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Saturday, August 25, 2018

सवालों के घेर में ‘व्योमकेश दरवेश’


राजेन्द्र यादव के जीवित रहते साहित्यिक परिदृश्य जीवंत बना रहता था। वो अपनी पत्रिका हंस में या अन्यत्र भी अपनी टिप्पणियों या अपने साक्षात्कार आदि के माध्यम से कुछ ऐसा कह जाते थे या कुछ ऐसा लिख देते थे जिससे हिंदी जगत में बौद्धिक चहल-पहल बनी रहती थी। उनके निधन के बाद हिंदी साहित्य जगत में जीवंतता और खिलंदड़ापन की कमी महसूस होती है। यादव जी लगातार कुछ साहित्यिक शरारतें करते रहते थे, इन शरारतों से ज्यादातर विवाद होते थे, उन विवादों की वजह से संवाद होता था, साहित्य के पाठकों को एक अलग किस्म का रस और आनंद मिलता था। यादव जी तो हर वक्त इस फिराक में ही रहते थे कि कैसे कोई साहित्यिक विवाद उठे, वो साथी लेखकों को उकसाते रहते थे, विवाद सुझाते भी रहते थे। साहित्यिक पत्रिका पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज यदा-कदा अपने संपादकीय या अपने आयोजनों से हिंदी साहित्य के सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश करते रहते हैं। कभी विभूति नारायण राय और मैत्रेयी पुष्पा की अपनी पत्रिका के कवर पर हंसते हुए फोटो छापकर तो कभी किसी विषय विशेष पर दो ध्रुव पर बैठे लेखकों को सामने लाकर माहौल को जीवंत बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनमें विवादों को खड़ा करने को लेकर राजेन्द्र यादव जैसी निरंतरता नहीं है। प्रेम भारद्वाज विवाद तो खड़ा करते हैं पर थोड़ा हिचकते भी हैं, यादव जी की तरह बिंदास होकर फ्रंट फुट पर नहीं खेलते हैं।
पाखी के अगस्त अंक में हिंदी के वरिष्ठ आलोचक और गद्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी से एक लंबी बातचीत छपी है जिसमें कथाकार अल्पना मिश्रा ने त्रिपाठी जी को घेर लिया। दरअसल दो हजार ग्यारह में त्रिपाठी जी की पुस्तक व्योमकेश दरवेश प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक उन्होंने अपने गुरू आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की जिंदगी को आधार बनाकर लिखी थी। पुस्तक प्रकाशन के बाद उसपर काफी चर्चा हुई और ढेरों पुरस्कार प्राप्त हुए। पाखी में प्रकाशित बातचीत में प्रेम भारद्वाज ने विश्वनाथ त्रिपाठी से इस पुस्तक पर बात शुरू की और उनके सामने द्विवेदी जी कुल गोत्र की रचनाकार अल्पना मिश्र को सामने कर दिया। अल्पना मिश्र ने कहा कि जबसे ये पुस्तक आई है तो इसको आचार्च द्विवेदी की प्रामाणिक जीवनी के तौर पर देखा या माना जा रहा है। अल्पना मिश्र ने त्रिपाठी जी की इस पुस्तक की तथ्यात्मक भूलों की ओर इशारा करते हुए त्रिपाठी जी से उत्तर की अपेक्षा की। अल्पना ने अपने प्रश्न में बताया कि त्रिपाठी जी ने द्विवेदी जी के गांव का नाम गलत लिखा, आचार्य द्विवेदी की मां का नाम गलत लिखा। अल्पना ने एक और तथ्य सामने रखा कि द्विवेदी जी की एक पुत्री का निधन लिवर सिरोसिस से हुआ जबकि त्रिपाठी जी ने तीनों पुत्रियों की मौत की वजह इस बीमारी को बता दिया है। अल्पना मिश्र पूरी तैयारी के साथ आई थी और उन्होंने एक के बाद एक तथ्यात्मक भूलों को गिनाना शुरू कर दिया। त्रिपाठी जी ने अपनी पुस्तक में लिखा कि आचार्य जी की पत्नी दूसरी कक्षा तक पढ़ी हैं जो कि अल्पना के मुताबिक गलत है। अब त्रिपाठी जी को कोई उत्तर सूझ नहीं रहा था, उन्होंने जो बताया वो चौंकानेवाला था। उनके मुताबिक वो द्विवेदी जी के गांव गए वहां उन्हें एक शख्स मिला जिसने खुद को आचार्य द्विवेदी का पौत्र बताया। उस व्यक्ति ने त्रिपाठी जी को विश्वनाथ द्विवेदी पर प्रकाशित एक अभिनंदन ग्रंथ दिया। त्रिपाठी जी ने उस व्यक्ति के कहे और उस अभिनंदन ग्रंथ को ब्रह्मसत्य मानते हुए व्योमकेश दरवेश की रचना कर डाली। प्रेम भारद्वाज ने उनसे यह भी जानने की कोशिश की कि जब इस पुस्तक को लिखने में 15-17 साल लगे तो इतनी तथ्यात्मक भूले क्यों हैं? त्रिपाठी जी इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए।
अल्पना मिश्र ने तो कहा कि उन्होंने व्योमकेश दरवेश के बाद त्रिपाठी जी से मिलने की कई कोशिशें की जो कामयाब नहीं हो पाईं। विश्वनाथ त्रिपाठी ने इसको भी अजीब तरह से लिया और कहा कि कहानीकारों की अपनी एक ऐंठ होती है। मैं जानता हूं लोग कैसे मिलते हैं। जिसको मिलना होता है वो मिल ही लेते हैं। त्रिपाठी जी किताब भूलों से भरी है लेकिन फिर भी हिंदी साहित्य जगत के कई पुरोधाओं ने, खासकर विश्वनाथ त्रिपाठी की विचारधारा के लोगों ने, इन सारी भूलों को नजरअंदाज करते हुए ऐसा माहौल बनाया जैसे कोई अप्रतिम पुस्तक लिख दी गई हो। नामवर सिंह ने तो इस पुस्तक को अपनी किताब दूसरी परंपरा की खोज से बेहतर बताया। अब सवाल यही से शुरू होते हैं। नामवर सिंह भी आचार्य द्विवेदी के काफी करीबी थे, उन्हें व्योमकेश दरवेश की गलतियां क्यों नहीं दिखाई दीं। क्यों नहीं हिंदी के अन्य विद्वानों ने व्योमकेश दरवेश पर उंगली उठाई।
इस स्तंभ में एक भयानक भूल की ओर 2014 में इशारा किया गया था। व्योमकेश दरवेश के पहले संस्करण में पृष्ठ संख्या 214 पर यशपाल और साहित्य अकादमी विवाद के संदर्भ में त्रिपाठी जी लिखते हैं  ‘यशपाल के विषय में विवाद हुआ ।कहते हैं कि दिनकर ने आपत्ति दर्ज की कि झूठा सच के लेखक ने किताब में जवाहरलाल नेहरू के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया है ।नेहरू भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ अकादमी के अध्यक्ष भी थे । नेहरू तक बात पहुंची हो या ना पहुंची हो, द्विवेदी जी पर दिनकर की धमकी का असर पड़ा होगा । भारत के सर्वाधिक लोकतांत्रिक नेता की अध्यक्षता और पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी के संयोजकत्व में यह हुआ । अगर यह सच है तो अकादमी के अध्यक्ष और हिंदी के संयोजक दोनों पर धब्बा है यह घटना और मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है। अब यहीं विश्वनाथ त्रिपाठी का दिनकर को लेकर पूर्वग्रह सामने आता है । जबकि यह पूरा प्रसंग ही इससे उलट है । डी एस राव की किताब फाइव डिकेड्स, अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ साहित्य अकादमी के पृष्ठ संख्या 197 पर लिखा है  एक्जीक्यूटिव बोर्ड की बैठक में नेहरू ने जानना चाहा कि यशपाल के झूठा सच को अकादमी पुरस्कार क्यों नहीं मिला तो हिंदी के संयोजक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि उसमें नेहरू जी को बुरा भला कहा गया है । नेहरू जी ने कहा कि पुरस्कार नहीं देने की ये कोई वजह नहीं होनी चाहिए । इसपर द्विवेदी जी ने जवाब दिया कि सिर्फ वही एकमात्र कारण नहीं था बल्कि और भी अन्य बेहतर किताबें पुरस्कार के लिए थी । अर्थात द्विवेदी जी ने यशपाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया । कालांतर में यह बात सुननियोजित तरीके से फैलाई गई कि इसके पीछे दिनकर थे लेकिन वो गलत तथ्य है । इस पूरे प्रसंग से यह साबित होता है कि विश्वनाथ त्रिपाठी या तो स्मरण दोष के शिकार हो गए या जानबूझकर दिनकर को बदनाम करने की साजिश के हिस्सा बने । अगर स्मरण दोष के शिकार हुए होते तो यह नहीं कहते- मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है। यह दिनकर पर व्यक्तिगत प्रहार था। दरअसल दिनकर अपने जीवन काल में लगातार वामपंथियों के निशाने पर रहे लेकिन चूंकि वो इतने बड़े पाए के लेखक थे कि आयातित विचारधारा के लेखक उनकी रचनात्मकता को प्रभावित नहीं कर सके। बाद मे जब व्योमकेश दरवेश का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ तो दिनकर के प्रसंग में त्रिपाठी जी ने सक्रियता दिखाई और मुझे बताया गया है कि दिनकर का नाम और अपने समय का सूर्य वाली लाइन हटा दी गई है। अगर ये पंक्तियां हटा दी गई हैं तो यह मान लेना चाहिए कि त्रिपाठी जी ने दुर्भावनावश वो पंक्ति लिखी थी और तथ्य के सामने आने के बाद उसको हटा लेना उचित समझा।
व्योमकेश दरवेश को लेकर जो शोर शराबा मचाया गया, उसको जिस तरह से प्रचारित किया गया, उसको जितने पुरस्कार मिले वो सब अब सवालों के दायरे में है। हिंदी मे रचनाओं के पाठ और पुनर्पाठ की बहुत चर्चा होती है, अब वक्त आ गया है कि त्रिपाठी जी की इस कृति का पुनर्पाठ हो, भक्तिभाव की बजाए इस पुस्तक को तथ्यों की कसौटी पर फिर से कसा जाए। अगर अल्पना जी के दिए गए तथ्य सही हैं तो त्रिपाठी जी को या फिर उस पुस्तक के प्रकाशक को इन तथ्यों को सुधारने का उपक्रम किया जाना चाहिए क्योंकि इतिहास को बदल देना, या उसके साथ छेड़छाड़ करना आनेवाली पीढ़ियों के साथ छल करना है। पाखी को इस सार्थक चर्चा के आयोजन के लिए और चर्चा को दर्शन से हटाकर त्रिपाठी जी की पुस्तक पर लाकर अल्पना मिश्र को आगे करने के लिए प्रेम भारद्वाज की तारीफ की जानी चाहिए।

Saturday, August 18, 2018

वैचारिक चोले में बौद्धिक पाखंड


हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहुत बातें होती हैं, केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक पर बहुधा ये आरोप लगते रहते हैं कि वो अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटना चाहती है। अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन 2014 के बाद ज्यादा सक्रिय हो गए हैं, उन्हें बात बात में लगता है कि मोदी सरकार उनके संवैधानिक अधिकार को उनसे छीन लेना चाहती है। किसी भी रुटीन कार्यवाही को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ देने की कला में उनको महारत हासिल हो चुका है। अभिव्यक्ति के ये चैंपियन एक खास विचारधारा के पहरुए हैं जो दिन रात इस जुगत में लगे रहते हैं कि कोई घटना घटे और वो सियार की तरह हुआ हुआ करने लगें। करते भी रहे हैं लेकिन जब उनकी विचारधारा के लोग या उनकी पार्टी के लोग अभिव्यक्ति की आजादी पर हमलावर होते हैं तो वो दुम दबाकर स्वामिभक्ति या वफादारी का प्रदर्शन करने लगते हैं। अबी हाल ही में ऐसा वाकया हुआ पांडिचेरी लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर। पॉंडि लिटरेचर फेस्टिवल के नाम से आयोजित इस साहित्य महोत्सव को लेकर वाम दलों को परेशानी थी। उनकी परेशानी और आरोप यह है था कि इसके आयोजको ने दक्षिणपंथियों को मंच देने के उद्देश्य से इस लिटरेचर फेस्टिवल की रूपरेखा बनाई। इस फेस्टिवल के विरोध के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया और सीपीआईएम एक हो गए। दोनों दलों के राज्य सचिवों ने इस इवेंट का विरोध किया। सीपीएम के राज्य सचिव आर राजनंगम ने तो साफ तौर पर कहा कि पॉंडि लिटरेचर फेस्टिवल को आरएसएस प्रमोट कर रहा है। इसके अलावा इस फोस्टिवल पर एक आरोप यह भी लगाया गया कि इसमें स्थानीय लेखकों को तवज्जो नहीं दिया गया है और लेखकों की बजाए बीजेपी से संबंधित लोगों को आमंत्रित किया गया है। इस फेस्टिवल के आयोजक मकरंद परांजपे ने साफ तौर पर इन आरोपों को खारिज किया और कहा कि इसमें तमिल के लेखकों को तो बुलाया ही गया, श्री अरविंदो से संबंधित सत्र भी रखे गए थे। वामपंथियों ने एकजुट होकर अलियॉंस फ्रांसेज को इस आयोजन के खिलाफ पत्र लिख। अलियॉंस फ्रांसेज एक फ्रांसीसी संस्था है जो अनेक देश के विभिन्न शहरों में फ्रांस की कला संस्कृति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। अलियॉंस फ्रांसेज में ही इसका आयोजन होना था।
अब इस आयोजन के खिलाफ वामदलों की एकजुटता और वृहत्तर वाम वौद्धिक समाज की खामोशी या निरपेक्षता चिंता की बात है। दरअसल ये हमेशा से होता रहा है वाम दलों की विचारधारा से इतर अगर कोई आयोजन होता है तो ये लोग उसके खिलाफ एकजुट हो जाते हैं और उसको संघ से जोड़कर अस्पृश्य बनाने की कोशिश में लग जाते हैं। अगर एक मिनट को ये मान भी लिया जाए कि ये लिटरेचर फेस्टिवल दक्षिणपंथी लेखकों का ही जुटान है तो उसको लेकर विरोध क्यों? क्या वामपंथियों के लेखक सम्मेलनों को लेकर दक्षिणपंथियों ने कभी हल्ला मचाया है। देश में कई लिटरेटर फेस्टिवल ऐसे होते हैं जिसमें दक्षिणपंथी लेखक या लेखकों को नहीं बुलाया जाता है, अब भी अगर उनको बुलाया जाता है तो आयोजक इस लिहाज से बुलाते हैं कि मौजूदा सरकार को खुश किया जा सके या जिन बीजेपी राज्य सरकारों से धन लेते हैं उनको बता सकें कि अमुक अमुक लेखक को आमंत्रित किया गया है। 2014 में मोदी सरकार बनने के पहले लिटरेचर फेस्टिवल्स के आमंत्रित लेखकों की सूची को देख लीजिए स्थिति बिल्कुल आईने की तरह साफ हो जाएगी कि कितने दंक्षिणपंथी लेखकों को आमंत्रित किया जाता रहा है। अनुपात लगभग नगण्य है।
दरअसल वामपंथी लेखकों को और उनके आका राजनीतिक दलों को यह लगता है कि बौधिकता पर उनका ही वर्चस्व है। जब भी बौद्धिकता के नाम पर कोई आयोजन होता है और उनके आमंत्रित वक्ताओं में प्रखर वक्ताओं के नाम दिखाई देते हैं तो उनको अपना सिंहासन हिलता दिखने लगता है। जब उनके अपना सिंहासन हिलता प्रतीत होता है तो वो उसके विरोध में उतर आते हैं, सिर्फ लेखक ही नहीं बल्कि वाम दलों के नेता भी इस विरोध में साथ खड़े नजर आते हैं। अब सवाल यह उठता है कि अगर पॉंडि लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर वाम दलों ने जिस तरह से विरोध किया और अलियॉंस फ्रांसेज तक को विवाद में खींच लिया उसके प्रतिरोध में अभिव्यक्ति की आजादी के कितने चैंपियन खुलकर बोले। हिंदी में तो अगर नजर घुमाकर देखते हैं तो इस मसले पर लगभग सन्नाटा नजर आता है। अभिव्यक्ति की आजादी पर आसन्न संकट को लेकर छाती कूटने वाले लेखक संगठन भी खामोश हैं। उनकी तरफ से अबतक किसी प्रकार की हलचल नहीं दिखाई दे रही है, लेखक संगठनों में कोई भी वीर बालक नहीं है जो अपनी पार्टी के नेताओं के खिलाफ जाकर संविधान में मिले अधिकारों की रक्षा के लिए आगे आ सके। यही चुनिंदा खामोशी या चुनी हुई चुप्पी हिंदी के वामपंथी लेखकों की सबसे बड़ी कमजोरी हैं। क्या संविधान दक्षिणपंथी लेखकों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देता या फिर वो साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में अस्पृश्य हैं। आज जो लोग अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बीजेपी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को घेरने की कोशिश करते हैं और उनको आजादी के लिए खतरा बताते हैं उनको एक और संदर्भ याद रखना चाहिए । संविधान में पहले संशोधन को लेकर बहुत जोरदार बहस हो रही थी मसला कुछ मौलिक अधिकारों को लेकर संशोधन का था । कई मसलों के अलावा संविधान के अनुच्छेद 19 में जो अभिव्यक्ति की आजादी का प्रावधान है उस पर कुछ अंकुश लगाए जाने की बात हो रही थी । जवाहरलाल नेहरू, सी राजगोपालाचारी, अंबेडकर समेत कई नेता इस पक्ष में थे कि अभिव्यक्ति की आजादी पूर्ण नहीं होनी चाहिए । बहस के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि आजाद प्रेस युवाओं के दिमाग में जहर भर रहा है । तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी अकेले ऐसे शख्स थे जिन्होंने इस लड़ाई को लड़ा था और कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी तरह का अंकुश जायज नहीं होगा । कालंतर में इस तथ्य को बेहद चालाकी से दबा दिया गया। दरअसल इसके पीछे की पृष्ठभूमि ये थी कि 1950 में क्रासरोड नामक पत्रिका में नेहरू की नीतियों की जमकर आलोचना हुई थी और नेहरू इससे खफा होकर प्रेस पर अंकुश लगाना चाहते थे । उस वक्त की मद्रास सरकार ने क्रासरोड पर पाबंदी लगाई थी । आजाद भारत में ये पहली पाबंदी थी । क्रासरोड इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई थी और यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रोमेश थापर का केस अब भी कई मामलों में नजीर बनता है । इसके बाद अभिव्यक्ति की आजादी पर सबसे बड़ा खतरा इमरजेंसी को दौरान आया था, तब संघ के लोग उसके विरोध में थे और सीपीआई मजबूती के साथ इमरजेंसी के पक्ष में थी। दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रगतिशील लेखक संघ ने एक बैठक में इमरजेंसी का समर्थन किया था, उस बैठक की अध्यक्षता भीष्म साहनी ने की थी। इमरजेंसी के बाद राजीव गांधी ने मानहानि की आड़ में प्रेस की आजादी का गला घोंटने की योजना बनाई थी। उसके बाद मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी केबल एंड टेलीविजन रेगुलेशन एक्ट में बदलाव कर न्यूज चैनलों पर पाबंदी लगाने की कोशिश हुई थी। इन सबमें संघ कहां था, कहीं ना कहीं हर जगह परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से वामपंथी दलों की भूमिका थी। ये तो वही बात हुई कि आप अपराध भी करो लेकिन जब दोषी ठहराने की बात आए तो बगैर किसी सबूत के किसी और को दोषी ठहरा दो।  
दरअसल अगर हम देखें तो वामपंथी विचार के लेखक बौद्धिक पाखंड में आकंठ डूबे रहते हैं। वो साहित्य की आड़ में राजनीति करते हैं। अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए साहित्य के क्षेत्र में इस तरह का प्रपंच रचते रहते हैं, जिसका कोई आधार नहीं होता है। साहित्यिक प्रपंच के लिए सबसे जरूरी यह होता है कि अपने से विपरीत विचारधारा वालों को नीचा दिखाया जाए। विचारधारा को नीचा दिखाने के लिए आवश्यक होता है कि उसको बदनाम किया जाए। वामपंथियों को इसमें महारत हासिल है, इतने कुतर्कों के साथ किसी को घेरते हैं कि पहली नजर में वो बात सही लगती है। जैसे पुरस्कार वापसी का जो प्रपंच रचा गया था वो अब जाकर खुला है कि किस तरह से नियोजित तरीके से उसको अंजाम दिया गया था। साहित्य अकादमी के उस वक्त के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने पूरा खेल खोला। लेकिन जब पुरस्कार वापस किए जा रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि स्वत:स्फूर्त सब हो रहा है। हमारे समाज में बुद्धिजीवियों को अगर अपनी साख बनानी है तो उनको सार्वजनिक रूप से सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस दिखाना होगा, बगैर विचारधारा के दबाव में आए, अन्यथा जिस तरह से ज्यादातर लेखकों के बौद्धिक पाखंड उजागर हो रहे हैं वो ना तो साहित्. के लिए अच्छा है ना ही समाज के लिए।   

Saturday, August 11, 2018

भाषा अकादमियों के जरिए राजनीति


हाल ही में दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने कैबिनेट की बैठक में 15 भाषा अकादमियों के गठन को मंजूरी दी। उन भाषाओं की अकादमियां भी दिल्ली में होंगी जिनके बोलने लिखनेवाले लोग राजधानी दिल्ली में रहते हैं। भारतीय भाषाओं की पैरोकारी करनेवाले सभी लोगों को ये पहल अच्छी लग सकती है, लेकिन दिल्ली में पहले से चल रही भाषाई अकादमियों के हाल देखकर आगामी दिनों में बनने वाली इन 15 अकादमियों को लेकर बहुत उम्मीद नहीं जग रही है। बल्कि ये आशंका और बलवती हो रही है कि करदाताओं के पैसे का अपव्यय ना हो। दरअसल हमारे देश में भाषा बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है और आजादी के बाद से सभी राजनीतिक दल इसको भुनाने की जुगत में रहते हैं। केजरीवाल सरकार को भी इसमें राजनीति की संभावनाएं नजर आईं होंगी तभी एक साथ 15 भाषा अकादमियों के गठन को कैबिनेट की मंजूरी दी गई है। दिल्ली की दो भाषा अकादमी ऐसी रही हैं जिनके प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल अपनी राजनीति चमकाने के लिए किया जाता रहा है। पहली तो हिंदी अकादमी और दूसरी मैथिली-भोजपुरी अकादमी। उर्दू अकादमी भी अपने आयोजनों को लेकर विवादित रही हैं।  
दिल्ली की हिंदी अकादमी की बेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक दिल्ली में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के संवर्द्धन, प्रचार-प्रसार और विकास के उद्‌देश्य से 1981 में तत्कालीन दिल्ली प्रशासन ने स्वायत्तशासी संस्था के रूप में हिन्दी अकादमी की स्थापना की। इस अकादमी के अध्यक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री होते हैं। अकादमी के कार्यक्रमों तथा गतिविधियों के क्रियान्वयन और नियोजन में निर्णय एवं परामर्श के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री दो वर्ष की अवधि के लिए संचालन-समिति गठित करते हैं। घोषित तौर पर इसमें 25 जाने-माने साहित्यकार, लेखक, विशेषज्ञ, पत्रकार आदि नामित किए जाते हैं। इसके अलावा अकादमी में समय-समय पर विभिन्न कार्यों के निष्पादन/निर्णय के लिए अलग-अलग समितियां बनायी जाती है जो उपयुक्त दिशा-निर्देशन के साथ-साथ यह सुनिश्चित करती हैं कि योजनाओं के अंतर्गत लाभ उठाने वालों के चयन में निष्पक्षता बरती जाए। इसके अलावा इसके इसके करीब दर्जन भर घोषित उद्देश्य भी हैं जिसमें हिंदी को लेकर बड़े बड़े दावे किए गए हैं।
अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने क बाद से हिंदी अकादमी भी किसी ना किसी विवाद में पड़ती रही, पहले अपने संचालन समिति के गठन को लेकर तो फिर भाषा सम्मान में अंतिम समय में जोड़े गए नामों को लेकर। मैत्रेयी पुष्पा जब हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष रहीं तब भी इसके मंच पर नेता आए, उनको लाखों का भुगतान भी किया गया। सवाल भी उठे लेकिन ये पता नहीं चल सका कि ऑडिट में उस खर्चे को किस तरह से समायोजित किया गया। कलांतार में मैत्रेयी पुष्पा ने अकादमी को लगभग विवाद मुक्त कर दिया था और अकादमी में ठोस काम-काज भी होने लगे थे, पत्रिका भी मासिक होकर अच्छी निकल रही थी। यह अलहदा मुद्दा है कि मैत्रेयी पुष्पा के इर्द-गिर्द भी कुछ लोग जमा होकर लाभ उठा रहे थे। ये तो सत्ता और समाज का चरित्र भी है। मैत्रेयी पुष्पा के कार्यकाल के खत्म होने के बाद अब जो उपाध्यक्ष बने हैं वो तो सीधे तौर पर राजनीति पर उतर आए हैं। मैत्रेयी के बाद दिल्ली सरकार ने हिंदी अकादमी की कमान मुंबई में रहनेवाले मशहूर और बुजुर्ग मार्क्सवादी कवि लेखक विष्णु खरे को सौंपी। विष्णु खरे की नियुक्ति पर यह भी सवाल उठता है कि दिल्ली की हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष मुंबई में रहनेवाले व्यक्ति को क्यों बनाया गया? क्या दिल्ली की धरती साहित्यकार विहीन हो गई थी। या दिल्ली में विष्णु खरे से योग्य को व्यक्ति था नहीं? अकादमी में अबतक ये परिपाटी रही है कि इसका उपाध्यक्ष दिल्ली का रहनेवाले होता है या वो व्यक्ति होता है जो काम करने के लिए दिल्ली आता हो। यह इस वजह से भी कह रहा हूं कि मुंबई के व्यक्ति को हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाने से वित्तीय बोझ बढ़ता है। अगर उपाध्यक्ष हर सप्ताह अपने घर मुंबई जाना चाहे तो उसको अकादमी की तरफ से मुंबई आने जाने का हवाई किराया देना पड़ेगा। वो दिल्ली में रहेगा तो उसके रहने खाने का इंतजाम करना होगा। इसका प्रावधान दिल्ली की हिंदी अकादमी में नहीं है। अगर उपाध्यक्ष दिल्ली सरकार से अपने आवास की व्यवस्था का अनुरोध कर दें तो एक और समस्या खड़ी हो सकती है। दिल्ली की हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के लिए कोई वेतन तय नहीं है बल्कि उनको हर महीने पांच हजार रुपए यात्रा व्यय के लिए दिए जाने का प्रावधान है। तो उपाध्यक्ष पर अगर इसके अलावा किसी प्रकार का खर्च होता है तो उसको कैसे जायज ठहराया जाएगा, ये देखना दिलचस्प होगा। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष को अकादमी के कार्यक्रमों में शामिल होने के एवज में कोई धन देने का प्रावधान भी नहीं है इस वजह से अबतक निमंत्रण पत्रों पर उपाध्यक्ष का सानिध्य छपता रहा है। अगर अकादमी का उपाध्यक्ष किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता करता है या उसमें वक्ता के तौर पर शामिल होता है तो वो धन ले सकता है लेकिन वो धन लेना कितना नैतिक होता है यह तो उपाध्यक्ष ही बता सकता है, या फिर हिंदी अकादमी के अध्यक्ष होने के नाते दिल्ली की जनता को अरविंद केजरीवाल से ये जानने का हक है।
दिल्ली की हिंदी अकादमी के नए नवेले उपाध्यक्ष खरे ने अभी वार्षिक पुरस्कार समारोह में मंच से वहां मौजूद लोगों से राजनीतिक अपील की। उन्होंने मंच से कहा कि नरेन्द्र मोदी को वोट मत देना। यह बात समझ से परे है कि एक साहित्यिक समारोह में सरकारी अकादमी का उपाध्यक्ष उपमुख्यमंत्री की मौजूदगी में मोदी को वोट नहीं देने की अपील क्यों करता है और उस अपील पर उपमुख्यमंत्री खामोश क्यों रहता है। समारोह में उपस्थित एक व्यक्ति ने कहा कि हो सकता है कि नए उपाध्यक्ष सूबे की सरकार को खुश करने के लिए अपनी सीमा से बाहर चले गए हों। अपने छोटे से वक्तव्य में उन्होंने साहित्यकारों से कम्युनिस्ट होने की अपेक्षा भी जता दी थी। दरअसल विष्णु खरे साहित्य की जिस पाठशाला से आते हैं वहां साहित्यिक संगठन अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काम करते हैं, उन्हीं के इशारे पर लेखन करते हैं। अंग्रेजी का एक कहावत है ना कि ल्ड हैबिट डाई हार्ड मतलब कि पुरानी आदतें जल्दी जाती नहीं है। यह तो हिंदी अकादमी की बात हुई लेकिन इसके पहले दिल्ली की मैथिली भोजपुरी अकादमी के मंच पर नीतीश कुमार को बुलाकर केजरीवाल की राजनीति चमकाने की कोशिश की गई थी। तब भी उसको लेकर सवाल खड़े हुए थे, लेकिन ना तो सरकार से ना ही अकादमी की तरफ से कोई ठोस उत्तर आया था।
अब अगर हम दिल्ली की भाषा अकादमियों के प्रशासनिक ढांचे पर नजर डालें तो वहां सालों से तदर्श व्यवस्था चल रही है। हिंदी अकादमी की ही बात करें तो वहां कई वर्षों से पूर्णकालिक सचिव नहीं है। अभी संस्कृत अकादमी के सचिव को हिंदी अकादमी का अतिरिक्त प्रभार है। मौथिली भोजपुरी अकादमी में भी तदर्श व्यवस्था लागू है। उर्दू में भी पूर्णकालिक सचिव नहीं है। इन अकादमियों से लंबे समय से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि किसी भी भाषा अकादमी के पास स्थायी सचिव नहीं है ।भाषा अकादमियों को लेकर केजरीवाल सरकार कितनी गंभीर है यह इससे ही पता चलता है कि इन अकादमियों को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी जिस सचिव पर है वही तदर्थ है। हिंदी अकादमी में आखिरी पूर्णकालिक सचिव ज्योतिष जोशी थे उसके बाद से तदर्थ व्यवस्था चल रही है। हिंदी के लेखक भगवानदास मोरवाल का चयन हिंदी अकादमी के सचिव के रूप में हो गया था लेकिन उसाक नोटिफिकेशन नहीं हो पाया। साहित्यिक हलके में चर्चा यह है कि मैत्रेयी पुष्पा नहीं चाहती थीं कि मोरवाल जी उनके कार्यकाल मे सचिव बनें। सचिव के नहीं होने से इन अकादमियों का कामकाज प्रभावित होता है।
भाषा, साहित्य और संस्कृति का मामला ऐसा है जहां कि गंभीरता से काम करने की जरूरत होती है, तदर्थ व्यवस्था से राजनीति तो चमक सकती है, लोगों को लुभाया जा सकता है लेकिन कुछ ठोस हो नहीं पाता है। जैसे अभी हिंदी अकादमी ने जो पुरस्कार दिए हैं उसमें मुंबई के रहनेवाले जावेद अख्तर को श्लाका सम्मान दिया गया। इसपर भी सवाल है। इसी तरह से दिल्ली के बाहर वालों को भी अन्य पुरस्कार दिए गए। दिल्ली के लोगों के बीच काम करने की जिम्मेदारी इन अकादमियों पर थी लेकिन उसको राष्ट्रीय पहचान दिलाने के चक्कर में ना तो दिल्ली में ठीक से काम हो पा रहा है और ना ही राष्ट्रीय पहचान बन पा रही है, इन अकादमियों के कर्ताधर्ताओं को ये समझना होगा कि पुरस्कार दे देना सबसे आसान काम है लेकिन भाषा के लिए जमीन पर काम करना बहुत कठिन है लेकिन जब मंशा ही राजनीति की हो तो फिर उम्मीद क्यों करें ठोस जमीनी काम की।   

Saturday, August 4, 2018

मुसलमानों को नसीहत देती फिल्म


पिछले दिनों जब फिल्म मुल्क का विज्ञापन छपा तो उसमें लिखा था कि 45 फीसदी गैर-मुसलमान उस वक्त असहज हो जाते हैं जब उनके पड़ोस में कोई मुसलमान परिवार रहने आता है। इसी विज्ञापन में छोटे अक्षरों में यह भी लिखा गया था कि ये निष्कर्ष राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण पर आधारित है। इस विज्ञापन को देखकर मन में कई सवाल कुलबुलाने लगे थे। फिल्म के निर्देशक से भी सवाल पूछना चाह रहा था। मैंने इस विज्ञापन और अनुभव सिन्हा को टैग करते हुए ट्विटर पर लिखा कि यह नफरत फैलानेवाला और उसको गाढा करनेवाला विज्ञापन है, अनुभव सिन्हा जी को यह बताना चाहिए कि किस एजेंसी ने ये सर्वे किया, किन राज्यों में ये सर्वे किया गया, इसका सैंपल साइज कितना था। ये जानने की कोशिश भी की कि गैर-मुसलमानों के पड़ोसी बनने से कितने मुसलमान असहज होते हैं। अनुभव सिन्हा ने प्रश्न का उत्तर देने की बजाए प्रतिप्रश्नों की झड़ी लगा दी, आप इस आंकड़ें से असहमत हैं क्या?आपको लगता है सही आंकड़ा इससे ज्यादा है?या कम? या आपको लगता है कि ये बात खुले में नहीं कही जानी चाहिए?’। उत्तर की अभिलाषा में जब प्रतिप्रश्न आया तो कहना पड़ा कि आंकड़ों से सहमत-असहमत तब हुआ जा सकता है जब उसका आधार ज्ञात हो, मनगढंत आंकड़े और राष्ट्रव्यापी सर्वे कह देने भर से इसकी विश्वसनीयता साबित नहीं होती। ज्यादा या कम पर भी बात तभी हो सकती है। उनको इतना आश्वस्त जरूर किया कि खुले में बात करने का पक्षधर हूं। अनुभव सिन्हा ने भरोसा दिया और कहा कि जिम्मेदार नागरिक हूं, कुछ भी नहीं कह दूंगा। विश्वास रखें। प्रेम के पक्ष में हूं जहर नहीं घोलूंगा। ट्विटर पर उस संवाद के बीच कई खामखां किस्म के लोग भी आए और उलजलूल टिप्पणियां की। किसी को गुजरात की याद आई कोई मोदी को कोसने लगा कोई, बेरोजगारी तक पहुंच गया। लेकिन अनुभव सिन्हा ने संवाद की मर्यादा के लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघा। उनके कुछ खामखां मित्रों ने जरूर 'मुल्क' के विज्ञापन को लेकर जहर घोलने की कोशिश की। सोशल मीडिया पर अगर इस फिल्म को लेकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई तो उसके लिए इस तरह के विज्ञापन और अनुभव के खामखां किस्म के मित्र जिम्मेदार हैं। जो हर मुद्दे में मोदी और बीजेपी को लाकर स्थिति को तनावपूर्ण बना देते हैं। बाद में यह लक्षित किया गया कि विज्ञापन में भी मुसलमान और गैर-मुसलमान का अंतर और उनके बीच की असहजता को उभारने की कोशिश लगातार कम होती चली गई और फिल्म रिलीज होने के बाद तो सभी भारतीयों से इसको देखने की अपील की गई। यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या पोस्टर को भी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से अनुमति लेनी होती है। मेरी जानकारी के मुताबिक ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इस विषय पर फिर कभी चर्चा होगी।
दरअसल निर्देशक अनुभव सिन्हा के खामखां किस्म के मित्रों ने अपनी टिप्पणियों से फिल्म को लेकर जो शत्रुतापूर्ण माहौल बनाया वह गैरजरूरी था और फिल्म की भावना के खिलाफ भी। फिल्म में कहीं भी हिंदू मुस्लिम संघर्ष को नहीं दिखाया गया है। दरअसल इस फिल्म को हमें समग्रता में देखना होगा तभी इसके कहन और कथन तक पहुंचा जा सकता है। फिल्म के शुरू में ही ये लिखकर आता है कि इसकी कहानी हाल के दिनों की कुछ हेडलाइंस पर आधारित हैं। फिल्म जैसे आगे बढ़ती है तो मुस्लिम परिवार की हिंदू बहू लंदन से अपने पति को छोड़कर अपनी ससुराल आती है। इसकी वजह बहुत गंभीर है, मुसलमानों के लिए बड़ा सवाल लेकर उपस्थित होता है। मुसलमान पति और हिंदू पत्नी के बीच इस बात को लेकर मतभेद होता है कि उनके होनेवाले बच्चे का धर्म क्या होगा। पति चाहता है कि बच्चा होने के पहले ही उसका मजहब तय कर दिया जाए। अब इसमें परोक्ष तौर पर फिल्म ये बताना चाहती है कि मुसलमानों के अंदर मजहब को लेकर कितनी कट्टरता है। फिल्म की नायिका आरती इस बात को रेखांकित करती है कि जब उसने आफताब से प्रेम किया था तो मजहब देखकर नहीं किया था तब उसके होने वाले बच्चे का मजहब उसके जन्म के पहले क्यों तय कर लिया जाए? विवाद बढ़ने के बाद दोनों कुछ समय के लिए अलग होने का फैसला कर लेते हैं। अनुभव सिन्हा ने अपनी फिल्म में भारतीय समाज के उस चरित्र को उभारा है जो हमारे देश में वर्षों से विद्यमान है। फिल्म मुल्क में मुराद अली मोहम्मद का पैंसठवां जन्मदिन मनाया जा रहा है। मोहल्ले की हिंदू महिलाएं भी जश्न में शामिल थीं, आनंद का माहौल था। हिंदू महिलाओं को खाने के लिए पूछा जाता है तो उनमें से एक बेहद सहजता के साथ कहती हैं कि हम इनके यहां खाते नहीं हैं। इसमें कोई हिंदू कट्टरता नहीं है। हमने तो अपने गांव में भी देखा है कि मुसलमानों के यहां शादी ब्याह के मौके पर हिंदुओं को जो भोज दिया जाता था उसके लिए चूल्हा अलग रहता था और अलग रसोइया खाना बनाता था। यह सब इतनी सहजता से होता था कि किसी को किसी तरह का अपमान नहीं लगता है। गांव पर हमारे घर मुतवल्ली आते थे, उनके लिए अलग बरतन होता था जिसमें वो खाते-पीते थे। कभी किसी के मन में इसको लेकर कोई दुर्भावना नहीं प्रकट होती थी।
इस फिल्म में मुसलमानों को नसीहत दी गई है कि वो अपने परिवार के बच्चों पर नजर रखें, वो क्या कर रहे हैं, किससे मिल रहे हैं, सोशल मीडिया पर क्या लिख रहे हैं आदि आदि। किसी भी परिवार में कोई अपराधी पनपता है तो जिम्मेदारी उस परिवार के अभिभावकों पर भी होती है। इस बात को भी रेखांकित करना चाहिए कि किस तरह से मुसलमानों को एक खास किस्म का डर दिखाकर बरगलाया जाता है। फिल्म में दो मुस्लिम लड़कों के बीच स्कूटर पर एक संवाद बेहद महत्वपूर्ण है जिसमें आतंकवादी बन गया लड़का ये तर्क देता है कि शासन उनके कौम के साथ भेदभाव कर रहा है, उनको नौकरियां नहीं मिल रही है, दूसरा लड़का यह उत्तर देता है कि हिंदू लड़कों को कौन सी नौकरियां मिल गईं, खासकर उन हिंदू लड़कों को जिसको उनसे बेहतर अंक आए थे। मुस्लिम समाज को अपने अंदर झांक कर देखना होगा कि क्यों वो गलत के खिलाफ खड़े नहीं हो पाते हैं? जब उनके ही कौम के चंद लोग आतंकवादी को शहीद बताकर उसके सम्मान में आयोजन करना चाहते हैं, तो उनका विरोध क्यों नहीं होता है, क्यों कोई मुराद अली तनकर खड़ा नहीं होता। ऐसा नहीं है कि इस फिल्म में हिंदुत्व के उग्र होने को नहीं दिखाया गया है लेकिन वो फैशन में ना होकर सचाई के करीब है। कैसे मुसलमानों की कट्टरता के विरोध में हिंदू भी धार्मिक आयोजन करने लगे हैं, उन स्थानों पर भी जहां अबतक ये नहीं होता आया था। लेकिन वहां भी जब एक मुस्लिम परिवार अस्पताल जाने के लिए रास्ता मांगता है तो कोई रोकता नहीं है। मुसलमान परिवार की हिंदू बहू जब अदालत जाने के लिए घर से निकलती है तो पहले मंदिक जाती है, वहां पूजा करती है और प्रसाद को माथे से लगाती है, किसी को आपत्ति नहीं होती, न तो पुजारी को ना ही परिवार को।
फिल्म में संवादों के जरिए भी मुसलमानों को सीख दी गई है। ऐसा ही एक संवाद है कि जहां कहा गया है कि जब भी पाकिस्तान की जीत पर कुछ घरों में पटाखे फूटेंगे तो शक का वातावरण बनेगा। मुराद अली से उनकी बहू आरती जब कठघरे में सवाल जवाब करती है तो वो जानना चाहती है कि उसने पिछले दो तीन सालों में दाढ़ी क्यों बढ़ाई। ऐसे दर्जनों संवाद इस फिल्म में हैं। कहीं भी निर्देशक वो या हम के पक्ष में झुके नहीं दिखाई देते हैं। बहुत दिनों के बाद ऐसी वैचारिक फिल्म आई है जो वस्तुनिष्ठ और संतुलित होकर किसी समस्या को उठाती है, बगैर किसी चश्मे के देखती है और घटनाओं और संवादों के माध्यम से दर्शकों के सामने प्रस्तुत करती है। कोर्ट रूम सीन में भले ही निर्देशक जब आतंकवाद को परिभाषित करने चलते तो संकेत में कुछ बातें कहते हैं जिसपर देशव्यापी बहस की जरूरत है, कुछ लोग उससे सहमत या असमहत हो सकते हैं। दरअसल एक खास विचारधारा के लोग दाढ़ी और टोपी को देखते ही उसकी हिमायत में निकल पड़ते हैं बगैर तथ्यों को जानें, बगैर स्थितियों और परिस्थितियों को परखे। सहअस्तित्व और सहिष्णुता हिंदुत्व की ताकत है लेकिन विचारधारा के मोह में धृतराष्ट्र बनने की प्रवृत्ति उसको गलत दिशा में मोड़ देती है। जब दिशा गलत होती है तो सोच भी गलत रास्ते पर चल पड़ती है और गलतफहमियां पैदा होती है। जरूरत इस वैचारिक आतंकवाद के खिलाफ जिहाद की भी है और युद्ध की भी है।