कंगना रनोट बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं। कई फिल्मों में उनका उत्कृष्ट अभिनय देखने को मिला है। कमर्शियल फिल्मों में उनकी सफलता की कहानी तो सबको मालूम है। कई बार वो लीक से हटकर फिल्में करती हैं और उसमें अपने अभिनय से दर्शकों का मन मोह लेती हैं। पिछले दिनों तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रही जयललिता की जिंदगी पर उनकी फिल्म थलाइवी आई थी। उस फिल्म में कंगना ने जयललिता के किरदार को पर्दे पर अपने अभिनय कौशल से जीवंत कर दिया था। तमिल और हिंदी में बनी इस फिल्म में उनके अभिनय की बेहद सराहना हुई थी। अब कंगना ने एक और बेहद चुनौतीपूर्ण विषय और पात्र का चयन किया है। अब वो आपातकाल पर फिल्म बना रही हैं। इस फिल्म में वो इंदिरा गांधी की भूमिका में होंगी। कंगना ने इस फिल्म का एक छोटा सा वीडियो इंटरनेट मीडिया पर साझा किया है। उसको देखकर लगता है कि कंगना ने इस किरदार को निभाने के लिए बहुत श्रम किया है। छोटे से वीडियो में कंगना ने इंदिरा गांधी के हाव-भाव और उनके बोलने के स्टाइल को पूरी तरह से किरदार में उतार दिया है। इस वीडियो को देखकर इस बात का अंदाज लग रहा है कि इस फिल्म में कंगना की एक और दमदार और यादगार भूमिका दर्शकों के सामने होगी। इस फिल्म को कंगना स्वयं निर्देशित भी कर रही हैं। इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र का वो काला अध्याय है जिसने समाज के हर अंग को प्रभावित किया था। उस दौर की अनेक कहानियां अब भी लोगों की स्मृतियों में शेष हैं। इमरजेंसी में जितना कुछ घटा या जिस प्रकार से इंदिरा गांधी के इस निर्णय और संजय गांधी के तानाशाही रवैये ने लोगों को परेशान किया उस अनुपात में फिल्में नहीं बनीं। रचनात्मक लेखन भी न के बराबर हुआ। लेख आदि अवश्य लिखे गए, पत्रकारों और राजनेताओं की पुस्तकें आईं लेकिन बहुत कम साहित्यकारों ने इमरजेंसी को विषय बनाकर उपन्यास या कहानी लिखी।
हिंदी फिल्मों की अगर बात करें तो एक फिल्म याद आती है वो है किस्सा कुर्सी का। अमृत नाहटा की ये फिल्म इमरजेंसी के पहले बन गई थी और सेंसर बोर्ड के पास प्रमाणन के लिए गई थी। जबतक सेंसर बोर्ड से इसको प्रमाण पत्र मिलता तबतक देश में इमरजेंसी लागू कर दी गई थी। इस फिल्म में संजय गांधी और इंदिरा गांधी के क्रियाकलापों पर कटाक्ष किया गया था। संजय गांधी की कार फैक्ट्री लगाने के मंसूबों पर व्यंग्य भी था। संजय गांधी को जब इसका पता लगा तो वो भड़क गए थे। उसके बाद तो जो हुआ वो इतिहास में दर्ज है। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि सेंसर बोर्ड में जमा किए गए फिल्म के प्रिंट को उस वक्त के सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल के आदेश पर जब्त कर लिया गया था। संजय गांधी इससे संतुष्ट नहीं हुए। वो चाहते थे कि फिल्म के सभी प्रिंट नष्ट कर दिए जाएं। उनकी इस इच्छा की पूर्ति के लिए दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने बांबे (अब मुंबई) के प्रभादेवी इलाके में एक फिल्म प्रोसेसिंग लैब पर छापा मारा। छापे में फिल्म के निगेटिव समेत सभी प्रिंट जब्त कर लिए गए और उसको लेकर पुलिसवाले दिल्ली आ गए। इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि पूरी सामग्री को मारुति कार फैक्ट्री के कैंपस में लाकर जला दिया गया था। इस फिल्म में मनोहर सिंह, शबाना आजमी और सुरेखा सीकरी मुख्य भूमिका में थे। बाद में वो फिल्म फिर से बनी और रिलीज हुई परंतु मूल फिल्म नष्ट कर दी गई। इस फिल्म को लेकर केस मुकदमा भी हुआ था।
ये तो इमरजेंसी के दौर की बात है लेकिन इमरजेंसी लगने के कुछ महीने पहले 1975 में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था आंधी। फिल्म रिलीज हो गई। उसके बाद ये बात फैल गई कि ये फिल्म इंदिरा गांधी के जीवन पर है। फिर क्या था। इस फिल्म के निर्माताओं को घेरने की कोशिश होने लगी और आखिरकार इस फिल्म को बैन कर दिया गया। आई एस जौहर की एक फिल्म नसबंदी भी आई थी जिसमें इमरजेंसी के दौर में नसबंदी को लेकर की गई ज्यादतियों को दिखाया गया था। इस फिल्म को भी कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ा था। जबकि ये फिल्म इमरजेंसी के बाद बनी थी। 2017 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त निर्माता मधुर भंडारकर ने इंदु सरकार के नाम से फिल्म बनाई। इस फिल्म के खिलाफ पूरे देश में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन आदि किया। हैरत की बात ये कि उस वक्त सेंसर बोर्ड ने भी इस फिल्म की रिलीज की राह में रोड़े अटकाए थे। क्या ये माना जाए कि उपरोक्त फिल्मों का हश्र देखकर इमरजेंसी पर फिल्म बनाने का साहस कम फिल्म निर्माताओं ने किया या इसकी कोई और वजह रही है। दरअसल अगर हम समग्रता में देखें तो इसके अलावा भी कई वजहें नजर आती हैं। एक तो यही कि अधिकतर फिल्म निर्माता कारोबारी हैं और वो अपने व्यवसाय में किसी प्रकार का झंझट नहीं चाहते हैं। वो चाहते हैं कि फिल्म में निवेश करें और मुनाफा कमाएं। ये प्रवृत्ति फिल्मकारों को किसी प्रकार का जोखिम लेने से रोकती है। ये अनायास नहीं है कि गांधी पर इस देश में बहुत कम फिल्में बनीं। एक संपूर्ण फिल्म बनी भी स्वाधीनता के पैंतीस साल बाद। उसको भी एक विदेशी रिचर्ड एटनबरो ने बनाई।
एक और महत्वपूर्ण बात जो इस संदर्भ में रेखांकित की जानी चाहिए वो ये कि हिंदी में राजनीतिक विषयों पर कहानियां कम लिखी गईं। उपन्यास और भी कम। स्वाधीनता के बाद भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर जो कल्ट फिल्म मानी जाती है वो है गरम हवा। वो इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित है। विभाजन की त्रासदी पर हिंदी के लेखकों से अधिक पंजाबी के लेखकों ने लिखा क्योंकि वो भारत पाकिस्तान विभाजन से ज्यादा प्रभावित हुए थे। उसकी त्रासदी को नजदीक से देखा और महसूसा था। स्वाधीन भारत के इतिहास में कई ऐसी राजनीतिक घटनाएं हैं जिनपर बेहतरीन फिल्में बन सकती हैं। उनपर लिखा कम गया इस कारण फिल्मकारों का ध्यान भी उनपर कम गया। अगर हम स्वाधीनता के बाद के राजनीतिक घटनाक्रम पर बात करें तो भाषा को लेकर आंदोलन और प्रांतों का विभाजन। उसके बाद की हिंसा। कांग्रेस में विभाजन और इंदिरा गांधी का उदय। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में राजीव गांधी को अकल्पनीय बहुमत और पांच साल में ही जनता का मोहभंग। विश्वनाथ प्रताप सिंह का प्रधानमंत्री बनने का घटनाक्रम और संसदीय दल की बैठक के पहले की साजिशें और बैठक के दौरान का नाटकीय घटनाक्रम। कई राजनीतिक विषय हैं जिनपर फिल्में बन सकती हैं। निर्माता निर्देशक जोखिम उठाएं तो उनको सफलता भी मिल सकती है। विवेक अग्निहोत्री ने लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु और कश्मीर नरसंहार पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाया। एक में उनको अपेक्षाकृत कम सफलता मिली लेकिन दूसरी फिल्म में जनता ने उनको इतना प्यार दिया जिसकी कल्पना भी उन्होंने नहीं की होगी।
अब कंगना रनोट इमरजेंसी पर फिल्म बना रही हैं तो ये उम्मीद की जानी चाहिए कि जो बाधाएं उनके पूर्ववर्ती फिल्मकारों के सामने आई थीं वो उसका सामना कंगना को नहीं करना पड़ेगा। इमरजेंसी के दौरान धरपकड़, पाबंदियां और जुल्म तो हैं ही उस दौर में संजय गांधी और उनकी महिला मित्रों की भी कई कहानियां इधर उधर पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी हुई हैं। अगर कंगना की टीम ने उन कहानियों को फिल्म की कहानी में ठीक से पिरो दिया तो फिर फिल्म की सफलता में कोई संदेह नहीं रहेगा। संभव है कि इस सफलता से और भी फिल्मकार राजनीतिक फिल्म बनाने के लिए प्रेरित हों।