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Saturday, February 23, 2019

साहित्यिक आयोजन में राग फासीवाद


दिल्ली में एक संस्था है रजा फाउंडेशन। यह संस्था विश्व प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रजा के नाम पर स्थापित है। रजा के मित्र अशोक वाजपेयी इस संस्था के सर्वेसर्वा हैं। हिंदी जगत में यह माना जाता है कि रजा के नाम पर स्थापित ये संस्था रजा साहब के अर्जित धन से चलता है। अशोक वाजपेयी अब तमाम आयोजन इसी संस्था के तहत करते हैं। साहित्य, कला और संस्कृति को लेकर यह संस्था बहुत सक्रिय है, दिल्ली में नियमित आयोजन करती है, पुस्तकों का प्रकाशन करती है, फेलोशिप भी देती है. जरूरतमंद साहित्यकारों को आर्थिक मदद भी करती है। केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद जिस तरह से अशोक वाजपेयी और वामपंथी लेखकों ने हाथ मिला लिया है उसका प्रकटीकरण बहुधा रजा फाउंडेशन के आयोजनों में होता रहता है। अशोक वाजपेयी को ये श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने जनवादी और प्रगतिशील लेखकों को एक साथ कर दिया। दिल से भले ही ना मिले हों पर मंच पर तो एक साथ कर ही दिया है। जो काम वैचारिकी नहीं कर पाई उस काम को पूंजी ने पूरा किया। अगर कभी मौजूदा दौर का साहित्यिक इतिहास लिखा गया तो कलावादी-वामपंथी लेखकों का यह गठजोड़ दिलचस्प शोध की मांग करेगा। निष्कर्ष भी रोचक निकलेगा।   
अभी हाल ही में इस संस्था ने दिल्ली में रजा उत्सव का आयोजन किया था। मुख्यत: कविता पर केंद्रित ये आयोजन एशियाई कविता पर आयोजित था जिसे रजा बिनाले ऑफ एशियन पोएट्री 2019 का नाम दिया गया था।। इस आयोजन में भारत के अलावा अन्य एशियाई देशों के कवियों को आमंत्रित किया गया था। इस आयोजन में भी कई जनवादी और प्रगतिशील लेखक कवि आमंत्रित किए गए थे। आमंत्रित कवियों में एक जनवादी कवि असद जैदी भी थे। एक सत्र में असद जैदी ने कहा कि वर्तमान समय को सबसे खराब समय करार दिया क्योंकि ये मोदी का इंडिया है, क्योंकि इस दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सभी जगह पर कब्जा कर रखा है, फासिस्ट ताकतों ने हर जगह आधिपत्य जमा लिया है। सबसे खराब दौर में, जब हर ओर फासिस्ट ताकतों का आधिपत्य है, तब भी असद जैदी ये सारी बातें सार्वजनिक तौर पर कह पा रहे थे। ये विरोधाभास जैसा लगता है। दरअसल असद जैदी जैसे लोग मौजूदा दौर से इस वजह से परेशान हैं कि उनका सत्ता सुख कम हो गया है, और उत्तरोत्तर कम ही होता जा रहा है। वामपंथी लेखक लगातार राग फासीवाद गा कर मौजूदा हुकूमत को बदनाम करने की मुहिम में 2014 मई के बाद से ही लगे हैं। जब भी जहां भी उनको अवसर मिलता है वो ये राग फासदीवाद छेड़ने से बाज नहीं आते हैं। तभी तो कविता समारोह में भी असद जैदी ने फासीवाद, मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सवालों के घेरे में लाने का प्रयत्न किया, बेशक लचर दलीलों के साथ। वामपंथियों के लिए फासीवाद का मतलब है बीजेपी, आरएसएस और नरेन्द्र मोदी । उनके लिए स्कूलों में योग शिक्षा भी फासीवाद है, उनके लिए स्कूलों में वंदे मातरम का पाठ भी फासीवाद है, उनके लिए सरस्वती वंदना भी फासीवाद है, उनके लिए अकादमियों या सरकारी पदों से वामपंथी विचारधारा के लोगों को कार्यकाल खत्म होने के बाद हटाया जाना भी फासीवाद है, उनके लिए इतिहास अनुसंधान परिषद में बदलाव की कोशिश भी फासीवाद है । दरअसल उनके लिए वामपंथ की चौहद्दी से बाहर किसी भी तरह का कार्य फासीवाद है । इस तरह का शोरगुल इन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के वक्त भी मचाया था । वामपंथी जमात को यह समझना होगा कि नरेन्द्र मोदी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के मुखिया है और जनता ने उनको पांच सालों के लिए चुना है। अभी दो महीने में लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं एक बार फिर से जनता की राय सबके सामने होगी। अगर देश में हालात इने बुरे हैं तो जनता अपने विवेक से उसको ठीक कर देगी।
जैदी ने रजा उत्सव के इसी मंच से गुजरात दंगों पर भी अपनी बात रखी। उन्होंने गुजरात दंगों को नरसंहार करार दिया। उन्होंने गुजरात दंगे के बाद वहां के साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों की चुप्पी को रेखांकित किया। वो इस बात को लेकर व्यथित दिखे कि गुजरात दंगों के बाद वहां के संस्कृतिकर्मियों में एक खास किस्म की खामोशी व्याप्त हो गई थी। उन्होंने गुजरात नरसंहार के बाद सांस्कृतिक चुप्पी जैसा जुमला भी उछाला। इस जुमले को या वक्तव्य के पीछे की राजनीति को समझने की जरूरत है। एक तरफ असद जैदी गुजरात दंगों में गुजराती के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की खामोशी को रेखांकित कर रहे हैं वहीं अब से चंद दिन पहले प्रकाशित पहल पुस्तिका में अशोक वाजपेयी ने लिखा था- 2002 में गुजरात के भीषण नरसंहार के बाद महाश्वेता देवी और अपूर्वानंद के के साथ बड़ोदरा गया था। हमारी बैठक में एकाध कलाकार को छोड़कर कोई गुजराती लेखक, विद्वान या कलाकार नहीं आया। माहौल में इस कदर डर व्याप गया था।अब इस पंक्ति और असद जैदी के वक्त्वय को मिलाकर देखें तो एक सोची समझी रणनीति नजर आती है कि किस तरह से इस बात को आगे बढ़ाया जाए कि गुजरात दंगों के बाद सिर्फ एक या दो लेखकों ने इसका विरोध करने की हिम्मत दिखाई थी, इसमें भी अशोक वाजपेयी प्रमुख थे। एशियाई कविता के दौरान इस बात को परोक्ष और कहीं कहीं प्रत्यक्ष रूप से स्थापित करने की ये दयनीय कोशिश दिखती है। दयनीय इस वजह से भी एक जमाने में क्रांति आदि की बात करनेवाले जनवादी कवि को अशोक वाजपेयी का भोपाल गैस कांड के बाद दिया गया संवेदनहीन बयान याद नहीं आता है। हजारों नागरिकों की मौत पर दिया गया वो बयान, मरने वाले के साथ मरा नहीं जाता, असद जैदी को याद नहीं आता। उनको इमरजेंसी एक नॉस्टेल्जिया के तौर पर याद आता है, 1984 का सिख विरोधी दंगा तो याद ही नहीं आता। इमरजेंसी में वामपंथियों का रुख क्या था, इसकी कई बार चर्चा इस स्तंभ में हो चुकी है और उसको दोहराने का कोई अर्थ नहीं है।
2002 के दंगों पर गुजरात के संस्कृतिकर्मियों की खामोशी पर गुजराती के वरिष्ठ साहित्यकार शीतांशु यशश्चंद्र की राय अलहदा है। उनका मानना है कि बहुलतावादी देश में विरोध और समर्थन की पद्धति भी अलग-अलग है। गुजरात का विरोध करने का तरीका उस तरह का नहीं हो सकता है जिस तरह से बंगाल का है। महाराष्ट्र में विरोध का तरीका अलग है और बिहार में अलग। तो ये दुराग्रह उचित नहीं है कि सभी के विरोध का तरीका वही हो जैसा असद जैदी जानते समझते हैं। यहां एक और प्रश्न उठता है कि आप किसके सामने कौन सी बात कर रहे हैं। असद जैदी जहां ये बातें कह रहे थे वहां एशिया के कई देशों के कवि आमंत्रित थे। वो भारत की कैसी छवि लेकर अपने देश में जाएंगे। आप आधारहीन बातें कर रहे हैं, आर पूरे देश को फासीवाद की जकड़न मे बता रहे हैं आप परोक्ष रूप ये कहना चाहते हैं कि यहां अपनी बात कहने में डर लगता है। जबकि स्थिति इसके ठीक उलट है। यहां हर कोई बेखौफ होकर अपनी बात कह रहा है। हर तरह की बात कह रहा है, प्रधानमंत्री से लेकर तमाम मंत्रियों की आलोचना हो रही है। इसी तरह से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के तत्ताकलीन अध्यक्ष की गिरफ्तारी के खिलाफ विदेशों से विद्वानों से एक सामूहिक अपील जारी करवा कर देश के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश की गई थी। नोम चोमस्की, ओरहम पॉमुक समेत दुनिया भर के करीब एक सौ तीस बुद्धिजीवियों ने बयान जारी किया था । उनके बयान के शब्दों से साफ था कि उन्हें किस बात से दिक्कत थी । अमेरिका, कनाडा, यू के समेत कई देशों के प्रोफेसरों ने इस बात पर आपत्ति जताई थी कि भारत की मौजूदा सरकार असहिष्णुता और बहुलतावादी संस्कृति पर हमला कर रही थी । उन्होंने जेएनयू में कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी को शर्मनाक घटना करार दिया था । नोम चोमस्की की प्रतिबद्धता तो सबको मालूम ही है। उनके बयान में लिखा था कि जेएनयू परिसर में कुछ लोगों ने, जिनकी पहचान विश्वविद्यालय के छात्र के तौर पर नहीं हो सकी, कश्मीर में भारतीय सेना की ज्यादतियों के खिलाफ नारेबाजी की थी । नोम चोमस्की को शायद ये ब्रीफ नहीं दिया गया कि वहां भारत की बर्बादी के भी नारे लगाए गए थे। इस अपील को अपने कंधे पर लेकर भारत में शोर मचानेवाले कई चेहरे रजा उत्सव में दिखाई दे रहे थे। स्वार्थ की राजनीति के चक्कर में देश की छवि और साख से भी खेलने में इनको कोई परहेज नहीं है। जिस तरह से साहित्य और संस्कृति के कंधे पर चढ़कर राजनीतिक और व्यक्तिगत हित साधे जा रहे हैं उसकी पहचान आवश्यक है।


Saturday, February 16, 2019

वामपंथ के मंच पर अचूक कलावादी


इन दिनों पूरे देश में चुनाव का माहौल है। राजनीतिक सरगर्मियां तेज हैं। हर दल लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की जुगत में है। गठबंधन और महागठबंधन हो रहे हैं। किसी का साथ छूट रहा है तो किसी का हाथ थामा जा रहा है। एक दूसरे के वैचारिक विरोधी साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ताना-बाना रच रहे हैं। उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी मायावती और अखिलेश ने हाथ मिला लिया है। इसी चुनावी माहौल और सत्ता के लिए हो रहे गठबंधन के दौर में अचानक डाक से एक पुस्तिका प्राप्त हुई। यह पुस्तिका नए साल पर उपहार प्रति के तौर पर हिंदी के चर्चित कवि लेखक अशोक वाजपेयी की तरफ से भेजी गई थी। जब लिफाफा खोलकर पुस्तिका बाहर निकाली तो चौंका। इस महादेश के वैज्ञानिक विकास के लिए प्रगतिशील रचनाओं का मंच पहल पत्रिका की तरफ से प्रकाशित पहल पुस्तिका के कवर पर अशोक वाजपेयी की तस्वीर थी। हैरत से पुस्तिका को पलटा तो बैक कवर पर भी अशोक वाजपेयी की तस्वीर थी।इसके अलावा दोनों इनर कवर पर भी अशोक वाजपेयी की विभिन्न भंगिमाओं की तस्वीर थी। हैरत इस वजह से कि अशोक वाजपेयी पहल पत्रिका के कवर पर कैसे? प्रगतिशील रचनाओं की अनिवार्य पुस्तक होने का दावा करनेवाली इस पत्रिका में कलावादी और सौंदर्यवादी अशोक वाजपेयी कैसे? अशोक वाजपेयी का वामपंथ से विरोध जगजाहिर और पहल पत्रिका की वामपंथ से प्रतिबद्धता भी सबको पता है। मन में यह प्रश्न उठा कि ये गठबंधन कैसे हुआ? क्या राजनीति की तरह साहित्य में भी वैचारिक गठबंधन का दौर शुरू हो गया है।
हिंदी साहित्य जगत ने पहल के संपादक ज्ञानरंजन और अशोक वाजपेयी के बीच वैचारिक विरोध को वैयक्तिक विरोध के स्तर तक पहुंचते देखा है। किसी जमाने में पहल पत्रिका अलग अलग शहर में जाकर पहल सम्मान का आयोजन किया करती थी। करीब डेढ़ दशक पहले ऐसा ही एक आयोजन दिल्ली में भी हुआ था। दिल्ली में हुए पहल के उस आयोजन को लेकर विवाद उठा था। तब ज्ञानरंजन ने मुझसे एक टेलीविजन कार्यक्रम के दौरान अशोक वाजपेयी को काफी बुरा भला कहा था। अशोक वाजपेयी भी वामपंथ पर हमला करने का कोई मौका कभी चूकते नहीं थे। अपने स्तंभ में अशोक वाजपेयी बहुधा वामपंथियों पर तंज कसते थे। एक बार अपने स्तंभ में उन्होंने लिखा था- यो तो इन दिनों दिल्ली का पारा बहुंत ऊंचा चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि मई महीने में तापमान कभी इतना ऊंचा नहीं गया था जितना इस महीने जा चुका है। ऐसे उत्तप्त समय में हमारे प्रगतिशील और जनवादी मित्र तो निश्चय ही अपनी जगजाहिर प्रतिबद्धता के अनुरूप जनसंघर्ष में अपनी हिस्सेदारी तेज करने और कलावादी विचलन पर एक और वार करने की तैयारी कर रहे होंगे। लेकिन मुझ कुख्यात कलावादी को लगभग बेमौसम लेकिन लगातार कलाओं में ही ऊभ-चूभ करने का अवसर मिल रहा है।अपने इसी टिप्पणी के अंत में अशोक जी ने पूछा था- अपने अदम्य और अचूक कलावाद के चलते मैं उसके रसास्वादन में न डूबूं यह कैसे संभव है?’ अपनी इस टिप्पणी में अशोक वाजपेयी अपने को कुख्यात से लेकर अचूक कलावादी तक करार दे रहे हैं लेकिन वामपंथ के वैचारिक ध्वजवाहक ज्ञानरंजन अपनी पत्रिका में इस अचूक कलावादी को अवसर दे रहे हैं। क्या मौजूदा दौर की राजनीति की तरह कहीं कुख्यात कलावादीऔर धुर वामपंथी ने हाथ तो नहीं मिला लिया है। राजनीति में तो सत्ता के लिए बेमेल गठबंधन होते रहे हैं लेकिन साहित्य में किस सत्ता के लिए इस तरह के बेमेल वैचारिक गठबंधन हो रहे हैं ये शोध का विषय हो सकता है।
गठबंधन भी ऐसा कि प्रश्नकर्ता भी वही और उत्तर देनेवाले भी वही। यानि कि इस पुस्तिका में प्रश्न भी अशोक वाजपेयी के हैं और उत्तर भी उनके। इस तरह के आयोजन में उत्तर देनेवाले को असुविधाजनक प्रतिप्रश्नों को नहीं झेलना पड़ता है और अपने बनाए हुए प्रश्नों के आलोक में जितना बड़ा चाहें प्रवचननुमा उत्तर दे सकते हैं। ज्ञानरंजन ने यही अवसर अशोक जी को उपलब्ध करवाया। अशोक वाजपेयी मानते हैं कि यह थोड़ा अटपटा है कि इस दस्तावेज में प्रश्न भी मेरे हैं और उत्तर भी। कोशिश की है कि प्रश्न ऐसे हों जो किसी ना किसी रूप में मुझसे कभी ना कभी पूछे गये हैं या पूछे जाने चाहिए।ज्ञानरंजन को ये बात हिंदी जगत को स्पष्ट करनी चाहिए कि उन्होंने किस राग या फिर किस उद्देश्यपूर्ति के लिए अशोक वाजपेयी को ये अटपटा मौका दिया।
अपने एक प्रश्न के उत्तर में अशोक वाजपेयी ये कहते हैं कि लोकतंत्र को धर्म और जाति ने चांप रखा है। अशोक वाजपेयी बहुपठित व्यक्ति हैं। लगता है आशुतोष वार्ष्णेय की पुस्तक बैटल्स हॉफ वन, इंडियाज इंप्रोबेबल डेमोक्रैसीउनकी नजर से नहीं गुजरी। अपनी इस पुस्तक में आशुतोष ने इस बात को आंकड़ों और उद्धरणों से साबित किया है कि किस तरह से जाति और जातिगत राजनीतिक नेतृत्व ने लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की है। जाति व्यववस्था एक सामाजिक दुर्गुण है इससे किसी को इंकार नहीं है लेकिन लोकतंत्र को चांपने जैसी जिस तरह की शब्दावली का अशोक वाजपेयी उपयोग करते हैं वो उनके जैसे वरिष्ठ और बहुपठित लेखक से अपेक्षित नहीं है। प्रश्नोत्तरी की इस पुस्तिका में कई जगह पर अशोक जी अज्ञानवश या जानबूझकर भारतीय ज्ञान परंपरा को नीचा दिखाने की कोशिश करते नजर आते हैं। एक जगह पर वो कहते हैं कि पूरे भारत में इस वक्त उनको एक भी धर्म विचारक नजर नहीं आता। विचार की धर्मों से विदाई हो चुकी है। अव्वल तो अशोक वाजपेयी को धर्म विचारक की परिभाषा स्पष्ट करनी चाहिए। हर जगह फतवानुमा उत्तर देकर निकल जाते हैं जिससे वो खुद ही सवालों के घेरे में आ जाते हैं। धर्म को लेकर इस वक्त इतना काम हो रहा है जिसपर विचार करने और उसको रेखांकित करने की आवश्यकता है। जब व्यक्ति बुजुर्ग होने लगता है तो वो अतीतजीवी हो जाता है। प्रश्नोत्तरी की इस पुस्तिका में अशोक वाजपेयी अतीतजीवी होने के दोष में जकड़े नजर आते हैं। पुराने जमाने में ये अच्छा था, पुराने जमाने में वो अच्छा था, पहले के पत्रकार इतने अच्छे होते थे, पहले इतने विचारक होते थे आदि आदि। पहले का सब अच्छा और अब सब बुरा। ये सरलीकरण और सामन्यीकरण है।
इस पुस्तिका में अशोक वाजपेयी इस वक्त के चालू मुहावरे भी उठाते हैं जैसे वो गोदी मीडिया जैसे चालू जुमले का प्रयोग करते हैं तो लगता है कि वो एजेंडा विशेष को बढ़ा रहे हैं। वो ये भी कहते हैं कि पिछले चार सालों में सुनियोजित ढंग से संस्कृति-संबंधी राष्ट्रीय संस्थानों का कद हैसियत और व्यापक प्रासंगिकता को घटाया गया है, इस समय हमारे लोकतंत्र के इतिहास में इन सांस्कृतिक संस्थानों के शिखर पर अपने क्षेत्र के सर्वथा अज्ञातकुलशील लगभग बौने लोग नियुक्त किए गए हैं जिनकी पात्रता उनकी संघ वफादारी पर आधारित है। पहले नारायण मेनन, यू आर अनंतमूर्ति, गिरीश कारनाड, नामवर सिंह, जगदीश स्वामीनाथन आदि को जब नियुक्त किया गया था तो उनमें से किसी को भी कांग्रेसी नहीं कहा जा सकता था। यहां तक तो अशोक जी ठीक थे लेकिन क्या वो इस बात की गारंटी ले सकते हैं कि इनमें से कोई वामपंथी नहीं था। शायद वो ये भूल गए कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समर्थन के एवज में कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े मसले वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिए थे। जहां तक संघ वफादारी की बात है तो इस टिप्पणी में भी अशोक वाजपेयी अगर उदाहरण देते तो आगे बात हो सकती थी। इस पुस्तिका में परोक्ष रूप से अशोक वाजपेयी ने वामपंथियों को उदार दृष्टि वाली विचारधारा बताने का प्रयास किया है। प्रश्न है कहा जा रहा है कि संसार भर में उदार और वाम राजनीकि हाशिए पर ढकेल दी गई है एक अनुदार संसार बन रहा है। क्या यह उदार दृष्टि का पराभव है। दिलचस्प और मजेदार यह है कि अशोक वाजपेयी वामपंथ का बचाव करते हैं और कहते हैं कि यह पूरी तरह से सही नहीं है- हमार पड़ोस नेपाल और भूटान में वाम शक्तियां प्रखर हैं। अशोक जी यहां चीन का नाम लेना भूल गए या फिर चतुर सुजान की तरह चीन का नाम नहीं लिया क्योंकि चीन में उदारता तो है नहीं। अगर वो चीन का नाम लेते तो फिर वहां की तानाशाही व्यवस्थाओं का बचाव मुश्किल होता। पाठकों को अशोक वाजपेयी के इस प्रश्नोत्तर के बाद कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा कि ज्ञानरंजन ने उनपर पहल पुस्तिका क्यों निकाली। गैर-वामपंथी अगर वामपंथ का बचाव करेंगे तो संभव है कि कुछ लोग सुन लें। वैसे यह भी संभव है कि पहल जिस वैज्ञानिक विकास और प्रगतिशीलता की बात करता है उसका रास्ता पूंजीवाद से होकर जाता हो। पूंजी के सामने प्रगतिशीलता ने रास्ता बदल लिया हो।  

लहर सा उठा सारे तट धो गया


1942 एक ऐसा वर्ष है जिसने भारत की राजनीति, कला और पत्रकारिता पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। इसी साल अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई का सूत्रपात हुआ जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा बुलंद किया। इसी वर्ष झांसी की ऐतिहासिक धरती से दैनिक जागरण का प्रकाशन का प्रारंभ हुआ और इसी वर्ष प्रयागराज की धरती पर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का जन्म हुआ। कम लोगों को ही ये मालूम है कि अमिताभ बच्चन को उनके जन्म के सामय चंद दिनों के लिए एक नाम मिला था- इंकलाब राय। कुछ ही दिनों बाद हरिवंश राय बच्चन और तेजी को लगा कि उन्हें अपने बेटे का कोई पारंपरिक नाम रखना चाहिए। फिर दोनों ने तय कर अपने पुत्र का नाम इंकलाब राय की जगह अमिताभ रखा । पिछले दिनों अमिताभ बच्चन ने फिल्मों में अपने करियर के पचास साल पूरे किए। अमिताभ बच्चन के पुत्र अभिषेक बच्चन ने इंस्टाग्राम पर और उनकी बेटी श्वेता नंदा ने अपने ट्वीटर अकाउंट पर जब इस बात को साझा किया तो पूरी दुनिया से बॉलीवुड के इस शहंशाह को बधाई देने का सिलसिला शुरू हो गया। अभिषेक बच्चन ने अपनो पोस्ट में अपने पिता को अपना सबसे अच्छा दोस्त, गाइड, सबसे बड़ा आलोचक, अपना आदर्श बताते हुए अंत में कहा कि वो हीरो हैं। अभिषेक के इस पोस्ट को पौने दो लाख से ज्यादा लोगों ने लाइक किया। श्वेता ने ट्वीटर पर एक वीडियो साझा किया जिसमें 1969 से लेकर अबतक के वर्षों को बेहद कलात्मक तरीके से पेश किया।
हिंदी फिल्मों को जिन चंद कलाकारों ने अपने क्राफ्ट से बदला और उसको एक नई दिशा दी उसमें अमिताभ बच्चन का नाम शीर्ष पर लिया जा सकता है। अमिताभ बच्चन की साहित्य में गहरी रुचि थी पर वो उस क्षेत्र में जाना नहीं चाहते थे। स्कूली दिनों से उनके अंदर थिएटर को लेकर गहरा लगाव था। अमिताभ की अभिनय कला को पहचान 1957 में निकोलाई गोगल के नाटक इंस्पेक्टर जनरल में मेयर की भूमिका से मिली। इसमें उनकी भूमिका इतनी दमदार थी कि उन्हें बेस्ट एक्टर के लिए केंडल कप मिला । उनको ये पुरस्कार जेफ्री कैंडल के हाथों मिला था, जो कि खुद ही एक महान अभिनेता थे। शशि कपूर ने उनकी बेटी से विवाह किया था। दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद अमिताभ बच्चन कोलकाता पहुंचे और वहां नौकरी करने लगे। अच्छी नौकरी थी, घर, गाड़ी और मोटी तनख्वाह लेकिन मन अभिनय में अटका हुआ था। कोलकाता में भी नाटकों में काम करने लगे, सराहना मिली। अभिनय के जुनून को देखते हुए उनके भाई अजिताभ ने कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल के सामने उनकी एक तस्वीर खींची फिल्मफेयर-माधुरी की राष्ट्रीय प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में भेज दी। अमिताभ का चयन नहीं हुआ। लेकिन इसी फोटो को देखकर ख्वाजा अहमद अब्बास ने अमिताभ को मिलने के लिए बुला लिया था। सात हिन्दुस्तानी फिल्म मिलने की कहानी की कई बार चर्चा हो चुकी है लेकिन कम ही लोगों को ये पता होगा कि अमिताभ बच्चन को मनोज कुमार ने अपनी फिल्म यादगार में एक रोल ऑफर किया था। छोटा रोल होने की वजह से अमिताभ ने उसमें काम करने से मना कर दिया था। फिल्मों में रोल के लिए अमिताभ बच्चन का मुंबई के रूप तारा स्टूडियो में स्क्रीन टेस्ट भी हुआ था जिसमें भी वो सफल नहीं हो पाए थे। वहां उनको लेखन की ओर जाने की सलाह गई थी। फिर सात हिन्दुस्तानी में रोल मिला। बॉलीवुड में कहा जाता है कि जिसकी पहली फिल्म पिटती है वो बाद में हिंट होता है। अमिताभ के साथ भी यही हुआ। उनकी शुरुआती दस फिल्में पिटीं लेकिन जंजीर की सफलता ने अमिताभ के साथ साथ फिल्मों की भी दुनिया बदल दी।
अमिताभ बच्चन ने भी अपनी जिंदगी में उतार चढ़ाव देखे। सेट पर लगी गंभीर चोट से उबरने में लंबा वक्त लगा। फिर एक दौर आया जब उनकी फिल्में बुरी तरह से पिटने लगीं। उन्होंने एंटरटेनमेंट कंपनी बनाई वो घाटे में चली गई, राजनीति में गए वहां से बेआबरू होकर निकले। उन्होंने टीवी को चुना और कौन बनेगा करोड़पति को होस्ट किया। सफलता एकबार फिर से सदी के महानायक के कदम चूमने लगी। उस दौर में किसी सुपर स्टार के लिए फिल्म को छोड़कर टी वी को चुनना बहुत मुश्किल था लेकिन बिग बी ने ये जोखिम उठाया। फिल्मों और भूमिकाओं के चुनाव में भी सतर्क हुए। अमिताभ बच्चन को बचपन में मुक्केबाजी का शौक था। उनके पिता हरिवंश राय बच्चन ने उनको मुक्केबाजी पर एक किताब दी जिसपर प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि यीट्स की एक पंक्ति लिखी थी- तगड़ा प्रहार दिमाग के लिए बेहद आनंददायी होता है। संभव है बचपन में पिता से मिली इस सीख की वजह से हर मुश्किल को आनंदपूर्वक झेलते चले गए। प्रसून जोशी ने अमिताभ बच्चन पर एक कविता लिखी है जिसकी अंतिम पंक्ति है लहर सा उठा सारे तट धो गया।सचमुच।    

कैबरे देखने की हसरत रह गई


भगवानदास मोरवाल अपने दौर के सबसे चर्चित उपन्यासकारों में से एक हैं। मेवात के नूंह कस्बे के एक गरीब परिवार में जन्मे मोरवाल आज से करीब चालीस साल पहले दिल्ली आए और यहीं के होकर रह गए। पिछले दिनों प्रकाशित उनका उपन्यास हालाला खासा चर्चित रहा थाअभी हाल ही में उनका उपन्यास सुर बंजारन प्रकाशित हुआ है जो पाठकों को खूब पसंद आ रहा है। उ्न्होंने मेरे साथ अपने अनुभवों को साझा किया। 

दिल्ली के बारे में सोचने पर मेरी स्मृतियों में आज से लगभग चालीस साल पुराने असंख्य रेखाचित्र उभर आते हैं। एकदम अल्हड़ खुली सड़कें, दिल्ली परिवहन निगम की बसें, हर इलाके के सिनेमाघरों में चलने वाली फिल्मों के बिजली के खम्बों पर लटके पोस्टर l उन्नीस सौ अस्सी के एकदम शुरूआती दिनों में जब इसी दिल्ली के नारायणा विहार आया तो सबसे आकर्षण का केंद्र होता था रिंग रोड पर बना उमा रेस्टोरेंट और लिंडा रेस्टोंरेंट जहां कैबरे डांस हुआ करते थे। जब तक मैं नारायणा रहा उमा रेस्टोरेंट में होने वाले कैबरे डांस को देखने की चाह बनी रही l मगर यह कभी पूरी नहीं हो पाईl यह वही नारायणा है जहाँ ठीक उसके सामने बसे केंट इलाके में अपने सैनिकों के लिए कभी खुले सिनेमा घर हुए करते थे l इन सिनेमा घरों में देखी गयी जनता हवलदार और उमराव जान  फिल्मों के दृश्य आज भी दिमाग में ताजा हैं
उन्हीं दिनों दिल्ली में साहित्यिक गोष्ठियों के अनेक केंद्र थे l मंडी हाउस एक तरफ़ जहाँ गंभीर नाटकों के मंचन के केंद्र के रूप में जाना जाता था, तो दूसरी तरफ़ पंजाबी के द्विअर्थी हास्य नाटकों के मंचनों के लिए भी प्रसिद्ध था। इनमें जीजा दी हाँ, साली दी ना, कुड़ी जवान, ते मुंडा परेशान  जैसे नाटक उस दौर में बड़े लोकप्रिय थे l साहित्यिक गोष्ठियों के अलावा उन दिनों दिल्ली में कुछ ठीहे भी होते थे, जहां लेखक बैठकी जमाते थे। इनमें कनाट प्लेस का मोहन सिंह प्लेस स्थित कॉफ़ी हाउस तो था ही, श्रीराम सेंटर की केंटीन भी थी, जहां लंबे समय तक एक पुस्तक की दुकान भी होती थी।इस दुकान पर तमाम लघु पत्रिकाएं मिला करती थीं जो साहित्य रसिकों के लिए आकर्षण का केंद्र होती थी। एक छोटा-सा ठीहा और होता थाब्रज मोहन की दुकान l मद्रास होटल के पीछे हिंदी के युवा कथाकार और जनवादी गीतकार ब्रज मोहन की फोटो स्टेट की इस दुकान पर हंसराज रहबर, कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह जैसे दिग्गज लेखख समेत अनेक नये-पुराने लेखक आते थे l प्रत्येक शनिवार को यहां अच्छा-ख़ासा जमघट लग जाता था, जो बाद में कॉफी हाउस तक पहुंचता था।
दिल्ली की कई प्रिय-अप्रिय घटनाओं का मैं गवाह रहा हूँ l मैंने 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों में इस दिल्ली को धधकते हुए देखा हैl चांदनी चौक की उन्मादी भीड़ द्वारा लूटी जानेवाली दुकानों और पालम इलाके में हुई हत्याओं ने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया था।  जिस मोहन सिंह प्लेस के कॉफ़ी हाउस में विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी, रमाकांत, अरुण प्रकाश जैसे लेखकों की बहसें देखी हैं, वही कॉफ़ी हाउस आज लेखकों की बाट जोहता है l वही कॉफ़ी हाउस जिसकी आवारा मेज़-कुर्सियों पर गरमागरम चाय और कॉफ़ी के प्यालों की चुस्कियों ने न जाने कितनों को लेखक बनाया है, उसकी वीरानी अब देखी नहीं जातीl एक लेखक के तौर पर अगर दरियागंज के प्रकाशन की दुनिया का ज़िक्र न करूँ तो यह क़िस्सा-ए-दिल्ली अधूरी रह जाएगी l प्रकाशन की दुनिया में आज जो आकर्षण हिंदी के छोटे-बड़े, ख्यात-विख्यात लेखकों में राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन के प्रति है, वह ठीक चार दशक पूर्व भी था l कहने का आशय यह है कि दिल्ली समय के साथ बड़ी तेज़ी से अपना रंग बदलती रही है l आज बहुत से लेखक जो लेखक बनने का दम भरते हैं इसी दिल्ली ने बनाए हैं l ग़ालिब इस दिल्ली पर ऐसे ही न्योछावर नहीं रहता था l

Saturday, February 9, 2019

हिंदी उपन्यास पर बाजार का प्रभाव !


हिंदी में उपन्यास अपेक्षाकृत नई विधा है। हिंदी साहित्य में तो उपन्यास का जन्म ही आधुनिक काल में हुआ, बल्कि कह सकते हैं कि विश्व की अन्य भाषाओं में भी उपन्यास का आगमन बहुत बाद में हुआ। मार्क्सवादी आलोचक राल्फ फॉक्स ने अपनी मशहूर कृति द नॉवेल एंड द पीपल में माना है कि उपन्यास का एक विधा के तौर पर अविर्भाव यूरोपीय पुनर्जागरण के दौर या उसके फौरन बाद हुआ। उपन्यास का आगमन हिंदी की जमीन पर बाद में हुआ अवश्य लेकिन ये एक महत्वपूर्ण और मजबूत विधा के रूप में स्थापित हुई। हलांकि मार्क्सवादी आलोचकों ने जब उपन्यास विधा पर विचार किया को तो वो भारतीय परंपरा पर विचार करने से चूक गए। उपन्यास भारतीय प्राचीन कथा परंपरा का विकास है। संस्कृत के हितोपदेश में इस विधा के बीज देखे जा सकते हैं। यह बात तो अब विदेशी विद्वान भी स्वीकार करने लगे हैं कि हितोपदेश की परंपरा में ही अलिफ लैला या फिर ईस्पस फेबिल्स लिखे गए। उपन्यास को लेकर देश-दुनिया में बहुत सी परिभाषाएं गढ़ी गईं लेकिन अबतक उपन्यास का फॉर्म निश्चित नहीं किया जा सका। हिंदी में ही देखें तो अबतक इसको लेकर आलोचकों में मतैक्य का अभाव दिखता है। अज्ञेय ने अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य में लिखा है समकालीन साहित्य-विधाओं में उपन्यास शायद सबसे अधिक विशिष्ट और महत्वपूर्ण है। यह भी इसकी विशेषता है कि इसकी परिभाषा इतनी कठिन है। किसी ने कहा है कि उपन्यास की सबसे अच्छी परिभाषा उपन्यास का इतिहास है। इस उक्ति में गहरा सत्य है। अज्ञेय के अलावा भी कई हिंदी के आलोचकों ने कमोबेश उपन्यास को लेकर इसी तरह के विचार प्रकट किए हैं। अगर हम पिछले तीन दशक में प्रकाशित उपन्यासों पर नजर डाले तो अज्ञेय के उपरोक्त कथन की पुष्टि होती है। इस कालवधि में सबसे पहले उन्नीस सौ तिरानवे में सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास मुझे चांद चाहिए प्रकाशित हुआ जो करीब छह सौ पृष्ठों का था। सुरेन्द्र वर्मा का ये उपन्यास जबरदस्त रूप से सफल रहा। इसके धड़ाधड़ कई संस्करण प्रकाशित हो गए। उस कृति पर उनको साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिल गया। उसके बाद तो हिंदी में मोटे उपन्यास लिखे जाने लगे। उन्नीस सौ सत्तानवे में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास चाक का प्रकाशन हुआ जिसकी कथा भी चार सौ छत्तीस पृष्ठों में फैली थी। चाक ने मैत्रेयी पुष्पा को ना केवल साहित्य में नामवर बनाया बल्कि उन्हें एक उपन्यासकार के तौर पर स्थापित भी किया। ये उपन्यास भी खूब बिका और पाठकों और आलोचकों को पसंद भी आया।भगवानदास मोरवाल का उपन्यासकाला पहाड़ उन्नीस सौ निन्यानवे में आया जो चार सौ छियासठ पेज का है। उनका ही दूसरा उपन्यास पांच वर्षों बाद प्रकाशित हुआ बाबल तेरा देस में। इस उपन्यास की पृष्ठ संख्या चार सौ चौरासी है। भगवानदास मोरवाल के दूसरे उपन्यास के पहले चित्रा मुद्गल का उपन्यास आवां का प्रकाशन दो हजार एक में हुआ जिसकी पृष्ठ संख्या पांच सौ चौवालीस है। भगवानदास मोरवाल का उपन्यास काला पहाड़ भी बेहद चर्चित हुआ और चित्रा मुद्गल के उपन्यास आवां ने भी खूब प्रशंसा बटोरी। दो हजार तीन में में अमरकान्त का भी भारी भरकम उपन्यास इन्हीं हथियारों से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में पांच सौ पैंतीस पेज हैं। असगर वजाहत का उपन्यास कैसी आग लगाई भी इसी दौर में प्रकाशित हुआ जो भी मोटे उपन्यास की श्रेणी में ही था। ये कुछ नाम हैं जिससे ये पता चलता है कि वो दौर भारी भरकम उपन्यासों का था। बाद में इनमें से ज्यादातर लेखकों के उपन्यासों के पृष्ठ संख्या कम होते चले गए। चित्रा मुद्गल ने आवां के बाद जो उपन्यास लिखा गिलिगडु वो अपेक्षाकृत पतला था, इसी तरह से असगर वजाहत का उपन्यास पहर दोपहर आया वो भी अपने पूर्ववर्ती उपन्यास से आकार में काफी छोटा था। भगवानदास मोरवाल के उपन्यासों की पृष्ठ संख्या भी कम होती चली गई। किसी भी हिंदी के आलोचक ने इस ओर ध्यान दिया, ऐसा ज्ञात नहीं है। क्या वजह रही कि उपन्यास मोटे हुए और फिर वो पतले होते चले गए।
जनवरी में दिल्ली में समाप्त हुए विश्व पुस्तक मेले में मेरी नजर से कई उपन्यास गुजरे जो दो सौ से कम पृष्ठों के हैं। सोशल मीडिया पर प्रशंसा बटोर रहा मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास मल्लिका एक सौ साठ पृष्ठों का है। यह उपन्यास भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रेमिका मल्लिका के जीवन पर आधारित है। इस उपन्यास में कथा विस्तार की असीम संभवनाएं थीं लेकिन फिर भी इसको एक सौ साठ पृष्ठों में समेट दिया गया लेकिन इसकी कथा पर कोई फर्क पड़ा ऐसा नहीं है। इसी तरह युवा कथाकार कवि उमा शंकर चौधरी का पहला उपन्यास अंधेरा कोना विश्व पुस्तक मेला में जारी किया गया। यह उपन्यास भी पौने दो सौ पृष्ठों का है। कथाकार प्रत्यक्षा का उपन्यास बारिशगर भी एक सौ छिहत्तर पेज का है। अनु सिंह चौधरी का पहला उपन्यास आया है भली लड़कियां बुरी लड़कियां वो भी एक सौ छिहत्तर पेज का है। अब ज्यादातर उपन्यास दो सौ पेज या उससे कम के आ रहे हैं। तीन साल पहले रत्नेश्वर सिंह का चर्चित उपन्यास रेखना मेरी जान का प्रकाशन हुआ था वो भी एक सौ इकहत्तर पेज का था। पिछले दस सालों में ऐसा क्या हुआ कि हिंदी के उपन्यासों की पृष्ठ संख्या घटकर आधी से भी कम हो गई। क्या पाठकों की रुचि में बदलाव आया है? क्या बाजार का दबाव है? या फिर लेखकों का अनुभव सिमट गया है? इनपर विचार करना चाहिए।
उपन्यासकार भगनावदास मोरवाल को इसमें अलग ही वजह नजर आती है। वो ये तो मानते हैं कि लेखकों के पास जैसे जैसे अनुभवों की जमीन सूखती जाती है वैसे वैसे कथा विस्तार कम होता चला जाता है। वो जोर देकर यह भी कहते हैं कि हिंदी के उपन्यासों की पृष्ठ संख्या कम होने के पीछे आलोचकों की काहिली भी है। उनका तर्क है कि आलोचक अब मोटे उपन्यास पढ़ना नहीं चाहते हैं। अगर उनके सामने मोटे उपन्यास आएंगें तो उनको विश्लेषण करने के लिए ज्यादा पढ़ना और मेहनत करना होगा, जो हिंदी के आलोचक करना नहीं चाहते हैं तो उन्होंने परोक्ष रूप से मोटे उपन्यास का शोर मचा दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि उपन्यासकार जब लिखने बैठने लगे तो उनके मन में अपनी कृति के आकार को लेकर पहले से एक चौहद्दी खिंची रहने लगी। उपन्यासकार मोरवाल दूर की कौड़ी लेकर आए हैं लेकिन ये कौड़ी दिलचस्प है। अगर इस बात में सचाई है तो क्या ये माना जाए कि आलोचकों के दबाव में हिंदी के उपन्यासकार वांछित कथा विस्तार में भी कांट-छांट कर देते हैं। हिंदी उपन्यासों के आकार छोटे होने की वजहों पर बात करें तो मुझे इसके पीछे दो तीन कारण नजर आते हैं। पहला तो लेखक के अनुभव संसार का छीजना या अनुभव भंडार का कम होना। लेखक अपने प्रत्यक्ष अनुभवों को संकलित करता चलता है, एक ही घटना का प्रभाव अलग अलग लेखकों पर अलग अलग तरीके से पड़ता है। जब वो लिखने बैठता है तो उसको ही पन्नों पर उतारता चलता है जिसकी वजह से एक घटना पर आधारित होने की वजह से कृतियां अलग अलग रूप में आती हैं। दूसरा कि बाजार का दबाव जिसमें प्रकाशकों का आग्रह भी शामिल है। यह बात अब सभी कह रहे हैं कि युवा पाठकों के पास अब इतना समय नहीं है कि वो मोटे-मोटे उपन्यास पढ़ सकें तो बहुत संभव है कि अब लेखक, पाठकों की इस रुचि का ध्यान रखते हुए पतले उपन्यास लिख रहे हों। लेकिन अगर ऐसा है तो ये विधा के साथ न्याय नहीं है। रचनात्मकता अपना विस्तार या सीमा खुद तय करती है, बाजार या पाठकों की रुचि उसको तय नहीं कर सकती है। विलियम फॉकनर ने कहा था कि वो जब कोई किताब लिखते हैं तो उसके पात्र खुद खड़े हो जाते हैं और फिर वही तय करते हैं कि उनको कौन सा रूप मिलेगा और उनका अंजाम क्या होगा।अगर बाजार के दबाव में कोई कृति लिखी जा रही है तो बहुत संभव है कि एक लंबे कालखंड़ के बाद उसकी प्रवृत्ति और प्रकृति दोनों बदल जाए। कम पृष्ठ संख्या के उपन्यासों के प्रकाशन के पीछे प्रकाशकों की ये सोच हो सकती है कि अगर पुस्तक कम पृष्ठों की होगी तो उसका मूल्य कम होगा और मूल्य कम होने की वजह से उसकी बिक्री ज्यादा हो। हिंदी में उपन्यास पर बहुत कम काम हुआ है। लेखों को एक जगह जमा कर आलोचना की पुस्तकें बना ली गई हैं, विचारधारा के ध्वजवाहकों ने ऐसे लेखकों को आलोचक का तमगा भी दे दिया है लेकिन उपन्यासों पर, उसके बदलते फॉर्म पर, उसके आकार-प्रकार पर, उपन्यासों की बदलती कथा प्रविधि पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अब वक्त आ गया है कि हिंदी में भी इस तरह के विषयों पर अध्ययन, चिंतन, मनन और लेखन हो।     

Monday, February 4, 2019

संतों घर में झगड़ा भारी !


साहित्य के बाजारीकरण के विरुद्ध राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ की पहल का उद्घोष करते हुए पिछले साल से समानांतर साहित्य उत्सव की शुरुआत जयपुर में हुई। ये उन्हीं तिथियों में आयोजित किया जाता है जब दुनियाभर में मशहूर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन होता है। इसकी स्थापना के पीछे जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन के तौर तरीकों का विरोध भी था। इस समानांतर साहित्य महोत्सव में ज्यादातर उन्हीं लेखकों को बुलाया जाता है जो कथित तौर पर प्रगतिशील होते हैं।ज्यादातर वही लेखक वहां आमंत्रित किए जाते हैं जो प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य होते हैं। कुछ बाहर के भी होते हैं। जयपुर की एक संस्था भी कुछ लेखकों के नाम सुझाती हैं और उनको भी आमंत्रित किया जाता है। प्रगतिशीलता का ढोल इतना पीटा जाता है कि इस आयोजन के सर्वेसर्वा और राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव अपने फेसबुक पोस्ट में हुंकार भरते हैं कि पीएलएफ (पैरेलल लिटरेचर फेस्टिवल यानि समानांतर साहित्य उत्सव) में ना तो कोई दक्षिणपंथी आया और न ही कोई ऐसा लेखक जिसने दूसरे की किताबें अपने नाम से छपवा लीं हों। ये पोस्ट 29 जनवरी को लिखा गया। अब ये समझने की बात है कि ऐसा क्यों कहा गया। दरअसल इसकी पृष्ठभूमि में एक ऐसा फैसला है जो प्रगतिशीलता पर सवाल खड़ा करती है। राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव ईश मधु तलवार के मुताबिक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर मकरंद परांजपे को समानांतर साहित्य उत्सव की सहयोगी संस्था काव्या ने आमंत्रित किया था। जब उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने पीएलएफ को इससे अलग कर लिया। लेकिन काव्या ने उसी परिसर में मकरंद का कार्यक्रम आयोजित किया जहां समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल हो रहा था। तलवार का कहना है कि मकरंद और काव्या के कार्यक्रम से उनका कोई लेना देना नहीं है और समानांतर साहित्य उत्सव का बैनर भी इस कार्यक्रम में नहीं लगाया गया। पर मंच वही, स्थान वही। समानांतर साहित्य उत्सव के दौरान प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारिणी की बैठक हुई। उस बैठक में मकरंद परांजपे को आमंत्रित करने का मुद्दा उठा। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर की बेटी और लेखिका नूर जहीर ने मकरंद को बुलाने का जोरदार विरोध किया। बैठक में उन्होंने बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से लेकर पादरी ग्राहम स्टैंस की हत्या पर मकरंद के स्टैंड को रखा और कहा कि वो संघी हैं लिहाजा उनको यहां नहीं बुलाया जाना चाहिए। कार्यकारिणी के कुछ सदस्यों ने मकरंद परांजपे को मध्यमार्गी बताते हुए अपने तर्क रखे लेकिन उनकी सुनी नहीं गई। कार्यकारिणी की बैठक में मकरंद को नहीं बुलाए जाने का फैसला हुआ। अब नूर जहीर साहिबा को कौन समझाए कि जब सज्जद जहीर ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की थी तो उसके चार्टर में अस्पृश्यता नहीं था। जिसे बाद में इस संगठन ने अपनाया। अब ये कैसी प्रगतिशीलता है जो अपने से इतर विचारधारा के लोगों को अछूत मानती है, उनके साथ मंच साझा नहीं करना चाहती है। समानांतर साहित्य महोत्सव के आयोजक भले ही ये दावा करें लेकिन उन्होंने उदय प्रकाश को तो आमंत्रित किया, उनके सत्र भी हुए। शायद वो ये भूल गए हों कि उदय प्रकाश ने योगी आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार ग्रहण किया था। उस वक्त भी योगी आदित्यनाथ के हाथों उदय प्रकाश के पुरस्कार लेने की काफी चर्चा हुई थी, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। इसके अलावा भी समानांतर साहित्य उत्सव में कई ऐसे लेखक नजर आए जो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भी होते थे और वहां भी। भोजन और रसरंजन जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में और भाषण और क्रांति समानांतर साहित्य उत्सव में। ना तो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों को कोई परहेज है और ना ही समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों को। बाजार का साथ भी और बाजार का विरोध भी। इसे ही कहते हैं विरुद्धों का सामंजस्य। पिछले साल तक तो इस आयोजन से एक ऐसा शख्स जुड़ा था जिसने लेखिकाओं के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां कीं थी। बावजूद इसके उन महोदय को आयोजन समिति में रखा गया था। तब भी प्रगतिशीलता पर सवाल उठे थे लेकिन महिला हितों का नारा बुलंद करनेवाले लेखक और लेखिकाएं आयोजन में शामिल हुए थे।
27 जनवरी को राजस्थान जनवादी लेखक संघ(जलेस) ने एक बयान जारी किया समानांतर साहित्य उत्सव, जिसका आयोजन प्रगतिशील मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध प्रगतिशील लेखक संघ की राजस्थान इकाई कर रही है, में प्रोफेसर मकरंद परांजपे की उपस्थिति की कार्यक्रम में घोषणा हमें हतप्रभ करती है.जनवादी लेखक संघ की यद्यपि इस कार्यक्रम में सांगठनिक व वैचारिक साझेदारी नहीं है,परन्तु प्रगतिशील लेखक संघ जिन मूल्यों और विचारों के प्रति प्रतिबद्ध है, उनका समर्थन जलेस सदैव करता रहा है. मकरंद परांजपे की विचारधारा न केवल दक्षिणपंथी है, अपितु उसमें साम्प्रदायिकता और दक्षिणपंथ के विभिन्न पक्षों का समन्वय दिखता है. जेएनयू दिल्ली में राष्ट्रवाद पर उनकी संकीर्ण मानसिक दृष्टि को सब जानते हैं. ऐसी विचारधारा के समर्थकों का प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रम में भाग लेना और भाग लेने के लिए प्रलेस के द्वारा निमंत्रण देना दुर्भाग्यपूर्ण और पूर्णतः निराश करने वाला है, क्योंकि साम्प्रदायिकता के साथ कोई समझौता नहीं का विचार जलेस की वैचारिकी का केंद्रबिंदु है और जलेस इस वैचारिकी में प्रलेस को अपना सहयोगी मानता है। ये सब चल ही रहा था कि जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष असगर वजाहत समानांतर साहित्य महोत्सव में शामिल होने के लिए जयपुर पहुंच गए। उनपर दबाव बनना शुरू हो गया और सुबह होते होते उनकी तबीयत इतनी खराब हो गई कि वो साहित्य उत्सव में शामिल हुए बगैर जयपुर से वापस लौट आए। अगर समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल में होनेवाली चर्चा को मानें तो कहा जा सकता है कि जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने प्रगतिशील लेखक संघ के इस आयोजन का बहिष्कार कर दिया। इसी तरह से जनवादी लेखक संघ से जुड़े कुछ अन्य लेखकों ने भी समानांतर साहित्य उत्सव से अपना नाम वापस ले लिया। साहित्यिक आयोजनों का बहिष्कार करने की ये प्रवृत्ति दरअसल वैचारिक विनिमय के राह की सबसे बड़ी बाधा है। जबतक आप एक दूसरे के विचारों को सुनेंगे और समझेंगे नहीं तब तक तो अपने-अपने घेरे में रहकर खुद को ही श्रेष्ठ मानते रहेंगे। यही श्रेष्ठता बोध किसी भी विचार को फैलने से रोकती है, उसकी स्वीकार्यता को बाधित करती है। मार्क्सवादियों के साथ यही हो रहा है। अगर इसी तरह से चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मार्क्सवाद किताबों में रह जाएगा।
मकरंद परांजपे तो एक वजह बने लेकिन इस पूरे प्रकरण के पीछे की बड़ी वजह प्रगतिशील और जनवादी लेखक संघ की प्रतिद्विंता है। आपस का झगड़ा है। वर्चस्व की लड़ाई है। प्रगितशील लेखक संघ ने जब पिछले साल जयपुर में समानांतर साहित्य उत्सव का एलान किया था तब भी जनवादी लेखक संघ ने उस आयोजन का विरोध किया था। विरोध यहां तक बढ़ा था कि जनवादी लेखक संघ ने समानांतर के समानांतर एक साहित्यिक आयोजन कर दिया था। जनवादी लेखक संघ के उस आयोजन को ज्यादा तवज्जो नहीं मिली, ना तो लेखकों की और ना तो जन की। जिसकी वजह से जनवादी लेखक संघ इस वर्ष वो आयोजन कर नहीं पाया। प्रगतिशील लेखक संघ ने पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष ज्यादा बड़ा आयोजन कर लिया, ज्यादा लेखक जुटा लिए। जनवादी लेखक संघ पिछड़ गया। जनवादी लेखक संघ अपनी इस पराजय को पचा नहीं पा रहा है और अपनी सहोदर विचारधारा वाले उन लेखकों को ही कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया जो समानांतर साहित्य उत्सव में शामिल होने गए । असगर वजाहत जैसे बड़े कद के लेखक भी इस राजनीति में शामिल हो गए। लेखक संघों के बीच ये झगड़ा होता इस वजह से है कि इनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व या स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। इन सभी वामपंथी लेखक संगठनों को अपने पितृ-संगठन या संबद्ध राजनीतिक दल का मुंह जोहना पड़ता है। प्रगतिशील लेखक संघ वही करता है तो सीपीआई कहती करती है, जनवादी लेखक संघ उसी रास्ते पर चलता है जिसपर चलने का हुक्म उनको सीपीएम से मिलता है। जन संस्कृति मंच वही राह चुनता है जिसकी ओर जाने का आदेश उसको सीपीआई एमएल से मिलता है। जिन राजनीतिक दलों से ये लेखक संघठन नाभि-नालबद्ध हैं उनके हित अलग अलग हैं। राजनीतिक दलों के हितों का टकराव साहित्यिक आयोजनों पर दिखता है। जयपुर के समानांतर साहित्य उत्सव के आयोजन में हितों का ये टकराव खुलकर सामने आ गया। अंत में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के ऑथर्स लॉंज में सुनी एक बात- समानांतर लिटरेचर फेस्टिवल में मंच पर बैठे कई लेखक हसरत भरी निगाहों से दिग्गी पैसेल की ओर देखते हैं और मन ही मन कहते हैं हाय हुसैन हम ना हुए।