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Saturday, July 31, 2021

दिशाहीन होता कला का ‘भारत भवन’


पिछले विधानसभा चुनाव के बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी थी और कमलनाथ मुख्यमंत्री। मुख्यमंत्री बनने के बाद कमलनाथ सरकार ने एक आदेश के जरिए सूबे की तमाम उन समितियों को भंग करने का आदेश दिया था जिसके सदस्यों की नियुक्ति राज्य सरकार करती थी। किसी भी समिति के कार्यकाल के खत्म होने की प्रतीक्षा नहीं की गई थी। उसके पहले लंबे समय से मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और वहां अलग अलग विभागों की समितियों, सलाहकार समितियों आदि में ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग नामित थे। कमलनाथ ने एक झटके में सभी समितियों को भंग करके कांग्रेस और वामदलों में आस्था रखनेवालों को नियुक्त करना आरंभ कर दिया था। भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश उपासने से दबाव डालकर इस्तीफा लेने की खबर उस वक्त आई थी। उनके इस्तीफे के बाद कमलनाथ सरकार ने अपनी पसंद का कुलपति बनाया गया था। उन कुलपति महोदय ने भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी पर सार्वजनिक रूप से अनर्गल टिप्पणी करनेवाले तीन व्यक्तियों को प्रोफेसर के तौर पर अस्थायी नियुक्ति भी दी थी। फिर मध्य प्रदेश का राजनीतिक घटनाक्रम बदला और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बन गए। पर कला-संस्कृति के क्षेत्र में कमलनाथ ने अपने सवा साल के कार्यकाल में जो बदलाव किए थे उनमें से ज्यादातर अब भी अपने अपने पदों पर डटे हुए हैं। कुछ लोगों ने भले ही इस्तीफा दे दिया। 

पिछले दिनों भोपाल के भारत भवन से जुड़े प्रशासनिक अधिकारी प्रेमशंकर शुक्ल की कविता को लेकर विवाद आरंभ हुआ तो पूरे देश की नजर इस कला केंद्र की ओर गई। भारत भवन की परिकल्पना और स्थापना कला के विभिन्न रूपों में समन्वय और संवाद के एक केंद्र के रूप में की गई थी। आज से करीब अट्ठाइस साल पहले इसकी स्थापना हुई थी। इस संस्था को मध्य प्रदेश सरकार से अनुदान मिलता है। इसको चलानेवाले ट्रस्ट में मध्य प्रदेश सरकार और भारत सरकार के प्रतिनिधि होते हैं। प्रदेश के संस्कृति सचिव भी इस ट्रस्ट में रहते हैं। कमलनाथ सरकार ने जब सभी समितियों आदि को भंग किया था तब भारत भवन के ट्रस्टियों को भी हटा दिया गया था। उसके बाद कांग्रेस सरकार ने अपनी पसंद के लोगों को ट्रस्ट में नामित किया था। इस वक्त श्याम बेनेगल, गुलजार और संजना कपूर भारत भवन के ट्रस्टियों हैं। कमलनाथ ने जब भारत भवन के ट्रस्ट को भंग किया था तो उस वक्त की ट्रस्टियों में पद्मा सुब्रह्मण्यम जैसी विख्यात कलाकार और डॉ सच्चिदानंद जोशी जैसे प्रतिष्ठित लेखक और सांस्कृतिक प्रशासक शामिल थे। उस वक्त किसी ने ये नहीं सोचा कि पद्मा जी जैसी बड़ी कलाकार को कैसे हटाया जा सकता है। लेकिन अब के हुक्मरानों में इस बात को लेकर हिचक है गुलजार और श्याम बेनेगल को कैसे हटाया जा सकता है। यही फर्क है भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में। कांग्रेस को जिसको रखना या हटाना होता है वो बेहिचक अपना काम करती है। और अगर कांग्रेस बौद्धिक क्षेत्र में ऐसा करती है तो वामपंथी उनके फैसलों को संरक्षण भी देते हैं। इससे उलट भारतीय जनता पार्टी सबको साथ लेकर चलने में विश्वास करती है। उदारतापूर्वक अपने विरोधियों को भी स्थान देती है। खैर ये एक अलहदा मुद्दा है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी। फिलहाल हम बात कर रह हैं भारत भवन की। 

भारत भवन अपनी स्थापना काल से ही विवादों में रहा है लेकिन अब लगभग दिशाहीन हो गया है। 1982 में जब इसकी स्थापना हुई थी तब नौकरशाह अशोक वाजपेयी इसके कर्ताधर्ता थे। उस समय भी अशोक वाजपेयी के एक बयान से विवाद हुआ था। दिसंबर 1984 के भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों की मौत हुई थी। उसके तीन महीने बाद भारत भवन ने 1985 में विश्व कविता समारोह का आयोजन किया था। अशोक वाजपेयी का बयान इस आयोजन के संदर्भ में ही था, जिसकी पूरे देश में निंदा हुई थी। अशोक वाजपेयी ने कहा था कि ‘मरनेवाले से साथ मरा नहीं जाता’। बाद में अशोक वाजपेयी ने अपनी सफाई में कहा कि उनकी संवाददाता से फोन पर अनौपचारिक बातचीत हुई थी और उन्होंने कहा था कि ‘यही जीवन है और हम मरनेवालों के साथ मर नहीं जाते’। अगर अशोक वाजपेयी की दलील मान भी ली जाए तो अनौपचारिक बातचीत से भी संवेदना के संकेत तो मिलते ही हैं। उसके बाद भी कई विवाद भारत भवन को लेकर होते रहे हैं। अभी हाल का विवाद यहां के कर्ताधर्ता प्रेमशंकर शुक्ल की कविता और उनकी कार्यशैली को लेकर उठा है। इस विवाद पर आगे बात हो इसके पहले बताना आवश्यक है कि प्रेमशंकर शुक्ल अशोक वाजपेयी की बगिया के ही फूल हैं। प्रेमशंकर शुक्ल की आस्था अब भी अशोक वाजपेयी से ही जुड़ी है। यह अनायास नहीं है कि अशोक वाजपेयी से जुड़े लोगों पर या वामपंथ से जुड़े लेखकों कवियों को भारत भवन से प्रकाशित पत्रिकाओं के अंकों में प्रमुखता से स्थान मिलता है। उन्हीं कवियों को भारत भवन के आयोजनों में बार बार बुलाया जाता है जो अशोक वाजपेयी की मित्र मंडली में हैं। इस तरह की कला संस्थाओं में किसी कवि या लेखक को आमंत्रित करने का कोई मानदंड तो होता नहीं है, न ही इस बात की कोई व्यवस्था होती है कि किस रचनाकार को कितनी बार आमंत्रित किया जाए। इसकी ही आड़ में इन संस्थाओं में खेल चलते हैं। 

भारत भवन के अधिकारी प्रेमशंकर शुक्ल कविता भी लिखते हैं। उनकी कुछ कविताएं जो इन दिनों चर्चा के केंद्र में हैं उनमें शिव-पार्वती से लेकर पान और होठ तक के बिंब का प्रयोग किया गया है। इन कथित कविताओं में जो भावोच्छवास है वो अश्लीलता तक पहुंचती है। यह ठीक है कि कवि अपनी कल्पना में बहुधा देह के सौंदर्य का उपयोग करते हैं लेकिन प्रेमशंकर शुक्ल के यहां जब इस तरह के बिंब आते हैं तो वो फूहड़ता के साथ उपस्थित होते हैं। चाहे उनकी कविता अंगराग हो, मीठी पीर हो, केलि हो या अनावरण और आदि पलथी हो। इनकी कविताओं को पढने के बाद ऐसा लगता है कि अशोक वाजपेयी की शागिर्दी में इतने लंबे समय से रहने के बाद भी प्रेमशंकर शुक्ल कविता लिखना नहीं सीख पाए। हिंदी साहित्य के पिछले तीन चार दशक के परिदृश्य पर नजर डालें तो पाते हैं कि इस कालखंड में कई अफसर लेखक-कवि हुए। अगर वो अपने समकालीन रचनाकारों को लाभ पहुंचाने की स्थिति में होते हैं तो वो चर्चित भी होते रहे हैं। वजह बताने की जरूरत नहीं। कोई अफसर किसी शोध संस्थान में पदस्थापित होते ही पुस्तक लिखने लग जाता है। उनके पास सहूलियतें होती हैं और समकालीन लेखकों को उपकृत करने का संसाधन। इन सरकारी सहूलियतों और संसाधनों के बल पर ज्यादातर अफसर कवि हो जाते हैं। नामवर सिंह ने कई ऐसे अफसरों को सदी का श्रेष्ठ रचनाकार तक घोषित किया था।  

मध्य प्रदेश के बारे में माना जाता रहा है कि इस प्रदेश में संस्कृति को लेकर अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा संजीदगी से काम होता है। इस प्रदेश के सबसे बड़े कला केंद्र की गतिविधियां इस धारणा को खंडित करती है। भारत भवन में जिस तरह के आयोजन हो रहे हैं या जो प्रकाशन हो रहा है उसपर मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग को ध्यान देना चाहिए। गुलजार और श्याम बेनेगल की प्रतिष्ठा हो सकती है लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर आकर उनसे ये अपेक्षा करना व्यर्थ है कि वो संस्था को कोई दिशा दे सकेंगे। भारत भवन को रचनात्मक केंद्र के रूप में स्थापित करने के लिए रचनात्मक और सकारात्मक बदलाव की आवश्यकता कला जगत में महसूस की जा रही है। 

Wednesday, July 28, 2021

गाइड में लीला नहीं बन पाई 'रोजी'


नौसेना अधिकारी के एम नानावटी की जिंदगी और उनके अपनी पत्नी के प्रेमी को गोलीमार देने की घटना हर दौर में फिल्मकारों को अपनी ओर आकर्षित करती रही है। सुनील दत्त ने जब फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखने की सोची तो उनको नानावटी की स्टोरी पसंद आई और उन्होंने उसपर फिल्म बनाने का ताय किया। उन्होंने ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ नाम से नानवटी की कहानी पर फिल्म बनाई। इसमें सुनील दत्त के साथ रहमान थे और नायिका के तौर पर मिस इंडिया रही लीला नायडू को चुना गया था। फिल्म बनी लेकिन बहुत चल नहीं पाई लेकिन लीला नायडू की खूबसूरती और अदायगी का हिंदी फिल्मकारों ने नोटिस लिया। नानावटी की कहानी पर बाद में गुलजार के निर्देशन में ‘अचानक’ फिल्म बनी जिसको ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा था। इसमें विनोद खन्ना लीड रोल में थे। कई वर्षों बाद अक्षय कुमार अक्षय कुमार को लीड रोल में लेकर एकबार फिर इस कहानी पर ‘रुस्तम’ बनी। बाद की दोनों फिल्में सफल रहीं लेकिन ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ को दर्शकों का प्यार नहीं मिल पाया। 1963 में ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ रिलीज हुई थी। इसी समय विजय आनंद ने आर के नारायणन की कहानी पर ‘गाइड’ फिल्म बनाने की सोची थी तो उनके जेहन में रोजी की भूमिका के लिए लीला नायडू का नाम ही आया। वो लीला की खूबसूरती से बहुत प्रभावित थे और उनको लगता था कि ‘गाइड’ में रोजी की भूमिका के लिए वो उपयुक्त अदाकारा हैं। इस बात का कई जगह उल्लेख मिलता है कि विजय आनंद ने लीला नायडू से इस रोल के लिए बात कर ली थी। जब फिल्म के फ्लोर पर जाने का समय आया और उसका स्क्रीनप्ले लिख लिया गया तो विजय आनंद को महसूस हुआ कि रोजी के रोल में तो वही अभिनेत्री सफल हो सकती हैं जो बेहतरीन डांसर भी हो। लीला नायडू नृत्यकला में उतनी पारंगत नहीं थीं लिहाजा विजय आनंद को अपना फैसला बदलना पड़ा और लीला नायडू की जगह वहीदा रहमान को चुना गया। बाद की बातें तो इतिहास हैं। 

फिल्म ‘गाइड’ तो लीला नायडू को नहीं मिली लेकिन उसी समय इस्माइल मर्चेन्ट ने एक कंपनी बनाई और फिल्म ‘द हाउसहोल्डर’ का निर्माण किया। इस फिल्म में लीला नायडू को लिया गया था। ‘द हाउसहोल्डर’ के बनने की प्रक्रिया में सत्यजित राय बहुत गहरे जुड़े थे और वो लीला नायडू से प्रभावित हो गए थे। उन्होंने लीला नायडू, शशि कपूर और मर्लेन ब्रांडो को लेकर एक फिल्म बनाने की योजना बनाई थी, पर ये योजना परवान नहीं चढ़ सकी। दरअसल लीला नायडू मुंबई फिल्म जगत की ऐसी अदाकारा थीं जो बेहद खूबसूरत थीं लेकिन उनकी फिल्मों को बहुत अधिक सफलता नहीं मिली। इनके पिता वैज्ञानिक थे और लंबे समय तक पेरिस में रहे। लीला नायडू अपने माता पिता की इकलौती संतान थीं। स्विट्जरलैंड में पली बढ़ी और वहीं उन्होंने एक्टिंग की ट्रेनिंग भी ली। 1954 में वो मिस इंडिया बनीं और इसके आठ साल बाद उनको सुनील दत्त ने फिल्म का ऑफर दिया। फिल्मी दुनिया में आने के पहले उन्होंने ओबरॉय होटल चेन के मालिक मोहन सिंह ओबरॉय के बेटे तिलक राज ओबरॉय से विवाह कर लिया था। ये शादी बहुत लंबी नहीं चल सकी और दो बेटियों के जन्म के बाद दोनों में तलाक हो गया। बाद में लीला ने लेखक कवि डाम मारिस से दूसरी शादी कर ली। लीला नायडू ने एकाध और फिल्में की लेकिन बहुत सफलता नहीं मिल पाई। बाद के दिनों में वो अपने दूसरे पति से भी अलग हो गई और अकेले रहने लगीं। मुंबई के कोलाबा इलाके के अपने फ्लैट में अंतिम दिनों में रहीं और वहीं 29 जुलाई 2009 को उनका निधन हो गया। 


Saturday, July 24, 2021

समग्र नीति से समृद्ध होगी संस्कृति


हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संस्कृति को लेकर एक नई पहल की है। खबरों के मुताबिक संस्कृति विभाग के प्रमुख सचिव ने उनके सामने प्रदेश की प्रस्तावित संस्कृति नीति के प्रमुख बिंदुओं को रखा। प्रस्तावित संस्कृति नीति के बारे में योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों को विषय से जुड़े विशेषज्ञों से बातचीत कर इसको तैयार करने का निर्देश दिया है। यह तो एक राज्य की बात है लेकिन अब समय आ गया है कि संस्कृति को लेकर गंभीरता से विचार किया जाए और देशभर की एक संस्कृति नीति बनाई जाए। कई राज्यों में संस्कृति नीति के नाम पर अलग अलग नियम आदि मिलते हैं, पर वहां भी एक समग्र संस्कृति नीति की आवश्यकता है। हमारे पूरे देश की संस्कृति एक है। उस एक संस्कृति के विविध रूप हैं जो अलग अलग राज्यों से लेकर अलग प्रदेशों और इलाकों में लक्षित किए जा सकते हैं। स्वाधीनता के पचहत्तर साल पूरे होने जा रहे हैं और इतना समय बीत जाने के बाद भी देश में एक समग्र संस्कृति नीति नहीं है। समग्र संस्कृति नीति के अभाव में राज्यों से लेकर केंद्रीय स्तर पर अलग अलग संस्थाएं कार्यरत हैं। ऐसा लगता है कि जब जरूरत हुई तो संस्कृति से जुड़ी एक संस्था बना दी गई। इन संस्थाओं के कामों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर कई विसंगतियां दिखती हैं। सबसे बड़ी विसंगति तो यही है कि एक ही काम को अलग अलग संस्थाएं कर रही हैं। दिल्ली में केंद्र सरकार की संस्कृति से जुड़ी कई संस्थाएं काम करती हैं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, साहित्य अकादमी, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, सांस्कृतिक स्त्रोत और प्रशिक्षण केंद्र,गांधी स्मृति और दर्शन समिति, राष्ट्रीय संग्रहालय आदि हैं। इनके अलावा अगर हम संस्कृति मंत्रालय से जुड़ी अन्य संस्थाओं को देखें तो इसमें सबसे बड़ा है क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र। पूरे देश में सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र हैं। बुद्ध अध्ययन से जुड़ी चार संस्थाएं हैं। पांच पुस्तकालय हैं, सात संग्रहालय भी हैं। 

उपरोक्त संस्थाओं के कामकाज पर नजर डालें तो एक ही काम अलग अलग संस्थाएं कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र जो काम कर रही हैं उसमें से कुछ काम संगीत नाटक अकादमी भी कर रही है। नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट और ललित कला अकादमी के काम भी कई बार एक जैसे होते हैं। ये सब संस्थाएं जो काम कर रही हैं उनमें से कई काम क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र भी कर रहे हैं। क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों की असलियत तो कोरोना महामारी के दौरान खुल गई। उनके पास संबंधित इलाकों के कलाकारों की कोई सूची तक नहीं है। पूर्व संस्कृति मंत्री लगातार ये कहते रहे कि कोरोना महामारी से प्रभावित कलाकारों की मदद के लिए क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र सूची तैयार कर रहे हैं। पर मदद तो दूर की बात आजतक सूची की जानकारी भी ज्ञात नहीं हो सकी। किसी भी कलाकार से बात करने पर पता चलता है कि इन क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों में कितना भ्रष्टाचार है और अगर सही तरीके से जांच हो जाए तो समूचा सच सामने आ जाएगा। ये सांस्कृतिक केंद्र जिन उद्देश्यों से बनाए गए थे वो अब पुनर्विचार की मांग करते हैं। 

इसके अलावा राज्यों में कई तरह की अकादमियां हैं जो संस्कृति संरक्षण और उसको समृद्ध करने के काम में लगी हैं। मध्य प्रदेश में भी कला साहित्य और संगीत से जुड़ी कई संस्थाएं हैं। मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद, उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत एवं कला अकादमी, आदिवासी लोक कला और बोली विकास अकादमी, मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय, साहित्य अकादमी भोपाल, कालिदास संस्कृत अकादमी, भारत भवन आदि। इन सबके क्रियाकलापों पर नजर डालने से कई बार एक ही तरह के काम कई संस्थाएं करती नजर आती हैं। इसी तरह से बिहार संगीत नाटक अकादमी, बिहार ललित कला अकादमी, भारतीय नृत्य कला मंदिर के अलावा ढेर सारी भाषाई अकादमियां हैं। इन दो राज्यों के के अलावा अन्य राज्यों का सांस्कृतिक परिदृश्य भी लगभग ऐसा ही है। दरअसल कांग्रेस के लंबे शासनकाल के दौरान अपने लोगों को पद और प्रतिष्ठा देने-दिलाने के चक्कर में संस्थान खुलते चले गए। तर्क दिया गया कि विकेन्द्रीकरण से काम सुगमता से होगा लेकिन हुआ इसके उलट। कला-संस्कृति के प्रशासन के विकेन्द्रकरण ने अराजकता को बढ़ावा दिया। अब तो स्थिति ये है कि कला संस्कृति से जुड़ी ज्यादातर संस्थाएं आयोजन में लग गई हैं। ज्यादातर जगहों पर ठोस काम नहीं हो पा रहा है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि साहित्य कला और संस्कृति से जुड़ी ज्यादातर संस्थाएं इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में तब्दील हो गई हैं। वो आयोजन करके ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं।  

वर्तमान परिदृश्य में अब यह बेहद आवश्यक हो गया है कि पूरे देश के लिए एक समग्र संस्कृति नीति बने और उसके आधार पर संस्थाओं का पुनर्गठन हो। राष्ट्रीय स्तर पर इसकी पहल होनी चाहिए। नीति आयोग इस बारे में संस्कृति के जानकारों, प्रशासकों के साथ मंथन करे और इस संबंध में सरकार को अपना सुझाव भेजें। बेहतर हो कि एक राष्ट्रीय कला केंद्र बने और उसके अंतर्गत अलग अलग विधाओं और क्षेत्रों की शाखाओं का गठन हो। प्रशासनिक कमान एक जगह रहने से कामों में दोहराव से बचा जा सकेगा, ठोस काम हो सकेगा और करदाताओं के पैसे की बर्बादी रुकेगी। इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में सभी क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों का विलय हो जाना चाहिए ताकि एक समग्र नीति पर लोककलाओं से लेकर अन्य कलाओं को समृद्ध करने का कार्य आरंभ हो। ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, कथक केंद्र को भी प्रस्तावित राष्ट्रीय कला केंद्र का हिस्सा बना देना चाहिए। इन संस्थाओं में लगभग एक जैसे काम होते हैं। उनको कला केंद्र का हिस्सा बनाकर सीमित स्वायत्ता देने पर भी विचार किया जा सकता है ताकि वो अपने स्तर पर कामों को प्रस्तावित कर सकें लेकिन प्रशासन का एकीकृत कमांड हो। 

जितने भी संग्रहालय हैं उनको किसी एक संस्था के अधीन करके उसका प्रशासनिक दायित्व नियोजित किया जा सकता है। इनको देखनेवाली संस्था का दायित्व हो कि वो समग्र संस्कृति नीति के अनुसार इनके कामकाज को तय करे और फिर उसका उचित क्रियान्यवन सुनिश्चित करे। इसी तरह से नाटक और नाट्य प्रशिक्षण से जुड़ी संस्थाओं को पुनर्गठित करके उसको ज्यादा मजबूती प्रदान की जा सकती है। नृत्य आदि रूपकंर कला से जुड़ी सभी संस्थाओं को भी कला केंद्र में समाहित करके नया और क्रियाशील स्वरूप प्रदान किया जा सकता है। सूचना और प्रसाऱण मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत विभिन्न संस्थाओं के पुनर्गठन की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। उसी मॉडल पर संस्कृति मंत्रालय में भी काम किया जा सकता है लेकिन यहां के लिए आवश्यक ये होगा कि पहले एक समग्र संस्कृति नीति बने। ये नीति राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन को भी आसान कर सकती है। नई शिक्षा नीति ये मानती है कि कला के माध्यम से संस्कृति का प्रसार हो सकता है और इसके लिए उसमें कई बिंदु सुझाए गए हैं। शिक्षा नीति में संविधान में उल्लिखित प्रत्येक भाषा के लिए अकादमी के गठन का भी प्रस्ताव है। इसको साहित्य अकादमी के कार्यक्षेत्र का विस्तार करके आसानी से किया जा सकता है। भाषा और उससे जुड़े विषयों की संस्थाओं को साहित्य अकादमी के अंतर्गत लाकर बेहतर तरीके से काम हो सकता है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार संस्कृति मंत्रालय में एक कैबिनेट और दो राज्य मंत्री पदस्थापित किए गए हैं। इससे इस बात का संकेत तो मिलता ही है कि प्रधानमंत्री का फोकस संस्कृति की ओर है। 


Friday, July 23, 2021

इमारत कला के पुरोधा के नाम पर सड़क


दिल्ली के मशहूर लोदी गार्डन जाने के कई रास्ते हैं। एक रास्ता इंडिया इंटरनेशनल सेंटर(आईआईसी) के बगल से भी जाता है। ये एक घुमावदार गलीनुमा रास्ता है जो मैक्स मूलर मार्ग से लोदी गार्डन तक जाता है। लोदी गार्डन तक पहुंचने के पहले इसके दोनों तरफ कई इमारतें हैं। मैक्स मूलर रोड से लोदी गार्डन तक इस सड़क का नाम जोसफ स्टेन लेन है। कई बार इस गली से गुजरा। गलीनुमा सड़क के नाम पर ध्यान जाता था, लगता था कि ये नाम औपनिवेशिक शासनकाल से जुड़ा होगा लेकिन इसकी बिल्कुल अलग कहानी है। जोसफ स्टेन मशहूर अमेरिकी आर्किटेक्ट थे। उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर समेत उस इलाके की कई इमारतों को डिजायन किया था, उनमें फोर्ड पाउंडेशन, वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर-इंडिया (डब्लूडब्लूएफ-आई), यूनिसेफ आदि हैं। इस वजह से कई बार उस इलाके को स्टेनाबाद भी कहा जाने लगा था। जोसफ स्टेन जब आईआईसी की इमारत का डिजायन कर रहे थे तब उन्होंने कहा था कि ‘एक ऐसी इमारत बनाने की चुनौती है कि जो जगह से ज्यादा सादगी और सहजता के साथ संबंधों को विकसित कर सके। मार्बल और ग्रेनाइट से बनी फाइव स्टार प्रापर्टी न हो। ये एक ऐसी इमारत हो जहां प्रकृति और इमारत के बीच एक संबंध दिखे।‘ बाग में इमारत उनका कांसैप्ट था। आईआईसी के परिसर में प्रवेश करने पर आप संबंध को महसूस कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि उनकी ये सोच सिर्फ आईआईसी परिसर में दिखाई देती है। अगर आप डब्लूडब्लूएफ-आई की इमारत या उसके आसपास की इमारतों को ध्यान से देखेंगे तो आपको जोसफ स्टेन की कला की छाप साफ तौर पर दिखाई देगी। इन इमारतों में प्रकृति से जुड़ाव की समान कला के दर्शन होते हैं। इस इलाके से थोड़ी दूर पर दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में है त्रिवेणी कला संगम। इसका भवन भी जोसफ स्टेन की कला का ही नमूना है। अगर आप ध्यान से देखें तो त्रिवेणी कला संगम के बाहर की तरफ की दीवार और आईआईसी की दीवार में समानता दिखाई देगी। त्रिवेणी कला संगम में जगह कम होने के बावजूद खुली जगह और पेड़-पौधों को उचित स्थान दिया गया है जोसफ स्टेन ने ही इंडिया हैबिटेट सेंटर को भी डिजायन किया था।  

जोसफ स्टेन अमेरिका में जन्मे थे और वहीं से आर्किटेक्ट की पढ़ाई की। 1952 में वो पहली बार भारत आए और कोलकाता (तब कलकत्ता) के बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज के आर्किटेक्चर डिपार्टमेंट के अद्यक्ष बने। 1955 में वो दिल्ली आ गए। स्वाधीनता के बाद के इस दौर में कई विदेशी आर्किटेक्ट भारत आए थे क्योंकि उनको यहां असीम संभावनाएं नजर आ रही थीं। उनमें से ज्यादातर अपना काम करके अपने वतन लौट गए थे। जोसफ स्टेन पचास वर्षों से अधिक समय तक भारत में रहे और कई महत्वपूर्ण काम किए। उन्होंने दुर्गापुर स्टील प्लांट और दुर्गापुर औद्योगिक शहर को बसाने के काम में भी महत्वपूर्ण योगदान किया था। उनके कार्यों को देखते हुए 1992 में उनको पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था। बाद में वो वापस अमेरिका लौट गए थे जहां 2001 में उनका निधन हो गया। 


Saturday, July 17, 2021

लापरवाहियों से खंडित होता इतिहास


मेरे एक मित्र हैं, संजीव सिन्हा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हैं। दो दिन पहले उन्होंने चहकते हुए फोन किया, भाई साहब, नामवर सिंह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक थे, क्या आपको मालूम है? जब संघ पर प्रतिबंध लगा था तो वो जेल भी गए थे। मैंने अनभिज्ञता प्रकट की तो उन्होंने पूरा प्रकरण बताया। दरअसल हुआ ये है कि नामवर सिंह की एक जीवनी प्रकाशित हुई है, नाम है ‘अनल पाखी’। इस जीवनी को लिखा है अंकित नरवाल ने। इस पुस्तक में हिंदी के शिक्षक-लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी के हवाले से नामवर सिंह को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का अपने जिले का संस्थापक बताया गया है। दरअसल 2017 में नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी की एक बातचीत प्रकाशित हुई थी जो बाद में 2019 में एक पुस्तक में संकलित हुई। पुस्तक का नाम है ‘आमने-सामने’। प्रकाशक हैं राजकमल प्रकाशन। इस पुस्तक का संकलन-संपादन किया है नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह ने। इसका प्रकाशन जुलाई 2019 में हुआ था। हम इस विषय़ पर आगे बात करें इसके पहले साक्षात्कार का वो अंश देख लेते हैं जिसके आधार पर जीवनीकार से भूल हुई है। विश्वनाथ त्रिपाठी का प्रश्न है, आप पहले आरएसएस में थे, फिर वामपंथी कैसे हो गए? नामवर सिंह का उत्तर है, ‘मैं कोई किताब या मार्क्स को पढ़कर प्रगतिशील नहीं हुआ। लेकिन हां, मैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अपने जिले के संस्थापकों में से हूं। गांधी की हत्या के बाद तीन महीने जेल में भी था, पुणे से मुझे लखनऊ सेंट्रल जेल भेजा गया। जब छूटा तो अटल जी मेरे सम्मान में जेल के द्वार  पर खड़े थे। मैंने उनको कविताएं भी सुनाई थीं। आरएसएस में था जरूर लेकिन मुसलमान और वामपंथियों से मेरी दोस्ती थी।...संघ हिंदू संगठन है और वहां भी पैसे वालों का दबदबा है। जात-पात छूआछूत जैसी विसंगतियां देखने को मिलीं। इसी वर्गभेद की वजह से मैं वामपंथ में चला गया।‘ 

इन बातों के सामने आने के बाद विश्वनाथ त्रिपाठी की तरफ से किसी और ने सफाई पेश की। सफाई में कहा गया कि ‘नामवर जी आजीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी विचारधारा के सक्रिय विरोधी रहे थे। नामवर सिंह मार्क्सवादी थे, प्रगतिशील लेखक संघ और सीपीआई से संबद्ध थे। सीपीआई के उम्मीदवार के तौर पर चंदौली से लोकसभा चुनाव भी लड़े थे।‘  विश्वनाथ त्रिपाठी के भक्त और कम्युनिस्ट लेखक इस अभियान में लग गए हैं कि उनको इससे बरी कर दिया जाए। चाहे कितना भी बड़ा अभियान चला लें,इस साहित्यिक अपराध को ढंकने की कितनी भी कोशिश की जाए, लेकिन ये अक्षम्य है। चार साल पहले एक साक्षात्कार छपा,फिर दो साल पहले वो बातचीत एक पुस्तक में संकलित हुई, लेकिन विश्वनाथ जी दोनों को ही देख नहीं पाए। क्या ये मान लिया जाए कि हिंदी का ये लेखक अपना लिखा नहीं पढ़ते हैं या अपने कृतित्व को लेकर बेहद असावधान हैं। इस जीवनी के प्रकाशक भी पूरे मामले को ढंकने की कोशिश कर रहे हैं और इस पुस्तक की बची हुई प्रतियों पर चिट लगाकर भूल सुधार की डुगडुगी बजा रहे हैं। अगले संस्करण में उस अंश को हटाने की घोषणा भी की गई है। सवाल फिर वही उठता है कि जो प्रतियां बिक गईं या जो पाठकों तक पहुंच गईं या जो बातें इंटरनेट मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक हो गईं उनका परिमार्जन कैसे हो पाएगा। हो भी पाएगा या नहीं।  

जीवनीकार अंकित नरवाल से गलती ये हुई कि उन्होंने इस तथ्य की पुष्टि के लिए विश्वनाथ त्रिपाठी से स्पष्ट रूप से इस मुद्दे पर बात नहीं की और प्रकाशित बातचीत को सही मान लिया। बहुधा लेखक ऐसा करते हैं। अंकित ने दावा किया है कि ‘इसके संबंध में विश्वनाथ त्रिपाठी जी से मेरी बातचीत हुई थी। उनसे पूरी तरह यह पांडुलिपि तैयार होने से पहले और बाद में भी घंटों-घंटो बातचीत होती थी। उन्होंने अपनी बातचीत में हमेशा यह दोहराया है कि उन्होंने नामवर जी के बारे में जो इधर-उधर संस्मरण लिखे हैं, वह सभी प्रामाणिक तथ्य हैं। उनके साथ हुए साक्षात्कारों के संबंध में भी उनकी यही दृढ़ता बनी रहती थी। अब जब यह मामला तूल पकड़ गया है, तो उन्होंने अपने उस साक्षात्कार से किनारा कर लिया है।‘ लगता है कि अंकित नरवाल, विश्वनाथ जी के अतीत में कहने-पलटने की आदत से परिचित नहीं रहे होंगे। त्रिपाठी जी बहुधा पल्ला झाड़ते रहे हैं और किसी न किसी बहाने की ओट लेते रहते हैं। अपनी पुस्तक ‘व्योमकेश दरवेश’ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के हिंदी भाषा के संयोजक रहते हुए साहित्य अकादमी पुरस्कार से संबंधित एक प्रसंग लिखा। उस प्रसंग की सत्यता के बारे में जब इस स्तंभ में सवाल उठाया गया तो उन्होंने अगले संस्करण में उस पूरे प्रसंग को ही पुस्तक से हटा दिया। इसी तरह से एक साहित्यिक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में जब कुछ आपत्तिजनक बातें उनके हवाले से छपीं तो उससे किनारा कर लिया और ठीकरा बातचीत करनेवालों पर फोड़ दिया। मैत्रेयी पुष्पा से संबंधित एक साहित्यिक पत्रिका में अश्लील टिप्पणी करने के बाद उनको फोन करके हाथ-पांव जोड़े थे।

नामवर जी से जुड़े इस प्रसंग पर उठे विवाद से कई बड़े प्रश्न खड़े हो रहे हैं। ये प्रश्न लेखकों की साख, प्रकाशकों की विश्वसनीयता और पुस्तकों के संपादकों की गंभीरता को लेकर भी खड़े होते हैं। कोई भी लेखक क्यों नहीं तथ्यों की पड़ताल के लिए प्राथमिक स्त्रोत तक जाने की कोशिश करता है, क्यों वो सेकेंडरी सोर्स पर आश्रित रहता है। इसी तरह से प्रकाशकों की किसी पुस्तक को लेकर क्या कोई जिम्मेदारी नहीं होती है? क्या आधार प्रकाशन और इसके स्वामी देश निर्मोही का दायित्व नहीं था कि वो नामवर सिंह की जीवनी में प्रकाशित हो रहे तथ्यों के बारे में जांच पड़ताल करते। क्या आधार प्रकाशन सिर्फ प्रिंटर हैं कि जो भी आया छापा और उसको बाजार में भेज दिया। जब उसपर आपत्ति आई तो अगले संस्करण में सुधार की बात कहकर किनारे हो गए। इस पूरे प्रसंग से एक बार फिर से प्रिंटर और प्रकाशक की भमिका पर विचार करने का आधार हिंदी साहित्य जगत के सामने है। देश निर्मोही स्वयं प्रगतिशीलता का डंडा-झंडा लेकर चलते रहते हैं लेकिन उनको भी नामवर सिंह के बारे में इस तथ्य की पड़ताल की जरूरत नहीं लगी। राजकमल प्रकाशन से नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह के संपादन में आमने सामने छपी, उसमें भी विश्वनाथ त्रिपाठी का नामवर का लिया साक्षात्कार छपा लेकिन न तो उनके पुत्र ने इसको जांचने की जहमत उठाई और न ही प्रकाशक के स्तर पर इसकी कोशिश हुई। अब प्रकाशक ने पुस्तक में संशोधन की बात की है।

दरअसल ये पूरा मामला ही लापरवाहियों से भरा हुआ है। इससे हिंदी साहित्य और प्रकाशन जगत में व्याप्त अगंभीरता सामने आती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जिनको हम बड़े साहित्यकार या बड़े प्रकाशक मानते हैं उनको अपनी साख की कोई चिंता नहीं । एक और बात जो प्रमुखता से उभर कर सामने आई है कि खुद को प्रगतिशील कहनेवाले कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े लेखक अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों की भूल गलतियों के लिए उनको कठघरे में खड़ा नहीं करते। कम्युनिस्ट लेखक ये काम बहुत ही संगठित तरीके से करते हैं। पूरा माहौल बनाते हैं कि उनकी विचारधारा के लेखक की गलती नहीं है वो तो परिस्थितियों के शिकार हो गए हैं आदि आदि। अब वक्त आ गया है कि साहित्य में वामपंथ की गलतियों और उनको ढ़कने और छुपाने की प्रवृत्ति को रेखांकित किया जाए। साहित्य में सत्य का अनुकरण हो और झूठ और मिथ्या की इस विचारधारा के बचे खुचे ध्वजवाहकों को आईना दिखाया जाए।

Saturday, July 10, 2021

यथास्थितिवाद से उबारने की चुनौती


संस्कृति एक ऐसा विषय है जिसको लेकर वर्तमान सरकार से पूरे देश को बहुत उम्मीदें हैं, अपेक्षाएं भी । संस्कृति का फलक इतना व्यापक है कि कई मंत्रालय इसके अंतर्गत काम करते हैं। मुख्यतया तीन मंत्रालय ही देश की संस्कृति को मजबूत और समृद्ध करने का काम करते हैं। संस्कृति मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय और सूचना और प्रसारण मंत्रालय। मंत्रिपरिषद के हालिया विस्तार में इन तीनों मंत्रालयों के मंत्री बदले गए हैं। नरेन्द्र मोदी जब 2014 में देश के प्रधानमंत्री बने थे तब से ही संस्कृति मंत्रालय क जिम्मा स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री के पास था। अब संस्कृति मंत्रालय का जिम्मा प्रधानमंत्री ने कैबिनेट मंत्री जी किशन रेड्डी को सौंपा है। उनके साथ दो राज्य मंत्री मीनाक्षी लेखी और अर्जुन राम मेघवाल भी संस्कृति मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालेंगे। लंबे अरसे के बाद संस्कृति मंत्रालय को इतनी अहमियत मिली है। संस्कृति मंत्रालय के जिम्मे कई सारे ऐसे कार्यक्रम हैं जो पिछले कई वर्षों से बहुत धीमी गति से चल रहे हैं। इसमें एक बहुत ही महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है नेशनल मिशन आन कल्चरल मैपिंग एंड रोडमैप। आज से करीब चार-पांच साल पहले इसकी शरुआत हुई थी और तब इसको कला-संस्कृति विकास योजना के अंतर्गत रखा गया था। 2017 से लेकर 2020 तक इस काम के लिए करीब 470 करोड़ रुपए का बजट भी स्वीकृत किया गया था। कुछ दिनों बाद मंत्रालय के संयुक्त सचिव, जो इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का काम भी देखते थे, को इस मिशन का जिम्मा सौंपा गया था। इस मिशन के उद्देश्य को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बांटा गया था।पहला था, हमारी संस्कृति हमारी पहचान अभियान, दूसरा था सांस्कृतिक प्रतिभा खोज अभियान और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण था कि पूरे देश की सांस्कृति संपत्ति और साधन की खोज करना और उसका एक डेटाबेस तैयार करके एक पोर्टल पर डालना। इस पोर्टल को इतना महात्वाकाक्षी बनाना था कि इसमें एक ही जगह पर देश के सभी हिस्सों के कला रूपों और कलाकारों की जानकारी तो हो ही, उसके सम्मानों के बारे में भी जानकारी मिल सके। कलाकारों से लेकर कला के विभिन्न रूपों की जानकारी वाला ये पोर्टल अगर पूरी तौर पर तैयार हो पाता तो कोरोनाकाल में जरूरतमंद कलाकारों की पहचान हो पाती और उनको सरकारी मदद समय पर मिल पाती। पता नहीं किन वजहों से सांस्कृतिक मैपिंग का ये कार्य अबतक या तो फाइलों में ही अटका हुआ है या बहुत धीमी गति से चल रहा है। नए मंत्री के सामने ये सबसे बड़ी चुनौती है कि वो इस काम में तेजी लाएं। 

अगले साल हम देश की स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं और हमें अबतक अपने देश की संस्कृतिक संपत्ति और संसाधन का ही पता नहीं है। जबतक कला संपदा और संसाधन का आकलन नहीं हो पाएगा तबतक संस्कृति को लेकर ठोस योजनाएं बनाना और उसका क्रियान्वयन कैसे संभव हो पाएगा। संस्कृति मंत्रालय का एक और बेहद महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है प्रधानमंत्रियों का म्यूजियम। ये दिल्ली में बनना है। इमारतें तो अपनी रफ्तार से बन जाएंगी, उसकी साज-सज्जा भी हो जाएगी लेकिन उस म्यूजियम में जो फिल्में दिखाई जाएंगी या जो ऑडियो प्रेजेंटेशन होगा उसका स्तर कैसा होगा, इसपर बहुत ध्यान देने की जरूरत पड़ेगी। इन दो चुनौतियों के अलावा उनके सामने नियमित कामकाज की चुनौती है। कई सारे काम अटके हुए हैं जिसकी वजह से साहित्य और कला जगत क्षुब्ध है। साहित्य अकादमी को छोड़कर अन्य अकादमियों का बुरा हाल है। संगीत नाटक अकादमी में साल भर से अधिक समय से चेयरमैन नहीं हैं, कलाकारों को पुरस्कार नहीं दिए जा सके हैं। ललित कला अकादमी लगातार विवादों में रह रही है। वहां लगभग अराजकता की स्थिति है। चेयरमैन रिटायर हो जाते हैं फिर उनको ही चंद दिनों बाद प्रभार दे दिया जाता है। ललित कला अकादमी के कई मामले अदालत में हैं और उसके पूर्व अधिकारियों के खिलाफ सीबीआई जांच भी चल रही है। यहां रखे कलाकृतियों का क्या हाल होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक की नियुक्ति का पेंच अदालत में फंसा है। तीन साल बगैर निदेशक के विद्यालय चला और जब सारी प्रक्रिया संपन्न हो गई तो अब मामला कोर्ट में है। इन जगहों पर प्रशासनिक स्तर पर चूलें कसने की जरूरत है।

शिक्षा मंत्रालय का जिम्मा धर्मेन्द्र प्रधान को दिया गया है, उनकी छवि अपने कार्य को कुशलतापूर्वक संपन्न करने की रही है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की है। इसके साथ ही राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद को क्रियाशील बनाते हुए उसके पुस्तकों की समीक्षा का काम भी बहुत बड़ा है। वर्ष 2005 में पाठ्यपुस्तकों को तैयार किया गया था, उसके बाद मामूली बदलावों के साथ पुस्तकें रीप्रिंट होती आ रही हैं। इस महत्वपूर्ण काम को करने के लिए सबसे पहले पिछले साल से खाली पड़े निदेशक के पद को भरना होगा ताकि प्रशासनिक कार्य सुचारू रूप से चल सके। स्कूली पाठ्यक्रमों के पुस्तकों को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप बनाने के अलावा कॉलेजों के पाठ्यक्रमों को भी नई शिक्षा नीति के हिसाब के करवाने का श्रमसाध्य कार्य करना होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारत केंद्रित शिक्षा की बात की गई है। पाठ्यक्रम बनाने से लेकर पाठ्यपुस्तकों को तैयार करने में विद्वानों को चिन्हित करना होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कला संगीत को बढ़ावा देने की बात की गई है और उसको शिक्षा की मुख्यधारा में लाने पर जोर है। इसके लिए कितने और किस तरह के संसाधनों की आवश्यकता होगी इसका आकलन कर क्रियान्वयन करवाने की चुनौती भी बड़ी होगी। एक महत्वपूर्ण कार्य कॉलेजों और स्कूलों की क्लस्टरिंग का है। ये कार्य विधायी संशोधन की मांग करता है। इसके अलावा इसमें राज्य और केंद्र के अधिकारों का प्रश्न भी उठेगा, उसका हल ढूंढना होगा। इनसे इतर एक प्रसासनिक दायित्व है केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति का। दर्जन भर से ज्यादा केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति का पद खाली है। 

सूचना और प्रसारण मंत्रालय में युवा मंत्री अनुराग ठाकुर लाए गए हैं। यहां चर्चा सिर्फ संस्कृति से जुड़े विभागों की होगी। अनुराग ठाकुर को विरासत में कुछ समस्याएं मिली हैं, विवाद भी। उसको सुलझाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। अभी ताजा मामला तो सिनमैटोग्राफी एक्ट में संशोधन का है, इसके अलावा ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म के नियमन के क्रियान्वयन का है। कुछ महीनों पहले मंत्रालय के कई विभागों को मिलाकर एक कर दिया गया था। इनमें फिल्म निदेशालय, प्रकाशन विभाग आदि थे। लेकिन इन विभागों के विलय को मूर्तरूप देना अभी बाकी है। इनमें से एक प्रकाशन विभाग की कार्यशैली का एक उदाहरण काफी होगा। महीनों पहले प्रकाशन विभाग ने प्रधानमंत्री के मन की बात कार्यक्रम के उद्बोधनों का संकलन प्रकाशित किया था। ये संकलन किसी पुस्तकालय तक पहुंच नहीं पाया है जबकि अपेक्षा थी इसको देशभर के पुस्तकालयों में पहुंचाने की। प्रधानमंत्री से जुड़े संकलन को लेकर अगर ये कार्यशैली है तो बाकी का अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है। इसी विभाग से एक साहित्यिक पत्रिका निकलती है जो लगातार वामपंथियों को अपने कवर पर छापती रहती है लेकिन राष्ट्रीय विचारों को अपेक्षाकृत कम जगह देती है। इस मंत्रालय के कई विभागों में नियुक्तियां लंबित हैं। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्यों को लेकर भ्रम की स्थिति है कि उनका कार्यकाल खत्म हो गया है या नहीं। क्षेत्रीय स्तर पर भी सदस्यों को नामित करने का काम होना है।  

अभी इन मंत्रियों को पद संभाले तीन चार दिन ही हुए हैं लेकिन उनके सामने अपेक्षाओं का अंबार है। तीनों मंत्रालयों के मंत्री युवा हैं, ऊर्जावान हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि वो अपने अपने मंत्रालयों में यथास्थितिवाद को खत्म करेंगे और लंबित पड़े कामों को पूरा करने के अलावा कला और संस्कृति को समृद्ध करने की दिशा में प्रयास करते दिखेंगे। 

Wednesday, July 7, 2021

दिलीप कुमार का अमेठी कनेक्शन


दिलीप कुमार फिल्मों के बेहतरीन अभिनेता थे। फिल्मों के अलावा नेता का उनका रूप अल्पज्ञात है। दिलीप कुमार का उत्तर प्रदेश के अमेठी की राजनीति से नाता रहा है। इमरजेंसी के बाद 1977 में आम चुनाव की घोषणा हुई थी। संजय गांधी अमेठी से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे। दिलीप कुमार ने अमेठी में चुनाव प्रचार की इच्छा जताई थी। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने पूरे क्षेत्र में इस बात का जमकर प्रचार किया कि फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार चुनाव प्रचार के लिए सात मार्च को अमेठी पहुंच रहे हैं। उन जगहों पर सुबह से लोगों की भीड़ जमा हो गई थी । लोग दिलीप कुमार को देखना चाहते थे। लेकिन अमेठी की जनता इंतजार करती रह गई क्योंकि दिलीप कुमार नहीं आए। कांग्रेस के किसी ने तारीख को लेकर घपला कर दिया था। 

दिलीप कुमार का दौरा आठ मार्च का था। वो आठ मार्च को फुर्सतगंज हवाई अड्डे पहुंचे लेकिन वहां उनको रिसीव करने के लिए कोई नहीं था। उन दिनों अमेठी में यातायात की सुगम व्यवस्था नहीं थी। एक पीपल के पेड़ के नीचे दिलीप कुमार दो घंटे अकेले खड़े इंतजार करते रहे। दो घंटे बाद एक बस आई और उससे दिलीप कुमार अमेठी पहुंचे। जहां वो एक चाय दुकान पर उतरे और किसी से कांग्रेस के दफ्तर में खबर भिजवाई गई। थोड़ी देर बाद एक जीप दिलीप कुमार को लेने आई और फिर आनन फानन में उनकी सभा तय की गई। चूंकि उनके नाम का प्रचार नहीं किया जा सका था इसलिए बमुश्किल कुछ ही लोग दिलीप कुमार की सभा में आ पाए। चुनावी सभा असफल हो गई। दिलीप कुमार मायूस होकर लौट गए। अपनी पुस्तक द संजय स्टोरी में विनोद मेहता ने इस प्रसंग का उल्लेख चुनाव के दौरान कांग्रेस की बदइंतजामी और खराब प्लानिंग के सिलसिले में की है। इस घटना के 23 साल बाद कांग्रेस ने उनको राज्यसभा में भेजा ।      

दो सितारों की दोस्ती की मिसाल


दिलीप कुमार के पेशावर से मुंबई (तब बांबे) आने की भी बेहद दिलचस्प कहानी है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद दुनिया में कई बदलाव आने लगे थे। कारोबार के अवसर कम हो गए थे और कारोबारी नए नए व्यवस्या की तलाश में इधर उधर जाने लगे थे। दिलीप कुमार के पिता भी कारोबार के सिलसिले में मुंबई आ गए थे। एक दिन बेहद दिलचस्प घटना घटी। शाम को दिलीप साहब के पिताजी मुंबई के अपोलो बंदर इलाके में टहल रहे थे। एक दिन उन्होंने देखा कि एक दंपति अपने बेहद खूबसूरत बच्चे को प्रैम में लिटाकर टहल रहे थे। उस बच्चे के चेहरे को देखकर उनको अपने छोटे से बच्चे युसूफ की याद आ गई। वो प्रैम तक पहुंचे और बच्चे को उठाकर गले से लगा लिया। हट्टे-कट्ठे पठान को प्रैम से अपने बच्चे को उठाते देखकर दंपति शोर मचाने लगे। ये देखकर युसूफ के पिताजी ने बच्चे को प्रैम में लिटा दिया और दंपति से ये कहकर क्षमा मांगी कि बच्चे को देखर उनको अपने बेटे की याद आ गई थी इसलिए गोद में उठा लिया था। लेकिन इस घटना ने एक पिता को बेचैन कर दिया। वो पेशावर लौट गए और फिर अपनी पत्नी और सात बच्चों को लेकर मुंबई आ गए। दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वो अपने परिवार के साथ फ्रंटियर मेल से मुंबई के लिए रवाना हो गए। ठीक से याद नहीं पर ये 1935 के आसपास की बात होगी। ये उनकी पहली ट्रेन यात्रा थी, इस वजह से सभी बच्चे बेहद उत्साहित थे। रास्ते में उनके रिश्तेदार और पहचान वाले उनसे मिलने आते थे और कहीं सामिष तो कहीं निरामिष भोजन मिलता था। दिलीप कुमार ने एक बेहद अजीब सी बात लिखी है अपनी आत्मकथा में। उन्होंने लिखा है कि जब ट्रेन स्टेशन पर रुकती थी तो चायवाले जोर जोर से चिल्लाते थे- हिंदू चाय, हिंदू पानी, मुस्लिम चाय, मुस्लिम पानी। दिलीप कुमार के मुताबिक उनके परिवार के लोग इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देकर कोई भी पानी और कोई भी चाय पी ले रहे थे। उनके डब्बे में बैठे कई लोग भी ऐसा ही कर रहे थे लेकिन कई लोग अपने धर्म के हिसाब से चाय और पानी पी रहे थे। सुबह सुबह इनकी ट्रेन कोलाबा पहुंची और वहां से तांगा करके ये लोग किराए के घर में क्रॉफर्ड मार्केट के निकट नागदेवी रोड पर अब्दुल्ला बिल्डिंग में रहने आ गए। वहां तीन कमरों के फ्लैट में दिलीप कुमार का परिवार रहने लगा। दिलीप कुमार की पढ़ाई भी शुरु हुई और 1937 में उनके पिता ने उऩका नामांकन अंजुमन इस्लाम हाई स्कूल में पांचवीं क्लास में करवा दिया। फिर वहां से वो खालसा कॉलेज पहुंचे जहां रा कपूर से उनकी मुलाकात हुई। दोनों का पेशावर कनेक्शन था और दोनों दोस्त बन गए। दिलीप कुमार के पिता सरवर खान और राज कपूर के दादा बसेश्वरनाथ मित्र थे। सरवर खान बहुधा बसेश्वरनाथ को कहा करते थे कि यार! तुम कैसे अपने बेटे पृथ्वीराज को नाचनेवालियों के साथ काम करने की इजाजत दे देते हो। उस दौर में फिल्मों में कई लोग पेशेवर नृत्यांगनाओं के बारे में इस शब्द का प्रयोग करते थे। जब युसूफ खान को देविका रानी ने फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव दिया था तब दिलीप कुमार अपने पिता के रुख से परिचित थे, उनको इस बात की आशंका भी थी कि पिता उनको अनुमति नहीं देंगे। उन्होंने अपनी मां को बताया कि उनको एक नौकरी मिल गई है। मां ने जब पूछा कि क्या नौकरी मिली है तो उन्होंने ये कहकर मां को बरगला दिया कि उनकी अच्छी उर्दू की वजह से नौकरी मिली है।

बांबे टॉकीज में एक दिन अचानक उनको राज कपूर मिल गए, दोनों ने आश्चर्य से एक दूसरे को आश्चर्य से देखा और राज कपूर ने देविका रानी के सामने ही पूछ लिया कि तुम्हारे पिता जानते हैं कि तुम फिल्मों में काम करते हो। दिलीप कुमार ने फौरन बात बदल दी और खालसा कॉलेज के दौर की अपनी और राज कपूर  बातें देविका रानी को बताने लगे। बाद में राज और दिलीप कुमार की दोस्ती और परवान चढ़ी। बहुत कम लोगों को मालूम है कि ‘संगम’ फिल्म के लिए राज कपूर ने दिलीप कुमार को ऑफर दिया था जिसे दिलीप साहब ने ठुकरा दिया था। तब दिलीप कुमार और राज कपूर के बीच एक खास तरह का खिंचालव रहता था, प्रतिद्वंदिता थी। जब राज कपूर दिल्ली के एम्स के आईसीयू में भर्ती थे और जिंदगी की जंग लड़ रहे थे तो दिलीप कुमार उनसे मिलने अस्पताल पहुंचे थे। राज कपूर अचेत थे। दिलीप कुमार ने उनका हाथ अपने हाथ में लिया और कहने लगे ‘उठ जा राज! अब उठ जा, मसखरापन बंद कर। तू तो बेहतरीन कलाकार है जो हमेशा हेडलाइंस बनाता है। मैं अभी पेशावर से आया हूं और चपाली कबाब लेकर आया हूं। याद है राज हम बचपन में पेशावर की गलियों में साथ मिलकर ये स्वादिष्ट कबाब खाया करते थे।‘ बीस मिनट तक दिलीप कुमार आईसीयू में राज कपूर का हाथ अपने हाथ में लेकर बोलते रहे थे। आज दिलीप कुमार के निधन से एक युग का अंत हो गया। 

https://www.jagran.com/entertainment/bollywood-vishesh-dilip-kumar-unknown-facts-personal-and-professional-life-and-career-21806889.html

बदल गई दिलीप कुमार की जिंदगी


अब से कुछ देर पहले हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े नायकों में से एक दिलीप कुमार का निधन हो गया। उनके निधन की खबर सुनते ही 1940 के बाद के दौर के कुछ दिलचस्प प्रसंग की याद ताजा हो गई। दिलीप कुमार के फिल्मों में आने का प्रसंग। दरअसल हुआ ये था कि अपने पति हिमांशु राय के निधन के बाद देविका रानी बांबे टॉकीज को अपने साथियों अमिय चक्रवर्ती और एस मुखर्जी के साथ मिलकर चला रही थीं। थोड़े दिनों तक सब ठीक चला फिर चक्रवर्ती और मुखर्जी में टकराव शुरू हो गया। देविका रानी ने अमिय चक्रवर्ती का साथ दिया और मुखर्जी बांबे टॉकीज छोड़कर चले गए। उसी समय फिल्म ‘किस्मत’ को लेकर अशोक कुमार और अमिय चक्रवर्ती में झगड़ा हो गया और अशोक कुमार ने भी बांबे टॉकीज छोड़ दिया था। उस वक्त अशोक कुमार बेहद लोकप्रिय अभिनेता थे और उनका बांबे टॉकीज छोड़ना देविका रानी के लिए बड़ा झटका था। वो दौर था जब ज्यादातर अभिनेता किसी स्टूडियो में मासिक वेतन पर काम किया करते थे। अशोक कुमार को भी उस समय हजार रुपए प्रतिमाह मिला करते थे। खैर... ये अवांतर प्रसंग है। जब अशोक कुमार बांबे टॉकीज छोड़कर चले गए तब से देविका रानी किसी नए हीरो की तलाश में थीं। जहां भी जाती थीं वहां वो इस संभवना को तलाशती रहती थीं। 

अपनी नई फिल्म की लोकेशन देखने के लिए वो नैनीताल गई हुई थीं। इस बात की बहुत चर्चा होती है कि वहीं उन्होंने एक युवा फल कारोबरी को देखा जो अपने पिता के फलों के बिजनेस के सिलसिले में आया हुआ था। तब देविका रानी ने उनको कहा था कि मुंबई आओ तो मिलना। लेकिन दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा, ‘द सब्सटेंस एंड द शैडो’ में इस घटना को अलग तरीके से लिखा है और भ्रम को साफ किया। दिलीप कुमार एक दिन चर्च गेट पर खड़े थे तो उनको मनोविज्ञानी डॉ मसानी दिखे। दिलीप कुमार ने उनको अपने कॉलेज में सुना था। वो स्टेशन पर उनके पास पहुंचे और अपना परिचय दिया। डॉ मसानी युसूफ खान से गर्मजोशी से मिले क्योंकि वो उनके पिता से परिचित थे। उन दिनों दिलीप कुमार काम की तलाश में थे। डॉ मसानी ने उनसे कहा कि वो बांबे टॉकीज की मालकिन से मिलने जा रहे हैं और युसूफ खान को भी साथ लेकर चले गए। युसूफ खान जब डॉ मसानी के साथ बांबे टॉकीज के स्टूडियो में पहुंचे तबतक उन्होंने कोई फिल्म भी नहीं देखी थी सिवाय एक डॉक्यूमेंट्री के। डॉ मसानी के साथ जब युसूफ खान देविका रानी के कमरे में दाखिल हुए तो देविका ने उनसे कहा, कुर्सी खींचिए और बैठ जाइए। खान साहब ने लिखा है कि देविका रानी उनको इस तरह से देख रही थीं जैसे स्कैन कर रही हों। इस बीच डॉ मसानी ने युसूफ खान का परिचय करवाया और उनको साथ लाने का उद्देश्य बताया। 

देविका रानी और युसूफ खान की इस मुलाकात के कई वर्जन उपलब्ध हैं। अपनी आत्मकथा के अलावा दिलीप कुमार ने अपने जीवनकाल में प्रकाशित अपनी जीवनी के लिए उसके लेखक बनी रूबेन को भी इस मुलाकात का विवरण दिया था। जब देविका रानी को पता चला कि युसूफ खान काम की तलाश में हैं तो उन्होंने उनसे पूछा कि क्या आप उर्दू जानते हैं। उनके इतना पूछते ही डॉ मसानी ने युसूफ खान के पेशावर कनेक्शन के बारे में विस्तार से देविका रानी को बताया। उर्दू के बाद सीधे वो सिगरेट पर पहुंच गईं और पूछा कि क्या आप सिगरेट पीते हैं तो संकोच के साथ युसूफ खान ने कहा नहीं। अगला प्रश्न था कि क्या कभी अभिनय किया है इसका उत्तर भी आया नहीं। फिर वो प्रश्न आया जिसने युसूफ खान की जिंदगी की राह बदल दी। देविका रानी ने पूछा कि क्या आप अभिनय करना चाहते हैं। जवाब आया हां। इतना सुनते ही देविका रानी ने अपने कमरे में बैठे अपने सहयोगी अमिय की ओर देखते हुए युसूफ खान के सामने 1250 प्रतिमाह के वेतन पर काम करने का प्रस्ताव दे दिया। उस वक्त ये बड़ी रकम थी। युसूफ खान को समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे रिएक्ट करें। वहां से हां करके निकल आए। रास्ते में उनके और डॉ मसानी के बीच ज्यादा बातचीत नहीं हुई। वो घर पहुंच गए पर कशमकश जारी रही। वो इस बात पर यकीन ही नहीं कर पा रहे थे कि उनको 1250 प्रतिमाह वेतन मिलेगा। उस वक्त राज कपूर को सिर्फ 170 रु महीने मिला करते थे। इसी उधेड़बुन में वो फिर से डॉ मसानी के घर पहुंचे और उनसे कहा कि 1250 रु सालाना बहुत कम है और इतने कम पैसों में काम करना मुश्किल होगा। डॉ मसानी ने कहा कि 1250 रु तो प्रतिमाह था। खैर युसूफ खान के कहने पर उन्होंने देविका रानी को फिर से फोन किया और ये बात तय हो गई कि 1250 रु प्रतिमाह का प्रस्ताव है। 

अगले दिन जब युसूफ खान बांबे स्टूडियो पहुंचे तो देविका रानी से मिले। देविका रानी ने उनसे कहा कि युसूफ खान नाम नहीं चलेगा इसको बदलना चाहिए। इस बात की जानकारी नहीं मिलती है कि देविका रानी ने नाम बदलने की क्यों सोची लेकिन अनुमान है कि उस वक्त हिंदू मुसलमान के बीच बढते तनाव को देखते हुए देविका रानी ने ऐसा सोचा होगा। उन्होंने युसूफ खान के सामने तीन नाम रखे- जहांगीर, वासुदेव और दिलीप कुमार। बनी रुबेन ने लिखा है कि युसूफ खान ने उनको बताया कि जब ये तीन विकल्प उनके सामने आए तो उन्होंने दिलीप कुमार को चुना जबकि उऩको दूसरा नाम पसंद था। दूसरे जीवनीकारों का मानना है कि युसूफ खान को जहांगीर नाम पसंद आया था लेकिन देविका रानी के किसी सलाहकार ने दिलीप कुमार के नाम पर जोर डाला और युसूफ खान दिलीप कुमार बन गए। देविका रानी को भी दिलीप कुमार नाम पसंद आया क्योंकि ये अशोक कुमार से मिलता जुलता था। उसके बाद की कहानी तो इतिहास है। जब बांबे टॉकीज की फिल्म ‘ज्वार भाटा’ दिलीप कुमार  को मिली तो उनकी उम्र उन्नीस साल पांच महीने थे। आज 98 साल की उम्र में उनके निधन के बाद उनसे जुड़े कई प्रसंग याद आते हैं, कई फिल्मों में उनका शानदार अभिनय भी। 

https://www.jagran.com/entertainment/bollywood-vishesh-when-dilip-kumar-met-with-devika-rani-she-offered-him-to-come-in-bollywood-and-she-change-actor-name-yusuf-khan-to-dilip-kumar-verified-21806711.html

Monday, July 5, 2021

बोलती आंखों वाले अभिनेता


अभिनेता संजीव कुमार की बात हो तो दो फिल्मों और उसके बनने के दौर की कई दिलचस्प प्रसंग याद आते हैं। एक फिल्म थी रमेश सिप्पी की ‘शोले’ और दूसरी फिल्म थी के आसिफ की ‘मुहब्बत और खुदा’। ‘शोले’ समय पर रिलीज हो गई लेकिन ‘मोहब्बत और खुदा’ कई वर्षों बाद रिलीज हो सकी। पहले तो गुरुदत्त के निधन की वजह से रुकी फिर के आसिफ की मौत की वजह से इसके पूरा होने में समय लगा। ‘शोले’ की जब शूटिंग हो रही थी उस वक्त संजीव कुमार और हेमा मालिनी के रोमांस के किस्से फिल्मी पत्रिकाओं में छाए रहते थे। ‘शोले’ की शूटिंग के दौरान इन चर्चाओं से बचने के लिए संजीव कुमार उस होटल में नहीं रुके थे जिसमें धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन आदि ठहरे हुए थे। वो एक अलग होटल में रहते थे। जब शूटिंग शुरू हुई तो एक दिन धर्मेन्द्र को लगा कि इस फिल्म का असली हीरो तो गब्बर सिंह है। वो रमेश सिप्पी के पास पहुंचे और जिद करने लगे कि उनको वीरू का नहीं गब्बर सिंह का रोल करना है। रमेश सिप्पी ने काफी समझाया लेकिन धर्मेन्द्र मानने को तैयार नहीं थे। अचानक रमेश सिप्पी राजी हो गए और कहा कि ठीक है ‘गब्बर’ का रोल आप कर लो मैं ‘वीरू’ की भूमिका संजीव कुमार को देता हूं, पर सोच लो फिल्म में वीरू और बसंती की जोड़ी है और संजीव कुमार और हेमा मालिनी फिल्म में रोमांस करते नजर आएंगे। इतना सुनना था कि धर्मेन्द्र फौरन बोले नहीं-नहीं, मेरे लिए वीरू की भूमिका ही ठीक है। मिहिर बोस ने अपनी पुस्तक ‘बॉलीवुड’ में इस दिलचस्प प्रसंग का उल्लेख किया है। बाद के दिनों में जो हुआ वो सभी को पता है। जब हेमा मालिनी से संजीव कुमार और उनके रोमांस के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा था कि ‘वो बेहद व्यक्तिगत और जटिल मामला था’। 

गुरुदत्त के निधन के कई सालों बाद जब के आसिफ ने ‘मोहब्बत और खुदा’ की शूटिंग करने का फैसला लिया तो उऩके सामने अभिनेता के चयन की समस्या थी। उस समय तक संजीव कुमार थिएटर में नाम कमा रहे थे। के आसिफ के किसी दोस्त ने फिल्म की उस भूमिका के लिए संजीव कुमार का नाम सुझाया। दोनों मिले और के आसिफ ने संजीव कुमार को फिल्म के सेट पर बुलाया । अगले दिन संजीव कुमार फिल्म के सेट पर पहुंचे तो के आसिफ ने उनको तैयार होने के लिए कहा और अपने कमरे में चले गए। संजीव कुमार शूटिंग के लिए तैयार होकर सेट पर बैठ गए। के आसिफ कमरे से सेट पर बैठे संजीव कुमार को देख रहे थे जो बेचैन हो रहे थे। के आसिफ यही चाहते थे, वो संजीव कुमार के चेहरे के भावों को पढ़ रहे थे। करीब तीन घंटे के बाद के आसिफ अपने कमरे से निकले और संजीव कुमार को गले लगा लिया। उनको अपनी फिल्म का हीरो मिल गया था। दरअसल संजीव कुमार हिंदी फिल्मों के ऐसे नायक थे जिनकी आंखें भी अभिनय करती थी। उनका चेहरे के भाव और आंखों की भाषा दर्शकों से संवाद करती थीं। संजीव कुमार इकलौते ऐसे अभिनेता थे जो किसी भी रोल में खुद को ढाल लेते थे। वो छवि के गुलाम नहीं थे। ए के हंगल की शागिर्दी में थिएटर करनेवाला ये अभिनेता जब फिल्मों में आया तो वो रूपहले पर्दे के अपनी छवि के चक्कर में नहीं पड़ा। उसके लिए किरदार महत्वपूर्ण होता था। ये साहस संजीव कुमार ही कर सकते थे कि ‘परिचय’ में जया बच्चन के पिता की भूमिका निभाई तो ‘अनामिका’ में जया बच्चन के प्रेमी की। दर्शकों ने दोनों भूमिका में उनको खूब पसंद किया। ‘शोले’ में तो वो जया बच्चन के श्वसुर की भूमिका में थे। फिल्म ‘नया दिन नई रात’ में तो उन्होंने नौ अलग अलग चरित्रों को पर्दे पर साकार कर दिया था। गुजराती कारोबारी परिवार से जब ये रंगमंच पर पहुंचे तो इनका नाम हरिभाई जेठालाल जरीवाला था। थिएटर से फिल्म में पहुंचे तो हरिभाई संजीव कुमार हो गए। संजीव कुमार को कम उम्र मिली लेकिन अपनी अभिनय क्षमता से भारतीय फिल्मों को समृद्ध कर गए । 


माहिम पुलिस थाने से 'मदर इंडिया'


माहिम पुलिस स्टेशन में एक नौजवान पुलिस इंस्पेक्टर तैनात था। उसको फिल्मों में काम करने का बेहद शौक था। उसका दिन पुलिस की नौकरी से अधिक फिल्मों में लगता था। फिल्मी दुनिया में उसके कई दोस्त थे। पुलिस की नौकरी करते हुए उसके कई फिल्मों में छोटी मोदी भूमिकाएं कर भी ली थीं, जिसमें रंगीली, घमंड और लाखों में एक जैसी फिल्में थीं। उसने भले ही कई फिल्मों में काम किया लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में उसकी खास पहचान नहीं बन पाई थी और वो माहिम पुलिस थाने में पुलिस की नौकरी ही कर रहा था, पर चाहत तो बड़े फिल्म में केंद्रीय भूमिका करने की थी। सबकी होती है। पुलिस इंसपेक्टर साहब अपनी इस हसरत को अपने मित्रों के साथ साझा किया करते थे। वक्त निकला जा रहा था लेकिन इंसपेक्टर साहब को फिल्मों में अच्छी भूमिका नहीं मिल पा रही थी। एक दिन वो माहिम थाने में बैठे थे, शाम हो चुकी थी। अचानक उनका एक मित्र थान पहुंचा और उनको कल सुबह महबूब खान से मिलने के लिए कहकर चला गया। उस वक्त तक महबूब खान बड़े निर्देशक के तौर पर जाने जाने लगे थे। अगले दिन अपने मित्र के बताए समय पर इंसपेक्टर साहब महबूब खान से मिलने पहुंच गए। वहां उनका वो दोस्त भी मिला। वो महबूब खान का सहायक था। इंसपेक्टर साहब का दोस्त उनको लेकर महबूब खान के पास पहुंचा और उनसे कहा कि ‘ये बहुत अच्छे कलाकार हैं और एक अच्छी फिल्म की तलाश में हैं। इनको मदर इंडिया में कोई रोल दे दीजिए’। उस समय महबूब खान अपनी फिल्म ‘मदर इंडिया’ की कास्टिंग कर रहे थे। महबूब खान ने इंसपेक्टर साहब को ऊपर से नीचे तक देखा और गहरी सांस लेकर पूछा कि क्या आप फिल्मों में शौकिया तौर पर काम करना चाहते हैं या फिर संजीदगी से फिल्मों को अपना करियर बनाना चाहते हैं। इंसपेक्टर साहब ने महबूब खान को कहा कि वो फिल्मों में अभिनय को ही अपना करियर बनाना चाहते हैं, इंसपेक्टर की नौकरी छोड़कर अभिनेता बनने के लिए भी तैयार हैं। इंसपेक्टर साहब ने अपने अंदाज में अपनी बात जारी रखी और अपने मित्र की ओर इशारा करते हुए कहा कि ‘इसने मुझे बताया कि आप एक बड़ी फिल्म बना रहे हैं और मुझे सलाह दी कि मैं आपसे बात करूं’। 

इस वक्त तक महबूब खान ‘मदर इंडिया’ के लिए नर्गिस, सुनील दत्त और राजेन्द्र कुमार को फाइनल कर चुके थे। उनको ‘शामू’ के रोल के लिए किसी अभिनेता की तलाश थी। उन्होंने फौरन अपने असिस्टेंट से कहा कि इंसपेक्टर साहब का शामू के चरित्र के हिसाब से मेकअप करो, हम इनका स्क्रीन टेस्ट लेना चाहते हैं। जब इंसपेक्टर साहब मेकअप के लिए गए तो उनके एक दूसरे सहायक ने महबूब खान से कहा कि ये शख्स शामू के रोल के लिए उपयुक्त नहीं होगा क्योंकि इसके चेहरे पर एक आक्रामकता है। अनीत पांध्ये ने अपनी पुस्तक में इस प्रसंग को विस्तार से लिखा है। थोड़ी देर बाद इंसपेक्टर साहब का स्क्रीन टेस्ट हुआ और वो पास हो गए। ये इंसपेक्टर साहब राज कुमार थे। ‘मदर इंडिया’ रिलीज होने के बाद की कहानी तो इतिहास बन गई है। शामू के रोल से राज कुमार को जो पहचान मिली उसने उनको काफी काम दिलवाया और वो कुछ ही समय बाद शीर्ष के अभिनेताओं में शुमार होने लगे। फिल्म ‘वक्त’ ने तो उनको बेहद लोकप्रिय बना दिया। बाद के दिनों में तो राज कुमार को लेकर अनेक तरह के किस्से फिल्मी दुनिया में मशहूर हुए। उनकी संवाद अदायगी से लेकर उनकी अभिनय कला अनूठी थी। सौदागर फिल्म में जब वो शूटिंग के लिए आते थे तो उनके साथ चार गाड़ियों का काफिला चला करता था। एक में राज कुमार बैठते थे, दूसरी गाड़ी में उनके सहायक और बाकी दो गाड़ियों में उनके कपड़े, जूते, हैट इत्यादि रखे जाते थे। दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा ‘द सब्सटेंस एंड द शैडो’ में इस प्रसंग को बेहद रोचक तरीके से लिखा है। आज से पच्चीस साल पहले 3 जुलाई को ये बेहतरीन और स्टाइलिश अदाकार इस दुनिया को अलविदा कह गया।  

(https://www.jagran.com/entertainment/bollywood-vishesh-interesting-facts-about-legendary-actor-rajkumar-in-mother-india-movie-entry-21795172.html)

Saturday, July 3, 2021

अर्धसत्य की ओट में भ्रम का प्रपंच


देश की फिल्म इंडस्ट्री में कई ऐसे झंडाबरदार हैं जो किसी न किसी मसले पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की फिराक में रहते हैं। चाहे वो फिल्मी से जुड़ी संस्थाओं का विलय हो, ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म के लिए नियमन का मुद्दा हो या कुछ वर्ष पीछे जाएं तो असहिष्णुता का मामला हो या नागरिकता संशोधन कानून की बात हो । बॉलीवुड के कुछ चेहरे हस्ताक्षर अभियान से लेकर बयानबाजी तक में शामिल हो जाते हैं। इनमें से तो एक अभिनेत्री ऐसी भी हैं जिन्होंने इमरजेंसी के समर्थन में उस समय बयान भी दिया था। अब ये सब एक बार फिर से केंद्र सरकार को घेरने के लिए एकजुट नजर आ रहे हैं। मामला है सिनेमेटोग्राफी एक्ट में प्रस्तावित संशोधन का। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने सिनेमेटोग्राफी एक्ट में प्रस्तावित संशोधन पर आम जनता की राय आमंत्रित की थी। मंत्रालय के इस कदम को इन सब ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर बयान और हस्ताक्षर अभियान आरंभ कर दिया। लेख लिखने लगे। अपने बयानों में और लेख से इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है जैसे सरकार केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को पंगु करना चाह रही है। कहा ये जा रहा है कि सरकार केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाणित फिल्मों को जनता की शिकायत के बाद फिर से प्रमाणित करने का अधिकार अपने पास लेना चाहती है। कुछ लोग तो सुपर सेंसर जैसी बातें भी करने लगे हैं। ये सारी बातें आशंकाओं पर आधारित हैं, तथ्यों पर नहीं। अपने बयानों से लेकर लेख में वो अर्धसत्य का प्रदर्शन करके जनता को लगातार भ्रमित कर रहे हैं। 

सरकार के खिलाफ जो माहौल बनाया जा रहा है उसका आधार सिनेमैटोग्राफी एक्ट के अनुभाग छह के उपखंड एक में संशोधन है। इस प्रस्तावित संशोधन से फिल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए मिले प्रमाण-पत्र के पुनरीक्षण की शक्ति केंद्र सरकार को मिलती है। इसमें ये प्रस्तावित किया गया है कि केंद्र सरकार को ये अधिकार होगा कि वो केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से सर्टिफाइड फिल्म को फिर से बोर्ड के चेयरमैन के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकती है। जो लोग इस आधार पर सरकार की आलोचना कर रहे हैं और सुपर सेंसर की बात उठा रहे हैं वो लोग इसके आगे की पंक्ति को नजरअंदाज कर रहे हैं। प्रस्तावित संशोधन में कहा गया है कि सरकार के पास अगर सिनेमेटौग्राफी एक्ट के खंड पांच बी (1) के उल्लंघन की शिकायत आती है उसके अंतर्गत ही सरकार ये कदम उठा सकती है। अब यहां ये जानना जरूरी है कि सिनेमैटोग्राफी एक्ट का खंड पांच बी(1) क्या है? इसके अनुसार अगर किसी भी फिल्म से या उसके किसी हिस्से से राष्ट्र की संप्रभुता, अखंडता, सुरक्षा और अन्य राष्ट्रों के संबंधों पर असर पड़ता है तो उसको सर्टिफाई नहीं किया जा सकता है। इसमें ही आगे उल्लेख है कि अगर किसी फिल्म से सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टता या नैतिकता या अदालत की अवमानना होती हो तो उसका प्रमाणन नहीं हो सकता है। प्रस्तावित संशोधन में इसको ही स्थापित करने की बात की जा रही है जो सिनेमैटोग्राफी एक्ट 1952 में पहले से मौजूद था। बाद में कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाणित फिल्म को केंद्र सरकार पुनर्विचार के लिए बोर्ड को नहीं भेज सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2000 के अपने एक फैसले में कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले को बरकरार रखा था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट अपने उसी फैसले में ये भी कहता है कि विधायिका किसी खास केस में न्यायिक या कार्यकारी आदेश को उचित कानून बनाकर इसको रद्द कर सकती है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय का तर्क है कि कई बार सरकार को ये शिकायत मिलती है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाणित फिल्म से भी सिनेमैटोग्राफी एक्ट के खंड पांच बी का उल्लंघन होता है, लिहाजा वो अपने पास किसी फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए दिए जानेवाले प्रमाणपत्र को पुनर्विचार के लिए बोर्ड के चेयरमैन को भेजने का अधिकार रखना चाहती है। इस वजह से सिनेमैटोग्राफी एक्ट में बदलाव की आवश्यकता है। अगर समग्रता में इस पर विचार करें तो ये बात सामने आती है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय सिनेमैटोग्राफी एक्ट में संशोधन करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले की व्यवस्था को बहाल करना चाहती है। अगर ये संशोधन हो भी जाता है तो सुप्रीम कोर्ट का वो आदेश तो तब भी प्रभावी है कि सरकार किसी खास केस में ही अपनी इस शक्ति का प्रयोग कर सकती है। तो फिर इसमें तानाशाही जैसी बात या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात की बात कहां से आती है। 

जब से मामला सामने आया है तब से ये भी कहा जा रहा है कि 2016 में श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में बनाई गई कमेटी ने भी इस बारे में कुछ नहीं कहा है। बेनेगल कमेटी ने अपनी जो रिपोर्ट सौंपी थी उसकी सिफारिशों में बिंदु संख्या 5.2 में कमेटी सिनेमैटोग्राफी एक्ट के खंड 5 बी के उल्लंघन की बात करती है और स्पष्ट रूप से कहती है कि अगर इस खंड का उल्लंघन होता है तो किसी फिल्म को प्रमाण पत्र नहीं दिया जा सकता है। बेनेगल कमेटी का गठन तब किया गया था जब अरुण जेटली सूचना और प्रसारण मंत्री थे। उस कमेटी में श्याम बेनेगल के अलावा कमल हासन, राकेश ओम प्रकाश मेहरा, गौतम घोष जैसे लोग शामिल थे। इनमें से कई तो भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के विरोधी माने जाते हैं, लेकिन उन्होंने भी पांच बी को हटाने की बात नहीं की। अब श्याम बेनेगल को भी ये प्रस्तावित संशोधन अर्थहीन लगता है। वो भी इसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देख रहे हैं। जनता को अर्धसत्य बताकर बरगलाने की कोशिश हो रही है। 

दरअसल अगर इस पूरे मामले पर समग्रता में तथ्यों के आधार पर विचार करें तो ये मुद्दा न तो सुपर सेंसर का है, न ही अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा है और न ही केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को पंगु करने का है। अगर विचार ही करना है तो केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के क्रियाकलापों में सुधार पर करना चाहिए। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को और शक्तिशाली और समयानुकूल बनाने की बात होनी चाहिए। अभी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन और बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति सूचना और प्रसारण मंत्रालय करती है। अगस्त 2017 में मशहूर गीतकार प्रसून जोशी को बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया था उसके साथ ही बोर्ड का भी पुनर्गठन हुआ था। प्रसून जोशी की अगुवाई में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने कई जटिल मसलों का हल निकाला। उनके पहले पहलाज निहलानी बोर्ड के चेयरमैन थे, हर दिन कोई न कोई विवाद होता था। प्रसून जोशी के आने के बाद सभी विवाद थम गए। अगर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन और सदस्य संजीदा होंगे तो इस बात की संभावना बहुत कम है कि सरकार किसी भी फिल्म के प्रमाण पत्र को पुनर्विचार के लिए बोर्ड को भेजे। इस बात की भी आवश्यकता है कि बोर्ड के क्षेत्रीय सदस्यों का चयन करते समय सावधानी बरती जाए। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को विस्तार की भी आवश्यकता है। फिल्मों की संख्या इतनी बढ़ गई है लेकिन बोर्ड में उसके अनुपात में सुविधाएं या कर्मचारियों की संख्या नहीं बढ़ाई गई हैं। यह सब कुछ तभी संभव हो पाएगा जब 1952 के एक्ट में समय के अनुकूल बदलाव होगा। मनोरंजन की दुनिया का स्वरूप बहुत बदल गया है और बदलते समय के हिसाब से पूरे एक्ट में बदलाव पर विमर्श होना चाहिए। इस काम में सूचना और प्रसारण मंत्री को पहल करनी होगी। ये पहल तभी सफल हो पाएगी जब मंत्रालय में बैठे यथास्थिवाद के पैरोकारों को उचित स्थान पर भेजा जाएगा।