दिवस से बेहतर कोई अवसर हो नहीं सकता। रख्माबाई उस भारतीय नारी की प्रतीक हैं जो अपने अधिकारों के लिए तन कर खड़ी ही नहीं होती हैं बल्कि उसको हासिल करने तक डटीं भी रहती हैं। अपने अधिकारों को हासिल कर लेने के बाद दंभ नहीं करतीं,जयघोष नहीं करती बल्कि उस अधिकार को आधार बनाकर सामज को और देश को अपनी ओर देने का प्रयत्न भी करती हैं। रख्माबाई का विद्रोह भले ही सवा सौ साल पहले का हो लेकिन उससे निकली बहस अब भी प्रासंगिक है।

Wednesday, March 4, 2020

खबरों की रीमिक्स करती फिल्में


फिल्म एक ऐसा माध्यम है जिसपर गंभीरता विचार कम ही होता है। इसके आयामों को लेकर, इसके क्राफ्ट को लेकर, इसकी कहानियों को लेकर या इसकी प्रस्तुतिकरण को लेकर सामाजिक संदर्भों के साथ बात कम होती है। हिंदी में तो और भी कम।आजादी के सत्तर साल बाद भी बहुत कम ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां फिल्म अध्ययन का अलग विभाग है। पिछले दिनों हिंदी फिल्मों की कहानियों पर काफी चर्चा होनी शुरू हुई है। इसमें यथार्थ के चित्रण पर भी बहुत बातें हुई। यह भी कहा गया कि इन दिनों हिंदी फिल्मों की कहानियां आपकी हमारी कहानियों को चित्रित कर रही हैं लिहाजा इनको दर्शक पसंद भी कर रहे हैं। यह सही भी है कि फिल्मों में इन दिनों यथार्थवादी कहानियों को ज्यादा पसंद किया जा रहा है। उनमें से कई फिल्मों को समीक्षक, तो कइयों को समीक्षक और दर्शक दोनों पसंद कर रहे हैं। पर इन दिनों जो यथार्थवादी कहानियां दिखाई जा रही हैं उसके प्रस्तुतिकरण को देखने की जरूरत है। कहना ना होगा कि इन यथार्थवादी कहानियों का प्रस्तुतिकरण काल्पनिक होने लगा है। पहले के दौर में ये होता था कि काल्पनिक कहानियों का चित्रण यथार्थवादी तरीके से होता था। चाहे वो सत्यजित रे की फिल्में हों, गोविंद निहलानी की फिल्में हो या फिर श्याम बेनेगल की। ये लोग काल्पनिक कहानियों को चुनते थे और उसके प्रस्तुतिकरण यानि नायक नायिकाओं के परिवेश से लेकर उसके कास्ट्यूम तक में यथार्थ दिखाते थे। अब क्या हो रहा है कि कहानियां को यथार्थवादी हो गई हैं लेकिन इनका प्रस्तुतिकरण काल्पनिक हो गया है। ये काल्पनिकता फिल्म मुल्क से लेकर छपाक तक में दिखाई देती है। यहां कहानियां तो दर्शकों के जीवन से उठाई जा रही हैं लेकिन पात्रों से लेकर परिवेश तक को काल्पनिक बना दिया जा रहा है। यथार्थवादी कहानियों में न तो यथार्थवादी ड्रेस डिजायनिंग पर ध्यान दिया जाता है न ही पात्रों के चित्रण पर।
दूसरी लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात जो इन कथित यथार्थवादी फिल्मों के बारे में रेखांकित की जा सकती है वो ये है कि इस तरह की ज्यादातर फिल्में खबरों के सहारे यथार्थ के करीब जाती हैं। जैसे अगर हम देखें तो दिल्ली से सटे नोएडा में 2008 में एक स्कूली छात्रा आरुषि तलवार और उसके नौकर की हत्या होती है। इस दोहरे हत्याकांड की पूरे देश में चर्चा होती है। इस हत्याकांड और इसकी जांच और उस वक्त के सामाजिक माहौल को केंद्र में रखकर विशाल भारद्वाज एक कहानी लिख देते हैं जिसपर मेघना गुलजार 2015 में तलवार नाम से एक फिल्म बना देती हैं। इसी तरह से अगर देखें तो उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में कटरा सहादतगंज में दो लड़कियों की लाश पेड़ से लटकी मिली थी। उस वक्त इस बात की देश विदेश में चर्चा हुई थी कि इन दोनों लड़कियों को गैंगरेप के बाद हत्या कर पेड़ से लटका दिया गया था। इस वारदात पर जमकर राजनीति भी हुई थी। इस बड़ी खबर को केंद्र में रखकर अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी ने एक कहानी लिख दी और उसपर आर्टिकल 15 नाम की फिल्म बन गई। इस फिल्म ने खूब वाहवाही बटोरी, कई पुरस्कार भी मिले। इसी तरह से 2017 में लखनऊ में एक एनकाउंटर हुआ था जिसमें एक आतंकवादी मारा गया था। मारे गए आतंकवादी के पिता ने अपने बेटे का शव लेने से ये कहकर इंकार कर दिया था कि वो देश के गद्दार का अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। उस दौर में ये खबर भी बहुत चर्चित हुई थी। यथार्थ के करीब जाने के लिए अनुभव सिन्हा ने इसपर एक फिल्म लिख दी जो मुल्क के नाम से बनी।
दरअसल ये एक ट्रेंड शुरू हो गया। इसी ट्रेंड के आधार पर अंकिता चौहान और मेघना गुलजार ने एक फिल्म लिखी जिसका नाम था छपाक। दरअसल 2005 में लक्ष्मी नाम की एक लड़की पर एसिड फेंक दिया गया। एसिड फेंकने की इस घटना को लेकर पूरे देश में खूब चर्चा हुई थी। खुले में एसिड बिक्री पर रोक की मांग को लेकर आंदोलन हुए. मामला कोर्ट कचहरी तक गया। फैसला हुआ। लक्ष्मी की पीड़ा को लेकर अखबारों में भी काफी चर्चा हुई थी। उरी द सर्जिकल स्ट्राइक, तो उरी में 2016 में आतंकवादी हमले और उसके बाद भारतीय सेना द्वारा किए गए सर्जिकल स्ट्राइक को ध्यान में रखते हुए बनाई गई है। इस फिल्म ने साढे तीन सौ करोड़ से अधिक का बिजनेस किया।
खबरों के आधार पर फिल्म बनाने का ये चलन चल पड़ा। फिल्म लेखकों से लेकर निर्माताओं को लगता होगा कि दर्शकों के मानस पटल पर ये घटनाएं अंकित होंगी जिसका फायदा बॉक्स ऑफिस पर दिखेगा। कई फिल्मों में दिखा भी। कुछ फिल्मों ने मुनाफा कमाया तो कुछ ने मुनाफा के साथ साथ नाम भी। दरअसल खबरों के आधार पर कहानी लिखने की जो प्रवृत्ति बॉलीवुड में चली उसके भी आर्थिक कारण हैं। हिंदी फिल्मों में सबसे कम खर्च कहानियों और स्क्रिप्ट पर किया जाता है। जबकि इसके उलट हॉलीवुड में कहानियों या स्क्रिप्ट पर बहुत अधिक खर्च किया जाता है। इस तरह के कई फिल्म लेखकों का तो ये हाल है कि इन घटनाओं को कवर करनेवाले पत्रकारों से पूछकर कहानियां लिखते हैं। दरअसल वो कहानियां नहीं लिख रहे होते हैं बल्कि वो घटनाओं के आधार पर सीन लिख रहे होते हैं। सीन लेखन का ये उपक्रम कहानी पर होनेवाले खर्च को बचा लेता है। कहना न होगा कि ये खबरों का रीमिक्स पेश करने का दौर हैं। जैसे एक दौर ऐसा आया था कि पुराने हिट गानों को रीमिक्स करके पेश किया गया, उनमें से कई गाने खूब हिट रहे तो अब खबरों को रीमिक्स किया जा रहा है। यही हाल ऐतिहासिक बड़ी खबरों के साथ भी रहा है। खबरों के रीमिक्स पर काम करने के क्रम में कुछ लेखक तो इतिहास की बड़ी खबरों तक जा पहुंचे। उन खबरों तक जिनमे गौरवगाथा भी हो। फिल्म दंगल से लेकर फिल्म सुल्तान या गोल्ड तक में इस चलन को रेखांकित किया जा सकता है। सांड की आँख का अगर उदाहरण लें तो कहानी को सबको मालूम थी लेकिन फिल्म के लेखक ने सीन लिखे और फिल्म बन गई।
खबरों का रीमिक्स कर फिल्म की कहानी बनाने का नतीजा ये होता है कि इन फिल्मों से मुनाफा तो कमा लिया जाता है, प्रशंसा भी बटोर ली जाती है लेकिन इनको लंबे समय तक याद किया जाएगा इसमें भी संदेह है। ये कालजयी नहीं हो सकतीं। एक दौर वो भी था हिंदी फिल्मों का जब राज कपूर जैसे निर्देशक कहानियों पर जमकर काम करते थे। एच एस रवैल जैसे लोग कहानियों को लेकर बेहद सतर्क होते थे। तभी उनकी फिल्में अबतक याद की जाती हैं। ये फिल्में टिकाऊ नहीं होती। यह अनायास नहीं है कि इन दिनों फिल्मों का फैसला ओपनिंग के आधार पर होने लगा है। पहले तीन दिन में सौ करोड़ कमाया या नहीं, इसके आधार पर फिल्म को सफल या असफल कहा जाने लगा है। फिल्मों की कहानी और क्राफ्ट पर कम बात होती है। अच्छी फिल्म का मानदंड उसकी कमाई हो गई है। ये अनायास नहीं है कि फिल्म की सफलता में अब इसपर भी बात होती है कि उस फिल्म को कितने स्क्रीन मिले। कितने स्क्रीन पर एक साथ फिल्म रिलीज हुई। यह अनायास नहीं है कि पिछले सालों में चर्चित हस्तियों पर खूब जमकर बॉयोपिक भी बने, इन शख्सियतों की सफलता को भुनाने के लिए उनपर फिल्में बनीं। फिल्म निर्माताओं ने मुनाफा भी कमाया लेकिन अगर बॉयोपिक को याद किया जाता है तो अब भी सबसे पहले रिचर्ड अटनबरो की फिल्म गांधी की ही याद आती है। फिल्मों का ये असर वेब सीरीज पर भी पड़ा है। वहां प्रमाणन की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए यथार्थ के नाम पर अराजकता है।
सौ वर्षों से अधिक के लंबे सफर के बाद अब हिंदी फिल्मों के कर्ताधर्ताओ को इसपर विचार करना चाहिए कि कहानी पर कितना काम हो, उसपर कितना खर्च किया जाए। जबतक फिल्म की कहानी पर उसके स्क्रिप्ट पर खर्च नहीं किया जाएगा तो जिस तरह से लोकेशन की भव्यता का दौर भी खत्म होता दिख रहा है वैसे ही खबरो की रीमिक्स पर बनने वाली फिल्मों का दौर भी खत्म हो सकता है। दर्शकों के सामने एक ही तरह की फिल्म आने की वजह से एकरसता का खतरा उत्पन्न हो सकता है। हिंदी फिल्मों में एकरसता से उबने का सबसे बडा उदाहरण शाहरुख खान हैं। लंबे कालखंड तक दर्शकों ने रोमांस के बादशाह को देखा, सराहा भी लेकिन बांहें फैलाकर हीरोइन को आमंत्रण देनेवाले नायक को नकारने में भी दर्शकों ने वक्त नहीं लिया। यथार्थ के नाम पर रीमिक्स का दौर भी लंबा चलेगा इसमे संदेह है।   

Monday, March 2, 2020

बंगला नंबर 5 और मोरारजी


मोरारजी देसाई और दिल्ली का बहुत गहरा रिश्ता रहा है। 1956 में वो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कहने पर दिल्ली आए और फिर इस शहर को ही अपनी राजनीति का केंद्र बनाया। मोरारजी देसाई पर लिखी गई किताब में अरविंदर सिंह ने उनके दिल्ली से जुड़े कई प्रसंगों को लिखा है। उनके  मुताबिक जवाहरलाल नेहरू उनको अपने मंत्रिमंडल में चाहते थे और इस वजह से 1956 में उनको महाराष्ट्र की राजनीति छोड़कर दिल्ली बुला लिया था।14 नवंबर 1956 को मोरारजी देसाई देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री बनाए गए थे। जब उन्होंने वाणिज्य और उद्योग मंत्री का पद संभाला था तो उस वक्त इस मंत्रालय का दफ्तर नॉर्थ ब्लॉक में हुआ करता था। लेकिन समय बीतने के साथ मंत्रालयों को बड़े कार्यालय की जरूरत पड़ने लगी तो यह तय किया गया कि वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय को अन्यत्र ले जाया जाए। 1957 में जब उद्योग भवन बनकर तैयार हो गया तो मोरारजी देसाई का कार्यालय नॉर्थ ब्लॉक से उद्योग भवन आ गए। तब उनको नहीं मालूम था कि वो जल्द ही फिर से नॉर्थ ब्लॉक में शिफ्ट होनेवाले हैं। गड़बड़ियों के आरोप के चलते फरवरी 1958 में वित्त मंत्री टी टी कृष्णामचारी को इस्तीफा देना पड़ा था। इनके इस्तीफे के बाद मार्च 1958 में मोरारजी देसाई वित्त मंत्री बने और फिर से नॉर्थ ब्लॉक जा पहुंचे। लेकिन मोरारजी देसाई को तब कहां मालूम था कि नियति ने उऩके लिए साउथ ब्लॉक का प्रधानमंत्री कार्यालय भी तय कर रखा था। यह अलग बात है कि मोरारजी देसाई को राजपथ को क्रास करके साउथ ब्लॉक तक पहुंचने में करीब दो दशक लगे। उन्होंने नार्थ ब्लॉक से साउथ ब्लॉक जाने की कोशिश कई बार की लेकिन हर बार उऩको असफलता ही हाथ लगी।
कुलदीप नैयर ने अपनी किताब बियांड द लाइंसमें उनके साउथ ब्लॉक जाने के पहले प्रयास के बारे में जानकारी दी थी। उन्होंने बताया था कि जब 27 मई 1964 को नेहरू जी का निधन हो गया था तो उसके अगले दिन वो मोरारजी देसाई के घर गए थे जहां उनकी मुलाकात मोरारजी के बेटे कांतिभाई से हुई थी। वहां कांतिभाई ने नैय्यर को शास्त्री का आदमी बताते हुए कहा था कि जाकर शास्त्रीजी से कह दें कि वो प्रधानमंत्री पद की रेस से बाहर जो जाएं। कांतिभाई के हाथ में तब कांग्रेस के उन सांसदों की सूची थी जो मोरारजी देसाई को समर्थन दे रहे थे। वहां से लौटकर कुलदीप नैयर ने एक लेख लिखा जो कि समाचार एजेंसी यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया से जारी हुआ। उस लेख को कई अखबारों ने छापा। उस लेख में कुलदीप नैयर ने लिखा कि मोरारजी पहले शख्स हैं जो नेतृत्व करने के लिए सामने आए हैं और उसके अंत में ये लिखा दिया कि शास्त्री हिचक रहे हैं। इस लेख का तब गहरा असर पड़ा था और उस वक्त कहा गया था कि मोरारजी को समर्थन करनेवाले सौ सांसद पीछ हट गए थे। वजह ये थी कि जनता जब नेहरू जी के निधन पर शोकाकुल थी तो मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनने में लगे थे। तब कुलदीप नैयर को शास्त्री जी ने भी संकेत किया था कि अब कोई जरूरत नहीं है किसी लेख की। अरविंदर सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने किसी सवाल पर कुलदीप नैयर से कहा था कि अगर कुलदीप नैयर ने उनको 1964 में प्रधानमंत्री बनने दिया होता तो ये समस्याएं नहीं आतीं।
दूसरी बार भी मोरारजी देसाई साउथ ब्लॉक नहीं पहुंच पाए वो वर्ष था 1966। शास्त्री जी के असामयिक निधन के बाद एक बार फिर से देश के सामने ये सवाल था कि कौन बनेगा प्रधानमंत्री। मोरारजी देसाई ने तब भी तय किया था कि वो कांग्रेस संसदीय दल क नेता पद का चुनाव लडेंगे। वो लड़े भी और इंदिरा गांधी से पराजित हुए लेकिन 165 सांसदों का समर्थन उनको मिला था। अरविंदर सिंह का कहना है कि कांग्रेस संसदीय दल के नेता पद के लिए हुआ आखिरी चुनाव था। इस पराजय के बाद भी मोरारजी निराश नहीं हुए और देशभर का दौरा करने लगे । तब वो दिल्ली के ड्यूप्लेक्स रोड पर रहते थे जिस सड़क का नाम बदलकर अब कामराज रोड कर दिया गया है। दरअसल समय समय पर दिल्ली के सड़कों का नाम बदला जाता रहा है, खासतौर पर उन सड़कों का नाम जो गुलामी के दौर की याद दिलाते हैं। दिल्ली की कई सड़कों का नाम बदला गया था जिसमें केनिंग रोड, चेम्सफोर्ड रोड और हार्डिंग रोड के साथ-साथ ड्यूप्लैक्स रोड भी शामिल था। जोजेफ फ्रांस्वा ड्यूप्लैक्स अठारहवीं शताब्दी के मध्य में भारत में फ्रांसीसी कब्जे वाले इलाके के गवर्नर जनरल थे।
ड्यूप्लैक्स रोड के बंगले से ही मोरारजी देसाई के साउथ ब्लॉक पहुंचने का रास्ता खुला था। दरअसल 1975 मे जनता की नाराजगी कांग्रेस सरकार के खिलाफ बढ़ने लगी थी। गुजरात विधानसभा को भंग कर दिया गया था। तब मोरारजी देसाई ने 7 अप्रैल 1975 को एलान किया था कि वो अपने दिल्ली के घर 5, ड्यूपलैक्स रोड पर आमरण अनशन पर बैठेंगे। उन्होनें घोषणा की थी कि उनका ये आमरण अनशन देश में लोकतंत्र की बेहतरी के लिए है। उन्होंने तीन मांगे उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सामने रखी थी। पहली कि गुजरात विधानसभा के चुनाव की तारीखों का एलान किया जाए, दूसरा राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर मीसा ( मेंटनेंस ऑफ इंटरनल सेक्युरिटी एक्ट) नहीं लगाया जाए और तीसरा कि बांग्लादेश युद्ध के समय देश पर जो वाह्य इमरजेंसी लगाई गई थी, उसको हटाया जाए। उनकी इन मांगों पर इंदिरा गांधी के साथ बातचीत भी हुई लेकिन वो बेनतीजा रही। दिल्ली के ड्यूप्लैक्स रोड का ये पांच नंबर का बंग्ला उस दौर की राजनीति का केंद्र बनने लगा और इंदिरा विरोधियों की भारी भीड़ वहां जुटने लगी थी। मोरारजी देसाई का समर्थन बढ़ता देख इंदिरा गांधी ने तब उमाशंकर दीक्षित को उनके घऱ भेजा और कहलवाया कि सरकार उनकी गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीख घोषित करने की मांग मानने को तैयार है और बाकी दोनों मांगों पर भी विचार किया जा रहा है। सरकार के इस आश्वासन के बाद मोरारजी देसाई अनशन तोड़ने को राजी हुए थे। 13 अप्रैल की शाम पांच बजे के करीब जयप्रकाश नारायण मोरारजी देसाई के घर पहुंचे और साढे पांच बजे उनको जूस पिलाकर अनशन समाप्त करवाया। इस तरह ड्यूप्लैक्स रोड का ये बंगला इंदिरा सरकार को झुकाने की गतिविधियों का गवाह बना था।
इस बीच देश में राजनीति का घटनाक्रम तेजी से चला और कोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दे दिया। कांग्रेस के ज्यादातर नेता तब भी इंदिरा गांधी के पक्ष में थे। एक बार फिर से मोरारजी देसाई ने कमान संभाली और उनके चेयरमैनशिप में लोकसंघर्ष समिति का गठन हुआ। राजनीतिक गतिविधि का केंद्र एक बार फिर से दिल्ली का वही पांच नंबर ड्यूप्लैक्स रोड का बंगला बना। इंदिरा गांधी ने 26 जून को देश में इमरजेंसी लगा दी। उनका विरोध करनेवाले सभी नेता गिरफ्तार किए जाने लगे। सुबह सुबह पुलिस मोरारजी देसाई के बंगले पर पहुंची और उनको गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार करके मोरारजी देसाई को पहले सोहना टूरिस्ट सेंटर गेस्ट हाउस में रखा गया फिर ताउरू के गेस्ट हाउस में रखा गया। इन दोनों जगहों पर मोरारजी देसाई को डेढ़ साल तक रखा गया था। सोहना में तो उनके बगल के कमरे में जयप्रकाश नारायण भी रहा करते थे। बाद में उनको चंडीगढ़ शिफ्ट कर दिया गया था। अरविंदर सिंह लिखते हैं कि इमरजेंसी में अपनी गिरफ्तारी के दिनों में मोरारजी देसाई ने अन्न छोड़ दिया था और वो सिर्फ दूध और फल खाते थे। डेढ साल तक इसी तरह का जीवन जीने के बाद 18 जनवरी 1977 की सुबह कुछ पुलिसवाले उनके पास पहुंचे और कहा कि सरकार ने उनको बगैर किसी शर्त रिहा करने का आदेश दिया है। मोरार जी संकट में पड़े उनके पास पैसे तो थे नहीं दिल्ली लौटते कैसे। उन्होंने अपनी मुश्किल पुलिस वालों को बताई। प्रशासन ने गाड़ी का इंतजाम किया और उनको दिल्ली के ड्यूप्लैक्स रोड के उनके घऱ तक छोड़ा गया। इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर दी थी और चुनाव की तारीखों का एलान हो गया था। 18 जनवरी 1977 की शाम से ही राजनीतिक बैठकों का दौर शुरू हो गया था और दो दिन बाद दिल्ली के इसी 5 ड्यूप्लैक्स रोड वाले मोरारजी देसाई के घर पर जनता पार्टी के गठन की घोषणा की गई थी। आगे की कहानी तो इतिहास है लेकिन इस बार किस्मत मोरारजी देसाई के साथ थी और उनका साउथ ब्लॉक जाने का सपना पूरा हुआ था। पांच नंबर के इसी बंगले से वो देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने निकले थे। अब भले ही दिल्ली की इस सड़क का नाम बदल दिया गया है लेकिन इस सड़क ने और इस बंगले ने इतिहास को बनते देखा है।