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Saturday, November 27, 2021

कम्युनिस्टों से क्यों चिढ़ते थे आंबेडकर


अभी-अभी संविधान दिवस बीता है। जब भी संविधान दिवस (26 नवंबर) आता है या संविधान से जुड़ी बातों पर देशव्यापी विमर्श होता है तब वामपंथी धारा में बहने वाले लेखक और बौद्धिक बाबा साहेब आंबेडकर की कई बातों को संदर्भ से काटकर उद्धृत करते हैं। आंबेडकर के विचारों की आड़ में वो भारत और भारतीयता के साथ साथ हिंदू धर्म और दर्शन पर प्रहार करते हैं। उनके विचारों को इस तरह से पेश करते हैं जैसे कि आंबेडकर हिंदू धर्म के विरोधी थे। वो ये नहीं बताते हैं कि आंबेडकर हिंदू धर्म की कुरीतियों के विरोधी थे और उनका मत था कि इन कुरीतियों को दूर किया जाए। ऐसा करते हुए कम्युनिस्ट इस बात को भी छिपा ले जाते हैं कि उनको लेकर आंबेडकर के क्या विचार थे। मार्क्स और मार्क्सवाद से लेकर उनके अनुयायियों के बारे में बाबा साहेब की सोच क्या थी। 12 दिसंबर 1945 को नागपुर की एक सभा में आंबेडकर ने देशवासियों को कम्युनिस्टों से बचकर रहने की सलाह दी थी। आंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘मैं आप लोगों को आगाह करना चाहता हूं  कि आप कम्युनिस्टों से बच कर रहिए क्योंकि अपने पिछले कुछ सालों के कार्यों से वो कामगारों का नुकसान कर रहे हैं। वे उनके (कामगारों) दुश्मन हैं, इस बात का मुझे पूरा यकीन हो गया है। कम्युनिस्ट कहते हैं कि कांग्रेस पूंजीपतियों की संस्था है। साथ ही वे कामगारों को उसमें जाने की सलाह भी देते हैं। हिन्दुस्तान के कम्युनिस्टों की अपनी कोई नीति नहीं है, उन्हें सारी चेतना रूस से मिलती है।‘ अपने इस कथन से आंबेडकर ने स्पष्ट कर दिया था कि अपने देश के कम्युनिस्टों की चेतना का आधार रूस से आयातित विचार है और वो कामगारों या मजदूरों को भ्रमित कर कांग्रेस को मजबूत करना चाहते हैं। आंबेडकर की ये बातें स्वाधीनता के बाद भी सही साबित हुई। कम्युनिस्टों को जब भी मौका मिला उन्होंने कांग्रेस का समर्थन किया, सरकार बनाने से लेकर देश में इमरजेंसी लगाने तक में। आज भी कर रहे हैं। आज जब कम्यनिस्ट पार्टियां अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं तो उनको कांग्रेस में ही अपना भविष्य नजर आ रहा है। कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुयायी  लगातार कांग्रेस को मजबूत करने की बात इंटरनेट मीडिया के अलग अलग मंचों पर लिख रहे हैं। 

आंबेडकर ने नागपुर की ही सभा में देश के दलितों को भी कम्युनिस्टों से आगाह किया था। आंबेडकर ने कम्युनिस्टों के बारे में कहा था कि ‘वे अब हमारे संगठन में घुसकर अपनी हरकतें करने लगे हैं। इसलिए मैं आपलोगों से यही कहना चाहता हूं कि आपलोग कम्यनिस्टों से बचकर रहिए। उन्हें अपने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन का उपयोग अपने प्रचार के लिए मत करने दीजिए।‘ अब 1945 में कहे गए बाबा साहेब के शब्दों पर गौर करें तो स्थिति और स्पष्ट होती है। उनको इस बात की आशंका थी कि अगर कम्युनिस्ट उनके संगठन में घुस गए तो संगठन कमजोर होगा लिहाजा इसलिए वो सार्वजनिक रूप से शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के कार्यकर्ताओं को कम्युनिस्टों की ‘हरकतों’ से बचकर रहने की सलाह दे रहे थे। आंबेडकर की इन बातों की चर्चा कभी भी कम्युनिस्ट नहीं करते हैं। अपने बौद्धिक विमर्शों में भी अंबेडकर की आलोचना पर ध्यान नहीं देते हैं। बाद के दिनों में या आंबेडकर के निधन के बात तो वो समानता के सिद्धांत के आधार पर उनको भी वामपंथी विचारधारा के करीब दिखाने और प्रचारित करने की कोशिश करते रहते  हैं। वामपंथी कभी भी इस बात की चर्चा नहीं करते हैं कि आंबेडकर की राय मार्क्स या उनके सिद्धांतों को लेकर क्या थी। 20 नवंबर 1956 को आंबेडकर का नेपाल में दिया गया एक भाषण है जिसमें उन्होंने बुद्ध और कार्ल मार्क्स पर विचार किया था। अपने उस भाषण में आंबेडकर ने मार्क्सवाद की तुलना में बौद्ध दर्शन को श्रेष्ठ और स्थायी माना है। आंबेडकर ने साम्यवादी जीवन मार्ग और बौद्ध जीवन मार्ग को लेकर अपने विचार रखे थे। उसमें आंबेडकर कहते हैं कि जो जीवनमार्ग अल्पजीवी होगा, गुमराह करनेवाला होगा या अराजकता की ओर ले जानेवाला होगा ऐसे जीवन मार्ग का समर्थन करना उचित नहीं होगा। साफ है कि वो साम्यवादी जीवन मार्ग का निषेध कर रहे थे। उनके इस कथन को नागपुर में कम्युनिस्टों पर व्यक्त किए गए उनके विचारों से जोड़कर देखते हैं तो यह साफ हो जाता है कि कि साम्यवाद के बारे में उनकी राय एक अराजक विचारधारा की रही है और उसको वो भारत के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे। 

आंबेडकर ने मार्सवादी सोच को व्याख्यायित करते हुए कहा था कि ‘ साम्यवादी विचारधारा का मूल सूत्र यह है कि दुनिया में शोषण है। यहां अमीरों की ओर से गरीबों का शोषण हो रहा है क्योंकि धनवानों में धन बटोरने की होड़ लगी हुई है। इसी होड़ की वजह से पूंजीपति लोग मेहनतकश वर्ग को गुलाम बना रहे हैं और इसी प्रकार की गुलामी दरिद्रता और निर्धनता का कारण बनती है। कार्ल मार्क्स ने गरीबों के संबंध में या मजदूरों के शोषण के संबंध में सवाल उपस्थित कर अपने साम्यवाद की नींव रखी।‘ लेकिन आंबेडकर इसके सूत्र की तलाश में बौद्ध दर्शन में जाते हैं और वहां से अपनी बात उठाते हैं। उनका मानना है कि बुद्ध दुनिया में दुख की बात करते हैं और बुद्ध ने भी शोषण से पैदा हुए दुख और दरिद्रता के आधार पर अपने दर्शन की नींव रखी। यहां आंबेडकर बहुत स्पष्ट रूप से मानते हैं कि मार्क्स कुछ नया प्रतिपादित नहीं करते हैं बल्कि उनके सिद्धांत के सैकड़ों साल पहले बुद्ध ऐसा कह चुके हैं और इससे मुक्ति का मार्ग भी सुझा चुके हैं। अंबेडकर बुद्ध और मार्क्स के सुझाए मुक्ति के मार्ग के बुनियादी अंतर को भी बहुत साफगोई से जनता के सामने रखते हैं। उनका मानना है कि साम्यवाद की स्थापना के लिए मार्क्सवादियों का रास्ता हिंसा का है और वो अपने विरोधियों को नष्ट कर लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। बुद्ध का रास्ता इससे बिल्कुल अलग है। आंबेडकर के शब्दों को देखते हैं, ‘बुद्धिज्म की स्थापना के लिए लोगों के दिलो दिमाग को परिवर्तित करना यही बुद्ध का संवैधानिक रास्ता है। बुद्ध अपने विरोधियों को डरा धमका कर या सत्ता के बल पर पराजित करना नहीं बल्कि प्यार और अपनत्व की भावना से अपना बना लेना है।‘ 

बाबा साहेब साम्यवाद के गैर संवैधानिक तरीकों को रेखांकित करते हैं और कहते हैं कि साम्यवादी मनुष्य को खत्म करने के सिद्धांत पर अमल करना चाहते हैं लेकिन अगर मनुष्य ही नहीं रहेगा तो न तो कोई प्रतिकार कर पाएगा न ही विरोध तो ऐसी सफलता तो सिर्फ दिखावा बन कर रह जाती है।‘ आंबेडकर ने साम्यवादियों के ‘मजदूरों की तानाशाही’ ( डिक्टेटरशिप आफ प्लोरेतेरियत) और उसको स्थापित करने के खूनी क्रांति के सिद्धांत को भी कठघरे में खड़ा करते हैं। आंबेडकर के प्रश्नों का उत्तर वामपंथियों के पास नहीं है लिहाजा वो संदर्भ से काटकर सिर्फ ये कहते हैं कि अंबेडकर ने मार्क्स और बुद्द के सिद्धांतों में कई समानताएं थीं। पर इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि लक्ष्य तक पहुंचने का दोनों का रास्ता बिल्कुल अलग है। बाबा साहेब ने हमेशा ही साम्यवादियों के रास्तों को खारिज किया, उसके लिए वो बुद्ध के सिद्दांतों को अपनी वैचारिकी का आधार बनाते हैं। अंबेडकर ने साम्यवाद के विदेशी दर्शन पर भारतीय दर्शन या भारतीय सिद्धांतों को प्राथमिकता दी। आज जब हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की देश की माटी से उपजे विचारों को समग्रता में एक बार फिर से देश की जनता के सामने लाना चाहिए। 

Saturday, November 20, 2021

श्रद्धांजलि के बहाने विवाद को हवा


हाल ही में हिंदी की उपन्यासकार और कहानीकार मन्नू भंडारी का निधन हुआ। कुछ लेखिकाओं ने मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित किए जानेवाले कार्यक्रमों में मन्नू जी के अवदानों पर चर्चा न करके उसको अपनी भड़ास निकालने का मंच बना दिया। जमकर व्यक्तिगत खुन्नस निकाले गए। इस तरह की बातें की गईं जो न होतीं तो साहित्य की गरिमा बनी रहती। इंटरनेट मीडिया के अराजक मंच फेसबुक पर भी पक्ष विपक्ष में टिप्पणियां देखने को मिलीं। कई बुजुर्ग लेखिकाओं ने मन्नू भंडारी के निधन के बाद चर्चित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा को निशाने पर लिया और परोक्ष रूप से उनको मन्नू जी से विश्वासघात का आरोप तक लगा दिया। आरोप की शक्ल में पेश की गई बातों से ये लग रहा था कि जैसे मैत्रेयी पुष्पा ने राजेन्द्र यादव को बरगला दिया था, जिससे मन्नू भंडारी को बेहद मानसिक पीड़ा हुई थी। आरोपों  को इस तरह से पेश किया गया कि सारी गलती सिर्फ मैत्रेयी पुष्पा की थी और राजेन्द्र यादव बेचारे बहुत ही मासूम थे। उनकी कोई गलती थी ही नहीं, वो तो भटक गए थे। यह सही है कि राजेन्द्र यादव ने मैत्रेयी पुष्पा को अवसर दिया लेकिन अगर मैत्रेयी में प्रतिभा नहीं होती तो क्या वो इतने लंबे समय तक साहित्य में टिकी रह सकती थीं। राजेन्द्र यादव ने दर्जनों प्रतिभाहीन लेखिकाओं को मैत्रेयी पुष्पा से अधिक अवसर अपनी साहित्यिक पत्रिका हंस में दिए। उनकी पुस्तकों पर प्रायोजित समीक्षाएं भी प्रकाशित की लेकिन आज उनमें से कोई भी लेखिका मैत्रेयी जैसी ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाईं। दरअसल जब कोई महिला सफल होती है और वो पुरुषों के साथ काम करती है तो उसको इस तरह के अपमान का विष पीना पड़ता है। मैत्रेयी पुष्पा ने देर से लिखना आरंभ किया लेकिन उनके कई उपन्यास इतने सधे हुए हैं कि वो साहित्याकाश पर छा गईं। उस वक्त भी मैत्रेयी पुष्पा पर तमाम तरह के लांछन लगे थे। राजेन्द्र यादव की भी आलोचना हुई थी लेकिन इतने सालों के बाद अब जब मन्नू भंडारी नहीं रहीं तो उन बातों को एक बार फिर से उभार कर बुजुर्ग लेखिकाएं क्या हासिल करना चाहती हैं, पता नहीं।  मत्रैयी पुष्पा ने अपनी सफाई में कई बातें कहीं जो वो पहले भी अपनी आत्मकथा या राजेन्द्र यादव पर लिखी अपनी पुस्तक में कह चुकी हैं। काफी कुछ मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा में भी लिख दिया है। लेकिन फिर से वातावरण कुछ ऐसा बना कि लगा कि ये लेखिकाएं कुछ नया रहस्योद्घाटन कर रही हैं। 

मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव पति पत्नी थे लेकिन इनके संबंध सहज नहीं थे, ये बात ज्ञात है। इन दोनों ने समय समय पर अपने साक्षात्कारों में इस तरह की बातें भी की थीं जिसको लेकर हिंदी जगत इनके संबधों के बारे में परिचित है। इन दोनों से रचनात्मक लेखन का सिरा काफी पहले छूट गया था। वर्षों बाद जब मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा लिखी तो हिंदी के आलोचकों को उसमें साहस का आभाव दिखा। मन्नू भंडारी अपनी आत्मकथा में राजेन्द्र यादव से आब्सेस्ड दिखती हैं। आज मन्नू भंडारी के निधन के बाद ऐसी बातें हो रही हैं जिनको सुनकर 2009 का साहित्यिक परिदृश्य सहसा याद आ जाता है। इस वर्ष राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी ने अपनी शादी को लेकर या अपने दांपत्य जीवन को लेकर एक साहित्यिक पत्रिका में कई ऐसी बातें कहीं थीं जिसने हिंदी साहित्य जगत को शर्मसार किया था। जहां तक मुझे याद पड़ता है कि 2009 में साहित्यिक पत्रिका कथादेश के मार्च अंक में मन्नू भंडारी ने एक लंबा लेख लिखा था। उस लेख में मन्नू जी ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि सच का सामना करने का साहस हो तभी साक्षात्कार दें। परोक्ष रूप से वो  ये नसीहत राजेन्द्र यादव को दे रही थीं। इस पूरे लेख में मन्नू भंडारी ने ये साबित करने की कोशिश की थी कि राजेन्द्र यादव ने उनकी शादी के विषय में जो गलत बातें की उसको वो ठीक कर रही हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि कथादेश के 2009 के जनवरी अंक में राजेन्द्र यादव का एक लंबा साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने अपनी और मन्नू भंडारी की शादी की परिस्थितियों का उल्लेख किया था। राजेन्द्र यादव के उस साक्षात्कार के उत्तर में मन्नू भंडारी ने लेख लिखा था और किन परिस्थितियों में दोनों की शादी हुई थी इसको अपने हिसाब से हिंदी साहित्य जगत के सामने रखा था। अपने उस लेख में मन्नू भंडारी राजेन्द्र यादव से सच कहने की अपेक्षा करती हैं लेकिन जब उकी बारी आती है तो वो खुद राजेन्द्र यादव की प्रेमिका मीता का असली नाम बताने से कन्नी काट लेती हैं। मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा में उन स्थितियों का भी उल्लेख नहीं किया जिसकी वजह से उन्होंने राजेन्द्र यादव को घर से निकाला था। उसका नाम लेने से भी परहेज कर गईं जिसकी वजह से उन्होंने राजेन्द्र यादव को घर से निकाला था। दोनों ने अपने जीवन काल में जमकर एक दूसरे के बारे में जितना बताया उससे अधिक छिपाया भी। आज से बारह-तेरह वर्षों पहले तक यादव-भंडारी दंपति के बारे में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में जमकर लिखा जाता था। उस दौर में तो यहां तक चर्चा होती थी कि दोनों कुछ लिख नहीं पा रहे हैं तो अपने दांपत्य के विवादित स्वर को उभार कर चर्चा में बने रहते हैं। लेकिन समय के साथ इस तरह की बातें कम होने लगीं। कालांतर में राजेन्द्र यादव का निधन हो गया और मन्नू भंडारी बीमार रहने लगीं तो इस लेखक दंपति के बीच के विवाद को साहित्य जगत लगभग भूल चुका था। 

मन्नू भंडारी के बहाने हिंदी की चंद बुजुर्ग लेखिका जिस तरह की बातें कर रही हैं उससे तो स्त्री विमर्श के उनके प्रतिपादित सिद्धांतों पर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं। उनके तर्क हैं कि राजेन्द्र यादव ने किसी अन्य स्त्री के चक्कर में मन्नू भंडारी की उपेक्षा की। यहां तक तो इन बुजुर्ग लेखिकाओं के स्त्री विमर्श पर आंच नहीं आती है लेकिन जब एक ऐसे पुरुष से साथ और संबल की अपेक्षा की जाती है जो वफादार नहीं होता है तो फिर प्रश्न तो उठेंगे। क्या स्त्री मुक्ति और स्त्री चेतना की बातें सिर्फ किस्से कहानियों में ही ठीक लगते हैं। क्या सिर्फ कहानियों के पात्र ही क्रांतिकारी फैसले ले सकती हैं क्या सिर्फ कहानियों की शादीशुदा नायिकाएं ही अपने दांपत्य से त्रस्त आकर विकल्प की ओर बढ़ती हैं। अगर इस तरह की बातें सिर्फ किस्से कहानियों तक सीमित हैं तो फिर स्त्री विमर्श की बातें खोखली हैं। दूसरी बात ये कि हमारे यहां मृत व्यक्ति को लेकर स्तरहीन बातें कहने की परंपरा नहीं रही है।व्यक्ति की मृत्यु के बाद तुरंत उसकी आलोचना या उसके संबंधों के बहाने से उसको विवादित करने को हमारे समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। लेकिन मन्नू भंडारी की तथाकथित मित्रों ने उनके निधन के तुरंत बाद उनके और राजेन्द्र यादव के बीच के तनावपूर्ण संबंध की बात उठाकर इस परंपरा का ना सिर्फ निषेध किया बल्कि नए लेखकों के सामने एक खराब उदाहरण प्रस्तुत किया। बेहतर होता कि ये बुजुर्ग लेखिकाएं मन्नू भंडारी के साहित्यिक योगदान या अवदान पर चर्चा करतीं। उनकी रचनाओं के बारे में नई पीढ़ी को अवगत करवाती या फिर उसको नए सिरे से व्याख्यायित करने का उपक्रम करतीं। विवादित प्रसंगों की बजाय अगर उनकी संयुक्त कृति एक इंच मुस्कान के लिखे जाने की प्रक्रिया पर चर्चा होती तो उनकी प्रयोगधर्मिता का पता चलता। ये भी पता चलता कि दो अलग अलग व्यक्ति कैसे इतना प्रवाहपूर्ण उपन्यास लिख पाए। काश! ऐसा हो पाता। 


Saturday, November 13, 2021

भारतीयता से मार्क्सवादियों की चिढ़ पुरानी


लंबे समय से साहित्यिक बैठकों या साहित्यिक सम्मेलनों में कुबेरनाथ राय की चर्चा सुनता रहा था। उनके निबंधों की खूब चर्चा होती थी। कई लोग तो उनके निबंधों को जमकर तारीफ करते हैं । उनके निबंध में शब्दों के चयन को रेखांकित करते हुए भारतीय ज्ञान परंपरा के ध्वजवाहक के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं। लंबे समय से प्रशंसा सुन कर मन में उनके निबंधों को पढ़ने की इच्छा थी। साहित्य अकादमी से प्रकाशित कुबेरनाथ राय का संचयन लाकर पढ़ने लगा। जो कुछ लेख पढ़ पाया उसके आधार पर ये राय बनी कि कुबेरनाथ राय का अध्ययन बहुत व्यापक था और वो अपने निबंधों में भारतीय पौराणिक ग्रंथों और प्रतीकों का बहुत ही सटीक उपयोग करते थे। उनके निबंधों को पढ़ते हुए ये भी संकेत मिला कि इतना महत्वपूर्ण लेखन करने के बावजूद हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी लेखकों या आलोचकों ने उनकी रचनाओं पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं किया। क्यों मार्क्सवादी आलोचकों ने कुबेरनाथ राय की रचनाओं की उपेक्षा की। कुबेरनाथ राय की रचनाओं का मूल स्वर भारतीयता है और उनके लेखन में रामायण , महाभारत या पुराणों के संदर्भ बहुधा आते हैं।  साहित्य अकादमी से प्रकाशित पुस्तक की भूमिका में हनुमान प्रसाद शुक्ल ने राय के हवाले से कई दिलचस्प जानकारियां दी हैं। एक प्रसंग में कुबेरनाथ राय लिखते हैं, ई एम एस नंबूदरीपाद और वी के कृष्ण मेनन भारत के जाने माने कम्युनिस्ट रहे हैं। आल इंडिया रिपोर्टर (1970 दिसंबर पृ.2015 पैरा 31-33) में ई एम एस नंबूदरीपाद बनाम टी नांबियार (फौजदारी अपील नंबर 56, 1968ई, डी 31.7.70) के मुकदमे का विवरण छपा है। नंबूदरीपाद और उनके वकील कृष्ण मेनन ने मार्क्सवाद की जो व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत की उसपर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एम हिदायतुल्ला और जस्टिस ए एन राव की खंडपीठ ने अपने फैसले में टिप्पणी की, हमें शंका है कि इन्होंने मार्क्सवादी साहित्य को ठीक से समझा है अथवा कभी भी पढ़ा है।...या तो ये मार्क्स के बारे में कुछ जानते नहीं अन्यथा जानबूझकर मार्क्स, एंगेल्स एवं नेनिन की रचनाओं की अपव्याख्या कर रहे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों की मार्सवादियों पर की गई इस महत्वपूर्ण टिप्पणी को दबा दिया गया। यह कोई मामूली केस और टिप्पणी नहीं थी। ई एम एस नंबूदरीपाद भारतीय कम्यिनुस्टों के सिरमौर माने जाते हैं। उन्होंने केरल में कम्युनिस्टों की सरकार बनाई थी और लंबे समय तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो के महासचिव रहे थे। कम्युनिस्टों की ये चालाकी पुरानी है जिसमें वो अपने पक्ष की बात को, चाहे वो कमजोर ही क्यों न हो, छद्म तरीके से बहुत प्रचारित करते हैं और जो उनके पक्ष की बात नहीं होती है उसको वो योजनाबद्ध तरीके से दबा देते हैं। यही काम उन्होंने साहित्य में किया और फिर इतिहास लेखन में भी किया। वो इतने पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि जो स्थापना या लेखन उनके विचार के अनुरूप नहीं होता है उसकी उपेक्षा कर उसको बौद्धिक विमर्श के परिदृश्य से ओझल भी करते रहे हैं। हिंदी साहित्य में तो इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं जहां उन्होंने अपनी उपेक्षा से कई लेखकों की अहम रचनाओं पर चर्चा तक नहीं होने दी। स्वाधीनता के बाद जब नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने तो कम्युनिस्ट विचारधारा देश में मजबूत होने लगी।

पहले जवाहरलाल नेहरू और बाद के दिनों में इंदिरा गांधी ने वामपंथी विचार को पल्लवित और पुष्पित होने का अवसर दिया। जब देश को स्वाधीनता मिली और जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने देश को समाजवादी गणतंत्र की राह पर आगे बढ़ाने का काम किया। नेहरू के साम्यवादी सोच से प्रभावित होने के कई प्रमाण मिलते हैं। 1927 में ब्रसेल्स में दुनियाभर के कम्युनिस्टों का एक सम्मेलन हुआ था जिसमें भारत से जवाहरलाल नेहरू गए थे। वहां श्रम और श्रमिकों की समस्या के अलावा पूंजीवाद और उपनिवेशवाद को लेकर भी चर्चा हुई थी। वहां की चर्चाओं को सुनकर वो बेहद प्रभावित हुए और उनका झुकाव साम्यवाद की ओर हो गया। उसी वर्ष वो अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ सोवियत रूस गए थे। सोवियत रूस की यात्रा के दौरान जवाहलाल नेहरू ने कई लेख आदि लिखे थे जो बाद में एक पुस्तिका के रूप में संकलित होकर प्रकाशित हुई। इसका नाम है सोवियत रूस, सम रैंडम स्केचेज एंड इंप्रेशंस। इस पुस्तिका से नेहरू के साम्यवादी विचारों से निकटता के संकेत मिलते हैं। देश के प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने, शीतयुद्ध के समय, भारत को गुटनिरपेक्ष देशों के चंद अगुवा देशों के तौर पर स्थापित करने का प्रयत्न किया।  पर एक वक्त ऐसा आया जिसने पूरी दुनिया में नेहरू की सोच को उजागर कर दिया। 1956 में जब सोवियत रूस ने हंगरी पर हमला किया तो गुटनिरपेक्ष के अगुवा देशों से ये अपेक्षा की जा रही थी वि वो सोवियत रूस के आक्रमण और उसकी विस्तारवादी कदम की पुरजोर तरीके से आलोचना करेंगे लेकिन आलोचना का स्वर बेहद धीमा था। 

नेहरू का झुकाव साम्यवाद की ओर था लिहाजा सत्ता का साथ पाकर इस विचारधारा को, उसके लेखकों को उसके अनुयायियों को मजबूती मिलनी आरंभ हो गई। परिणाम ये हुआ कि हिंदी साहित्य में मार्क्सवाद पर आधारित साहित्य लेखन और आलोचना मुख्यधारा के लेखन के तौर पर स्थापित हो गया। जिन भारतीय लेखकों ने मार्क्सवाद की जगह भारतीयता को अपने लेखन का आधार बनाया उनकी न केवल उपेक्षा की गई बल्कि उनके लेखन को दकियानूसी, रूढिवादी लेखन कह कर खारिज किया जाने लगा । मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव में हो रहे लेखन को प्रगतिशील कहकर स्थापित किया जाने लगा। साहित्य में प्रगतिशीलता का पर्याय मार्क्सवादी लेखन हो गया। जबकि भारतीय लेखन परंपरा हमेशा से प्रगतिशील रही है। मार्क्सवादी विचारधारा के असर ने साहित्य में समूह भी पैदा किए जो अपने साथी सदस्यों की रचनाओं का ख्याल रखने लगे। बहुधा रचना की आलोचना का आधार रचना की जगह लेखक की विचारधारा होने लगी। परिणाम ये हुआ कि ज्यादातर लेखन एकांगी होने लगा। जब कोई लेखन एकांगी होने लगता है तो विषयों की कमी होने लगती है । जब विषयों की कमी होने लगी तब इस विचारधारा के लेखकों ने ‘न लिखने का कारण’ ढूंढना आरंभ किया। इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ के वर्षों में हिंदी साहित्य में ‘न लिखने के कारण’ का जमकर शोर मचा था। लेकिन मार्क्सवादी ये भूल गए कि कोई भी विचार या दर्शन साहित्य लेखन का आधार नहीं हो सकता है। ये सिर्फ साहित्य में लेखन को आधार तो प्रदान कर सकते हैं लेकिन साहित्य की अंतर्वस्तु नहीं हो सकते हैं। कुबेरनाथ राय वाली पुस्तक की भूमिका में हनुमान प्रसाद शुक्ल ने ठीक से इस अवधारणा को व्याख्यायित किया है, साहित्य मनुष्य के चित्त को समृद्ध करता है. उसका परिष्कार करता है, उसके क्षितिज का विस्तार करता है, उसकी झुधा-तृषा को परिशांत करता है, मनोग्रंथियों को खोलता और मनोरोगों का उपचार करता है। मार्क्सवादी इसको समझ नहीं पाए और वो मार्क्स के दर्शन को साहित्य की अंतर्वस्तु बनाने में जुट गए। परिणाम ये हुआ कि सर्जनात्मक लेखन नारेबाजी या फिर राजीनितक दल का घोषणा पत्र बनने लगा। पाठक इससे ऊबने लगे और साहित्य से दूर होने लगे। अब समय है कि साहित्य में मार्क्सवादियों की लेखन प्रविधि को चुनौती दी जाए और उन लेखकों पर गंभीरता से काम हो जिन्होंने मार्क्सवादी चिंतन की तुलना में भारतीय चिंतन परंपरा को अपनाया और साहित्य में भारतीयता को जीवित रखा। कुबेरनाथ राय से लेकर नरेन्द्र कोहली तक ऐसे लेखकों की लंबी सूची है जिनको मार्क्सवादियों ने छलपूर्वक मुख्यधारा में आने से रोके रखा। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास जैसी संस्थाओं को भारतीय चिंतन परंपरा के लेखकों की रचनाओं को पाठकों तक पहुंचाने का उपक्रम करना चाहिए ताकि भारतीय लेखन की समग्र तस्वीर पाठकों के सामने हो। 

Saturday, November 6, 2021

चयन की पारदर्शिता पर उठे सवाल


फिल्मकारों और फिल्मों से जुड़ी एक संस्था है जिसका नाम है फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया (एफएफआई)। अन्य कामों के अलावा ये संस्था हमारे देश की उस फिल्म का चयन भी करती है जो आस्कर अवार्ड के लिए भेजी जाती है। आस्कर के लिए भेजी जानी वाली फिल्मों के चयन को लेकर बहुधा विवाद होते रहते हैं। इस वर्ष भी हुआ। इस वर्ष फिल्म फेडरेशन ने तमिल फिल्म ‘कुझंगल’ का चयन किया और हिंदी फिल्म ‘सरदार उधम’ को नहीं भेजा गया। तर्क ये दिया गया कि फिल्म सरदार उधम बहुत लंबी है और इसमें अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव दिखाया गया है। वैश्वीकरण के इस दौर में घृणा का ये भाव अपेक्षित नहीं है। किसी फिल्म को आस्कर में नहीं भेजने के ये कारण समझ से परे है। स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म शिंडलर्स लिस्ट जिसने आस्कर में कई पुरस्कार जीते थे वो तीन घंटे से अधिक अवधि की फिल्म है। इस फिल्म की लंबाई पर कभी आस्कर की जूरी ने सवाल नहीं उठाया। इस फिल्म को लेकर कभी प्रश्न नहीं उठा कि इसमें नाजियों का चित्रण आपत्तिजनक है। इसके अलावा फिल्म गान विद द विंड की लंबाई भी तीन घंटे अट्ठावन मिनट थी। फिल्म मेरा नाम जोकर की लंबाई के बारे में सबको ज्ञात ही  है। इस फिल्म की अवधि इतनी अधिक थी इसमें दो मध्यांतर थे। हमारे यहां से भी पूर्व में कई ऐसी फिल्में हैं जो आस्कर में भेजी जा चुकी है जो फिल्म सरदार उधम से लंबी है।  इसलिए एफएफआई की तरफ से जो तर्क दिए गए वो बचकाने तो हैं ही अपने देश के इतिहास को भी सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देखने के दोष का शिकार हो गया। जलियांवाला बाग नरसंहार का जब चित्रण होगा तो उसको इसी तरह से देखा जाएगा। दरअसल इस तरह की बचकानी दलीलों की वजह से एफएफआई की साख लगातार छीजती चली गई है। आज भले ही ये संस्था दावा करे कि वो भारतीय फिल्मकारों की प्रतिनिधि संस्था है लेकिन वर्तमान दौर के बड़े फिल्मकार या तो इससे जुड़े नहीं हैं या यहां सक्रिय नहीं हैं। भारत सरकार को इस संस्था को मान्यता पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है।

आस्कर में भारतीय फिल्म की प्रविष्टि को लेकर विवाद अभी ठंडा भी हुआ नहीं था कि एक और विवाद सामने आ गया है। इसमें भी फिल्म फेडरेशन का नाम आ रहा है। ये विवाद उठा है गोवा में आयोजित होनेवाले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (आईआईएफआई) के दौरान दिखाई जाने वाली एक फिल्म डिक्शनरी को लेकर। इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया का आयोजन गोवा में 20 से 28 नवंबर तक है। इसका आयोजन सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एक संस्था फिल्म समारोह निदेशालय करती है। इस अंतराष्ट्रीय फेस्टिवल के दौरान इंडियन पैनोरमा के अंतर्गत दिखाई जानेवाली फिल्मों की सूची जारी की गई। इस सूची में आमतौर पर चौबीस फिल्में होती हैं जो फेस्टिवल के दौरान दिखाई जाती हैं। इन फिल्मों का चयन एक जूरी करती है। जूरी सदस्यों और अध्यक्ष का चयन फिल्म समारोह निदेशालय करती है। इस बार भी बारह सदस्यों की एक जूरी ने इंडियन पैनोरमा के तहत दिखाई जानेवाली फिल्मों का चयन किया। इस जूरी के अध्यक्ष कन्नड फिल्मकार एस वी राजेन्द्र सिंह बाबू थे। राजेन्द्र सिंह बाबू के बारे में बताते चलें कि उन्होंने पिछले चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए चुनाव प्रचार किया था। उनकी अध्यक्षता वाली जूरी ने 24 फिल्मों का चयन किया और अपनी संस्तुति फिल्म समारोह निदेशालय को भेज दी। जब निदेशालय ने इंडियन पेनोरामा के फिल्मों की घोषणा की तो उसमें 24 की जगह 25 फिल्मों के नाम थे। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार में मंत्री ब्रत्य बसु की फिल्म डिक्शनरी को इसमें शामिल किया गया। जब इस बारे में जानकारी ली गई तो पता चला कि फिल्म फेडरेशन आफ इंडिया ने एकमात्र इसी फिल्म की संस्तुति की थी और इंडियन पैनोरमा के नियमों के अंतर्गत फिल्म समारोह निदेशालय की आतंरिक समिति ने इस फिल्म का चयन किया। 

यहां तक तो सबकुछ सामान्य लगता है कि एफएफआई ने एकमात्र फिल्म की संस्तुति की और निदेशालय की समिति ने उसका चयन कर लिया। लेकिन इसके तह में जाने पर एक असामान्य कहानी सामने आई। ममता बनर्जी सरकार में मंत्री और फिल्मकार ब्रत्य बसु की फिल्म डिक्शनरी की प्रविष्टि इंडियन पैनोरमा के लिए आई थी। इंडियन पैनोरमा की जूरी ने आरंभिक दौर में ही इस फिल्म को देखकर उसको फेस्टिवल के दौरान प्रदर्शित करने योग्य नहीं पाया। इस बीच फिल्म फेडरेशन ने डिक्शनरी को लेकर अपनी संस्तुति फिल्म समारोह निदेशालय को भेज दी। निदेशालय की आतंरिक कमेटी ने इसका चयन कर 25 फिल्मों की सूची जारी कर दी। ये ज्ञात नहीं हो सका कि निदेशालय ने फिल्म फेडरेशन से ये बात जाननी चाही कि नहीं उनकी तरफ से एकमात्र फिल्म की संस्तुति ही क्यों आई, जबकि आमतौर पर वो पांच फिल्मों की संस्तुति करते हैं।  नतीजा यह हुआ कि एक ऐसी फिल्म जिसको जूरी ने रिजेक्ट कर दी थी वो प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों की सूची में आ गई। प्रश्न ये उठता है कि अगर इस तरह की कार्यप्रणाणी है तो फिर जूरी की राय का क्या अर्थ है? क्यों बीस पच्चीस दिन तक जूरी के सदस्य दो सौ बीस फिल्मों को देखकर उसमें से 24 फिल्मों का चयन करते हैं। हर फिल्म पर माथापच्ची होती है। फिल्म समारोह निदेशालय को इस पूरे प्रकरण पर स्थिति साफ करनी चाहिए। फिल्मों के चयन को लेकर पारदर्शिता होनी चाहिए अन्यथा चयन की प्रक्रिया से फिल्मकारों का विश्वास डिग जाएगा। 

इसके पहले भी फिल्म समारोह निदेशालय के फैसलों को लेकर विवाद होते रहे हैं। 2017 के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में फिल्म एस दुर्गा और फिल्म न्यूड के प्रदर्शन को लेकर अच्छा खासा विवाद उठा था। फिल्म एस दुर्गा और फिल्म न्यूड को इंडियन पैनोरमा से बाहर करने के फैसले के खिलाफ जूरी के अध्यक्ष सुजय घोष ने इस्तीफा दे दिया था। उनका कहना था कि बिना उनको बताए इन फिल्मों को प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों की सूची से बाहर कर दिया गया । ऐसी अप्रिय स्थिति इस बार भी हो सकती है कि जूरी के अध्यक्ष या सदस्य इस बात को लेकर इस्तीफा दे दें कि उनकी राय के खिलाफ फिल्म का प्रदर्शन होने जा रहा है।  एस दुर्गा के प्रदर्शन को लेकर तो विवाद इतना बढ़ा था कि इस फिल्म के निर्माता सूचना और प्रसारण मंत्रालय के खिलाफ केरल हाईकोर्ट चले गए थे। उस वक्त भी फिल्म समारोह निदेशालय की कार्यपद्धति को लेकर सवाल उठे थे। अब एक बार फिर से नियमों की आड़ में एक ऐसी फिल्म को जोड़ा गया जिसको जूरी ने खारिज किया था। विवाद बढ़ने के बाद अगर निदेशालय इस फिल्म को सूची से हटाती भी है तो उससे एक राजनीतिक विवाद जन्म ले सकती है। ममता बनर्जी की पार्टी को भारतीय जनता पार्टी पर या मोदी सरकार पर निशाना साधने का एक मौका मिल जाएगा। वो ये आरोप लगा सकती हैं कि उनकी पार्टी के नेता की फिल्म को जानबूझकर हटा गया। एक ऐसा मुद्दा खड़ा हो सकता है जिसमें राजनीति नहीं है सिर्फ अफसरों की लापरवाही या कुछ और है। केंद्र सरकार ने कुछ दिनों पूर्व सूचना और प्रसारण मंत्रालय की फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं के पुनर्गठन की बात की थी, अब वक्त आ गया है कि उस घोषणा पर अमल किया जाए। फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं का पुनर्गठन हो और नियमों को पारदर्शी बनाकर जिम्मेदारियां भी तय की जाएं ताकि भविष्य में विवाद न हों और फेस्टिवल की लोकप्रियता भी बढ़े।