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Saturday, December 25, 2021

आत्मकथा और जीवनियों का वर्ष


वर्ष 2021 बीतने को आया। कुछ दिनों बाद ये वर्ष इतिहास हो जाएगा। इस वर्ष का उत्तरार्ध कोरोना महामारी के भय में गुजरा। चारो ओर कोरोना संक्रमण की बातें हो रही थीं। संक्रमण के फैलने की आशंका से जो भय का वातावरण बना था उसने सिनेमा जगत को भी प्रभावित किया। सिनेमा हाल लंबे समय तक बंद रहे, नई फिल्मों के निर्माण पर असर पड़ा, फिल्म जगत के सामने ओटीटी (ओवर द टाप) प्लेटफार्म चुनौती बनकर खड़े हो गए। सिनेमा हाल की व्यवस्था पर ऐसा ही बड़ा असर तब पड़ा था जब 1980 के बाद के वर्षों में देश में वीसीआर और कैसेट पर फिल्में देखने का चलन बढ़ा था। 2020 में फिल्म जगत का जो परिदृश्य बदलने लगा था वो बदलाव 2021 में और गाढ़ा हुआ। वीसीआर के दौर में तकनीक की वजह से सिनेमा दर्शकों का स्वभाव बदला था और अब भय की वजह से फिल्में देखने का माध्यम बदला। सिनेमा से जुड़े लोग अब भी दर्शकों के सिनेमा हाल में वापसी को लेकर आशंकित हैं। फिल्म निर्माण, वितरण और उसके अर्थशास्त्र को लेकर तमाम तरह की आशंकाओं के बीच वर्ष 2021 में फिल्म से जुड़ी एक विधा में उम्मीद की किरण नजर आई।  वर्ष 2021 में फिल्मों से जुड़े लोगों की आत्मकथाएं और जीवनियां प्रकाशित हुई। इनमें से कई पुस्तकें काफी चर्चित रही और बेहद लोकप्रिय भी हुईं। आत्मकथा या जीवनी या संस्मरण ऐसी विधा है जिसके ज्यादातर लेखक अपने को कसौटी पर नहीं कसते या अपने से जुड़े अप्रिय प्रसंगों को छोड़ देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि फिल्मी आत्मकथाएं या जीवनियां उबाऊ और बोझिल हो जाती हैं। 2021 में इस विधा की कई पुस्तकें ऐसी आईं जिनमें बहुत हद तक लेखक ने खुद को कसौटी पर कसा है और अपने से जुड़े अप्रिय प्रसंगों को भी लिखा है। ज्यादातर लेखकों ने ईमानदारी बरती। 

सबसे पहले चर्चा करना चाहूंगा कबीर बेदी की आत्मकथा स्टोरीज आई मस्ट टेल, द इमोशनल लाइफ आफ एन एक्टर की। कबीर बेदी ने इसमें काफी हद तक ईमानदारी से अपनी जिंदगी से जुड़ी बातें लिखी हैं। कबीर बेदी अपने बचपन की यादों को भी इस पुस्तक में लेकर आते हैं। 1970 के बाद के वर्षों में मुंबई में फिल्मों से जुड़े कई युवाओं का एक ‘बोहेमियन जूहू गैंग’ होता था, जिसमें कबीर के अलावा शेखर कपूर, डैनी, महेश भट्ट, परवीन बाबी और शबाना आजमी आदि हुआ करते थे। कबीर बेदी ने उन वर्षों को रोचक अंदाज में याद किया है। इस पुस्तक में अपने कई संबंधों के बारे में भी बेबाकी से लिखा है। अपने पहले प्यार और पत्नी प्रतिमा बेदी के साथ साथ परवीन बाबी से अपने अफेयर पर भी लिखा है। हलांकि प्रतिमा बेदी ने अपनी पुस्तक टाइमपास, द मेमोरीज आफ प्रतिमा बेदी में इन प्रसंगों को अलग तरीके से लिखा है। कबीर ने परवीन बाबी की मानसिक स्थिति पर भी तटस्थ होकर लिखा है। इसमें उन्होंने परवीन बाबी के पत्रों का उल्लेख भी किया है। कबीर बेदी जब अपने युवा पुत्र की आत्महत्या के बारे में लिखते हैं तो पाठक उनकी संवेदना के साथ खुद को एकाकार कर लेता है। अपनी पीड़ा और संत्रास को उन्होंने कोमल गद्य के सहारे अपनी पुस्तक में आगे बढ़ाया है। कबीर बेदी के माता पिता स्वाधीनता सेनानी थी और उनका चिंतन गहरा था। अपनी इस पुस्तक में कबीर बेदी ने कई जगहों पर अपने अभिभावकों की सीख को भी उद्धृत किया है। बेदी धर्म को लेकर भी अपनी राय पाटकों के सामने रखते हैं। एक अध्याय में तो गुरू नानक, कबीर और सूफी संतों के हवाले से कई दार्शनिक बातें भी कहते हैं। इसमें वो गीता और बुद्ध के ज्ञान को भी अपने तरीके से पाठकों के सामने रखते हैं। अगर समग्रता में देखें तो कबीर बेदी की ये पुस्तक फिल्म से जुड़े किस्से तो बताती है लेकिन साथ ही इसमें एक पूरा कालखंड भी जीवंत होता है।   

फिल्मों से जुड़ी एक और शख्सियत नीना गुप्ता की आत्मकथा ‘सच कहूं तो’ भी इस वर्ष प्रकाशित हुई। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पुस्तक अंग्रेजी में प्रकाशित हो और उसका शीर्षक हिंदी के शब्दों का हो। नीना गुप्ता ने ये किया। नीना गुप्ता की आत्मकथा से पाठकों को ये उम्मीद रही होगी कि इसमें उनकी और विवियन रिचर्ड्स की लव स्टोरी का किस्सा  होगा। इस पुस्तक में नीना ने रिचर्ड्स से अपने संबंधों के बारे में नहीं बताया लेकिन उनको पाठकों की अपेक्षा का अंदाज रहा होगा। उन्होंने इस बारे में लिखा कि वो उन स्थितियों को अपने और रिचर्ड्स की बेटी मसाबा गुप्ता की खातिर दोहराना नहीं चाहती हैं। वो नहीं चाहती हैं कि एक बार फिर से उन स्थितियों को लेकर उनकी बेटी के सामने अप्रिय स्थिति उत्पन्न हो। पर उन्होंने मातृत्व के अपने अनुभवों को और एक अनव्याही मां को लेकर समाज की प्रतिक्रियाओं के बारे में लिखा है। अपनी जिंदगी के उतार चढ़ाव को भी उन्होंने स्वीकार किया है। इस पुस्तक में एक बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि नीना ने अपने आसपास के लोगों का नाम लेकर उनको शर्मिंदा नहीं किया। संकेतों में बात करके निकल गई हैं। जब नीना गुप्ता अपनी फिल्म बाजार सीताराम बना रही थीं तो वो उन्होंने श्याम बेनेगल से बात की थी। बेनेगल ने उनको सलाह दी थी कि हमेशा इस बात को याद रखना कि किसी भी कहानी का एक निश्चित आरंभ हो, उसका सुगठित मध्य भाग हो और उसका तार्किक अंत हो। अगर किसी कहानी में ये तीनों चीजें हैं तो वो कहानी कभी पिट नहीं सकती। ये सीख उनके जीवन में बहुत काम आई। नीना गुप्ता ने इसमें अपने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दिनों को बेहद संजीदगी से याद किया है। इस पुस्तक में भी छिपाया कम बताया ज्यादा गया है। 

तीसरी पुस्तक जिसकी चर्चा की जानी चाहिए वो है अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा जोनस के संस्मरणों की किताब, अनफिनिश्ड । इस पुस्तक को लेकर इंटरनेट मीडिया पर जबरदस्त उत्सुकता का माहौल बना था। आनलाइन बुक स्टोर में अपने प्रकाशन के कई महीनों बाद तक ये पुस्तक लोकप्रियता के शीर्ष पर बनी रही थी। इस पुस्तक की शुरुआत उसके दस साल के भाई के अपनी बहन को मिस इंडिया प्रतियोगिता में भेजने के प्रसंग से होती है। प्रियंका के घर में दो बेडरूम थे। एक उसका था और एक माता पिता का। भाई को एक छोटे से कमरे में जगह दी गई थी और दस साल का बच्चा अपना बड़ा और अच्छा बेडरूम चाहता था। इसलिए उसने अपनी बहन को मिस इंडिया में भेजने की योजना बनाई ताकि वो उसके बेडरूम में रह सके। प्रियंका ने अमेरिकी फिल्मों में काम करने के लिए जो संघर्ष किया वो भी लिखा है। हिंदी फिल्मों की दुनिया से जुड़े प्रसंग भी हैं। दो अन्य पुस्तकों का उल्लेख भी आवश्यक है। एक है संजीव कुमार की आधिकारिक जीवनी, एन एक्टर्स एक्टर।  इसको हनीफ जरीवाला और सुमंत बत्रा ने लिखा है। संजीव कुमार पर कम लिखा गया और ये पुस्तक उस कमी को पूरा करती है। एक और पुस्तक अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है, राज कपूर द मास्टर एट वर्क। ये पुस्तक राहुल रवैल और प्रियंका शर्मा की है। राहुल रवैल लंबे समय तक राज कपूर के सहायक रहे हैं, लिहाजा उन्होंने राज कपूर से जुड़े कई दिलचस्प प्रसंग लिखे हैं, कुछ व्यक्तिगत संसमरणों को भी जगह मिली है। महामारी की आशंका के बीच फिल्मों से जुड़े इन व्यक्तित्वों ने पाठकों के सामने स्तरीय पठनीय सामग्री पेश की है। आनलाइन बुक स्टोर में लोकप्रियता की सूची में इन पुस्तकों की रैकुंक देखकर इस बात का संकेत मिलता है कि पाठकों ने भी इन आत्मकथाओं और जीवनियों को पसंद किया है। 

Monday, December 20, 2021

मंदिरों की राष्ट्र संवर्धन में बड़ी भूमिका


काशी विश्वनाथ धाम के नव्य और भव्य स्वरूप के लोकार्पण के बाद भारतीय समाज और संस्कृति में मंदिरों के स्थान को लेकर भी चर्चा होनी चाहिए। मंदिरों के सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र के ऐतिहासिक स्वरूप पर बात होनी चाहिए। मंदिरों से जुड़ी कलाओं पर भी चर्चा होनी चाहिए। हमारीभारतीय संस्कृति में मंदिरों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। मंदिरों से नृत्य और कला का गहरा जुड़ाव रहा है। मुगल आक्रांताओं ने जब हमारे देश पर हमला किया और तो उनको मंदिरों की सामाजिक और सांस्कृतिक महत्ता का अनुमान हो गया था। ये अकारण नहीं है कि मुगलकाल में मंदिरों पर हमले हुए, मंदिरों को तोड़ा गया। मुगलों ने मंदिरों को तोड़कर सिर्फ हिंदुओं की आस्था को नहीं तोड़ा बल्कि उन्होंने भारतीय समाज के उस केंद्र को नष्ट करने का प्रयास किया जहां लोग संगठित होते थे। मुगलों ने मंदिरों के रूप में स्थापित सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्रों को तोड़कर भारतीय समाज को कमजोर किया। समाज की ताकत पर प्रहार किया। मुगलों के शासनकाल में विदेशों से चित्रकार आदि भारत आए। मुगलों की कला में और उसके पहले के भारतीय कला में एक आधारभूत अंतर था। मुगल कला का केंद्र बिंदु बादशाह का निजी जीवन और निजी पसंद था। भारतीय कला लोक के बीच व्याप्त थी। मंदिर उसके केंद्र हुआ करते थे। जनता की आकांक्षाएं और उसके स्वप्न कलाओं में खुलते और खिलते थे।

मुगलों के पराभव के बाद और अंग्रेजी राज के उदय के समय और कालांतर में उनके शासनकाल में भी मंदिरों का पौराणिक स्वरूप स्थापित नहीं हो सका। मंदिरों पर अंग्रेज शासकों की लगातार नजर रहा करती थी। वहां होने वाली गतिविधियों पर, वहां होनेवाले धन संचय पर भी अंग्रेज नजर रखते थे। इसी काल में मंदिरों को सिर्फ धार्मिक केंद्र के रूप में माने जाने पर जोर दिया जाने लगा। उनके सांस्कृतिक स्वरूप और सामाजिक भूमिका पर पाबंदियां लगाई गईं। अंग्रेजी शासन वाले कालखंड में धर्म से जुड़ी बातों को तोड़ा मरोड़ा गया। आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर धर्म की गलत व्याख्या करके उसको रिलीजन बनाकर आनेवाली पीढ़ियों के मानस में स्थापित कर दिया गया। जब देश स्वाधीन हुआ तो पहले प्रधानमंत्री का वैचारिक झुकाव साम्यवाद की ओर था। सोमनाथ मंदिर पर देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्रीजवाहरलाल नेहरू के बीच ऐतिहासिक मतभेद हुआ था। राजेन्द्र बाबू सोमनाथ मंदिर को सिर्फ धर्म से जोड़कर नहीं देख रहे थे लेकिन साम्यवाद के प्रभाव में नेहरू उसको धार्मिक केंद्र मानते थे। यह भारतीय दृष्टि और विदेशी प्रभाव की दृष्टि की टकराहट भी थी। स्वाधीनता के कुछ वर्षों के बाद संस्कृति और शिक्षा पर साम्यवादियों की पकड़ मजबूत होने लगी थी। इंदिरा गांधी के शासनकाल में साम्यवादियों ने संस्कृति और शिक्षा पर अपनी सत्ता लगभग स्थापित कर ली। धर्म को अफीम मानने वाले साम्यवादियों का मंदिरों के प्रति क्या रुख रहा है ये सार्वजनिक है। साम्यवादियों ने विदेशी कलाओं से लेकर विदेशी नाटककारों के नाटकों को भारत में खूब बढ़ाया। कहना न होगा कि साम्यवादियों के इसी उपेक्षा भाव की वजह से भारतीय कला पर विदेशी कलाओं को प्राथमिकता दी गई। धर्म से दूरी की वजह से मंदिर कलाओं के साधकों को हाशिए पर डालने की कोशिशें हुईं। उनको सांप्रदायिक तक करार दिया गया, क्योंकि साम्यवादी कला को भी धर्म से मुक्त करवाकरध़र्मनिरपेक्ष बनाना चाहते थे। 

पिछले दिनों प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंह से संवाद पर आधारित यतीन्द्र मिश्र की पुस्तक देवप्रिया (वाणी प्रकाशन)पढ़ रहा था। अचानक मेरी नजर एक प्रश्न पर चली गई।यतीन्द्र ने सोनल जी से उनपर सांप्रदायिक होने के लगनेवाले आरोपों के बारे में पूछा। सोनल मानसिंह ने लंबा उत्तर दिया। उसका एक अंश, ‘मैंने जिस विधा में जीवन गुजारा है वो संस्कृति से उपजा है और नृत्य जैसी महान परंपरा का स्थायी अंग है। आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की ज्यादातर नृत्य परंपराएं मंदिर कलाओं के उदाहरण हैं। ये मठ, मंदिरों से जन्मी हैं और उनमें ज्यादातर कार्य व्यवहार देवता के प्रति आभार प्रदर्शन के अर्थ में होता आया है। पुराण, धर्म ग्रंथ, संत साहित्य, भजनावलियों और मंदिरों के महात्म्य का वर्णन ही नृत्य विधा में होता रहा है। यही मैंने जीवनभर किया है। । अब अगर ओडिसी या भरतनाट्यम के नृत्य करने से, गीत-गोविंद की चर्चा या आदर करने से कोई सांप्रदायिक ठहराया जाए तो मैं क्या कर सकती हूं। इस लिहाज से यदि आप या कोई व्यक्ति किसी कला या कलाकार का सरलीकरण करेगा, तब यह देखना मुश्किल हो जाएगा कि क्या क्या सांप्रदायिक हो सकता है? शास्त्रीय संगीत में भी अधिकांश गायन भक्तिपदों का होता है तो क्या सारे गायक सांप्रदायिक हो गए। भारतीय संस्कृति को उजागर करनेवाली कलाओं में खासकर नृत्य में कोई मार्क्सवादी विचार, मेरे देखने में नहीं आया है। आपको कहीं मिले तो ढूंढकर मुझे भी दीजिएगा।‘ 

सोनल मानसिंह के उत्तर के कई आयाम हैं और उसमें उन्होंने कई ऐसी बातें कही हैं जिसपर चर्चा होनी चाहिए। पहली बात तो ये कि भारत की ज्यादातर नृत्य परंपराएं मंदिर कलाओं के उदाहरण हैं। इससे यह बात पुष्ट होती है कि मंदिर भारतीय कलाओं का महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। यहां हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय साहित्य में नटराज यानि शिव सबसे अच्छे नर्तक के रूप में स्थापित हैं। शिव का ये स्वरूप नृत्य कला का आधार भी कहा जाता है। सोनल जी अपने उत्तर का अंत एक प्रश्न से करती हैं और जानना चाहती हैं कि नृत्य में कोई मार्क्सवादी विचार हैं क्या? नृत्य और कला में मार्क्सवादी विचार के बारे में कल्पना करना भी व्यर्थ है। मार्क्सवादियों का तो नृत्य संगीत से ही कोई लेना देना रहा नहीं है। उनके हिसाब से तो ये सब बुर्जुआ से जुड़ी विधाएं हैं। काफी समय तक तो सिनेमा को लेकर भी उनकी यही राय थी।गीत संगीत को लेकर भी। वो कला की विभिन्न विधाओं से चिढ़ते हैं। उसकी उपेक्षा करते हैं। मार्क्सवादियों को लगता है कि हिंदू धर्म या सनातन धर्म नृत्य, गीत, अभिनय और कला की अन्य प्रवृत्तियों की वजह से जीवंत है। आततायियों के आक्रमण और मंदिरों को तोड़े जाने के बावजूद भारतीय धर्म के निर्मल आदर्शों के कारण भारतीय कला बची रही। आज जब एक बार फिर से मंदिरों को सांस्कृतिक और सामाजिक केंद्रों के रूप में स्थापित किया जा रहा है तो मार्क्सवादी असहज हो रहे हैं। उनको लग रहा होगा अगर ये मंदिर फिर से सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र के तौर पर शक्तिशाली हो गए तो धर्म का प्रभाव बढ़ेगा। धर्म का प्रभाव बढ़ेगा तो भारतीय संस्कृति मजबूत होगी। प्रसिद्ध लेखक वासुदेव शरण अग्रवाल ने स्वाधीनता के बाद अपने एक लेख में कहा था, ‘राष्ट्र संवर्धन का सबसे प्रबल कार्य संस्कृति की साधना है। उसके लिए बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करना होगा, हमारे देश की संस्कृति की धारा अति प्राचीन काल से बहती आई है, उसके प्राणवंत तत्त्व को अपनाकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।‘ मंदिरों के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पुनर्स्थापना राष्ट्र संवर्धन का उपक्रम है इसको सिर्फ धार्मिक केंद्र के रूप में देखना गलत है। मंदिरों के प्राचीन वैभव की वापसी के उपक्रम से किसी अन्य मतावलंबियों को कोई खतरा नहीं है।मार्क्सवादी बुद्धिजीवी अपने राजनीतिक आकाओं को प्रसन्न करने के लिए समाज में कई तरह से भ्रम फैलाते हैं। इस भ्रम का परोक्ष लक्ष्य अपनी वैचारिकी से जुड़े राजनीतिक दलोंको फायदा पहुंचाना होता है। आगामी महीनों में कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं । मार्क्सवादियों को लगता है कि मंदिर के नाम पर वो समाज में ध्रुवीकरण करने में सफल हो जाएंगे और चुनाव में उनको फायदा मिल जाएगा। ऐसी ही परिस्थतियों को ध्यान में रखकर वासुदेव शरण अग्रवाल ने बुद्धिपूर्वक प्रयत्न की सलाह दी थी।


Saturday, December 11, 2021

स्त्री विमर्श का समग्र स्वरूप


इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में एक बार फिर से स्त्री विमर्श चर्चा के केंद्र में है। एक लेखिका को उठाने और दूसरे को गिराने के लिए स्त्री विमर्श के विविध रूपों की आड़ ली जा रही है।  रचना से अधिक व्यक्तिगत संबंधों पर बातें हो रही हैं। इसमें युवा लेखिकाएं भी शामिल हैं तो बुजुर्ग लेखिका भी मनोयोगपूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की होड़ में लगी दिखाई दे रही हैं। जो गंभीरता के साथ स्त्री विमर्श को समझती और बरतती हैं वो चुप हैं। राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य में जिस तरह के स्त्री विमर्श की नींव रखी थी उसको ही धुरी बनाकर कुछ लेखिकाएं तलवारबाजी करती रहती हैं। किसी का निधन हो तब, कोई विचार गोष्ठी हो तब, कोई समारोह हो तब स्त्री को लेकर उसी तरह का विमर्श किया जाता है जैसा राजेन्द्र यादव करते थे या करने के लिए अपने खेमे की लेखिकाओं को उकसाते रहते थे। राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य के स्त्री विमर्श को देह विमर्श के वृत्त में समेट दिया था। उस वृत्त की परिधि को क्रांतिवीर लेखिकाएं अब भी नहीं तोड़ पाई हैं। बल्कि अब तो स्त्री विमर्श के उस वृत्त के अंदर अज्ञान का भी प्रवेश हो गया है। ऐसी राय बनने के पीछे एक दो नहीं कई साहित्यिक गोष्ठियों का अनुभव है। कई लेखिकाएं वामपंथी विचार से अपनी करीबी प्रदर्शित करती रहती हैं। इस प्रदर्शन के चक्कर में वो भारतीय पौराणिक ग्रंथों के हवाले से स्त्रियों की चर्चा करती हैं।इस तरह की चर्चाओं में पौराणिक काल में भारतीय स्त्रियों की स्थिति पर आलोचनात्मक टिप्पणियां करती हैं। जब भी अवसर मिलता है तो गोष्ठियों में ऋगवेद से लेकर रामचरितमानस तक को उद्धृत कर डालती हैं। पौराणिक ग्रंथों से बगैर संदर्भ के एक दो पंक्तियां उठा लेती हैं। उन पंक्तियों के आधार पर उस समय के पूरे भारतीय समाज को स्त्री विरोधी और दकियानूसी साबित कर डालती हैं। 

हाल ही में एक गोष्ठी में एक लेखिका ने बेहद क्रांतिकारी अंदाज में टेबल पर मुक्का मारते हुए ये साबित करने की कोशिश की कि ऋगवेद में स्त्रियों के बारे में आपत्तिजनक बातें हैं। इस सबंध में उन्होंने ऋगवेद के पुरुरवा- उर्वशी संवाद से एक पंक्ति बताई। उसमें उर्वशी कहती है कि ‘स्त्रियों से स्थायी मैत्री होना संभव नहीं है। स्त्रियों का ह्रदय भेड़िए के समान होता है।‘ ये बताते हुए उन्होंने कई बार  मेज पर मुक्का मारा। जब वो बोल रही थीं तो मुझे भारतीय जनता पार्टी के नेता स्वर्गीय अरुण जेटली का राज्यसभा में दिया एक भाषण याद आ रहा था। जेटली ने कहा था, इफ यू हैव द फैक्ट, बैंग द फैक्ट, इफ यू डू नाट हैव द फैक्ट, बैंग द टेबल (अगर आपके पास तथ्य हैं तो तथ्य पर जोर दो और अगर तथ्य नहीं है तो टेबल पीटो)।  ऋगवेद के आधार पर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति पर बोलनेवाली लेखिका के पास तथ्य नहीं था लिहाजा वो टेबल पर मुक्का मारकर अपने कहे को प्रभावी बनाना चाह रही थीं। दरअसल ये वामपंथियों की पुरानी प्रविधि है कि भारतीयता और सनातन धर्म को बदनाम करो। इसके लिए वो पौराणिक ग्रंथों से संदर्भों के बिना पंक्तियां उद्धृत करके भ्रम का वातावरण बनाते रहे हैं। यही काम तुलसीदास के साथ किया गया, यही काम वेद और पुरणों के अलावा स्मृतियों के साथ भी किया। ऋगवेद में जिस पुरुरवा-उर्वशी संवाद की उपरोक्त बातें कही गई उसका प्रसंग भी जानना समझना होगा। प्रसंग ये है कि जब उर्वशी, पुरुरवा से पीछा छुड़ाना चाहती है तो वो स्वयं ही स्त्रियों के स्वभाव की निंदा करती है। उसको लगता है कि ऐसा करने से उसको लाभ होगा। बगैर इस संदर्भ को समझे और समग्रता में श्रोताओं के सामने रखे क्रांतिकारी लेखिकाएं यहां तक कह देती हैं कि वैदिक काल में स्त्रियों की तुलना भेड़िए से की जाती थी, जो आपत्तिजनक है। इसी तरह स्मरण आता है दिल्ली की एक गोष्ठी में वामपंथी लेखिका ने राम की इस वजह से आलोचना की थी कि उन्होंने सीता को गर्भवती होने के बावजूद घर से निकाल दिया था। जब मैंने उनसे पूछा था कि ऐसा कहां उल्लिखित है तो उन्होंने बहुत ताव के साथ मुझे श्रीरामचरितमानस पढ़ने की सलाह दी थी। उस वक्त उनको बता नहीं पाया था कि श्रीरामचरितमानस श्रीराम के राज्याभिषेक के साथ खत्म हो जाता है। उसमें ये प्रसंग है ही नहीं।     

वेदों को बिना पढ़े, उनको बिना समझे, उनमें वर्णित पंक्तियों को संदर्भ से काट कर किसी निर्णय पर पहुंचनेवालों को ये देखना चाहिए कि वेदों में महिलाओं को कितना उच्च स्थान दिया गया है। ऋगवेद में तो कन्या, पत्नी और माता के रूप में नारी का समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। विश्ववारा, घोषा, अपाला, लोपामुद्रा जैसी तेजस्वी नारियों का वर्णन ऋगवेद में मिलता है। ऋगवेद में विवाह योग्य कन्या की तुलना सूर्य के प्रकाश से की गई है, जो कि अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि लड़कियों का कितना सम्मान था । उनको कितने उच्च स्थान पर रखा जाता था। विवाह के बाद जब लड़की ससुराल आती थी तो उसको गृह स्वामिनी का अधिकार दिया जाता था। उसका अधिकार सिर्फ पति पर नहीं बल्कि घर से जुड़ी हर चीज पर होता था। वह सभी धार्मिक कार्यों में पति के साथ बराबरी से भाग लेती थी। उस काल में भी पुरुष का एक विवाह आदर्श माना जाता था और परस्त्री गमन को पाप समझा जाता था। माता का स्थान समाज में बेहद प्रतिष्ठित था। देवताओं की जननी के तौर पर पृथ्वी को रखा गया है और पृथ्वी को माता कहा गया है। पृथ्वी माता की उदारता और सहिष्णुता से जुड़े प्रसंग पौराणिक ग्रंथों में बहुतायत में मिलते हैं। माता रूपी इस प्रतीक को स्त्री विमर्श की क्रांतिकारी झंडाबरदार समझ पाएंगी या समझकर भी न समझने का स्वांग करेंगी यह कहना कठिन है। 

भारतीय समाज में सनातन काल से स्त्रियों का बहुत ही श्रेष्ठ स्थान रहा है और वो पुरुषों के साथ बराबरी का अधिकार रखती थीं। जब हमारे देश पर विदेशी आक्रांताओं का आक्रमण हुआ तो उन्होंने न सिर्फ भारत की भौगोलिक भूमि पर कब्जा जमाया बल्कि संस्कृति और समाज को प्रभावित किया। विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में या उनके भय का असर ये हुआ कि महिलाएं पर्दा करने लगीं, शिक्षा से दूर हो गईं, पुरुषों से बराबरी का अधिकार खत्म सा होने लगा। मुगलों के शासनकाल में भारत की महिलाओं को उनके अधिकार से वंचित किया जाने लगा। अंग्रेजों के काल में भी ये जारी रहा। ऐसे कई उदाहरण हैं कि जब किसी राजघराने में पुरुष वारिस नहीं होता था तो अंग्रेज उस राज पर कब्जा कर लेते थे। भारतीय समाज में महिलाओं को गैरबराबरी का दर्जा आक्रांताओं के काल में ही आरंभ होकर स्थापित होता है। स्त्री विमर्श का झंडा उठानेवाली अधिकतर लेखिकाएं इस बात का न तो उल्लेख करती हैं और न ही इसको रेखांकित करती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री विमर्श पर जब भी बात हो तो कथित क्रांतिकारिता के साथ साथ अपनी विरासत और परंपराओं पर भी बात हो। उन अधिकारों की भी चर्चा हो जो हमारे देश की नारियों को आक्रांताओं के भारत आगमन के पूर्व मिला हुआ था। अगर ऐसा होता है तो भारतीय स्त्री विमर्श पश्चिम के स्त्री विमर्श से अलग नजर आएगा। देह विमर्श के वृत्त से बाहर निकलकर स्त्रियों के मूल अधिकारों की ओर समाज का ध्यान आकर्षित हो पाएगा। वामपंथी या वामपंथी दिखने की कोशिश में लगी लेखिकाओं को अब सत्य का संधान करना चाहिए ताकि स्त्री विमर्श का एक समग्र रूप समाज के सामने आ पाए। 


Saturday, December 4, 2021

ललित कला अकादमी में विद्रोह


भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक स्वयायत्त संस्था है ललित कला अकादमी। इस संस्था का शुभारंभ 5 अगस्त 1954 को उस समय के शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद ने किया था। इसका उद्देश्य चित्रकला, मूर्तिकला आदि के क्षेत्र में अध्ययन और शोध को बढ़ावा देना है। इसके अलावा क्षेत्रीय कला और कलाकारों के बीच संवाद का मंच प्रदान करना भी एक उद्देश्य है। इस वक्त इस संस्था के प्रोटेम (अस्थायी) अध्यक्ष उत्तम पचारणे हैं। इनका तीन वर्ष का कार्यकाल खत्म होने के बाद इनको इस वर्ष जून में छह महीने के लिए अस्थाई अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। ललिता कला अकादमी के संविधान में छह महीने के अस्थाई अध्यक्ष का प्रावधान है ताकि वो नए अध्यक्ष के चयन की औपचारिकताएं पूरी करवा सकें। ललित कला अकादमी पिछले कई वर्षों से अपने उद्देश्यों से भटक गई प्रतीत होती है। पिछले कई वर्षों से अकादमी लगातार विवादों में रही है। अकादमी से एम एफ हुसैन की पेंटिंग गायब होने की घटना सुर्खियों में रही थीं। अकादमी से मूल्यवान पेंटिंग्स के गुम होने को लेकर आरोप प्रत्यारोप का लंबा सिलसिला चला। पूर्व के चेयरमैन पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे। इस संस्था के अध्यक्ष रहे अशोक वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान अनियमितताओं को लेकर सीबीआई जांच चल रही है। विवादों की इस शृंखला में इस संस्था का प्रशासन केंद्र सरकार ने अपने हाथ में भी लिया था। कुछ समय तक केंद्र से नियुक्त प्रशासक ने इसको चलाया। उस वक्त भी विवाद थम नहीं सका। 

ताजा विवाद अस्थाई अध्यक्ष के खिलाफ कार्यकारिणी के सदस्यों के विद्रोह का है। पिछले महीने की 25 तारीख को उपाध्यक्ष नंदलाल ठाकुर और कार्यकारिणी के सदस्यों ने संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव को एक पत्र लिखकर अध्यक्ष के असंवैधानिक कामों के बारे में उनका ध्यान आकृष्ट किया। अपने पत्र में इन लोगों में स्पष्ट रूप से अकादमी के अध्यक्ष उत्तम पचारणे पर ललित कला अकादमी के संविधान के हिसाब से काम नहीं करने का आरोप लगाया है। उस पत्र में आरोप है कि उत्तम पचारणे कार्यकारिणी के निर्णयों को बदलकर कार्यक्रम आयोजित करवा रहे हैं। कार्यकारिणी ने जिन कार्यक्रमों को तय किया है उसको नहीं करवा कर दूसरे कार्यक्रम करवा रहे हैं। उपाध्यक्ष और कार्यकारिणी के सदस्यों ने अपने पत्र में मंत्रालय को लिखा है कि उत्तम पाचरणे ने दिल्ली में आयोजित होनेवाले प्रिंट बिनाले को बगैर कार्यकारिणी की मंजूरी के मुंबई में कराने का आदेश जारी कर दिया है। अकादमी का संविधान उनको ऐसा करने की अनुमति नहीं देता है।  इसके अलावा स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर मुंबई में किए जानेवाले आर्ट कैंप का नाम बदलकर अनसंग हीरो-छत्रपति शिवाजी के नाम से कराने का फैसला किया है। कार्यकारिणी के सदस्यों ने छत्रपति शिवाजी को अनसंग हीरो कहे जाने का विरोध किया लेकिन अस्थाई अध्यक्ष सुनने को राजी नहीं थे।अस्थाई अध्यक्ष ने बैठक में घोषणा की कि वो इसको मुंबई के जे जे स्कूल आफ आर्ट में अपनी जिम्मेदारी पर आयोजित करवा रहे हैं। यह भी अकादमी के संविधान के खिलाफ निर्णय है। 

इस पत्र में ये आरोप भी लगाया गया है अस्थायी अध्यक्ष कार्यक्रमों के आयोजन में मनमानी करते हैं और कार्यकारिणी को विश्वास में नहीं लेते हैं। ललित कला अकादमी के क्रियाकलापों को लेकर मंत्रालय जांच करेगी या नहीं ये भविष्य में पता चलेगा। अगर जांच होती भी है तो संभव है कि जांच  आरंभ होने तक अस्थायी अध्यक्ष का छह महीने का कार्यकाल समाप्त हो जाए। उनका छह महीने का कार्यकाल इस महीने ही पूरा हो रहा है। जिस काम, नए अध्यक्ष के चुनाव, के लिए अस्थायी अध्यक्ष की नियुक्ति की गई थी उसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई है। सर्च कमेटी बनी या नहीं इस बारे में भी अकादमी की बेवसाइट पर कोई जानकारी नहीं है। अगर दिसंबर में अस्थाई अध्यक्ष का कार्यकाल बगैर नए अध्यक्ष के चयन के खत्म हो जाता है तो क्या एक बार फिर से अस्थाई अध्यक्ष की नियुक्ति की जाएगी। क्या संस्कृति मंत्रालय फिर से उत्तम पचारणे के नाम की सिफारिश राष्ट्रपति से करेगी और राष्ट्रपति उसको मान लेंगे। अगर ऐसा होता है तो यह नियमों की खामियों की आड़ लेना होगा। तब सवाल ये भी उठेगा कि क्या उत्तम पचारणे तबतक ललित कला अकादमी के अस्थाई अध्यक्ष बने रहेंगे जबतक कि नए अध्यक्ष का चयन नहीं हो जाता है। नियमों की खामियों की आड़ लेकर ऐसा होता है तो फिर अस्थाई अध्यक्ष नए अध्यक्ष का चयन क्यों होने देगा। इसके पहले जब उत्तम पचारणे नियमित अध्यक्ष थे तब भी उन्होंने अपना कार्यकाल तीन साल से पांच साल करने का प्रस्ताव मंत्रालय को भेजा था जिसपर संस्कृति मंत्रालय की मुहर नहीं लग पाई थी। तब उत्तम पचारणे को पद छोड़ना पड़ा था लेकिन कुछ ही दिन बाद संस्कृति मंत्रालय ने अस्थाई अध्यक्ष के तौर पर उत्तम पचारणे के नाम का अनुमोदन कर राष्ट्रपति को भेज दिया था। 

दरअसल अगर देखा जाए तो उत्तम पचारणे की नियुक्ति के समय से ही विवाद आरंभ हो गया था। इनकी नियुक्ति में तय प्रक्रिया के पालन नहीं होने के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में एक केस चल रहा है। पर लंबी कानूनी प्रक्रिया की वजह से उसपर निर्णय कब आएगा इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। ललित कला अकादमी के क्रियाकलापों को लेकर अन्य कई केस भी अदालत में लंबित हैं। करदाताओं के पैसे का जो सदुपयोग कला के विकास में होना चाहिए वो कानूनी पचड़ों में खर्च हो रहा है। नियुक्तियों में भी अनियमितताओं के आरोप लग रहे हैं। ललित कला अकादमी में काम रही एक महिला को बिना किसी आरोप पत्र के सस्पेंड कर दिया गया, वो केस भी अदालत में लंबित है। ललित कला अकादमी को नजदीक से जानने वालों का कहना है कि अकादमी जितना धन मुकदमों की पैरवी में खर्च कर रही है उसमें तो कई कार्यक्रम या कार्यशाला आयोजित किए जा सकते हैं। 

ललित कला अकादमी में विवादों की शुरुआत एक तरह से नौकरशाह और कवि अशोक वाजपेयी के कार्यकाल से हुई। उन्होंने अपने कार्यकाल में कला के विकास के नाम पर कई ऐसे कार्यक्रम आरंभ किए जिसमें उन्होंने अपने मित्रों को बढ़ावा दिया। उनपर विदेशी कला प्रर्दर्शनियों में हिस्सा लेने को लेकर भी विवाद है। नियुक्तियों और गैलरी आवंटन को लेकर भी विवाद उठे थे। उसके बाद से तो जो भी इस पद पर आया उसमें से अधिकतर ने मनमानी की। ललित कला अकादमी का संविधान है. जिसके हिसाब से इसके अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारियों को काम करना होता है। दिक्कत तब होती है जब इस संविधान के हिसाब से काम नहीं होता है। उत्तम पचारणे का कार्यकाल खत्म होने के पहले ही संस्कृति मंत्रालय ने नए अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए सक्रियता क्यों नहीं दिखाई। क्यों इस बात का इंतजार करते रहे कि अस्थाई अध्यक्ष नियुक्त करने की नौबत आए। संस्कृति मंत्रालय के नौकरशाहों ने इस मंत्रालय से जुड़ी संस्थाओं का बेड़ा गर्क करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अगर इन संस्थाओं में सही समय पर नियमित नियुक्तियां हों जाएंगी तो अफसरों को मनमानी का अवसर नहीं मिलेगा।  रिटायरमेंट के बाद राघवेन्द्र सिंह को सालभर के लिए संस्कृति सचिव बनाया गया था। उनसे उम्मीद थी कि वो कुछ बेहतर करेंगे लेकिन उन्होंने अपने सालभर के कार्यकाल में इन स्वायत्त संस्थाओं में कोई नियुक्ति नहीं की या नहीं होने दी। अगर इन संस्थाओं को विवादों से दूर रखना है तो इसके लिए स्पष्ट नियम बनाने होंगे। मंत्रियों को यह देखना होगा कि सही समय पर नियुक्तियां हों। संसद के चालू सत्र में राज्यसभा में सोनल मानसिंह ने संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं के शीर्ष पदों के खाली रहने का विषय उठाया है, देखते हैं उसका क्या असर होता है। 

Saturday, November 27, 2021

कम्युनिस्टों से क्यों चिढ़ते थे आंबेडकर


अभी-अभी संविधान दिवस बीता है। जब भी संविधान दिवस (26 नवंबर) आता है या संविधान से जुड़ी बातों पर देशव्यापी विमर्श होता है तब वामपंथी धारा में बहने वाले लेखक और बौद्धिक बाबा साहेब आंबेडकर की कई बातों को संदर्भ से काटकर उद्धृत करते हैं। आंबेडकर के विचारों की आड़ में वो भारत और भारतीयता के साथ साथ हिंदू धर्म और दर्शन पर प्रहार करते हैं। उनके विचारों को इस तरह से पेश करते हैं जैसे कि आंबेडकर हिंदू धर्म के विरोधी थे। वो ये नहीं बताते हैं कि आंबेडकर हिंदू धर्म की कुरीतियों के विरोधी थे और उनका मत था कि इन कुरीतियों को दूर किया जाए। ऐसा करते हुए कम्युनिस्ट इस बात को भी छिपा ले जाते हैं कि उनको लेकर आंबेडकर के क्या विचार थे। मार्क्स और मार्क्सवाद से लेकर उनके अनुयायियों के बारे में बाबा साहेब की सोच क्या थी। 12 दिसंबर 1945 को नागपुर की एक सभा में आंबेडकर ने देशवासियों को कम्युनिस्टों से बचकर रहने की सलाह दी थी। आंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘मैं आप लोगों को आगाह करना चाहता हूं  कि आप कम्युनिस्टों से बच कर रहिए क्योंकि अपने पिछले कुछ सालों के कार्यों से वो कामगारों का नुकसान कर रहे हैं। वे उनके (कामगारों) दुश्मन हैं, इस बात का मुझे पूरा यकीन हो गया है। कम्युनिस्ट कहते हैं कि कांग्रेस पूंजीपतियों की संस्था है। साथ ही वे कामगारों को उसमें जाने की सलाह भी देते हैं। हिन्दुस्तान के कम्युनिस्टों की अपनी कोई नीति नहीं है, उन्हें सारी चेतना रूस से मिलती है।‘ अपने इस कथन से आंबेडकर ने स्पष्ट कर दिया था कि अपने देश के कम्युनिस्टों की चेतना का आधार रूस से आयातित विचार है और वो कामगारों या मजदूरों को भ्रमित कर कांग्रेस को मजबूत करना चाहते हैं। आंबेडकर की ये बातें स्वाधीनता के बाद भी सही साबित हुई। कम्युनिस्टों को जब भी मौका मिला उन्होंने कांग्रेस का समर्थन किया, सरकार बनाने से लेकर देश में इमरजेंसी लगाने तक में। आज भी कर रहे हैं। आज जब कम्यनिस्ट पार्टियां अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं तो उनको कांग्रेस में ही अपना भविष्य नजर आ रहा है। कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुयायी  लगातार कांग्रेस को मजबूत करने की बात इंटरनेट मीडिया के अलग अलग मंचों पर लिख रहे हैं। 

आंबेडकर ने नागपुर की ही सभा में देश के दलितों को भी कम्युनिस्टों से आगाह किया था। आंबेडकर ने कम्युनिस्टों के बारे में कहा था कि ‘वे अब हमारे संगठन में घुसकर अपनी हरकतें करने लगे हैं। इसलिए मैं आपलोगों से यही कहना चाहता हूं कि आपलोग कम्यनिस्टों से बचकर रहिए। उन्हें अपने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन का उपयोग अपने प्रचार के लिए मत करने दीजिए।‘ अब 1945 में कहे गए बाबा साहेब के शब्दों पर गौर करें तो स्थिति और स्पष्ट होती है। उनको इस बात की आशंका थी कि अगर कम्युनिस्ट उनके संगठन में घुस गए तो संगठन कमजोर होगा लिहाजा इसलिए वो सार्वजनिक रूप से शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के कार्यकर्ताओं को कम्युनिस्टों की ‘हरकतों’ से बचकर रहने की सलाह दे रहे थे। आंबेडकर की इन बातों की चर्चा कभी भी कम्युनिस्ट नहीं करते हैं। अपने बौद्धिक विमर्शों में भी अंबेडकर की आलोचना पर ध्यान नहीं देते हैं। बाद के दिनों में या आंबेडकर के निधन के बात तो वो समानता के सिद्धांत के आधार पर उनको भी वामपंथी विचारधारा के करीब दिखाने और प्रचारित करने की कोशिश करते रहते  हैं। वामपंथी कभी भी इस बात की चर्चा नहीं करते हैं कि आंबेडकर की राय मार्क्स या उनके सिद्धांतों को लेकर क्या थी। 20 नवंबर 1956 को आंबेडकर का नेपाल में दिया गया एक भाषण है जिसमें उन्होंने बुद्ध और कार्ल मार्क्स पर विचार किया था। अपने उस भाषण में आंबेडकर ने मार्क्सवाद की तुलना में बौद्ध दर्शन को श्रेष्ठ और स्थायी माना है। आंबेडकर ने साम्यवादी जीवन मार्ग और बौद्ध जीवन मार्ग को लेकर अपने विचार रखे थे। उसमें आंबेडकर कहते हैं कि जो जीवनमार्ग अल्पजीवी होगा, गुमराह करनेवाला होगा या अराजकता की ओर ले जानेवाला होगा ऐसे जीवन मार्ग का समर्थन करना उचित नहीं होगा। साफ है कि वो साम्यवादी जीवन मार्ग का निषेध कर रहे थे। उनके इस कथन को नागपुर में कम्युनिस्टों पर व्यक्त किए गए उनके विचारों से जोड़कर देखते हैं तो यह साफ हो जाता है कि कि साम्यवाद के बारे में उनकी राय एक अराजक विचारधारा की रही है और उसको वो भारत के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे। 

आंबेडकर ने मार्सवादी सोच को व्याख्यायित करते हुए कहा था कि ‘ साम्यवादी विचारधारा का मूल सूत्र यह है कि दुनिया में शोषण है। यहां अमीरों की ओर से गरीबों का शोषण हो रहा है क्योंकि धनवानों में धन बटोरने की होड़ लगी हुई है। इसी होड़ की वजह से पूंजीपति लोग मेहनतकश वर्ग को गुलाम बना रहे हैं और इसी प्रकार की गुलामी दरिद्रता और निर्धनता का कारण बनती है। कार्ल मार्क्स ने गरीबों के संबंध में या मजदूरों के शोषण के संबंध में सवाल उपस्थित कर अपने साम्यवाद की नींव रखी।‘ लेकिन आंबेडकर इसके सूत्र की तलाश में बौद्ध दर्शन में जाते हैं और वहां से अपनी बात उठाते हैं। उनका मानना है कि बुद्ध दुनिया में दुख की बात करते हैं और बुद्ध ने भी शोषण से पैदा हुए दुख और दरिद्रता के आधार पर अपने दर्शन की नींव रखी। यहां आंबेडकर बहुत स्पष्ट रूप से मानते हैं कि मार्क्स कुछ नया प्रतिपादित नहीं करते हैं बल्कि उनके सिद्धांत के सैकड़ों साल पहले बुद्ध ऐसा कह चुके हैं और इससे मुक्ति का मार्ग भी सुझा चुके हैं। अंबेडकर बुद्ध और मार्क्स के सुझाए मुक्ति के मार्ग के बुनियादी अंतर को भी बहुत साफगोई से जनता के सामने रखते हैं। उनका मानना है कि साम्यवाद की स्थापना के लिए मार्क्सवादियों का रास्ता हिंसा का है और वो अपने विरोधियों को नष्ट कर लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। बुद्ध का रास्ता इससे बिल्कुल अलग है। आंबेडकर के शब्दों को देखते हैं, ‘बुद्धिज्म की स्थापना के लिए लोगों के दिलो दिमाग को परिवर्तित करना यही बुद्ध का संवैधानिक रास्ता है। बुद्ध अपने विरोधियों को डरा धमका कर या सत्ता के बल पर पराजित करना नहीं बल्कि प्यार और अपनत्व की भावना से अपना बना लेना है।‘ 

बाबा साहेब साम्यवाद के गैर संवैधानिक तरीकों को रेखांकित करते हैं और कहते हैं कि साम्यवादी मनुष्य को खत्म करने के सिद्धांत पर अमल करना चाहते हैं लेकिन अगर मनुष्य ही नहीं रहेगा तो न तो कोई प्रतिकार कर पाएगा न ही विरोध तो ऐसी सफलता तो सिर्फ दिखावा बन कर रह जाती है।‘ आंबेडकर ने साम्यवादियों के ‘मजदूरों की तानाशाही’ ( डिक्टेटरशिप आफ प्लोरेतेरियत) और उसको स्थापित करने के खूनी क्रांति के सिद्धांत को भी कठघरे में खड़ा करते हैं। आंबेडकर के प्रश्नों का उत्तर वामपंथियों के पास नहीं है लिहाजा वो संदर्भ से काटकर सिर्फ ये कहते हैं कि अंबेडकर ने मार्क्स और बुद्द के सिद्धांतों में कई समानताएं थीं। पर इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि लक्ष्य तक पहुंचने का दोनों का रास्ता बिल्कुल अलग है। बाबा साहेब ने हमेशा ही साम्यवादियों के रास्तों को खारिज किया, उसके लिए वो बुद्ध के सिद्दांतों को अपनी वैचारिकी का आधार बनाते हैं। अंबेडकर ने साम्यवाद के विदेशी दर्शन पर भारतीय दर्शन या भारतीय सिद्धांतों को प्राथमिकता दी। आज जब हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की देश की माटी से उपजे विचारों को समग्रता में एक बार फिर से देश की जनता के सामने लाना चाहिए। 

Saturday, November 20, 2021

श्रद्धांजलि के बहाने विवाद को हवा


हाल ही में हिंदी की उपन्यासकार और कहानीकार मन्नू भंडारी का निधन हुआ। कुछ लेखिकाओं ने मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित किए जानेवाले कार्यक्रमों में मन्नू जी के अवदानों पर चर्चा न करके उसको अपनी भड़ास निकालने का मंच बना दिया। जमकर व्यक्तिगत खुन्नस निकाले गए। इस तरह की बातें की गईं जो न होतीं तो साहित्य की गरिमा बनी रहती। इंटरनेट मीडिया के अराजक मंच फेसबुक पर भी पक्ष विपक्ष में टिप्पणियां देखने को मिलीं। कई बुजुर्ग लेखिकाओं ने मन्नू भंडारी के निधन के बाद चर्चित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा को निशाने पर लिया और परोक्ष रूप से उनको मन्नू जी से विश्वासघात का आरोप तक लगा दिया। आरोप की शक्ल में पेश की गई बातों से ये लग रहा था कि जैसे मैत्रेयी पुष्पा ने राजेन्द्र यादव को बरगला दिया था, जिससे मन्नू भंडारी को बेहद मानसिक पीड़ा हुई थी। आरोपों  को इस तरह से पेश किया गया कि सारी गलती सिर्फ मैत्रेयी पुष्पा की थी और राजेन्द्र यादव बेचारे बहुत ही मासूम थे। उनकी कोई गलती थी ही नहीं, वो तो भटक गए थे। यह सही है कि राजेन्द्र यादव ने मैत्रेयी पुष्पा को अवसर दिया लेकिन अगर मैत्रेयी में प्रतिभा नहीं होती तो क्या वो इतने लंबे समय तक साहित्य में टिकी रह सकती थीं। राजेन्द्र यादव ने दर्जनों प्रतिभाहीन लेखिकाओं को मैत्रेयी पुष्पा से अधिक अवसर अपनी साहित्यिक पत्रिका हंस में दिए। उनकी पुस्तकों पर प्रायोजित समीक्षाएं भी प्रकाशित की लेकिन आज उनमें से कोई भी लेखिका मैत्रेयी जैसी ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाईं। दरअसल जब कोई महिला सफल होती है और वो पुरुषों के साथ काम करती है तो उसको इस तरह के अपमान का विष पीना पड़ता है। मैत्रेयी पुष्पा ने देर से लिखना आरंभ किया लेकिन उनके कई उपन्यास इतने सधे हुए हैं कि वो साहित्याकाश पर छा गईं। उस वक्त भी मैत्रेयी पुष्पा पर तमाम तरह के लांछन लगे थे। राजेन्द्र यादव की भी आलोचना हुई थी लेकिन इतने सालों के बाद अब जब मन्नू भंडारी नहीं रहीं तो उन बातों को एक बार फिर से उभार कर बुजुर्ग लेखिकाएं क्या हासिल करना चाहती हैं, पता नहीं।  मत्रैयी पुष्पा ने अपनी सफाई में कई बातें कहीं जो वो पहले भी अपनी आत्मकथा या राजेन्द्र यादव पर लिखी अपनी पुस्तक में कह चुकी हैं। काफी कुछ मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा में भी लिख दिया है। लेकिन फिर से वातावरण कुछ ऐसा बना कि लगा कि ये लेखिकाएं कुछ नया रहस्योद्घाटन कर रही हैं। 

मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव पति पत्नी थे लेकिन इनके संबंध सहज नहीं थे, ये बात ज्ञात है। इन दोनों ने समय समय पर अपने साक्षात्कारों में इस तरह की बातें भी की थीं जिसको लेकर हिंदी जगत इनके संबधों के बारे में परिचित है। इन दोनों से रचनात्मक लेखन का सिरा काफी पहले छूट गया था। वर्षों बाद जब मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा लिखी तो हिंदी के आलोचकों को उसमें साहस का आभाव दिखा। मन्नू भंडारी अपनी आत्मकथा में राजेन्द्र यादव से आब्सेस्ड दिखती हैं। आज मन्नू भंडारी के निधन के बाद ऐसी बातें हो रही हैं जिनको सुनकर 2009 का साहित्यिक परिदृश्य सहसा याद आ जाता है। इस वर्ष राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी ने अपनी शादी को लेकर या अपने दांपत्य जीवन को लेकर एक साहित्यिक पत्रिका में कई ऐसी बातें कहीं थीं जिसने हिंदी साहित्य जगत को शर्मसार किया था। जहां तक मुझे याद पड़ता है कि 2009 में साहित्यिक पत्रिका कथादेश के मार्च अंक में मन्नू भंडारी ने एक लंबा लेख लिखा था। उस लेख में मन्नू जी ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि सच का सामना करने का साहस हो तभी साक्षात्कार दें। परोक्ष रूप से वो  ये नसीहत राजेन्द्र यादव को दे रही थीं। इस पूरे लेख में मन्नू भंडारी ने ये साबित करने की कोशिश की थी कि राजेन्द्र यादव ने उनकी शादी के विषय में जो गलत बातें की उसको वो ठीक कर रही हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि कथादेश के 2009 के जनवरी अंक में राजेन्द्र यादव का एक लंबा साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने अपनी और मन्नू भंडारी की शादी की परिस्थितियों का उल्लेख किया था। राजेन्द्र यादव के उस साक्षात्कार के उत्तर में मन्नू भंडारी ने लेख लिखा था और किन परिस्थितियों में दोनों की शादी हुई थी इसको अपने हिसाब से हिंदी साहित्य जगत के सामने रखा था। अपने उस लेख में मन्नू भंडारी राजेन्द्र यादव से सच कहने की अपेक्षा करती हैं लेकिन जब उकी बारी आती है तो वो खुद राजेन्द्र यादव की प्रेमिका मीता का असली नाम बताने से कन्नी काट लेती हैं। मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा में उन स्थितियों का भी उल्लेख नहीं किया जिसकी वजह से उन्होंने राजेन्द्र यादव को घर से निकाला था। उसका नाम लेने से भी परहेज कर गईं जिसकी वजह से उन्होंने राजेन्द्र यादव को घर से निकाला था। दोनों ने अपने जीवन काल में जमकर एक दूसरे के बारे में जितना बताया उससे अधिक छिपाया भी। आज से बारह-तेरह वर्षों पहले तक यादव-भंडारी दंपति के बारे में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में जमकर लिखा जाता था। उस दौर में तो यहां तक चर्चा होती थी कि दोनों कुछ लिख नहीं पा रहे हैं तो अपने दांपत्य के विवादित स्वर को उभार कर चर्चा में बने रहते हैं। लेकिन समय के साथ इस तरह की बातें कम होने लगीं। कालांतर में राजेन्द्र यादव का निधन हो गया और मन्नू भंडारी बीमार रहने लगीं तो इस लेखक दंपति के बीच के विवाद को साहित्य जगत लगभग भूल चुका था। 

मन्नू भंडारी के बहाने हिंदी की चंद बुजुर्ग लेखिका जिस तरह की बातें कर रही हैं उससे तो स्त्री विमर्श के उनके प्रतिपादित सिद्धांतों पर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं। उनके तर्क हैं कि राजेन्द्र यादव ने किसी अन्य स्त्री के चक्कर में मन्नू भंडारी की उपेक्षा की। यहां तक तो इन बुजुर्ग लेखिकाओं के स्त्री विमर्श पर आंच नहीं आती है लेकिन जब एक ऐसे पुरुष से साथ और संबल की अपेक्षा की जाती है जो वफादार नहीं होता है तो फिर प्रश्न तो उठेंगे। क्या स्त्री मुक्ति और स्त्री चेतना की बातें सिर्फ किस्से कहानियों में ही ठीक लगते हैं। क्या सिर्फ कहानियों के पात्र ही क्रांतिकारी फैसले ले सकती हैं क्या सिर्फ कहानियों की शादीशुदा नायिकाएं ही अपने दांपत्य से त्रस्त आकर विकल्प की ओर बढ़ती हैं। अगर इस तरह की बातें सिर्फ किस्से कहानियों तक सीमित हैं तो फिर स्त्री विमर्श की बातें खोखली हैं। दूसरी बात ये कि हमारे यहां मृत व्यक्ति को लेकर स्तरहीन बातें कहने की परंपरा नहीं रही है।व्यक्ति की मृत्यु के बाद तुरंत उसकी आलोचना या उसके संबंधों के बहाने से उसको विवादित करने को हमारे समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। लेकिन मन्नू भंडारी की तथाकथित मित्रों ने उनके निधन के तुरंत बाद उनके और राजेन्द्र यादव के बीच के तनावपूर्ण संबंध की बात उठाकर इस परंपरा का ना सिर्फ निषेध किया बल्कि नए लेखकों के सामने एक खराब उदाहरण प्रस्तुत किया। बेहतर होता कि ये बुजुर्ग लेखिकाएं मन्नू भंडारी के साहित्यिक योगदान या अवदान पर चर्चा करतीं। उनकी रचनाओं के बारे में नई पीढ़ी को अवगत करवाती या फिर उसको नए सिरे से व्याख्यायित करने का उपक्रम करतीं। विवादित प्रसंगों की बजाय अगर उनकी संयुक्त कृति एक इंच मुस्कान के लिखे जाने की प्रक्रिया पर चर्चा होती तो उनकी प्रयोगधर्मिता का पता चलता। ये भी पता चलता कि दो अलग अलग व्यक्ति कैसे इतना प्रवाहपूर्ण उपन्यास लिख पाए। काश! ऐसा हो पाता। 


Saturday, November 13, 2021

भारतीयता से मार्क्सवादियों की चिढ़ पुरानी


लंबे समय से साहित्यिक बैठकों या साहित्यिक सम्मेलनों में कुबेरनाथ राय की चर्चा सुनता रहा था। उनके निबंधों की खूब चर्चा होती थी। कई लोग तो उनके निबंधों को जमकर तारीफ करते हैं । उनके निबंध में शब्दों के चयन को रेखांकित करते हुए भारतीय ज्ञान परंपरा के ध्वजवाहक के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं। लंबे समय से प्रशंसा सुन कर मन में उनके निबंधों को पढ़ने की इच्छा थी। साहित्य अकादमी से प्रकाशित कुबेरनाथ राय का संचयन लाकर पढ़ने लगा। जो कुछ लेख पढ़ पाया उसके आधार पर ये राय बनी कि कुबेरनाथ राय का अध्ययन बहुत व्यापक था और वो अपने निबंधों में भारतीय पौराणिक ग्रंथों और प्रतीकों का बहुत ही सटीक उपयोग करते थे। उनके निबंधों को पढ़ते हुए ये भी संकेत मिला कि इतना महत्वपूर्ण लेखन करने के बावजूद हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी लेखकों या आलोचकों ने उनकी रचनाओं पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं किया। क्यों मार्क्सवादी आलोचकों ने कुबेरनाथ राय की रचनाओं की उपेक्षा की। कुबेरनाथ राय की रचनाओं का मूल स्वर भारतीयता है और उनके लेखन में रामायण , महाभारत या पुराणों के संदर्भ बहुधा आते हैं।  साहित्य अकादमी से प्रकाशित पुस्तक की भूमिका में हनुमान प्रसाद शुक्ल ने राय के हवाले से कई दिलचस्प जानकारियां दी हैं। एक प्रसंग में कुबेरनाथ राय लिखते हैं, ई एम एस नंबूदरीपाद और वी के कृष्ण मेनन भारत के जाने माने कम्युनिस्ट रहे हैं। आल इंडिया रिपोर्टर (1970 दिसंबर पृ.2015 पैरा 31-33) में ई एम एस नंबूदरीपाद बनाम टी नांबियार (फौजदारी अपील नंबर 56, 1968ई, डी 31.7.70) के मुकदमे का विवरण छपा है। नंबूदरीपाद और उनके वकील कृष्ण मेनन ने मार्क्सवाद की जो व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत की उसपर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एम हिदायतुल्ला और जस्टिस ए एन राव की खंडपीठ ने अपने फैसले में टिप्पणी की, हमें शंका है कि इन्होंने मार्क्सवादी साहित्य को ठीक से समझा है अथवा कभी भी पढ़ा है।...या तो ये मार्क्स के बारे में कुछ जानते नहीं अन्यथा जानबूझकर मार्क्स, एंगेल्स एवं नेनिन की रचनाओं की अपव्याख्या कर रहे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों की मार्सवादियों पर की गई इस महत्वपूर्ण टिप्पणी को दबा दिया गया। यह कोई मामूली केस और टिप्पणी नहीं थी। ई एम एस नंबूदरीपाद भारतीय कम्यिनुस्टों के सिरमौर माने जाते हैं। उन्होंने केरल में कम्युनिस्टों की सरकार बनाई थी और लंबे समय तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो के महासचिव रहे थे। कम्युनिस्टों की ये चालाकी पुरानी है जिसमें वो अपने पक्ष की बात को, चाहे वो कमजोर ही क्यों न हो, छद्म तरीके से बहुत प्रचारित करते हैं और जो उनके पक्ष की बात नहीं होती है उसको वो योजनाबद्ध तरीके से दबा देते हैं। यही काम उन्होंने साहित्य में किया और फिर इतिहास लेखन में भी किया। वो इतने पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि जो स्थापना या लेखन उनके विचार के अनुरूप नहीं होता है उसकी उपेक्षा कर उसको बौद्धिक विमर्श के परिदृश्य से ओझल भी करते रहे हैं। हिंदी साहित्य में तो इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं जहां उन्होंने अपनी उपेक्षा से कई लेखकों की अहम रचनाओं पर चर्चा तक नहीं होने दी। स्वाधीनता के बाद जब नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने तो कम्युनिस्ट विचारधारा देश में मजबूत होने लगी।

पहले जवाहरलाल नेहरू और बाद के दिनों में इंदिरा गांधी ने वामपंथी विचार को पल्लवित और पुष्पित होने का अवसर दिया। जब देश को स्वाधीनता मिली और जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने देश को समाजवादी गणतंत्र की राह पर आगे बढ़ाने का काम किया। नेहरू के साम्यवादी सोच से प्रभावित होने के कई प्रमाण मिलते हैं। 1927 में ब्रसेल्स में दुनियाभर के कम्युनिस्टों का एक सम्मेलन हुआ था जिसमें भारत से जवाहरलाल नेहरू गए थे। वहां श्रम और श्रमिकों की समस्या के अलावा पूंजीवाद और उपनिवेशवाद को लेकर भी चर्चा हुई थी। वहां की चर्चाओं को सुनकर वो बेहद प्रभावित हुए और उनका झुकाव साम्यवाद की ओर हो गया। उसी वर्ष वो अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ सोवियत रूस गए थे। सोवियत रूस की यात्रा के दौरान जवाहलाल नेहरू ने कई लेख आदि लिखे थे जो बाद में एक पुस्तिका के रूप में संकलित होकर प्रकाशित हुई। इसका नाम है सोवियत रूस, सम रैंडम स्केचेज एंड इंप्रेशंस। इस पुस्तिका से नेहरू के साम्यवादी विचारों से निकटता के संकेत मिलते हैं। देश के प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने, शीतयुद्ध के समय, भारत को गुटनिरपेक्ष देशों के चंद अगुवा देशों के तौर पर स्थापित करने का प्रयत्न किया।  पर एक वक्त ऐसा आया जिसने पूरी दुनिया में नेहरू की सोच को उजागर कर दिया। 1956 में जब सोवियत रूस ने हंगरी पर हमला किया तो गुटनिरपेक्ष के अगुवा देशों से ये अपेक्षा की जा रही थी वि वो सोवियत रूस के आक्रमण और उसकी विस्तारवादी कदम की पुरजोर तरीके से आलोचना करेंगे लेकिन आलोचना का स्वर बेहद धीमा था। 

नेहरू का झुकाव साम्यवाद की ओर था लिहाजा सत्ता का साथ पाकर इस विचारधारा को, उसके लेखकों को उसके अनुयायियों को मजबूती मिलनी आरंभ हो गई। परिणाम ये हुआ कि हिंदी साहित्य में मार्क्सवाद पर आधारित साहित्य लेखन और आलोचना मुख्यधारा के लेखन के तौर पर स्थापित हो गया। जिन भारतीय लेखकों ने मार्क्सवाद की जगह भारतीयता को अपने लेखन का आधार बनाया उनकी न केवल उपेक्षा की गई बल्कि उनके लेखन को दकियानूसी, रूढिवादी लेखन कह कर खारिज किया जाने लगा । मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव में हो रहे लेखन को प्रगतिशील कहकर स्थापित किया जाने लगा। साहित्य में प्रगतिशीलता का पर्याय मार्क्सवादी लेखन हो गया। जबकि भारतीय लेखन परंपरा हमेशा से प्रगतिशील रही है। मार्क्सवादी विचारधारा के असर ने साहित्य में समूह भी पैदा किए जो अपने साथी सदस्यों की रचनाओं का ख्याल रखने लगे। बहुधा रचना की आलोचना का आधार रचना की जगह लेखक की विचारधारा होने लगी। परिणाम ये हुआ कि ज्यादातर लेखन एकांगी होने लगा। जब कोई लेखन एकांगी होने लगता है तो विषयों की कमी होने लगती है । जब विषयों की कमी होने लगी तब इस विचारधारा के लेखकों ने ‘न लिखने का कारण’ ढूंढना आरंभ किया। इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ के वर्षों में हिंदी साहित्य में ‘न लिखने के कारण’ का जमकर शोर मचा था। लेकिन मार्क्सवादी ये भूल गए कि कोई भी विचार या दर्शन साहित्य लेखन का आधार नहीं हो सकता है। ये सिर्फ साहित्य में लेखन को आधार तो प्रदान कर सकते हैं लेकिन साहित्य की अंतर्वस्तु नहीं हो सकते हैं। कुबेरनाथ राय वाली पुस्तक की भूमिका में हनुमान प्रसाद शुक्ल ने ठीक से इस अवधारणा को व्याख्यायित किया है, साहित्य मनुष्य के चित्त को समृद्ध करता है. उसका परिष्कार करता है, उसके क्षितिज का विस्तार करता है, उसकी झुधा-तृषा को परिशांत करता है, मनोग्रंथियों को खोलता और मनोरोगों का उपचार करता है। मार्क्सवादी इसको समझ नहीं पाए और वो मार्क्स के दर्शन को साहित्य की अंतर्वस्तु बनाने में जुट गए। परिणाम ये हुआ कि सर्जनात्मक लेखन नारेबाजी या फिर राजीनितक दल का घोषणा पत्र बनने लगा। पाठक इससे ऊबने लगे और साहित्य से दूर होने लगे। अब समय है कि साहित्य में मार्क्सवादियों की लेखन प्रविधि को चुनौती दी जाए और उन लेखकों पर गंभीरता से काम हो जिन्होंने मार्क्सवादी चिंतन की तुलना में भारतीय चिंतन परंपरा को अपनाया और साहित्य में भारतीयता को जीवित रखा। कुबेरनाथ राय से लेकर नरेन्द्र कोहली तक ऐसे लेखकों की लंबी सूची है जिनको मार्क्सवादियों ने छलपूर्वक मुख्यधारा में आने से रोके रखा। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास जैसी संस्थाओं को भारतीय चिंतन परंपरा के लेखकों की रचनाओं को पाठकों तक पहुंचाने का उपक्रम करना चाहिए ताकि भारतीय लेखन की समग्र तस्वीर पाठकों के सामने हो। 

Saturday, November 6, 2021

चयन की पारदर्शिता पर उठे सवाल


फिल्मकारों और फिल्मों से जुड़ी एक संस्था है जिसका नाम है फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया (एफएफआई)। अन्य कामों के अलावा ये संस्था हमारे देश की उस फिल्म का चयन भी करती है जो आस्कर अवार्ड के लिए भेजी जाती है। आस्कर के लिए भेजी जानी वाली फिल्मों के चयन को लेकर बहुधा विवाद होते रहते हैं। इस वर्ष भी हुआ। इस वर्ष फिल्म फेडरेशन ने तमिल फिल्म ‘कुझंगल’ का चयन किया और हिंदी फिल्म ‘सरदार उधम’ को नहीं भेजा गया। तर्क ये दिया गया कि फिल्म सरदार उधम बहुत लंबी है और इसमें अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव दिखाया गया है। वैश्वीकरण के इस दौर में घृणा का ये भाव अपेक्षित नहीं है। किसी फिल्म को आस्कर में नहीं भेजने के ये कारण समझ से परे है। स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म शिंडलर्स लिस्ट जिसने आस्कर में कई पुरस्कार जीते थे वो तीन घंटे से अधिक अवधि की फिल्म है। इस फिल्म की लंबाई पर कभी आस्कर की जूरी ने सवाल नहीं उठाया। इस फिल्म को लेकर कभी प्रश्न नहीं उठा कि इसमें नाजियों का चित्रण आपत्तिजनक है। इसके अलावा फिल्म गान विद द विंड की लंबाई भी तीन घंटे अट्ठावन मिनट थी। फिल्म मेरा नाम जोकर की लंबाई के बारे में सबको ज्ञात ही  है। इस फिल्म की अवधि इतनी अधिक थी इसमें दो मध्यांतर थे। हमारे यहां से भी पूर्व में कई ऐसी फिल्में हैं जो आस्कर में भेजी जा चुकी है जो फिल्म सरदार उधम से लंबी है।  इसलिए एफएफआई की तरफ से जो तर्क दिए गए वो बचकाने तो हैं ही अपने देश के इतिहास को भी सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देखने के दोष का शिकार हो गया। जलियांवाला बाग नरसंहार का जब चित्रण होगा तो उसको इसी तरह से देखा जाएगा। दरअसल इस तरह की बचकानी दलीलों की वजह से एफएफआई की साख लगातार छीजती चली गई है। आज भले ही ये संस्था दावा करे कि वो भारतीय फिल्मकारों की प्रतिनिधि संस्था है लेकिन वर्तमान दौर के बड़े फिल्मकार या तो इससे जुड़े नहीं हैं या यहां सक्रिय नहीं हैं। भारत सरकार को इस संस्था को मान्यता पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है।

आस्कर में भारतीय फिल्म की प्रविष्टि को लेकर विवाद अभी ठंडा भी हुआ नहीं था कि एक और विवाद सामने आ गया है। इसमें भी फिल्म फेडरेशन का नाम आ रहा है। ये विवाद उठा है गोवा में आयोजित होनेवाले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (आईआईएफआई) के दौरान दिखाई जाने वाली एक फिल्म डिक्शनरी को लेकर। इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया का आयोजन गोवा में 20 से 28 नवंबर तक है। इसका आयोजन सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एक संस्था फिल्म समारोह निदेशालय करती है। इस अंतराष्ट्रीय फेस्टिवल के दौरान इंडियन पैनोरमा के अंतर्गत दिखाई जानेवाली फिल्मों की सूची जारी की गई। इस सूची में आमतौर पर चौबीस फिल्में होती हैं जो फेस्टिवल के दौरान दिखाई जाती हैं। इन फिल्मों का चयन एक जूरी करती है। जूरी सदस्यों और अध्यक्ष का चयन फिल्म समारोह निदेशालय करती है। इस बार भी बारह सदस्यों की एक जूरी ने इंडियन पैनोरमा के तहत दिखाई जानेवाली फिल्मों का चयन किया। इस जूरी के अध्यक्ष कन्नड फिल्मकार एस वी राजेन्द्र सिंह बाबू थे। राजेन्द्र सिंह बाबू के बारे में बताते चलें कि उन्होंने पिछले चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए चुनाव प्रचार किया था। उनकी अध्यक्षता वाली जूरी ने 24 फिल्मों का चयन किया और अपनी संस्तुति फिल्म समारोह निदेशालय को भेज दी। जब निदेशालय ने इंडियन पेनोरामा के फिल्मों की घोषणा की तो उसमें 24 की जगह 25 फिल्मों के नाम थे। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार में मंत्री ब्रत्य बसु की फिल्म डिक्शनरी को इसमें शामिल किया गया। जब इस बारे में जानकारी ली गई तो पता चला कि फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया ने एकमात्र इसी फिल्म की संस्तुति की थी और इंडियन पैनोरमा के नियमों के अंतर्गत फिल्म समारोह निदेशालय की आतंरिक समिति ने इस फिल्म का चयन किया। 

यहां तक तो सबकुछ सामान्य लगता है कि एफएफआई ने एकमात्र फिल्म की संस्तुति की और निदेशालय की समिति ने उसका चयन कर लिया। लेकिन इसके तह में जाने पर एक असामान्य कहानी सामने आई। ममता बनर्जी सरकार में मंत्री और फिल्मकार ब्रत्य बसु की फिल्म डिक्शनरी की प्रविष्टि इंडियन पैनोरमा के लिए आई थी। इंडियन पैनोरमा की जूरी ने आरंभिक दौर में ही इस फिल्म को देखकर उसको फेस्टिवल के दौरान प्रदर्शित करने योग्य नहीं पाया। इस बीच फिल्म फेडरेशन ने डिक्शनरी को लेकर अपनी संस्तुति फिल्म समारोह निदेशालय को भेज दी। निदेशालय की आतंरिक कमेटी ने इसका चयन कर 25 फिल्मों की सूची जारी कर दी। ये ज्ञात नहीं हो सका कि निदेशालय ने फिल्म फेडरेशन से ये बात जाननी चाही कि नहीं उनकी तरफ से एकमात्र फिल्म की संस्तुति ही क्यों आई, जबकि आमतौर पर वो पांच फिल्मों की संस्तुति करते हैं।  नतीजा यह हुआ कि एक ऐसी फिल्म जिसको जूरी ने रिजेक्ट कर दी थी वो प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों की सूची में आ गई। प्रश्न ये उठता है कि अगर इस तरह की कार्यप्रणाणी है तो फिर जूरी की राय का क्या अर्थ है? क्यों बीस पच्चीस दिन तक जूरी के सदस्य दो सौ बीस फिल्मों को देखकर उसमें से 24 फिल्मों का चयन करते हैं। हर फिल्म पर माथापच्ची होती है। फिल्म समारोह निदेशालय को इस पूरे प्रकरण पर स्थिति साफ करनी चाहिए। फिल्मों के चयन को लेकर पारदर्शिता होनी चाहिए अन्यथा चयन की प्रक्रिया से फिल्मकारों का विश्वास डिग जाएगा। 

इसके पहले भी फिल्म समारोह निदेशालय के फैसलों को लेकर विवाद होते रहे हैं। 2017 के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में फिल्म एस दुर्गा और फिल्म न्यूड के प्रदर्शन को लेकर अच्छा खासा विवाद उठा था। फिल्म एस दुर्गा और फिल्म न्यूड को इंडियन पैनोरमा से बाहर करने के फैसले के खिलाफ जूरी के अध्यक्ष सुजय घोष ने इस्तीफा दे दिया था। उनका कहना था कि बिना उनको बताए इन फिल्मों को प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों की सूची से बाहर कर दिया गया । ऐसी अप्रिय स्थिति इस बार भी हो सकती है कि जूरी के अध्यक्ष या सदस्य इस बात को लेकर इस्तीफा दे दें कि उनकी राय के खिलाफ फिल्म का प्रदर्शन होने जा रहा है।  एस दुर्गा के प्रदर्शन को लेकर तो विवाद इतना बढ़ा था कि इस फिल्म के निर्माता सूचना और प्रसारण मंत्रालय के खिलाफ केरल हाईकोर्ट चले गए थे। उस वक्त भी फिल्म समारोह निदेशालय की कार्यपद्धति को लेकर सवाल उठे थे। अब एक बार फिर से नियमों की आड़ में एक ऐसी फिल्म को जोड़ा गया जिसको जूरी ने खारिज किया था। विवाद बढ़ने के बाद अगर निदेशालय इस फिल्म को सूची से हटाती भी है तो उससे एक राजनीतिक विवाद जन्म ले सकती है। ममता बनर्जी की पार्टी को भारतीय जनता पार्टी पर या मोदी सरकार पर निशाना साधने का एक मौका मिल जाएगा। वो ये आरोप लगा सकती हैं कि उनकी पार्टी के नेता की फिल्म को जानबूझकर हटा गया। एक ऐसा मुद्दा खड़ा हो सकता है जिसमें राजनीति नहीं है सिर्फ अफसरों की लापरवाही या कुछ और है। केंद्र सरकार ने कुछ दिनों पूर्व सूचना और प्रसारण मंत्रालय की फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं के पुनर्गठन की बात की थी, अब वक्त आ गया है कि उस घोषणा पर अमल किया जाए। फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं का पुनर्गठन हो और नियमों को पारदर्शी बनाकर जिम्मेदारियां भी तय की जाएं ताकि भविष्य में विवाद न हों और फेस्टिवल की लोकप्रियता भी बढ़े। 

Sunday, October 31, 2021

अर्थहीन अतिसक्रियता के अराजक मंच


पिछले दिनों अंग्रेजी के एक स्तंभकार ने कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का आकलन करते हुए अंग्रेजी में एक लेख लिखा। अपने लेख के लिंक को उन्होंने ट्विटर पर साझा किया और उसमें उन्होंने राहुल गांधी की जगह राजीव गांधी लिखा। थोड़ी ही देर में उन्होंने अपने उस ट्वीट को डिलीट कर दिया। फिर से लिंक साझा किया, इस थोड़ी लंबी टिप्पणी लिखी लेकिन फिर उन्होंने राहुल गांधी की जगह राजीव गांधी लिख दिया। फिर डिलीट कर दिया और तीसरी बार में उन्होंने अपने लेख के अनुसार ट्वीटर टिप्पणी में राहुल गांधी और कांग्रेस लिखा। तबतक कुछ लोग उनसे मजे ले चुके थे। उनको राजीव गांधी की भक्ति से बाहर निकलने की सलाह दे चुके थे। कई ने उनके पहले ट्वीट का स्क्रीन शॉट लेकर उनको राजीव गांधी के प्रभाव से मुक्त होने की सलाह भी दे डाली थी। ट्वीटर की दुनिया में ऐसा कई बार कई लोगों के साथ होता है। दरअसल इंटरनेट मीडिया की इस दुनिया का स्वभाव बिल्कुल अलग है। कई काम जो इंटरनेट मीडिया ने किया उसको रेखांकित करना तो आवश्यक है लेकिन इसके प्रभाव पर भी विचार करना चाहिए। इंटरनेट मीडिया के इन मंचों ने वैसे सभी लोगों को उनके मूल स्वभाव और रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दिया। इस मीडिया ने वैसे सभी स्तंभकारों के पक्ष को भी सामने ला दिया जो ये दावा करते नहीं थकते थे कि वो निष्पक्ष हैं। निष्पक्ष होने का दावा करनेवाले लगभग सभी स्तंभकार, टिप्पणीकारों की सोच का परत दर परत सामने आ गया। ट्वीटर, फेसबुक और अन्य इंटरनेट माध्यम को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि इसने निष्पक्षता की आड़ में इस या उस राजनीतिक दल या विचारधारा का समर्थन करनेवालों के सामने से आड़ हटा दी । 

पिछले दिनों शाह रुख खान के पुत्र आर्यन खान पर नशाखोरी का आरोप लगा। वो जेल गए। अदालती कार्यवाही चली और आखिर में बांबे हाई कोर्ट ने उनको जमानत दे दी। गिरफ्तारी से लेकर जमानत पर बांबे हाईकोर्ट के फैसले तक इंटरनेट मीडिया के माध्यमों पर ट्वीटर और फेसबुक वीरों ने जमकर तलबारबाजी की। अदालत पर सवाल उठाए। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और उसके अधिकारियों की मंशा पर प्रश्न खड़े किए गए। केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास हुआ। परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री मोदी को भी इस विवाद में शामिल करने का प्रयास हुआ। अदालत से पहले इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय लोगों ने अपना निर्णय सुना दिया कि आर्यन बेगुनाह है। ये सोचने की जहमत नहीं उठाई कि अगर शाह रुख खान के बेटे को विशेष अदालत ने जमानत नहीं दी तो उसका कोई आधार होगा। उस न्यायाधीश के बारे में विचार नहीं किया गया जिसके फैसले पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं। ये भी नहीं सोचा गया कि मुंबई हाईकोर्ट ने तीन दिनों तक केस की दलीलों को क्यों सुना? केस के मेरिट पर बहस करना वकीलों और उसपर निर्णय सुनाना अदालत का काम है। ट्वीटरवीरों को धैर्य कहां है। वो तो अपने मन का फैसला सुनना चाहते हैं। अगर उनके मनमुताबिक निर्णय नहीं आया या किसी जांच एजेंसी का कोई कदम उनके हिसाब  नहीं है तो बगैर कुछ सोचे समझे आलोचना शुरु कर देते हैं। निर्णयात्मक टिप्पणियां करने लग जाते हैं। यह एक नया ट्रेंड है जो इंटरनेट मीडिया के ये अराजक मंच अपने उपयोगकर्ताओं को देते हैं। लोकतंत्र में आलोचना करने का अधिकार सभी नागरिकों को है, लेकिन उसका कोई आधार तो होना चाहिए। जब मंच ही अराजक होने की छूट देता है तो उपयोगकर्ता क्यों परहेज करें। 

इंटरनेट मीडिया के मंचों पर एक तीसरी प्रवृत्ति दिखाई देने लगी है। ये प्रवृति है समाज में जहर घोलने की कोशिश। जैसे ही शाह रुख खान का पुत्र गिरफ्तार होता है तो इस तरह के ट्वीट आने लगते हैं कि देश के मुस्लिम सुपरस्टार को तंग किया जा जा रहा है। मुस्लिम सुपरस्टार को चुप कराने की साजिश की जा रही है। अब ये प्रवृत्ति कितनी घातक है इसपर विचार किया जाना चाहिए। शाह रुख खान की कला का सम्मान इस देश के हिंदुओं ने भी किया। उन्होंने भी शाह रुख खान की फिल्में देखीं। शाह रुख खान को क्या सिर्फ मुसलमानों ने सुपरस्टार बनाया। क्या सिर्फ मुस्लिम दर्शक शाह रुख खान की फिल्मों के प्रशंसक हैं। बिना ये सोचे समझे कला को भी सांप्रदायिकता का शिकार बनाने की जो मानसिकता है वो भी इसी इंटरनेट मीडिया के मंच पर दिखाई देती है। इस तरह के ट्वीट से समाज बंटता है। समाज में वैमनस्यता फैलती है जो किसी भी तरह से न तो देशहित में है और न ही हमारे अपने हित में । इंटरनेट मीडिया के इन मंचों के अराजक स्वभाव को न तो देशहित की चिंता है और न ही समाज हित की। सांप्रदायिक सोच का खुले आम प्रकटीकरण और उस सोच को मुखर और मौन दोनों तरह का समर्थन मिलता है। क्या इंटरनेट मीडिया के उपयोगकर्ताओं ने कभी ये सोचा कि किसी भी कला को हिंदू मुसलमान में विभक्त करके वो कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं। नहीं सोचा। सोचने का समय आ गया है। 

इंटरनेट मीडिया खासकर ट्वीटर पर इन दिनों कुछ लोग अति सक्रियता के शिकार भी नजर आते हैं। छोटी छोटी बातों पर कैंपेन चला देना और फिर संबंधित व्यक्ति या समूह  कंपनी पर हमलावर अंदाज में अपनी बातें करना इसी अति सक्रियता का उदाहरण है। ऐसे कई छोटे छोटे समूह खासतौर पर ट्वीर पर देखे जा सकते हैं जो हर दिन ये ढूंढते हैं कि आज क्या ट्रेंड करवाया जाए। इस अति सक्रियता से कई बार नकारात्मकता का भाव सामने आता है। एक ऐसा नकार जो समाज और देश हित में नहीं होता। लेकिन ट्रेंड करवाने वाले इन समूहों को इसका भान नहीं होता है कि उनके तथाकथित कैंपेन का असर कितना गहरा होता है। पिछले दिनों एक विज्ञापन एजेंसी के बड़े अधिकारी से बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि अब तो विज्ञापन एजेंसियां क्रिएटिव बनाते समय कई बार इस बात को ध्यान में रखकर काम करती हैं कि ये विवादित होगा कि नहीं। कई बार जानबूझ कर विवाद पैदा करनेवाले विज्ञापन बनाए जाते हैं। ट्वीटर पर अतिसक्रिय समूह बहुधा इस तरह के विज्ञापनों को लेकर हो हल्ला मचाने लगते हैं और विज्ञापन एजेंसी का काम पूरा हो जाता है। फिल्मों और वेब सीरीज को लेकर इस तरह के विवादित कैंपेन आपको ट्वीटर पर नियमित अंतराल पर देखने को मिलते हैं। किसी कार्यक्रम में किसी को बुलाने को लेकर आए दिन हो हल्ला मचता ही रहता है। किसी समिति में किसी के नामांकन पर भी पक्ष विपक्ष में टीका टिप्पणी होती ही रहती है।  इसके अलावा इन दिनों इंटरनेट मीडिया पर धर्म को लेकर भी तरह तरह की टिपणियां देखने को मिलती हैं। कई बार कट्टर हिंदू जैसे शब्द भी पढने को मिलते हैं। हिंदू और कट्टरता दोनों नदी के दो किनारे हैं जो कभी मिल ही नहीं सकते। हिंदू विचार  या हिंदू दर्शन से अनभिज्ञ लोग इस तरह की शब्दावली का उपयोग कर खुद को हास्यास्पद बनाते हैं। ट्वीटर पर कोई छोटा मोटा कैंपेन भी चलता है तो ट्विटर पर सक्रिय लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। वो ये भूल जाते हैं कि एक सौ तीस करोड़ से अधिक आबादी वाले इस देश में ट्वीटर पर सिर्फ सवा दो करोड़ लोग सक्रिय हैं। फेसबुक पर करीब चौंतीस करोड़। इसमें भी कितने लोग सक्रिय हैं वो देखने पर संख्या और कम हो जाती है। इसलिए ट्वीटर और फेसबुक पर चलनेवाली बहसों का इसका कोई अखिल भारतीय प्रभाव होता होगा, इसमें संदेह है। 


Sunday, October 24, 2021

लता को सावरकर ने संवारा


महापुरुष वो होते हैं जो अपने ज्ञान से मानव जाति का कल्याण मात्र नहीं करते बल्कि पीढ़ियों को संस्कारित करते हैं । अपने विचार और ज्ञान से वो प्रतिभा को न सिर्फ चिन्हित करते हैं बल्कि उनको उस पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं जो महानता की ओर जाता है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद और वीर सावरकर ऐसे ही महापुरुष थे जिन्होंने अपनी वाणी और व्यक्तित्व से कई लोगों को संस्कारित किया। वीर सावरकर ने तो  न केवल भारत माता को गुलामी की जंजीर से मुक्त करने का स्वप्न देखा बल्कि उसको साकार करने के लिए लंबे समय तक भयंकर यातनाएं झेलीं। इतना ही नहीं उन्होंने अपने प्रेरणादायी व्यक्तित्व से, अपने विचारों से पीढ़ियों को प्रभावित किया। कई कई ऐसे नायक तैयार कर दिए जो भारत के भाल पर चमकता सितारा है। ऐसा ही एक सितारा है लता मंगेशकर। भारत रत्न लता मंगेशकर । 

कुछ दिनों पहले लता मंगेशकर ने लिखा,आज से 90 साल पहले 18 सितंबर 1931 को मेरे पिताजी के ‘बलवंत संगीत मंडली’ के लिए वीर सावरकर जी ने एक नाटक लिखा जिसका नाम था, संन्यस्त खड्ग। उसका पहला प्रयोग मुंबई (तब बांबे) ग्रांट रोड के एलफिस्टन थिएटर में हुआ जिसमें बाबा ने ‘सुलोचना’ की भूमिका की थी। लता मंगेशकर जब ये लिख रही थीं तो वो उस दौर कि बात कर रही थीं जब उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर अपनी संगीत मंडली के जरिए संगीत और रंगमंच की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप कर रहे थे। दीनानाथ मंगेशकर ने मात्र 18 वर्ष की उम्र में अपने दोस्तों के साथ मिलकर बलवंत संगीत मंडली का गठन किया था। अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरे के दादा कृष्णराव कोल्हापुरे भी उस वक्त इस संगीत मंडली में बेहद सक्रिय थे। जब संगीत मंडली के कार्यक्रम लोकप्रिय होने लगे तो दीनानाथ मंगेशकर ने अपनी मंडली के लिए नए नाटक लिखवाने आरंभ किए। उस दौर में विनायक दामोदर सावरकर ने बलवंत संगीत मंडली के लिए संन्यस्त खड्ग नाटक लिखा था। जिसकी चर्चा लता मंगेशकर ने की है। ये नाटक बेहद लोकप्रिय हुआ था। दीनानाथ मंगेशकर और सावरकर के संबंध प्रगाढ़ होते चले गए। अब ये संबंध औपचारिकताओं की सीमा तोड़कर घरेलू संबंध जैसे हो गए थे। लता मंगेशकर ने कई इंटरव्यू में वीर सावरकर के साथ अपने संबंधों को बहुत आत्मीयता के साथ याद किया है। वीर सावरकर ने कैसे लता मंगेशकर के जीवन की दिशा बदल दी इसपर आने के पहले आपको बता दें कि बलवंत संगीत मंडली के मंच पर ही पहली बार लता मंगेशकर ने गाया था। इसकी बेहद दिलचस्प कहानी है जिसको लता मंगेशकर ने अपने एक इंटरव्यू में बताया है। उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर अपनी मंडली के साथ कोल्हापुर गए थे, साथ में अपनी बेटी को लेकर भी गए थे। नौ साल की छोटी सी बच्ची हमेशा पिता के साथ रहती थी। वहां के माहौल को देखकर अचानक बच्ची ने पिता से स्टेज पर गाने के बारे में पूछा । पिता थोड़े चकित हुए जब बिटिया ने कहा कि वो उनके साथ गाना चाहती हैं। मुस्कुराते हुए पिता ने पुत्री को गाने की अनुमति तो दी लेकिन ये पूछा कि वो कौन सा राग गाएगी। बेटी के मुंह से निकला राग खंबावती। ये सुनकर दीनानाथ मंगेशकर को आश्चर्य तो हुआ पर प्रसन्न भी हुए। कहा चलो आज तुम स्टेज पर गाकर दिखाओ। कोल्हापुर के नूतन थिएटर में लता मंगेशकर ने राग खंबावती तो गाया ही, दो और मराठी गाने गाए। इस संगीत मंडली से भी सावरकर का गहरा जुड़ाव था।  और लता मंगेशकर के पिता उनके साथ अपने अनुभवों को साझा करते थे। एक दूसरे से सलाह मशविरा किया करते थे।

मंगेशकर परिवार में जीवन अपनी गति से चल रहा था। लता मंगेशकर जब तेरह साल की हुईं तो अचानक से उनके परिवार पर वज्रपात हुआ। उनके पिता गुजर गए। अब परिवार के सामने कई तरह का संकट खड़ा होगा। इतने कम उम्र में लता मंगेशकर के कंधे पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी आ गई। पिता की मृत्यु के बाद लता मंगेशकर बेहुत परेशान रहने लगी थी। संघर्ष के उस दौर में भी मंगेशकर परिवार को वीर सावरकर का साथ मिला था। उन्होंने अपने सोच और विचारों से लता मंगेशकर को प्रभावित किया। यतीन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक में लता मंगेशकर  की जिंदगी को अहम मोड़ देने के सावरकर के योगदान को रेखांकित किया है। अपनी किशोरावस्था में लता मंगेशकर ने समाज सेवा करने की ठान ली थी। अपने इस निर्णय के बारे में लता ने वीर सावरकर से चर्चा की थी। सावरकर ने ही उन्हें समझाया था कि तुम ऐसे पिता की संतान हो जिसका शास्त्रीय संगीत और कला में शिखर पर नाम चमक रहा है। अगर देश की सेवा ही करनी है तो संगीत के मार्फत समाजसेवा करते हुए भी उसको किया जा सकता है। यहीं से लता मंगेशकर का मन भी बदला जो उन्हें संगीत की कोमल दुनिया में बड़े संघर्ष की तैयारी के लिए ले आया। हम भारतीयों को सावरकर का ऋणी होना चाहिए कि उन्होंने एक बड़ी प्रतिभा को खिलकर सफल होने का जज्बा दिया। कल्पना कीजिए कि अगर सावरकर ने लता मंगेशकर को ये सलाह न दी होती तो क्या होता। स्वाधीनता का स्वप्न देखनेवाले एक क्रांतिवीर ने अपनी मिट्टी में जन्मी प्रतिभा को रास्ता दिखाकर उसको संवारा। बाद के वर्षों में भी लता मंगेशकर ने वीर सावरकर के लिखे कई गीतों को अपनि वाणी दी। सावरकर का शिवाजी पर लिखा एक मराठी गीत आज भी बेहद लोकप्रिय है। इस गीत के बोल हैं ‘हे हिंदू नृसिंहा प्रभो शिवाजी राजा’। लता मंगेशकर ने जब संगीत पर आधारित फिल्म बनाने की सोची तो उसका मुहुर्त वीर सावरकर से ही करवाया था। कहना ना होगा कि वीर सावरकर ने लता मंगेशकर की जिंदगी को जो दिशा दी उसने सुरों की दुनिया को लता जैसा कोहिनूर दिया। 

Saturday, October 23, 2021

इतिहास लेखन की सांप्रदायिक प्रविधि


गांधी जयंती के अवसर पर किशोरों के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। उस कार्यक्रम में महात्मा गांधी से जुड़े कई सत्र आयोजित किए गए थे। एक सत्र में बच्चों को पांच मिनट तक बापू की जिंदगी और उनके सिद्धांतों पर बोलना था। वक्ता आ रहे थे और तय समय में अपनी बात रखकर जा रहे थे। कुछ प्रतिभागी हिंदी में और कुछ अंग्रेजी में अपनी बात रख रहे थे। आखिरी विद्यार्थी ने गांधी की जिंदगी पर बोलना आरंभ किया और उनकी हत्या पर अपनी बात खत्म की। अपने वक्तव्य के अंत में उसने कहा कि गांधी वाज किल्ड बाय ए हिंदू फैनेटिक नाथूराम गोडसे ( गांधी की हत्या एक हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने की)। बात रखने के बाद वो चला गया। सभागार में सबकुछ सामान्य था लेकिन मेरे मन में एक बात चल रही थी कि उसने ‘हिंदू फेनेटिक’ शब्द का उपयोग क्यों किया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मैं उसके पास गया और उसको लेकर सभागार से बाहर निकला। मैंने उस किशोर से पूछा कि आपने नाथूराम गोडसे को हिंदू कट्टरपंथी क्यों कहा? क्या सिर्फ कट्टरपंथी कहना काफी नहीं था। उसने जो उत्तर दिया उसने एक और बड़ा प्रश्न मेरे सामने खड़ा कर दिया। उसने कहा कि उसको बचपन से ही ये बताया/पढ़ाया जा रहा है कि गांधी कि हत्या एक हिंदू ने की। इस प्रसंग के बाद मैंने कुछ इतिहासकारों की पुस्तकों को टटोलना आरंभ किया। कई जगहों पर गोडसे को हिंदू फेनेटिक या हिंदू कट्टरपंथी कहा गया है। बच्चो को पढ़ाई जानेवाली पुस्तक जिसको भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाली संस्था राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) तैयार करती है उसमें भी परोक्ष रूप से नाथूराम गोडसे को हिंदू बताया गया है। इस पुस्तक में कहा गया है कि गांधी की हत्या करनेवाला युवक ब्राह्मण था, पुणे का रहनेवाला था और चरमपंथी हिंदू अखबार का संपादक था।   

इन प्रश्नों से जूझ ही रहा था कि एक दूसरा प्रसंग सामने आया। ये प्रसंग अपनी लेखनी से ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देनेवाले पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या से जुड़ा है। गणेश शंकर विद्यार्थी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरन ‘प्रताप’ साप्ताहिक पत्र के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनमानस तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। उनका एक पांव जेल के अंदर और एक जेल के बाहर रहता था। राष्ट्रवादियों के साथ उनका संपर्क सतत बना रहता था। गांधी की तरह इनकी भी हत्या कर दी गई थी। इनकी हत्या किसने की इस पर जितना लिखा गया उससे अधिक छिपाया गया। ज्यादातर जगहों पर ये उल्लेख मिलता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी दंगाइयों के शिकार बन गए। कई जगह तो सिर्फ इतना उल्लेख मिलता है कि विद्यार्थी जब समाज में समरसता स्थापित करने में लगे थे तो उन्मादियों की भीड़ ने उनको मार डाला। इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है कि उनकी हत्या करनेवाला कौन था। गांधी के हत्यारे के विपरीत यह नहीं बताया जाता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या करनेवाला किस पंथ या मजहब से जुड़ा था। उनके हत्यारे की पहचान छिपा ली जाती है। गांधी जयंती समारोह के बाद मन में ये प्रश्न उठा कि इस बात की खोज की जाए कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या किसने की। इसको खोजना आरंभ किया। कुछ जगहों पर यह मिला कि अंग्रेज अधिकारियों ने गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या की साजिश रची थी और दंगों की आड़ में उसको अंजाम तक पहुंचा दिया। युगपुरुष गणेश शंकर विद्यार्थी पुस्तक में उनकी हत्या के एक चश्मदीद गनपत सिंह का बयान मिला। इसमें  25 मार्च की दोपहर तीन से चार बजे कानपुर के चौबेगोला के पास की घटना का वर्णन है। ‘इसी समय बकरमंडी के मुसलमानों का दल नई सड़क पहुंच गया और इस प्रकार गणेश जी फिर दो गिरोहों के बीच फंस गए। मैं उनसे पंद्रह गज की दूरी पर खड़ा हुआ था। इतने में एक मुसलमान चिल्लाकर बोला यही गणेश शंकर विद्यार्थी हैं , इसे खत्म कर दो, बचने न पाए। गिरोह में से सबसे पहले दो पठानों ने गणेश जी के साथ एक साथी पर हमला किया। वह व्यक्ति दस मिनट के अंदर वहीं मर गया। इतने में  कुछ मुसलमान गणेश जी पर दौड़ पड़े और एक ने उनपर छुरे से वार कर दिया और दूसरे ने कांते का प्रहार किया। गणेश जी भूमि पर गिर पड़े और कुछ अन्य लोग भी उनपर प्रहार करने लगे।‘  तीन चार दिन बाद विद्यार्थी जी की लाश मिली थी। इस प्रसंग का उल्लेख लखनऊ के लोकोदय प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक अंतर्वेद प्रवर में भी मिलता है। इस पुस्तक में गणेश जी के साथ रहे शंकरराव टाकलीकर का बयान प्रकाशित है। उसमें भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या मुसलमानों की भीड़ ने की थी। 

अब गांधी जी की हत्या के प्रसंग को और गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या की घटना और उसपर प्रचलित लेखों की भाषा पर नजर डालें तो आपको पता चल जाएगा कि इतिहास के साथ किस तरह का छल किया गया है। गांधी की हत्या ‘हिंदू कट्टरपंथी’ करता है और विद्यार्थी जी की हत्या ‘उन्मादी भीड़’ करती है। इतिहास लेखन की ये सांप्रदायिक प्रविधि है। इस तरह के लेखन के पीछे की मंशा क्या हो सकती है इपर भी विचार किया जाना आवश्यक है। वामपंथी इतिहासकारों के इस तरह के छल की सूची बहुत लंबी है। इतिहास के नाम पर जिस तरह का लेखन स्वतंत्र भारत में विचारधारा विशेष के इतिहासकारों ने किया वो अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता है। मार्क्सवादियों के बौद्धिक प्रभाव में इस तरह की धारा अकादमिक जगत में चली जिसने कई पीढ़ी के विद्यार्थियों के मन में अपने ही इतिहास को लेकर एक अलग छवि का निर्माण किया। समाज में वैमनस्यता की लकीर गहरी करे में इस तरह का इतिहास लेखन भी जिम्मेदार है। यह सब तब हो रहा था कि जब हमारे देश में साक्षरता दर कम थी और संचार के अन्य माध्यम नहीं थे । जो लिख दिया जाता था उसको अंतिम सत्य मान लिया जाता था। उनके लिखे को चुनौती देनेवालों को अकादमिक जगत में ये स्वीकार ही नहीं करते थे। उनकी उपेक्षा की जाती थी। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना के उद्देश्यों और उसपर मार्क्सवादी इतिहासकारों के कब्जे के इतिहास पर नजर डालने से ये सब बहुत स्पष्ट रूप से दिखता है। जब देश स्वतंत्र हुआ था उस समय अगर इतिहास अनुसंधान परिषद में बगैर वैचारिक फिल्टर लगाए इतिहास लेखन का काम हुआ होता तो आज इतिहास को लेकर जो भ्रम है वो नहीं होता। उस वक्त स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े व्यक्तियों के अनुभवों को कलमबद्ध कर उसका प्रकाशन किया जाता तो इतिहार की सूरत अलग होती। लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों ने ऐसा होने नहीं दिया।  एकांगी इतिहास लेखन का परिणाम यह हुआ कि भारत के बौद्धिक चिंतन कि जो धारा परतंत्रता के दौर में प्रखरता से विदेशी आक्रांताओं का प्रतिकार कर रही थी वो कुंद होने लगी। चिंतन धारा को बाधित कर अपने वैचारिकता को आगे बढ़ाने का जो उपक्रम मार्क्सवादी इतिहासकारों और बौद्धिकों ने किया उसके पीछे का सोच सिर्फ अपनी विचारधारा को पुष्ट करना था। उस विचारधारा के आधार बनाई गई राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट पक्का करना था। अपने इस काम में वो कई सालों तक सफल भी रहे लेकिन सत्य को लंबे समय तक रोक पाना बेहद मुश्किल काम है। इतिहास लेखन की मार्क्सवादि पद्धति, जिसको उसके पैरोकार वैज्ञानिक पद्धति करार देते थे, पक्षपाती पद्धति दिख रही है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में इतिहास लेखन की इस सांप्रदायिक पद्धति को समावेशी बनाने की आवश्यकता है।  

Saturday, October 16, 2021

चमकीली दुनिया का ‘नशीला’ यथार्थ


हिंदी फिल्मों के जानेमाने अभिनेता शाह रुख खान के पुत्र इन दिनों नशाखोरी के आरोप में जेल में हैं। उनकी जमानत याचिका पर कई बार सुनवाई होने के बाद अदालत ने फैसला सुरक्षित कर लिया है। यह एक व्यस्थागत प्रक्रिया है जिसका संवैधानिक अधिकार अदालत को है। अदालत ने उसी प्रक्रिया और अधिकार के अंतर्गत ऐसा किया है। इस घटना से कई प्रश्न खड़े हो रहे हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया, जिसको बालीवुड भी कहा जाता है, से पिछले दिनों नशे को लेकर कई सनसनीखेज खबरें आती रही हैं। सुशांत सिंह राजपूत के असामयिक निधन और उसके बाद की घटनाओं की याद अभी देश के मानस में ताजा हैं। उस दौर में ही प्रख्यात अभिनेत्री दीपिका पादुकोण, श्रद्धा कपूर जैसी कई अन्य अभिनेत्रियों से ड्रग्स के मामले में पूछताछ हुई थीं। ये ऐसी घटनाएँ हैं जो इस ओर संकेत करती हैं कि बालीवुड की चमकीली दुनिया का यथार्थ कितना काला है या ड्रग्स के दलदल में फिल्मी दुनिया कितनी गहरे धंस चुकी है। फिल्मी दुनिया से जुड़े कई लोग पहले भी ड्रग्स के मकड़जाल में फंसे हैं। संजय दत्त का केस तो बहुचर्चित रहा है। अभिनेता फरदीन खान और विजय राज के नाम ड्रग्स मामले में न केवल सार्वजनिक हुए बल्कि उनको तो जेल भी जाना पड़ा था। इसके अलावा भी कई ऐसे नाम हैं जिनके बारे में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोग जानते हैं लेकिन कभी सामने नहीं आए । 2012 में जुहू में एक रेव पार्टी पर पुलिस ने छापा मारा था तो टेलीविजन के कई कलाकार और कई फिल्मी सितारों के बच्चे पकड़े गए थे। उस रेव पार्टी की खूब चर्चा हुई थी। शाह रुख खान के पुत्र की गिरफ्तारी के बाद एक बार फिर से फिल्मी दुनिया और ड्रग्स कनेक्शन पर बात हो रही है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद भोजपुरी अभिनेता और भारतीय जनता पार्टी के सांसद रवि किशन ने संसद में फिल्म इंडस्ट्री में नशाखोरी पर चिंता जताते हुए अपना बयान दिया था। उस वक्त समाजवादी पार्टी की सांसद और अभिनेत्री जया बच्चन ने उनपर पलटवार किया था। जया बच्चन ने तो रवि किशन पर इशारों इशारों में जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं, जैसा आरोप लगाया था। बहस रवि किशन की बात से हटकर जया बच्चन के बयान पर केंद्रित हो गई थी। बालीवुड में ड्रग्स का मामला दब गया था। 

आज जब शाह रुख खान का बेटा ड्रग मामले में फंसा है तो बालीवुड की तमाम हस्तियां खामोश हैं। अभिनेता ऋतिक रोशन ने जरूर एक बयान दिया लेकिन बाकी सभी बड़े स्टार चुप्पी साधे हुए हैं। बालीवुड के ट्वीटरवीर अभिनेता और निर्देशक भी इस मसले पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। कुछ लोग बोल रहे हैं तो आर्यन खान की जमानत में हो रही देरी पर आवाज उठा रहे हैं। एक ने तो यहां तक कह दिया कि चूंकि शाह रुख खान ‘मुस्लिम सुपरस्टार’ हैं इसलिए उनको परेशान किया जा रहा है। शाह रुख खान को मुसलमान सुपरस्टार के तौर पर देखने वालों की मानसिकता किस स्तर की हो सकती है, उनकी सोच कितनी सांप्रदायिक है या फिर वो जिन्ना का सोच को अपनाते हुए फिर से समाज को बांटने का उपक्रम कर रहे हैं। इसपर विचार करना चाहिए। आपको याद होगा जब क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान अजहरुद्दीन पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था तब उन्होंने कहा था कि उनको मुसलमान होने की वजह से परेशान किया जा रहा है। ऊल-जलूल लिखकर अपनी बौद्धिक पहचान के लिए लगातार संघर्ष कर रही एक अभिनेत्री ने शाह रुख को परेशान करने का आरोप लगाया। अब उनको कौन समझाए कि अदालतें आर्यन के मामले की लंबी-लंबी सुनवाई कर रही हैं। हर पक्ष को पूरा समय दिया जा रहा है। अदालत अपने विवेक का उपयोग कर रही हैं। क्या किसी अन्य साधारण नागरिक के ड्रग्स केस में फंसने पर ऐसा होता। पता तो ये भी लगाया जाना चाहिए कि आर्यन की जमानत पर सुनवाई की वजह से क्या अन्य केस की सुनवाई स्थगित हुई या उनको कोई दूसरी तारीख मिली। समग्रता में विचार किए बगैर व्यवस्था पर प्रश्न उठाना उचित नहीं है। कुछ उत्साही लोग लखीमपुर खीरी में गृह राज्य मंत्री के बेटे और शाह रुख खान के बेटे की तुलना करते हुए न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। अच्छी बात है, लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है लेकिन जब तुलनात्मक आधार पर कोई तर्क प्रस्तुत किया जाता है तो तुलना का आधार एक होना चाहिए या कम से कम एक जैसा होना चाहिए। लखीमपुर खीरी के मामले में भी कानून अपना काम कर रही है और आर्यन खान के मामले में भी कानून अपने हिसाब से काम कर रही है। ये सब लोग वही काम कर रहे हैं जो जया बच्चन ने पिछले साल किया था, जब बालीवुड में ड्रग्स के मामले को अपने बयान से भटका दिया था। 

शाह रुख खान के पुत्र इस वक्त जेल में हैं। एक पिता के साथ सबकी संवेदना होनी चाहिए। हर उस पिता को सोचना चाहिए जिसका बच्चा आर्यन की उम्र का है। बजाए इसके कई लोग इस घटना को अपनी राजनीति का औजार बनाकर प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं। शाह रुख खान के बेटे की आड़ में कुछ लोग नरेन्द्र मोदी पर भी हमले कर रहे हैं। कल्पना की उड़ान ऐसी कि वो इस पूरे प्रकरण को शाह रुख को चुप कराने की साजिश करार दे रहे हैं। ऐसे चतुर सुजान ये भूल जाते हैं कि आर्यन खान का केस महाराष्ट्र में चल रहा है। जहां भारतीय जनता पार्टी का शासन नहीं है। वहां तो कांग्रेस, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस के गठबंधन की सरकार है। दूसरे वो ये भूल रहे हैं कि पिछले दिनों जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोग प्रधानमंत्री मोदी से मिलने आए थे तो उसमें शाह रुख खान भी शामिल थे और दोनों बेहद गर्मजोशी से मिले थे। दूसरे इन दिनों शाह रुख खान की कोई फिल्म भी हिट नहीं हो रही है। उनका फोकस राजनीति पर है भी नहीं। वो तो अपने कारोबार में ही व्यस्त रहते हैं। इसलिए इस मामले में इस तरह की बातें अर्थहीन ही नहीं बल्कि मूल समस्या से देश का ध्यान भटकाने वाली भी हैं। 

यह एक ऐसा मसला है जिसके बारे में पूरे देश को एकजुट होकर सोचना पड़ेगा। नशे का चक्रव्यूह ऐसा है कि आज शाह रुख खान का बेटा उसमें फंसा है कल किसी और का बेटा या बेटी उसमें फंस सकती है।जरूरत इस बात की है कि बालीवुड के तमाम दिग्गज सामने आकर इस खतरे के खिलाफ आवाज बुलंद करें, इसको रोकने के उपाय पर बात करें नहीं तो ये नशे का ये राक्षस पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर सकता है। अपने आसपास जब हिंदी फिल्मों से जुड़े बच्चे पार्टी का माहौल देखते हैं जहां किसी एक कोने में ‘विशेष’ व्यवस्था रहती है तो वो उस ओर आकर्षित होते हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया में अथाह पैसा है, ग्लैमर है लेकिन अकेलापन भी है। माता-पिता अपने करियर में डूबे रहते हैं, बच्चों के पास समय होता है, पैसे होते हैं लेकिन माता पिता के साथ के लिए वो तरसते हैं। इसी अकेलेपन के दंश में वो नशे की ओर जाते हैं। उन लोगों को भी सोचना चाहिए जो संस्कार या संस्कारी शब्द का हैशटैग बनाकर इंटरनेट मीडिया पर उसका उपहास करते हैं। संस्कारी शब्द तो हिंदी फिल्मों की दुनिया में मजाक बन गया है जबकि परवरिश और संस्कार ही बच्चों को नशे के इस खतरे से बचाने के लिए कवच का काम कर सकता है।


अत्याचारी राजवंश के नाम पर सड़क ?


दिल्ली में सड़कों का नाम किस तरह से रखा गया अगर इसपर कोई शोध हो तो कई दिलचस्प जानकारियां निकल सकती हैं। पराधीन भारत में सड़कों के नाम तो उन राजाओं या राजवंशों के नाम पर रखे गए थे लेकिन स्वाधीनता के बाद  नाम परिवर्तन को लेकर क्या सोच रही ये जानना भी दिलचस्प होगा। अगर इस संबंध में कोई नीति होती तो आज सेंट्रल दिल्ली में कम से कम तुगलक के नाम से सड़क, लेन और क्रिसेंट नहीं होते। तुगलक क्रेसेंट एक अर्धचंद्राकार सड़क है जिसपर एक तरफ सरकारी बंगले हैं और दूसरी तरफ भारत आसियान ( दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन) मैत्री पार्क है। ये सड़कें तुगलक वंश के नाम पर रखा गया है। उसी तुगलक वंश के नाम पर जिसके शासकों ने भारत पर ना केवल राज किया बल्कि यहां की जनता को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े रखा। यहां यह भी याद रखना आवश्यक है कि मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल के दौरान जब भयानक अकाल पड़ा था तब उसने अपने खजाने को भरने के लिए जनता पर लगनेवाले टैक्स की राशि काफी बढ़ा दी थी। गंगा-युमना दोआब के बीच निवास करनेवाली जनता से टैक्स की राशि वसूलने के लिए तमाम तरह के जुल्म किए गए। अत्याचार से बचने के लिए लोगों ने घर बार तक छोड़ दिए थे। इस राजवंश के एक शासक के नाम पर हमारे देश में तुगलकी फरमान जैसा पद अब तक बोला जाता है। उसके फैसले अजीबोगरीब होते थे, बगैर सोचे समझे उसने अपनी राजधानी को दिल्ली से करीब 1500 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के देवगिरी में बसाने का फैसला कर लिया था। देवगिरी का नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया था। तमाम लोगों को दिल्ली से दौलताबाद जाने का शाही फरमान जारी कर दिया था। इस विस्थापन में हजारों लोगों की जान गई थी। लेकिन उसको इन सबकी फिक्र नहीं थी। उसके साथ जब दिल्ली से लोग देवगिरी पहुंचे तो वहां स्वास्थ्य संबंधी समस्या होने लगी। एक दिन अचानक फिर से तुगलकी फरमान जारी हुआ कि अब राजधानी फिर से दिल्ली होगी। देवगिरी से दिल्ली आने में फिर लोगों की जान गईं। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी के मुताबिक उस दौर में पूरी दिल्ली खाली हो गई थी। मध्यकालीन इतिहास में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि इस तुगलकी फरमान की वजह से हिंदू व्यापारियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। क्या हम पाराधीनता के उस दौर में अपने पूर्वजों पर हुए अत्याचारों के जिम्मेदार शासक को याद रखना चाहते हैं।  


Saturday, October 9, 2021

प्रगतिशीलता की भारतीयता का सच


बीते शुक्रवार को कथाकार प्रेमचंद की पुण्यतिथि थी। उस दिन इंटरनेट मीडिया पर प्रेमचंद को ‘प्रगतिशील’ लेखक के तौर पर पेश करते हुए कई लोगों ने याद किया। कई लोगों ने प्रेमचंद को हिंदी का पहला ‘प्रगतिशील’ लेखक कहा तो कइयों ने उनको साम्यवादी विचारधारा के लेखक के तौर पर याद किया। इंटरनेट मीडिया की दुनिया ऐसी है कि वहां जो पहले चल जाता है ज्यादातर लोग बिना तथ्यों को जांचे परखे उसका अनुसरण करने लग जाते हैं। कुछ उत्साही वामपंथी साहित्यप्रेमियों ने प्रेमचंद को कम्युनिस्ट लेखक तक करार दे दिया। इस तरह के अधिकतर लोगों ने प्रेमचंद को प्रगतिशील लेखक संघ का संस्थापक बताते हुए उनको साम्यवादी करार दिया। इंटरनेट मीडिया पर चलनेवाले इस तरह की बातों को देखकर मनोरंजन हुआ क्योंकि प्रेमचंद न तो कम्युनिस्ट थे, न मार्क्सवादी और न ही प्रचलित अर्थों में ‘प्रगतिशील’ और न ही प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक। प्रेमचंद के बारे में ऐसी बात कहने वाले उनके लेखन और व्याख्यानों को आंशिक तरीके से सामने लाते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ की बहुत बात होती है और प्रेमचंद के भाषण की भी बहुत चर्चा होती है कि उन्होंने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहा आदि आदि। ऐसा प्रतीत होता है कि 1936 में दिए गए उनके व्याख्यान को लोगों ने ध्यान से पढ़ा ही नहीं। इस बात की अधिक संभावना है कि वामपंथी लेखकों-आलोचकों ने प्रेमचंद के प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना अधिवेशन में दिए गए व्याख्यान को जानबूझकर नेपथ्य में रखा। प्रेमचंद के गरीबों की बात को बेहद चतुराई से सर्वहारा से जोड़ते हुए मार्क्सवाद से जोड़ दिया गया। अगर प्रेमचंद के प्रगतिशील लेखक संघ के भाषण का समग्रता में विश्लेषण करें तो कई भ्रांतियां दूर होती हैं। 

प्रेमचंद ने लखनऊ में हुए उस अधिवेशन में अपने भाषण में साफ तौर पर कहा था कि ‘प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर वो इसका स्वभाव न होता तो शायद वो साहित्कार ही नहीं होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है, इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है।‘ उपरोक्त कथन में प्रेमचंद ने साफ तौर पर उस प्रगतिशीलता से अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से स्पष्ट कर दी थी जिसको लेकर इस लेखक संघ की स्थापना कि गई थी। जिसको प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से एक सज्जाद जहीर आगे बढ़ाना चाहते थे। सज्जाद जहीर के बारे में एक तथ्य यहां बताना आवश्यक है कि वो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे। वहां कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम करते हुए पकड़े गए थे, जेल गए थे और उनको सजा हुई थी । बाद में वो भारत आ गए और जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने उनको शरणार्थी मानते हुए नागरिकता दे दी थी। यहां भी वो कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय हुए और उसके महत्वपूर्ण पद पर भी रहे। इसके अलावा प्रेमचंद के इस वक्तव्य में आध्यामिकता की बात भी कई बार आती है। साहित्य को उन्होंने मंदिर भी कहा है। जिन शब्दों, पदों और सिद्धांतों को लेकर प्रेमचंद ने अपना भाषण दिया था उससे यह स्पष्ट है कि वो साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित नहीं थे बल्कि  भारतीय विचार और दर्शन से प्रभावित थे। यह बात बार-बार उनकी रचनाओं में भी दिखाई देती है। हिंदू धर्म की प्रगतिशीलता तो इस बात से ही स्पष्ट होती है कि वो लगातार अपने में परिवर्तन करता है। समय के साथ चलता है और अपने समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए अपने अंदर से ही नायक पैदा करता है। इसके दर्जनों उदाहरण इतिहास में उपस्थित हैं। इसको ओझल करने के अनेकों प्रयास हुए लेकिन वो आज भी हमारे सामने हैं।  

इस संदर्भ में मुझे प्रेमचंद साहित्य के अध्येता और आलोचक कमलकिशोर गोयनका से जुड़ा एक प्रसंग याद आता है। प्रेमचंद शताब्दी वर्ष चल रहा था।  देशभर में आयोजन हो रहे थे। इसी क्रम में हैदराबाद विश्वविद्यालय में 24 अक्तबूर 1981 को एक आयोजन हुआ था। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता नामवर सिंह ने की थी और कमलकिशोर गोयनका इसमें वक्ता के तौर पर उपस्थित थे। कार्यक्रम के अंत में जब नामवर सिंह अपने अध्यक्षीय भाषण के लिए खड़े हुए तो उन्होंने एक ऐसी बात कह दी जिसको दबाने में वामपंथी लेखकों का एक बड़ा तबका लग गया था। नामवर सिंह ने कहा था कि ‘होरी एक हिंदू किसान है और वह हिंदू किसान ही हिंदू प्रेमचंद है। प्रेमचंद गाय-बैल, खेत खलिहान, गोबर मिट्टी की बात करते हैं।‘  जैसे ही नामवर सिंह ने ये कहा कि मंच पर बैठे कमलकिशोर गोयनका खड़े हो गए और उन्होंने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘नामवर सिंह का अगर ये नया चिंतन है तो वे इसका समर्थन करते हैं।‘ नामवर सिंह ने इस हस्तक्षेप के बाद अपना वक्तव्य समाप्त किया। अध्यक्षीय वक्तव्य के बाद एक नाटकीय घटनाक्रम हुआ। सभागार में उपस्थित वामपंथी कवि वेणु गोपाल मंच पर आ गए और लगभग चीखते हुए बोले कि ‘नामवर सिंह ये बताएं कि वो गोयनका के करीब आए हैं या गोयनका उनके करीब आ गए हैं।‘ नामवर सिंह ने अपनी आदत के मुताबिक कोई उत्तर नहीं दिया। बाद में वेणु गोपाल ने कमलकिशोर गोयनका को देख लेने तक की धमकी दी। इस धमकी से विचलित हुए बगैर कमलकिशोर गोयनका ने भी उनको शारीरिक और बौद्धिक दोनों तरीके के संवाद का आग्रह किया। किसी तरह बात समाप्त हुई। 

इस प्रसंग को बताने का उद्देश्य वामपंथियों के असली चरित्र को उजागर करना है। भारतीय विचार को प्रतिपादित करनेवाले लेखक या विचारक को जबरदस्ती वामपंथी बताने की प्रवृत्ति को रेखांकित करना है। उपरोक्त प्रसंग ये भी साफ होता है कि वामपंथी सही बात अपने साथी की भी नहीं सुनते हैं और उनपर भी लांछन लगाने से नहीं चूकते। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं। जब इन तथाकथित प्रगतिशीलों के सिरमौर रामविलास शर्मा ऋगवेद पर लिखने लगे तो वामपंथी नामवर सिंह ने उनको हिंदूवादी करार दिया। प्रेमचंद की भारतीय विचारों में आस्था उनकी रचनाओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचंद की कृति गोदान में गांव की चेतना, गाय की संस्कृति, भारतीय परिवार में गाय की आकांक्षा, परिवार संस्था की रक्षा आदि रेखांकित की जा सकती है। नामवर सिंह यूं ही होरी को हिंदू नहीं कह रहे थे । प्रेमचंद का ये पात्र ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखता है और भाग्यवादी भी है।  हंस पत्रिका के सितंबर अंक में प्रेमचंद की एक कहानी ‘रहस्य’ प्रकाशित है। यह कहानी उनके जीवनकाल में प्रकाशित होनेवाली उनकी अंतिम कहानी है। इसमें प्रेमचंद अपने पात्रों के माध्यम से मुनष्य में देवत्व की बात करते हैं। देवत्व की बात वही लेखक कर सकता है, जिसकी देव में आस्था हो, या कम से कम देव के अस्तित्व को स्वीकार करता हो। लेखक की चेतना उसकी रचनाओं में परलक्षित होती है। प्रेमचंद की चेतना उनकी कृतियों प्रेमाश्रम के चरित्र बलराज से गोदान के होरी तक में स्पष्ट रूप से भारतीय जमीन. भारतीय विचार, भारतीय संघर्ष को स्थापित करती है। वामपंथियों ने प्रेमचंद की कृतियों की अनुचित व्याख्या और बताने से ज्यादा छुपाने की अपनी प्रवृति के आधार पर मार्क्सवादी सिद्ध कर दिया। प्रेमचंद की तथाकथित प्रगतिशीलता के झूठ को पहली बार कमलकिशोर गोयनका ने तमाम तथ्यों के साथ बेनकाब किया था। इन्हीं तथ्यों के आधार पर ये साबित भी किया था कि प्रेमचंद ने अपने लिए दो लक्ष्य तय किए थे भारतीय आत्मा की रक्षा और स्वराज की प्राप्ति। इसके बाद कहने को कुछ शेष नहीं रहता कि कैसे एक भारतीय लेखक को आयातित विचारधारा का पोषक साबित करने की कोशिशें हुईं जो अब भी जारी है। 


Friday, October 8, 2021

धर्म पर हमलावर के नाम सड़क क्यों?


स्वाधीनता के बाद दिल्ली में कई सड़कों और इमारतों के नाम बदले गए। सर्कुलर रोड को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम किया गया, क्लाइव रोड को त्यागराज मार्ग का नाम दिया गया। कर्जन कोड को कस्तूरबा गांधी रोड और कर्जन लेन का बलवंत राय मेहता लेन का नाम दिया गया। दिल्ली में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जब मार्गों के नाम से औपनिवेशिकता के चिन्ह को मिटाकर स्वाधीनता सेनानियों या अपनी मिट्टी पर सर्वोच्च बलिदान करनेवालों का नाम दिया गया। ये काम पिछली कई सरकारों ने किया। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी तो एक बार फिर से मांग उठी कि राजधानी में मौजूद गुलामी के निशानों को मिटाकर उसको अपने देश के सपूतों का नाम दिया जाए। 2015 में नई दिल्ली इलाके के औरंगजेब रोड का नाम बदलकर पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम के नाम कर दिया गया। औरंगजेब मुगलों में सबसे क्रूर शासक था और उसने हिन्दुस्तान की जनता पर बेइतहां जुल्म ढाए थे। सिख पंथ के महान गुरु तेगबहादुर जी के साथ औरंगजेब ने क्या किया उसके बारे में पूरे देश को ज्ञात है। 

औरंगजेब ने अपने शासनकाल में सैकड़ों मंदिरों को  तोड़कर हिन्दुस्तान के इतिहास, धर्म और संस्कृति को मिटाने की कोशिश की। वो इतना कट्टर मुस्लिम शासक था कि वो चाहता था कि उसके सल्तनत में सिर्फ इस्लाम धर्म को मानने वाले रहें। वो हिन्दुस्तान की जनता को तलवार के जोर पर इस्लाम धर्म में परिवर्तित करना चाहता था। जो भी उसकी इस राह में बाधा बनने की कोशिश करता था उसको जान से मार डालता था। सत्ता के नशे में चूर एक विदेशी शासक पूरे हिन्दुस्तान की संस्कृति को मिटा देना चाहता था। ये तो हिन्दुस्तान की संस्कृति की शक्ति और उसमें जनता का विश्वास था कि औरंगजेब की तमाम कोशिशों के बावजूद मिट नहीं पाई। आज जब हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमारी क्या मजबूरी है कि जिस विदेशी शासक ने भारत और भारतीयता पर हमले कर उनको नष्ट करने की कोशिश की, उसके नाम पर एक दिल्ली के मुख्य इलाके में एक लेन है। ए पी जे अब्दुल कलाम रोड से एक लेन निकलती है जिसका नाम औरंगजेब लेन है। जब कर्जन रोड और कर्जन लेन दोनों का नाम बदल दिया गया तो औरंगजेब रोड के साथ साथ औरंगजेब लेन का नाम क्यों नहीं बदला जा सका। आज देश के मानस को ये प्रश्न मथता है। 


Saturday, October 2, 2021

तुलसीदास की उपेक्षा असंभव


हमारे देश में और पूरी दुनिया में रामकथा एक ऐसी कथा है जिसके कई पाठ उपलब्ध हैं। रामकथा को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार लेखकों ने अपने विवेक के आधार पर लिखा। उपलब्ध रामकथाओं में गोस्वामी तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता असंदिग्ध है। जब तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस की रचना की थी तब भारतवर्ष पर विदेशी आक्रांताओं का कब्जा था। उस दौर में हमारे देश की संस्कृति को, रीति रिवाजों को, खानपान को, स्थापत्य कला आदि को बदलने का उपक्रम लगातार चल रहा था। हमारी आस्था के केंद्रों को नष्ट किया जा रहा था। तलवार के जोर पर समाज की संरचना भी बदली जा रही थी। अपनी संस्कृति और समृद्ध विरासत के प्रति लोगों की आस्था डिगने लगी थी। ऐसे विकट समय में तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस की रचना की और देश के सामने राम के रूप में एक ऐसा नायक प्रस्तुत किया जो विकट परिस्थितियों में अपने धर्म पर अडिग रहते हुए आकांता का समूल नाश करता है। ये ग्रंथ उस समय की मांग थी। इस विषय पर कई शोध हो चुके हैं और कई विद्वानों ने लिखा है। यहां इस पृष्ठभूमि को बताने का उद्देश्य ये है कि देश को जब 1947 में लंबे कालखंड के बाद विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति मिली तब भी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता में किसी तरह की कमी नहीं आई बल्कि ये बढ़ी ही। स्वाधीनता के बाद अगर अकादमिक जगत पर नजर डालते हैं तो वहां तुलसीदास और श्रीरामचरितमानस को लेकर एक उदासीनता दिखाई देती है। इस उदासीनता की वजह अकादमिक जगत पर वामपंथी विचारधारा के अनुयायियों का दबदबा रहा। 
तुलसीदास को हिंदू समाज का पथभ्रष्टक तक कहा गया और इस तरह की पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं। तुलसीदास के पाठ को कमतर करके आंकने के अनेक प्रयास हुए। पाठ्यक्रमों में इस तरह के लेखों को प्राथमिकता दी गई जिसमें तुलसीदास की उपेक्षा हो। इस संबंध में याद पड़ता है ए के रामानुजन के एक लेख की जिसका नाम है, थ्री हंड्रेड रामायणाज, फाइव एक्जांपल एंड थ्री थाट्स आन ट्रांसलेशन। ए के रामानुजन ने देश विदेश में लिखे गए कई रामकथाओं का उदाहरण दिया। अलग अलग तरह की कथाएं बताईं लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि रामानुजन ने अपने इस लेख में तुलसीदास का नाम सिर्फ एक जगह उल्लिखित है वहां भी तुलसी कहा गया है। दो स्थानों पर रामचरितमानस का उल्लेख मिलता है। एक जगह अहिल्या की कथा के संदर्भ में और दूसरी जगह कंबन का प्रभाव बताने के क्रम में। अब इस विद्वान को क्या कहा जाए कि वो जब रामकथा के विभिन्न पाठ का उल्लेख करता है तो उसको तुलसीदास के श्रीरामचरितमानस से कोई उद्धरण याद नहीं पड़ता। ये जानबूझकर इस ग्रंथ से कोई उद्धरण नहीं उठाते। याद पड़ता है जब 2011 में दिल्ली विश्विद्यालय के पाठ्यक्रम से इस लेख को हटाया गया था तब वामपंथी शिक्षकों, लेखकों और इतिहासकारों ने वितंडा खड़ा कर दिया था। जबकि उस लेख को हटाने का निर्णय विश्वविद्यालय की विद्वत परिषद में हुआ था। उस वक्त रामानुजन के लेख के पक्ष में कई वामपंथी लेखकों ने बड़े-बड़े लेख लिखे थे। वो लेख अकादमिक कम राजनीतिक अधिक थे। ए के रामानुजन के लेख की सीमा उसमें तुलसीदास के पाठ की अनुपस्थिति है। इसके अलावा रामानुजन ने जिन रामायण या जिन ग्रंथों की चर्चा की है उनकी रचना के समय व्याप्त स्थिति और परिस्थिति पर प्रकाश नहीं डाला है। अगर वो ऐसा कर पाते तो लेख अधिक अर्थपूर्ण होता। 

अगर रामानुजन के पूरे लेख को पढ़ें तो यह स्पष्ट होता है कि वो कोई नई बात नहीं कह रहे थे। ये सर्वज्ञात है कि रामकथा के अनेक रूप अनेक भाषाओं में उपलब्ध हैं। तुलसीदास ने स्वयं कहा है कि हरि अनंत हरिकथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहु विधि सब संता। इसका अर्थ है कि तुलसीदास के समय से या उसके पहले से ही यह बात ज्ञात है कि रामकथा के अलग अलग स्वरूप हैं। रामकथा की व्याप्ति इतनी अधिक है कि फिल्मों में भी अलग अलग रूपों में ये दिखती रही है। सचिन भौमिक और राज कपूर की मुलाकात का प्रसिद्ध किस्सा है। सचिन भौमिक काम की खोज में राज कपूर के पास पहुंचे थे। उनको अपनी कहानी सुनाई। देर तक राज कपूर ने कहानी सुनी और अंत में कहा कि आप चाहे जिस तरह से कहानी सुनाओ लेकिन इतना याद रखना कि फिल्मों में तो एक ही कहानी होती है, राम थे, सीता थीं और रावण आ गया। ये बात राज कपूर जैसे उत्कृष्ट कलाकार को समझ आती थी लेकिन वामपंथी लेखकों को नहीं। इसलिए रामानुजन का लेख कोई नई दृष्टि देनेवाला नहीं है, बल्कि वो अलग अलग जगह व्याप्त रामकथाओं को एक जगह समेटने की कोशिश मात्र है। रामानुजन के लेख में नया सिर्फ ये था कि उसमें तुलसीदास की उपेक्षा की गई। इस उपेक्षा की वजह से इस लेख को खास विचारधारा के लोगों ने पसंद किया था। 

तुलसीदास और उनकी रामकथा को लेकर तरह तरह की भ्रांतियां फैलाने की कोशिश समय समय पर होती रही हैं। खासतौर पर जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का आंदोलन जोर पकड़ने लगा तो वामपंथी लेखकों ने राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा करना आरंभ कर दिया। तुलसीदास को धार्मिक लेखक कहकर उनका मूल्यांकन करने लगे। वामपंथी लेखकों को इस बात में महारत हासिल है कि वो अपनी राजनीति के लिए किस उक्ति को चुनें और किसको छोड़ दें। किस विद्वान को उद्धृत करें और किसको उपेक्षित कर दें। तुलसीदास की रचनाओं को कमतर दिखाने के लिए उन्होंने इस प्रविधि का सहारा लिया। उन्होंने तो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की राय को भी ओझल कर दिया। रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधना में लिखा है,अंग्रेजी और बांग्ला के अनेक कवियों के नाम गिनाने के बाद एक दिन निराला बोले- ‘इन सब बड़ेन क पढ़ित है तो ज्यू जरूर प्रसन्न होत है पर जब तुलसीदास क पढ़ित है तो सबका अलग धरि देइत है। हमार स्वप्न इहै सदा रहा कि गंगा के किनारे नहाय के भीख मांगिके रही और तुलसीदास कै पढ़ी। (इन सब बड़े लोगों को पढ़ता हूं तो मन प्रसन्न होता है, पर जब तुलसीदास को पढ़ता हूं तो सबको अलग रख देता हूं। हमारा हमेशा से यही स्वप्न रहा है कि गंगा किनारे स्नान करके भीख मांग के रहें और तुलसीदास को पढ़ें)। हिंदी के सबसे बड़े कवियों में से एक निराला का ये कथन वामपंथियों के सामने एक चुनौती थी लिहाजा इसको ओझल कर दिया गया। 

तुलसीदास की इस बात को लेकर आलोचना करने की कोशिश की गई कि वो महिलाओं के विरोधी थे और वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषक थे। लेकिन यहां भी अगर समग्रता में देखें तो तुलसीदास के यहां महिलाओं को प्रतिष्ठित किया गया है और सभी को समान माना गया है। ऐसे कई पद श्रीरामचरितमानस में हैं। उनके लेखन में इतनी शक्ति है कि वो आलोचकों को लगातार चुनौती देते रहते हैं। तुलसीदास को जो टेक्सट है उसको पावर टेक्सट कहा जा सकता है। ऐसा टेक्सट जिसने पीढ़ियों को न केवल प्रभावित किया बल्कि उनको संस्कारित भी किया। तुलसीदास को समझने के लिए उसके सही अर्थों को उद्घाटित करने के लिए भारतीय संदर्भों को समझना होगा। रामायण के अलग अलग रूपों को उद्धृत करके और रामकथा के अलग अलग स्वरूपों को सामने रखकर तुलसीदास की काव्य प्रतिभा के तेज को कम नहीं किया जा सकता है। तुलसीदास ने अपने समय में उत्कृष्ट साहित्य रचा, ऐसा साहित्य जिसने देश की संस्कृति पर हो रहे हमलों का न केवल प्रतिकार किया बल्कि उसके खिलाफ उठ खड़े होने की प्रेरणा भी दी।