फिल्मों में रुचि के कारण मित्रों से नई और पुरानी फिल्मों पर चर्चा होती रहती है। आपस में बातचीत करते रहते हैं कि कौन सी फिल्म या वेबसीरीज आई है, किसका ट्रीटमेंट कैसा है, संवाद कैसा है, कौन सी देखी जा सकती है। इसी क्रम में साइलेंस टू का नाम आया। बताया गया कि वो अमुक प्लेटफार्म पर उपलब्ध है। मैंने सोचा, मनोज वाजपेयी की फिल्म है, देख ली जाए। प्रशंसा भी हो रही थी कि अच्छी मर्डर मिस्ट्री है। इस फिल्म को देखने की इच्छा के साथ टीवी आन किया। अलेक्सा का बटन दबाकर कहा, साइलेंस टू। अलेक्सा सर्च करने लगा। चंद पलों में उसने साइलेंस टू को स्क्रीन पर उपस्थित कर दिया। फिल्म का पोस्टर लगा था और नीचे उसकी अवधि भी एक घंटे पचास मिनट उल्लिखित थी। मैंने उसको सेलेक्ट करके चालू कर दिया। फिल्म आरंभ हो गई। मनोज वाजेयी इस फिल्म में थे। कहानी अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी की थी। मेंने देखना आरंभ कर दिया। कुछ अंतराल के बाद मुझे लगा कि गलत फिल्म देख रहा हूं। मैंने उसको बंद किया और फिर अलेक्सा को बोला कि साइलेंट टू दिखाओ। वो फिर वहीं लेकर गया । मैं उसी फिल्म को देखने लगा। करीब पौने घंटे के बाद फिर मुझे लगा कि गलत फिल्म देख रहा हूं। अपने मित्र को फोन करके कहा कि आपने नाम गलत बता दिया । थोड़ी नाराजगी भी दिखाई। उन्होंने फिर से कहा कि साइलेंस टू सर्च करिए और देखिए। अच्छी फिल्म है। मैंने फिर से देखा तो फिल्म के ऊपर छोटे अक्षरों में लिखा आ रहा था साइलेंस टू, मनोज वाजपेयी, प्राची देसाई। मैं फिर निश्चिंत हो गया और आगे देखने लगा। थोड़ी देर बाद ये समझ आ गया कि मैं साइलेंस टू नहीं बल्कि मनोज वाजपेयी की ही एक और फिल्म अलीगढ़ देख रहा था। तबतक एक घंटा देख चुका था। खैर...फिल्म पूरी देख गया। इस फिल्म ने दो सूत्र दे दिए जिसकी चर्चा यहां करना चाहता हूं। पहला तो ये कि अलेक्सा को भी धोखा दिया जा सकता है। किसी ने अलीगढ़ फिल्म के ऊपर साइलेंस टू का थंबनेल लगा दिया था। तकनीकी तौर फिल्म अलीगढ़ को यूट्यूब पर इस तरह से लगाया था कि साइलेंस टू सर्च करने पर वही फिल्म आए। स्तंभ लिखने के पहले एक बार फिर चेक किया। अब भी यही हो रहा था। दरअसल मुझसे गलती ये हो गई थी कि मुझे जी 5 प्लेटफार्म पर जाकर इस फिल्म को सर्च करना चाहिए था।
दूसरी महत्वपूर्ण बात साहित्य से जुड़ी है। अलीगढ़ फिल्म में प्रोफेसर सिरस (मनोज वाजपेयी) और युवा पत्रकार दीपू (राजकुमार राव) के बीच एक संवाद है। बुजुर्ग प्रोफेसर सिरस युवा पत्रकार दीपू से पूछते हैं कि अच्छा बताओ तुमने किन किन पोएट को पढ़ा है। उत्तर मिलता पोएट, अय्यो! ज्यादा कुछ तो नहीं पढ़ा है...शब्दों का जो खेल है वो सब ऊपर से चला जाता है। प्रोफेसर सिरस कहते हैं कि पोएट्री शब्दों में कहां होती है बाबा। कविता तो शब्दों के अंतराल में मिलती है, साइलेंसेज और पाजेज में होती है। लोग अपने हिसाब से उसका अर्थ निकालते रहते हैं। उम्र और मैच्युरिटी के हिसाब से। समझे। दीपू कहता है, समझा। इसके बाद दीपू उनकी कविता पुस्तक के बारे में पूछता है। प्रोफेसर सिरस बेहद गंभीर भाव भंगिमा में बोलते हैं, नैचुरली आजकल कविता खरीदता कौन है? और तुम्हारे जेनरेशन के लोगों को तो पोएट्री की समझ ही नहीं है। वो तो हर चीज को किसी न किसी लेबल से चिपकाना चाहते हैं- फैंटेस्टिक, फैबुलस, सुपर, सुपर्ब, कूल और आसम। फिर दोनों की बात केस को लेकर आगे चलती रहती है। संवाद की उपरोक्त पंक्तियों को अगर समकालीन साहित्य के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करें तो काफी हद तक ये सही प्रतीत होती है। अगर प्रकाशकों की मानें तो कविता संग्रहों के खरीदार पहले की अपेक्षा में कम हुए हैं। कवियों को अपने संग्रह को प्रकाशित करवाने में संघर्ष करना होता है। समकालीन कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर से स्वयं मुझसे कहा कि उन्होंने एक कविता संग्रह तैयार किया था। उसको प्रकाशित करवाना चाहते थे लेकिन प्रकाशक तैयार नहीं हो रहे थे। उनके मुताबिक प्रकाशकों के तर्क थे कि कविता आजकल खरीदता कौन है। कविता के पाठक घट गए हैं। कई बार फिल्मों के संवाद में साहित्यिक यथार्थ उद्घाटित हो जाते हैं।
कविता के अलावा प्रोफेसर सिरस ने जो एक और बात कही वो भी महत्वपूर्ण है। युवा पत्रकार को जब वो कहते हैं कि तुम्हारी पीढ़ी हर चीज को किसी न लेबल से चिपकाना चाहती है, फैंटेस्टिक, फैबुलस, सुपर, सुपर्ब, कूल और आसम। ऐसा लेबलीकरण इंटरनेट मीडिया पर साफ तौर देखा जा सकता है। अगर किसी ने फेसबुक पर कोई कविता पोस्ट की तो कमोबेश इसी तरह की प्रतिक्रिया अधिक मिलती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि कविता बिना पढ़े पोस्ट पर अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए प्रशंसात्मक लेबलनुमा टिप्पणी कर देते हैं। यह तो हुई वो बात जो सतह पर दिखती है। प्रो सिरस के लेबल लगानेवाली बात के गंभीर निहितार्थ भी हैं। इस तरह की टिप्पणियों (लेबलीकरण) से खराब कविता लिखनेवालों को बढ़ावा मिलता है। उनको लगता है कि वो पंत और निराला के स्तर की कविताएं लिख रहे हैं। तुकबंदी मिलाने और भावोच्छ्वास को कविता की तरह परोसनेवाले लेखकों का उत्साहवर्धन इतना हो जाता है कि इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर इस तरह की कविताएं बहुतायत में उपलब्ध होने लगती है। प्रशंसात्मक टिप्पणियों से उनको लगता है कि वो महान कवि हो गए हैं। अब उनकी कविताओं का संग्रह आना ही चाहिए। वो भावोच्छ्वास और तुकबंदी लेकर प्रकाशकों के यहां पहुंचने लगते हैं। कुछ प्रकाशक, दबाव या अन्य कारणों से संग्रह प्रकाशित भी कर देते हैं। इस तरह के संग्रह कविता के गंभीर पाठकों को भाते नहीं। परिणाम ये होता है कि वो बिक नहीं पाते और कविता को लेकर एक खराब धारणा बनने लगती है।
इन प्रशंसात्मक लेबलों का एक और गंभीर नुकसान होता है। खराब कविता लिखकर भी प्रशंसा पाने वाले कवियों को ये लगता है कि आलोचकों की कोई भूमिका ही नहीं है। वो खुलेआम ये घोषणा करते नजर आते हैं कि पाठक उनकी कविताओं को पसंद कर रहे हैं तो आलोचकों की आवश्यकता क्या है। कवि और पाठक के बीच तीसरा क्यों ? आलोचकों के इस नकार का परिणाम आज युवा कवि ही सबसे अधिक झेल रहे हैं। संजय कुंदन, प्रेमरंजन अनिमेष, हेमंत कुकरेती की पीढ़ी की कविताओं पर तो कुछ आलोचकों ने विचार किया भी। उनकी कविताओं को रेखांकित किया। उनको साहित्य जगत में कवि रूप में स्थापित किया। इसके बाद की पीढ़ी के कवियों का क्या हुआ ? इनके बाद की पीढ़ी का आलोचक नहीं होने के कारण अच्छे कवि भी रेखांकित नही हो पा रहे हैं। उनकी पहचान नहीं बन पा रही है। प्रोफेसर सिरस कह रहे हैं कि कविता शब्दों के अंतराल में उसके साइलेंस में होती है। इसी अंतराल और साइलेंस की कविता को उद्घाटित करने का कार्य आलोचक करते हैं। सामान्य लेबलीकरण से न तो अंतराल और न ही साइलेंस के अर्थ पाठकों के सम्मुख आ सकते हैं। आंत में प्रोफेसर सिरस अनुवाद की स्थिति पर भी टिप्पणी करते हुए कहते हैं अनुवाद भी स्तरीय न होने के कारण कविता का रूप बिगड़ जाता है। यह स्थिति सिर्फ कविता की नहीं है। अधिकतर गद्य के अनुवाद भी स्तरहीन हो रहे हैं। सिनेमा को जो लोग सिर्फ मनोरंजन का माध्यम मानते हैं उनको सिनेमा के दृश्यों और संवादों से निकलते संदेशों को पकड़ना चाहिए। कई बार फिल्मों और उसके संवादों से जो संदेश निकलते हैं वो समकालीन रचनात्मकता या सामाजिक संदर्भों पर टिप्पणी होती है।