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Friday, January 27, 2017

सफलता तलाशती विवाद

जयपुर में फिल्मकार संजय लीला भंसाली के साथ एक अनाम से संगठन राजपूत कर्णी सेना के चंद हुड़दंगियों ने धक्कामुक्की की और भंसाली को थप्पड़ मारा। इस घटना की जितनी निंदा की जाए वो कम है । गांधी के देश में किसी को भी हिंसा की उजाजत नहीं दी जा सकती है । शूटिंग के दौरान जयपुर से जयगढ़ किले में पहुंचकर कर्णी सेना के मुट्ठीभर कार्यकर्ताओं ने उत्पात मचाया और पुलिस उनको रो नहीं पाई, यह किसी भी जगह के पुलिस की कार्यशैली पर सवाल खड़े करती है । हलांकि पुलिस ने हिंसा करनेवालों में से कइयों के गिरफ्तार किया है लेकिन अगर पहले रोक लिया जाता तो यह विवाद उठता ही नहीं।  इस अनाम से राजपूत संगठन को इस बात पर एतराज है कि संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म पद्मावती में अलाउद्दीन खिलजी और रानी पद्मावती के बीच लवमेकिंग सीन क्यों दिखाया जा रहा है । सवाल तो यह भी उठता है कि ये राजपूत करणी सेना है क्या ? ये किन राजपूतों की नुमाइंदगी करता है ? करणी सेना को मीडिया की वजह से नाम मिलता है । जिस तरह से शुक्रवार की घटना को मीडिया खासकर न्यूज चैनलों ने उछाला उससे लगा कि कोई बड़ा संगठन है । इस घटना को दिखाने पर सवाल नहीं है, सवाल है दिखाने के तरीके पर । अमूमन किसी भी न्यूज चैनल ने इलस संगठन की वास्तविकता नहीं बताई । यह संगठन इसी तरह से फिल्मों आदि के रिलीज या शूटिंग आदि के मौकों पर न्यूज चैनलों के कैमरे पर हीनजर आते हैं । जमीन पर इसका कोई असर अबतक दिखा नहीं है । मीडिया में जैसे ही इस तरह के कागजी संगठनों को तवज्जो मिलनी बंद हो जाएगी वैसे ही इनकी हुंड़दंगबाजी भी बंद हो जाएगी । टी वी कैमरे के लिए किया जानेवाला विरोध अगर नहीं दिखाया जाए तो वो फुस्स हो जाएगा । एक जमाने में दिल्ली में शिवसेना के नाम पर एक शख्स इसी तरह का संगठन चलाता था । मीडिया ने उसको दिखाना बंद किया तो संगठन भी गायब हो गया ।

एक मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि पद्मावती काल्पनिक चरित्र हैं और इतिहास में इस बात
के तथ्य मौजूद नहीं है लेकिन लोक में तो पद्मावती मौजूद है । खिलजी एक आक्रमणकारी था और स्थानीय रानी के साथ फिल्म में उसके लवमेकिंग सीन को फिल्माना कौन सी कल्पना है । राजस्थान के लोकगीतों से लेकर लोकमानस में रानी पद्मावती का एक स्थान है । मेवाड़ इलाके में रानी पद्मावती को लेकर एक खास समुदाय के लोग खुद को आईडंटिफाई करते हैं ।  पौराणिक आख्यानों और लोक में व्याप्त किसी चरित्र को गलत तरीके से पेश करने को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ना उचित नहीं होगा । संजय लीला भंसाली समेत कई फिल्मकार विवादों से बॉक्स ऑफिस पर सफलता का रास्ता भी तलाशते हैं । बहुधा सायास और कभी कभारा अनायास उनकी फिल्मों से विवाद होता है । इतिहास से लेकर पौराणिक कथाओं से छेड़छाड़ या लोक में स्थापित मान्यताओं का मजाक बनाकर । जैसे संजय लीला भंसाली ने ही जब राम-लीला फिल्म बनाई थी तो उस फिल्म का ना तो राम से कोई लेना देना था और ना ही रामलीला से । यह नाम इस लिए रखा गया था ताकि फिल्म के नाम को लेकर विवाद हो और फिल्म के लिए माइलेज हासिल किया जा सके । इसी तरह से अगर देखें तो संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म देवदास में भी इतिहास से छेड़छाड़ किया था । मूल कहानी में पारो और चंद्रमुखी के बीच मुलाकात ही नहीं हुई थी लेकिन भंसाली ने अपनी फिल्म में ना केवल दोनों की मुलाकात करवा दी बल्कि दोनों के बीच एक गाना भी फिल्मा दिया – डोला रे डोला रे । अब यह तो माना नहीं जा सकता है कि संजय लीला भंसाली को यह बात पता नहीं होगी कि पारो और चंद्रमुखी के बीच मुलाकात नहीं हुई थी । तो जब आप जानबूझकर ऐतिहासिक तथ्यों या मिथकों या आख्यानों के साथ छेड़छाड़ करेंगें और मंशा विवाद पैदा करने की होगी तो फिर जयपुर जैसी घटनाओं की संभावना लगातार बनी रहेंगी । कोई भी सिरफिरा इस तरह की वारदात को अंजाम दे सकता है । दरअसल संजय लीला भंसाली लगभग हर फिल्म में ऐतिहासिकता को अपने हिसाब से इस्तेमाल करते चलते हैं । यह चीज बाजीराव मस्तानी में बाजीराव और मस्तानी के बीच के काल्पनिक प्रेम को देखकर भी मिलता है ।ऐतिहासिक चरित्रों कके बीच रोमांस का तड़का बगैर किसी आधार के विवाद को जन्म देती है । फिल्म बाजीराव मस्तानी के वक्त भी इसको लेकर छोटा मोटा विरोध हुआ था । इस तरह से अगर हम देखें तो आशुतोष गोवारीकर ने फिल्म मोहेंजोदाड़ो बनाई । इस फिल्म में मुअनजोदड़ो सभ्यता के तथ्यों से कोई लेना देना नहीं है । इसमें आर्यों को सभ्यता का रक्षक और अनार्यों को लुटेरा जैसा चित्रित किया गया है । अब तक कोई इतिहासकार इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया है । काल्पनिकता के आधार पर इतिहास की नई व्याख्या बहुधा विवादित होती ही है । विरोध करना हर किसी का लोकतांत्रिक हक है लेकिन उसमें हिंसक होना या कानून को अपने हाथ में लेना सर्वथा अनुचित है । विवाद खड़ा कर अपनी तिजोरी भरने की मंशा बेहद खतरनाक होती है । खतरा तब और बढ़ जाता है जब इसको कला के नाम पर या कलाकार की अभव्यक्ति की आजादी से जोड़ा जाता है । कलाकार की कल्पना जब जानबूझकर लोगों की भावनाओं को भड़काने लगे तो उसको रोकने के लिए संविधान में व्यवस्था है, हिंसक विरोध करनेवालों को इस रास्ते पर चलकर विरोध करना चाहिए ।