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Saturday, December 25, 2021

आत्मकथा और जीवनियों का वर्ष


वर्ष 2021 बीतने को आया। कुछ दिनों बाद ये वर्ष इतिहास हो जाएगा। इस वर्ष का उत्तरार्ध कोरोना महामारी के भय में गुजरा। चारो ओर कोरोना संक्रमण की बातें हो रही थीं। संक्रमण के फैलने की आशंका से जो भय का वातावरण बना था उसने सिनेमा जगत को भी प्रभावित किया। सिनेमा हाल लंबे समय तक बंद रहे, नई फिल्मों के निर्माण पर असर पड़ा, फिल्म जगत के सामने ओटीटी (ओवर द टाप) प्लेटफार्म चुनौती बनकर खड़े हो गए। सिनेमा हाल की व्यवस्था पर ऐसा ही बड़ा असर तब पड़ा था जब 1980 के बाद के वर्षों में देश में वीसीआर और कैसेट पर फिल्में देखने का चलन बढ़ा था। 2020 में फिल्म जगत का जो परिदृश्य बदलने लगा था वो बदलाव 2021 में और गाढ़ा हुआ। वीसीआर के दौर में तकनीक की वजह से सिनेमा दर्शकों का स्वभाव बदला था और अब भय की वजह से फिल्में देखने का माध्यम बदला। सिनेमा से जुड़े लोग अब भी दर्शकों के सिनेमा हाल में वापसी को लेकर आशंकित हैं। फिल्म निर्माण, वितरण और उसके अर्थशास्त्र को लेकर तमाम तरह की आशंकाओं के बीच वर्ष 2021 में फिल्म से जुड़ी एक विधा में उम्मीद की किरण नजर आई।  वर्ष 2021 में फिल्मों से जुड़े लोगों की आत्मकथाएं और जीवनियां प्रकाशित हुई। इनमें से कई पुस्तकें काफी चर्चित रही और बेहद लोकप्रिय भी हुईं। आत्मकथा या जीवनी या संस्मरण ऐसी विधा है जिसके ज्यादातर लेखक अपने को कसौटी पर नहीं कसते या अपने से जुड़े अप्रिय प्रसंगों को छोड़ देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि फिल्मी आत्मकथाएं या जीवनियां उबाऊ और बोझिल हो जाती हैं। 2021 में इस विधा की कई पुस्तकें ऐसी आईं जिनमें बहुत हद तक लेखक ने खुद को कसौटी पर कसा है और अपने से जुड़े अप्रिय प्रसंगों को भी लिखा है। ज्यादातर लेखकों ने ईमानदारी बरती। 

सबसे पहले चर्चा करना चाहूंगा कबीर बेदी की आत्मकथा स्टोरीज आई मस्ट टेल, द इमोशनल लाइफ आफ एन एक्टर की। कबीर बेदी ने इसमें काफी हद तक ईमानदारी से अपनी जिंदगी से जुड़ी बातें लिखी हैं। कबीर बेदी अपने बचपन की यादों को भी इस पुस्तक में लेकर आते हैं। 1970 के बाद के वर्षों में मुंबई में फिल्मों से जुड़े कई युवाओं का एक ‘बोहेमियन जूहू गैंग’ होता था, जिसमें कबीर के अलावा शेखर कपूर, डैनी, महेश भट्ट, परवीन बाबी और शबाना आजमी आदि हुआ करते थे। कबीर बेदी ने उन वर्षों को रोचक अंदाज में याद किया है। इस पुस्तक में अपने कई संबंधों के बारे में भी बेबाकी से लिखा है। अपने पहले प्यार और पत्नी प्रतिमा बेदी के साथ साथ परवीन बाबी से अपने अफेयर पर भी लिखा है। हलांकि प्रतिमा बेदी ने अपनी पुस्तक टाइमपास, द मेमोरीज आफ प्रतिमा बेदी में इन प्रसंगों को अलग तरीके से लिखा है। कबीर ने परवीन बाबी की मानसिक स्थिति पर भी तटस्थ होकर लिखा है। इसमें उन्होंने परवीन बाबी के पत्रों का उल्लेख भी किया है। कबीर बेदी जब अपने युवा पुत्र की आत्महत्या के बारे में लिखते हैं तो पाठक उनकी संवेदना के साथ खुद को एकाकार कर लेता है। अपनी पीड़ा और संत्रास को उन्होंने कोमल गद्य के सहारे अपनी पुस्तक में आगे बढ़ाया है। कबीर बेदी के माता पिता स्वाधीनता सेनानी थी और उनका चिंतन गहरा था। अपनी इस पुस्तक में कबीर बेदी ने कई जगहों पर अपने अभिभावकों की सीख को भी उद्धृत किया है। बेदी धर्म को लेकर भी अपनी राय पाटकों के सामने रखते हैं। एक अध्याय में तो गुरू नानक, कबीर और सूफी संतों के हवाले से कई दार्शनिक बातें भी कहते हैं। इसमें वो गीता और बुद्ध के ज्ञान को भी अपने तरीके से पाठकों के सामने रखते हैं। अगर समग्रता में देखें तो कबीर बेदी की ये पुस्तक फिल्म से जुड़े किस्से तो बताती है लेकिन साथ ही इसमें एक पूरा कालखंड भी जीवंत होता है।   

फिल्मों से जुड़ी एक और शख्सियत नीना गुप्ता की आत्मकथा ‘सच कहूं तो’ भी इस वर्ष प्रकाशित हुई। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पुस्तक अंग्रेजी में प्रकाशित हो और उसका शीर्षक हिंदी के शब्दों का हो। नीना गुप्ता ने ये किया। नीना गुप्ता की आत्मकथा से पाठकों को ये उम्मीद रही होगी कि इसमें उनकी और विवियन रिचर्ड्स की लव स्टोरी का किस्सा  होगा। इस पुस्तक में नीना ने रिचर्ड्स से अपने संबंधों के बारे में नहीं बताया लेकिन उनको पाठकों की अपेक्षा का अंदाज रहा होगा। उन्होंने इस बारे में लिखा कि वो उन स्थितियों को अपने और रिचर्ड्स की बेटी मसाबा गुप्ता की खातिर दोहराना नहीं चाहती हैं। वो नहीं चाहती हैं कि एक बार फिर से उन स्थितियों को लेकर उनकी बेटी के सामने अप्रिय स्थिति उत्पन्न हो। पर उन्होंने मातृत्व के अपने अनुभवों को और एक अनव्याही मां को लेकर समाज की प्रतिक्रियाओं के बारे में लिखा है। अपनी जिंदगी के उतार चढ़ाव को भी उन्होंने स्वीकार किया है। इस पुस्तक में एक बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि नीना ने अपने आसपास के लोगों का नाम लेकर उनको शर्मिंदा नहीं किया। संकेतों में बात करके निकल गई हैं। जब नीना गुप्ता अपनी फिल्म बाजार सीताराम बना रही थीं तो वो उन्होंने श्याम बेनेगल से बात की थी। बेनेगल ने उनको सलाह दी थी कि हमेशा इस बात को याद रखना कि किसी भी कहानी का एक निश्चित आरंभ हो, उसका सुगठित मध्य भाग हो और उसका तार्किक अंत हो। अगर किसी कहानी में ये तीनों चीजें हैं तो वो कहानी कभी पिट नहीं सकती। ये सीख उनके जीवन में बहुत काम आई। नीना गुप्ता ने इसमें अपने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दिनों को बेहद संजीदगी से याद किया है। इस पुस्तक में भी छिपाया कम बताया ज्यादा गया है। 

तीसरी पुस्तक जिसकी चर्चा की जानी चाहिए वो है अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा जोनस के संस्मरणों की किताब, अनफिनिश्ड । इस पुस्तक को लेकर इंटरनेट मीडिया पर जबरदस्त उत्सुकता का माहौल बना था। आनलाइन बुक स्टोर में अपने प्रकाशन के कई महीनों बाद तक ये पुस्तक लोकप्रियता के शीर्ष पर बनी रही थी। इस पुस्तक की शुरुआत उसके दस साल के भाई के अपनी बहन को मिस इंडिया प्रतियोगिता में भेजने के प्रसंग से होती है। प्रियंका के घर में दो बेडरूम थे। एक उसका था और एक माता पिता का। भाई को एक छोटे से कमरे में जगह दी गई थी और दस साल का बच्चा अपना बड़ा और अच्छा बेडरूम चाहता था। इसलिए उसने अपनी बहन को मिस इंडिया में भेजने की योजना बनाई ताकि वो उसके बेडरूम में रह सके। प्रियंका ने अमेरिकी फिल्मों में काम करने के लिए जो संघर्ष किया वो भी लिखा है। हिंदी फिल्मों की दुनिया से जुड़े प्रसंग भी हैं। दो अन्य पुस्तकों का उल्लेख भी आवश्यक है। एक है संजीव कुमार की आधिकारिक जीवनी, एन एक्टर्स एक्टर।  इसको हनीफ जरीवाला और सुमंत बत्रा ने लिखा है। संजीव कुमार पर कम लिखा गया और ये पुस्तक उस कमी को पूरा करती है। एक और पुस्तक अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है, राज कपूर द मास्टर एट वर्क। ये पुस्तक राहुल रवैल और प्रियंका शर्मा की है। राहुल रवैल लंबे समय तक राज कपूर के सहायक रहे हैं, लिहाजा उन्होंने राज कपूर से जुड़े कई दिलचस्प प्रसंग लिखे हैं, कुछ व्यक्तिगत संसमरणों को भी जगह मिली है। महामारी की आशंका के बीच फिल्मों से जुड़े इन व्यक्तित्वों ने पाठकों के सामने स्तरीय पठनीय सामग्री पेश की है। आनलाइन बुक स्टोर में लोकप्रियता की सूची में इन पुस्तकों की रैकुंक देखकर इस बात का संकेत मिलता है कि पाठकों ने भी इन आत्मकथाओं और जीवनियों को पसंद किया है। 

Monday, December 20, 2021

मंदिरों की राष्ट्र संवर्धन में बड़ी भूमिका


काशी विश्वनाथ धाम के नव्य और भव्य स्वरूप के लोकार्पण के बाद भारतीय समाज और संस्कृति में मंदिरों के स्थान को लेकर भी चर्चा होनी चाहिए। मंदिरों के सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र के ऐतिहासिक स्वरूप पर बात होनी चाहिए। मंदिरों से जुड़ी कलाओं पर भी चर्चा होनी चाहिए। हमारीभारतीय संस्कृति में मंदिरों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। मंदिरों से नृत्य और कला का गहरा जुड़ाव रहा है। मुगल आक्रांताओं ने जब हमारे देश पर हमला किया और तो उनको मंदिरों की सामाजिक और सांस्कृतिक महत्ता का अनुमान हो गया था। ये अकारण नहीं है कि मुगलकाल में मंदिरों पर हमले हुए, मंदिरों को तोड़ा गया। मुगलों ने मंदिरों को तोड़कर सिर्फ हिंदुओं की आस्था को नहीं तोड़ा बल्कि उन्होंने भारतीय समाज के उस केंद्र को नष्ट करने का प्रयास किया जहां लोग संगठित होते थे। मुगलों ने मंदिरों के रूप में स्थापित सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्रों को तोड़कर भारतीय समाज को कमजोर किया। समाज की ताकत पर प्रहार किया। मुगलों के शासनकाल में विदेशों से चित्रकार आदि भारत आए। मुगलों की कला में और उसके पहले के भारतीय कला में एक आधारभूत अंतर था। मुगल कला का केंद्र बिंदु बादशाह का निजी जीवन और निजी पसंद था। भारतीय कला लोक के बीच व्याप्त थी। मंदिर उसके केंद्र हुआ करते थे। जनता की आकांक्षाएं और उसके स्वप्न कलाओं में खुलते और खिलते थे।

मुगलों के पराभव के बाद और अंग्रेजी राज के उदय के समय और कालांतर में उनके शासनकाल में भी मंदिरों का पौराणिक स्वरूप स्थापित नहीं हो सका। मंदिरों पर अंग्रेज शासकों की लगातार नजर रहा करती थी। वहां होने वाली गतिविधियों पर, वहां होनेवाले धन संचय पर भी अंग्रेज नजर रखते थे। इसी काल में मंदिरों को सिर्फ धार्मिक केंद्र के रूप में माने जाने पर जोर दिया जाने लगा। उनके सांस्कृतिक स्वरूप और सामाजिक भूमिका पर पाबंदियां लगाई गईं। अंग्रेजी शासन वाले कालखंड में धर्म से जुड़ी बातों को तोड़ा मरोड़ा गया। आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर धर्म की गलत व्याख्या करके उसको रिलीजन बनाकर आनेवाली पीढ़ियों के मानस में स्थापित कर दिया गया। जब देश स्वाधीन हुआ तो पहले प्रधानमंत्री का वैचारिक झुकाव साम्यवाद की ओर था। सोमनाथ मंदिर पर देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्रीजवाहरलाल नेहरू के बीच ऐतिहासिक मतभेद हुआ था। राजेन्द्र बाबू सोमनाथ मंदिर को सिर्फ धर्म से जोड़कर नहीं देख रहे थे लेकिन साम्यवाद के प्रभाव में नेहरू उसको धार्मिक केंद्र मानते थे। यह भारतीय दृष्टि और विदेशी प्रभाव की दृष्टि की टकराहट भी थी। स्वाधीनता के कुछ वर्षों के बाद संस्कृति और शिक्षा पर साम्यवादियों की पकड़ मजबूत होने लगी थी। इंदिरा गांधी के शासनकाल में साम्यवादियों ने संस्कृति और शिक्षा पर अपनी सत्ता लगभग स्थापित कर ली। धर्म को अफीम मानने वाले साम्यवादियों का मंदिरों के प्रति क्या रुख रहा है ये सार्वजनिक है। साम्यवादियों ने विदेशी कलाओं से लेकर विदेशी नाटककारों के नाटकों को भारत में खूब बढ़ाया। कहना न होगा कि साम्यवादियों के इसी उपेक्षा भाव की वजह से भारतीय कला पर विदेशी कलाओं को प्राथमिकता दी गई। धर्म से दूरी की वजह से मंदिर कलाओं के साधकों को हाशिए पर डालने की कोशिशें हुईं। उनको सांप्रदायिक तक करार दिया गया, क्योंकि साम्यवादी कला को भी धर्म से मुक्त करवाकरध़र्मनिरपेक्ष बनाना चाहते थे। 

पिछले दिनों प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंह से संवाद पर आधारित यतीन्द्र मिश्र की पुस्तक देवप्रिया (वाणी प्रकाशन)पढ़ रहा था। अचानक मेरी नजर एक प्रश्न पर चली गई।यतीन्द्र ने सोनल जी से उनपर सांप्रदायिक होने के लगनेवाले आरोपों के बारे में पूछा। सोनल मानसिंह ने लंबा उत्तर दिया। उसका एक अंश, ‘मैंने जिस विधा में जीवन गुजारा है वो संस्कृति से उपजा है और नृत्य जैसी महान परंपरा का स्थायी अंग है। आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की ज्यादातर नृत्य परंपराएं मंदिर कलाओं के उदाहरण हैं। ये मठ, मंदिरों से जन्मी हैं और उनमें ज्यादातर कार्य व्यवहार देवता के प्रति आभार प्रदर्शन के अर्थ में होता आया है। पुराण, धर्म ग्रंथ, संत साहित्य, भजनावलियों और मंदिरों के महात्म्य का वर्णन ही नृत्य विधा में होता रहा है। यही मैंने जीवनभर किया है। । अब अगर ओडिसी या भरतनाट्यम के नृत्य करने से, गीत-गोविंद की चर्चा या आदर करने से कोई सांप्रदायिक ठहराया जाए तो मैं क्या कर सकती हूं। इस लिहाज से यदि आप या कोई व्यक्ति किसी कला या कलाकार का सरलीकरण करेगा, तब यह देखना मुश्किल हो जाएगा कि क्या क्या सांप्रदायिक हो सकता है? शास्त्रीय संगीत में भी अधिकांश गायन भक्तिपदों का होता है तो क्या सारे गायक सांप्रदायिक हो गए। भारतीय संस्कृति को उजागर करनेवाली कलाओं में खासकर नृत्य में कोई मार्क्सवादी विचार, मेरे देखने में नहीं आया है। आपको कहीं मिले तो ढूंढकर मुझे भी दीजिएगा।‘ 

सोनल मानसिंह के उत्तर के कई आयाम हैं और उसमें उन्होंने कई ऐसी बातें कही हैं जिसपर चर्चा होनी चाहिए। पहली बात तो ये कि भारत की ज्यादातर नृत्य परंपराएं मंदिर कलाओं के उदाहरण हैं। इससे यह बात पुष्ट होती है कि मंदिर भारतीय कलाओं का महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। यहां हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय साहित्य में नटराज यानि शिव सबसे अच्छे नर्तक के रूप में स्थापित हैं। शिव का ये स्वरूप नृत्य कला का आधार भी कहा जाता है। सोनल जी अपने उत्तर का अंत एक प्रश्न से करती हैं और जानना चाहती हैं कि नृत्य में कोई मार्क्सवादी विचार हैं क्या? नृत्य और कला में मार्क्सवादी विचार के बारे में कल्पना करना भी व्यर्थ है। मार्क्सवादियों का तो नृत्य संगीत से ही कोई लेना देना रहा नहीं है। उनके हिसाब से तो ये सब बुर्जुआ से जुड़ी विधाएं हैं। काफी समय तक तो सिनेमा को लेकर भी उनकी यही राय थी।गीत संगीत को लेकर भी। वो कला की विभिन्न विधाओं से चिढ़ते हैं। उसकी उपेक्षा करते हैं। मार्क्सवादियों को लगता है कि हिंदू धर्म या सनातन धर्म नृत्य, गीत, अभिनय और कला की अन्य प्रवृत्तियों की वजह से जीवंत है। आततायियों के आक्रमण और मंदिरों को तोड़े जाने के बावजूद भारतीय धर्म के निर्मल आदर्शों के कारण भारतीय कला बची रही। आज जब एक बार फिर से मंदिरों को सांस्कृतिक और सामाजिक केंद्रों के रूप में स्थापित किया जा रहा है तो मार्क्सवादी असहज हो रहे हैं। उनको लग रहा होगा अगर ये मंदिर फिर से सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र के तौर पर शक्तिशाली हो गए तो धर्म का प्रभाव बढ़ेगा। धर्म का प्रभाव बढ़ेगा तो भारतीय संस्कृति मजबूत होगी। प्रसिद्ध लेखक वासुदेव शरण अग्रवाल ने स्वाधीनता के बाद अपने एक लेख में कहा था, ‘राष्ट्र संवर्धन का सबसे प्रबल कार्य संस्कृति की साधना है। उसके लिए बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करना होगा, हमारे देश की संस्कृति की धारा अति प्राचीन काल से बहती आई है, उसके प्राणवंत तत्त्व को अपनाकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।‘ मंदिरों के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पुनर्स्थापना राष्ट्र संवर्धन का उपक्रम है इसको सिर्फ धार्मिक केंद्र के रूप में देखना गलत है। मंदिरों के प्राचीन वैभव की वापसी के उपक्रम से किसी अन्य मतावलंबियों को कोई खतरा नहीं है।मार्क्सवादी बुद्धिजीवी अपने राजनीतिक आकाओं को प्रसन्न करने के लिए समाज में कई तरह से भ्रम फैलाते हैं। इस भ्रम का परोक्ष लक्ष्य अपनी वैचारिकी से जुड़े राजनीतिक दलोंको फायदा पहुंचाना होता है। आगामी महीनों में कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं । मार्क्सवादियों को लगता है कि मंदिर के नाम पर वो समाज में ध्रुवीकरण करने में सफल हो जाएंगे और चुनाव में उनको फायदा मिल जाएगा। ऐसी ही परिस्थतियों को ध्यान में रखकर वासुदेव शरण अग्रवाल ने बुद्धिपूर्वक प्रयत्न की सलाह दी थी।


Saturday, December 11, 2021

स्त्री विमर्श का समग्र स्वरूप


इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में एक बार फिर से स्त्री विमर्श चर्चा के केंद्र में है। एक लेखिका को उठाने और दूसरे को गिराने के लिए स्त्री विमर्श के विविध रूपों की आड़ ली जा रही है।  रचना से अधिक व्यक्तिगत संबंधों पर बातें हो रही हैं। इसमें युवा लेखिकाएं भी शामिल हैं तो बुजुर्ग लेखिका भी मनोयोगपूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की होड़ में लगी दिखाई दे रही हैं। जो गंभीरता के साथ स्त्री विमर्श को समझती और बरतती हैं वो चुप हैं। राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य में जिस तरह के स्त्री विमर्श की नींव रखी थी उसको ही धुरी बनाकर कुछ लेखिकाएं तलवारबाजी करती रहती हैं। किसी का निधन हो तब, कोई विचार गोष्ठी हो तब, कोई समारोह हो तब स्त्री को लेकर उसी तरह का विमर्श किया जाता है जैसा राजेन्द्र यादव करते थे या करने के लिए अपने खेमे की लेखिकाओं को उकसाते रहते थे। राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य के स्त्री विमर्श को देह विमर्श के वृत्त में समेट दिया था। उस वृत्त की परिधि को क्रांतिवीर लेखिकाएं अब भी नहीं तोड़ पाई हैं। बल्कि अब तो स्त्री विमर्श के उस वृत्त के अंदर अज्ञान का भी प्रवेश हो गया है। ऐसी राय बनने के पीछे एक दो नहीं कई साहित्यिक गोष्ठियों का अनुभव है। कई लेखिकाएं वामपंथी विचार से अपनी करीबी प्रदर्शित करती रहती हैं। इस प्रदर्शन के चक्कर में वो भारतीय पौराणिक ग्रंथों के हवाले से स्त्रियों की चर्चा करती हैं।इस तरह की चर्चाओं में पौराणिक काल में भारतीय स्त्रियों की स्थिति पर आलोचनात्मक टिप्पणियां करती हैं। जब भी अवसर मिलता है तो गोष्ठियों में ऋगवेद से लेकर रामचरितमानस तक को उद्धृत कर डालती हैं। पौराणिक ग्रंथों से बगैर संदर्भ के एक दो पंक्तियां उठा लेती हैं। उन पंक्तियों के आधार पर उस समय के पूरे भारतीय समाज को स्त्री विरोधी और दकियानूसी साबित कर डालती हैं। 

हाल ही में एक गोष्ठी में एक लेखिका ने बेहद क्रांतिकारी अंदाज में टेबल पर मुक्का मारते हुए ये साबित करने की कोशिश की कि ऋगवेद में स्त्रियों के बारे में आपत्तिजनक बातें हैं। इस सबंध में उन्होंने ऋगवेद के पुरुरवा- उर्वशी संवाद से एक पंक्ति बताई। उसमें उर्वशी कहती है कि ‘स्त्रियों से स्थायी मैत्री होना संभव नहीं है। स्त्रियों का ह्रदय भेड़िए के समान होता है।‘ ये बताते हुए उन्होंने कई बार  मेज पर मुक्का मारा। जब वो बोल रही थीं तो मुझे भारतीय जनता पार्टी के नेता स्वर्गीय अरुण जेटली का राज्यसभा में दिया एक भाषण याद आ रहा था। जेटली ने कहा था, इफ यू हैव द फैक्ट, बैंग द फैक्ट, इफ यू डू नाट हैव द फैक्ट, बैंग द टेबल (अगर आपके पास तथ्य हैं तो तथ्य पर जोर दो और अगर तथ्य नहीं है तो टेबल पीटो)।  ऋगवेद के आधार पर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति पर बोलनेवाली लेखिका के पास तथ्य नहीं था लिहाजा वो टेबल पर मुक्का मारकर अपने कहे को प्रभावी बनाना चाह रही थीं। दरअसल ये वामपंथियों की पुरानी प्रविधि है कि भारतीयता और सनातन धर्म को बदनाम करो। इसके लिए वो पौराणिक ग्रंथों से संदर्भों के बिना पंक्तियां उद्धृत करके भ्रम का वातावरण बनाते रहे हैं। यही काम तुलसीदास के साथ किया गया, यही काम वेद और पुरणों के अलावा स्मृतियों के साथ भी किया। ऋगवेद में जिस पुरुरवा-उर्वशी संवाद की उपरोक्त बातें कही गई उसका प्रसंग भी जानना समझना होगा। प्रसंग ये है कि जब उर्वशी, पुरुरवा से पीछा छुड़ाना चाहती है तो वो स्वयं ही स्त्रियों के स्वभाव की निंदा करती है। उसको लगता है कि ऐसा करने से उसको लाभ होगा। बगैर इस संदर्भ को समझे और समग्रता में श्रोताओं के सामने रखे क्रांतिकारी लेखिकाएं यहां तक कह देती हैं कि वैदिक काल में स्त्रियों की तुलना भेड़िए से की जाती थी, जो आपत्तिजनक है। इसी तरह स्मरण आता है दिल्ली की एक गोष्ठी में वामपंथी लेखिका ने राम की इस वजह से आलोचना की थी कि उन्होंने सीता को गर्भवती होने के बावजूद घर से निकाल दिया था। जब मैंने उनसे पूछा था कि ऐसा कहां उल्लिखित है तो उन्होंने बहुत ताव के साथ मुझे श्रीरामचरितमानस पढ़ने की सलाह दी थी। उस वक्त उनको बता नहीं पाया था कि श्रीरामचरितमानस श्रीराम के राज्याभिषेक के साथ खत्म हो जाता है। उसमें ये प्रसंग है ही नहीं।     

वेदों को बिना पढ़े, उनको बिना समझे, उनमें वर्णित पंक्तियों को संदर्भ से काट कर किसी निर्णय पर पहुंचनेवालों को ये देखना चाहिए कि वेदों में महिलाओं को कितना उच्च स्थान दिया गया है। ऋगवेद में तो कन्या, पत्नी और माता के रूप में नारी का समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। विश्ववारा, घोषा, अपाला, लोपामुद्रा जैसी तेजस्वी नारियों का वर्णन ऋगवेद में मिलता है। ऋगवेद में विवाह योग्य कन्या की तुलना सूर्य के प्रकाश से की गई है, जो कि अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि लड़कियों का कितना सम्मान था । उनको कितने उच्च स्थान पर रखा जाता था। विवाह के बाद जब लड़की ससुराल आती थी तो उसको गृह स्वामिनी का अधिकार दिया जाता था। उसका अधिकार सिर्फ पति पर नहीं बल्कि घर से जुड़ी हर चीज पर होता था। वह सभी धार्मिक कार्यों में पति के साथ बराबरी से भाग लेती थी। उस काल में भी पुरुष का एक विवाह आदर्श माना जाता था और परस्त्री गमन को पाप समझा जाता था। माता का स्थान समाज में बेहद प्रतिष्ठित था। देवताओं की जननी के तौर पर पृथ्वी को रखा गया है और पृथ्वी को माता कहा गया है। पृथ्वी माता की उदारता और सहिष्णुता से जुड़े प्रसंग पौराणिक ग्रंथों में बहुतायत में मिलते हैं। माता रूपी इस प्रतीक को स्त्री विमर्श की क्रांतिकारी झंडाबरदार समझ पाएंगी या समझकर भी न समझने का स्वांग करेंगी यह कहना कठिन है। 

भारतीय समाज में सनातन काल से स्त्रियों का बहुत ही श्रेष्ठ स्थान रहा है और वो पुरुषों के साथ बराबरी का अधिकार रखती थीं। जब हमारे देश पर विदेशी आक्रांताओं का आक्रमण हुआ तो उन्होंने न सिर्फ भारत की भौगोलिक भूमि पर कब्जा जमाया बल्कि संस्कृति और समाज को प्रभावित किया। विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में या उनके भय का असर ये हुआ कि महिलाएं पर्दा करने लगीं, शिक्षा से दूर हो गईं, पुरुषों से बराबरी का अधिकार खत्म सा होने लगा। मुगलों के शासनकाल में भारत की महिलाओं को उनके अधिकार से वंचित किया जाने लगा। अंग्रेजों के काल में भी ये जारी रहा। ऐसे कई उदाहरण हैं कि जब किसी राजघराने में पुरुष वारिस नहीं होता था तो अंग्रेज उस राज पर कब्जा कर लेते थे। भारतीय समाज में महिलाओं को गैरबराबरी का दर्जा आक्रांताओं के काल में ही आरंभ होकर स्थापित होता है। स्त्री विमर्श का झंडा उठानेवाली अधिकतर लेखिकाएं इस बात का न तो उल्लेख करती हैं और न ही इसको रेखांकित करती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री विमर्श पर जब भी बात हो तो कथित क्रांतिकारिता के साथ साथ अपनी विरासत और परंपराओं पर भी बात हो। उन अधिकारों की भी चर्चा हो जो हमारे देश की नारियों को आक्रांताओं के भारत आगमन के पूर्व मिला हुआ था। अगर ऐसा होता है तो भारतीय स्त्री विमर्श पश्चिम के स्त्री विमर्श से अलग नजर आएगा। देह विमर्श के वृत्त से बाहर निकलकर स्त्रियों के मूल अधिकारों की ओर समाज का ध्यान आकर्षित हो पाएगा। वामपंथी या वामपंथी दिखने की कोशिश में लगी लेखिकाओं को अब सत्य का संधान करना चाहिए ताकि स्त्री विमर्श का एक समग्र रूप समाज के सामने आ पाए। 


Saturday, December 4, 2021

ललित कला अकादमी में विद्रोह


भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक स्वयायत्त संस्था है ललित कला अकादमी। इस संस्था का शुभारंभ 5 अगस्त 1954 को उस समय के शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद ने किया था। इसका उद्देश्य चित्रकला, मूर्तिकला आदि के क्षेत्र में अध्ययन और शोध को बढ़ावा देना है। इसके अलावा क्षेत्रीय कला और कलाकारों के बीच संवाद का मंच प्रदान करना भी एक उद्देश्य है। इस वक्त इस संस्था के प्रोटेम (अस्थायी) अध्यक्ष उत्तम पचारणे हैं। इनका तीन वर्ष का कार्यकाल खत्म होने के बाद इनको इस वर्ष जून में छह महीने के लिए अस्थाई अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। ललिता कला अकादमी के संविधान में छह महीने के अस्थाई अध्यक्ष का प्रावधान है ताकि वो नए अध्यक्ष के चयन की औपचारिकताएं पूरी करवा सकें। ललित कला अकादमी पिछले कई वर्षों से अपने उद्देश्यों से भटक गई प्रतीत होती है। पिछले कई वर्षों से अकादमी लगातार विवादों में रही है। अकादमी से एम एफ हुसैन की पेंटिंग गायब होने की घटना सुर्खियों में रही थीं। अकादमी से मूल्यवान पेंटिंग्स के गुम होने को लेकर आरोप प्रत्यारोप का लंबा सिलसिला चला। पूर्व के चेयरमैन पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे। इस संस्था के अध्यक्ष रहे अशोक वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान अनियमितताओं को लेकर सीबीआई जांच चल रही है। विवादों की इस शृंखला में इस संस्था का प्रशासन केंद्र सरकार ने अपने हाथ में भी लिया था। कुछ समय तक केंद्र से नियुक्त प्रशासक ने इसको चलाया। उस वक्त भी विवाद थम नहीं सका। 

ताजा विवाद अस्थाई अध्यक्ष के खिलाफ कार्यकारिणी के सदस्यों के विद्रोह का है। पिछले महीने की 25 तारीख को उपाध्यक्ष नंदलाल ठाकुर और कार्यकारिणी के सदस्यों ने संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव को एक पत्र लिखकर अध्यक्ष के असंवैधानिक कामों के बारे में उनका ध्यान आकृष्ट किया। अपने पत्र में इन लोगों में स्पष्ट रूप से अकादमी के अध्यक्ष उत्तम पचारणे पर ललित कला अकादमी के संविधान के हिसाब से काम नहीं करने का आरोप लगाया है। उस पत्र में आरोप है कि उत्तम पचारणे कार्यकारिणी के निर्णयों को बदलकर कार्यक्रम आयोजित करवा रहे हैं। कार्यकारिणी ने जिन कार्यक्रमों को तय किया है उसको नहीं करवा कर दूसरे कार्यक्रम करवा रहे हैं। उपाध्यक्ष और कार्यकारिणी के सदस्यों ने अपने पत्र में मंत्रालय को लिखा है कि उत्तम पाचरणे ने दिल्ली में आयोजित होनेवाले प्रिंट बिनाले को बगैर कार्यकारिणी की मंजूरी के मुंबई में कराने का आदेश जारी कर दिया है। अकादमी का संविधान उनको ऐसा करने की अनुमति नहीं देता है।  इसके अलावा स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर मुंबई में किए जानेवाले आर्ट कैंप का नाम बदलकर अनसंग हीरो-छत्रपति शिवाजी के नाम से कराने का फैसला किया है। कार्यकारिणी के सदस्यों ने छत्रपति शिवाजी को अनसंग हीरो कहे जाने का विरोध किया लेकिन अस्थाई अध्यक्ष सुनने को राजी नहीं थे।अस्थाई अध्यक्ष ने बैठक में घोषणा की कि वो इसको मुंबई के जे जे स्कूल आफ आर्ट में अपनी जिम्मेदारी पर आयोजित करवा रहे हैं। यह भी अकादमी के संविधान के खिलाफ निर्णय है। 

इस पत्र में ये आरोप भी लगाया गया है अस्थायी अध्यक्ष कार्यक्रमों के आयोजन में मनमानी करते हैं और कार्यकारिणी को विश्वास में नहीं लेते हैं। ललित कला अकादमी के क्रियाकलापों को लेकर मंत्रालय जांच करेगी या नहीं ये भविष्य में पता चलेगा। अगर जांच होती भी है तो संभव है कि जांच  आरंभ होने तक अस्थायी अध्यक्ष का छह महीने का कार्यकाल समाप्त हो जाए। उनका छह महीने का कार्यकाल इस महीने ही पूरा हो रहा है। जिस काम, नए अध्यक्ष के चुनाव, के लिए अस्थायी अध्यक्ष की नियुक्ति की गई थी उसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई है। सर्च कमेटी बनी या नहीं इस बारे में भी अकादमी की बेवसाइट पर कोई जानकारी नहीं है। अगर दिसंबर में अस्थाई अध्यक्ष का कार्यकाल बगैर नए अध्यक्ष के चयन के खत्म हो जाता है तो क्या एक बार फिर से अस्थाई अध्यक्ष की नियुक्ति की जाएगी। क्या संस्कृति मंत्रालय फिर से उत्तम पचारणे के नाम की सिफारिश राष्ट्रपति से करेगी और राष्ट्रपति उसको मान लेंगे। अगर ऐसा होता है तो यह नियमों की खामियों की आड़ लेना होगा। तब सवाल ये भी उठेगा कि क्या उत्तम पचारणे तबतक ललित कला अकादमी के अस्थाई अध्यक्ष बने रहेंगे जबतक कि नए अध्यक्ष का चयन नहीं हो जाता है। नियमों की खामियों की आड़ लेकर ऐसा होता है तो फिर अस्थाई अध्यक्ष नए अध्यक्ष का चयन क्यों होने देगा। इसके पहले जब उत्तम पचारणे नियमित अध्यक्ष थे तब भी उन्होंने अपना कार्यकाल तीन साल से पांच साल करने का प्रस्ताव मंत्रालय को भेजा था जिसपर संस्कृति मंत्रालय की मुहर नहीं लग पाई थी। तब उत्तम पचारणे को पद छोड़ना पड़ा था लेकिन कुछ ही दिन बाद संस्कृति मंत्रालय ने अस्थाई अध्यक्ष के तौर पर उत्तम पचारणे के नाम का अनुमोदन कर राष्ट्रपति को भेज दिया था। 

दरअसल अगर देखा जाए तो उत्तम पचारणे की नियुक्ति के समय से ही विवाद आरंभ हो गया था। इनकी नियुक्ति में तय प्रक्रिया के पालन नहीं होने के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में एक केस चल रहा है। पर लंबी कानूनी प्रक्रिया की वजह से उसपर निर्णय कब आएगा इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। ललित कला अकादमी के क्रियाकलापों को लेकर अन्य कई केस भी अदालत में लंबित हैं। करदाताओं के पैसे का जो सदुपयोग कला के विकास में होना चाहिए वो कानूनी पचड़ों में खर्च हो रहा है। नियुक्तियों में भी अनियमितताओं के आरोप लग रहे हैं। ललित कला अकादमी में काम रही एक महिला को बिना किसी आरोप पत्र के सस्पेंड कर दिया गया, वो केस भी अदालत में लंबित है। ललित कला अकादमी को नजदीक से जानने वालों का कहना है कि अकादमी जितना धन मुकदमों की पैरवी में खर्च कर रही है उसमें तो कई कार्यक्रम या कार्यशाला आयोजित किए जा सकते हैं। 

ललित कला अकादमी में विवादों की शुरुआत एक तरह से नौकरशाह और कवि अशोक वाजपेयी के कार्यकाल से हुई। उन्होंने अपने कार्यकाल में कला के विकास के नाम पर कई ऐसे कार्यक्रम आरंभ किए जिसमें उन्होंने अपने मित्रों को बढ़ावा दिया। उनपर विदेशी कला प्रर्दर्शनियों में हिस्सा लेने को लेकर भी विवाद है। नियुक्तियों और गैलरी आवंटन को लेकर भी विवाद उठे थे। उसके बाद से तो जो भी इस पद पर आया उसमें से अधिकतर ने मनमानी की। ललित कला अकादमी का संविधान है. जिसके हिसाब से इसके अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारियों को काम करना होता है। दिक्कत तब होती है जब इस संविधान के हिसाब से काम नहीं होता है। उत्तम पचारणे का कार्यकाल खत्म होने के पहले ही संस्कृति मंत्रालय ने नए अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए सक्रियता क्यों नहीं दिखाई। क्यों इस बात का इंतजार करते रहे कि अस्थाई अध्यक्ष नियुक्त करने की नौबत आए। संस्कृति मंत्रालय के नौकरशाहों ने इस मंत्रालय से जुड़ी संस्थाओं का बेड़ा गर्क करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अगर इन संस्थाओं में सही समय पर नियमित नियुक्तियां हों जाएंगी तो अफसरों को मनमानी का अवसर नहीं मिलेगा।  रिटायरमेंट के बाद राघवेन्द्र सिंह को सालभर के लिए संस्कृति सचिव बनाया गया था। उनसे उम्मीद थी कि वो कुछ बेहतर करेंगे लेकिन उन्होंने अपने सालभर के कार्यकाल में इन स्वायत्त संस्थाओं में कोई नियुक्ति नहीं की या नहीं होने दी। अगर इन संस्थाओं को विवादों से दूर रखना है तो इसके लिए स्पष्ट नियम बनाने होंगे। मंत्रियों को यह देखना होगा कि सही समय पर नियुक्तियां हों। संसद के चालू सत्र में राज्यसभा में सोनल मानसिंह ने संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं के शीर्ष पदों के खाली रहने का विषय उठाया है, देखते हैं उसका क्या असर होता है।