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Saturday, December 26, 2020

सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का प्रतिकार हो


अभी अभी क्रिसमस बीता है, उस अवसर पर एक मित्र से बात हो रही थी। उन्होंने बताया कि क्रिसमस के दो दिन पहले उनकी तीन साल की बिटिया ने उनसे पूछा कि ‘व्हेयर इज माइ क्रिसमस ट्री (मेरा क्रिसमस ट्री कहां है)?’ उसके पहले भी वो अपनी बिटिया के बारे में बताते रहते थे कि कैसे अगर वो ब्रश नहीं करती है तो उसको कार्टून सीरियल दिखाना पड़ता है आदि-आदि। वो इस बात को लेकर चिंता प्रकट करते रहते थे कि बच्चों पर इन कार्टून सीरियल्स का असर पड़ रहा है। लेकिन जब क्रिसमस ट्री वाली बात बताते हुए उन्होंने कहा कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि बच्चे कहने लगें कि ‘टुडे इज संडे, लेट्स गो टूट चर्च’ ( आज रविवार है, चलो चर्च चलते हैं) । ये सुनने के बाद मुझे लगा कि उनकी बातों में एक गंभीरता हैं। उनसे बातचीत होने के क्रम में ही एक और मित्र से हुई बातचीत दिमाग में कौंधी। उसने भी अपने दो साल के बेटे के उच्चारण के बारे में बताया था कि वो इन दिनों ‘शूज’ को ‘शियूज’ कहने लगा है। इन दोनों में एक बात समान थी कि दोनों के बच्चे यूट्यूब पर चलनेवाले सीरियल ‘पेपा पिग’ देखते हैं और दोनों उसके दीवाने हैं। लॉकडाउन के दौरान जब बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे और घर पर थे तो ‘पेपा पिग’ और भी लोकप्रिय हो गया। यूट्यूब पर इसका अपना चैनल है जिसको लाखो बच्चे देखते हैं। ‘पेपा पिग’ चार साल की है जिसका एक भाई है ‘जॉर्ज’ और उसके परिवार में मम्मी पिग और डैडी पिग हैं। बच्चे इसके दीवाने हैं कि ‘पेपा पिग’ के चित्र वाला स्कूल बैग से लेकर पानी की बोतल, लंच बॉक्स तक बाजार में मिलते है। बच्चे इन सामग्रियों को बहुत पसंद करते हैं। कई छोटे बच्चों के माता-पिता से बात हुई तो उन्होंने कहा कि ‘पेपा पिग’ उनके लिए बहुत मददगार है क्योंकि जब बच्चा जिद करता है या खाना नहीं खाता है तो उसको ‘पेपा पिग’ के उस जिद से संबंधित वीडियो दिखा देते हैं और वो खाने को तैयार हो जाता है। ये कार्टून कैरेक्टर के वीडियोज को ब्रिटेन की एक कंपनी बनाती है और उसको यूट्यूब पर नियमित रूप से अपलोड करती है। 

ये बातें बेहद सामान्य बात लग सकती है। ‘पेपा पिग’ के वीडियोज के संदर्भ में ये तर्क भी दिया जा सकता है कि वो परिवार की संकल्पना को मजबूत करता है। ये बात भी सामने आती है कि ब्रिटेन में जब पारिवारिक मूल्यों का लगभग लोप हो गया तब बच्चों को परिवार नाम की संस्था की महत्ता के बारे में बताने के लिए ‘पेपा पिग’ का सहारा लिया गया है। वो वहां काफी लोकप्रिय हो रहा है लेकिन उन्होंने इन वीडियोज को अपने धर्म, अपनी संस्कृति के हिसाब से बनाया है। लेकिन जिस तरह का असर हमारे देश के बच्चों पर पड़ रहा है, जिस तरह की बातों का उल्लेख ऊपर किया गया है, उसके बाद इन वीडियोज के हमारे देश में प्रसारण के बारे में विचार किया जाना चाहिए। अगर मेरे मित्रों की कही गई बातों का ध्यान से विश्लेषण करें तो इससे बच्चों के दिमाग में एक ऐसी संस्कृति की छाप पड़ रही है जो भारतीय नहीं है। बालमन पर पड़ने वाले इस प्रभाव का दूरगामी असर हो सकता है। बच्चे अपनी भारतीय संस्कृति से दूर हो सकते हैं। इस बात पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि क्या इन वीडियोज से हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का और अधिक क्षरण होगा। इस समय संचार माध्यमों का उपयोग अपने हितों का विस्तार देने के औजार के तौर पर किया जा रहा है. इसका ध्यान रखना अपेक्षित है। तकनीक के हथियार से सांस्कृतिक और धार्मिक उपनिवेशवाद को मजबूत किया जा सकता है। ‘पेपा पिग’ के माध्यम से जो बातें हमारे देश के बच्चे सीख रहे हैं वो तो कम से कम इस ओर ही इशारा कर रहे है। बाल मनोविज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि बच्चे जब इस तरह के वीडियोज देखते हैं तो वो अपने आसपास की दुनिया को भी वैसा ही समझने लगते हैं। इसका असर बच्चों के बौद्धिक स्तर पर भले न पड़ता हो लेकिन उसका सामाजिक जीवन प्रभावित होता है। जब सामाजिक जीवन प्रभावित होता है तो संस्कृति प्रभावित होती है।

अभी हाल में भारत सरकार ने क्यूरेटेड और नॉन क्यूरेटेड सामग्री को लेकर मंत्रालयों के बीच स्थिति स्पष्ट की थी। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स या ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी), जहां क्यूरेटेड सामग्री दिखाई जाती है, उसको सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन किया गया था। नॉन क्यूरेटेड सामग्री दिखाने वाले जिसमें यूट्यूब, फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स आते हैं को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन किया गया। ये इन प्लेटफॉर्म्स पर चलनेवाले कंटेट पर बेहतर तरीके से ध्यान देने के लिए किया गया है। यूट्यूब पर चलनेवाले चैनलों पर अगर भारतीय संस्कृति को प्रभावित करनेवाले वीडियोज हैं तो भारत सरकार को इसको गंभीरता से लेना चाहिए। ऐसा करना इस वजह से भी आवश्यक है क्योंकि हमने वो दौर भी देखा है जब कांग्रेस ने वामपंथियों को संस्कृति और उससे जुड़े विभाग आउटसोर्स किए थे। उस दौर में कालिदास के नाटकों पर चेखव के नाटकों और प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ पर मैक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘मां’ को तरजीह दी गई। परिणाम ये निकला कि हमारा सांस्कृतिक क्षरण बहुत तेजी से हुआ। शिक्षा, भाषा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जितना काम होना चाहिए था वो हो नहीं पाया। अंग्रेजी के दबदबे की वजह से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद को मजबूती मिली। इसका असर बच्चों पर भी पड़ा। भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य को अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री ने नेपथ्य में धकेल दिया। अब तकनीक के माध्यम से जिस तरहसे भारतीय संस्कृति को दबाने का प्रयास किया जा रहा है उसका प्रतिकार जरूरी है।  

प्रतिकार का दूसरा एक तरीका ये हो सकता है कि बच्चों के लिए बेहतर वीडियोज बनाकर यूट्यूब से लेकर अन्य माध्यमों पर प्रसारित किए जाएं। इसको ठोस योजना बनाकर क्रियान्वयित किया जाए।। भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपरा और भारतीयता को चित्रित करते वीडियोज को बेहद रोचक तरीके से पेश करना होगा ताकि बच्चों की उसमें रुचि पैदा हो सके। हमारे पौराणिक कथाओं में कई ऐसे चरित्र हैं जो बच्चों को भा सकते हैं, जरूरत है उनकी पहचान करके बेहतर गुणवत्ता के साथ पेश किया जाए। इसके लिए सांस्थानिक स्तर पर प्रयास करना होगा क्योंकि ‘पेपा पिग’ का जिस तरह का प्रोडक्शन है वो व्यक्तिगत प्रयास से बनाना और उसकी गुणवत्ता के स्तर तक पहुंचना बहुत आसान नहीं है। इसके लिए बड़ी पूंजी की जरूरत है। व्यक्तिगत स्तर पर छिटपुट प्रयास हो भी रहे हैं लेकिन वो काफी नहीं हैं क्योंकि उनकी पहुंच बहुत ज्यादा हो नहीं पा रही है। हमारे देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक बीत चुके हैं लेकिन हमने अबतक अपनी संस्कृति को केंद्र में रखकर ठोस काम नहीं किया। आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने के मौके पर फिल्म जगत के बड़े निर्माताओं ने फिल्में बनाने की घोषणा की है। करण जौहर ने इसकी घोषणा करते हुए ट्वीटर पर प्रधानमंत्री को टैग भी किया है। जरूरत इस बात की है कि करण और उनके जैसे बड़े निर्माता बच्चों के लिए मनोरंजन सामग्री बनाने के बारे में भी विचार करें। ‘पेपा पिग’ के स्तर का प्रोडक्शन हो जिसमें भारतीय संस्कृति के बारे में बताया जाए। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो ना केवल अपनी संस्कृति को सांस्कृतिक औपनिवेशिक हमलों से बचा पाएंगे बल्कि आनेवाली पीढ़ी को भी भारतीयता से जोड़कर रख पाएंगे। 


Thursday, December 24, 2020

पौराणिक भारतीय कथाओं में दिलचस्पी


कोरोना की छाया में बीत रहे इस वर्ष में भारतीय दर्शकों को पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं में गहरी दिलचस्पी देखने को मिली। लॉकडाउन के दौरान जब दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत सीरियल दिखाने का एलान हुआ था तब इस बात की आशंका भी थी कि इतने लोकप्रिय धारावाहिकों को दूसरी बार देखा जाएगा कि नहीं। तमाम आशंकाओं को धता बताते हुए रामायण धारावाहिक ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। अप्रैल में प्रसारित एपिसोड को करीब पौने आठ करोड़ दर्शकों ने देखा। रामायण के दर्शकों का ये आंकड़ा हाल फिलहाल में पूरी दुनिया में किसी भी सीरीज को हासिल नहीं हो सका है। मशहूर और बेहद लोकप्रिय सीरीज ‘द गेम ऑफ थ्रोन्स’ और ‘बिग बैंग थ्योरी’ को भी इतने अधिक दर्शक नहीं मिले थे। उनके दर्शक भी पौने दो करोड़ तक पहुंच सके थे। तब प्रसार भारती के सीईओ शशि शेखर वेम्पति ने ट्वीट कर देशभर के दर्शकों का शुक्रिया अदा किया था और साथ ही ये जानकारी भी साझा की थी कि टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) जारी करनेवाली संस्था बीएआरसी के मुताबिक इस वर्ष के तेरहवें सप्ताह में दूरदर्शन देशभर में सबसे अधिक देखा जानेवाला चैनल बन गया। सिर्फ रामायण ही नहीं बल्कि महाभारत को भी दर्शकों ने बेहद चाव से देखा। इसके अलावा चाणक्य और शक्तिमान को मिले दर्शकों ने दूरदर्शन को अपने पुराने सीरीज के पुनर्प्रसारण का रास्ता दिखाया।

कोरोना काल के दौरान के दौरान रामायण और महाभारत को मिली अपार सफलता ने एक बार फिर से साबित किया कि हमारे देश के दर्शकों में धर्म और अध्यात्म से संबंधित चीजों को देखने जानने और समझने की लालसा है। जरूरत इस बात की है कि उनको इस तरह की श्रेष्ठ सामग्री दिखाई जाए। देश का युवा वर्ग भी अपनी परंपराओं और अध्यात्म में खासी रुचि रखता है, ये बात भी इन सीरीज की लोकप्रियता ने साबित की। हमारे देश में आध्यात्म का जो बल है, अध्यात्म की जो आतंरिक अनुभूति है उसका प्रकटीकरण भी कोरोना काल के दौरान हुआ। इसको ध्यान में रखते हुए एक बार फिर से पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित फिल्में और सीरीज बनाए जाने लगे हैं। आनेवाले दिनों में पृथ्वीराज चौहान से लेकर महाभारत की कहानियों पर आधारित फिल्में आने वाली हैं। हमारा देश कथावाचकों का देश रहा है। कथावाचन की हमारे यहां सुदीर्घ परंपरा रही है। इस कथावाचन का आधार भारतीय ऐतिहासिक और पौराणिक पात्र और चरित्र रहे हैं। फिल्मों में भी कथावाचन की इस परंपरा के सूत्र को खोजने और उसको पकड़कर दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिशें इस वर्ष आरंभ हो चुकी है।  

देसी कहानियों के बोलबाला का वर्ष


वर्ष 2020 खत्म होने को आया। लगभग पूरा वर्ष कोराना संकट से जूझते ही बीता। कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के लिए किए गए लॉकडाउन की वजह से पूरे देश के सिनेमा हॉल कई महीनों तक बंद रहे। कोरोना के भय के कम होने के बाद जब सिनेमा हॉल खुले तब भी दर्शकों का पुराना प्यार नहीं मिल पाया है। मनोरंजन के विकल्प के तौर पर लोगों की रुचि वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स में बढ़ी। फिल्में भी वहीं रिलीज होने लगीं। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स या ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स पर दर्शकों की संख्या में भी अभूतपूर्व इजाफा हुआ, महानगरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक में। ये वो घटनाएं रहीं जिनके बारे में चर्चा होती रही है लेकिन कोरोना संकट के दौरान पिछले नौ महीने में कुछ ऐसा मंहत्वपूर्ण हुआ जिसने मनोरंजन जगत को बहुत गहरे तक प्रभावित किया। उसकी दिशा में अहम बदलाव देखने को मिला। सबसे पहले जिस महत्ववपूर्ण बदलाव को रेखांकित करने की जरूरत है वो है कहानियों में भारतीय परिवेश और भारतीयता का बढ़ता चलन। अगर हम इस वर्ष रिलीज हुई फिल्मों और वेब सीरीज पर नजर डालें तो इनकी कहानियों में भारतीयता बोध उभर कर सामने आता है। फिल्मकारों ने उन कहानियों को तवज्जो दी और दर्शकों ने भी उसको पसंद किया जिसमें अपनी माटी की मिट्टी की खुशबू थी, अपने आसपास की कहानी होने का लगाव सा था या अपने समाज में घटी या घट रही घटनाओं का चित्रण है। जैसे अगर हम बात करें तो सबसे पहले जून में रिलीज हुई फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ का कथानक जेहन में आता है। एक हवेली के माध्यम से मिर्जा और उनकी बेगम के बीच रची गई इस कॉमेडी ड्रामा में लखनऊ का परिवेश साकार हो उठता है। इस फिल्म की कहानी के साथ साथ संवाद में भी लखनऊ की पूरी संस्कृति उपस्थित है। ‘गुलाबो सिताबो’ की रिलीज के अगले ही महीने एक और फिल्म आई जिसमें हमारे आसपास की ही एक और कहानी को दर्शकों ने खूब पसंद किया, ये फिल्म थी ‘शकुंतला देवी’। इस फिल्म में गणित की जीनियस शकुंतला देवी के बहाने दर्शकों को आजादी पूर्व के दक्षिण भारत के एक गांव का परिवेश दिखता है। वहां के सामाजिक यथार्थ से सामना होता है और फिर ये कहानी महानगरों से होती हुई दर्शकों को देश विदेश ले जाती है। इस पूरी कहानी में भारतीय परिवार के सस्कारों को स्थापित किया गया है। एक और फिल्म का उल्लेख करना आवश्यक है वो है ‘गुंजन सक्सेना, द करगिल गर्ल’। इस फिल्म में भी एक भारतीय महिला अफसर की जाबांजी के किस्से को फिल्मी पर्दे पर उतारा गया है। 

हम इन फिल्मों में एक साझा सूत्र की तलाश करें तो हमें अपने देसी परिवेश और यहां का संघर्ष दिखाई देता है, भारतीय होने का गौरव दिखाई देता है। कोरोना संकट शुरू होने के पहले एक फिल्म आई थी तान्हाजी, इसमें भी हमारे देश के उस नायक को फिल्मी पर्दे पर उतारा गया था जिसकी वीरता के किस्से लोकगाथाओं में गूंजते हैं। इन सबके मद्देनजर ये भी कहा जा सकता है कि ये वर्ष फिल्मों में लेखकों की वापसी का वर्ष भी रहा। बीच में इस तरह की कहानियां आ रही थीं जिनके बारे में ‘माइंडलेस कॉमेडी’ जैसे शब्द कहे जाते थे लेकिन इस वर्ष जितनी भी कहानियां आईं उसमें अगर कॉमेडी भी थी तो उसका एक अर्थ था, एक संदेश था। इस तरह की एक और फिल्म आई ‘छलांग’, जिसकी कहानी हरियाणा के एक गांव के स्कूल के इर्द गिर्द चलती है। ये भी एक कॉमेडी ड्रामा ही है लेकिन इसमें भी हरियाणा का परिवेश जीवंत हो उठता है। एक जमाना था जब विदेशी फिल्मों के प्लॉट उठातक उसको भारतीय स्थितियों में ढालकर चित्रित किया जाता था। यहां तक अब तक की सबसे हिट फिल्म मानी जानेवाली ‘शोले’ को भी कुरुसोवा की फिल्म सेवन समुराई पर आधारित माना गया था। लेकिन इस वर्ष को भारतीय फिल्मों में भारतीय कहानियों के वर्ष के तौर पर याद किया जाएगा। 

इसी तरह से अगर हम वेब सीरीज देखें तो उसमें भी भारतीय कहानियों की मांग ही बढ़ी। वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स पर दुनियाभर की सीरीज मौजूद हैं लेकिन भारतीय कहानियों और लोकेल पर पर बनी सीरीज अधिक पसंद की गईं। इस साल रिलीज हुई वेब सीरीज पर नजर डालें तो चाहे वो आर्या हो, पाताल लोक हो, आश्रम हो, बंदिश बैंडिट्स हो, पंचायत हो इन सबमें हमारे आसपास की कहानियां हैं। ना सिर्फ कहानियों में बल्कि इन सीरीज की भाषा और मुहावरों में भी देसी बोली के शब्दों को जगह मिलने लगी है। अगर हम याद करें तो एक वेब सीरीज आई थी जामताड़ा, सबका नंबर आएगा। इस फिल्म के संवाद में ‘कनटाप’ शब्द का उपयोग हुआ है। ये शब्द कानपुर और उसके आसपास में प्रयोग किया जाता है। इसी तरह से वेब सीरीज आर्या में भी राजस्थान की भाषा सहज रूप से आती है और लोग उसको स्वीकार भी करते हैं और पसंद भी। इन बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए ये कहा जा सकता है कि ये वर्ष भारतीय मनोरंजन जगत के आत्मनिर्भर होने और अपनी आंतरिक सामर्थ्य को पहचानने का वर्ष भी रहा। 

Saturday, December 19, 2020

कृतियों से गाढ़ी होती आश्वस्ति


वर्ष दो हजार बीस बीतने को आया। चंद दिनों बाद ये वर्ष भी इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएगा। पर दो हजार बीस को कोरोना की वजह से सदियों तक याद किया जाता रहेगा। कोरोना के अलावा भी कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिनको इतिहास याद रखेगा। अगर साहित्य सृजन की दृष्टि से देखें तो ये वर्ष बहुत उत्साहजनक नहीं रहा लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी आईं जो सालों तक याद रखी जाएंगी। तीन साल पहले मशहूर और विवादित लेखिका वेंडि डोनिगर की एक किताब आई थी, ‘द रिंग ऑफ ट्रूथ, मिथ्स ऑफ सेक्स एंड जूलरी’ । उस पुस्तक के शोघ का दायरा और पूरी दुनिया के ग्रंथों से संदर्भ लेने की मेहनत पर इस स्तंभ में टिप्पणी की गई थी। तब इस बात पर अफसोस हुआ था कि हिंदी के समकालीन लेखक इस तरह का लेखन क्यों नहीं कर रहे हैं। जबकिं हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में इस तरह के लेखन की एक लंबी परंपरा रही है। वेंडि डोनिगर ने उक्त किताब में इस बात पर शोध किया था कि अंगूठियों का कामेच्छा से क्या संबंध रहा है ? क्यों पति-पत्नी से लेकर प्रेमी-प्रेमिका के लिए अंगूठी इतनी महत्वपूर्ण रही है और है। कभी अंगूठी प्यार का प्रतीक बन जाती है तो कभी इसका उपयोग वशीकरण यंत्र के तौर पर किए जाने की चर्चा मिलती है। कई धर्मग्रंथों और शेक्सपियर से लेकर कालिदास और तुलसीदास के साहित्य से उन्होंने अंगूठी के बारे में सामग्री इकट्ठा कर उसपर विस्तार से लिखा था। 

इसी तरह से इस वर्ष मार्च में पत्रकार क्रिस्टीना लैंब की एक पुस्तक आई थी, ‘ऑवर बॉडीज देयर बैटलफील्ड, व्हाट वॉर डज टू अ वूमन’। करीब तीस साल तक युद्ध और हिंसाग्रस्त इलाके की रिपोर्टिंग करनेवाली पत्रकार क्रिस्टीना ने अपनी इस किताब में कई देशों में सैन्य कार्रवाइयों से लेकर आतंकवादी हिंसा में औरतों पर होनेवाले जुल्मों का दिल दहलानेवाला वर्णन किया है। उन्होंने अपनी किताब में सच्ची घटनाओं और पीड़ितों से बातचीत के आधार पर ये बताया है कि युद्ध और हिंसा के दौरान या फिर आतंकवादी हमले के दौरान बलात्कार को हथियार के तौर इस्तेमाल किया जाता है। जबकि 1919 में ही दुनिया के सभी देशों ने बलात्कार को युद्ध अपराध की श्रेणी में मान लिया था। इस पुस्तक का रेंज व्यापक है और इसका कैनवस ये सोचने को मजबूर करता है कि हिंदी में इस तरह का काम क्यों नहीं हो पा रहा है। 

लेकिन पिछले साल दो ऐसी पुस्तकें आईं जिसने हिंदी में हो रहे काम के प्रति एक आश्वस्ति दी। पहला काम किया है उत्तर प्रदेश के एटा में जन्मे बयासी साल के लेखक महेन्द्र मिश्र ने। उन्होंने सिनेमा पर बहुत श्रमपूर्वक एक पुस्तक लिखी ‘भारतीय सिनेमा’। साढे सात सौ पन्नों की इस पुस्तक में महेन्द्र मिश्र ने विस्तार से भारतीय सिनेमा के बारे में लिखा है। उन्होंने भारतीय भाषाओं में बनने वाले सिनेमा को इसमें समेटा है। जाहिर सी बात है हिंदी फिल्मों पर ज्यादा विस्तार है लेकिन महेन्द्र मिश्र ने मणिपुरी, कर्बी, बोडो, मिजो और मोनपा भाषा कि फिल्मों के बारे में भी बताया है। इसके अलावा तमिल, तेलुगू हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी फिल्मों पर भी जानकारियां हैं। लेखक ने लिखा है पुस्तक की भूमिका में लिखा है ‘जब हम सिनेमा की बात करते हैं तो अक्सर यही समझा जाता है कि मुंबई में बनने वाली हिंदी फिल्में ही भारत का सिनेमा है। यह धारणा केवल उत्तर भारत या हिंदी भाषी प्रदेशों में रहनेवालों की नहीं है, देश की बड़ी आबादी वाले कई महानगरों के निवासी भी यही सोचते हैं। देश के अन्य भाषाओं में बननेवाली मुख्यधारा की सैकड़ों फिल्मों के बारे में, खासकर तमिल तेलुगू, मलयालम भाषा की फिल्मों के बारे में कम लोग जानते हैं।‘ महेन्द्र मिश्र ने अपनी इस पुस्तक से इस स्थापित धारणा को तोड़ने की कोशिश की है। अपनी इस पुस्तक में महेन्द्र मिश्र ने सभी भाषाओं की महत्वपूर्ण फिल्मों के को अपने लेखन का आधार बनाया है। हिंदी में अबतक फिल्मों पर समग्रता में बहुत काम नहीं हुआ है। तथाकथित मुख्यधारा के हिंदी साहित्यकारों ने, जो वामपंथ के प्रभाव में रहे, फिल्म अध्ययन को उतना महत्व नहीं दिया जितना मिलना चाहिए था। हिंदी के लोग अब भी नहीं भूले हैं कि जब ज्ञानपीठ पुरस्कार अर्पण समारोह में अमिताभ बच्चन को आमंत्रित किया गया था तो अशोक वाजपेयी समेत कई साहित्यकारों ने इसको मर्यादा के खिलाफ बताया था। महेन्द्र मिश्र की इस पुस्तक से एक उम्मीद जगी है कि भविष्य में भी भारतीय फिल्मों पर गंभीर काम हो सकेगा। 

इसी तरह से उत्तर प्रदेश के ही रामपुर के राजकीय महिला महाविद्यालय में कार्यरत डॉ अलिफ नाजिम ने एक बेहद महत्वपूर्ण काम किया है। उन्होंने उर्दू के महान शायर मुंशी दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबादी की कविताओं को एक जगह जमा करके उनके समग्र का संपादन किया। कई बार इस बात को लेकर भ्रम हो जाता है कि सुरूर जहानाबादी बिहार के कवि थे और इनका जन्म बिहार के जहानाबाद में हुआ था। लेकिन सचाई तो ये है कि सुरूर जहानाबादी का बिहार के जहानाबाद से कोई लेना देना नहीं है। अलिफ नाजिम साहब लिखते हैं कि ‘जो जहानाबाद दुर्गा सहाय सुरूर के उपनाम का हिस्सा बनकर साहित्य की दुनिया में अमर हो गया है उसका संबंध बिहार से नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश से है।‘ ये पीलीभीत जिले का एक कस्बा है। अपनी जिंदगी के शुरुआती दिन जहानाबाद में बिताने के बाद रोजगार की तलाश में दुर्गा सहाय मेरठ आ गए और यहां विद्या प्रकाशन में सहायक संपादक की नौकरी कर ली। अलिफ नाजिम के मुताबिक दुर्गा सहाय ने यहीं अपने नाम के साथ सुरूर लगाना शुरू किया। सुरूर को सैंतीस साल की उम्र मिली। इतनी छोटी उम्र में उनकी पत्नी और बेटे का निधन हो गया। पत्नी की मृत्यु के सदमे से उबरे तो ‘दुनिया की उजड़ी गुई दुल्हन’ जैसी कविता लिखकर अपनी चुप्पी तोड़ी। बेटे की मौत पर ‘दिले-बेकरार सोजा’ जैसी रचना लिखी जिसको पढ़कर किसी का भी ह्रदय द्रवित हो सकता है। इतनी छोटी उम्र में ही सुरूर को बेहद प्रसिद्धि मिली थी। अल्लामा इकबाल से सुरूर के संबंध बहुत अच्छे थे और इकबाल उनकी बहुत इज्जत करते थे। इकबाल ने एक दौर में अपने आप को शायरी से अलग कर लिया था। तब सुरूर ने एक कविता लिखी जिसका शीर्षक था, ‘फिजा-ए-बरशगाल और प्रोफेसर इकबाल’। ये कविता 1906 में लाहौर से प्रकाशित होनेवाले अखबार ‘मखजन’ में प्रकाशित हुई। इसको पढ़कर इकबाल ने तुरंत एक नई कविता लिखकर संपादक को भेज दी। संपादक को लिखे अपने पत्र में इकबाल ने लिखा कि ‘सुरूर मेरी खामोशी तोड़ना चाहते हैं, वो कहीं खफा न हो जाएं इसलिए ये गजल भेज रहा हूं।‘ इससे सुरूर की महत्ता समझी जा सकती है। आज भी देश के जिन भी विश्वविद्यालयों में उर्दू पढ़ाई जाती है लगभग सभी में सुरूर की कविताएं पढ़ाई जाती हैं। अलिफ नाजिम ने देशभर के अलग अलग पुस्तकालायों से खोजकर सुरूर की कविताओं को समग्र में संग्रहीत कर बड़ा काम किया है। 

एक बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि ‘भारतीय सिनेमा’ और ‘सुरूर जहानाबादी समग्र’ दोनों का प्रकाशन दिल्ली से नहीं हुआ, दोनों के लेखक दिल्ली में नहीं रहते। एक का प्रकाशन प्रयागराज से हुआ है तो दूसरे का प्रकाशन बठिंडा, पंजाब से हुआ है। ये सिर्फ इस वजह से कह रहा हूं कि दिल्ली में हो रहे लेखन को ज्यादा महत्व न देकर हमें अपने देश के अलग अलग हिस्सों के विद्वानों के कामों को रेखांकित करना चाहिए। इससे हिंदी के बारे में बन रही गलत राय का भी निषेध हो सकेगा।   


Saturday, December 12, 2020

प्रत्येक के लिए मातृभाषा,सबकी हिंदी


कोरोना संकट शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद शशि थरूर के साथ एक संवाद में हिस्सा लेने का अवसर मिला था। ये संवाद उनके लेखन से लेकर हिंदी को लेकर उनकी सोच पर केंद्रित हो गई थी। आयोजन प्रभा खेतान फाउंडेशन का था। उस कार्यक्रम में मैंने शशि थरूर से एक प्रश्न पूछा था कि गैर हिंदी भाषी विद्वानों ने कभी कहा था कि अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की साझा दुश्मन है। इस क्रम में मैंने भूदेव मुखर्जी और सी राजगोपालाचारी का नाम लिया था। तब शशि ने मेरी बात का प्रतिवाद किया था और कहा था कि राजगोपालाचारी जी ने ये नहीं कहा था, वो सबकुछ अंग्रेजी में करते थे। मैंने कहीं पढ़ा था कि राजगोपालाचारी जी ऐसा सोचते और कहते थे। अभी पिछले दिनों किसी शोध के क्रम में ये जानकारी मिली कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति को राजगोपालाचारी जी का संरक्षण प्राप्त था और उनके मार्गदर्शन में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति को काफी विस्तार मिला था। वो बहुत रुचि लेकर हिंदी प्रचार समिति के काम को आगे बढ़ाते थे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की एक पुस्तक है ‘वट पीपल’ जो उनके निबंधों का संग्रह है। उसमें इस बात का उल्लेख मिलता है कि किस तरह से राजगोपालाचारी हिंदी के विकास के लिए काम करते थे। 1928 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति की एक पाठ्य पुस्तक की भूमिका में उन्होंने दक्षिण भारतीय लोगों को ये सलाह दी थी कि ’जनता की भाषा एक और शासन की भाषा दूसरी होने से जनता संसद तथा विधानसभा के सदस्यों पर समुचित नियंत्रण नहीं रख सकेगी, इसलिए उचित यही है कि हम अपनी सुविधा के लोभ में आकर अंग्रेजी के लिए दुराग्रह न करें। यदि अंग्रेजी शासन की भाषा बनी रही तो इससे देश का स्वराज्य अधूरा रहेगा।‘ 1937 में जब राजगोपालाचारी मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री बने तो उस समय भी वो हिंदी विरोधियों के साथ काफी कड़ाई से पेश आते थे। इसी तरह से राजगोपालाचारी ने प्रजातंत्र पर एक छोटी सी पुस्तिका निकाली थी, उसमें भी उन्होंने हिंदी की पैरोकारी की थी और इस बात की पुरजोर वकालत की थी कि हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा हो कर रहेगी। हिंदी को लेकर राजगोपालाचारी की ये राय काफी लंबे समय तक रही थी। स्वतंत्रता मिलने तक तो थी ही। 

ये भी सत्य है कि जब देश को स्वतंत्रता मिली और संविधान को अपनाने के साथ ही हिंदी को देश की राजभाषा का दर्जा मिला तो दक्षिण भारत में एक बार फिर से हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू हो गए। इस आंदोलन का भाषा से अधिक राजनीति से लेना देना था। बाद में तो हिंदी को अंग्रेजी जैसा ही विदेशी भाषा तक करार दे दिया था। अन्नादुरैई और पेरियार के साथ मिलकर राजगोपालाचारी ने हिंदी के खिलाफ आंदोलन किया। 1965 में जब एक बार फिर से हिंदी के विरोध में आंदोलन शुरू हुआ तो राजगोपालाचारी ने हिंदी का विरोध किया। ये सब दर्ज है लेकिन हिंदी को लेकर राजगोपालाचारी के विचारों में ये बदलाव या विचलन राजनीति की वजह से आई। हिंदी के प्रति उनके विरोध का ये अर्थ नहीं था कि उनका अंग्रेजी का विरोध कम हो गया था। मुझ लगता है शशि थरूर राजगोपालाचारी के बाद के स्टैंड पर बात कर रहे थे और मैं उनकी आरंभिक राय से भी भिज्ञ था। उस दौर के अन्य दस्तावेजों और पुस्तकों को खंगालने के बाद एक बात समझ आई कि इस देश में राजनीति ने भारतीय भाषाओं का बहुत नुकसान किया। हिंदी ने कभी भी अपने बड़े होने का दंभ नहीं भरा लेकिन ये बात सुनियोजित तरीके से फैलाई गई। 

हिंदी को लेकर जिस तरह की राजनीति इस देश में होती रही है और उसका फायदा जिस तरह से अंग्रेजी वाले उठाते रहे हैं, उसको रेखांकित करना बेहद जरूरी है। साहित्य अकादमी के एक वाकए का स्मरण होता है। विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। यहां ये बताते चलें कि विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के पहले हिंदी भाषी अध्यक्ष थे। तिवारी जी के कार्यकाल में एक बैठक के दौरान अंग्रेजी का एक प्रर्तिनिधि खड़ा हुआ और तमतमाते हुए कहा कि आपको अंग्रेजी में अपना भाषण देना चाहिए क्योंकि यहां हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के प्रतिनिधि बैठे हैं। तब भारतीय भाषाओं के लोगों ने अंग्रेजी के प्रतिनिधि को चुप करवा दिया था और तिवारी जी से हिंदी में अपना भाषण जारी रखने का अनुरोध किया था।  दरअसल अंग्रेजी के लोगों ने हमेशा से हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच खाई पैदा करने की कोशिश की। गैर-हिंदी भाषी लोगों के मन में ये बात बैठाई कि अगर हिंदी का फैलाव होता है तो वो अन्य भारतीय भाषाओं तो दबा देगी। अंग्रेजी वालों को ये डर हमेशा सताते रहता है कि उनको चुनौती सिर्फ हिंदी से ही मिल सकती है। अगर हिंदी को सभी भारतीय भाषाओं का साथ मिल गया तो उनका बोरिया बिस्तर बंध सकता है। इसलिए वो लगातार भ्रामक बातें फैलाते रहते हैं जबकि सचाई ये है कि अगर हिंदी का विकास होता है तो उसके साथ सभी भारतीय भाषाओं का विकास होगा। अंग्रेजी को अगर हटाया जाता है तो जो स्थान रिक्त होगा वो सारा स्थान हिंदी को तो मिलेगा नहीं बल्कि उस रिक्त स्थान की पूर्ति सभी भारतीय भाषाओं से होगी। गांधी भी हमेशा ये कहते थे कि हिंदी को अपनाने का यह अर्थ कतई नहीं है कि अपनी अन्य भाषाओं का तिरस्कार। एक बात और कही जाती है कि अंग्रेजी ज्ञान की भाषा है। होगी, लेकिन कोरोनाकाल में जिस तरह से भारतीय चिकित्सा पद्धति से लेकर भारतीय जीवन शैली की ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया है उसमें अंग्रेजी कहां है, इसपर विचार करने की भी जरूरत है। आपदा ने इस बात का निषेध ही नहीं बल्कि स्थापित भी कर दिया कि सिर्फ अंग्रेजी ही ज्ञान की भाषा नहीं है।  

अभी पिछले दिनों राष्ट्रीय शिक्षा नीति पेश की गई है। शिक्षा नीति का जो दस्तावेज बना है उसमें हिंदी का नामोल्लेख न होना अचरच में डालता है। क्या शिक्षा नीति बनानेवालों को या इसको ड्राफ्ट करनेवालों को भारतीय संविधान के भाषा संबंधी अनुच्छेदों का भान नहीं था या फिर वहां भी राजनीति घुस गई थी। क्या जानबूझकर एक रणनीति के तहत हिंदी का नामोल्लेख नहीं हुआ है? या फिर दक्षिण भारतीय राजनीतिक दल के आसन्न विरोध को ध्यान में रखते हुए शिक्षा नीति में एक बार भी हिंदी के नामोल्लेख से बचा गया। कई लोगों के तर्क हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जब भारतीय भाषा का जिक्र है तो अलग से हिंदी के उल्लेख का कोई औचित्य नहीं है। अगर ऐसा है तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के पहले संविधान को संशोधित किया जाना चाहिए, उसके निदेशों में बदलाव किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि दक्षिण भारत के लोग हिंदी नहीं समझते हैं। इन प्रदेशों में रहनेवाले लोग अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी समझते हैं। हिंदी की व्याप्ति बहुत बढ़ी है और इस वजह से संवाद की सुगमता भी। दरअसल हमें इस बारे में विचार करना चाहिए कि प्रत्येक के लिए मातृभाषा और सबके लिए हिंदी। इसमें किसी तरह का कोई बड़ा भाई छोटे भाई जैसा भाव नहीं है। हिंदी को देश की संपर्क भाषा के रूप में मजबूती देनी होगी क्योंकि संपर्क भाषा तो वो बन ही चुकी है। हिंदी के खिलाफ जिस तरह की राजनीति होती है उसको समझने के लिए सिर्फ इतना जानना जरूरी है कि तमिलनाडु के राजनीतिक दल भी चुनाव के दौरान मदुरै इलाके में हिंदी में पोस्टर लगाते हैं। उनका हिंदी विरोध सिर्फ भावनाओं को भड़काकर वोट बटोरना है। उनको ये समझना होगा कि सत्ता हासिल करने के लिए के लिए भाषा को औजार के तौर पर उपयोग करना अनुचित होगा। 

Saturday, December 5, 2020

हिंदी को लेकर उदासीनता का भाव क्यों?


पिछले महीने की सत्ताइस तारीख को शिक्षा मंत्रालय ने पूर्व आईएएस अधिकारी और राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलाधिपति एन गोपालस्वामी की अध्यक्षता में ग्यारह सदस्यों की एक समिति का गठन किया। इस समिति का गठन मैसूर में भारतीय भाषा विश्वविद्यालय और इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन की स्थापना की कार्ययोजना तैयार करना है। इस समिति से अपेक्षा की गई है कि वो भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना और उसके अंतर्गत इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन को स्वायत्त संस्था के तौर पर स्थापित करने के नियम आदि को भी तय करे। इसके अलावा समिति भारतीय भाषा विश्वविद्यालय और इडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन और इंटरप्रिटेशन के उद्देश्य और लक्ष्य भी तय करें। साथ ही ये भी कहा गया है कि मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान के उद्देश्यों को भी इसमें शामिल करे। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही गई है वो ये है कि इस समिति को मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान के जमीन, इमारत, मानव संसाधन का आकलन भी करना है ताकि प्रस्तावित भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना में उसका उपयोग किया जा सके। यही समिति यह भी सुझाएगी कि भारतीय भाषा संस्थान को भारतीय भाषा विश्वविद्यालय मे तब्दील करने के लिए कितना वित्तीय संसाधन लगेगा। इस समिति के गठन से एक बात तो साफ हो गई है कि शिक्षा मंत्रालय मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान को भारतीय भाषा विश्वविद्यालय में बदलने का निर्णय कर चुकी है। उसके उद्देश्यों में संशोधन करके या दायरा विस्तृत करके। 

दरअसल भारतीय भाषा विश्वविद्यालय का प्रस्ताव ढाई साल पुराना है। भारतीयता में विश्वास रखनेवाले संगठनों और व्यक्तियों ने कई दौर की बैठकों के बाद यह तय किया गया था कि भारत में हिंदी और भारतीय भाषाओं का एक विश्वविद्यालय बनाया जाए और इसका एक प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा जाए। यह प्रस्ताव भारतीय संविधान की मूल भावनाओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से लेकर 351 तक भाषा के बारे में विस्तार से चर्चा है। जब हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा था तो अनुच्छेद 343 और 351 का विशेष ध्यान रखा गया था। अनुच्छेद 343 साफ तौर पर कहता है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश दिए गए हैं। वहां कहा गया है कि ‘संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक और वांछनीय हो वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।‘  इस अनुच्छेद की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए गंभीरता से काम नहीं हुआ। स्वतंत्रता के बाद हमने अपने संविधान को 1950 में अपनाया लेकिन उसके सत्तर साल बाद भी हिंदी को लेकर संविधान के निदेश पूरे नहीं हो पाए हैं। हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ अकादमिक तौर पर लेकर चलने की ठोस योजना कार्यान्वयित नहीं हुई। अलग अलग भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय तो बने लेकिन ऐसा कोई शैक्षणिक परिसर नहीं बन पाया जहां संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल सभी भाषाओं का अध्ययन अध्यापन हों। आंध्र प्रदेश में दविड़ भाषाओं को लेकर 1997 में द्रविडियन युनिवर्सिटी की स्थापना हुई, जहां तमिल तेलुगू और कन्नड़ की पढ़ाई होती है। 

स्वतंत्रता के तिहत्तर साल बाद अब जाकर भी भारतीय भाषा के विश्वविद्यालय पर काम शुरू हो रहा है तो ये भी संविधान के अनुच्छेद 351 की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। मैसूर में भारतीय भाषा संस्थान की स्थापना उन्नीस सौ उनहत्तर में हुई थी, अब उस संस्थान का नाम और उद्देश्यों का दायरा बढ़ाकर भारतीय भाषा विश्वविद्यालय बनाने की कोशिश हो रही है। इस देश में ‘द इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेजेज युनिवर्सिटी’ की स्थापना हो सकती है लेकिन हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का विश्वविद्यालय बनाने में हिचक हो रही है। 2018 में आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर नंदकिशोर पांडे ने 28 मई 2018 को हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय का एक प्रस्ताव सरकार को भेजा था। तब ये बात कही गई थी कि भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए गंभीर प्रयास नहीं हुए। अलग अलग भाषाओं और उससे संबद्ध बोलियों में बिखरी हुई वाचिक परंपरा की सामग्री को संग्रहीत कर लिपिबद्ध करना, भारतीयता के तत्वों के साथ ही ज्ञान-विज्ञान की वाचिक परंपरा का अन्वेषण करना और भारतीय ज्ञान परंपरा को नई तकनीक से जोड़कर संरक्षित करना इसका उद्देश्य होगा। साल डेढ़ साल तक इस प्रस्ताव पर मंथन होता रहा, प्रस्ताव विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से होकर मंत्रालय पहुंचा। लेकिन 2019 में आम चुनाव की घोषणा के साथ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया। फिर विभागीय मंत्री बदल गए, सचिव बदल गए। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का नाम भी बदल गया। अब ये भारतीय भाषा विश्वविद्यालय के रूप में सामने आया है। इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के नाम से हिंदी क्यों हटा, इसका कारण ज्ञात नहीं हो सका है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 351 में साफ तौर से इस बात का निदेश है कि हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के साहचर्य से समृद्ध करना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहीं हिंदी का उल्लेख नहीं है, क्या प्रस्तावित विश्वविद्यालय से भी हिंदी का नाम इस वजह से हटा दिया गया है? या फिर राजनीति के दबाव में विश्वविद्यालय के नाम से हिंदी हटाई गई? 

दूसरी बात ये कि मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान का नाम बदलकर भारतीय भाषा विश्वविद्यालय करने से बहुत सकारात्मक परिणाम की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। भारतीय भाषा संस्थान का उद्देश्य अलग और महत्वपूर्ण है, वहां भाषा के शब्दों उत्पत्ति पर अनुसंधान किया जाता है। उसको किसी विश्वविद्यालय के एक विभाग में बदल देने से उसके काम-काज पर असर पड़ेगा और उसकी व्यापकता संकुचित होगी। होना तो यह चाहिए था कि भारतीय भाषा संस्थान को मजबूत किया जाता और अलग से एक हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना की जाती। ये विश्वविद्यालय किसी हिंदी भाषी प्रदेश में स्थापित किया जाना चाहिए ताकि गैर हिंदी भाषी प्रदेश के लोग वहां आकर हिंदी प्रदेशों के लोगों की मानसिकता को भी समझ सकते और जब हिंदी को लेकर राजनीति होती तो उसका निषेध अपने प्रदेशों में करते।   

दरअसल हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की आवश्यकता इस वजह से भी है कि हिंदी और उसकी उपभाषाओं या बोलियों में बहुत काम करने की आवश्यकता है। इसको मशहूर पुस्तक लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के लेखक जॉर्ज ग्रियर्सन के इस निष्कर्ष से समझा जा सकता है, जिन बोलियों से हिंदी की उत्पत्ति हुई है उनमें ऐसी विलक्षण शक्ति है कि वे किसी भी विचार को पूरी सफाई के साथ अभिव्यक्त कर सकती हैं। हिंदी के पास देसी शब्दों का अपार भंडार है और सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों को सम्यक रूप से अभिव्यक्त करने के उसके साधन भी अपार हैं। हिंदी शब्द भंडार इतना विशाल और उसकी अभिव्यंजना शक्ति ऐसी है जो अंग्रेजी से शायद ही हीन कही जा सके।‘ केंद्र में जब मोदी की सरकार बनी थी तो हिंदी को लेकर सकारात्मक माहौल बना था, क्या एक बार फिर हिंदी राजनीति की शिकार हो जाएगी?  


Sunday, November 29, 2020

विकल्पहीन नहीं है साहित्य


कोरोनाकाल में कई संस्थाएं और व्यक्तियों ने साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया। जब साहित्यिक कार्यक्रम स्थगित होने लगे तो लोगों ने नए रास्तों की खोज प्रारंभ की। साहित्य में नई राह के अन्वेषण की बातें हर कालखंड में होती रही हैं लेकिन कोविड काल में चुनौती नई थी और साहित्य और साहित्यकारों को जोड़कर रखने की बड़ी चुनौती थी। कोलकता की संस्था प्रभा खेतान फाउंडेशन और उसके कर्ताधर्ता संदीप भूतोड़िया ने भी साहित्य और भाषा के क्षेत्र में इस चुनौती से निबटने के लिए कई पहल की। फाउंडेशन के उपक्रमों पर उनसे मैंने बातचीत की ।  

प्रश्न- इस वर्ष जब फरवरी के अंत और मार्च के आरंभ में भारत में कोरोना वायरस का खतरा बढने लगा था तो आपके मन में ऑनलाइन कार्यक्रम करने की बात कैसे आई ?

संदीप- हमारे देश में जब कोरोना का संकट उत्पन्न हुआ तो हमारे फाउंडेशन का सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम ‘कलम’ सबसे अधिक प्रभावित हुआ। सबसे पहले फरवरी में मुंबई से आने वाले एक लेखक ने अपना कार्यक्रम स्थगित किया। फिर लगातार हमारे कार्यक्रम स्थगित होने लगे या लेखक कार्यक्रमों में आने-जाने से हिचकने लगे। तब पहली बार हमारे दिमाग में ऑनलाइन कार्यक्रम करने की बात आई और सोचा कि इस माध्यम को विकसित किया जाए। पर ये होगा कैसे? मुझे मालूम नहीं था। कार्यक्रम में भागीदारी के लिए लोगों को कैसे राजी किया जाएगा, ये भी समझ नहीं आ रहा था। ये भी डर था कि अगर लोग ऑनलाइन कार्यक्रमों  में नहीं जुटे तो हमारा और हमारी टीम का मनोबल टूट जाएगा। लेकिन चुनौती को हमने स्वीकार किया क्योंकि अपनी भाषा को आगे बढ़ाने का उपक्रम रोकने का प्रश्न ही नहीं था। 

प्रश्न- जरा विस्तार से बताइए कि कार्यक्रमों को ऑनलाइन आयोजित करने में आपको किन और किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

संदीप- हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि पाठक लेखक संवाद बाधित न हो पाए। जैसा कि आपको पता है कि हमारे कार्यक्रमों में लेखक को अपनी कृतियों और समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर बातचीत का मौका मिलता है। हम हिंदी और अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषाओं में भी ‘आखर’ के नाम से कार्यक्रम करते हैं। ‘कलम’ में हम किसी लेखक से उनकी रचनाओं और अनुभवों पर बात करते हैं। इस बीच लॉकडाउन की घोषणा हो गई। संकट और बढ़ गया। ऑनलाइन में सबसे बड़ी चुनौती थी कि हम अलग अलग शहरों में किताबें नहीं पहुंचा सकते थे क्योंकि प्रकाशकों के कार्यालय बंद, कूरियर कंपनियां बंद, होटल बंद, एयरलाइंस बंद, रेल बंद।  कार्यक्रम में आने वाले साहित्य प्रेमियों को किताबें भेंट में नहीं दे सकते थे। लेकिन हमने चुनौती को स्वीकार किया और कुछ लेखकों को इस तरह के साहित्यिक ऑनलाइन कार्यक्रम के लिए तैयार किया। हमें भी तकनीक सीखने का मौका मिला। जूम और सिस्को पर अपने सहोगियों के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम किए। 

प्रश्न- जब लेखक ऑनलाइऩ आने के लिए तैयार हो गए तो फिर अन्य लोगों को कैसे तैयार किया। 

संदीप- हमने देश के अलग अलग शहरों में महिलाओं का एक समूह तैयार किया हुआ है जिसे ‘अहसास वूमेन’ कहते हैं। जैसे दिल्ली के समूह को ‘अहसास वूमेन ऑफ दिल्ली’ कहते हैं, इसी तरह से ‘अहसास वूमेन ऑफ लखनऊ’ आदि। पुस्तकप्रेमियों को ऑनलाइऩ कार्यक्रमों में जोड़ने के लिए हमने ‘अहसास वूमेन’ को तैयार किया और सभी ने बहुत उत्साह के साथ इस काम को हाथ में लिया। सभी तकनीक के उपयोग को लेकर उत्साहित थीं। हमारा काम इसलिए भी थोड़ा आसान था कि हमारे कार्यक्रमों में प्रतिभागियों की संख्या 35 से 40 ही होती है। हमने कार्यक्रम शुरु किया तो ये सफल होने लगा। लोगों ने इसको अपनाया। आपको बताऊं कि ‘कलम’ और ‘राइट सर्कल’ जैसे हमारे ऑनलाइन कार्यक्रमों की संख्या लॉकडाउन के दौरान बढ़ गई। छह शहरों में तो हमारे इवेंट दुगने हो गए। हमारे सहयोगियों ने भी साथ दिया। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब और हरियाणा में दैनिक जागरण और छत्तीसगढ़ में नईदुनिया हमारे सहयोगी हैं। उनका भी साथ उत्साहवर्धक रहा।   

प्रश्न- पर आपके कार्यक्रमों में पुस्तकप्रेमियों को पुस्तकें नहीं मिल पाने से आपका पुस्तक संस्कृति के विकास का उद्देश्य तो पूरा नहीं हो पा रहा। 

संदीप- आप ठीक कह रहे हैं। हमने कोशिश की हमारे कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले लोगों को ईबुक्स खरीदकर भेंट दे सकें। लेकिन ये संभव नहीं हो सका। आप ईकॉमर्स प्लेटफॉर्म से एक ही पुस्तक की आनलाइन कई प्रतियां नहीं खरीद सकते। किंडल पर भी एक ही पुस्तक की कई प्रतियां खरीद कर गिफ्ट नहीं कर सकते। हम चाहते थे कि किसी पुस्तक की ईबुक्स की सौ प्रतियां खरीद लें और उनको प्रतिभागियों को भेंट कर दें लेकिन ये संभव नहीं हो सका। फिर हमने एक नया तरीका निकाला कि श्रेष्ठ प्रश्न पूछनेवालों को अमेजन का गिफ्ट वाउचर देना शुरु किया ताकि वो पुस्तकें खरीद लें। 

प्रश्न- ऑनलाइन कार्यक्रमों के अलावा और क्या किया कोविड काल में आपलोगों ने। 

संदीप- देखिए हम लोगों के पांच उद्देश्य हैं, साहित्य कला को बढ़ावा देना, स्थानीय खान-पान को बढ़ावा देना, स्थानीय हस्तकला को प्रोत्साहित करना, महिला सशक्तीकरण और शहर विशेष में साहित्य और भाषा के प्रति माहौल बनाना। हम जब एक्चुल कार्यक्रम करते थे तो किताबों पर बात होती थी, प्रतिभागियों को पुस्तकें भेंट करते थे। आमंत्रित लेखकों को स्थानीय हस्तकला का उपहार देते थे। आमंत्रित अतिथियों को स्थानीय व्यंजन खिलाते थे। जैसे पंजाब के कार्यक्रम में टिकिया और लस्सी, कहीं कचौड़ी छाछ आदि। आज 29 शहरों में महिलाएं ही इस कार्यक्रम को संचालित करती हैं, महिला सशक्तीकरण का उद्देश्य पूरा हो रहा है। 

प्रश्न- आपने ऑनलाइन प्रतियोगिताएं भी कीं। 

संदीप- जी, जब हम ऑनलाइन कार्यक्रम करने की प्रक्रिया में थे और तकनीक की बारीकियों को सीख और समझ रहे थे उस वक्त हमने ट्विटर और इंस्टाग्राम पर हिंदी के लेखकों से जुड़ी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिताएं आयोजित कीं। ये काफी सफल रहीं और काफी लोग इसमें जुड़े। इसमें हम सही उत्तर देनेवालों को उसी लेखक की पुस्तकें भेंटस्वरूप देते थे। इसके अलावा आपको एक और बताऊं हमने हिंदी के लेखकों और ‘अहसास वूमन’ को जोड़ने के लिए ऑनलाइन अंताक्षरी कार्यक्रम भी किए। अंताक्षरी के कार्यक्रम में उषा उत्थुप भी शामिल रहीं। साहित्य से इतर हमने जो कार्यक्रम किए उसमें बिरजू महाराज, हरिप्रसाद चौरसिया जी, शुभा मुदगल जी जैसे कलाकारों से भी संवाद के कार्यक्रम किए। 

प्रश्न- क्या आप ऑनलाइन कार्यक्रमों को विस्तार देने के बारे में सोच रहे हैं। 

संदीप- ऑनलाइन कार्यक्रमों ने साहित्य और कला के क्षितिज को विस्तार दिया है। पहले ‘कलम’ का कार्यक्रम सिर्फ लंदन में होता था, अब हमारा कार्यक्रम न्यूयॉर्क और ओस्लो में शुरू हो गया है। विदेशी विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से हमारे देश के लेखकों और हिंदी की रचनात्मकता को जोड़ने का काम हमने शुरू किया है। यह आपदा में अवसर की तरह है। मेरठ में बैठकर कोई लेखक अब बहुत आसानी से न्यूयॉर्क के ऑडियंस से बात कर सकता है। 

प्रश्न- अंत में आपसे ये पूछना चाहता हूं कि ऑनलाइन कार्यक्रमों में किस तरह की दिक्कतें आईं

संदीप- बहुत विनम्रता के साथ एक बात कहना चाहता हूं, हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों में अपेक्षाकृत कम प्रोफेशनलिज्म है। जिस तरह से अंग्रेजी के प्रकाशक अपने लेखकों को सपोर्ट करते हैं, हिंदी के प्रकाशक नहीं करते। अन्य भारतीय भाषाओं में भी हम कार्यक्रम करते हैं, उन भाषाओं के प्रकाशक भी अपने लेखकों के लिए बहुत प्रयास करते हैं। हमें अंग्रेजी की किताबें अपने प्रतिभागियों को भेजने में परेशानी नहीं होती है लेकिन हिंदी की किताबों को भेजने में बहुत तरह की बाधाएं खड़ी हो जाती हैं। पर हम आशान्वित हैं कि जल्द ही हिंदी के प्रकाशक भी इसको अपना लेंगे। 


आभासी दुनिया में जीवंत होगी कलाएं


कोरोना के संकट से हमारा पूरा समाज प्रभावित हुआ। समाज को सहज होने और वातावरण को सामान्य होने में समय लगेगा। इस दौर में कलाओं के प्रदर्शन में भी बाधाएं आ रही हैं। कई महत्वपूर्ण और महात्वाकांक्षी योजनाओं को आकार लेने में विलंब हो रहा है। लेकिन कुछ लोग होते हैं जो विकल्पपहीनता को चुनौती की तरह लेते हैं और जहां चाह वहां राह की उक्ति को चरितार्थ करने में जुट जाते हैं। ऐसी  ही एक शख्सियत हैं अभिषेक पोद्दार और उपक्रम है म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी (एमएपी)। बेंगलुरू में इस वर्ष दिसंबर में म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी का शुभारंभ होनेवाला था लेकिन कोरोना संकट की वजह से इसमें देरी हो रही थी। अभिषेक पोद्दार ने आपदा को अवसर में बदलते हुए ये तय किया गया कि म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी को आभासी दुनिया यानि डिजीटल फॉर्मेट में लांच किया जाए। उनका मानना है कि बेंगलुरू की एक इमारत में संग्रहालय को जितने लोग देख सकते हैं उससे कहीं अधिक लोग इसको डिजीटल फॉर्मेट में देख सकते हैं। उन्होंने दैनिक जागरण को बताया कि इस आभासी संग्रहालय को लांच करने के पहले उन्होंने ऑनलाइन ऑडियंस के साथ कई तरह के प्रयोग किए। उसके सकारात्मक नतीजे मिले। म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी के संस्थापक ट्रस्टी अभिषेक पोद्दार खुद देश के जाने-माने कला संग्रहकर्ता और संरक्षक हैं। अभिषेक पोद्दार पिछले पैंतीस साल से कलाकृतियों का संग्रह कर रहे हैं। उनका मानना है कि म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी का डिजीटल लॉंच उनके अपने लक्ष्य को हासिल करने की शुरुआत है। अभिषेक के मुताबिक ‘इस चुनौतीपूर्ण समय में संग्रहालय और सांस्कृति संस्थाओं को अपने आप को प्रासंगिक बनाने के बारे में विचार करना चाहिए। म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी का डिजीटल लॉंच एक नए म्यूजियम के साथ एक नए युग का भी सूत्रपात करेगा। दक्षिण भारत के इस पहले निजी कला संग्रहालय की स्थापना का उद्देश्य देश में एक ऐसी संस्कृति विकसित करना है जहां लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को देख सकें। कला और संस्कृति से आत्मीय तादात्मय स्थापित कर सकें। इस संग्रहालय का उद्देश्य कला को अपने देश के लोगों के अलावा पूरी दुनिया तक पहुंचाना है। ‘आनेवाले दिनों में संग्रहालय के डिजीटल प्लेटफॉर्म पर हिंदी और कन्नड़ भाषा का विकल्प भी मौजूद रहेगा। जिससे अधिक लोग इससे जुड़ सकेंगे।

म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी  के डिजीटल शुभारंभ के अवसर पर एक सप्ताह का एक कार्यक्रम भी आयोजित किया जा रहा है। अभिषेक पोद्दार ने बताया कि वो इस कार्यक्रम के माध्यम से कला और साहित्य का उत्सव मनाने जा रहे हैं। जिसके माध्यम से लोगों को ये बताया जाएगा कि कला उऩके दैनंदिन जीवन का एक अंग है। ‘आर्ट इज लाइफ’ के नाम से 5 से 11 दिसंबर तक आयोजित होनेवाले इस वर्चुअल कार्यक्रम में संगीत, नृत्य, कविता, तकनीक जैसे विषयों पर विषय विशेषज्ञों के साथ संवाद होगा। इसमें गीतकार जावेद अख्तर, अभिनेत्री शबाना आजमी और नंदिता दास, रंगमंच की दुनिया से अरुंधति नाग, नृत्यांगना मालविका सरुक्काई, बिजनेस से किरण मजूमदार शॉ, लेखिका सुधा मूर्ति और इतिहासकार विलियम डेलरिंपल जैसी हस्तियां शामिल होंगी। म्यूजियम ऑफ आर्ट एंड फोटोग्राफी की निदेशक कामिनी साहनी के मुताबिक ‘आर्ट इज लाइफ की शुरुआत इस बात से होगी कि कैसे कलाएं एक दूसरे से जुड़ी होकर एक दूसरे को समृद्ध करती हैं।‘ आर्ट इज लाइफ के शुभारंभ के साथ ही ‘म्यूजियम विदाउट बॉर्डर’ की शुरुआत भी होगी। इसके तहत पचास विदेशी संस्थाओं के साथ साझेदारी की जाएगी। 

Saturday, November 28, 2020

प्रगतिशीलता के नाम पर बौद्धिक अपराध


इन दिनों एक वेब सीरीज को लेकर विवाद जारी है। विवादों के केंद्र में एक बार फिर ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) नेटफ्लिक्स और उसपर दिखाई जा रही सीरीज ‘अ सुटेबल बॉय’ है। ये सीरीज विक्रम सेठ की 1993 में इसी नाम से प्रकाशित औपन्यासिक कृति पर आधारित है। उपन्यास में भारत विभाजन के बाद की कहानी कही गई है, जाहिर है कि वेब सीरीज में भी इसी कहानी को चित्रित किया गया है। विवाद इस वजह से उठा कि इस सीरीज की नायिका लता और उसके मित्र कबीर के बीच मंदिर प्रांगण में चुंबन दृश्य दिखाया गया है। इस वेब सीरीज के खिलाफ रीवा में पहली शिकायत दी गई। शिकायत में कहा गया कि सीरीज में मध्य प्रदेश के महेश्वर घाट के शिव मंदिर प्रांगण में तीन बार एक मुस्लिम लड़के ने हिंदी लड़की का चुंबन लिया है जो हिंदू समाज की भावनाओं को आहत करती है। पुलिस और प्रशासन से मांग की गई कि नेटफ्लिक्स की दो अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाए। पुलिस ने आरंभिक जांच के बाद केस दर्ज कर लिया और जांच कर रही है। कानून अपना काम करेगी। इस शिकायत के बाद देश-विदेश में इस बात को लेकर चर्चा आरंभ हो गई। विदेशी अखबारों में इसकी आलोचना करते हुए लेख लिखे जा रहे हैं। अपने यहां भी इंटरनेट मीडिया पर खुद को प्रगतिशील और लिबरल समझनेवाले कथित ‘विद्वानों’ ने ‘अ सुटेबल बॉय’ के चुंबन दृश्य के चित्र को खजुराहो के मंदिर की मूर्तियों के चित्र के साथ लगाकर टिप्पणियां करनी शुरू कर दीं। अब इन तथाकथित प्रगतिशीलों को कौन समझाए कि चित्रों या फिल्मों के दृश्यों की प्रभावोत्पादकता का आकलन संदर्भों के बगैर अनुचित है। अगर ‘अ सुटेबल बॉय’ के चुंबन दृश्य और खजुराहो के चित्रों पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करें तो दोनों चित्रों के संदर्भ अलग हैं, लेकिन प्रगतिशीलों की बगैर संदर्भों को समझे या जानबूझकर किसी भी चीज को संदर्भ से काटकर प्रस्तुत करने की प्रविधि पुरानी है। 

पूरे देश ने एम एफ हुसैन के मामले में भी प्रगतिशीलों की इस प्रविधि को देखा था। हुसैन जब हिंदू देवी देवताओं के नग्न चित्र बना रहे थे तो उसको कला का उत्कृष्ट नमूना बताया गया था। उस वक्त भी उसकी तुलना खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर बनाई गई मूर्तियों से की गई थीं। उस वक्त भी इस बात को छिपा लिया गया था कि हुसैन जब किसी को अपमानित करना चाहते थे तो उसका नग्न चित्र बनाते थे। जबकि ये बात स्वयं हुसैन ने कही थी। हुआ ये था कि हुसैन ने एक बार महात्मा गांधी, कार्ल मार्क्स, आइंस्टीन और हिटलर की पेंटिंग बनाई थी। उस पेंटिंग में उन्होंने सिर्फ हिटलर को नग्न दिखाया था। जब इस बारे में उनसे सवाल पूछा गया कि पेंटिंग में उन्होंने सिर्फ हिटलर को ही नग्न क्यों चित्रित किया तो हुसैन ने साफ तौर पर कहा था कि किसी को अपमानित करना का उनका ये तरीका है। जब उनके हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाने पर विरोध हो रहा था तब खुद को उदारवादी माननेवाले या कलात्मक अभिव्यक्ति की पैरोकारी करनेवालों ने हुसैन के इस कथन को छुपा लिया था ।वो खजुराहो मंदिर की मूर्तियों के बहाने से पूरे देश को कलात्मकता की परिभाषा समझाने में जुट गए थे। उद्देश्य ये था कि हुसैन का बचाव किया जाए और उनका विरोध करनेवालों को अपनी परंपरा से अनभिज्ञ करार दिया जाए। अब एक बार फिर जब ये मसला उठा है तो खजुराहो की मंदिर की मूर्तियों की आड़ लेकर इस वेब सीरीज का बचाव किया जा रहा है। 

समग्रता में नेटफ्लिक्स पर दिखाई जानेवाली वेब सीरीज पर विचार करें तो एक पैटर्न दिखाई देता है। इस प्लेटफॉर्म पर दिखाई जानेवाली सीरीज में हिंदू धर्म या हिंदू देवी-देवताओं या हिंदू धर्म प्रतीकों का अपमानजनक तरीके से चित्रण किया जाता रहा है। वेब सीरीज ‘लैला’ से लेकर ‘द सूटेबल बॉय’ तक में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ये दिखता है। नेटफ्लिक्स ही क्यों अन्य ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर भी हिंदू धर्म प्रतीकों का अक्सर ही मजाक उड़ाया जाता है। संवादों में भी भावनाएं आहत करनेवाली टिप्पणियां की जाती हैं। पात्रों के नाम भी इस तरह से रखे जाते हैं जो इनकी मंशा को साफ तौर पर उजागर करते हैं। प्राइम वीडियो पर एक वेब सीरीज आई थी ‘पाताल लोक’ उसमें पालतू कुतिया का नाम सावित्री रखा गया था। अब इसके पीछे की मंशा क्या हो सकती है, समझा जा सकता है। यूट्यूब पर मसखरी करनेवाले कई हास्य कलाकार भी हिंदू देवी देवताओं को लेकर कैसी भी बात बोल जाते हैं। शंकर भगवान को लेकर जाने कैसी कैसी फूहड़ बातें कही जाती हैं बगैर शिव के व्यक्तित्व को समझे। हनुमान जी को लेकर भी उलजलूल टिप्पणियां की जाती हैं। हमारे पौराणिक ग्रंथ में वर्णित चरित्रों को लेकर भी अपमानजनक बोल बोले जाते हैं। इन सब बातों को लेकर किसी को आपत्ति हो और वो भारतीय संविधान के अंतर्गत कानून का सहारा लेता है तो देश को आहत भावनाओं का गणतंत्र करार दे दिया जाता है। ये सिर्फ वेब सीरीज आदि में ही नहीं दिखता है, फिल्मों में बहुधा इस तरह की बातें दिख जाती हैं। फिल्म ‘पीके’ से लेकर ‘ओ माई गॉड’ तक के संवाद और दृश्य देखे जा सकते हैं।

इसका एक दूसरा पक्ष भी है। जब भी किसी फिल्म में किसी मुस्लिम चरित्र को खलनायक के तौर पर पेश किया जाता है तो उसपर भी आपत्ति शुरू हो जाती है। यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि फिल्म ‘पद्मावत’ में खिलजी के चरित्र चित्रण पर भी कई लोगों को आपत्ति हुई थी।  फिल्म में खिलजी के चरित्र चित्रण को इतिहास के मलबे में दबे दुर्गुणों को पेश करने जैसा बता दिया गया था। तब मलिक मुहम्मद जायसी लिखित काव्य पद्मावत की व्याख्या की जाने लगी थी। कई लोगों ने इस बात को भी रेखांकित किया कि फिल्म में हिंदू राजा को अच्छा और मुस्लिम राजा को बर्बर दिखाया गया था। तब दक्षिण एशियाई साहित्य के विदेशी विद्वान थॉमस ड ब्रूइन की पुस्तक ‘रूबी इन द डस्ट’ का सहारा लिया गया था। इस पुस्तक में ब्रूइन ने जायसी की कृति पद्मावत की व्याख्या की है। जब भी किसी फिल्म में मुसलमानों को आक्रांताओं के तौर पर दिखाया जाता है तो ये कथित प्रगतिशील तबका येन केन प्रकारेण उसकी आलोचना में जुट जाते हैं और इधर उधर से तर्क जुटाने की कोशिश करते हैं। इस बात की पैराकारी भी करने लगते हैं कि इतिहास को धर्म के आधार पर व्याख्यायित करना गलत होगा। इसी तरह से जब फिल्म ‘मणिकर्णिका’ के एक सीन में अंग्रेज सैनिक बछड़े को पकड़कर कर उसका मांस खाने की तैयारी में होते हैं तो रानी लक्ष्मीबाई बछड़े को अंग्रेज सैनिकों के चंगुल से छुड़ाती हैं। वहां रानी लक्ष्मीबाई का एक संवाद है कि ‘जिस धरती पर तुम लोग खड़े हो वहां के लोगों और उनकी भावनाओं का सम्मान करना सीखो।‘ इस दृश्य और संवाद में कुछ गलत नहीं था लेकिन इसको हिंदू राष्ट्रवाद से जोड़ दिया गया। ये भी याद दिलाने की कोशिश की गई कि रानी लक्ष्मीबाई और आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय अंग्रेजों के खिलाफ उस लड़ाई में साथ थे। इस तरह के ढेरों उदाहरण हैं जहां एक ही तरह की स्थिति में हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग अलग मानदंड हैं। एक ही तरह की स्थितियों को देखने के लिए अलग अलग प्रिज्म है। ये एक तरह का बौद्धिक अपराध है जिसके लिए किसी कानूनी सजा का प्रावधान नहीं है इसको तो बौद्धिकता के अखाड़े में ही चुनौती देनी होगी। 


Saturday, November 21, 2020

ज्ञान से लव जिहाद का प्रतिकार संभव


वर्तमान में एक बार फिर से लव जेहाद को लेकर बहस छिड़ी हुई है। उत्तर प्रदेश के कानपुर और अन्य इलाकों में लव जिहाद की कई घटनाओं ने लोगों का इस ओर ध्यान खींचा। इन घटनाओं के बाद उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश समेत कुछ अन्य राज्य लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने की तैयारी में हैं। इस बीच राजस्थान के मुख्यमंत्री ने इसके खिलाफ अपनी राय सामने रख दी। लव जिहाद पर जारी इस बहस के बीच खुद के प्रगतिशील होने का दावा करनेवाले विश्लेषकों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी की शादी को लेकर भी लव जिहाद के खिलाफ कानून की बात करनेवालों का उपहास करना शुरू कर दिया। यहां वो ये भूल गए कि जिस लव जिहाद के खिलाफ कानून की बात हो रही है उसके मूल में धोखा देकर या नाम बदलकर विवाद करने का मामला है। न तो नकवी ने नाम बदलकर प्रेम किया और न ही शाहनवाज ने नाम बदलकर शादी की। ये अवांतर प्रसंग है लेकिन यहां ये उल्लेख करना आवश्यक है कि प्रगतिशीलता और निष्पक्षता का बाना धारण करनेवाले तथाकथित बुद्धिजीवी हर मसले में घालमेल करने में सिद्धहस्त हैं।लव जिहाद पर बनने वाले कानून को अगर वो प्रेम और प्यार की राह में बाधा से जोड़ दें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। खैर..इस पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल बात लव जिहाद पर ।

इन दिनों लव जिहाद एक बेहद गंभीर सामाजिक समस्या के तौर पर उपस्थित हुआ है जिसका फायदा आपराधिक मनोवृत्ति के लोग उठा रहे हैं। धोखा देकर लड़कियों को अपने प्रेम के जाल में फंसाना और फिर शादी कर लड़की का धर्मांतरण करवाना आ उसके लिए दबाव बनाना ही लव जिहाद के मूल में है। कहीं पढ़ा था कि किसी भी सामाजिक परिवर्तन की रफ्तार अगर धीमी रहती है तो उसको सुधार कहकर परिभाषित किया जाता है और अगर वो सामाजिक परिवर्तन काफी तेजी से होता है तो उसको क्रांति कहा जाता है। इसी तरह से अगर कोई सामाजिक बुराई धीमी गति से फैलती है तो उसपर अंकुश लगाने के लिए दीर्घकालिक योजना की जरूरत होती है लेकिन अगर सामाजिक बुराई तीव्र गति से फैलने लगती है तो उसको कानून के डंडे और सामाजिक जागृति से काबू में लाया जाता है।

पिछले दिनों जिस तरह से लव जिहाद के मामले बढ़े हैं उसको रोकने के लिए कानून बनाने की सोच उचित प्रतीत होती है। लव जिहाद जैसी सामाजिक बुराई को सिर्फ कानून बनाकर दूर नहीं किया जा सकता है। इसके लिए संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में भी काम करना आवश्यक होगा। दरअसल हमारे देश में गंगा-जमुनी तहजीब का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया गया उसका निषेध करना होगा। ऐसी कोई संस्कृति हमारे देश में नहीं है। गंगा जमुनी तहजीब के साथ साथ इस अवधारणा को भी दूर करने का उपक्रम करना होगा कि भारत विविध संस्कृतियों का देश है। हमारे देश की संस्कृति एक ही है, एक ऐसी संस्कृति जहां हम तमाम तरह की विविधताओं का उत्सव मनाते हैं। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है कि वो सबको अपने अंदर समाहित करता चलता है। भारतीय संस्कृति के सामाजिक रूप पर अगर विचार करें तो यह पाते हैं कि आर्यों और आर्येतर जातियों ने साथ मिलकर एक संस्कृति को मजबूत किया जिसे हिंदी संस्कृति के तौर पर जाना गया। मुसलमानों के भारत में आगमन के पहले जब तुर्क और मंगोल आदि भारत आए तो उन्होंने यहां की संस्कृति को अपनाया। नतीजा यह हुआ कि विविधता और बढ़ गई। इस अवधारणा को पुष्ट करने के लिए विद्यालय स्तर पर काम करने की जरूरत है। अभी हाल ही में पेश की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात के संकेत तो हैं लेकिन बहुत स्पष्ट रूप से इसको सामने रखने की जरूरत है। स्पष्टता के साथ नीति सामने आएगी तो फिर उसके क्रियान्वयन के लिए प्रयास करना होगा। 

नैतिक शिक्षा की बात बार-बार की जाती है और तथाकथित प्रगतिशील तबका उसका उपहास करती रही है, लेकिन आज की सामाजिक समस्या को ध्यान में रखते हुए नैतिक शिक्षा की आवश्कता एक बार फिर से महसूस होने लगी है। सामाजिक और पारिवारिक संस्कार शिक्षा के मूलाधारों में से एक होना चाहिए। कथित प्रगतिशील तबका भारतीय संस्कृति या यों कहें कि हिंदू संस्कृति का ये कहकर मजाक उड़ाती रही है कि यहां लोक से अधिक परलोक को प्रधानता दी गई है। ऐसा कहने के पीछे उनका उद्देश्य यह होता है कि वो ये साबित करें कि हिंदू संस्कृति जिंदगी को जीने या संघर्ष करने की प्रेरणा नहीं देता है बल्कि पलायन की राह दिखाता है। ऐसे कथित प्रगतिशील विद्वानों को ये नहीं पता कि उनके इन तर्कों का आधार उनका अज्ञान है। हम वैदिक धर्म का सूक्षमता से अध्ययन करें तो पाते हैं कि वहां संन्यास की नहीं बल्कि गृहस्थधर्म की प्रधानता है। ऋगवेद में तो इस बात का उल्लेख मिलता है कि ऋषि वैराग्य की कामना वहीं करते बल्कि वो इंद्र से ये कहते हैं कि ‘हमारे घोड़ों को पुष्ट करो, हमारी संततियों को बलवान बनाओ, हमारे शत्रुओं को कमजोर करो आदि आदि।‘ ऋगवेद में समाज और संस्कृति की जो रेखा दिखाई देती है उसका ही विस्तार रामायण और महाभारत में भी दिखता है। गीता में भी कर्मयोग पर जोर दिया गया है। ये सारी बातें विस्तार से नई पीढ़ी को बतानी होगी। उनको पौराणिक ग्रंथों में वर्णित ज्ञान से संस्कारित करना होगा। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय मिलकर एक समेकित योजना पर काम करें। इसके लिए किसी नए संस्थान बनाने की जरूरत भी नहीं बल्कि जो संस्थाएं पहले से काम कर रही हैं उनकी कार्यप्रणाली को ठीक करके उनसे ये काम करवाया जा सकता है। बस संस्कृति और उसको मजबूत करने में रुचि की होनी चाहिए।

शिक्षा और संस्कृति को मजबूत करके हम समाज में अपने युवाओं को इस तरह से संस्कारित कर सकते हैं जिससे वो सभ्यता के दुर्गुणों के पीछे नहीं भागें। दिनकर ने सभ्यता और संस्कृति को बहुत कायदे से परिभाषित किया है। उनके अनुसार ‘सभ्यता वह वस्तु है जो हमारे पास है, संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं। प्रत्येक सुसभ्य व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं होता क्योंकि संस्कृति का निवास मोटर, महल और पोशाक में नहीं, मनुष्य के ह्रदय में होता है।‘ नई शिक्षा नीति में संस्कृति को लेकर जो चीजें छूट गई हैं उसको राष्ट्रीय संस्कृति नीति बनाकर शामिल किया जा सकता है। आजाद भारत के इतिहास में अबतक हमारे देश की कोई संस्कृति नीति नहीं बनी। संस्कृति के क्षेत्र में जो लोग सक्रिय रहे उनकी सोच के हिसाब से काम होता रहा। पहले पुपुल जयकर और बाद के दिनों में कपिला वात्स्यायन की सोच सरकारी की संस्कृति को लेकर बनने वाली नीतियों को प्रभावित करती रही। इमरजेंसी के बाद के दौर में वामपंथियों की सोच ने भी भारत सरकार की नीतियों को प्रभावित किया। विदेश से आयातित विचारों के आधार पर भारतीय संस्कृति को सिर्फ व्याख्यायित ही नहीं किया गया बल्कि उसको प्रभानित करने की नापाक कोशिश भी हुई।समग्रता में संस्कृति नीति के बारे में कभी सोचा गया हो ऐसा ज्ञात वहीं है। अब जब सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की दिशा में ठोस कदम उठाया है तब देश के लिए एक समग्र सांस्कृतिक नीति को लेकर भी विचार करना चाहिए। अगर मौजूदा सरकार इस देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ साथ एक समग्र संस्कृति नीति बनाने और उसको लागू करने पर विचार करती है तो लव जिहाद जैसी सामाजिक समस्याएं न्यून हो सकती हैं।

Friday, November 13, 2020

नियमन से सकारात्मक बदलाव की आस


मेरा बचपन गांव में बीता है। अपने गांव में सुना करता था कि मंदिर के पास की जमीन गैर-मजरुआ है। गैर-मजरुआ का शाब्दिक अर्थ भले ही ये होता है कि जो जमीन जोती न जाती हो या कृषि योग्य न हो। लेकिन गांव में रहते हुए ये समझ आया था कि गैर-मजरुआ जमीन वो होती है जिसपर किसी का मालिकाना हक नहीं होता है। इस जमीन का कोई दस्तावेज किसी के पास नहीं होता था। ये गांव की एक ऐसी जमीन होती है जिसके बारे में किसी को नहीं पता वो किसकी है। जो भी ताकतवर होता था वो उस जमीन पर कब्जा कर लेता था या फिर जिस तरीके से मन होता था उसका उपयोग करता था। इस तरह की जमीन को लेकर गांव में बहुधा झगड़ा-झंझट भी होता रहता था। कई बार मेरे गांव के बड़े बुजुर्ग मिल बैठकर ये तय कर देते थे कि इस जमीन का उपयोग सबलोग करेंगे लेकिन ये समझौता ज्यादा दिन चल नहीं पाता था। फिर से उस जमीन को लेकर मनमानी शुरू हो जाती थी। धीरे धीरे उस जमीन के आसपास रहनेवाले लोग भी उसपर अपनी दावेदारी जताने लगते थे। सरकार को मालगुजारी देकर भी गैर-मजरुआ जमीन पर फर्जी तरीके से मालिकाना हक की बात भी हम बचपन में सुनते थे। किसी भी गैर-मजरुआ जमीन को लेकर जब विवाद बढ़ता था तो जिलाधिकारी या उनका प्रतिनिधि इसका भविष्य तय कर देता था।  

पिछले तीन चार साल से ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म्स को देखकर हमेशा से ये लगता था कि ये गैर-मजरुआ जमीन की तरह है। वैसे तो हमारे देश में 2008-09 में ही ओटीटी प्लेटफॉर्म की शुरुआत हो गई लेकिन 2015 में जब स्टार इंडिया ने हॉटस्टार लांच किया तो पूरे देश का ध्यान इस माध्यम की ओर गया। इसके बारे में इस वजह से भी ज्यादा चर्चा हुई थी क्योंकि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के प्रसारण का अधिकार स्टार इंडिया के पास था । आईपीएल के मैच को हॉटस्टार पर भी देखा जा सकता था। इसके एक साल बाद नेटफ्लिक्स ने भी हमारे देश में अपने प्लेटफॉर्म को लांच किया। अब तो दर्जनों ओटीटी प्लेटफॉर्म देश के दर्शकों के लिए उपलब्ध हैं। ज्यादातर ओटीटी प्लेटफॉर्म एक तय शुल्क पर ग्राहकों को अपनी सेवा देते हैं लेकिन कुछ मुफ्त भी उपलब्ध हैं। इन प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाने वाले कंटेंट को लेकर पिछले तीन-चार साल से देशभर में बहस चल रही है। इस स्तंभ में भी कई बार ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर लिखा जा चुका है। वापस लौटते हैं इन प्लेटफॉर्म और गैर-मजरुआ जमीन की तुलना वाली बात पर। दरअसल ओटीटी प्लेटफॉर्म पर परोसी जानेवाली सामग्री को देखकर यही भान होता था कि इसकी हालत भी गैर-मजरुआ जमीन जैसी है। किसी को पता नहीं था कि इस तरह के प्लेटफॉर्म किस कानून या किस मंत्रालय के अधीन हैं। चूंकि इन प्लेटफॉर्म्स के प्रशासनिक अधिकार को लेकर बहुत स्पष्टता नहीं थी। इसपर दिखाए जानेवाले कंटेंट को लेकर किसी प्रकार की कोई कानूनी सीमा नहीं है। इसको रेगुलेट करनेवाली कोई संस्था नहीं है लिहाजा यहां लगभग अराजकता जैसा माहौल है। जिसको जो मन हो रहा है वो दिखाया जा रहा है। धर्म और धार्मिक प्रतीकों को किसी खास एजेंडे के तहत व्याख्यायित किया जा रहा है। हिंदू या सनातन धर्म को लेकर इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है जैसे भारत बस हिंदू राष्ट्र बनने ही जा रहा है। 

2018 में नेटफ्लिक्स पर प्रसारित एक सीरीज ‘लैला’ में तो चालीस साल बाद हिंदुओं की काल्पनिक कट्टरता को उभारने के उपक्रम की कहानी दिखाई गई थी। परोक्ष रूप से एक फेक नैरेटिव खड़ा किया गया था। उस वेब सीरीज में भविष्य के भारत की जो तस्वीर दिखाई गई थी उसमें हिन्दुस्तान नहीं होगा, उसकी जगह आर्यावर्त होगा। वहां राष्ट्रपिता बापू नहीं होंगे बल्कि एक आधुनिक सा दिखने वाला शख्स जोशी उस राष्ट्र का भाग्य-विधाता था। आर्यावर्त के लोगों की पहचान उनके हाथ पर लगे चिप से होती थी। लोग एक दूसरे का अभिवादन ‘जय आर्यावर्त’ कहकर करते थे। आर्यावर्त में दूसरे धर्म के लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी।  कुल मिलाकर एक ऐसी तस्वीर रची गई थी जो ये साफ तौर पर बताती थी कि भविष्य का भारत हिंदू राष्ट्र होगा और तमाम कुरीतियां मौजूद होंगी। ‘आर्यावर्त’ में अगर कोई हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से शादी करती है तो उसके पति की हत्या कर लड़की को आर्यावर्त के ‘शुद्धिकरण केंद्र’ ले जाया जाता है। धर्म के अलावा वहां सामाजिक विद्वेष को बढ़ानेवाला जातिगत भेदभाव को पेश किया गया था। इस सीरीज के अलावा कई अन्य वेब सीरीज में खास राजनीति एजेंडे के तहत विचारधारा विशेष को महिमामंडित और दूसरे का निंदाख्यान पेश किया जाता है। किसी में पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था पर अनर्गल आरोप की शक्ल में उनका चित्रण किया जा रहा है। कहीं जुगुप्साजनक हिंसा और यौनिकता, अप्राकृतिक यौनाचार का फिल्मांकन किया जा रहा है। एक सीरीज में तो खुलेआम यौन प्रसंगों के लंबे लंबे दृश्य बेहद घटिया तरीके से दिखाया गया। संवादों में निम्नतम स्तर की गालियों का उपयोग तो वेबसीरीज की पहचान ही बन गई है। गालियां भी जबरदस्ती ठूंसे हुए प्रतीत होते हैं। जिन भौगोलिक इलाकों की कहानियां होती हैं, उन इलाकों में चाहे उस तरह की गालियों का प्रयोग हो या न हो, इन वेबसीरीज उस तरह की गालियों की भरमार रहती हैं। ओटीटी पर चलनेवाले एक वेबसीरीज में भारतीय वायुसेना और कश्मीर को लेकर भी देशहित के विपरीत कहानियां गढ़ी गई और उसको इन अराजक प्लेटफॉर्म पर दर्शकों के सामने पेश किया जाता रहा है।

स्थिति चूंकि स्पष्ट नहीं थी कि ये प्लेटफॉर्म किस मंत्रालय के दायरे में आते हैं तो किसी प्रकार की कोई कार्रवाई हो नहीं पाती थी। वेब सीरीज में आपत्तिजनक मामले के खिलाफ अदालतों में कई मुकदमे हुए। मंत्रालयों को अदालती नोटिस गए। उस समय तक स्थिति साफ नहीं थी कि ओटीटी के लिए संचार और सूचना प्रोद्योगिकी मंत्रालय जिम्मेदार है या सूचना और प्रसारण मंत्रालय। अब जाकर केंद्र सरकार ने ये तय कर दिया है कि ओटीटी का मामला सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आएगा। अब जबकि ओटीटी नाम के इस गैर-मजरुआ जमीन का मालिकाना हक तय कर दिया गया है तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वो इसके लिए यथोचित नियम कानून बनाए।

पिछले तीन साल से सूचना और प्रसारण मंत्रालय ओटीटी के लिए निमयन बनाने की दिशा में काम भी कर रहा था। ओटीटी प्रदाता कंपनियों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के कई दौर भी हुए थे। कई प्रस्ताव भी तैयार हुए लेकिन उसपर सहमति नहीं बन पाई थी। इस वर्ष सितंबर में भी 15 बड़े ओटीटी प्लेटफॉर्म ने स्वनियमन का एक प्रस्ताव तैयार किया था। इसमें कंटेंट का वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया था लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसको खारिज कर दिया था। ओटीटी के बारे में नियमन तय करने के पहले यहां पेश किए जानेवाले कंटेंट पर समग्रता में विचार करना चाहिए। कुछ ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जो भारतीय समाज और यहां की संस्कृति को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए। इस बात का ङी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कंटेंट में हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को उसका मूल आधार न बताया जाए। समाज को बांटने वाली बातें न हो, देश की व्यवस्था के खिलाफ जनता के मन में जहर भरने का परोक्ष उपक्रम न हो। परोक्ष रूप से संवाद में इस तरह की बातें न हों जो किसी विचारधारा विशेष का पोषण करती हों। विदेशी सीरीज को भी हमारे देश में जस का तस दिखाए जाने को लेकर विचार किया जाना चाहिए। वैश्विक श्रृंखला के नाम पर नग्नता और जुगुप्साजनक हिंसा को दिखाए जाने की प्रवृत्ति को सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाना चाहिए। इस बात पर भी विचार हो कि क्या हमारा समाज कुछ पश्चिमी देशों की तरह की नग्नता के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए तैयार है। भारतीय सेना को दिखाते समय इस बात का ध्यान रहे कि राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय मंच पर उसकी बदनामी न हो और उनके मनोबल पर इसका असर न पड़े। 

कुछ लोग अभी से आशंकित हैं। ओटीटी के आसन्न नियमन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर इसकी आलोचना के संकेत देने लगे हैं। उनको पता होना चाहिए कि हमारे देश में मनोरंजन सेक्टर को लेकर पहली बार नियमन नहीं होगा। उदारीकरण के दौर में जब देश में निजी टीवी चैनलों का आगमन हुआ था तब भी कई मनोरंजन चैनलों पर अंतराष्ट्रीय कंटेंट या प्रोग्राम दिखाने को लेकर देशव्यापी बहस हुई थी। भारतीय संस्कृति को और समाज को ध्यान में रखते हुए उस वक्त की सरकार ने भी 1995 में केबल टेलीविजन नेटवर्क रेगुलेशन एक्ट बनाया था। अंतराष्ट्रीय चैनलों के हमारे देश में प्रसारण के लिए अनुमति देने के पहले डाउनलिंकिंग लाइसेंसिंग की व्यवस्था की गई थी। उन नियमनों के बाद हमारी संस्कृति और समाज की संवेदनाओं को ध्यान में रखकर स्थानीय स्तर पर ही प्रोग्राम बनने लगे। नतीजा यह हुआ कि आज हमारे देश का टीवी उद्योग बेहद समृद्ध है। अगर समाचार पत्र, न्यूज चैनल, मनोरंजन चैनल या सिनेमा के लिए नियमन है तो फिर ओटीटी को लेकर क्यो नहीं। किसी भी तरह का अनुशासन उस क्षेत्र के विकास में ही सहायक होता है। अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय के सामने चुनौती ये है कि ओटीटी को लेकर वो जो नियमन की व्यवस्था बनाए वो इस क्षेत्र को मजबूत करनेवाला हो बाधित करनेवाला नहीं।   

Saturday, November 7, 2020

वैचारिक तंत्र और राजाश्रय का संबंध


इन दिनों न्यूज चैनल और उसके क्रियाकलाप खूब चर्चा में हैं। पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद की कवरेज को लेकर, फिर फिल्मी दुनिया और ड्रग्स को लेकर, टीआरपी सिस्टम में घोटाले की खबरों को लेकर और अब न्यूज चैनल रिपब्लिक के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर। जहां भी चार पांच लोग बैठते हैं तो मीडिया और खबरों की चर्चा शुरू हो जाती है। कोरोना काल में लंबे समय के बाद लोगों का मिलना जुलना शुरू हुआ है। एक मित्र की पुस्तक आई थी, उसने उसके बहाने से मिलने जुलने का कार्यक्रम रखा था। हम सबलोग तय स्थान पर पहुंचे, पुस्तक के प्रकाशन पर बधाई आदि का दौर चला। बातों-बातों में किसी ने अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी की चर्चा छेड़ दी। एक मित्र ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी वाले खुलकर अर्नब के समर्थन में आ गए हैं, कई मंत्रियों ने उनके समर्थन में ट्वीट किया है। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता भी उनके समर्थन में प्रदर्शन आदि कर रहे हैं। अर्नब और बीजेपी की चर्चा हो ही रही थी कि दूसरे मित्र ने बात काट दी और कहा कि ये कैसा समर्थन जिसमें सिर्फ ट्वीट पर अपनी बात कहकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ ले। उनको किसी प्रकार की सहायता हुई हो ऐसा तो दिख नहीं रहा। राइट विंग के समर्थकों से बेहतर तो लेफ्ट विंग के लोग हैं जो अपने समर्थकों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। बहस में दोनों की आवाज ऊंची होने लगी थी। लेकिन बाकी मित्र मजे ले रहे थे। चर्चा जब शुरू हुई तो किसी को अंदाज नहीं था कि अर्नब की गिरफ्तारी से शुरू हुई ये चर्चा वैचारिक धरातल पर चली जाएगी।

अब बहस इस बात पर होने लगी थी कि लेफ्ट और राइटविंग के लोगों में क्या अंतर है। बातचीत राजनीति से इतर कला संस्कृति और पत्रकारिता के क्षेत्र को लेकर हो रही थी। एक मित्र ने बेहद आक्रामक तरीके से चर्चा में दखल दिया और कहने लगे कि लेफ्ट का जो इकोसिस्टम है वो राइट के लोग कभी बना ही नहीं पाएंगें या उसको बनाने में दशकों लगेंगे। लेफ्ट ने अपना जो इकोसिस्टम (तंत्र) बनाया, विकसित किया और उसको मजबूत किया उसके पीछे उनको सालों से मिला सत्ता का संरक्षण है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक और फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस सालों तक लेफ्ट इकोसिस्टम को खाद पानी मिलता रहा। ना सिर्फ खाद पानी मिला बल्कि उन्होंने अपने लोगों को बड़ा और मजबूत बनाने का उपक्रम भी चलाया। पत्रकारिता की ही बात करें तो वहां कार्य कर रहे लोगों को विभिन्न तरीकों से मजबूती प्रदान की। बगैर किसी हिचक के या ये सोचे कि कौन क्या कहेगा। नतीजा ये है कि आज भी उनके इकोसिस्टम के लोग नियमत रूप से अपनी विचारधारा को समर्थन देने और उस विचारधारा से उत्पन्न राजनीति का पोषण करते दिख जाएंगे। इसके अलावा वो तमाम लोग वाम विचारों के विरोधी दक्षिणपंथी विचारधारा के विरोध में भी हमेशा एकजुट दिखते हैं। वो इतने पर ही नहीं रुका उसने कहा कि अर्नब की गिरफ्तारी के समय लोगों ने इसको अच्छी तरह से देखा। जिस तरह से पुलिस सुबह छह बजे अर्नब को गिरफ्तार करने पहुंची और उसके परिवार के सामने उनके साथ धक्कामुक्की की, अगर ऐसा किसी लेफ्टविंग के समर्थक पत्रकार के साथ होता तो कल्पना कीजिए क्या होता! उत्तर प्रदेश सरकार ने एक संपादक को गलत तथ्यों के साथ अपनी वेबसाइट पर लेख प्रकाशित करने के लिए सिर्फ नोटिस भेजा था तो लोगों ने आसमान सर पर उठा लिया था। इंटरनेट मीडिया पर लेख लिखे जाने लगे थे। फेसबुट ट्विटर पर टिप्पणियां आने लगीं थीं। अंतराष्ट्रीय लॉबियां सक्रिय हो गई थीं कि उनकी गिरफ्तारी ना हो। गिरफ्तारी नहीं हुई। लेकिन अर्नब के केस में पूरी दुनिया देख रही है। उनकी पत्नी और बेटे पर भी केस कर दिया गया। लेकिन इंटरनेट मीडिया पर ट्वीट्स के अलावा क्या हुआ? उसको कहां से कितनी मदद मिली। क्या कोई लॉबी उसको जमानत दिलवाने के लिए सक्रिय हुई? कम से कम सार्वजनिक रूप से तो ऐसा ज्ञात नहीं हो सका। जिन न्यूजरूम से सरकारें बनाई जाती थीं, मंत्रियों के विभाग तय किए जाते थे वहां काम करनेवाले लोग आज भी नैतिकता के झंडाबरदार बने हुए हैं। 

हमारी चर्चा में शामिल मित्रों में से एक मित्र वामपंथी रुझान का भी था। उसने इस गर्मागर्म चर्चा को अपनी बातों से और भड़का दिया। उसने कहा कि तुम राइटविंग के लोगों की दिक्कत ये है कि अब भी तुमलोग हमसे ही स्वीकृति चाहते हो। मैं कई ऐसे उदाहरण दे सकता हूं जहां दक्षिणपंथी लेखक या सांस्कृतिक संस्थाओं के मुखिया की ये आकांक्षा रहती है कि वामपंथी खेमे से उनके लिखे को या उनके काम को स्वीकृति या मान्यता मिल जाए। मेरे दक्षिणपंथी मित्र ने हल्का सा विरोध करने जैसा कुछ कहा लेकिन उसकी बात पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। वामपंथी मित्र बोले चले जा रहा था कि जबतक लेफ्ट से मान्यता या स्वीकार की आकांक्षा की प्रवृत्ति रहेगी तबतक न तो कोई वैकल्पिक नैरेटिव खड़ा हो सकेगा और ना ही कोई वैकल्पिक इकोसिस्टम बना पाओगे। फिर मजे लेने के लिए तो उसने यहां तक कह दिया कि वामपंथी लेखकों, पत्रकारों या अकादमिक जगत के लोगों को जितना राजाश्रय मिला था उतना दक्षिणपंथी लेखकों आदि को कहां मिलता है। वामपंथी मित्र मजे भी ले रहा था, उसने पूछा कि अच्छा चलो ये बताओ कि किस राइटविंग पत्रकार को सैंतीस साल की उम्र में पद्मश्री मिला?  

उसने कहा कि काम कैसे होता है, ये मैं बताता हूं आप लोगों को, ध्यान से सुनिए और कहीं कह सकते हों तो कहिए भी। आपलोग याद करो जब मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की पराजय के बाद कमलनाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने एक आदेश से पूरे सूबे की उन समितियों आदि को भंग कर दिया जो शिक्षा, कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी थी। इसी तरह से 2004 में जब केंद्र में यूपीए सरकार आई थी तो संगीत नाटक अकादमी से सोनल मानसिंह को और सेंसर बोर्ड से अनुपम खेर को हटा दिया गया था। याद करो तब कोई हो-हल्ला मचा था क्या? कोई भी इकोसिस्टम इसी तरह से साल दर साल मजबूत किया जाता है। अपने लोगों बिठाओ और विरोधियों को हटाओ। आपके यहां क्या होता है, उन पदों को भी सरकार नहीं भर पाती है जो सालों से खाली पड़े हैं, समितियों के सदस्यों की तो बात ही अलग है। संस्कृति से जुड़े तीन मंत्रालयों में कम से कम दो दर्जन संस्थान हैं जिनके मुखिया का पद खाली है। कांग्रेस को इकोसिस्टम बनाना होता है तो वो अशोक वाजपेयी के लिए वर्धा में एक विश्वविद्यालय स्थापित कर देती है और वहां उनको कुलपति बना देती है। पांच साल तक वो दिल्ली में रहते हुए वर्धा का विश्वविद्यालय चलाते हैं। आपके यहां क्या होता है कि बहुत मेहनत से एक  भारतीय भाषा के विश्वविद्यालय की संकल्पना को मूर्त रूप देने का उद्यम किया जाता है और नया मंत्री आकर उसको खारिज कर देता है। वामपंथी मित्र बोल रहा था और आमतौर पर आक्रामक रहनेवाले मेरे अन्य मित्र खामोश थे। ऐसा लग रहा था कि वो उसकी बातों से सहमत हो रहे हों। एक मित्र जिसको सबलोग घोर राइटविंगर कहते हैं, खामोशी से सब सुन रहा था। जब वामपंथी मित्र बोलते बोलते थोड़ा रुका तो वो जोर से बोल पड़ा हां ठीक है गलती मेरी ही है कि मैं राइट विंग का समर्थक हूं। बंद करो ये सब। और वो उठकर चला गया। सभा समाप्त हो गई।  


Saturday, October 31, 2020

विसंगतियों की जकड़न में फिल्म विभाग


कोविड काल में कई महीनों तक सिनेमा हॉल बंद रहने के बाद जब खुला तो एक दिन सोचा कि फिल्म देखने चला जाए। पहुंचा। कम लोग थे। थोड़े इंतजार के बाद फिल्म का प्रदर्शन शुरू हुआ। फिल्म के पहले कुछ विज्ञापन भी चले। राष्ट्रगान भी हुआ। राष्ट्रगान खत्म हुआ तो दिमाग में एक बात कौंधी। कई साल पहले सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने के पहले फिल्म प्रभाग, भारत सरकार की शॉर्ट फिल्में चला करती थीं। इन फिल्मों में भारत सरकार की उपलब्धियों का बखान होता था। देश के प्रधानमंत्री के कामों को उनके देश विदेश के दौरों को दिखाया जाता था। अगर वो किसी महत्वपूर्ण इमारत का शिलान्यास आदि करते थे को उसको भी इन फिल्मों में दिखाया जाता था। सिर्फ सिनेमाघरों में ही नहीं बल्कि विद्यालयों आदि में जब साप्ताहिक फिल्मों का प्रदर्शन होता था तब भी फिल्म प्रभाग की ये छोटी फिल्में चला करती थीं। ये वो दौर था जब स्कूलों में छात्रों को हर महीने के तीसरे या चौथे शुक्रवार को फिल्में दिखाई जाती थीं। भारत सरकार का फिल्म प्रभाग ही इसका आयोजन करती थी और स्कूलों में पर्दा और प्रोजेक्टर लगाकर फिल्में दिखाई जाती थीं। फिल्मों के पहले दिखाई जाने वाली फिल्म प्रभाग की ये छोटी छोटी प्रमोशनल फिल्में इस तरह से पेश की जाती थीं कि दर्शकों को लगता था कि उसमें दिखाई जानेवाली उपलब्धियां देश की हैं। जबकि परोक्ष रूप से वो उस समय के प्रधानमंत्रियों की छवि चमकाने का काम करती थी।

महेन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा’ में लिखा है, ‘सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म्स डिवीजन की स्थापना 1948 में हुई। फिल्म्स डिवीजन उस समय शायद दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक केंद्र था जिसमें समाचार और अन्य राष्ट्रीय विषयों पर वृत्तचित्र बनाए जाते थे। ये वृत्तचित्र, समाचार चित्र और लघु फिल्में पूरे देश में प्रदर्शन के लिए बनती थीं। प्रत्येक फिल्म की नौ हजार प्रतियां बनती थीं जिनकी संख्या कभी कभी चालीस हजार तक पहुंच जाती थीं। ये भारत की तेरह प्रमुख भाषाओं और अंग्रेजी में पूरे देश में सभी सिनेमाहॉलों में मुफ्त प्रदर्शित की जाती थीं। समाचर चित्रों और लघु फिल्मों एवं वृत्तचित्रों का परोक्ष रूप से दर्शकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा जिसने उनकी रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।‘  

दर्शकों पर व्यापक प्रभाव और रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका की बात, हो सकता है, महेन्द्र जी सिनेमा के संदर्भ में कह रहे हों लेकिन इस बात पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि इन लघु फिल्मों के माध्यम से राजनीतिक हित कितने सधे। किसके सधे। जब फिल्म प्रभाग की न्यूज रील चला करती थी और नेहरू जी, इंदिरा जी और राजीव जी के सर भारत की तमाम उपलब्धियों का सेहरा बंधता था तो दर्शकों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता होगा। स्कूली छात्रों पर उसका कितना और कैसा प्रभाव पड़ता होगा। किस तरह से राजनीतिक रुचि बदलती होगी?  फिल्म प्रभाग की स्थापना तो इस उद्देश्य से की गई थी कि ये देश में फिल्मों की संस्कृति को विकसित और मजबूत करेगा। लेकिन अपनी स्थापना के शुरुआती दिनों से लेकर उदारीकरण के दौर शुरू होने से पहले तक इसने अपनी ज्यादा ऊर्जा प्रधानमंत्रियों के पब्लिसिटी विभाग के तौर पर काम करने में लगाया। 1991 में जब देश में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो प्रचार के माध्यमों का स्वरूप भी बदलने लगा। प्रचार के अन्य माध्यम सामने आए तो फिल्म प्रभाग में बनने वाले वृत्तचित्र या समाचार चित्र देश के सिनेमा घरों में कम दिखने लगे। ऐसा प्रतीत होने लगा कि इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से तालमेल बिठाने में फिल्म प्रभाग पिछड़ गया। बावजूद इसके फिल्म्स डिवीजन अब भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वतंत्र विभाग के तौर पर काम कर रहा है।

फिल्म प्रभाग की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक मुंबई मुख्यालय के अलावा दिल्ली, कोलकाता और बेगलुरू में भी इसकी शाखाएं हैं। यहां अब भी दावा किया जा रहा है कि पूरे देश के सिनेमाघरों में लघु फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है। इसके अलावा ये प्रभाग डॉक्यूमेंट्री, शॉर्ट और एनिमेशन फिल्मों के लिए द्विवार्षिक मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन भी करता है। इसके अलावा पूरे देश में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करना भी इसका एक दायित्व है। इस संस्था का बजट देखने पर पता चलता है कि वित्त वर्ष 2019-20 में केंद्रीय स्कीम के लिए 7.7 करोड़, कर्मचारियों के वेतन पर 41.5 करोड़ और नेशनल म्यूजियम ऑफ इंडियन सिनेमा को चलाने के लिए 2.98 करोड़ रु का प्रावधान रखा गया है। करीब 52 करोड़ रुपए के बजट वाले इस विभाग में कई काम ऐसे हो रहे हैं जो इसी मंत्रालय के दूसरे विभाग में भी हो रहे हैं। जैसे उदाहरण के लिए अगर हम देखें तो फिल्म प्रभाग भी फिल्मों का निर्माण करता है और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी भी फिल्मों का निर्माण करती है। फिल्म प्रभाग भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करता है, चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करती है और फिल्म फेस्टिवल निदेशालय भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करता है। कई एक जैसे काम हैं जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अलग अलग विभाग करते हैं।

दरअसल अगर हम इसपर विचार करें तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्मों से सबंधित कई विभाग ऐसे हैं जिनका गठन उदारीकरण के दौर के पहले हुआ था। उस समय की मांग के अनुसार उनके दायित्व तय किए गए थे। समय बदलता चला गया, सिनेमा के व्याकरण से लेकर उसके तकनीक तक में आमूल चूल बदलाव आ गया लेकिन फिल्मों से संबंधित इन संस्थाओं में अपेक्षित बदलाव नहीं हो पाया। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो उस समय भारत सरकार की एक समिति ने इन संस्थाओं में युक्तिसंगत बदलाव की सिफारिश की थी पर उसके बाद कुछ हो नहीं सका। यूपीए के दस साल के शासनकाल में सबकुछ पूर्ववत चलता रहा। 2016 में नीति आयोग ने फिर से इन संस्थाओं के क्रियाकलापों को लेकर कुछ सिफारिशें की थीं। फिर 2017 के अंत में इस तरह की खबरें आईं कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय अपने विभागों के कामकाज को युक्तिसंगत बनाने जा रहा है। फिर कई महीने बीत गए। पिछले साल ये खबर आई कि पूर्व सूचना और प्रसारण सचिव विमल जुल्का की अगुवाई में फिल्म से जुड़े लोगों की एक समिति बनाई गई, राहुल रवैल भी उसके सदस्य थे। उनकी सिफारिशें भी आ गईं। लेकिन उन सिफारिशों का क्या हुआ अबतक सार्वजनिक नहीं हुआ है। सभी विभाग पूर्ववत चल रहे हैं।

दरअसल सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत चलनेवाले और फिल्मों से जुड़े कई विभागों में बेहतर तालमेल की तो जरूरत है ही, उनके कार्यों को भी समय के अनुरूप करने की आवश्यकता है। अब तो फिल्मों का स्वरूप और बदल रहा है। कोविड की वजह से ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) लोकप्रिय हो रहे हैं। सिनेमाघरों में लोगों की उपस्थिति कम है। कोविड के भय से मुक्ति के बाद भी ओटीटी की लोकप्रियता कम होगी इसमें संदेह है। बदलते तकनीक की वजह से भी फिल्मों का लैंडस्केप बदलेगा। फिल्म संस्कृति को मजबूती देने और विदेशों में भारतीय फिल्मों को पहचान दिलाने के उद्देश्यों पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।यह तभी संभव है जब मंत्रालय के स्तर पर पहल हो, योजनाएं बनें और उसको यथार्थ रूप देने के लिए उन लोगों का चयन किया जाए जो फिल्मों से जुड़े हों। पिछले दिनों फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे में शेखर कपूर की नियुक्ति सही दिशा में उठाया गया एक कदम है। रचनात्मक कार्य के लिए रचनात्मक लोगों को चिन्हित करके उनको सही जगह देना और राजनीति और लालफीताशाही से मुक्त करना सरकार का प्रमुख दायित्व है।  

Saturday, October 24, 2020

फिर विवादों के भंवर में महेश भट्ट


हिंदी फिल्म जगत और ड्रग्स का मामला थमता नजर नहीं आ रहा है। अभी सुशांत सिंह राजपूत के केस में ड्रग्स का मामला उछला था और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने दीपिका पादुकोण समेत कई अभिनेत्रियों से घंटों तक पूछताछ की थी। अभी ये मामला शांत भी नहीं हुआ था कि एक दूसरे मामले में निर्देशक महेश भट्ट का नाम ड्रग्स के आरोपों से जुड़ गया है। फिल्म ‘कजरारे’ की अभिनेत्री लवीना लोध ने एक मिनट अड़तालीस सेंकेंड का एक वीडियो जारी कर महेश भट्ट पर सनसनीखेज आरोप लगाया है। लवीना ने इंस्टाग्राम पर पोस्ट विडियो में कहा है कि ‘मेरी शादी महेश भट्ट के भांजे सुमित सभलवाल के साथ हुई थी और मैंने उनके खिलाफ डायवोर्स केस फाइल किया है क्योंकि मुझे पता चल गया था कि वो ड्रग सप्लाई करते हैं एक्टर्स को...उनके फोन में भी अलग अलग किस्म की लड़कियों की तस्वीरें होती हैं जो वो डायरेक्टर्स को दिखाते हैं...और इन सारी बातों की जानकारी महेश भट्ट को है। महेश भट्ट सबसे बड़ा डॉन है इंडस्ट्री का। ये पूरा सिस्टम वही ऑपरेट करता है और अगर आप उनके हिसाब से नहीं चलते हैं तो वो आपका जीना हराम कर देते हैं। महेश भट्ट ने कितने लोगों की जिंदगी बर्बाद कर दी है, कितने एक्टर्स, डायरेक्टर्स को उन्होंने काम से निकाल दिया है, वो एक फोन करते हैं पीछे से और लोगों का काम चला जाता है। लोगों को पता भी नहीं चलता है। ऐसे उन्होंने बहुत जिंदगियां बर्बाद की हैं। और जबसे मैंने उनके खिलाफ केस फाइल किया है वो हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गए हैं। अलग अलग तरीके से मेरे घर में घुसने की कोशिश कर रहे हैं, पूरी कोशिश की उन्होंने मुझे इस घर से निकालने की। जब मैं पुलिस स्टेशन में शिकायत (एनसी) लिखाने जाती हूं तो कोई मेरी शिकायत भी नहीं लेता। बहुत मुश्किल के बाद अगर मैं शिकायत लिखा भी देती हूं तो कोई एक्शन नहीं होता।‘ लवीना लोध यहीं पर नहीं रुकती हैं और वो ये भी कहती हैं कि अगर कल कोई हादसा उनके या उनके परिवार के साथ होता है तो सिर्फ महेश भट्ट, मुकेश भट्ट सुमित सभरवाल, आदि उसके लिए जिम्मेदार होंगे। लवीना का कहना है कि वो ये वीडियो इस लिए भी बना रही हैं कि लोगों को पचा चले कि बंद दरवाजे के पीछे इन लोगों ने कितनी जिंदगियां बर्बाद की हैं और ये क्या क्या कर सकते हैं। वो अपनी बात इस वाक्य पर खत्म करती हैं कि महेश भट्ट बहुत ही ताकतवर और प्रभावशाली हैं। अगर एक मिनट को इसको पारिवारिक कलह भी मान लिया जाए तो इसमें जो ड्रग्स की बात सामने आ रही है या अन्य आरोप लगे हैं उसकी जांच तो की जा सकती है। लवीना ने तो जिन एक्टर्स को ड्रग्स की सप्लाई की जाती है उनके नाम भी इस वीडियो में लिए हैं। 

सुशांत सिंह राजपूत के केस में रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी भी आरोपों के आधार पर ही हुई थी। दीपिका पादुकोण, श्रद्धा कपूर, सारा अली खान और रकुलप्रीत जैसी मशहूर अभिनेत्रियों से घंटों पूछताछ भी सिर्फ आरोपों के आधार पर हुई थी। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस तत्परता के साथ नारकोटिक्स कंट्रोल बोर्ड ने इतनी मशहूर और प्रतिष्ठित अभिनेत्रियों से पूछताछ की थी वैसी ही सक्रियता लवीना के आरोपों पर भी दिखाई जाएगी? अगर ये नहीं होता है तो क्या ये माना जाए कि अभिनेत्री लवीना की उन बातों में दम है कि महेश भट्ट बेहद ताकतवर और प्रभावशाली हैं। महेश भट्ट पहले भी कई तरह के व्यक्तिगत और अन्य विवादों में घिरते रहे हैं। अगर उस दौर की फिल्मी और अन्य पत्रिकाओं के लेखों को देखें तो उनके और परवीन बॉबी के रिश्ते को लेकर बहुत कुछ लिखा गया था। कहा गया  था कि परवीन से अफेयर की वजह से उनका पारिवारिक कलह हुआ था। उन्होंने अपनी पहली पत्नी किरण भट्ट और बेटी पूजा को छोड़कर परवीन के साथ रहना शुरू कर दिया था। परवीन जब सिजोफ्रेनिया की गिरफ्त में आईं तो वो उनको छोड़कर अपने परिवार के पास लौट आए थे। कई इंटरव्यू में महेश भट्ट ने परवीन बॉबी के साथ अपने रिश्ते को माना भी है। इसके अलावा उनका बेटा राहुल भट्ट भी मुंबई हमले की साजिश के आरोपी डेविड हेडली से संपर्कों की वजह से शक की जद में आया था। तब ये आरोप लगा था कि डेविड हेडली ने राहुल भट्ट को ये कहा था कि वो हमले वाले दिन दक्षिणी मुंबई की ओर नहीं जाए। राहुल भट्ट जब संदेह के घेरे में थे तो उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में महेश भट्ट पर भी निशाना साधा था। खैर ये मुद्दे अब खत्म हो चुके हैं लेकिन अतीत बहुत जल्द पीछा छोड़ते नहीं।

बात बॉलीवुड और ड्रग्स की करते हैं। लगातार दो मामलों में ड्रग की बात सामने आने के बाद, खासतौर पर सुशांत सिंह राजपूत केस में जिस तरह से हिंदी फिल्मों की दुनिया शक के घेरे में आई उसको साफ करना जरूरी है। ये जिम्मेदारी बॉलीवुड को ही उठानी होगी। सुशांत सिंह केस के दौरान सुपरस्टार अक्षय कुमार ने एक वीडियो जारी कर माना था कि कई ऐसे मुद्दे हैं जिनपर बॉलीवुड को खुद के गिरेबां में झांकने की जरूरत है। नारकोटिक्स और ड्रग्स की बात करते हुए भी उन्होंने कहा था कि कैसे दिल पर हाथ रखकर कह दें कि ये समस्या नहीं है,ये समस्या है। तब अक्षय ने पूरी इंडस्ट्री को बदनाम दुनिया की तरह नहीं देखने की अपील भी की थी। अक्षय ने ठीक कहा था, सबको एक ही रंग से रंगना उचित नहीं है। हर जगह अच्छे और बुरे लोग होते हैं। इस कड़ी में ही बॉलीवुड की कई प्रोडक्शन कंपनियों और उनके संगठनों ने दिल्ली हाईकोर्ट में दो चैनलों की रिपोर्टिंग के खिलाफ गुहार लगाई थी। यहां ये रेखांकित करना जरूरी लगता है कि हाईकोर्ट से गुहार लगानेवाली इन प्रोडक्शन कंपनियों में महेश भट्ट की कंपनी शामिल नहीं हैं। बॉलीवुड के जिन लोगों ने अदालत से गुहार लगाई है उनको महेश भट्ट पर लग रहे आरोपों पर भी अपनी बात रखनी चाहिए। प्रोड्यूसर गिल्ड को कम से कम ये बयान तो जारी करना चाहिए कि अभिनेत्री लवीना के आरोपों की जांच हो, ड्रग्स सप्लाई के आरोपों को लेकर भी एजेसियां कानूनसम्मत ढंग से काम करें।

अगर गिल्ड या प्रोडक्शन कंपनियों का ऐसा कोई बयान नहीं आता है या वो कोई पहल नहीं करते हैं तो एक बार फिर से उनकी साख पर सवाल उठेगा और लोगों को बॉलीवुड पर आरोप लगाने का मौका। चुनी हुई चुप्पी और चुनिंदा मामलों में बोलना दोनों ही किसी भी संगठन या इंडस्ट्री की साख पर असर डालते हैं। हमने अपने देश में देखा है कि वामपंथियों ने सालों तक इस चुनी हुई चुप्पी या सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म को अपनाया। आज इस वजह से उनको कितना नुकसान हुआ ये सबके सामने है। उनकी राजनीतिक जमीन देखते देखते उनके नीचे से खिसक गई। उनकी साख इस कदर छीज गई है कि अकादमिक दुनिया ने भी उनको गंभीरता से लेना कम कर दिया है। बॉलीवुड में ड्रग्स का नाम भी आता है तो वहां काम कर रहे संगठनों को बहुत मुखरता के साथ उसका प्रतिरोध करना होगा। इससे लोगों के बीच बॉलीवुड की साख और मजबूत होगी अन्यथा लोगों को ये लगेगा कि फिल्मी दुनिया के बड़े और गंभीर मानी जानेवाली आवाज भी चुनिंदा लोगों के आरोपों पर ही अपनी बात सामने रखती है। 


Saturday, October 17, 2020

अपनी जड़ों की ओर लौटता भारत


एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा कि ‘किसान क्षेत्र के हित के लिए करनेवाला हमारा संगठन सर्वमान्य संगठन बन गया है, और ऐसे हमारे संगठन को अनुकूलता भी प्राप्त हो गई है। क्योंकि जो हमारा विचार है, विज्ञान ने ही ऐसी करवट ले ली है कि हमने जिन तत्वों का उद्घोष अपनी स्थापना के समय से हम करते आए, विरोधों के बावजूद, उनको मान्यता देने के बजाए दूसरा कोई पर्याय रहा नहीं अब दुनिया के पास। कृषि के क्षेत्र में और जो कॉलेज में से पढ़ा है ऐसा कोई व्यक्ति आपकी सराहना करे ऐसे दिन नहीं थे। आज हमारे महापात्र साहब भी आपके कार्यक्रम में आकर जैविक खेती का गुणगान करते हैं। जैविक खाद के बारे में पचास साल पहले विदर्भ के नैड़प काका बड़ी अच्छी स्कीम लेकर केंद्र सरकार के पास गए थे। ये स्कीम अपने भारत की है, भारत के दिमाग से उपजी है, केवल मात्र इसके लिए उसको कचड़े में डाला गया। आज ऐसा नहीं है। पिछले छह महीने से जो मार पड़ रही है कोरोना की, उसके कारण भी सारी दुनिया विचार करने लगी है और पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधनेवाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर लौट रही है, आशा से देख रही है।‘ मोहन भागवत के भाषण के इस छोटे से अंश में कई महत्वपूर्ण बातें हैं जिनकी ओर उन्होंने संकेत  किया है। पहली बात तो ये कि आज भारत और भारतीयता को प्राथमिकता मिल रही है। भारतीय पद्धति से की गई खोज या नवोन्मेष को या भारतीय पद्धतियों को मान्यता मिलने लगी है। मोहन भागवत ने ठीक ही इस बात को रेखांकित किया कि पूरी दुनिया भारत की ओर आशा से देख रही है।

मोहन भागवत के इस वक्तव्य के उस अंश पर विचार करने की जरूरत है जिसमें वो कह रहे हैं कि पूरी दुनिया पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधने वाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर लौट रही है। दरअसल हमारे देश में हुआ ये कि मार्कसवाद के रोमांटिसिज्म में पर्यावरण की लंबे समय तक अनदेखी की गई। आजादी के बाद जब नेहरू से मोहभंग शुरू हुआ या यों भी कह सकते हैं कि नेहरू युग के दौरान ही मार्क्सवाद औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए उकसाने वाला विचार लेकर आया। औद्योगिकीकरण में तो विकास पर ही जोर दिया जाता है और कहा भी जाता है कि किसी भी कीमत पर विकास चाहिए। अगर विकास नहीं होगा तो औद्योगिकीकण संभव नहीं हो पाएगा।लेकिन किसी भी कीमत पर विकास की चाहत ने प्रकृति को पूरी तरह से खतरे में डाल दिया। औद्योगिकीकरण का समर्थन करनेवाली विचारधारा में प्रकृति का आदर करने की जगह उसकी उपेक्षा का भाव है। ये उपेक्षा इस हद तक है कि मार्क्स ने ‘मास्टरी ओवर नेचर’ की बात की है यानि प्रकृत्ति पर प्रभुत्व। सृष्टि के इस महत्वपूर्ण अंग, प्रकृति पर प्रभुत्व की कल्पना मात्र से ही इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि मार्क्सवाद के सिद्धांत में बुनियादी दोष है। क्या ये मनुष्य के लिए संभव है कि वो प्रकृत्ति पर प्रभुत्व कायम कर सके। लेकिन मार्क्स ऐसा चाहते थे। उनके प्रकृत्ति को लेकर इस प्रभुत्ववादी नजरिए को उनके अनुयायियों ने जमकर बढ़ाया। इस बात का उल्लेख यहां आवश्यक है कि स्टालिन ने सोवियत रूस की सत्ता संभालने के बाद संरक्षित वन क्षेत्र को नष्ट किया। औद्योगिक विकास के नाम पर पर्यावरण पर प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की। नतीजा क्या हुआ ये सबके सामने है। बाद में इस गलती को सुधारने की कोशिश हुई लेकिन तबतक बहुत नुकसान हो चुका था। खैर ये अवांतर प्रसंग है इस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी। अभी तो इसके उल्लेख सिर्फ ये बताने के लिए किया गया कि साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा की बुनियाद प्रकृति को लेकर बेहद उदासीन और प्रभुत्ववादी रही है। इसके विपरीत अगर हम विचार करें तो भारतीय विचार परंपरा में प्रकृत्ति को भगवान का दर्जा दिया गया है। हम तो ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा’ को मानने वाले लोग हैं। इस पंचतत्व का निषेध या उससे आगे जाकर कुछ और नया खोज वैज्ञानिक अभी तक कर नहीं पाए हैं सिवा इसके कि वो इन पंच तत्वों के अंदर के अवयवों को ढूंढ निकालने का दावा कर रहे हैं। हमारी परंपरा में तो नदी पर्वत और जल को पूजे जाने की परंपरा रही है। कभी भी आप देख लें किसी भी शुभ अवसर पर प्रकृत्ति को भी याद किया जाता है। 

मोहन भागवत ने इस ओर भी इशारा किया है कि कोरोना के बाद स्थितियां बहुत बदल गई हैं। सचमुच बहुत बदली हैं और भारतीय ज्ञान परंपरा में जिन औषधियों की चर्चा मिलती हैं आज वो अचानक बेहद महत्वपूर्ण हो गई हैं। हमारे जो वामपंथी प्रगतिशील मित्र आयुर्वेद का मजाक उड़ाया करते थे उनको सुबह शाम काढ़ा पीते या फिर गिलोई चबाते देखा जा सकता है। आज पूरी दुनिया में भारतीय खान-पान की आदतों को लेकर विमर्श हो रहा है। हमारे यहां तो हर मौसम के हिसाब से भोजन तय है। मौसम तो छोड़िए सूर्यास्त और और सूर्योदय के बाद या पहले क्या खाना और क्या नहीं खाना ये भी बताया गया है। आज पश्चिमी जीवन शैली के भोजन या भोजन पद्धति से इम्यूनिटी बढ़ने की बात समझ में नहीं आ रही है। आज भारतीय पद्धति से भोजन यानि ताजा खाने की वकालत की जा रही है, फ्रिज में रखे तीन दिन पुराने खाने को हानिकारक बताया जा रहा है। कोरोना काल में पूरी दुनिया भारतीय योग विद्या को आशा भरी नजरों से देख रही है। आज जब कोरोना का कोई ज्ञात ट्रीटमेंट नहीं है तो ऐसे में श्वसन प्रणाली को ठीक रखने, जीवन शैली को संतुलित रखने की बात हो रही है। भारत में तो इन चीजों की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। स परंपरा को अंग्रेजी के आभिजात्य मानसिकता और वामपंथ के विदेशी ज्ञान ने पिछले कई दशकों से नेपथ्य में धकेलने की कोशिश की। सफल भी हुए। मोहन भागवत जी ने विदर्भ के एक किसान का जो उदाहरण दिया वो बेहद सटीक है। किसी भी प्रस्ताव को इस वजह से रद्दी की टोकरी में फेंका जाता रहा कि वो भारतीय परंपरा और प्राचीन ग्रंथों पर आधारित होती थी। अब देश एक बार फिर से अपनी जड़ों और अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरास की ओर लौटता नजर आ रहा है। 

अगर इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाए तो हम ह पाते हैं कि हमारे देश में कथित तौर पर प्रगतिशील विचारों के शक्तिशाली होने की वजह से आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी विचारों का अंधानुकरण शुरू हो गया। भारतीय विचारों को, भारतीय चिकिस्ता पद्धति को, भारतीय दर्शन को, भारतीय पौराणिक लेखन को सायास पीछे किया गया। उसको दकियानूसी, पुरानतनपंथी या परंपरावादी आदि कहकर उपहास किया गया। पश्चिमी आधुनिकता के आख्यान का गुणगान या उसके बढ़ते प्रभाव ने भारतीय जीवन शैली और भारतीय पद्धति को प्रभावित करना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि हमारे देश में एक ऐसा समाज बनने लगा था जो पूरी तरह से न तो भारतीयता में यकीन करता था और न ही पूरी तरह से पश्चिमी रीति-रिवाज को आत्मसात कर पा रहा था। पश्चिमी आधुनिकता और भारतीयता के इस द्वंद ने लंबे समय तक भारतीय ज्ञान पद्धति को प्रभावित किया। कोरोना की वजह से और देश में बदले राजनीति हालात ने एक अवसर प्रदान किया है जिसकी वजह से एक बार फिर से देश अपनी जड़ों की ओर लौटता दिख रहा है।   


Saturday, October 10, 2020

‘म्यूट’ नहीं मुखर है भारत का लोकतंत्र


अभी हाल ही में दिल्ली में शाहीन बाग में लंबे समय तक चले धरना प्रदर्शन को लेकर आम नागरिकों को होनेवाली दिक्कतों पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है। हमारे देश में अदालतों की कार्यवाही अपनी गति से चलती हैं। शाहीन बाग में धरना खत्म होने के कई महीनों बाद इसपर फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि विरोध प्रदर्शन के लिए सार्वजनिक जगहों पर कब्जा जमाना अनुचित है। शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शनकारियों ने करीब सौ दिनों तक रास्ता बंद कर प्रदर्शन किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा है कि इस तरह के विरोध प्रदर्शन निर्धारित स्थानों पर होने चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला अंतिम और संविधानसम्मत होता है। लेकिन हमारे देश में एक कथित बौद्धिक वर्ग है तो सर्वोच्च अदालत के फैसले भी अपने मन की ही चाहते हैं। कहना न होगा कि जब उनके मन मुताबिक फैसला नहीं आता है तो वो उस फैसले का विरोध शुरू कर देते हैं। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की जा सकती है। की भी जाती रही है। लेकिन जब ये स्पष्ट तौर पर दिखता है कि कोई व्यक्ति या समूह फैसलों की आलोचना या प्रशंसा के पीछे अपना एजेंडा चलाना चाहते हैं तो उसको रेखांकित किया जाना जरूरी हो जाता है। शाहीन बाग के प्रदर्शन को लेकर कुछ लोगों की आलोचना इसी तरह की है।

दक्षिण भारत के एक शास्त्री संगीत गायक हैं। नाम है टी एम कृष्णा। विवादप्रिय रहे हैं। शाहीन बाग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उनको बेहद तकलीफ है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर विरोध प्रकट किया है। उनका कहना है कि अगर सार्वजनिक स्थानों पर धरना प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जाती है तो हम एक खामोश लोकतंत्र के तौर पर रहेंगे। अब कृष्णा से ये पूछा जाना चाहिए कि जीवंत लोकतंत्र के लिए ये क्यों जरूरी है कि सार्वजनिक स्थानों पर धरना प्रदर्शन की अनुमति हो? किसी लोकतंत्र के लिए यह क्यों आवश्यक हो कि किसी समुदाय को वैसे सार्वजनिक स्थानों पर धरना प्रदर्शन की अनुमति दी जाए जिसकी वजह से लाखों लोगों को रोज दिक्कतों का सामना करना पड़े। शाहीन बाग में धरना प्रदर्शन की वजह से दिल्ली से नोएडा का रास्ता लंबे समय तक बंद रहा और इसकी वजह से लोग परेशान रहे। जो फासला मिनटों में तय हो सकता था उसके लिए घंटों का सफर तय करना पड़ा। क्या जीवंत लोकतंत्र का अर्थ ये होता है कि सैकड़ों लोग किसी सड़क पर बैठ जाएं और सौ दिन से अधिक समय तक बैठे रहें? क्या जीवंत लोकतंत्र में इस बात की अनुमति होनी चाहिए कि कुछ लोगों के विरोध प्रदर्शन की वजह अन्य लोग परेशान रहें। भारत के सभी नागरिकों को या नागरिकों के समूह को सड़क, फुटपाथ या पार्कों में विरोध प्रदर्शन करने की छूट है। उनको इस बात की भी छूट है कि वो सरकारी इमारतों के बाहर भी प्रदर्शन कर सकें। इस अनुमति के साथ ये अपेक्षा भी की गई है कि इन विरोध प्रदर्शनों की वजह से आवाजाही बाधित न हो। विरोध प्रदर्शनों की वजह से अगर लोगों को आने जाने में दिक्कत होती है तो पुलिस को ये अधिकार है कि वो प्रदर्शनकारियों को सड़क के किनारे चलने को कहें ताकि आवाजाही सुगम रहे। सरकारी इमारतों के बाहर अगर प्रदर्शन हो रहा है तो इमारत में आने जानेवाले को तकलीफ न हो।

कृष्णा जैसों को नागरिकों को मिले इन अधिकारों से कोई मतलब नहीं है। उनको तो मतलब सिर्फ इस बात से है कि जो उनके एजेंडे में फिट नहीं बैठे उसका येन केन प्रकारेण विरोध किया जाए। ऐसे लोग इस ताक में रहते हैं कि उनको अवसर मिले और वो उसका लाभ उठा सकें। इसके लिए वो बड़े भारी भरकम शब्द भी लेकर आते हैं। अपने विद्वता के आवरण में लपेटकर किसी भी मुद्दे को गंभीर बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ये फॉर्मूला अब पुराना पड़ चुका है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर कृष्णा ने तमिल के एक शब्द ‘पोरमबुक’ की व्याख्या की है। तमिल में इस शब्द का प्रयोग अपमानित करने लिए किया जाता है। इसका प्रचलित अर्थ बांझ या बंजर होता है। कृष्णा ने इस शब्द का प्रयोग प्रचलित अर्थ से अलग बताया है और इसके अर्थ को सार्वजनिक या नागरिकों की साझा अधिकार वाली जगहों से जोड़ा है। शाहीन बाग उनके लिए ‘पोरमबुक’ है यानि कि वो साधारण नागरिक की साझी अधिकार वाली जगह है। कृष्णा ने अपने लेख में एक खूबसूरत नैरेटिव गढ़ने का प्रयत्न तो किया है लेकिन उसमें वो सफल नहीं हो सके बल्कि उल्टे उसमें फंस गए। अगर कोई साधारण जनता के साझा अधिकारों वाली सार्वजनिक जगह है तो क्या चंद लोगों को ये हक है कि वो अपने अधिकारों के लिए दूसरों के हक की हत्या कर दें। और अगर आप साझा अधिकारों वाली सार्वजनिक जगह की बात करते हैं तो इसमें धार्मिक कट्टरता कहां से आती है? यह सवाल इस वजह से क्योंकि शाहीन बाग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करते वक्त कृष्णा धार्मिक कट्टरता को इन जगहों के अतिक्रमणकारी के तौर पर देखने लगते हैं। कृष्णा ये भूल जाते हैं कि हमारे देश का संविधान आम नागरिकों को कई प्रकार के अधिकार देता है लेकिन साथ ही वही संविधान हमारे कर्तव्यों को भी तय करता है।

दरअसल कृष्णा कुछ भी उल्टा सीधा बोलकर चर्चा में बने रहने की जुगत में रहते हैं। उन्होंने मुंबई हमले के गुनहगार पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब के मानवाधिकार को लेकर चिंता प्रकट की थी। जिस दिन अजमल कसाब को फांसी की सजा सुनाई गई थी उस दिन के देश के माहौल पर भी उन्होंने प्रतिकूल टिप्पणी की थी। उन्होंने एक पत्रिका में महान गायिका एम एस सुबुलक्ष्मी के खिलाफ बेहद घटिया लेख लिखा था जिसमें वो बार बार इस बात पर जोर देते थे कि वो देवदासी थीं। सुनी सुनाई निजी बातों को प्रामाणिकता के साथ पेश करने का दुस्साहस तब किया जब सुबुलक्ष्मी जी इस दुनिया में नहीं रहीं। कृष्णा जैसे लोगों के सार्वजनिक व्यक्तित्व और सार्वजनिक मसलों पर उनकी टिप्पणियों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर एक अलग ही तस्वीर सामने आती है। टीएम कृष्णा शास्त्रीय गायन करते हैं। शास्त्रीय संगीत की दुनिया में अब भी वो सबसे उपर की पायदान पर नहीं पहुंच पाए हैं। जब किसी फनकार को लगने लगता है कि वो अपने फन की बदौलत शीर्ष पर नहीं पहुंच पाएगा तो वो राजनीति की उंगली पकड़कर शीर्ष पर पहुंचना चाहता है। कृष्णा के साथ भी यही हो रहा है। वो वामपंथी नैरेटिव का पोस्टर बॉय बनकर प्रसिद्धि और काम दोनों पाना चाहते हैं। मुझे याद आता है कि जब कुछ साल पहले दिल्ली में उनका एक कार्यक्रम स्थगित हुआ था तो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था। नतीजा ये हुआ था कि दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की सरकार ने फौरन उनका एक कार्यक्रम आयोजित करवा दिया। इस तरह के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। अब उनको शाहीन बाग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में संभावना नजर आ रही है तो उस फैसले से भारत के लोकतंत्र को परिभाषित करने में लगे हैं। पर उनको ये बात समझनी चाहिए कि भारत का लोकतंत्र इतना मजबूत और मुखर है कि यहां शाहीन बाग प्रदर्शन से लेकर आतंकी अजमल कसाब तक के मामले में न्याय ही होता है। क्योंकि संविधान सर्वोपरि है।